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। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
। चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक :१
जैन आराधना
न
कन्द्र
महावीर
कोबा.
॥
अमर्त
तु विद्या
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
-
-
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भारतभैफय रत्नाकर
भाग १
रसवैद्य नगीनदास छगनलाल शाह
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आयुर्वेदीय साहित्य में फार्माकोपिया के अभाव को ध्यान में रखकर इस ग्रन्थ को परिश्रमपूर्वक तैयार किया गया था और आज भी यह ग्रन्थ उतना ही उपयोगी है जितना तब था। इसमें क्वाथ, चूर्ण, अवलेह, गुटिका, घृत, तैल, रस इत्यादि प्रकरणों में विभक्त दस सहस्र से अधिक प्राचीन एवं आर्वाचीन प्रयोगों का संग्रह सैकड़ों ग्रन्थों का मन्थन करके किया गया है।
इस ग्रन्थ में कोश-शैली का अनुसरण किया गया है, जिससे इष्ट प्रयोग बिना किसी कठिनाई के ढंढा जा सकता है। एक और लाभ इस शैली का यह है कि भिन्न-भिन्न ग्रन्थों और पृथक्-पृथक् अधिकारों में एक नाम के जितने प्रयोग पाए जाते हैं वे सब इसमें एक ही स्थान में आ गए हैं। उद्धरण जिन ग्रन्थों से लिए गए हैं उनके नाम एवं अधिकार भी दे दिए गए हैं। रोगानुसारिणी सूची "चिकित्सापथ-प्रदशिनी" नाम से अन्त में दे दी गई है, जिससे ग्रन्थ की व्यावहारिक उपयोगिता बहुत बढ़ गई है।
(सम्पूर्ण ५ भागों में) मूल्य : १० ५००
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भारत-भैषज्य-रत्नाकर
प्रथम भाग
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भारत-भैषज्य-रत्नाकर
प्रथम भाग
संग्रहकर्ता रसवैद्य नगीनदास छगनलाल शाह
व्याख्याकार भिषग्रत्न गोपीनाथ गुप्त
संशोधक कविराज निवारणचन्द्र भट्टाचार्य
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©ऊँझा आयुर्वेदिक फार्मेसी, ऊंझा (उत्तर गुजरात) मोती लाल बना र सीदास मुख्य कार्यालय : बंगलो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली ११० ००७ शाखाएँ : चौक, वाराणसी २२१ ००१
अशोक राजपथ, पटना ८०० ००४ ६ अपर स्वामी कोइल स्ट्रीट, मैलापुर, मद्रास ६०० ००४
प्रथम संस्करण : ऊँझा (उत्तर गुजरात), १९२४-३७ पुनर्मुद्रण : दिल्ली, १९८५ मूल्य : रु० ५०० (पांच भागों में सम्पूर्ण) नरेन्द्र प्रकाश जैन, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली ७ द्वारा प्रकाशित तथा शान्तिलाल जैन, श्री जैनेन्द्र प्रेस, ए-४५, फेज-१, नारायणा, नई दिल्ली २८ द्वारा मुद्रित ।
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श्रीमती सुशीलादेवीजी
श्रीयुत् वैद्य गोपीनाथ गुप्त
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ऊंझा आयुर्वेदिक फार्मसीके संस्थापक
रसवैद्य नगीनदास छगनलाल शाह
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प्रकाशकीय
आज से पांच-छः दशक पूर्व उत्तर गुजरात के ऊंझा-जनपद-स्थित "ऊँझा आयुर्वेदिक फार्मेसी” नामक आयुर्वेदीय औषधालय के अध्यक्ष रसवैद्य नगीनदास छगनलाल शाह द्वारा पांच भागों में प्रकाशित इस ग्रंथ का जनता की मांग पर पुनर्मुद्रण प्रस्तुत करते हुए हमें हर्ष हो रहा है।
आयुर्वेदीय साहित्य में फार्माकोपिया के अभाव को ध्यान में रखकर इस ग्रंथ को परिश्रमपूर्वक तैयार किया गया था और आज भी यह ग्रंथ उतना ही उपयोगी है जितना तब था। इसमें क्वाथ, चूर्ण, अवलेह, गुटिका, घृत, तेल, रस इत्यादि प्रकरणों में विभक्त दस सहस्र से अधिक प्राचीन एवं अर्वाचीन प्रयोगों का संग्रह सैकड़ों ग्रंथों का मन्थन करके किया गया है।
इस ग्रंथ में कोश-शैली का अनुसरण किया गया है जिससे इष्ट प्रयोग बिना किसी कठिनाई के ढूढा जा सकता है। एक और लाभ इस शैली का यह है कि भिन्न-भिन्न ग्रंथों और पृथक्-पृथक् अधिकारों में एक नाम के जितने प्रयोग पाए जाते हैं वे सब इसमें एक ही स्थान में आ गए हैं। उद्धरण जिन ग्रंथों से लिए गए हैं उनके नाम एवं अधिकार भी दे दिए गए हैं। रोगानुसारिणी सूची "चिकित्सा-पथप्रदर्शिनी" नाम से अंत में दे दी गई है, जिससे ग्रंथ की व्यावहारिक उपयोगिता बहुत बढ़ गई है।
प्राशा है कि पाठक हमारे इस प्रयास का अवश्य स्वागत करेंगे।
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विशेष उपयोगी टिप्पणियों की सूची
विषय
7
x
४४ से ४५
४५ ५५ से ५६ ६३ से ६४
ur
9
६५ से ६६ ६६ से ७०
9
पृष्ठ विषय ५ से ७ अवलेह व्याख्या
५ पाक व्याख्या ६ घृत व्याख्या ६ तैल व्याख्या
६ अणुतैल की व्यवहार ६ से ७ विधि तथा गुण
७ आसवारिष्ट व्याख्या
७ रसनिर्माण सम्बन्धी ६ से १० विशेष ज्ञातव्य बातें
पुटपाक विधि कवल व्याख्या मण्डनिर्माण विधि क्षारोदक रसायन विषय में
ज्ञातव्य ४२ शीताद
कषाय व्याख्या स्वरस कल्क कल्क में प्रक्षेप विधि क्वाथ हिम फाण्ट कषाय में प्रक्षेप विधि अनुवासन बस्ति व्याख्या गण्डूष व्याख्या चूर्ण व्याख्या गुटिका व्याख्या गोलियों पर सोने-चांदी के
वर्क चढ़ाना गुग्गुलु व्याख्या
