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१, ३, ८५. ]
खेत्तागमे सम्मत्तमग्गणाखे तपरूवणं
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असंजद
सत्थाणसत्याण-विहार व दिसत्थाण- वेदण-कसाय- वेउब्वियसमुग्धादगदा सम्माइट्ठी चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । मारणंतिय उववादपदेसु एसो चेव आलावा । णवरि तेसु पदेसु' द्विदजीवा संखेज्जा चेत्र होंति, उवसम सेढदो ओरिय उवसमसम्मतेण सह असंजमं पडिवण्णजीवाणं संखेज्जतुवलंभादो । सेस व समसम्मादिदुणिं किष्ण मरणमत्थि त्ति वृते सभावदो । एवं संजदासंजदाणं पिं । वरि उववादपदं णत्थि । सेसाणमोघं । वरि पमत्तसंजदस्स उवसमसम्मत्तेण तेजा - हारं णत्थि ।
सास सम्मादिट्टी ओघं ॥ ८३ ॥ सम्मामिच्छादिट्टी ओघं ॥ ८४ ॥ मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ८५ ॥
स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनास मुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और मानुषक्षेत्र से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद इन दोनों पदों में भी यही उक्त क्षेत्र-आलाप जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि उन दोनों पदों में वर्तमान जीव संख्यात ही होते हैं, क्योंकि, उपशमश्रेणिसे उतर कर उपशमसम्यक्त्वके साथ असंयमभावको प्राप्त होनेवाले जीवोंकी संख्या संख्यात ही पाई जाती है ।
शंका-उपशमश्रेणी से उतर कर मरनेवाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके अतिरिक्त शेष अन्य उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका मरण क्यों नहीं होता है ?
समाधान – स्वभावसे ही नहीं होता है |
इसी प्रकार से संयतासंयत गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका क्षेत्र भी जानना चाहिए । विशेष बात यह कि उनके उपपादपद नहीं होता है । शेष गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघ वर्णित क्षेत्र के समान है। विशेषता केवल इतनी है कि प्रमत्तसंयतके उपशमसम्यक्त्वके साथ तैजससमुद्धात और आहारकसमुद्धात नहीं होते हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघके समान है ॥ ८३ ॥ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघके समान है ॥ ८४ ॥ मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघ के समान है ।। ८५ ।।
१ प्रतिषु 'पदेसेसु ' इति पाठः ।
२ प्रतिषु ' हि' इति पाठः ।
३ Xxx सासादनसम्यग्दृष्टनि सम्य मिथ्यादृष्टीनां मिथ्यादृष्टीनां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् | स. सि. १,८.
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