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________________ १, ४, ४७. ] फोसणागमे देव फोसण परूवणं [ १२९ लोगस्स असंखेज्जदिभागं चेव उववादेण वट्टमाणकाले फुसदि, तिरियलोग मज्झम्मि तदसंखेज्जदिभागे चैव भवणावासाणमवाणादो, तदवट्ठिददिसं मोत्तूणण्णदिसाए गमणाभावादो, हेट्ठा ओयरिय उप्पज्जमाणाणं सुड्डु थोवत्तादो | मारणंतियसमुग्वादगदेहि तिह लोगाणमसंखेज्जदिभागो, णर- तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणो । भवणवासिय सासण सम्मादिट्ठीणं खेत्तमंगो | अट्टावा, अटु णव चोदसभागा वा देसूणा ॥ ४७ ॥ भवणवासियमिच्छादिट्ठीहि सत्थाणसत्थाणपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । विहारख दिसत्थाण- वेदण- कसाय- वेउच्चियपदेहि अद्भुट्ठा वा अट्ठ चोइस भागा वा देखणा । अद्भुट्ठरज्जू सयमेव विहरति । कत्रमाहुडुरज्जू जादा ? मंदरतलादो हेड्डा दोणि, उवरि जाव सोधम्मविमाणसिहरधजदंडोति दिवरज्जू । उवरिमदेवपयोगेण अड्ड रज्जू | मारणंतिय समुग्धादगदेहि णव चोदसभागा तवें भागप्रमाण क्षेत्र ही उपपादके द्वारा वर्तमानकाल में स्पर्श किया जाता है, क्योंकि, तिर्यग्लोक के मध्य भाग में और उसके भी असंख्यातवें भाग में ही भवनवासी देवोंके आवासोंका अवस्थान है । तथा, जिस दिशा में विमान अवस्थित हैं उस दिशाको छोड़कर अन्यदिशा में गमन करने का अभाव है, तथा, नीचे उतरकर उत्पन्न होनेवाले जीवोंका प्रमाण बहुत कम है । मारणान्तिकसमुद्घातगत उक्त देवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग और मनुष्यलोक तथा तिर्यग्लोक, इन दोनों लोकोंसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । भवनवाली सासादनसम्यग्दृष्टि देवोंका स्पर्शनक्षेत्र क्षेत्रप्ररूपणा के समान है । मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि भवनत्रिक देवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा लोकनाली के चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन भाग, आठ भाग और नौ भाग स्पर्श किये हैं ॥ ४७ ॥ स्वस्थानस्वस्थानपरिणत भवनवासी मिथ्यादृष्टि देवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैऋियिकसमुद्धातपदवाले उक्त देवोंने चौदह भागों में से देशोन साढ़े तीन भाग, (४) अथवा आठ भाग ( ४ ) प्रमाण क्षेत्र सर्श किया है । भवनबासी देव साढ़े तीन राजु स्वयं ही विहार करते हैं । शंका- साढ़े तीन राजु कैसे हुए ? समाधान - मंदराचलके तलभागसे नीचे तीसरी पृथिवी तक दो राजु और ऊपर सौधर्मकल्प के विमान के शिखर पर स्थित ध्वजादंड तक डेढ़ राजु, इस प्रकार मिलाकर साढ़े तीन राजु हुए। उपरि अर्थात् परके आरण-अच्युत कल्पवासी देवोंके प्रयोगसे आढ राजुप्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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