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१, ३, ७१.] खेत्ताणुगमे दंसणमग्गणाखेत्तपरूवणं
[१२७ पंचिंदियलद्धिअपज्जत्ताणं चक्खुदंसणं णत्थि, तत्थ चक्खुदंसणोवओगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचक्खुदंसणक्खओवसमाभावादो। सेसगुणट्ठाणाणं पज्जवट्ठियपरूवणा जाणिय वत्तव्या।
अचक्खुदंसणीसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ६८॥ सुगममेदं सुत्तं ।
सासणसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥ ६९॥
एदेसिमणंतरदोसुत्ताणमेगत्तं किण्ण कदं ? ण, मिच्छादिट्ठीहि सेसगुणट्ठाणाणं पच्चासत्तीए अभावादो।
ओहिदंसणी ओहिणाणिभंगों ॥ ७० ॥ केवलदसणी केवलणाणिभंगो ॥ ७१ ॥
है। हां, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लध्यपर्याप्त जीवोंके चक्षुदर्शन नहीं होता है, क्योंकि, उनमें चक्षुदर्शनोपयोगकी समुत्पत्तिका अविनाभावी चक्षुदर्शनावरणकर्मके क्षयोपशमका अभाव है।
इसी प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि आदि शेष गुणस्थानोंकी पर्यायार्थिकनयसम्बन्धी प्ररूपणा जान करके कहना चाहिए ।
अचक्षुदर्शनियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव ओघके समान सर्वलोकमें रहते हैं । ६८ ॥ यह सूत्र सुगम है।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकपायवीतरागछमस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती अचक्षुदर्शनी जीव ओघके समान लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ६९ ॥
शंका-इन अनन्तरोक्त दोनों सूत्रोंका एकत्व क्यों नहीं किया, अर्थात् एक सूत्र क्यों नहीं बनाया?
समाधान-नहीं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि अचक्षुदर्शनी जीवोंके साथ शेष गुणस्थानवर्ती अचक्षुदर्शनी जीवोंकी प्रत्यासत्तिका अभाव है।
अवधिदर्शनी जीवोंका क्षेत्र अवधिज्ञानियोंके समान लोकका असंख्यातवां भाग है ॥ ७० ॥
केवलदर्शनी जीवोंका क्षेत्र केवलज्ञानियोंके समान लोकका असंख्यातवां भाग, लोकका असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक है ।। ७१ ॥
१ अचक्षुर्दर्शनिना मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्ताना सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १. ८. २ अवधिदर्शनिनामवधिज्ञानिवत् । स. सि. १, ८. ३ केवलदर्शनिना केवलज्ञानिवत् । स. सि. १, ८.
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