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________________ ३६८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, ५९. कमेण अपुवकोडीओ हिंडिदण असण्णि-इत्थि-पुरिस-णqसयवेदेसु वि एवं चेव अट्ठपुचकोडीओ परिभमिय तदो पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु उववण्णो । तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो पंचिंदियतिरिक्खअसण्णिपज्जत्तएसु उववज्जिय तत्थतणइत्थिपुरिस-णqसयवेदएसु पुणो वि अट्ठट्टपुव्यकोडीओ परिभमिय पच्छा सणिपंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तइत्थि-णqसगवेदेसु अट्ठट्ठपुचकोडीओ पुरिसवेदेसु सत्त पुवकोडीओ हिंडिदूण तदो देव-उत्तरकुरुतिरिक्खेसु पुधिल्लाउवसेण इत्थित्रेदेसु वा पुरिसवेदेसु वा उववण्णो । तत्थ तिण्णि पलिदोवमाणि जीविदूण मदो देवो जादो । एदाओ पंचाणउदि पुचकोडीओ पुधकोडिवारसपुधत्तसण्णिदाओ त्ति एदासिं पुचकोडि पुधत्तववदेसो सुत्तणिहिट्ठो ण जुज्जदे ? ण एस दोसो, तस्स वइउल्लवाइत्तादो । वारसण्हं पुनकोडि पुधत्ताणं कधमेगत्तं ? ण, जाइमुहेण सहस्साण वि एगत्तविरोहाभावा । णवरि पंचिंदियतिरिक्खपजत्तएसु सत्तेतालीसपुचकोडीओ हिंडाविय पच्छा तिपलिदोवमिएसु तिरिक्खेसु उप्पादेदव्यो । नपुंसक वेदों में क्रमले आठ आठ पूर्वकोटि कालप्रमाण भ्रमण करके, असंही स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदों में भी इसी प्रकारसे आठ आठ पूर्वकोटि कालप्रमाण परिभ्रमण करके, इसके पश्चात् पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ। वहां पर अन्तर्मुहूर्त रह कर, पुनः पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंझी पर्यातकों में उत्पन्न होकर, उनमेंके स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदी जीवों में फिर भी आठ आठ पूर्वकोटियों तक परिभ्रमण करके, पीछे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तक स्त्री और नपुंसक वेदियों में आठ आठ पूर्वकोटियां, तथा पुरुषवदियों में सात पूर्वकोटियां भ्रमण करके उसके पश्चात् देवकुरु अथवा उत्तरकुरुके तिर्यचों में पूर्वली आयुके यशसे स्त्रीवेदियों में अथवा पुरुषवेदियों में उत्पन्न हुआ। वहां पर तीन पल्योपम तक जीवित रह कर मरा और देव हो गया। शंका-ये ऊपर कही गई पंचानवे पूर्वकोटियां पूर्वकोटिद्वादशपृथक्त्व संज्ञारूप हैं; इसलिए, इनकी सूत्रनिर्दिष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व ऐसी संज्ञा नहीं बनती है ? ___ समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, यह पृथक्त्व शब्द वैपुल्यवाची है, (इस. लिए कोटिपृथक्त्वसे यथासंभव विवक्षित अनेक कोटियां ग्रहण की जा सकती हैं।) शंका-बारह पूर्वकोटिपृथक्त्वोंमें एकपना कैसे बन सकता है ? . समाधान -नहीं, क्योंकि, जातिके मुखसे, अर्थात् जातिकी अपेक्षा, सहस्रों के भी एकत्व होने में विरोधका अभाव है। विशेष बात यह है कि पंचन्द्रिय तिर्यंचपर्याप्तकों में संतालीस पूर्वकोटियों तक भ्रमण कराके पीछे तीन पल्योपमवाले तिर्यंचोंमें उत्पन्न कराना चाहिए; क्योंकि, अपर्याप्तकताके १ प्रतिषु · दसपुत्त' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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