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________________ (१८) षट्खंडागमकी प्रस्तावना पाठकोंके परिज्ञानार्थ पृ. ४३३ पर उनका कथन किया गया है । पुस्तक २, पृ. ४५१ . ५ शंका-पृ. ४५१, यंत्र ३१, में प्राणमें अ, लिखा है सो नहीं होना चाहिये ! ( नानकचंदजी खतौली, पत्र १०-११-४१) समाधान-जिन गुणस्थानों या जीवसमासोंमें पर्याप्त और अपर्याप्त कालसम्बन्धी आलाप सम्भव हैं, उनके सामान्य आलाप कहते समय पाठकोंको भ्रम न हो, इसलिए पर्याप्त कालमें सम्भव प्राणों के आगे प लिखा गया है । तथा अपर्याप्त कालमें सम्भवित प्राणों के आगे अ लिखा गया है। इसी नियमके अनुसार प्रस्तुत यंत्र नं. ३१ में नारक सामान्य मिथ्यादृष्टियोंके आलाप प्रकट करते समय पर्याप्त अवस्थामें होनेवाले १० प्राणोंके नीचे प और अपर्याप्त अवस्थामें सम्भव ७ प्राणोंके आगे अ लिखा गया है। पुस्तक २, पृ. ६२३ ६ शंका-पृ. ६२३ के विशेषार्थमें यह और होना चाहिए कि चौदहवें गुणस्थानमें पर्याप्तका उदय रहता है, लेकिन नोकर्मवर्गणा नहीं आती ? (रतनचंदजी मुख्तार, सहारनपुर, पत्र ३-४-४१) __ समाधान-उक्त विशेषार्थमें जो बात सयोगिकेवलीके लिये कही गई है, वह अयोगिकेवल के लिये भी उपयुक्त होती है । अतएव वहां उक्त भावार्थको लेनेमें कोई आपत्ति नहीं। पुस्तक २, पृ. ६३८ ७ शंका-यंत्र नं. २५३ के प्राणके खानेमें ३, २ भी होना चाहिए, क्योंकि, योगके खानेमें ६ योग लिखे हैं ? ( रतनचंदजी मुख्तार, सहारनपुर, पत्र ३-४-४१) समाधान-योगके खानेमें ६ योग लिखे जानेसे ३ और २ प्राण और भी कहनेकी आवश्यकता प्रतीत होना स्वाभाविक ही है। किन्तु, यहांपर ६ योगोंका उल्लेख विवक्षाभेदसे ही किया गया है, जैसा कि मूलके ' अथवा तीन योग ' इस कथन से स्पष्ट है, और जिसका कि अभिप्राय वहीं पर विशेषार्थमें स्पष्ट कर दिया गया है ( देखो पृ. ६३८ )। इसी कारण प्राणोंके खानेमें ३ और २ प्राणोंका उल्लेख नहीं किया गया है। पुस्तक २, पृ. ६४८ ८ शंका-पृ. ६४८ पर काययोगी अप्रमत्तसंयत जीवोंके आलापमें वेद लिखा है सो यहां भाववेद होना चाहिए ! ( नानकचंदजी खतौली, पत्र १०-११-४१) समाधान- इसका उत्तर शंका नं. ३ में दे दिया गया है। पुस्तक २, पृ. ६५४, ६६० ९ शंका-पृष्ठ ६५४ पर समाधान जो पहला किया गया है, उसमें लिखा है कि 'अपर्याप्त योगमें वर्तमान कपाटसमुद्धातगत सयोगकेवलीका पहलेके शरीरके साथ सम्बन्ध नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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