SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९६ ] छक्खंडागमे जीवाण [ १, ५, १२५. सज्झ-साहणाणमेयत्तं ? ण, पमाणेणाणेयंता । किंतु एगजीवजहण्णआउट्ठदिकालादो तस्से बुक्कस्सभवट्टिदिकालो संखेज्जगुणो णाणा आउट्ठिदिसमूहणिष्फण्णत्तादो । सुहुमेइंदिय अपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ।। १२५ ॥ सुगममेदं सुत्तं, बहुसो परुविदत्तादो । कधमेग बहुवयणाण मेगमहियरणं ? ण एस दोसो, सव्वत्थ दोण्हमण्णोष्णाविणाभाववलंभा । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १२६ ॥ असंजद सम्मादिट्ठीणमवहारकालो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो वि होतो अंतोमुहुत्तमिदि सुत्ते णिद्दिट्ठो । एसेो अपज्जत्ताउदी जहणिया संखेज्जावलियमेत्ता अंतमुत्तमदि सुत्ते किण्ण वृत्ता ? ण एस दोसो, पज्जत्ताउआदो अपज्जत्तजहण्णाउअं संखेज्जगुणहीणमिदि पदुप्पायणङ्कं खुद्दाभवग्गहणस्सुवदेसा । शंका - साध्य और साधन, इन दोनोंके एकत्व कैसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उक्त कथन में प्रमाणसे अनेकान्त है, अर्थात्, प्रमाण स्वयं साध्य होते हुए भी अन्यका साधक होता है । किन्तु यथार्थ बात यह है कि एक जीवकी जघन्य आयुस्थितिके कालसे उसीकी उत्कृष्ट भवस्थितिका काल संख्यातगुणा होता है, क्योंकि, वह नाना आयुस्थितियोंके समूह से निष्पन्न होता है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १२५ ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, पहले बहुतवार प्ररूपण किया गया है । शैका - एकवचन और बहुवचन, इन दोनोंका एक अधिकरण कैसे हो सकता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, सर्वत्र ही एकवचन और बहुवचन, इन दोनोंका अविनाभावसम्बन्ध पाया जाता है । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ १२६ ॥ शंका- असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अवहारकाल आवलीके असंख्यातवें भागमात्र होता हुआ भी ' अन्तर्मुहूर्त है' ऐसा सूत्रमें निर्देश किया गया है । फिर यह लब्ध्यपर्याप्तक जीवों की जघन्य आयुस्थिति संख्यात आवलीप्रमाण होते हुए भी ' अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है' ऐसा सूत्रमें क्यों नहीं कहा ? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, पर्यातक जीवोंकी ( जघन्य ) आयुसे लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंकी जघन्य आयु संख्यातगुणी हीन होती है, यह बतलानेके लिए सूत्र में क्षुद्रभवग्रहणका उपदेश दिया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy