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________________ १९२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, २३. एदेसि तिहं गुणट्ठाणाणं सत्तमाए पुढवीए मारणंतिय-उववादपदा णस्थि । सेसपंच. पदट्टिएहि तिण्णिगुणट्ठाणजीवेहि तीदाणागदवट्टमाणकालेसु चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कारणं पुवं व वत्तव्वं । तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, ओघं ॥२३॥ सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदेहि मिच्छादिट्ठीहि तीदाणागदवट्टमाणकालेसु सव्वलोगो फोसिदो। विहारवदिसत्थाणपरिणदेहि तीदाणागदवट्टमाणकालेसु तिष्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो फोसिदो । असंखेज्जेसु समुद्देसु तसजीवविरहिदेसु कधं विहारवदिसत्थाणपरिणदाणं तिरिक्खाणं संभवो ? ण तत्थ पुबवेरियदेवाणं पयोगदो विहारविरोहाभावादो। अदीदकाले विहरंततिरिक्खेहि छुत्तखेत्तायणविहाणं वुच्चदे-पुबवेरियदेवपयोगादो उवरि जोयणलक्खं इन तीनों ही गुणस्थानवर्ती जीवोंके सातवीं पृथिवीमें मारणान्तिक और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं। शेष स्वस्थानादि पांच पदोंपर विद्यमान उक्त तीन गुणस्थानवर्ती प्रतीत अनागत और वर्तमान, इन तीनों कालाम सामान्यलोक आदि चार लोकाका असंख्यातवां भाग और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इसका कारण पूर्वके समान ही कहना चाहिए। तियंचगतिमें तियंचोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ओषके समान सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ २३॥ स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत मिथ्याष्टि तिर्यंच जीवोंने भूत, भविष्य और वर्तमान, इन तीनों कालोंमें सर्वलोक स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थानसे परिणत तिथंच मिथ्यादृष्टि जीवोंने अतीत, अनागत और वर्तमान इन तीनों कालोंमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातव भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। __ शंका- त्रस जीवोंसे विरहित असंख्यात समुद्रों में विहारवत्स्वस्थानसे परिणत हुए तिर्यचोंका अस्तित्व कैसे संभव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, पूर्वभवके वैरी देवोंके प्रयोगसे विहार होने में कोई विरोध नहीं है। और इसलिए वहां पर उनका अस्तित्व भी संभव है। ___अब अतीतकालमें विहार करनेवाले तिर्यचोंसे स्पर्श किये गए क्षेत्रके निकालनेके विधानको कहते हैं-पूर्वभवके वैरी देवोंके प्रयोगसे चित्रा पृथिवीसे ऊपर एक लाख योजन १ तिर्यग्गतौ तिरश्च तिर्यग्मिध्यादृष्टिभिः सर्वलोकः स्पृष्टः । स. सि. १,८. २ आ प्रतौ' खुत्त ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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