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________________ १, १, ८.] फोसणाणुगमे संजदासंजदफोसणपरूवणं [१६९ रिल्लएसु पंचसु अट्ठभागेसु अड्डाइजदीवेसु दोसु समुद्देसु' च अस्थि, कम्मभूमित्तादो। 'व्यासार्धकृतित्रिकं समस्तफलितमिति' एदेण सुत्तेण मज्झिल्लखेत्तफलमाणिदे सोलससत्तावीसभागम्भहियचदुसट्ठि-चदुसदरूवेहि जगपदरे भागे हिदे एगभागो आगच्छदि । तं रज्जुपदरम्हि अवणिय संखेज्जंगुलेहि गुणिदे संजदासंजदसत्थाणखेत्तं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं होदि । सेसपदाणं खेत्तमाणिज्जमाणे एगं जगपदरं ठविय संखेज्जसूचिअंगुलेहि संजदासंजदउस्सेधस्स एगूणवंचासभागमेत्तेहि गुणिदे तिरियलोगस्स संखेजदिमागमेतखेत्तं होदि । कधं संजदासंजदाणं सेसदीव-समुद्देसु संभवो ? ण, पुन्ववेरियदेवेहि तत्थ पित्ताणं संभवं पडि विरोधाभावा । कधमेसो अत्थो सुत्तेण अकहिदो अवगम्मदे ? ण एस दोसो, सुत्तट्टिएण 'वा' सद्देण अवुत्तसमुच्चयटेण सूचिदत्तादो। धातकीखंड और पुष्कराध इन अढ़ाई द्वीपोंमें और लवणोदधि वा कालोदधि इन दो समुद्रों में संयतासंयत जीव रहते हैं। क्योंकि, वहां पर कर्मभूमि है। 'व्यासके आधेका वर्ग करके उसका तिगुना कर देनेसे विवक्षित क्षेत्रका समस्त क्षेत्रफल निकल आता है' इस करण वर्ती अर्थात् भोगभूमि-प्रतिबद्ध क्षेत्रका क्षेत्रफल निकालने पर जो प्रमाण आता है यह सोलह बटे सत्ताईस भागसे अधिक वारसौ चौसठ (४६४३७) रूपोंसे जगप्रतरमें भाग देनेपर उपलब्ध एक भागके बराबर होता है। उदाहरण-मध्यम क्षेत्रफलका व्यास है। ३ (x) = या ७२ १३२३ २७ व ४६४३६ -१२५४४-२५६ यह स्वयंप्रभाचलके आभ्यन्तर भागवर्ती मध्यमक्षेत्रका क्षेत्रफल है। इसे एक राजुप्रतरमेंसे निकालकर संख्यात अंगुलोंसे गुणा करनेपर तिर्यग्लोकके संख्यात भागप्रमाण संयतासंयतोंका स्वस्थानक्षेत्र हो जाता है। विहारवत्स्वस्थानादि शेष पदोंका क्षेत्र निकालनेपर-एक जगप्रतरको स्थापित करके संयतासंयत जीवोंके शरीरकी ऊंचाईके उनचास भागमात्र संख्यात सूच्यंगुलोंसे गुणा करनेपर तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमात्र क्षेत्र होता है। शंका-मानुषोत्तरपर्वतसे परभागवर्ती और स्वयंप्रभाचलसे पूर्वभागवर्ती शेष द्वीप-समुद्रों में संयतासंयत जीवोंकी संभावना कैसे है ? समाधान नहीं, क्योंकि, पूर्वभवके वैरी देवोंके द्वारा यहां ले जाये गये तिर्यच संयतासंयत जीवोंकी संभावनाकी अपेक्षा कोई विरोध नहीं है। शंका-सूत्रसे नहीं कहा गया यह अर्थ कैसे जाना जाता है ! समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, सूत्रमें स्थित और अनुक्तका अर्थात् नहीं कहे गये अर्थका समुच्चय करनेवाले 'वा' शब्दसे उक्त अकथित अर्थ सूचित किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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