9
७६
१३० १३४
१४१ १४२ से १४३
२८
२८
१४२
२१५
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अ०
संक्षेप-सूची अग्नि० अग्निमांद्य
कु० चि० कुष्ठ चिकित्सा अर्श० चि० अर्श चिकित्सा
कुरं० चि० कुरण्ड चिकित्सा अजी० चि० अजीर्ण चिकित्सा क० कृमि अति० अतिसार
कृ० रो० कृमिरोग अनु० अनुवादक
क्ष० चि० क्षय चिकित्सा अनु० त० अनुपान तरङ्गिणी क्षय अपस्मा० अपस्मार
क्षु० रो०
क्षुद्ररोग अ० पि० अम्लपित्त
क्षुद्र० अरु० अरुचि
खं०
खंड अर्बु अर्बुद
ग० गं० गलगण्ड अवलेहा० अवलेहाधिकार ग० नि० गदनिग्रह अश्म० अश्मरी चिकित्सा
मा० गण्डमाला आ० वा० आमवात
गु० चि० गुल्म चिकित्सा आ० वे० प्र० आयुर्वेद प्रकाश
ग्रहणी अधिकार आ० वे० सं० आयुर्वेद संग्रह
च०
चरक पासवा० आसवाधिकार
च० द० चक्रदत्त उल्लास
च० पा० चक्रपाणि उ० प्र० उत्तरखण्ड, अध्याय च० सं० चरक संहिता उ० खं० उत्तर खण्ड
चि० अ० चिकित्सा स्थान, उ० चि० उदर चिकित्सा
अध्याय उमा० उन्माद
चूर्णा चूर्णाधिकार उप० उपदंश
छ० चि० छदि चिकित्सा उरु० उरुस्तम्भ
ज्व. चि० ज्वर ,, उल्ला० उल्लास
ज्वरा० ज्वरातिसार ,, औ० मे० औपसर्गिक मेह
तरङ्ग अं० वृ० अण्डवृद्धि
तर०
तरङ्ग क० अ० कल्पस्थान, अध्याय त्वग्दो त्वग्दोष कफ० रो० कफरोग
ध्व० भं० ध्वज भंग कर्ण कर्णरोग
नपुंसका० नपुंसकामृत काम० कामला
न० म० कुष्ठ
ना० रो० नासारोग
उ०
त०
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(
ix
)
ना०व० नाड़ी व्रण ने ० रो० नेत्ररोग नेत्र० पट०
पटल प्र०
प्रथम परि०
परिशिष्ट पाका० पाकाधिकार पां०चि० पांडु चिकित्सा प्रमे० प्रमेह चिकित्सा प्र० चि० प्र० वि० प्रथम विलास प्ली० प्लीहा चिकित्सा प्ली० चि०
" बा० रो० बालरोग बृ० नि० बृहन्निघण्टु रत्नाकर बृ० नि० र० बृ० यो० त० बृहद्योगतरङ्गिणी भग०
भगन्दर भग्न०
भग्नाधिकार भा०
भाग भा० प्र० भाव प्रकाश भै० र० भैषज्य रत्नावली म० खं० मध्यम खण्ड मदा० मदात्यय मसू० चि०
मसूरी चिकित्सा मिश्राधि० मिश्राधिकार मु० रो० मुखरोग मुख० मू० कृ० मूत्रकृच्छ्र मूत्रा० मृत्राघात मेद० मेदोरोग यो० त०
योग तरङ्गिणी यो० चि० योग चिन्तामणि यो० र० योग रत्नाकर
यो० व्या० योनिव्यापद् र० अ० रसायन अधिकार रक्ताति० रक्तातिसार र० खं० रसायन खण्ड र० च० रस चण्डांशु र० चि० रस चिन्तामणि
वि० रक्तपित्त र० प्र० सु० रस प्रकाश सुधाकर र० मं० रस मंगल र० यो० सा० रस योग सागर र० र० रस रत्नाकर र० र० स० रस रत्नसमुच्चय र० रा०सु० रस राज सुन्दर र० सं० क० रस संकेत कलिका र० सा० रस सागर र० सा० सं० रसेन्द्रसार संग्रह रसा० सा० रसायन सार रसे० चि०
रसेन्द्र चिन्तामणि रा०नि० राजनिघण्ट रा० य० राजयक्ष्मा
रोग वं० से० वंगसेन वा० चि० वायु चिकित्सा वाजी० वाजीकरण वा०र० वातरक्त वा० व्या०
वात व्याधि
विलास वि० ज्व० विषम ज्वर विष० विषाधिकार विस० विसर्प वी० स्त० वीर्यस्तम्भ वै० क० द्रु० वैद्यकल्पद्रुम वै० जी० वैद्य जीवन वै० श० सिं० वैद्यक शब्द सिंधु
रो०
वि०
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(
व० चि० व्रण चिकित्सा व्र० शो० व्रण शोथ व्या० यो० सं० व्यासयोग संहिता शा० ध० शार्ङ्गधर शा० नि० भू० शालिग्राम निघण्टु
भूषण शि० रो० शिरोरोग शिरो० शु० मे० शुक्रमेह शू० श्ली० श्लीपद श्वा०
श्वास श्वा० का० . श्वास कास
x )
सन्नि० संग्रह सं० चि० सु० सं० सू० अ० सो० रो० स्त्री० रो०
सन्निपात संग्रहणी
, चिकित्सा सुश्रुत संहिता सूत्रस्थान, अध्याय सोम रोग स्त्री रोग स्थौल्याधिकार स्वरभंग हारीत संहिता हिक्काचिकित्सा हिक्काश्वास हृद्रोगाधिकार
स्थाः
शल
स्व० भं० हा० सं० हिक्काचि० हि० श्वा०
ह० रो०
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विषयानुक्रमणिका
विषय
पृष्ठ
परि० पृष्ठ विषय
__ पृष्ठ परि० पृष्ठ
मंगलाचरण कषाय प्रकरण कषाय व्याख्या
क्वाथ
xxx ur
स्वरस कल्क कल्क में प्रक्षेप देने
की विधि क्वाथ हिमविधि फाण्ट विधि कषाय में प्रक्षेप विधि ७
rur
गुटिका गुग्गुलु अवलेह रसायनानि घृत तैल आसव
१२६ तथा ४६७ १३५ ४६६ १३६ ४७३ १३८ १३६ ४७४ १४२ १४७
४७५ १४६ १५० १५० ४७७ १५० ४७८ १५१ ४७६
४७६
लेप
नस्य
तथा
३६२
रस
१७
४८१
क्वाथ चूर्ण गुटिका गुग्गुलु अवलेह
३६६ ४०२ ४०६
कल्प मिश्र
२६
१५१
४८२
४५
४०६ ४०६
कषाय
१५६
४८६
तेल
४१२
चूर्ण
१५७
४८६
४८८
आसवारिष्ट लेप
गुटिका अवलेह
१५६ १६०
७४
४१८
४८८
७६
४२४
७६
तेल
धूम्र अञ्जन
४६० ४६१ ४६२ ४६४
७६
४२४
नस्य
७८
४२७
लेप नस्य रस मिश्र
रस
७६
४२९
१६१
४६४
मिश्र
४६२
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विषय
पृष्ठ परि० पृष्ठ
५१८ ५१८
५१८ १६५ ५१६
५२०
कषाय
नस्य
m
गुटिका
( xii ) पृष्ठ परि० पृष्ठ विषय
धूम्र
अंजन १६४ ४६७ १६६ ४६८ रस १६७
मिश्र १६८ १६८ ५०२ १६८ १६६
रसायन ५०२ १७२ ५०३ तैल
५०३ ५०४
लेह
५००
*
कषाय
५२२
तेल पासव
१६६
लेप
१७०
घृत
१९६
* *
धूप
१९७
m
अंजन
m
मिश्र
१९७
५२२ ५२३
मिश्र
कषाय
१८४
१८४
१९८
कषाय मिश्र
५२७
१८५
कषाय तेल
१९८ १९८ १६६
लेप
कषाय
अंजन
१६६
चूर्ण गुटिका
१८५ ५१० १८७ ५११ १८६ ५१३ १९०५१३
गुग्गलु
१६०
पाक
कषाय
५२७
१६६ २१०
लेह
१९२
