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________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ३, ५. एदं वादरुद्धक्खेत्तं घणलोगम्हि अवणिदे पदरगदकेवलिखेत्तं देसूणलोगो होदि । एदं पदरगदकेवलिखेत्तमधोलोगपमाणेण कदे वे अधोलोगा अधोलोगस्स चदुब्भागेण सादिरेगेण ऊणया । उड्डलोगपमाणेण कदे दुवे उड्डलोगा उड्ढलोगस्स तिभागेण देसणेण सादिरेया । लोगपूरणगदो केवली केवडि खेत्ते, सबलोगे । आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छाइट्ठिः प्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्टि त्ति केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेजदिभागे ॥५॥ इस बातरुद्धक्षेत्रको घनलोकसे घटा देनेपर प्रतरसमुद्धातको प्राप्त केवलीका क्षेत्र कुछ कम लोक प्रमाण होता है। प्रतरसमुद्धातको प्राप्त केवलीका यह क्षेत्र अधोलोकके प्रमाणरूपसे करनेपर कुछ अधिक अधोलोकके चौथे भागसे कम दो अधोलोकप्रमाण होता है। तथा इसे ही उप्रलोकके प्रमाणरूपसे करनेपर उप्रलोकके कुछ कम तीसरे भागसे अधिक दो उप्रलोकप्रमाण होता है। विशेषार्थ-जगश्रेणीके जितने प्रदेश हों उतने जगप्रतरप्रमाण सर्व लोक है। इसमेंसे १०२४१९८३४८७ योजनप्रमाण जगप्रतरोंके घटा देनेपर प्रतरसमुद्धातको प्राप्त केवलीका क्षेत्र होता है। अधोलोकका प्रमाण १९६ घनराजु है, इसलिये यदि इसे अधोलोकके प्रमाणरूपसे किया जाय तो दो अधोलोकोंके प्रमाण ३९२ घनराजुओंमेंसे १० २४१९८३४८७ योजनप्रमाण जगप्रतर अधिक अधोलोकके चौथे भागप्रमाण ४९ घनराजु घटा देनेपर प्रतरसमुद्धातको प्राप्त केवलीका क्षेत्र आ जाता है । उर्ध्वलोकका प्रमाण १४७ घनराजु है, इसलिये यदि इस क्षेत्रको ऊर्ध्वलोकके प्रमाणरूपसे किया जाय तो ऊर्ध्वलोकके एक तिहाई घनराजु ४९ मेंसे १०२४ १९८३४८" योजनप्रमाण जगप्रतरोंको घटाकर जितना शेष रहे उसे दो ऊर्ध्वलोकके प्रमाण २९५ घनराजुओंमें जोड़ देनेपर प्रतरसमुद्धातको प्राप्त केवलीका क्षेत्र आ जाता है। लोकपूरणसमुद्धातको प्राप्त केवली भगवान् कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं। आदेशकी अपेक्षा गत्यनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानके जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं ॥५॥ १००७६० १गत्यनुवादेन नरकगतौ सर्वासु पृथिवी नारकाणां चतुर्पु गुणस्थानेषु लोकस्यासंख्येयभागःस. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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