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________________ १, ५, १४५. ] काला गमे थावर काइयकालपरूवणं [ ४०३ कुदो १ गुरुवदेसादो । तत्थ वि दंसणमोहणीयस्स चेय उक्कस्सट्ठिदीए सत्तरिसागरोवमकोडा कोडिमेत्ताए गहणं कादव्वं, पाहण्णियादो । कुदो पहाणत्तं ? संगहिदासेसकम्मsir | आइरिया कम्मट्ठिदीदो बादरट्ठिदी परियम्मे उप्पण्णा त्ति कज्जे कारणोवयारमवलंबिय बादरट्ठिदीए चेय कम्मट्टिदिसण्णमिच्छंति, तन्न घटते, 'गौण-मुख्ययोर्मुख्ये संप्रत्यय ' इति न्यायात् । ण च बादराणं सामण्णेण वृत्तकालो बादरेगदेसाणं बादरपुढविकाइयाणं पि सो चेव होदि त्ति, विरोहा । सामण्णबादरट्ठिदिमण्णपयारेण परूविय संपि बादरपुढविट्ठिदि भण्णमाणे उवयारावलंबणे पओजणाभावा च । एदस्सुदाहरणं - अणपिबादरकाइओ अप्पिद बादरकाइएस उप्पज्जिय तत्थ सत्तरिसागरोवमकोडा कोडिमेत्तकालमच्छिय अणप्पिदबादरकाइयं गदो । बादरपुढविकाइय- बादर आउकाइय - बादरते उकाइय- बादरवाउकाइय-चादरवण'फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १४५ ॥ गुरुका उपदेश है । उसमें भी केवल दर्शनमोहनीय कर्मकी ही सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, वही प्रधान है । शंका - दर्शन मोहनीयकर्मकी स्थितिको प्रधानता कैसे है ? समाधान — क्योंकि, उसमें सर्व कर्मों की स्थिति संग्रहीत है । कितने ही आचार्य 'कर्मस्थिति से बादर स्थिति परिकर्ममें उत्पन्न है' इसलिये कार्य में कारणके उपचारका अवलम्बन करके बादरस्थितिकी ही 'कर्मस्थिति' यह संज्ञा मानते हैं, किन्तु वह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, 'गौण और मुख्य में विवाद होने पर मुख्यमें ही संप्रत्यय होता है' ऐसा न्याय है । दूसरी बात यह है कि वादरकायिक जीवोंका सामान्य से कहा हुआ काल, बादरकायिक जीवोंके एकदेशभूत बादर पृथिवीकायिकों का भी वही ही नहीं हो सकता है, क्योंकि, इसमें विरोध आता है । तथा, सामान्य बादरकायिक स्थितिको अन्य प्रकार से प्ररूपण करके अब बादरपृथिवीकायिककी स्थितिको कहने पर उपचारके आलम्बनमें कोई प्रयोजन भी नहीं है । अब उक्त कर्मस्थितिप्रमाण कालका उदाहरण कहते हैं- अविवक्षित बादरकायवाला कोई जीव विवक्षित बादरकायिकों में उत्पन्न होकर वहां पर सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण काल तक रह करके अविवक्षित बादरकायिकमें चला गया । यादरपृथिवीकायिकपर्याप्त, बादरजलकायिकपर्याप्त, बादरतेजस्कायिकपर्याप्त, बादरवायुकायिकपर्याप्त और बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीरपर्याप्त जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। १४५ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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