चूर्ण
घृत
५१४ ५१४ ५१५
२२१
तेल
गुटिका गुग्गुल
अरिष्ट
१६३ १६४ १६५
लह
२३२ २३३ २५०
५५२ ५५२ ५५५
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(xiii)
विषय
गुटिका
तैल पासवारिष्ट लेप
पृष्ठ परि० पृष्ठ ३२३ ६३२ ३२७
६३२
घृत
३३२
पृष्ठ परि० पृष्ठ २५८ २६६ ५७१ २७४ २७७ ५८४ २७७ २७८ ५८६ २७६ ५६१
६२२
WW
धूप
तैल
अंजन
पासवारिष्ट
३३३ ३३३ ३३६
नस्य
लेप
रस मिश्र
३३६
३६
६३५
मिश्र
६४०
३३८
कषाय
३२० ३२२
६३१ ६३१
उपसंहार आयुर्वेदीय परिभाषा
३३६
चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी की अनुक्रमणिका
परि०पू० परि० १० १५. कासाधिकार ३६१ ६५० १. अग्निमांद्याजीर्णाधिकार १६. कुष्ठाधिकार ३६२ ६५१
३५३ ६४३ १७. कृमिरोगाधिकार ३६३ ६५३ २. अतिसाराधिकार ३५४ ६४४ १८. गण्डमालाधिकार ३६४ ६५४ ३. अपस्माराधिकार ३५५ ६४५
१९. गुल्मरोगाधिकार ३६४ ६५५ ४. अर्बुदाधिकार ३५५ ६४६
२०. छद्यधिकार ३६५ ६५६ ५. अम्लपित्ताधिकार ३५५ ६४५
२१. जलोदराधिकार ३६५ ६. अरोचकाधिकार ३५६ ६४६
२२. ज्वराधिकार ३६५ ६५६ ७. अधिकार ३५६ ६४६
२३. ज्वरातिसाराधिकार ३६८ ६५८
२३. " ८. अश्मयधिकार ३५७ ६४७ २४. तृष्णाधिकार ३६८ ६. आमवाताधिकार ३५८ ६४८ २५. त्वररोगाधिकार ३६८ १०. उदररोगाधिकार ३५६ ६४८ २६. दाहाधिकार
३६६ ६५८
धात्वादिशोधनमारण ११. उदाधिकार ३५६
६५८
२७. नासारोगाधिकार ३६६ ६५६ उदावर्ताध्मान
निद्रानाश . १२. उन्मादाधिकार ३५६
नेत्ररोगाधिकार ३६६ ६६० १३. उपदंशाधिकार ३६० ६४६ २६. पाण्डुरोगहलिमका१४. कर्णरोगाधिकार ३६० ६४६ धिकार ३७० ६६१
६६०
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( xiv ) परि०पृ०
परि०पू० ३०. प्रमेहाधिकार ३७१ ६६१ ४७. वातरक्ताधिकार ३८२ ३१. बस्तिप्रकरण ३७२
विद्रधि
६६६ ३२. बालरोगाधिकार ३७२ ६६२ ४८. विरेचनाधिकार ३८२ ६६६ ३३. भगन्दराधिकार ३७३ ६६३ ४६. विषाधिकार ३८३६६६ ३४. भग्नाधिकार ३७३ ५०. विसाधिकार ३८३ ६७० ३५. मदात्ययाधिकार ३७३ ६६३ ५१. वृद्धयधिकार ३८३ ६७० ३६. मसूरिकाधिकार ३७३ ६६३ ५२. व्रणाधिकार ३८३ ६७१ ३७. मिश्राधिकार ३७४ ६६३ ५३. शिरोरोगाधिकार ३८४ ६७२ ३८. मुखरोगाधिकार ३७५ ६६४ ५४. शीतपित्ताधिकार ३८४ ६७२ ३६. मूत्रकृच्छ्र,
५५. शूलाधिकार ३८५ ६७२ मूत्राघाताधिकार ३७५ ६६४ ५६. शोथाधिकार ३८६ ६७३ ४०. मूर्छाधिकार ३७६ ६६५ ५७. श्लीपदाधिकार ३८६ ६७३ ४१. मेदोरोगाधिकार ३७६ ५८. सन्निपाताधिकार ३८६ ४२. यकृतप्लीहाधिकार ३७६ ६६५ ५६. संग्रहणी-रोगाधिकार ३८७ ६५५ ४३. रक्तपित्ताधिकार ३७६ ६६५ ६०. स्त्रीरोगाधिकार ३८८ ६७४ ४४. रसायन
स्नायुक
६७६ वाजीकरणाधिकार ३७७ ६६६ ६१. स्वरभेदाधिकार ३८६ ६७५ रसोपरसादिशोधन
६२. हिक्काश्वासाधिकार ३८६ ४५. राजयक्ष्माधिकार ३७६ ६५३ ६३. हृद्रोगाधिकार ३६० ६७६ ४६. वातव्याध्यधिकार ३८० ६६८ ६४. क्षुद्ररोगाधिकार ३६० ६५४
mr m mm
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प्रथम भाग
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-
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
-
अथ मङ्गलाचरणम्
-
-
संसारमन्धतमसावृतमेतमादा
वालोक्य यस्य करुणाकिरणैरिदानीम् । पश्यामि दीप्तमभितोऽमितदृश्यभावं
तं भास्करोपमगुरुं मुहुरानतोऽस्मि ॥
-
(२)
आयासेन विनैव मर्म भिषजो जानन्तु सन्तोऽखिलम्
आयुर्वेदमहौषधेरिति धिया “भैषज्यरत्नाकरः”। वैद्यश्रील 'नगीनदास' सुधिया यः संगृहीतो मुदा
गोपीनाथभिषक् तनोमि विवृतिं तस्यात्र हिन्दी गिरा॥
-इति
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श्रीधन्वन्तरये नमः
अथ कषाय--प्रकरणम्
कषाय- व्याख्या
कषाय पांच प्रकारके होते हैं
- स्वरसश्व तथा कल्कः क्वाथश्व हिमफाण्टकौ ।
ज्ञेयाः कषायाः पञ्चैते लघवः स्युर्यथोत्तरम् ॥
यथा
अर्थात् स्वरस, कल्क, काथ, हिम, और फाण्ट यह कषाय के पांच भेद हैं । ये उत्तरोत्तर लघु होते हैं, अर्थात् स्वरस सबसे भारी, कल्क उससे हलका इसी प्रकार फाण्ट सबसे हल्का होता है ।
स्वरस
आहतात्तत्क्षणाकृष्टाद्रव्यात् क्षुण्णात्समुद्भवेत् । वस्त्रनिष्पीडितो यथ रसः स्वरस उच्यते ॥
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(गिलोय आदि के समान) गीली औषधियोंको कूटकर कपड़े में निचोड़नेसे जो रस निकलता है उसे स्वरस कहते हैं । यदि गीली औषधियां प्राप्त न होसकें तो :
कुडवं चूर्णितं द्रव्यं क्षिप्तश्च द्विगुणे जले ।
अहोरात्रं स्थितं तस्मात् भवेद्वा रस उत्तमः ॥
औषधिका एक कुड़व चूर्ण लेकर उसको दूने जलमें भिगोकर २४ घंटे रक्खा रहने दे फिर (प्रातः काल मलकर) छानले । इसको भी स्वरस कहते हैं । अथवाः -
आदाय शुष्कद्रव्यं वा स्वरसानामसम्भवे । जलेऽष्टगुणिते साध्यं पादशिष्टश्च गृह्यते ।।
सूखी औषधियोंको आठ गुने जलमें पकाकर चौथाई बाकी रहनेपर छानलें; यह भी स्वरसका काम सकता है।
यथा - चीता, इन्द्रयव और आमले आदिका स्वरस न मिलनेपर इस विधिसे सिद्ध किया हुआ कषाय काममें ला सकते हैं ।
स्वरसकी मात्रा - स्वरस (गीले द्रव्य से निकाला हुआ) भारी होनेके कारण २ ॥ तोलेकी मात्रा में सेबन
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भारत-भैषज्य रत्नाकर
