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________________ १, ५, २०२.] कालाणुगमे कायजोगिकालपरूवणं [१२७ एत्थ ताव मिच्छादिहिस्स जहण्णकालो वुच्चदे- सत्तट्ठ जणा बहुआ वा दव्वलिंगिणो उवरिमगेवज्जेसु उववण्णा सव्वलहुमंतोमुहुत्तेण पज्जत्तिं गदा। संपहि सम्मादिट्ठीणं वुच्चदेसंखेज्जा संजदा सबट्ठदेवेसु दो विग्गहं कादूण पज्जत्तिं गदा । किमटुं दो विग्गहे कराविदा ? बहपोग्गलग्गहणटुं । तं पि किमहूँ ? थोवकालेण पज्जत्तिसमाणहूँ। मिच्छादिही दो विग्गहे किण्ण कराविदो ? ण, तत्थ वि पडिसेहाभावा । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ २०२॥ सत्तट्ठ जणा उक्कस्सेण असंखेज्जसे ढिमेत्ता वा मिच्छादिविणो देव-गैरइएसु उववन्जिय वेउव्वियमिस्सकायजोगिणो जादा, अंतोमुहुत्तेण पज्जत्तिं गदा । तस्समए चेव अण्णे मिच्छादिविणो वेउब्धियमिस्सकायजोगिणो जादा । एवमेक्क-दो-तिण्णि उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताओ सलागाओं लब्भंति । एदाहि वेउब्धियमिस्सद्धं यहां पर पहले मिथ्याष्टिका जघन्य काल कहते है- सात आठ जन, अथवा बहुतसे द्रव्यलिंगी जीव उपरिम अवेयकोंमें उत्पन्न हुए और सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तकालसे पर्याप्तकपनेको प्राप्त हुए। अब सम्यग्दृष्टिका जघन्य काल कहते हैं- संख्यात संयत दो विग्रह करके सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवों में पर्याप्तियोंकी पूर्णताको प्राप्त हुए। शंका-दो विग्रह किस लिए कराये गये हैं ? समाधान-बहुतसी पुद्गलवर्गणाओं के ग्रहण करनेके लिए दो विग्रह कराये गये हैं ? शंका-बहुतसे पुद्गलोका ग्रहण भी किसलिए कराया गया ? समाधान-अल्पकालके द्वारा पर्याप्तियोंके सम्पन्न करनेके लिए बहुतसे पुगलोका प्रहण आवश्यक है। शंका-मिथ्यादृष्टि जीवके दो विग्रह क्यों नहीं कराये गये? समाधान-नहीं, क्योंकि, उनमें भी प्रतिषेधका अभाव है, अर्थात् मिथ्याष्टि जीव भी दो विग्रह कर सकते हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल पस्योपमके असंख्यातवें भाग है ॥ २०२॥ ___ सात आठ जन, अथवा उत्कर्षसे असंख्यातश्रेणिमात्र मिथ्यादृष्टि जीव देव, अथवा नारकियोंमें उत्पन्न होकर वैक्रियिकमिश्रकाययोगी हुए, और अन्तर्मुहूर्तसे पर्याप्तियोंकी पूर्णताको प्राप्त हुए। उसी समयमें ही अन्य मिथ्यादृष्टि जीव वैक्रियिकमिश्रकाययोगी हुए । इस प्रकारसे एक, दो, तीनको आदि लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र १ अ-आ-क प्रतिषु ' संखेज्जासंखेज्जा संजदा'; म २ प्रतौ तु स्वीकृतः पाठः । २ अ-आ-क प्रतिषु 'सलागाओ' इति पाठो नास्ति । म २ प्रतौ तु अस्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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