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१८०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ५, ३१४. देसूणं मिच्छत्तेण परियट्टिय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे सम्मत्तं घेत्तूण अणंताणुबंधी विसंजोइय विस्समिय दंसणमोहं खविय पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं करिय अधापमत्तकरणं काऊण अपुरो अणियट्टी सुहुमो खीणो सजोगी अजोगी होदण सिद्धो जादो। जादं देसूणमद्धपोग्गलपरियढें ।
सासणसम्मादिद्विप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥३१॥ कुदो ? सासणादीणं भवियत्तं मोत्तूण अण्णस्सासंभवा ।
अभवसिद्धिया केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ३१५॥
कुदो ? अव्वयत्तादो । एगजीवं पडुच्च अणादिओ अपज्जवसिदों॥ ३१६॥ कुदो ? मिच्छत्तं मोत्तूण तस्स गुणंतरगमणाभावा ।
एवं भवियमग्गणा समत्ता।
अन्तर्मुहूर्तमात्र संसारके शेष रहने पर सम्यक्त्वको ग्रहण करके, पुनः अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करके, पश्चात् विश्राम ले, दर्शनमोहको क्षपण कर, प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानसम्बन्धी सहस्रों परिवर्तनोंको करके, अधःप्रवृत्तकरण कर, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसाम्पराय, क्षीणकषाय, सयोगी और अयोगी हो करके सिद्ध होगया। इस प्रकारसे देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल सिद्ध हुआ।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली तकका काल ओघके समान है ॥ ३१४॥
क्योंकि, सासादनादि गुणस्थानवी जीवोंके भव्यत्वको छोड़कर अन्यका होना, अर्थात् अभव्यपना, असंभव है।
अभव्यसिद्ध जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ३१५॥
क्योंकि, अभव्य जीवोंका व्यय ही नहीं होता। एक जीवकी अपेक्षा अभव्योंका अनादि और अनन्त काल है ।। ३१६ ॥ क्योंकि, मिथ्यात्वको छोड़कर अभव्यके अन्य गुणस्थानमें जानेका अभाव है।
. इस प्रकार भव्यमार्गणा समाप्त हुई ।
१सासादनसम्यग्दृष्टयाद्ययोगकेवल्यन्तान सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८. २ अभव्यानामनाद्यपर्यवसानः । स. सि. १, ८.
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