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________________ १, ५, २५०.] कालाणुगमे चदुकसाइकालपरूवणं [४५ एको मिच्छादिट्ठी अण्णकसाएणच्छिदो, तस्स अद्धाक्खएण कोधकसाओ आगदो, एगसमयं कोहेण सह दिट्ठो । विदियसमए सम्मामिच्छत्तं असंजदसम्मत्तं संजमासंजमं अप्पमत्तभावेण संजमं वा पडिवण्णो । एसा गुणपरावती । एको मिच्छादिट्ठी अण्णकसाएणच्छिदो, तस्सद्धाक्खएण कोहकसाई जादो । एगसमयं कोहेण सह दिहो । विदियसमए मदो अण्णकसाएसु उववण्णो । एसो मरणेण एगसमओ । कोहेण मदो णिरयगदीएण उप्पादेदव्यो, तत्थुप्पण्णजीवाणं पढमं कोधोदयस्सुवलंभा । माणेण मदो मणुसगदीएण उप्पादेदव्यो, तत्थुप्पण्णाणं पढमसमए माणोदयणियमोवदेसा । मायाए मदो तिरिक्खगईएण उप्पादेदयो, तत्थुप्पण्णाणं पढमसमए माओदयणियमोवदेसा । लोभेण मदो देवगदीएण उप्पादेदव्यो, तत्थुप्पण्णाणं पढमं चेय लोहोदओ होदि ति आइरियपरंपरागदुवदेसा' । एवं सेसगुणट्ठाणाणं पि णादण वत्तव्यं । एवं माण-माया लोभाणं वत्तव्यं । णवरि कसाय-गुणपरावत्ति-मरण-वाघादेहि चउहि वि एगसमयपरूवणा वत्तन्वा । समयकी प्ररूपणा है । एक मिथ्यादृष्टि जीव जो कि अन्य कषायमें वर्तमान था, उस कषायके कालक्षयसे क्रोधकषायको प्राप्त हुआ। एक समय वह क्रोधकषायके साथ हाष्टिगोचर हुआ और द्वितीय समयमें सम्यग्मिथ्यात्वको अथवा असंयतसम्यक्त्वको, अथवा संयमासंयमको, अथवा अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त हुआ। यह गुणस्थानपरिवर्तन है। एक मिथ्यादृष्टि जीव अन्य कषायमें विद्यमान था। उस कषायके कालक्षयसे वह क्रोधकषायी हो गया। एक समय क्रोधकषायके साथ दृष्टिगोचर हुआ। पुनः द्वितीय समयमें मरा और अन्य कषायोंमें उत्पन्न हुआ । यह मरणकी अपेक्षा एक समय हुआ। क्रोधकषायके साथ मरा हुआ जीव नरकगतिमें उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि, नरकों में उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सर्व प्रथम क्रोधकषायका उदय पाया जाता है। मानकषायसे मरा हुआ जीव मनुष्यगतिमें उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि, मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवोंके प्रथम समयमें मानकषायके उदयके नियमका उपदेश देखा जाता है। मायाकषायसे मरा हुआ जीव तिर्यग्गति में उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि, तिर्यंचोंके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें मायाकषायके उदयका नियम देखा जाता है । लोभ कषायसे मरा हुआ जीव देवगतिमें उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि, उनमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सर्व प्रथम लोभकषायका उदय होता है। ऐसा आचार्यपरम्परागत उपदेश है। इसी प्रकारसे शेष गुणस्थानोंका भी काल जान कर कहना चाहिए । इसी प्रकार मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषायोंके कालोंकी प्ररूपणा करना चाहिए । विशेष बात यह है कि कषायपरिवर्तन, गुणपरिवर्तन, मरण और व्याघात, इन चारोंके द्वारा एक समयकी प्ररूपणा कहना चाहिए। १ णारयतिरिक्षणरसुरगईसु उप्पण्णपदमकालम्हि । कोहो माया माणो लोहुदओ अणियमो वापि ॥ गो.गी. २८०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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