करना चाहिये और अग्निपर सिद्ध किये हुए स्वरस का ५ तोलेकी मात्रामें व्यवहार करना चाहिये।
नोट-आजकल प्रायः स्वरसको एक तोला और अग्निपर सिद्ध किये हुए स्वरस को दो तोलेकी मात्रा में व्यवहार किया जाता है।
कल्क
--
द्रव्यमा शिलापिष्टं शुष्कं वा सजलं भवेत् ।।
प्रक्षेपावापकल्कास्ते तन्मानं कर्षसम्मितम् ॥ गीली औषधियों को योंही अथवा (इमली आदि) सूखी औषधियों को पानीके साथ पीस कर तय्यार की हुई लगदीको कल्क, प्रक्षेप और आवाप कहते हैं । इसकी शास्त्रोक्त मात्रा १। तोला है किन्तु आजकल प्रायः ६ माषेकी मात्रामें प्रयोग किया जाता है।
कल्कमें प्रक्षेप देनेकी विधिःकल्के मधु घृतं तैलं देयं द्विगुणमात्रया।
सितां गुडं समं दद्याद्वो देयश्चतुर्गुणः॥ ___ यदि कल्क में शहद् , घी या तेल मिलाना हो तो कल्कसे दुगना और चीनी या गुड़ मिलाना हो तो कल्क के समान तथा (कांजी आदि) द्रव पदार्थ मिलाने हों तो कल्कसे चौगुने मिलाने चाहिये।
क्वाथकर्षादौ तु पलं यावद् दद्यात् षोडशिकं जलम् । ततस्तु कुडवं यावत् तोयमष्टगुणं क्षिपेत् ॥ चतुर्गुणमतश्चोत्र यावत्प्रस्थाधिकं जलम् । तजलं पाययेद् धीमान कोष्णं मृद्वग्निसाधितम् ।
भृतः काथः कषायश्च नियूहः स निगद्यते ॥ १। तोला से लेकर ५ तोला परिमाण पर्यन्त कूटी हुई औषधियोंको १६ गुने जलमें पकाना चाहिये ५ तोले से २० तोले तक आठगुणे जलमें पकावें और इससे आगे ८० तोला तक चौगुने जलमें पकावें, इस जल को मन्द २ आंचमें पकाकर चतुर्थांश शेष रहनेपर छान लें। इसको क्वाथ, शृत, कषाय और नियूह कहते हैं । क्वाथकी शास्त्रोक्त मात्रा २॥ तोले से ५ तोले तक है । आजकल प्रायः २ तोले औषधियोंको ३२ तोले जलमें पकाकर ८ तोले शेष रहनेपर छानकर व्यवहार करते है।
हिमविधिः--- क्षुण्णं द्रव्यपलं सम्यक् पनि रपलैः प्लुतम् ।
निशोषितं हिमः स स्यात्तथा शीतकषायकः ॥ (नोड) क्वाथ २४ घंटे रखने से खराब हो जाता है। नवीन ज्वमें कषाय नहीं देना चाहिए।
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कषाय- व्याख्या
तस्य मानं मतं पाने पलद्वयमितं बुधैः ।
५ तोले द्रव्यको भली प्रकार कूटकर रातको ३० तोले जलमें भिगोदे प्रातः काल छानले, इसे हिम और शीतकषाय कहते हैं । इसकी शास्त्रोक्त मात्रा १० तोले है ।
फाण्टविधि:
क्षुण्णे द्रव्यपले सम्यग् जलमुष्णं विनिः क्षिपेत् । मृत्पात्रे कुडवोन्मानं ततस्तु स्रावयेत्पदात् ॥
स स्याच्चूर्णद्रवः फाण्टस्तन्मानंद्विप लोन्मितम् ।
( चाय की भांति) कुटे हुए ५ तोले द्रव्यको गरम २ खौलते हुए २० तोले पानीमें मिट्टी के बर्त - नमें डालदें फिर कुछ देर बाद छान लें। इसे चूर्णद्रव तथा फाण्ट कहते हैं। इसकी शास्त्रोक्त मात्रा १० तो है ।
अपिधानमुखे पात्रे जलं दुर्जरतां व्रजेत् ।
तस्मादावरणं त्यक्त्वा क्वाथादीनां विनिश्चयः ॥ कषायमें प्रक्षेपविधि:
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(नोट १) क्वाथ सदैव मिट्टीके बर्तन में बनाना चाहिये ।
(नोट २) क्वाथ तैयार करते समय बर्तन का मुख ढकना न चाहिये क्योंकि ऐसा करने से क्वाथ दुर्जर होजाता है यथा शार्ङ्गधरोऽप्याह
काथे क्षिपेत्सितामशैचतुर्थाष्टमषोडशैः । वातपित्तकफातङ्के विपरीतं मधु स्मृतम् ॥ जीरकं गुग्गुलं क्षारं लवणं च शिलाजतु । हिंगु त्रिकटुकं चैव का शाणोन्मितं क्षिपेत् ॥
( ७ )
क्षीरं घृतं गुडं तैलं मूत्रं चान्यद्द्रवं तथा । कल्कं चूर्णादिकं वा विक्षिपेत्कर्षसम्मितम् ॥
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क्वाथमें - मिश्री वातज रोगोंमें चतुर्थीश, पित्तज रोगो में ८वां भाग और कफजरोगों में १६वां भाग मिलानी चाहिये । यदि मधु मिलाना हो तो इसके विपरीत अर्थात् वातमें १६ वां अंश, पित्तमें आठवां और कफर्मे चतुर्थीश मिलावें । जीरा, गूगल, क्षार, लवण, शिलाजीत, हींग और त्रिकुटा* डालना हो तो एक शाण (३ मासा) डालना चाहिये । दूध, घी, गुड़, तेल, मूत्र और अन्य कोई द्रव पदार्थ तथा कल्क या चूर्ण आदि क्वाथ में मिलाना हो तो १। तोला लेना उचित है ।
*सोंठ, मिर्च, पीपल
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(८)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
___ अकारादि क्वाथ
। अलसीके फूल, मजीठ, बडके अंकुर, कुश [१] अजमोदादि क्वाथः [वृ०नि०र०] आदि पचं तृण । सब समान भाग लेकर यथा अजमोदा वचा हिंग लवणं बिडपूर्वकम। विधेि क्वाथ बनाकर पीवे और पथ्यमें मूंगका यूष शुंठी सुवर्चला कृष्णा दुल्लारी रिंगणी तथा॥ (और भात) खानेसे रक्तपित्तका नाश होता है। बीजपूरस्य बीजानि तुम्बुरु सम भागतः।
| [४] अनुवासनोपगमहाकषाय दशक: एतत्वाथस्य पानेन यांति शूलान्यनेकधा ॥
[च० सं० सू० अ० ४] अजमोद, बच, हींग, विडनमक, सोंठ, हुल
रास्नासुरदारुबिल्वमदनशतपुष्पावृश्चीरहुल, पीपल, दुल्लारी, कटेरी, बिजौ रेके बीज, तुम्बर | पुनर्नवाश्वदंष्ट्रानिमन्थस्योनाका इतिदशेमानि * सब समान भाग । इस क्वाथ के पीने से अनेक | अनुवासनोपगानि भवन्ति । प्रकारके शूल नष्ट होते हैं।
