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१, १, १०२.] फोसणाणुगमे वेदमगग्णाफोसणपरूवणं
[ २७१ एत्थ वि उववादपदमेक्कं चेव । तिरिक्खासंजदसम्माइविणो जेणुवरि छ रज्जूओ गंतूणुप्पज्जति, तेण फोसणखत्तपरूवणं छ-चोद्दसभागमेत्तं होदि । हेट्ठा फोसणं पंचरज्जुपमाणं ण लब्भदे, णेरइयासंजदसम्मादिट्ठीणं तिरिक्खेसुववादाभावा ।
सजोगिकेवलीहि केवडियं खेतं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा ॥ १०१ ॥
पदरगदकेवलीहि लोगस्स असंखेज्जा भागा फोसिदा, लोगपेरंतट्ठिदवादवलएसु अपविट्ठजीवपदेसत्तादो। लोगपूरणे सव्वलोगो फोसिदो, वादवलएसु वि पविट्ठजीवपदेसत्तादो।
एवं जोगमग्गणा समत्ता । वेदाणुवादेण इथिवेद-पुरिसवेदएसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १०२॥
एदस्स सुत्तस्स परूवणा खेत्तभंगो, वट्टमाणकालपडिबद्धत्तादो ।
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यहां पर भी केवल उपपादपदही होता है। तिर्यच असंयतसम्यग्दृष्टि जीव चूंकि मेरुतलसे ऊपर छह राजु जाकरके उत्पन्न होते हैं, इसलिए स्पर्शनक्षेत्रकी प्ररूपणा छह बटे चौदह ६ भाग प्रमाण होती है । मेरूतलसे नीचे पांच राजु प्रमाण स्पर्शनक्षेत्र नहीं पाया जाता है, क्योंकि, नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका तिर्यंचों में उपपाद नहीं होता है।
कार्मणकाययोगी सयोगिकेवलियोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ १०१॥
__ प्रतरसमुद्धातको प्राप्त केवलियोंने लोकके असंख्यात बहुभाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, लोकपर्यंत स्थित वातवलयोंमें केवली भगवान्के आत्मप्रदेश प्रतरसमुद्धातमें प्रवेश नहीं करते हैं। लोकपूरणसमुद्धातमें सर्वलोक स्पर्श किया है, क्योंकि, लोकके चारों ओर व्याप्त वातवलयोंमें भी केवली भगवानके आत्मप्रदेश प्रविष्ट हो जाते हैं।
इसप्रकार योगमार्गणा समाप्त हुई। वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १०२॥ . वर्तमानकालसे सम्बद्ध होनेके कारण इस सूत्रकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान है।
. १ वेदानुवादेन-स्त्रीपुंवेदैभिध्यादृष्टिमिलोकस्यासंख्येयभागः स्पृष्टः अष्टौ नव चतुर्दशभागा वा देशोनाः सर्वलोको वा । स. सि. १,८.
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