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________________ १, ५, १६३.] कालाणुगमे मण-वचिजोगिकालपरूवणं [१०९ उक्कस्सेण बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-पंचिंदियअपज्जत्तएसु जहाकमेण असीदि-सट्टिचालीस-चदुवीस-अणुबद्धभवेसु बहुसदवारपरियट्टणसंभूदअंतोमुहुत्तकालो इच्चेदेहि विसेसाभावा । एवं कायमग्गणा समत्ता । जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीसु मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासंजदा पमत्तसंजदा अप्पमत्तसंजदा सजोगिकेवली केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १६२॥ कुदो? मणजोग-वचिजोगेहि परिणमणकालादो तदुवक्कमणकालंतरस्स थोवत्तादो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १६३॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थणिच्छयसमुप्पायणहँ मिच्छादिट्ठिआदिगुणट्ठाणाणि अस्सिदण एगसमयपरूवणा कीरदे । एत्थ ताव जोगपरावत्ति-गुणपरावत्ति-मरण-वाघादेहि मिच्छत्तगुणट्ठाणस्स एगसमओ परूविज्जदे । तं जधा- एक्को सासणो सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासंजदो पमत्तसंजदो वा मणजोगेण अच्छिदो । एगसमओ मणग्रहण, उत्कृष्ट काल, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंमें यथाक्रमसे अस्सी, साठ, चालीस और चौबीस क्षुद्रभवों में कई सौ वार परिवर्तनसे उत्पन्न हुआ अन्तर्मुहूर्तकाल होता है, इस प्रकारसे कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार कायमार्गणा समाप्त हुई । योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवों में मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगिकेवली कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १६२॥ क्योंकि, मनोयोग और वचनयोगके द्वारा होनेवाले परिणमन कालसे उनके उपक्रमणकालका अन्तर अल्प पाया जाता है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥ १६३ ॥ इस सूत्रके अर्थ-निश्चयके समुत्पादनार्थ मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंको आश्रय करके एक समयकी प्ररूपणा की जाती है-उनमेंसे पहले योगपरिवर्तन, गुणस्थानपरिवर्तन मरण और व्याघात, इन चारोंके द्वारा मिथ्यात्वगुणस्थानका एक समय प्ररूपण किया जाता है। वह इस प्रकार है-सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कोई एक जीव मनोयोगके साथ विद्यमान था। १ योगानुवादेन वाङ्मानसयोगिषु मिथ्यादृष्टयस यतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्सयोगकेवलिना नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. २ एकजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । स. सि. १.८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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