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३००] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, १६४. सम्मादिट्ठीणं सुक्कलेस्साए सह देवेसु उववादभावा । पणदालीसलक्खजोयणविक्खंभेण पंचरज्जुआयामेण द्विदखेत्तमाऊरिय सुक्कलेस्सियमिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठिमणुसाणं चेव सुक्कलेस्सियदेवेसुववादुवलंभा । ते तत्थ ण उप्पज्जति त्ति कधं णव्वदे ? पंच चोदसभागुवदेसाभावादो । उववादपरिणदअसंजदसम्मादिट्ठीहि छ चोदसभागा फोसिदा, तिरिक्खअसंजदसम्मादिट्ठीणं सुक्कलेस्साए सह देवेसुववादुवलंभा । सत्थाण-विहार-वेदण-कसायवेउब्बियपरिणदसुक्कलेस्सियसंजदासंजदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो; मारणंतियपरिणदेहि छ चोदसभागा फोसिदा, तिरिक्खसंजदासंजदाणं सुक्कलेस्साए सह अच्चुदकप्पे उववादुवलंभा । सम्मामिच्छादिद्विस्स मारणंतिय-उववादा णत्थि ।
पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ १६४ ॥
लाख योजन विष्कम्भसे और पांच राजु आयामसे स्थित क्षेत्रको व्याप्त करके शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्योंका ही शुक्ललेश्यावाले देवों में उपपाद पाया जाता है।
शंका-शुक्ललेश्यावाले तिर्यंच, शुक्ललेश्यावाले देवों में नहीं उत्पन्न होते हैं, यह कैसे आना?
समाधान-चूंकि, पांच बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्रके उपदेशका अभाव है, इससे जाना जाता है कि शुक्ललेश्यावाले तिर्यंच जीव मरकर शुक्ललेश्यावाले देवों में नहीं उत्पन्न होते है।
उपपादपदपरिणत शुक्ललेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह भाग (४) स्पर्श किये हैं, क्योंकि, तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका शुक्ललेश्याके साथ देवों में उपपाद पाया जाता है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत शुक्ललेश्यावाले संयतासंयतोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकपदपरिणत उक्त जीवोंने छह बटे चौदह (४) भाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, तिर्यच संयतासंयतोंका शकलेश्याके साथ अच्यतकल्पमें उपपाद पाया जाता है। सम्यग्मिथ्याडष्टि शुक्ललेश्यावालोंके मारणान्तिक और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं।
प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १६४ ॥
१ णवरि समुग्धादम्मि य संखातीदा हवंति भागा वा । सबो वा खलु लोगो फासो होदि ति णिदिवो ॥ गो.मी. ५५०॥
२ प्रमत्तादिसयोगकेवल्यन्तानी अलेश्यानां च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १, ,
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