SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १२९ १, ३, ७४.] खेत्ताणुगमे लेस्सामगणाखेत्तपरूवणं सरिसत्तुवलंभादो सिद्धमोघत्तं । विसेसदो पुण मारणंतिय-उववादगदा किण्ह-णील-काउलेस्सियअसंजदसम्मादिविणो संखेज्जा वि होदूण माणुसखेतादो असंखेज्जगुणे खेत्तेअच्छति, असंखेज्जजोयणायामत्तादो। - तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिएसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ७४ ॥ तेउलेस्सियमिच्छादिट्ठी सत्थाणसस्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउव्वियसमुग्घादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । मारणंतियसमुग्धादगदा एवं चेव । णवरि तिरियलोगादो असंखेजगुणे त्ति वनव्वं । एवं चेव उववादगदाणं । एत्थ ओवट्टणं ठविज्जमाणे सुधम्मरासिं ठविय अप्पणो उवक्कमणकालेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे एगसमएण तत्थुववज्जमाणजीवा हॉति । पुणो अवरमेगं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं भागहारसरूवेण दृविदे रज्जुआयामेण उववादगदरासी होदि । पुणो संखेज्जपदरंगुलमेचरज्जूहि क्षेत्रमें रहनेसे सदृशता पाई जाती है, इसलिए उनके क्षेत्रके ओघपना सिद्ध हुआ। किन्तु विशेष बात यह है कि मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदगत कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि संख्यात होकरके भी मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, उनके मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदगत दंडका आयाम असंख्यात योजन पाया जाता है। तेजोलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यावृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ७४ ॥ ___स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातगत तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीव सामान्य लोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्धातगत तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र भी इसी प्रकार है। विशेष वात यह कहना चाहिए कि वे तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। इसी प्रकार उपपाद पदगत तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोका क्षेत्र जानना चाहिए। यहांपर अपवर्तनाके स्थापित करते समय सौधर्मकल्पकी जीवराशिको स्थापित कर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अपने उपक्रमणकालसे भाग देनेपर एक समयमें उनमें उत्पन्न होनेवाले जीव होते है। पुनः एक दूसरा पल्योपमका असंख्यातवां भाग भागहारस्वरूपसे स्थापित कर एक राजुप्रमाण आयामवाली उपपादपदको प्राप्त जीवराशिका प्रमाण होता १ तेजःपद्मलेश्याना मिथ्यादृष्टयाद्यप्रमत्तान्तानां लोकस्यासंख्येयभागः। स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy