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________________ १, ४, ९.) फोसणाणुगमे पमत्तसंजदादिफोसणपरूवणं एस दोसो, उवरि जोयणलक्खुप्पायणेण जोयणलक्खमेत्तगमणे संभवाभावादो। मेरुमत्थयचढणसमत्थाणमिसीणं किमिदि जोयणलक्खुप्पायणे ण संभवो ? होदु णाम मेरुपव्वदुद्देसे सा सत्ती, ण सव्वत्थ, 'माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । इदि आइरियवयणण्णहाणुववत्तीदो । अधवा अदीदकाले लद्धिसंपण्णमुणिवरेहिं सव्वं पि माणुसखेत्तं पुसिज्जदि, तस्स माणुसखेत्तववएसण्णहाणुववत्तीदो। सत्थाणे पुण माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो चेव पोसिदो । जदि एवं, तो पंचिंदियतिरिक्खाणं पि पुव्ववेरियदेवाणं पयोगादो जोयणलक्खुप्पायणं पावदि ? होदु, ण को विदोसो । मारणंतियसमुग्घादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो पोसिदो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो । मारणंतियखेत्तं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, तदा संखेज्जगुणमसंखेज्जगुणं वा किण्ण होदि त्ति वुत्ते ण होदि । ण समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, एक लाख योजन ऊपर उड़नेकी अपेक्षा एक लाख योजन प्रमाण गमन करनेकी उनमें संभावना नहीं है। शंका-सुमेरुपर्वतके मस्तक (शिखर) पर चढ़ने में समर्थ ऋषियोंके क्या एक लाख योजन ऊपर उड़कर गमन करने की संभावना नहीं है ? समाधान-भले ही सुमेरुपर्वतके ऊर्ध्वप्रदेशमें ऋषियोंके गमन करनेकी शक्ति रही आवे, किन्तु मानुषक्षेत्रके ऊपर एक लाख योजन उड़कर सर्वत्र गमन करनेकी शक्ति नहीं है, अन्यथा 'मनुष्यक्षेत्रके संख्यातवें भागमें' ऐसा आचार्योंका वचन नहीं बन सकता है। ___ अथवा, अतीतकालमें विक्रियादि लब्धिसम्पन्न मुनिवरोंने सर्व ही मनुष्यक्षेत्र स्पर्श किया है, अन्यथा उसका 'मनुष्यक्षेत्र' यह नाम नहीं बन सकता है। स्वस्थानस्वस्थानकी अपेक्षा उक्त प्रमत्तादि संयतोंने मनुष्यक्षेत्रका संख्यातो भाग ही स्पर्श किया है। शंका-यदि ऐसा है, तो पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका भी पूर्वभवके वैरी देवोंके प्रयोगसे एक लाख योजन ऊपर तक जाना प्राप्त होता है ? समाधान -यदि तिर्योंका ऊपर एक लाख योजन तक जाना प्राप्त होता है, तो होवे, उसमें भी कोई दोष नहीं है। मारणान्तिकसमुद्धातगत उन्हीं प्रमत्तसंयतादिकोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। शंका-~मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवी जीवोंका मारणान्तिक क्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा अथवा असंख्यातगुणा क्यों नहीं होता है? म १ प्रती ' -दुद्धसणसत्ती', म २ प्रती अन्यप्रतिषु च' -बुद्धसे सा सत्ती' इति पाठा। १ म प्रती को कि', अन्य प्रतिषु ' को स्थि' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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