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________________ १,५, २९५. ] कालानुगमे तेउ - पम्मलेस्सियकालपरूवणं [ ४६५ पम्मलेस्सिओ जादो । दीहमंतोमुहुत्तमच्छिय सदार- सहस्सारकप्पवासिय देवेसु उववण्णो । तत्थ अट्ठारह सागरोवमाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण भहियाणि जीविदूण चुदस्स ट्ठा पम्मलेस्सा | असंजदसम्मादिट्ठिस्स उच्चदे - एको संजदो पम्मलेस्साए अंत मुहुतमच्छिदो सदार-सहरसा देवेसु अट्ठारस सागरोवमाणि अंतोमुहुत्तूणमद्धसागरं च आउअं करिय कमेण कालं करिय सहस्सारदेवेसु उववज्जिय सगट्ठिदिमच्छिय चुदो मणुसो जादो । तत्थ वि अंतोमुहुत्तं पम्मलेस्साए अच्छिय सुकलेस्सं तेउलेस्सं वा गदो । लद्धाणि अंतीमुत्तूद्धसागरोवमेण अहियाणि अट्ठारस सागरोवमाणि । सासणसम्मादिट्टी ओघं ॥ २९४ ॥ कुदो ? णाणाजीव पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण सगरासीदो असंखेज्जगुणो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण छ आवलियाओ, इच्चेदेहि तेउ - पम्मलेस्सियसासणाणं तत्तो भेदाभावा । सम्मामिच्छादिट्टी ओघं ॥ २९५ ॥ मिथ्यादृष्टि जीव अपने कालके क्षीण होने पर पद्मलेश्यावाला हो गया । और वहां उस लेश्या में उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रह करके शतार - सहस्रारकल्पवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहां पर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक अठारह सागरोपम काल तक जीवित रह कर च्युत हुआ, तब उसके पद्मलेश्या नष्ट हो गई । अब असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके पद्मलेश्याका उत्कृष्ट काल कहते हैं - एक संयत पद्मश्यामें अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा और शतार- सहस्रार देवों में अठारह सागरोपम और अन्तर्मुहूर्त कम अर्ध सागरोपमकी आयुको बांध कर, क्रमसे मरण कर, सहस्रारकल्प के देवोंमें उत्पन्न होकर और अपनी स्थितिप्रमाण वहां रद्द करके च्युत हो मनुष्य होगया । वहां पर भी अन्तर्मुहूर्त तक पद्मलेश्या में रह करके शुक्ललेश्याको या तेजोलेश्याको प्राप्त हुआ । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कम आधे सागरोपम कालसे अधिक अठारह सागरोपम प्राप्त हुए । तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २९४ ॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अपनी राशिले असंख्यातगुणा पल्योपमका असंख्यातवां भाग काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से छह आवलिप्रमाण काल है । इस रूपसे तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले: सासादनसम्यग्दृष्टियोंके कालका ओघप्ररूपणा से कोई भेद नहीं है । उक्त दोनों लेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २९५ ॥ १ सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टयोः सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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