___रास्ना, देवदारु, बेल, मैनफल, सोया, श्वेत[२] अतिविषादि काथः [वृ०नि०० पुनर्नवा, लालपुनर्नवा, गोखरू, अरणी, सोनापाठा । अतिविषाघनवालकधातकी
ये दश औषधियां अनुवासनके लिए उपयोगी हैं। कुटजदाडिमलोध्रमथोदकी।
( अनुवासन-देखो पृ० ९) विहतमेभिरिदं सलिलं पिबेद्,
[५] अभयादि काथः [भै० र०] ग्रहणिकाविजितः प्रसभं नरः॥ सर्वज्वरहरंज्ञेयं ग्रहणीवेगनाशनम् । अभयामलकं दारु धन्याकं विश्वमेषजम् । अरोचमान्यदलनं धातुवर्द्धनकारकं ॥ | द्राक्षाच शारिवेत्येषां क्वाथः क्लोमगदापहः॥
अतीस, नागरमोथा, सुगन्धबाला, धायके हरड़, आमला, देवदारू, धनियां, सोंठ, फूल, कुड़ेकीछाल, अनारदाना, लोध, औरपाठा। | दाख, सारिवा । यह काथ क्लोम रोगोंमें लाभसब समान भाग लेकर यथा विधि क्वाथ बनाकर | दायक है। पीनेसे प्रबल ग्रहणी, ज्वर, अरुचि और मन्दाग्नि | [६] अभयादि क्वाथ: [शा. ध०म० आदिका नाश होता तथा धातुवृद्धि होती है।
खं० अ०र०] [३] अतस्यादि काथः [कृ० नि० २०] अतसीकुसुमसमंगावटपरोहास्तृणांभसा पीता अभयामुस्तधन्याकरक्तचन्दनपकैः। साधयंति रक्तपित्तं यदि भुक्ते मुद्गषेण ॥ |
"" वासकेन्द्रयवोशीरगुडूचीकृतमालकैः ॥
पाठानागरतिक्ताभिःपिप्पलींचूर्णयुक्तम्। * तुम्बुरु-नैपाली धनिया + तृण= ( कुशः काशः शरोदर्भ इक्षुश्चेति
पिवेत्रिदोषज्वरजित् पिपासाकासदाहनुत । तृणोद्भवं ) कुशा, कांस, दाब, सरकड़ा प्रलापश्वासतन्द्राध्नं दीपनं पाचनं परम् । और ईख । या गन्धतृण ।
विण्मूत्रानिलविष्टम्भवमिशोषारुचिच्छिदम् ।।
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अनुवासन बस्ति
हरड़, नागरमोथा, धनियां, लाल चन्दन, पद्माख, बांसा, इन्द्रयव, खस, गिलोय, अमलतास का गूदा, पाठा, सोंठ, और कुटकी । इनका क्वाथ बनाकर उसमें पीपलका चूर्ण डालकर पीने से त्रिदोषज्वर, पिपासा, खांसी, दाह, प्रलाप, श्वास, तन्द्रा, मल, मूत्र और अपान वायुका विबन्ध, वमन, शोष और अरुचिका नाश होता है तथा अग्नि दीप्त होती है ।
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( ९ )
[७] अभयादि क्वाथः (३) ( वृ. नि. र., भा. ४ । ज्वर चि. ) अभयापर्पटमुस्ताकटुकीशम्पाकगोस्तनी क्वाथः । पीतः करोति नाशं रुग्दाहरुजो न संदेहः ||
हरड़, पित्तपापड़ा, नागरमोथा, कुटकी, अमलतासका गूदा और दाख । यह क्वाथ रुग्दाह सन्नि पातको नष्ट करता है इसमें सन्देह नहीं है ।
अनुवासन - बस्ति
पिचकारी द्वारा गुदामार्गसे तरल पदार्थ अन्दर पहुंचानेका नाम "बस्ति" (पिचकारी - डूश, एनिमा) है । उसीका एक भेद "अनुवासन बस्ति" है । यह बस्ति घी तेल आदि स्नैहिक पदार्थोंसे दी जाती है इसलिए इसे स्नेहवस्ति भी कहते हैं ।
आयुर्वेद शास्त्र में सोना आदि धातुओं और बांस, नल, सींग तथा जानवरोंके अंडकोष आदिसे बस्ति बनाने की क्रिया लिखी है परन्तु आजकल अंग्रेजी दवा बेचनेवालों के यहां जो रबरकी नलीवाली बस्ति मिलती है उसीसे समस्त प्रकारका बस्तिकर्म सिद्ध हो सकता है ।
बलवान मनुष्योंको बस्ति देनेके लिये ३० तोला, मध्यम बलवालेको १५ तोला और निर्बल मनुको बस्ति देनेके लिये ७ तोला स्नेह लेना चाहिये ।
अनुवासन बस्तिका एक भेद मात्रावस्ति भी है इसमें ५ तोलेसे १० तोले स्नेह लिया जाता है ।
अनुवासन बस्ति रुक्ष और बात रोगोंके लिये हितकारक है परंतु रोगीकी जठराग्नि तीव्र हो तभी यह बस्ति देनी चाहिए । मन्दाग्निवाले, कुष्ठी, प्रमेही, उदररोगी और स्थूल शरीर वाले पुरुषको स्नेहबस्ति न देनी चाहिये।
स्नेहवस्ति वसंत ऋतु सायंकाल और ग्रीष्म, वर्षा तथा शरद ऋतु में रात में देनी चाहिये । पहिले रोगीको विरेचन दें, फिर ६ दिन बाद पूर्ववत् शक्ति आनेपर स्नेह बस्ति देनी चाहिये ।
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जिस रोज स्नेहवस्ति देनी हो उस दिन रोगीके शरीर में तेल मर्दन करके पानी की भापसे पसीना देना चाहिये और चावलों की पतली पेया आदि शास्त्रोक्त भोजन कराके जरा देर टहलाना चाहिये, इसके बाद यदि आवश्यकता हो तो मलमूत्रादि त्याग कराके यथा विधि बस्ति देनी चाहिये । उस रोज रोगीको अधिक स्निग्ध भोजन देना हानिकारक है ।
बस्ति लेनेके समय रोगीको छींकना, जंभाई लेना या खांसना आदि कार्य न करने चाहियें ।
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(१०)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
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__ स्नेहबस्ति लेनेके बाद रोगीको हाथ पैर सीधे फैलाकर लेटा रहना चाहिये । यदि स्नेहबस्तिका स्लेह मलयुक्त होकर २४ घंटे के अन्दर स्वयमेव बाहर न निकले तो रोगीको तीक्ष्ण निरूहण बस्ति, तीक्ष्ण फलवर्ति (शाफा), तीक्ष्ण जुलाब और तीक्ष्ण नस्य देने चाहिये।
बस्ति देनेके बाद यदि समस्त स्नेह बाहर आगया हो और रोगीकी जठराग्नि तीत्र हो तो उसे सायंकालमें पुराने चावल या साठी चावलका आहार देना चाहिये। [८] अभयादि क्वाथ: (४) नोट-कोई कोई वैद्य इसमें विरेचनके लिये (वृ० नि० र०)
शुद्ध गूगल भी डालते हैं। अभयामलकी कृष्णा चित्रकोऽयं गणो मतः। [११] अमृतादि क्वाथः (३) दीपनः पाचनो भेदी सर्वश्लेष्मज्वरापहः ॥ (वृ. यो. त, त. ७८; वृ. मा; हिक्का; यो.
