SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, ४. ण करेंति त्ति सिद्धं । देवसासणा एइंदिएसु मारणंतियं करेमाणा सबलोगेइंदिएसु किण्ण मारणंतियं करेंति ति ? ण, तेसिं सासणगुणपाहम्मेण लोगणालीए बाहिरमुप्पज्जणसहावाभावादो । लोगणालीए अभंतरे मारणंतियं करेंता वि भवणवासियजगमूलादोवरि चेव देव-तिरिक्खसासणसम्मादिट्ठिणो मारणंतियं करेंति, णो हेट्ठा । कुदो ? सासणगुणपाहम्मादो चेव । रज्जुपदरमेत्तपुढवी उवरि णत्थि । देवा वि सुहुमेइंदिएसु ण उप्पज्जंति । ण च बादरेइंदिया वाउक्काइयवदिरित्ता पुढवीए विणा अण्णत्थ अच्छंति । तदो सासणमारणंतियखेत्तस्स वारह चोदसभागोवदेसो ण घडदि त्ति ? ण एस दोसो, ईसिपब्भारपुढवीदो उवरि सासणाणमाउकाइएसु मारणंतियसंभवादो, अट्ठमपुढवीए एगरज्जुपदरभंतरं सबमावरिय द्विदाए तेसिं मारणंतियकरणं पडि विरोहाभावादो च। चाउकाइएसु सासणा मारणंतियं किण्ण करेंति ? ण, सयलसासणाणं देवाणं व तेउ-वाउकाइएसु मारणंतियाभावादो, णान्तिकसमुद्धात नहीं करते हैं, यह बात सिद्ध हुई। शंका-सासादनसम्यग्दृष्टि देव, जबकि एकेन्द्रियों में मारणान्तिकसमुद्धात करते हुए पाए जाते हैं, तो फिर सर्वलोकवर्ती एकेन्द्रियों में क्यों नहीं मारणान्तिकसमुद्धात करते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उनके सासादनगुणस्थानकी प्रधानतासे लोकनालीके बाहर उत्पन्न होनेके स्वभावका अभाव है। और लोकनालीके भीतर मारणान्तिकसमुद्धातको करते हुए भी भवनवासी लोकके मूलभागसे ऊपर ही देव या तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मारणान्तिकसमुद्धातको करते हैं, उससे नीचे नहीं, क्योंकि, उनमें सासादनगुणस्थानकी ही प्रधानता है। शंका-राजुप्रतरप्रमाण पृथिवी ऊपर नहीं है। देव भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में नहीं उत्पन्न होते हैं, और बादर एकेन्द्रिय जीव वाचुकायिक जीवोंको छोड़कर पृथिवीके पिना अन्यत्र रहते नहीं हैं। इसलिए सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके मारणान्तिकक्षेत्रका बारह बटे चौदह (१४) भागका उपदेश घटित नहीं होता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ईषत्प्राग्भार पृथिवीसे ऊपर सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अप्कायिक जीवों में मारणान्तिकसमुद्धात संभव है, तथा एक राजुप्रतरके भीतर सर्वक्षेत्रको व्याप्त करके स्थित आठवीं पृथिवीमें उन जीवोंके मारणान्तिकसमुद्धात करनेके प्रति कोई विरोध भी नहीं है । शंका-सासादनसम्यग्दृष्टि जीव, वायुकायिक जीवों में मारणान्तिकसमुद्धातको क्यों महीं करते हैं? समाधान-नहीं, क्योंकि, सकल सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका देवोंके समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy