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________________ १, ४, ३७ ] फौसणाणुगमे मणुस्सफोसणपरूवणं जोयणलक्खविक्खंभ-अट्ठरज्जुस्सेहचदुपाणालीसु मणुअलोगमागच्छंताणमुववादखेत्तफलस्स तिरियलोगादो संखेज्जगुणत्तुवलंभादो। ण तिरिक्खेहिंतो मणुस्सेसुप्पज्जमाणसासणाणमुववादखेत्तं पि तिरियलोगस्स संखेजदिभागो होदि, तत्थ वि चदुहि चेव पंथेहि आगमणदंसणादो त्ति ? एत्थ परिहारो उच्चदे-ण ताव णेरइयसासणे अस्सिदूण उत्तदोसो, तण्णिबंधणुववादफोसणबलेण तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागत्ताणभुवगमादो । ण देवसासणे अस्सिदूण उत्तदोसो वि, अट्ठरज्जुस्सेहलोगणालीए समचउरस्साए अंतोहिददेवसासणाणं हेट्ठिम-उवरिमाणं च कंडुज्जुवाए गईए चढणोयरणवावारेण मणुवलोगपणिधिमार्गदूग एग-दोविग्गहं करिय मणुसेसुपज्जमाणाणं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तफोसणस्सुवलंभादो । तिरिच्छं गंतूग विग्गहं करिय देवसासणा मणुसेसु किण्ण उप्पजंति ? मणुसगइविरहियदिसाए सहावदो चेव तेसिं गमणाभावादो। ण च मणुसगइसंमुहमागंतूण विग्गहं करिय मणुस्सेसुप्पण्णाणं खेत्तं बहुअमुवलब्भइ, तक्खेत्तस्स तिरियलोयस्स संखे भाग होता है, क्योंकि, भवान्तरमें संक्रमणके समय पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर और नीचे, इसप्रकार छह दिशाओंमें गमनागमनरूप षट् अपक्रम-नियमके बलसे पैंतालीस लाख योजन विष्कम्भवाले व आठ राजु उत्सेधवाले क्षेत्रमें चारों ओरसे मनुष्यलोकको आनेवाले औषोंका उपपादसम्बन्धी क्षेत्रफल, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा पाया जाता है। और न तिर्यंचोंसे मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टियोका उपपादक्षेत्र भी तिर्यग्लोकका संख्याता भाग होता है, क्योंकि, वहां पर भी चारों ही दिशाओंके मार्गौसे आगमन देखा आता है? समाधान-अब उपर्युक्त आशंकाका परिहार करते है-न तो नारकी सासादन, सम्याधियों को आश्रय करके उक्त दोष प्राप्त होता है, क्योंकि, तनिमित्तक उपपादसम्बन्धी स्पर्शनके बलसे तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग नहीं स्वीकार किया गया है। और न देख सासादनसम्यग्हष्टियोंका आश्रय करके भी उक्त दोष प्राप्त होता है, क्योंकि, आठ राजु उत्सेधवाली समचतुरस्त्र लोकनालीके अन्तःस्थित देव सासादनसम्यग्दृष्टियोंका और अधस्तन तथा उपरिम जीवोंका भी बाणकी तरह सीधी गतिसे चढ़ने और उतरनेरूप व्यापारसे मनुष्यलोककी प्रणिधि (तट) को आकर और एक या दो विग्रह करके मनुष्यामें उत्पन्न होनेवाले जीवोंका तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमात्र स्पर्शन पाया जाता है। का-तिरछे जाकर पनः विग्रह करके सासादनसम्यग्दृष्टिदेव, मनुष्यों में क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? समाधान-मनुष्यगतिसे रहित दिशामें स्वभावसे ही उनका गमन नहीं होता है। -- तथा, मनुष्यगति के सम्मुख आकर और विग्रह करके मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले जीवोंका भी क्षेत्र बहुत नहीं पाया जाता है, क्योंकि, उस क्षेत्रके तिर्यग्लोकके संख्यातवें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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