हैड़, आमला, पीपल, चित्रक इनका क्वाथ र., वृ. नि. र. । कासा० ) दीपन, पाचक, भेदक और कफवर नाशक है। | अमृतानागरफजीव्याघ्रीपर्णीसुसाधितः क्वाथः।
[९] अमृतादि क्वाथः (१) | पीतः सकणाचूर्णः कासश्वासौ जयत्याशु॥ (वृ० नि० २०, यो. र., । सन्नि, चि) । गिलोय, सोंठ, भारंगी, कटेली और शालपर्णी । अमृतापटोलवासाव्योषयुतस्तंद्रिके काथः। । इनके क्वाथमें पीपलका चूर्ण मिलाकर पिलाने से
गिलोय, पटोलपत्र, बांसा, सोंठ, मिर्च और कास और श्वास शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। पीपल इनका काथ तन्द्रिक सन्निपातको नष्ट करता है।
। [१२] अमृतादि क्वाथः (४) [१०] अमृतादि क्वाथः (२)
__ (वृ० नि० र०, यो. र. । सन्निपात.) (र० र०, भै० र., वृ. मा., च. द., वृ.
अमृतारुबुकविश्वासुरतरुरालाहरीतकीक्वाथः । यो. त; ब. से । विसर्प)
सकलसमीरणरोगान् मातः सद्यो हरेत् पीतः ॥
गिलोय, अरण्डकी जड़, सोंठ, देवदारू, अमृतवृषपटोलं मुस्तकं सप्तपर्ण ।
रास्ना और हरड़ । इनका क्वाथ, प्रातःकाल पीनेसे, खदिरमसितषेत्रं निम्बपत्रं हरिद्रे ॥
सब प्रकारके वायु रोगों को शीघ्र ही नष्ट कर विविधविषविसर्पान्कुष्ठविस्फोटकण्डू
देता है। रपनयति मसूरीं शीतपित्तज्वरश्च ।।
[१३] अमृतादि क्वाथः (५) (अत्रविरेचनार्थ गुग्गुलं केचित्क्षिपन्ति)
(भै० र०, वृ. मा. । मूत्रकच्छ्र ) गिलोय, बांसा, पटोलपत्र, नागरमोथा, सतौने
अमृता नागरं धात्री वाजिगन्धा त्रिकण्टकम् । की छाल, खैर सार, कालाबेत, नीमके पते, हल्दी |
प्रपिबेद्वातरोगातः सशुलो मूत्रकृच्छ्यान् ॥ और दारुहल्दी। इनका काथ विविध प्रकार के
१ पाठान्तर-व्याघ्रपर्णी (वृ नि. र.) विषदोष, विसर्प, कोढ़, विस्फोटक, खुजली, मसूरिका,
व्याघ्रीपर्णास (वृ. मा.) शीतपित्त और ज्वरका नाश करता है ।
पर्णासः काली तुलसी
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अकारादि क्वाथ
गिलोय, सोंठ, आमला, असगन्ध और गोखरू, इनका क्वाथ वातव्याधि, शूल और मूत्रकृच्छ्र को ष्ट करता है ।
[१४] अमृतादि क्वाथः (६) ( वृ० नि० २०, यो. र । शीतपित्त ) अमृत रजनीनिम्बधन्वायासैः पृथक् शृतम् । प्राणिनां प्राणदं चैतच्छीतपित्तसमाचरेत् ॥
गिलोय, हल्दी, नीमकी छाल और धमासा । इनमें से प्रत्येकका क्वाथ शीतपित्त से मरते हुवे रोगियों के लिए प्राणदान देनेवाला है ।
[१५] अमृतादि क्वाथः ( ७ )
( वृ० नि० र ० ज्वरा० ) अमृतानागरं मुस्तानिशाह्वययवासकैः । वातज्वरे प्रदातव्यः कृष्णयुतकपायकः ॥ गिलोय, सोंठ, नागरमोथा, हल्दी और जवासा । इनके क्वाथ में पीपलका चूर्ण डालकर पीने से ज्वर का नाश होता है । [१६] अमृतादि हिमः
( वृ० नि० २० ज्वरा० ) अमृताया हिमः प्रातः ससितः पैत्तिकं ज्वरम् । वासायाश्च तथा कासरक्तपित्तज्वरान् जयेत् ॥
गिलोय के शीत कषायमें मिश्री मिलाकर प्रातः काल सेवन करनेसे पैत्तिक ज्वर नष्ट होता है । एवं वासा (अडूसा) का शीतकषाय सेवन करने से कास, रक्तपित्त और ज्वरका नाश होता है।
[१७] अमृतादि क्वाथ : ( ८ ) ( वृ० नि० २०, बं० से० । ज्वरा० ) अमृतादशमूलीभ्यां साधितं विधिवञ्जलम् । सन्निपातज्वरं हन्यात्त्रयोदशविधं नृणां ॥
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( ११ )
गिलोय और दशमूलका क्वाथ १३ प्रकारके सन्निपातों का नाश करता है ।
[१८] अमृतादि क्वाथः ( ९ ) ( हा० सं० )
अमृतापर्पटी धात्रीकाथः पित्तज्वरं हरेत् । गिलोय, पर्पटी और, आमला इन का क्वाथ पितज्वरा नाश करता है ।
[१९] अमृतादि क्वाथः (१०) ( वृ० नि० २० । रक्तपि ० ) अमृता मधुकश्चैव खर्जूरं गजपिप्पली । काथः क्षौद्रयुतो ह्येष रक्तपित्तविकारनुत् ॥
गिलोय, मुलैठी, खजूर और गजपीपल । इनका क्वाथ शहद डालकर पीनेसे रक्तपित्तका नाश होता है ।
[२०] अमृताष्टकः
( भा० प्र०, भै. र०, च. द. । ज्वरा० 1 ) अमृताकटुकारिष्टपटोल घनचन्दनम् । नागरेन्द्रयवं चैतदमृताष्टकमीरितम् ॥ कथितं सकणाचूर्ण पिलमज्वरापहम् । हल्लासारोचकच्छर्दि तृष्णादाहनिवारणम् ॥
गिलोय, कुटकी, नीमकी छाल, पटोलपत्र, नागरमोथा, चन्दन, सोंठ और इन्द्रजौं । इस अमृताष्टक क्वाथ में पीपल का चूर्ण डाल कर पीने से पित्तकफ-ज्वर, उबकाई, अरुचि, छर्दि, तृषा और दाहका नाश होता है ।
[२१] अम्बष्ठादिगणः
( सु० सं. सू. अ. ३८ ) अम्बष्ठाधातकीकुसुमसमंगा कदवङ्गमधुकवि
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(१२)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
त्वपोशकासावररोध्रपलाशनन्दीवृक्षाः पद्मकेश- [२४] अर्कादि क्वाथ: (२) राणि चेति ।
(वृ० नि० २०, यो० र०, भा० प्र० । सन्नि०) पाठा, धायके फूल, मजीठ, अरलु(श्योनाक),
भास्वन्मूलं जीरकव्योषमार्गी मुलैठी, बेलगिरी, लोध्र,ढाककीछाल, तुनकीछाल और
व्याघ्रीशृङ्गीपुष्करं गोजलेन ॥ पाकेशर । इन औषधियोंके समूहको "अम्बष्टादिगण" कहते हैं । (यह गण पक्वातिसार नाशक,
सिद्धं सद्यः शीतगात्रातिमोहपित्तशामक और व्रणरोपक है)
श्वास श्लष्मोद्रेककासानिहन्ति ।। [२२] अर्कादि क्वाथः (१)
आककी जड़, जीरा, त्रिकुटा (सोंठ, काली
