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________________ १६० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ४, ४. संखेज्जहिं गुणिय संखेज्जघणंगुलेहि ओवट्टिदे जोइसियरासी होदि । एदाणि जोदिसियदेवस्सेध गुणिदविमाण मंतर पदरंगुलेहि गुणिदे जोइसियसत्थाणखेत्तं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं होदि । णवरि देवस्सेध गुणिदविमाण अंतर पदरंगुलाणि उस्सेहंगुलाणि कड पमाणंगुलाणि कायव्याणि । उस्सेहंगुलाणि त्ति कथं पच्चदे ? अण्णहा जंबूदीवभतरे जंबूदीवताराण मोगासाभावादो । अथवा एदाणि पमाणंगुलाणि चैव । कधं पुण सम्मति ? ण, जंबूदीव लवणसमुद्देदि वे अस्सिदूग अवद्वाणादो एक सौ अठारह होते हैं। इसमें ताराओंका प्रमाण जोड़कर उत्पन्न हुई राशिका चन्द्रबिम्बकी शलाकाओं से गुणा कर देनेपर समस्त ज्योतिषी देवोंके विमानोंकी शलाकाएं निकल आती है । उन्हें संख्यात घनांगुलोंसे गुणित करनेपर सर्व ज्योतिषी देवोंके विमानोंका स्वस्थानक्षेत्र हो जाता है । स्वस्थानक्षेत्रको संख्यातरूपोंसे गुणा करके संख्यात घनांगुलोंसे अपवर्तित करनेपर ज्योतिष्क देवों की राशि हो जाती है। इस राशिको ज्योतिष्क देवोंके शरीरोत्सेधसे गुणित विमानोंके भीतरी प्रतरांगुलोंसे गुणा करनेपर ज्योतिष्क देवोंका स्वस्थानक्षेत्र हो जाता है, जो कि तिर्यग्लोक के संख्यातवें भागमात्र होता है । विशेष बात यह है कि देवोंके शरीर के उत्सेधसे गुणित विमानोंके भीतरी प्रतरांगुल, उत्सेधांगुल हैं, ऐसा समझ करके उनके प्रमाणांगुल करना चाहिए । शंका- वे प्रतरांगुल उत्सेधांगुल हैं, यह कैसे जाना ? समाधान - यदि उन प्रतर गुलोंको उत्सेधांगुल न माना जायगा, तो जम्बूदीपके भीतर जम्बूद्वीपस्थ तारागणों के रहनेको अवकाश न मिल सकेगा । अथवा, ये प्रतरांगुल प्रमाणांगुल ही हैं । शंका- तो फिर ये जम्बूद्वीप में कैसे समाते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र, इन दोनों को ही आश्रय करके वे ज्योतिष्क विमान अवस्थित हैं । अर्थात्, जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र, इन दोनों क्षेत्रों में जम्बूद्वीपसम्बन्धी ज्योतिष्क- विमान रहते हैं । विशेषार्थ -- जम्बूद्वीपसम्बन्धी दोनों चन्द्रोंके परिवार में तारोंकी संख्या एक लाख तेतीस हजार नौ सौ पचास कोड़ाकोड़ी है । एक तारेका जघन्य विष्कंभ कोशका और उत्कृष्ट १ कोशका कहा गया है, तथा उत्सेध विष्कंभसे आधा तथा आकार उत्तान गोलार्ध सदृश है । (त्रिलोकसार गाथा ३३७, ३३८ ) । तदनुसार मध्यम विष्कंभ रे कोश लेकर एक १ प्रतिषु 'समुदेहि वि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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