SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Mammirha सिरि-भगवंत-पुप्फदंत-भूदबलि-पणीदो छक्खंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समण्णिदो तस्स पढमखंडे जीवट्ठाणे खेत्ताणुगमो लोयालोयपयासं गोदमथेरं पुणो जिणं वीरं । णमिऊण' खेत्तसुत्तं जहोवएसं पयासेमो ॥ केवलज्ञानरूप सूर्यसे लोक और अलोकके प्रकाशक अर्थात् सर्वज्ञ, गोतम अर्थात् उत्तमवाणीके स्थविर' अर्थात् विधाता (दिव्यध्वनिके प्रणेता), और जिन अर्थात् वीतराग, ऐसे त्रिविध विशेषणविशिष्ट श्रीवीर भगवान्को; अथवा, द्वादशांग ग्रन्थ-रचनासे प्रकाशित किया है लोक और अलोकको जिन्होंने ऐसे, तथा जिन अर्थात् काम क्रोधादि भाव शत्रुओंके जीतनेवाले, और वीर अर्थात् विशेषरूपसे जो प्राणियोंको मोक्षके लिए प्रेरणा करते हैं,या मोक्षमार्गकी भोर चलाते हैं, ऐसे गौतमस्थविर श्रीइन्द्रभूति गणधरको नमस्कार करके क्षेत्रसूत्रको अर्थात् क्षेत्रानुयोगद्वारसम्बन्धी सूत्रोंके अर्थको जैसा उपदेश अर्थरूपसे दिव्यध्वनिके द्वारा श्रीवीर भगवान्ने दिया और ग्रन्थरूपसे श्री गौतम गणधरने दिया, उसीके अनुसार हम (वीरसेन) भी प्रकाशित करते हैं। १ म १ प्रतौ ' णमियूण ' इति पाठः। २ . थेरो विही विरिंचो' पा. ल. ना. २. थेरो के, थेरो ब्रह्मा. दे. ना. मा. ५, २९. स्थविर:...... धाता विधाता. है. को. २, १२५-१२६. ३ विशेषेण ईरयति मोक्षं प्रति प्रेरयति गमयति वा प्राणिन इति वीरः । ( अमि. रा. वीर.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy