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________________ शंका-समाधान (१७) अवस्थामें उसके जीवप्रदेश भी शरीरके भीतर ही भीतर शीघ्रतासे भ्रमण करने लगते हैं, जिसके कारण उसे पृथिवी आदि सब घूमते हुए दिखाई देने लगते हैं। यदि द्रव्येन्द्रियप्रमाण जीवप्रदेशोंको स्थिर माना जाय तो उक्त अवस्थामें भूमंडलादिके घूमते हुए दिखनेका कोई कारण नहीं रह जाता । इसलिये आचार्य कहते हैं कि 'आत्मप्रदेशोंके भ्रमण करते समय द्रव्येन्द्रियप्रमाण आत्मप्रदेशोंका भी भ्रमण स्वीकार कर लेना चाहिये । आधुनिक मान्यतासम्बन्धी भूभ्रमणका तो दर्शन किसीको किसी अवस्थामें भी होता नहीं है। इसलिये यहां उस भूमिभ्रमणका कोई उल्लेख नहीं प्रतीत होता । पुस्तक २, पृ. ४२३. २ शंका- नकशा नं. २ में प्राणके खानेमें सयोगिकेवलीकी अपेक्षा २ प्राण भी होना चाहिये ? (रतनचंदजी मुख्तार, सहारनपुर. पत्र, ३-४-४१.) समाधान-प्रस्तुत प्रकरणमें अपर्याप्त जीवोंके सामान्य आलाप बतलाए गए हैं, जिनमें क्रमशः संज्ञी पंचेन्द्रियसे लगाकर एकेन्द्रिय तकके समस्त जीवोंकी विवक्षा है, केवलिसमुद्धात जैसी विशेष अवस्थाओंकी यहां विवक्षा नहीं है। इसी कारण शंकाकार द्वारा बतलाये गये २ प्राण न मूल टीकामें कहे गये, न अनुवादमें लिये गये, और न उक्त नकशेमें दिखाये गये । किन्तु पृष्ठ नं. ४४४ नकशा नं. २५ पर जहां सयोगिकेवलीके ही आलाप बतलाये गये हैं, वहांपर साधारण अवस्थामें होनेवाले चार प्राणोंका और विशेष अवस्थामें होनेवाले उक्त दो प्राणोंका उल्लेख किया ही गया है। पुस्तक २, पृ. ४३२-४३५ ३ शंका-अर्थमें तथा नकशा नं. १४, १५, १६ और १७ में वेदके आलापमें जो तीन वेद कहे हैं सो वहां ३ भाव वेद कहना चाहिये । ( नानकचंदजी, खतौली, पत्र ता. १०-११-४१. समाधान-नकशा नं. १४, १५, १६, १७ संबंधी आलापोंमें तथा इससे आगे पीछेके सभी आलापोंमें भाववेदकी ही विवक्षा की गई है। धवलाकारने लेश्या आलापमें जैसे द्रव्यलेश्या और भावलेश्याका विभाग कर पृथक् पृथक् वर्णन किया है, वैसा वेद आलापमें द्रव्यवेद और भाववेदका विभाग कर मूलमें कहीं वर्णन नहीं किया है । अतः उक्त नकशोंमें भी भाववेद लिखनेकी आवश्यकता नहीं समझी, यद्यपि तात्पर्य यहां तथा अन्यत्र भाववेदसे ही है। पुस्तक २, पृ. ४३४ ।। ४ शंका-पृष्ठ ४३३ पर जो प्रमत्तसंयत पर्याप्त तथा अपर्याप्तका कथन है, उनके यंत्र क्यों नहीं बनाए गए ? __ (नानकचंदजी, खतौली, पत्र ता. १०-११-४१) ___ समाधान-प्रस्तुत ग्रंथभागमें उन्हीं यंत्रोंको बनाया गया है, जिनका वर्णन धवला टीकामें पाया जाता है । प्रमत्तसंयत पर्याप्त तथा अपर्याप्तके आलापोंका धवला टीकामें कथन नहीं है, अतः उनके पृथक् यंत्र भी नहीं बनाये गये । तो भी विषयके प्रसंगवश विशेषार्थके अन्तर्गत सर्व साधारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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