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________________ कालानुगम-विषय-सूची (५७) क्रम नं. विषय पृ. नं. क्रम नं. विषय पृ.नं. १९६ तीनों अशुभ लेश्यावाले सम्य स्थानोंके तेज और पनलेश्याग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल वाले जीवोंकी लेश्या और १९७ तीनों अशुभ लेश्यावाले असं गुणस्थानपरिवर्तनकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा क्यों यतसम्यग्दृष्टि जीवोंका नाना नहीं कही, इस शंकाका और एक जीवकी अपेक्षा समाधान ४६७-४६८ सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट काल-निरूपण, तथा तदन्तर्गत २०५ तेज और पद्मलेश्याके समान अनेकों शंकाओंका सप्रमाण कापोत और नील लेश्याओंका समाधान ४५९-४६२ भी एक समय पाया जाता है, १९८ तेजोलेश्या और पद्मलेश्या फिर उसे क्यों नहीं कहा, इस वाले मिथ्यादृष्टि तथा असंयत शंकाका समाधान ४६८ सम्यग्दृष्टि जीवोंका नाना और २०६ तेज या पद्मलेश्याके कालमें एक जीवकी अपेक्षा सोदा एक समय शेष रहनेपर जैसे हरण जघन्य और उत्कृष्ट काल ४६२-४६५ नीचेके गुणस्थानवाले संयमा१९९ मिथ्यादृष्टि जीवके तेजो संयमको प्राप्त होते हैं, उसी लेश्याकी उत्कृष्ट स्थिति प्रकारसे प्रमत्तसंयत भी अन्तर्मुहूर्तसे कम अढ़ाई साग संयमासंयम गुणस्थानको क्यों रोपम प्रमाण क्यों नहीं होती, नहीं प्राप्त होता, इस शंकाका इस शंकाका, तथा इसीसे समाधान ४७० सम्बन्धित अन्य कई शंकाओंका अपूर्व समाधान ४६३.४६५ २०७ पद्मलेश्याके काल में विद्यमान २०० तेजोलेश्या और पद्मलेश्या कोई प्रमत्तसंयत उस लेश्याके वाले सासादनसम्यग्दृष्टि कालक्षयसे तेजोलेश्यासे परिजीवोंका काल णत होकर दूसरे समयमें २०१ उक्त दोनों लेश्यावाले सम्य अप्रमत्तसंयत क्यों नहीं होता, मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल ४६५-४६६ इस शंकाका समाधान ४६९-४७० २०२ उक्त दोनों लेश्यावाले संयता २०८ उक्त प्रकारका जीव मिथ्यात्व संयत, प्रमत्तसंयत और अप्र आदिक नीचेके गुणस्थानोंको मत्तसंयत जीवोंका नाना क्यों नहीं प्राप्त हो जाता, इस जीवोंकी अपेक्षा काल शंकाका समाधान ४७० २०३ उक्त जीवोंके एक जीवकी २०९ तेज और पद्मलेश्यावाले अपेक्षा लेश्यापरिवर्तन, गुण संयतासंयतादि तीन गुणस्थानस्थानपरिवर्तन और मरण, वाले जीवोंका उत्कृष्ट काल ४७१ इन तीनके द्वारा जघन्य २१० शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि कालका निरूपण ४६६-४७१ और एक जीवकी २०४ मिथ्यादृष्टि और असंयत अपेक्षा सोदाहरण जघन्य और सम्यग्दृष्टि, इन दो गुण उत्कृष्ट कालका निरूपण ४७१-४७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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