SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 491
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, ८२. सह देसूणपुव्वकोडितिभागं गमिय तिपलिदोवमाउट्ठिदिदेउत्तरकुरवेसुप्पज्जिय अप्पणो आउद्विदिमणुपालिय देवेसुप्पण्णस्स तिण्णिपलिदोवमाणमुवरि देखणपुव्वकोडितिभागु. वलंभा । मणुसिणीसु देसूणतिण्णि पलिदोवमाणि, अण्णदरअट्ठावीससंतकम्मियमिच्छादिद्विस्स तिपलिदोवमिएसु मणुसेसुववज्जिय णव मासे गन्भे अच्छिदूण णिक्खंतस्स उत्ताणसेज्जाए अंगुलिआहारेण सत्त दिवसे, रंगतो सत्त दिवसे, अथिरगमणेण सत्त दिवसे, थिरगमणेण सत्त दिवसे, कलासु सत्त दिवसे, गुणेसु सत्त दिवसे, अण्णे वि सत्त दिवसे गमिय विसुद्धो होदूण सम्मत्तं पडिवज्जिय अप्पणो आउट्ठिदिं जीविदूण देवेसु उववण्णस्स एगूणवण्णदिवसेहि अहियणवमासूणतिणिपलिदोवमुवलंभा ।। संजदासंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि ति ओघं ॥ ८२ ॥ कुदो ? ओघादो भेदाभावा । णवरि संजदासंजदाणं सबलहुं जोणिणिक्खमणजम्मणुब्भवट्ठवस्सेहि ऊणा पुव्वकोडी संजमासंजमकालो वत्तव्यो, तिरिक्खाणं व मणुस्साणं अंतोमुहुत्तकालेण अणुव्वयगहणाभावा । पूर्वकोटीका त्रिभाग बिताकर तीन पल्योपमप्रमाण आयुकर्मकी स्थितिवाले देवकुरु और उत्तरकुरुओं में उत्पन्न होकर, अपनी आयुस्थितिको अनुपालन करके देवों में उत्पन्न हुए जीवके तीन पल्योपोंके ऊपर देशोन पूर्वकोटीका त्रिभाग अधिक पाया जाता है। मनुष्यनियों में देशोन तीन पल्योपम उत्कृष्ट काल है । वह इस प्रकारसे है-मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक मिथ्यादृष्टि मनुष्य तीन पल्योपमकी आयुवाले भोगभूमियां मनुष्योंमें उत्पन्न होकर और नौ मास गर्भमें रह कर निकलता हुआ उत्तानशय्या पर अंगुष्ठ चूसनेरूप आहारसे सात दिन, रेंगते हुए सात दिन, अस्थिर गमनसे सात दिन, स्थिर गमनसे सात दिन, कलाओंमें सात दिन, गुणोंमें सात दिन, तथा अन्य भी सात दिन बिताकर, विशुद्ध होकरके सम्यक्त्वको प्राप्त हो, अपनी आयुस्थिति प्रमाण जीवित रह कर देवोंमें उत्पन्न हुए जीवके उनचास दिवसोंसे अधिक नव मासोंसे कम तीन पल्योपम काल पाया जाता है। संयतासंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली तक तीनों प्रकारके मनुष्योंका उत्कृष्ट वा जघन्य काल ओघके समान है ॥ ८२॥ ___ क्योंकि, ओघवर्णित कालसे इनमें कोई भेद नहीं है। विशेष बात यह है कि संयतासंयतोंके सर्चलघु योनि-निष्क्रमणरूप जन्मसे उत्पन्न हुए जीवके आठ वर्षांसे कम पूर्वकोटिप्रमाण संयमासंयमका काल कहना चाहिए, क्योंकि, तिर्यंचों के समान मनुष्योंके जन्म लेनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालसे ही अणुव्रतोंके ग्रहण करनेका अभाव है। १ शेषाणां सामान्योक्तः कालः। स.सि. १,८. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org |
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy