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________________ १३२) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २१२. जधा-एको पमत्तसंजदो मणजोगे वचिजोगे वा अच्छिदो आहारकायजोगं गदो । विदियसमए मदो, मूलसरीरं वा पविट्ठो । उकस्सेण अंतोमहत्तं ॥ २१२ ।। तं जधा-मणजोगे वचिजोगे वा द्विदपमत्तसंजदो आहारकायजोगं गदो', सव्वुक्कस्समंतोमुहुत्तमाच्छिय अण्णजोगं गदो । आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २१३ ॥ तं जधा- सत्तट्ठ जणा पमत्तसंजदा दिट्ठमग्गा आहारमिस्सजोगिणो जादा, सबलहुमंतोमुहुत्तेण पज्जत्तिं गदा । एवं जहण्णकालो परूविदो । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २१४॥ तं जधा-सत्तट्ठ जणा पमत्तसंजदा दिद्वमग्गा अदिट्ठमग्गा वा आहारमिस्सकायजोगिणो जादा, अंतोमुहुतेण पज्जत्तिं गदा। तस्समए चेव अण्णे आहारमिस्सकायजोगिणो जादा । एवमेक-दो-तिण्णि जाव संखेज्जसलागा जादा ति कादव्वं । पुणो जैसे-मनोयोग या वचनयोगमें विद्यमान कोई एक प्रमत्तसंयत जीव आहारककाययोगको प्राप्त हुआ और द्वितीय समयमें मरा, अथवा मूल शरीरमें प्रविष्ट होगया । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।। २१२ ॥ जैसे-मनोयोग या वचनयोगमें विद्यमान कोई एक प्रमत्तसंयत जीव आहारककाययोगको प्राप्त हुआ। वहां पर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकाल रह करके अन्य योगको प्राप्त हुआ। आहारकमिश्रकाययोगियोंमें प्रमत्तसंयतजीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्तकाल होते हैं ॥ २१३ ॥ जैसे- देखा है मार्गको जिन्होंने ऐसे सात आठ प्रमत्तसंयत जीव आहारकमिश्रकाययोगी हुए और सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तसे पर्याप्तपनेको प्राप्त हुए। इस प्रकार जघन्य काल कहा। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २१४ ॥ जैसे- देखा है मार्गको जिन्होंने ऐसे, अथवा अदृष्टमार्गी सात आठ प्रमत्तसंयत जीव आहारकमिश्रकाययोगी हुए और अन्तर्मुहूर्तसे पर्याप्तियों की पूर्णताको प्राप्त हुए। उसी समयमें ही अन्य भी प्रमत्तसंयत जीव आहारकमिश्रकाययोगी हुए। इस प्रकारसे एक, दो, तीनको आदि लेकर जब तक संख्यात शलाकाएं पूरी हों, तब तक संख्या बढ़ाते जाना १ अ-आ प्रत्योः अत्र - विदियसमए मदो' इत्यधिकः पाठः; क प्रतौ म-प्रत्योस्तु तत्पाठो नोपलभ्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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