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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ३, ७२. एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि त्ति पज्जवट्ठियपरूवणा ण कीरदे। -
एवं दंसणमग्गणा समत्ता । लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिएसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ७२ ॥
सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय मारणंतिय-उववादपदेहि सव्वलोगच्छणेण, विहारवदिसत्थाण वेउब्धियपदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, तिरियलोगस्स संखेजदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे खेत्ते अच्छणेण च सरिसत्तमत्थि त्ति ओघमिदि भणिदं । णवरि वेउव्वियसमुग्धादगदा तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागे ।
सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्टी असंजदसम्मादिट्ठी ओघं ॥७३॥
चदुण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागत्तणेण माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणत्तणेण च
ये दोनों ही सूत्र सुगम है, इसलिए पर्यायार्थिकनयकी प्ररूपणा नहीं की जाती है ।
इस प्रकार दर्शनमार्गणा समाप्त हुई। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें मिथ्या दृष्टि जीव ओषके समान सर्वलोकमें रहते हैं ॥ ७२ ॥
रवस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन पदोंकी अपेक्षा सर्वलोकमें रहनेसे, विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकपदकी अपेक्षा सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहने की अपेक्षा तीनों अशुभ लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके क्षेत्रके सदृशता है, इसलिए सूत्रमें 'ओघ' यह पद कहा। विशेष बात यह है कि वैक्रियिकसमुद्धातगत तीनों अशुभलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीव तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं।
तीनों अशुभलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत. सम्यग्दृष्टि जीव ओघके समान लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ।। ७३ ॥
तीनों अशुभलेश्यावाले उक्त तीनों गुणस्थानवी जीवोंके स्वसंभव पदोंकी अपेक्षा सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें रहनेसे और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे
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१ लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्यानां मिथ्यादृष्टयायसंयतसम्यग्दृष्टयन्तानां सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,८.
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