मिर्च और पीपल) भारंगी, कटेली, काकड़ासिंगी, (वै० जी०, यो० २० । वरा०)
पोखर मूल । गोमूत्रमें इनका काढ़ा बनाकर पीनेसे अर्कानंताकिरातामरतरुरसनासिंदुवारोग्रगंधा
| शीताङ्ग सन्निपात, अत्यन्त मोह, श्वास, कफ और तर्कारीशिग्रुपंचोषणघुणदयितामार्कवाणांकषायः सबस्तीयांत्रिदोषाऽपहरति धनुर्मारुतं दंतबंधम् |
खांसीका शीघ्र नाश होता है। शेत्यंगात्रेषगा श्वसनकसनक सूतिकावातरोगान [२५] अकोदि क्वाथः (३)
ककी जड़, अनन्तमूल, चिरायता, देव- (वृ० नि० २०, यो० र० । सन्निपा०) दारु, रास्ना, सफेद संभालू, बच, अरणी, सौंज- अर्कग्रंथिकशिग्रुदारुचविकानिर्गुण्डिकापिप्पलीनेकी छाल, पंचोषण (पीपल, पीपला मूल, चव, रास्ना,गपुनर्नवानलवचाभूनिवशुंठी कृतः॥ चीता, सोंठ) अतीस और भांगरा । इनका क्वाथ, | क्वाथःसंहरति त्रिदोषमखिलं स्वापानिलंसूतिकाम् भयङ्कर सन्निपात, धनुर्वात, दन्तबन्ध, तीव्र शीत, | नानामारुत्शैत्यशान्तिकृदपस्मारस्मरत्र्यंबकः।। श्वास, खांसी, सूतिकारोग तथा वायुके रोगोंका आककी जड़, पीपलामूल, सौंजनेकी छाल, नाश करता है।
दारुहल्दी, चव्य, संभाल, पीपल, रास्ना, भांगरा, [२३] अम्लीका पानकम्
पुनर्नवा, चीता, बच, चिरायता और सोंठ । इनका (भा० प्र०)
क्वाथ सन्निपात ज्वर, तंद्रा, वायु, सूतिका रोग,अनेक पकाम्लिका सिता शीतवारिणा वस्त्रगालिता।
प्रकारके वातरोग, शीत और अपस्मार (मिरगी) का एलालवङ्गकर्पूरमरिचैरवधूलिता।
नाश करता है। पानफस्यास्य गण्डूषं धारयित्वा मुखे मुहुः। अरुचिं नाशयत्येव पित्तं प्रशमयेत्तथा ॥ x गण्डूष-स्नेह, दूध, कपाय आदि द्रव
पक्की इमली और मिश्री को ठंडे पानीमें भिगो | द्रव्य मुखमें धारण करनेका नाम गण्डूष है। कर मल और छान कर उसमें इलायची. लौंगकर इसमें द्रव पदार्थ ५ तोले और चूर्णादि मिलाना और मरिचका चूर्ण डाल कर बार बार गण्डूषx
| हो तो १ तोला लेना चाहिये। जब तक
मुख कफ़से न भर जाय और नेत्र तथा नासि. लेनेसे अरुचि का नाश होता है और पित्तको कासे पानी न निकलने लगे तब तक गण्डूशमन करता है।
षक पदार्थको मुखमें भरे रहना चाहिये ।
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अकारादिक्वाथ
(१३) [२६] अर्कादि गणः । [२९] अर्कोकुरादिस्वरसयोगः
(मु० सं० सू० अ० ३८) (वृ० नि० २०, भा. प्र०, व. से० । कर्णरोगा०) अर्कालकरञ्जद्वयनागदन्तीमयूरकभार्गीरा- | अर्काङ्कुरानम्लपिष्टान् सतैलान्लषणान्वितान् । स्नेन्द्रपुष्पीक्षुद्रश्वेतामहाश्वेतावृश्चिकाल्यलव- | सन्निदध्यात्सुधाकांडे कोरिते मृत्स्नया वृते ॥ णास्तापसवृक्षश्चेति।
पुटपाकक्रियास्त्रिन्नं पीडयेदारसागमात् । अर्कादिकोगणो ह्येष कफमेदोविषापहः।। सुखोष्णं तद्रसं कर्ण प्रक्षिपेच्छूलशांतये ।। कृमिकुष्ठप्रशमनो विशेषाद् व्रणशोधनः॥ ___आकके अंकुरोंको कांजी या नींबूके रसमें
सफेद और लाल आक, लता करंज, | पीसकर तेल और नमक मिलाकर उसे थोहरके वृक्ष करंज, नागदन्ती, चिरचिटा, भारंगी, रास्ना, डंडेमें भरकर उसपर कपड़मिट्टी लगादे, फिर कलिहारी, श्वेत अपराजिता, कृष्ण अपराजिता, | पुटपाक विधिसे पकाकर उसका रस निकाले उस वृश्चिकाली(विछवा घास), मालकांगनी और इंगुदी- | रसको गुनगुना करके कानमें डालने से कानके वृक्ष । ये अर्कादिगण कफ, मेद, विष, कृमि, कोढ़ दर्दका नाश होता है। नाशक और विशेष कर व्रणशोधक हैं।
[३०] अर्कपत्रस्वरसयोगः [२७] अर्कादि क्वाथ: (४) (वृ० नि० २०, भा० प्र०, बं० से., ई० मा०; यो० र०)
चं० द० । कर्णरोगा०)
अर्कस्थपत्रं परिणामपीतसेकस्तथाऽवर्षाभूनिम्बकाथेन शोफजित् ।
___ माज्येनलिप्तं शिखियोगतप्तम् । गोमत्रेणापि कुर्वीत सुखोष्णेनावसेचनम् ॥
आपीडय तस्याम्बु सुखोष्णमेव सौवर्चलसमं धृष्टं सर्षपैश्च प्रलेपनम् ॥
कर्णे निपिक्तं हरतीति शूलम् ।। ___आक, पुनर्नवा और नीमकी छाल। इनका
आकके पके हुए पीले पत्तों पर घी लगाकर क्वाथ बनाकर सेकनेसे सूजनका नाश होता है। आग पर तपाकर उनका अर्क (स्वरस) निकालकर सूजन के ऊपर मन्दोष्ण गोमूत्रका अवसेचन करने | गुनगुना करके कान में डालनेसे कानका दर्द से तथा सौंचल और सरसोंका लेप करनेसे भी मिटता है। होता है।
[३१] अशोघ्नमहाकषाय दशकः [२८] अर्क पुष्पयोगः
(च० सं० सू० अ० ४) (यो० र०)
कुटजबिल्वचित्रकगागरातिविषाभयाधन्वयापक्वं तैलेर्कजं पुष्पं रुधिरस्रावकारि च। सकदारुहरिद्रावचाचव्यानीति दशेमानि अझै
आकके फूल तेलमें पकाकर सेवन करनेसे मानि भवन्ति । स्त्रियोंका मासिक धर्म खुलकर होता है । कुड़ेकी छाल, बेलकी छाल, चीता, सोंठ,
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(१४)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
अतीस, हैड़, धमासा, दारुहल्दी, बच और चच्य। चिरायता, देवदारु, दशमूल, सोंठ, नागरमोथा, ये दस औषधियां बवासीर नाशक है। कुटकी, इन्द्रयव, धनियां और गजपीपल । इनका [३२] अरल्वादि क्वाथः काथ तंद्रा, प्रलाप, खांसी, अरुचि, दाह, मोह, श्वास, (वृ० नि० २० । ज्वराति०)
और सन्निपात ज्वर नाशक है। अरल्वतिविषामुस्ताशुण्ठीबिल्वं सदाडिमम् ।
