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________________ ४८२ ] हक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ५, ३१९. .. उवसमसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ।। ३१९ ॥ तं जहा- सत्तट्ट जणा बहुआ वा मिच्छादिट्ठिणो उवसमसम्मत्तं पडिवण्णा । उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियसेसाए सव्वे आसाणं गदा । अंतरं गदं ।। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागों ।। ३२० ॥ तं जहा- सत्तटु जणा बहुआ वा मिच्छादिट्टिणो उवसमसम्मत्तं पडिवण्णा । तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय वेदगसम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं सासणसम्मत्तं मिच्छत्तं वा गदा । एदस्स एगा सलागा णिक्खिविदव्या । तस्समए चेव अण्णे मिच्छादिट्टिणो उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय चदुण्हं गुणट्ठाणाणमण्णदरं गदा । विदियसलागा लद्धा होदि । एवं तिष्णि चत्तारि आदि गंतूण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताओ सलागाओ लब्भंति । तं कधं णव्वदे ? आइरियपरंपरागदुवदेसादो। एदाहि सलागाहि उवसमसम्मत्तद्धं गुणिदे सगरासीदो असंखेज्जगुणो अणंतरकालो होदि । ___ उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त काल होते हैं ॥ ३१९॥ जैसे- सात आठ जन, या बहुत से मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुए, और उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलीप्रमाण कालके अवशिष्ट रहने पर सभीके सभी सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो गये और पुन: अन्तरको प्राप्त हुए। उपशमसम्यग्दृष्टि असंयत और संयतासंयतोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है ।। ३२० ॥ जैसे-सात आठ जन, अथवा बहुतसे मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुए। उसमें अन्तर्मुहूर्त रह करके वे सव वेदकसम्यक्त्वको, या सम्यग्मिथ्यात्वको, या सासादनसम्यक्त्वको, अथवा मिथ्यात्वको प्राप्त हुए । इसकी एक शलाका स्थापित करना चाहिए । उसी समयमें ही अन्य भी मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होकर, उसमें अन्तर्मुहूर्त रह कर, पूर्वोक्त चार गुणस्थानों से किसी एक गुणस्थानको प्राप्त हुए। यह दूसरी शलाका प्राप्त हुई। इस प्रकारसे तीन चारको आदि लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र शलाकाएं प्राप्त होती हैं। शंका-यह कैसे जाना जाता है कि उपशमसम्यक्त्वकी शलाकाएं पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र होती हैं ? समाधान-आचार्यपरम्परागत उपदेशले यह जाना जाता है। इन लब्ध शलाकाओंसे उपशमसम्यक्त्वके कालको गुणा करने पर अपनी राशिसे असंख्यातगुणा अन्तररहित उपशमसम्यक्त्वका काल होता है । १ औपशमिकसम्यक्त्वेषु असंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतयो नाजीवापेक्षया जघन्येनान्तर्मुहर्तः। स. सि. १,८ २ उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभागः । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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