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________________ ८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, १७. एत्थ लोगणिदेसेण पंचण्हं लोगाणं गहणं, देशामर्शकत्वाल्लोकस्य । बादर-सुहुमादिवयणेण सत्थाणसत्थाण-वेयण-कसाय वेउव्विय मारणंतिय-उववादपरिणदजीवाणं गहणं, छविहावत्थावदिरित्तबादरादीणमभावादो । तदो सव्वसुत्ताणि देसामासिगाणि चेव ? ण एस णियमो वि, उभयगुणोवलंभा । सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदा एइंदिया केवडि खेते ? सव्वलोगे। वेउब्धियसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाण मसंखेज्जदिभागे । माणुसखेत्तं ण विण्णायदे, संपहियकाले विसिवएसाभावा । तं जहा- वेउव्वियमुट्ठावेंतरासी पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। अहवा तस्स ओगाहणा उस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। तस्स को पडिभागो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। विउबमाण-एई इस सूत्र में लोक पदके निर्देशसे पांचों लोकोंका ग्रहण किया है, क्योंकि, यहां लोक पदका निर्देश देशामर्शक है। सूत्रमें बादर और सूक्ष्म आदि वचनसे स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदसे परिणत हुए जीवोंका ग्रहण किया है, क्योंकि, उक्त छह प्रकार की अवस्थाओके अतिरिक्त बादर आदि जीव नहीं पाये जाते हैं। शंका-यदि ऐसा है, तो सर्व सूत्र देशामर्शक ही हैं ? समाधान - सर्व सूत्र देशामर्शक ही है, यह नियम भी नहीं है, क्योंकि, सूत्रोंमें दोनों प्रकारके धर्म पाये जाते हैं । अर्थात् कुछ सूत्र देशामर्शक हैं और कुछ नहीं, इसलिये सभी सूत्र देशामर्शक ही हैं, यह नियम नहीं किया जा सकता है। स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायस मुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात, और उपपादको प्राप्त हुए एकेन्द्रिय जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं। वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त हुए एकेन्द्रिय जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते है। किन्तु मानुषक्षेत्रके सम्बन्धमें नहीं जाना जाता है कि उसके कितने भागमें रहते हैं, क्योंकि, वर्तमानकालमें इसप्रकारका विशिष्ट उपदेश नहीं पाया जाता है। आगे इसी विषयका स्पष्टीकरण करते हैं-विक्रियाको उत्पन्न करनेवाली एकेन्द्रिय जीवराशि पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अथवा, विक्रियात्मक एकेन्द्रिय जीवोंके शरीरकी अवगाहना उत्सेधधनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है। शंका-उत्सेधधनांगुलमें जिसका भाग देनेसे उत्सेधघनांगुलका असंख्यातवां भाग लब्ध आता है, उस असंख्यातवें भागका प्रतिभाग क्या है ? समाधान-पल्योपमका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है, अर्थात् पत्योपमके असंख्यातवें भागका उत्सधघनांगुलमें भाग देनेसे उत्सेधधनांगुलका असंख्यातवां भाग लब्ध आता है जो विक्रियात्मक एकेन्द्रिय जीवके शरीरकी अवगाहना है। ऊपर विक्रिया करनेवाली एकेन्द्रिय जीवराशि भी पल्योपमके असंख्यातवें भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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