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________________ १, ४, ५५.] फोसणाणुगमे देषफोसणपरूवर्ण [२२७ अहियखेत्तादो ऊगखेत्तस्स बहुत्तुवदेसा। तं कधं णबदे ? हेट्ठा दंडायारेण ओयरिय विग्गहं काऊण भवणवासिएसुप्पण्णाणं पढम-विदियदंडेहि अदीदकाले रुद्धखेत्तादो सहस्सारुववादसेजाए उवरिमभागस्स संखेज्जगुणत्ता । विमाणसिहरमुस्सेहजोयणपमाणं त्ति ण थोवो उवरिमभागो, सहस्सारुखरिमपज्जवसाणस्स लक्खपमाणजोयणेहिंतो बहुअत्तादो। तं कुदो णबदे ? देसूणपंच-चोइसमागफोसणण्णहाणुववत्तीदो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥४४॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो खेत्तपरूवणाए उत्तो त्ति इह ण उच्चदे । अट्ट चोदसभागा वा देसूणा ॥४५॥ समाधान-ऐसी शंका करने पर उत्तर देते हैं कि नहीं होता है, क्योंकि, अधिक क्षेत्रकी अपेक्षा कम क्षेत्रकी अधिकताका उपदेश पाया जाता है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-नीचे दंडाकार आत्मप्रदेशसे उतरकर और विग्रह करके भवनवासियोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवों के प्रथम और द्वितीय दंडोंके द्वारा अतीतकालमें रुद्धक्षेत्रसे सहस्रार कल्पकी उपपादशय्याका उपरिम भाग संख्यातगुणा है, इसलिए जाना जाता है कि नीचेके अधिक क्षेत्रकी अपेक्षा ऊपरका हीन क्षेत्र प्रधानतया विवक्षित है। देवों के विमानोंका माप उत्सेधयोजनके प्रमाणसे है, इसलिए उपपादशय्यासे ऊपरी भाग अर्थात् विमानशिखरसे लेकर उसी कल्पके अन्त तकका क्षेत्र स्तोक अर्थात् अल्प नहीं है, क्योंकि, मेरुतलसे नीचेके एक लाख प्रमाणयोजनोंकी अपेक्षा सहस्रारकल्पके विमानशिखरसे ऊपरी पर्यन्तभागका . प्रमाण बहुत है। शंका-यह कैसे जाना? समाधान - अन्यथा सासावनसम्यग्दृष्टि देवोका देशोन पांच बढे खौवह (३४) भाग स्पर्शनक्षेत्र बन नहीं सकता है, इस अन्यथानुपपत्तिसे जाना जाता है कि भवनवासी देवोंके क्षेत्रकी अपेक्षा ऊपरके विमानवासी देवोका क्षेत्र यहां पर प्रधानतासे ग्रहण किया गया है। सम्यग्मिध्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥४४॥ इस सूत्रका अर्थ क्षेत्रप्ररूपणामें कहा गया है, इसलिए यहां पर नहीं कहा जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंने अतीत और अनागतकालमें कुछ कम आठ घटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ ४५ ॥ १ सम्यग्मिध्यादृष्टषसंयतसम्यष्टिभिलोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ चतुर्दशभागा वा बेशोमाः। स. सि. १, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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