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________________ १, ३, २.] खेत्ताणुगमे उववादपरूवणं (२९ पुब्बिल्लबाहल्लायामेण वादवलयवदिरित्तसचखेत्तावूरणं । पदरसमुग्धादो णाम केवलिजीवपदेसाणं वादवलयरुद्धलोगखेत्तं मोत्तूण सबलोगावूरणं । लोगपूरणसमुग्धादो णाम केवलिजीवपदेसाणं घणलोगमेत्ताणं सबलोगावूरणं । वुत्तं च - वेदण-कसाय-वेउव्वियओ य मरणंतिओ समुग्धादो । तेजाहारो छटो सत्तमओ केवलीणं तु ॥ ११ ॥ उववादो एयविहो । सो वि उप्पण्णपढमसमए चेव होदि । तत्थ उज्जुवगदीए उप्पण्णाणं खेत्तं बहुवं ण लब्भदि, संकोचिदासेसजीवपदेसादो । विग्गहो तिविहो, पाणिमुद्दा लांगलिओ गोमुत्तिओ चेदि । तत्थ पाणिमुद्दा एगविग्गहा । विग्गहो वक्को कुटिलो फैलनेका नाम दंडसमुद्धात है। दंडसमुद्धातमें बताये गये बाहल्य और आयामके द्वारा वातवलयसे रहित संपूर्ण क्षेत्रके व्याप्त करनेका नाम कपाटसमुद्धात है। केवली भगवान्के जीवप्रदेशोंका वातवलयसे रुके हुए लोकक्षेत्रको छोड़कर संपूर्ण लोकमें व्याप्त होनेका नाम प्रतरसमुद्धात है। घनलोकप्रमाण केवली भगवान के जीवप्रदेशोंका सर्व लोकके व्याप्त करनेको केवलिस मुद्धात कहते हैं। कहा भी है विशेषार्थ - पूर्वशरीरके बाहल्यरूप अथवा पूर्वशरीरसे तिगुने बाहल्यरूप दंडाकारसे, ऐसा कहनेका अभिप्राय यह है कि जब खगासनसे विराजमान केवली भगवान् समुद्धात करते हैं उस अवस्थामें पूर्वशरीर के बाहल्यसे कुछ अधिक तिगुनी परिधिवाले दंडाकार आत्मप्रदेश होते हैं। तथा जब पद्मासनस्थ केवली भगवान् समुद्धात करते हैं, तब पूर्वशरीरसे तिगुने बाहल्यकी कुछ अधिक तिगुनी परिधिवाले दंडाकार आत्मप्रदेश निकलते हैं, इसलिए धवलाकारने 'पुवसरीरवाहल्लेण तत्तिगुणबाहल्लेण वा' ऐसा विशेषण दिया है। वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात, तैजससमुद्धात, छठा आहारकसमुद्धात और सातवां केवलिसमुद्धात इसप्रकार समुद्धात सात प्रकारका है ॥ ११॥ उपपाद एकप्रकारका है और वह भी उत्पन्न होनेके पहले समयमें ही होता है। उपपादमें ऋजुगतिसे उत्पन्न हुए जीवोंका क्षेत्र बहुत नहीं पाया जाता है, क्योंकि, इसमें जीवके समस्त प्रदेशोंका संकोच हो जाता है । विग्रह तीन प्रकारका है, पाणिमुक्ता, लांगलिक और गोमूत्रिक । इनमेसे पाणिमुक्ता गति एक विग्रहवाली होती है । विप्रह, वक्र और कुटिल, ये सब एकार्थ १ गो. जी. ६६७. २ परित्यक्तपूर्वमवस्य उत्तरमवप्रथमसमये प्रवर्तनमुपपादः । गो. जी. जी. प्र. ५४३. ३ एकविग्रहा गतिः पाणिमुक्ता । त. रा. वा. २, २८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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