SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 576
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ५, २९३.] कालाणुगमे तेउ-पम्मलेस्सियकालपरूवणं [ ४६३ उक्कस्सेण वे अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ २९३ ॥ तं जधा-एको मिच्छादिट्ठी काउलेस्साए अच्छिदो। तिस्से अद्धाखएण तेउलेस्सिओ जादो। तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिद्ग मदो सोहम्मे उववण्णो। वे सागरोवमाणि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणब्भहियाणि जीविदूण चुदो णट्ठलेस्सिओ जादो । लद्धा सगद्विदी पुचिल्लंतोमुहुत्तेण अब्भधिया। अंतोमुहुत्तूणअड्डाइज्जसागरोवममेत्ता द्विदी किण्ण लब्मदे ? ण, मिच्छादिहि-सम्मादिट्टीहि उवरिमदेवेसु बद्धमाउअमोवट्टणाघादेण धादिय मिच्छादिट्ठी जदि सुट्ठ महंतं करेदि, तो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणब्भधियवेसागरोवमाणि करेदि, सोहम्मे उप्पजमाणमिच्छादिट्ठीणं एदम्हादो अहियाउट्ठवणे सत्तीए अभावा। अड्डाइजसागरोवमद्विदीए उप्पण्णसम्मादिढि मिच्छत्तं णेदूण उक्कस्सकालं भणिस्सामो ? ण, अंतोमुहुलूणड्डाइज्जसागरोवमेसु उप्पण्णसम्मादिहिस्स सोहम्मणिवासिस्स मिच्छत्तगमणे संभवाभावा । तेजोलेश्याका उत्कृष्ट काल सातिरेक दो सागरोपम और पद्मलेश्याका उत्कृष्ट काल सातिरेक अठारह सागरोपम है ॥ २९३ ॥ जैसे-एक मिथ्यादृष्टि जीव कापोतलेश्यामें विद्यमान था। उस लेश्याके कालक्षयसे वह तेजोलेस्यावाला हो गया। उसमें अन्तर्मुहूर्त रहकर मरा और सौधर्मकल्पमें उत्पन्न हुआ। वहां पर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक दो सागरोपम काल तक जीवित रह कर च्युत हुआ और उसकी तेजोलेश्या नष्ट हो गई। इस प्रकार पूर्वके अन्तर्मुहूर्तसे अधिक दो सागरोपम सौधर्मकल्पकी मिथ्यादृष्टिसम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति तेजोलेश्याको प्राप्त हो गई। शंका-मिथ्यादृष्टि जीवके तेजोलेश्याकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तसे कम अढ़ाई सागरोपमप्रमाण क्यों नहीं पाई जाती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीवोंके द्वारा उपरिम देवों में बांधी हुई आयुको उद्वर्तनाघातसे घात करके मिथ्यादृष्टि जीव यदि अच्छी तरह खूब बड़ी भी स्थिति करे, तो पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अभ्यधिक दो सागरोपम करता है, क्योंकि, सौधर्मकल्पमें उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके इस उत्कृष्ट स्थितिसे अधिक आयुकी स्थिति स्थापन करनेकी शक्तिका अभाव है। शंका-यदि हम अढ़ाई सागरोपम स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुए सम्यग्दृष्टिको मिथ्यात्वमें ले जाकर तेजोलेश्याका उत्कृष्ट काल कहें तो? समाधान-नहीं, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्त कम अढ़ाई सागरोपमकी स्थितिवाले देवों में उत्पन्न हुए सौधर्मनिवासी सम्यग्दृष्टि देवके मिथ्यात्वमें जानेकी संभावनाका अभाव है। १ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमे अष्टादश च सागरोपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १, ८.. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy