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________________ ३७६ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ७७. संजदासंजद-पमत्तसंजदेहि संखेज्जवारमणुसंचिदद्धाणमंतोमुहुत्तुवलंभा। ... एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ७७ ॥ . सम्मामिच्छादिहिस्स दिट्ठमग्गस्स पुवुत्त चदुगुणट्ठाणेसु एगजीवण्णदरगुणपच्छायदस्स सव्यजहण्णद्धमच्छिद्ग संकिलेस विसोहिवसेण मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिद्विगुणे पडिवण्णस्स सवजहणंतोमुहुत्तमेत्तकालुबलभा । उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ ७८ ॥ पुव्वुत्तचदुगुणट्ठाणेसु अदिट्ठमग्गेगजीवण्णदरगुणपच्छायदसम्मामिच्छादिहिस्स दीहद्धमच्छिय देस-सयलसंजमविरहिददोगुणट्ठाणे गदस्स सव्वुकस्संतोमुहुत्तुवलंभा। असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा॥ ७९ ॥ कुदो ? असंजदसम्मादिविविरहिदमणुस्साणं सव्वकालमणुवलंभा । संचित हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके सर्वोत्कृष्ट सम्यग्मिथ्यात्वका काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। उक्त तीनों प्रकारके सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्योंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ७७॥ क्योंकि, जिसने पूर्वमें मार्ग देखा है, ऐसे पूर्वोक्त चार गुणस्थानों से किसी एक गुणस्थान से पीछे आये हुए सम्पग्मिथ्यादृष्टिके सर्व जघन्य काल रह कर संक्लेश और विशुद्धिके वशसे मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवके सर्व जघन्य अन्तमुहूर्त काल पाया जाता है उक्त तीनों प्रकारके सम्यग्दृष्टि मनुष्योंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ७८ ॥ - क्योंकि, पूर्वोक्त चार गुणस्थानों से नहीं देखा है मार्ग को जिसने, ऐसे जीवके किसी एक गुणस्थानसे पीछे आये हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टिके दीर्घ काल तक रह करके देशसंयम और सकलसंयमसे रहित दो गुणस्थानोंमें, अर्थात् मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें गये हुए जीवके सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है। उक्त तीनों प्रकारके असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। ७९ ॥ क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे रहित मनुष्योंका कोई भी काल नहीं पाया जाता। १ असंयतसम्यग्दृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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