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________________ १, ४, ७.] फोसणाणुगमे संजदासंजदफोसणपरूवणं [१६७ संखेजदिभागो। एत्थ सत्थाणखेत्तमेलावणविहाणं पुवं व कायव्वं । विहारवदिसत्थाण. वेदण-कसाय-वेउब्वियसमुग्धादगदेहि अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा फोसिदा । एत्थ देसूण विधाणं पुव्वं व वत्तव्यं । असंजदसम्माइट्ठीहि सत्थाणेण तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, अड्डाइजादो असंखेजगुणो फोसिदो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो। तिरियलोगस्स संखेजदिभागखेत्तुप्पायणे सासणभंगो । विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय वेउब्विय-मारणंतियसमुग्धादगदेहि अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा फोसिदा, उवरि छ रज्जू, हेट्ठा दो रज्जु ति । उववादगदेहि छ चोद्दसभागा देसूणा फोसिदा, हेट्ठा असंजदसम्माइट्ठीणं उववादखेत्ताणुवलंभादो।। संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागों ॥७॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-बेउव्विय-मारणंतियपदाणं पजव संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। यहांपर स्वरथानक्षेत्रके मिलाने का विधान पूर्ववत् ही करना चाहिए । विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह (४) भाग स्पर्श किये हैं। यहांपर देशोनका विधान पूर्वके समान ही कहना चाहिए । ___असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने स्वस्थानकी अपेक्षा सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र और तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है । तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागरूप क्षेत्रके उत्पन्न करने में सासादनगुणस्थानके स्पर्शनके समान ही वर्णन जानना चाहिए । विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात और मारणान्तिकसमुद्धातगत उन्हीं असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह (1) भाग स्पर्श किये हैं, जो कि मेरुके मूलसे ऊपर छह राजु और नीचे दो राजुप्रमाण हैं। उपपादपदको प्राप्त उन्हीं असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह (इ) भाग स्पर्श किये हैं; क्योंकि, इससे नीचे असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका उपपादक्षेत्र नहीं पाया जाता है। ___ संयतासंयत जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ७ ॥ ___ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुदात, वैक्रियिकसमुद्धात और मारणान्तिकसमुद्धात पदगत संयतासंयतोंकी पर्यायार्थिकनयसम्बन्धी स्पर्शन १ संयतासंयतैलोकस्यासंख्येयभागः षट् चतुर्दशभागा वा देशोनाः । स. सि. १, .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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