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________________ १, ५, १५१. ] कालानुगमे थावरकाइयकाल परूवणं [ ४०५ बादरपुढविकाइय- बादर आउकाइय - चादरते उकाश्य- बादरवाउकाय वादरवणफदिकाइयपत्तेयसरीर अपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा ॥ १४८ ॥ सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १४९ ॥ उदाहरणं - एगो अणपिदकाइओ अप्पिदकाइय अपजत्तएसु उववण्णो । तत्थ खुद्दाभवग्गहणमच्छियूण अणप्पिदं काइयं गदो । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १५० ॥ उदाहरणं - एगो अगष्पिदकाइओ अप्पिदकाइएस उपज्जिय सब्बुक्कस्समंतोमुहुत्तकालं तत्थ परिभमिय अण्णकार्य गदो । सहमपुढविकाइया सुहुम आउकाइया सहुमते उकाइया सुहुमवाउकाइया सुहुमवणफदिकाइया सुहुमणिगोदजीवा तस्सेव पज्जत्तापज्जत्ता सुहुमे इंदियपज्जत्त अपज्जत्ताणं भंगो ॥ १५१ ॥ बादरपृथिवीकायिकलब्ध्यपर्याप्तक, बादरजलकायिकलब्ध्यपर्याप्तक, बादरतेजस्कायिकलब्ध्यपर्याप्तक, बादरवायुकायिकलब्ध्यपर्याप्तक और बादरवनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीरलब्ध्यपर्याप्तक जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवांकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। १४८ ॥ यह सूत्र सुगम है । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ १४९ ॥ उदाहरण - एक अविवक्षित कायवाला कोई जीव विवक्षित कायवाले लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में उत्पन्न हुआ । वहां पर क्षुद्रभवग्रहणकालप्रमाण रद्द करके पुनः अविवक्षित कायको प्राप्त हो गया । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १५० ॥ उदाहरण -- एक अविवक्षित कायिक जीव विवक्षित कायिक जीवोंमें उत्पन्न होकर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक उनमें परिभ्रमण करके पुनः अन्य कायमें चला गया । सूक्ष्मपृथिवीकायिक, सूक्ष्मजलकायिक, सूक्ष्मतेजस्कायिक, सूक्ष्मवायुकायिक, सूक्ष्मवनस्पतिकायिक, सूक्ष्मनिगोद जीव और उनके ही पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंका काल सूक्ष्म एकेन्द्रियपर्याप्तक और अपर्याप्तकोंके कालके समान है ।। १५१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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