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________________ ५.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, ४. रज्जुआयाम-सोलहवारह-सोलहवारहजोयणवाहल्लेण दोसु वि पासेसु द्विदवादखेत्ते जग पदरपमाणेण कदे चउसद्विसदजोयणूण-अट्ठारहसहस्सजोयणाणं तेदालीस-तिसदभागवाहल्लं जगपदरं उप्पज्जदि १५४३६ । पुणो सत्तभागाहिय-छरज्जुमूलविक्खंभेण छरज्जुउस्सेधेण एगरज्जुमुहेण सोलह-वारहजोयणबाहल्लेण दोसु वि पासेसु द्विदवादखेत्तं जगपदरपमाणेण कदे वादालीसजोयणसदस्स तेदालीस-तिसदभागबाहल्लं जगपदरं होदि ४२११ ।' पुणो एगपंच-एगरज्जुविक्खंभेण सत्तरज्जुउस्सेधेण वारह-सोलह-वारहजोयणबाहल्लेण उवरिमदोसु पुनः उत्तर और दक्षिणमें पूर्व से पश्चिमतक सात राजु विष्कंभरूपसे, सातवीं पृथिवीके तलभागसे लोकान्ततक तेरह राजु आयामरूपसे और अधोलोककी अपेक्षा सोलह, बारह और ऊर्ध्वलोककी अपेक्षा सोलह बारह योजन बाहल्यरूपसे दोनों ही पार्श्वभागोंमें स्थित वातक्षेत्रको जगप्रतररूपसे करनेपर एकसौ चौसठ योजन कम अठारह हजार योजनोंके तीनसौ तेतालीसवें भागप्रमाण बाहल्यरूप जगप्रतर होता है। उदाहरण-१३ ४७ = ९१, ९१ x १४ = १२७४ १२७४ ४ २ = २५४८ । इसे जगप्रतररूपसे करनेके लिये सातसे गुणा करे और तीन सौ तेतालीस का भाग दे, तब १७८३६ . योजन मोटा जगप्रतर आता है। यह उत्तर और दक्षिणमें सातवीं पृथिवीसे ३४३ लेकर लोकान्ततक वातरुद्ध क्षेत्रका घनफल होता है। पुनः पूर्व और पश्चिम दिशामें सातवीं पृथिवीके पास एक राजुके सातवें भाग अधिक छह राजुप्रमाण मूलमें विष्कभरूपसे छह राजु उत्सेधरूपसे, मध्यलोकके पास एकराजु मुखरूप से और सोलह, बारह योजनप्रमाण बाहल्यरूपसे दोनों ही पाश्चों में स्थित वात. क्षेत्रको जगप्रतरप्रमाणसे करनेपर व्यालीससौ योजनोंके तीनसौ तेतालीसवें भागप्रमाण वाहल्यरूप जगप्रतर होता है। उदाहरण- ४३ + ५ - ५० , ५० . २ - ५०, ५० , २ . ५० . ५० x १४ = ७०० , ०० x ६ = ४२०० , इसे जगातररूपसे करनेपर ४९ का भाग देनेसे ४२०० योजनोंके जितने प्रदेश हो उतने जगप्रतर लब्ध आ जाते हैं। पूर्व और पश्चिममें सातवीं पृथिवीसे मध्यलोकतक वायुरुद्ध क्षेत्रका यही घनफल है। पुनः मध्यलोकके पास एकराजु । ब्रह्मलोकके पास पांचराजु और लोकान्त में एक राजु विष्कंभरूपसे, सात राजु उत्सेधरूपसे तथा, बारह, सोलह और बारह योजनप्रमाण बाहल्य ३४३ १ उदयं भूमुह बेहो छरजु सत्तमछरज्ज रज्जू य । जोयण चोदस सत्तमतिरियो ति हु दक्खिणुत्तरदो ॥ तस्थाणिलखेतफलं उभये पासम्मि होइ जगपदरं । छस्सयजोयणगुणदं पविभत्तं सत्तवग्गे ग त्रि. सा. १३४, १३५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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