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________________ १, ४, ५२. ] फोसणा गमे देवफोसणपरूवणं विसेसो अत्थि तेण देवोघमिदि सुत्नवयणं सुट्टु सुघडमिदि । सण कुमार पहूडि जाव सदार - सहस्सारकप्पवासियदेवेसु मिच्छादिट्टि पहुड जाव असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ५१ ॥ एदेसिं पंच कप्पाणं चदुगुणट्ठाणजीवेहि जहासंभवं सत्थाणसत्याण-विहारवदिसत्थाण- वेदण-कसाय वेउच्चिय-मारणंतिय उववादपरिणदेहि चदुन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । एसा वट्टमाणपरूवणा । अ चोइसभागा वा देसूणा ॥ ५२ ॥ [ २३७ पंचकष्पवासियचदुगुणट्टाणजीवेहि सत्याण सत्थाणपदपरिणदेहि अदीदकाले चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्ढा इजादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । विहारव दिसत्थाण- वेदणकसाय-उत्रिय- मारणंतिय-पदपरिणदेहि अट्ठ चोइस भागा देखणा पोसिदा । उववादपरिणदेहि सणक्कुमार- माहिंददेवेहिं तिष्णि चोद्दस भागा देखणा पोसिदा । बम्ह-बम्हुत्तर चूंकि देवोंके ओघस्पर्शन से सौधर्मकल्प में कोई विशेषता नहीं है, इसलिए 'देवोघ' यह सूत्र वचन भले प्रकार सुघटित होता है । सनत्कुमारकल्पसे लेकर शतार सहस्रारकल्प तक के देवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ५१ ॥ स्वस्थानस्वस्थान, विद्वारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन पदोंसे यथासंभव परिणत उक्त पांचों कल्पोंके चारों गुणस्थानों में रहनेघाले देवोंने सामान्यलोक आदि बार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । यह वर्तमानकालिक स्पर्शनके क्षेत्रकी प्ररूपणा है । सनत्कुमारकल्पसे लेकर सहस्रारकल्प तकके मिध्यादृष्टि आदि चारों गुणस्थानवर्ती देवोंने अतीत और अनागत कालमें कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ।। ५२ ।। सनत्कुमारादि पांच कल्पोंके चारों गुणस्थानघर्ती स्वस्थानस्वस्थान पदपरिणत देवोंने भतीतकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, बैौक्रयिक और मार णान्तिकसमुद्रात, इन पदोंसे पारणत उक्त देवोंने कुछ कम आठ बढे चौदह (१) भाग स्पर्श किये हैं । उपपादपरिणत सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पवासी देवोंने कुछ कम तीन बढे दह () भाग स्पर्श किये हैं । ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर कल्पवासी देवोंने कुछ कम साढ़े Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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