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षट्खंडागमकी प्रस्तावना यहां १६४१२-२५६ खंड किये जाते हैं। इस वर्गक्षेत्रमें जब हम सड के १६ खंडाको भाजक
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मानते हैं तो सड' रूप १६ खंड लब्ध रहते हैं। पर यदि हम
सड को दो भाग अधिक अर्थात्
'स' डेवढ़ा ( २४ खंड प्रमाण) कर दें, तो उसी वर्गराशि प्रमाण क्षेत्रफलको नियत रखनेके लिये हमें सड' को त्रिभागहीन अर्थात १०३ खंडप्रमाण कर लेना पड़ेगा, जो जीवरराशिका त्रिभागहीन (१६-१६) भाग है । यही आचार्य द्वारा समझाये गये और चित्र द्वारा दिखाये गये सिद्धान्तका अभिप्राय है।
पुस्तक ३, पृ. २७८-२७९ १५ शंका-यहाँ जो नारकी वे स्वर्गवासियोंकी राशियां लाने के लिये विष्कंभसूचियां व अवहारकाल बतलाये गये हैं वे खुद्दाबंध और जीवहाणमें न्यूनाधिक क्यों कहे गये हैं ? उनमें समानता मानने में क्या दोष आता है, सो समझ नहीं पड़ता। स्पष्ट कीजिये? (नेमीचंदजी, वकील, सहारनपुर, पत्र २४.११-४१)
समाधान- खुदाबंधमें जो नारकी व देवोंका प्रमाण लानेके लिये विष्कंभसूचियां व अवहारकाल कहे गये है वे उन उन जीवराशियोंमें गुणस्थानका भेद न करके सामान्यराशिके लिये उपयुक्त होते हैं। किन्तु यहाँ जीवस्थानमें गुणस्थानकी विवक्षा है, और प्रस्तुतमें अन्य गुणस्थानोंको छोड़कर केवल मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण कहा जा रहा है जो सामान्यराशिसे कुछ न्यून होगा ही। अतः इस न्यून राशिको बतलानेके लिये जीवाणमें उसकी विष्कंभसूची भी खुद्दाबंधमें कथित विष्कभसूचीसे कुछ न्यून, तथा अवहारकाल उससे अधिक कहा जाना आवश्यक है । यदि हम खुद्दाबंधमें बतलाये गये सामान्यराशिकी विष्कंभसूचीको ही जीवट्ठाणमें मिथ्यादृष्टिराशिकी विष्कमसूची मान लें तो उस समस्त सामान्य जीवराशिका मिथ्यादृष्टियोंमें ही समावेश होकर शेष गुणस्थानोंके उक्त देवों व नारकियोंमें अभावका प्रसंग आ जायगा। खुदाबंध और यहां जीवट्ठाणमें विष्कंभसूची और अवहारकालको समान मान लेनेमें यही दोष उत्पन्न होता है।
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