[३५] अर्शमें तक्रप्रयोगः सर्वज्वरहरो क्वाथः सर्वातीसारनाशनः ।।
(च० सं० । चि० अ०६)
त्वचं चित्रकमूलस्य पिष्ट्वा कुम्भं प्रलेपयेत् । ___ अरलु, (सोनापाठा), अतीस, नागरमोथा, सोंठ,
तक्रं वा दधि वा तत्र जातमर्शोहरं पिबेत् ॥ बेलगिरी और अनारदाना । यह क्वाथ सब प्रकारके
चातश्लेष्मार्शसां तक्रात परं नास्तीह भेषजम् । ज्वर और अतिसार (दस्तों) को नष्ट करता है ।
तत् प्रयोज्यं यथादोषं सस्नेहं रूक्षमेव वा ॥ [३३] अष्टादशांग क्वाथः (१)
सप्ताहं वा दशाहं वा पक्षं मासमथापि वा। (भाव० प्र०, यो. र., वृ. मा., यो० चिं., च. द.,
बलकालविशेषज्ञो भिपक् तक्रं प्रयोजयेत् ॥ बं. से० । सन्नि । वृ० यो० त० । त० ५९)
चीतेकी जड़की छालको पीसकर घड़ेमें लेप दशमूली शठी शृङ्गी पौष्करं सदुरालभम् । करके उसमें दही जमादे, उस दही को या उससे भार्गी कुटजबीजश्च पटोलं कटुरोहिणी ॥ बनाये हुए तक्र (मट्टे) को पीनेसे बवासीरका नाश अष्टादशाङ्ग इत्येष सन्निपातज्वरापहः ।
होता है। वायु और कफकी बवासीर में तकसे कासहृद्ग्रहपार्शर्तिश्वासहिक्कावमीहरः ॥
अच्छी और कोई दवा नहीं है । छाछ (तक) को
दोषोंके अनुसार बिना धी निकाले या घी निकाल. दशमूल, कपूर कचरी, काकड़ासिंगी, पोखर- |
कर (वातज में बिना धी निकाले और कफज में मूल, धमासा, भारङ्गी, इन्द्रयव, पटोलपत्र और
घी निकालकर) सात दिन, दस दिन, पन्द्रह कुटकी। यह अष्टादशाङ्ग क्वाथ सन्निपात ज्वर,
दिन, अथवा एक मास लक बल और कालके जाखांसी, हृद्ग्रह, पसलीशूल, श्वास, हिचकी और ननेवाला वैद्य सेवन करावे । वमनका नाश करता है।
[३६] अर्शनाशकयोगः [३४] अष्टादशांग काथः (२)
__ (च० सं० । चि० अ० ९) (भा० प्र०, वृ० मा०, धन्व०; २० २०, च० द०
| दुःस्पर्शकेन बिल्वेन यमान्या नागरेण वा । सन्नि । वृ० यो० त० । त० ५९)ोवियता पाठान्त्यर्शसां रुजम् ॥ भूनिम्बदारुदशमूलमहौषधाब्द
प्रागुक्तान् यमके भृष्टान्सक्तुभिश्चावचूर्णितान् । तिक्तेन्द्रबीजधनिके भकणाकषायः। करञ्जपल्लवान् दद्याद् वातवर्धोऽनुलोमनान् ॥ तन्द्राप्रलापकसनारुचिदाहमोह
मदिरां वा सलवणां शीधुं सौवीरकं तथा । श्वासत्रिदोषजनितज्वरनाशनःस्यात् ॥ गुडनागरसंयुक्तं पिबेद्वा पौर्वभक्तिकम् ॥
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अकारादि क्वाथ
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जवासा, बेलकीछाल, अजवायन और सोंठ।। घोड़ी की लीदके रसमें हींग मिलाकर पिलाने इनमेंसे एक एक के साथ भी पाठेका क्वाथ करके | से भयङ्कर शूल का भी नाश होता है। अथवा पीनेसे बवासीरकी पीडाका नाश होता है। घृत | इसी रसके या कुल्थीके क्वाथके साथ हींग, सोंठ
और तेलमें पहिले वर्णन किये हुए करञ्जवे के प- | और बिडलवण मिलाकर पिलाने से भी शूलका नाश त्तोंको भूनकर सतू के साथ सेवन करने से अधो- | होता है। वायु और मल यथोचित-मार्ग-गामी होते हैं। । [४०] अश्वत्थपत्ररस योगः
बवासीर में मदिरामें सैंधा नमक मिलाकर (वृ० नि० २०, भा० ५ । र० पि०) अथवा सीधु और सौवीरकसुरामें गुड़ मिलाकर अश्वत्थपत्राग्ररसात् षडंशो पीना लाभदायक है।
___ बोलोऽथ तस्माद् द्विगुणं मधु स्यात् । [३७] अश्वत्थादि-प्रक्षालनम् । रक्तप्रवाहं हृदयस्थितं वा (वृ० नि० र० उप०)
वातो यथाभं हरते तथैव ॥ अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षवटवेतसजः शृतः । पीपल (अश्वत्थ) के पत्तों के अग्रभागका रस व्रणशोथोपदंशानां नाशकः क्षालने स्मृतः॥ । १ भाग, बोलणूद ६ भाग, मध १२ भाग सबको
पीपल (अश्वत्थ), गूलर, पिलखन, बड़ और | मिलाकर पीने से रक्तप्रवाह और हृदयमें संचित बेतके क्वाथ से धोनेसे धाव, सूजन और उपदंश | रक्त दूर होता है जैसे पवन बादलों को नष्ट (आतशक) का नाश होता है ।
करता है। [३८] अश्वगंधादि गणः [४१] अश्वत्थवल्कलादि योगः (यो २० । वा० व्या०)
(वृ० नि० र० । छर्दि) वाजिगन्धा बलास्तिस्रो दशमूली महौषधम् । | अश्वत्थवल्कलं शुष्कं दग्धं निर्वापितं जले। गृधनख्यौ च रास्ना च गणो मारुतनाशनः ॥ तअलं पानमात्रेण छर्दि जयति दुर्जयाम ॥ असगंध, खरैटी, कंधी, गंगेरन, दशमूल, सोंठ,
पीपलकी सूखी छालको जलाकर पानीमें बुदो प्रकार की नखी और रास्ना । यह गण वायु
झाकर उस पानी को पीने से प्रबल वमन (छर्दि) नाशक है।
का नाश होता है। [३९] अश्वीपुरीषरस योगः [४२] अशोक काथः (वृ० नि० र० । शूले)
(वृ० नि० र० । भा० ६ स्त्री० रो०) तुरंगीपुरीपोदकं हिंगुयुक्तं
अशोकवल्कलक्काथशृतं दुग्धं सुशीतलम् । ____ महाशलहारि प्रदिष्टं भिपग्भिः। यथावलं पिबेत्प्रातस्तीवासृग्दरनाशनम् ॥ हिंगुविश्वाचिडैर्वापितोऽसौ ।
अशोककी छाल के क्वाथ से दूध को पकाकर कुलत्थोद्भवो वा कपायः प्रदिष्टः ॥ ठंडा करके बलके अनुसार प्रातःकाल पीने से प्रबल
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(१६)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
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(क्तप्रदरका नाश होता है।
[४३] अरडूसी स्वरसः
(वृ० नि० र० । मसू० चि०) वृषपत्ररसं दद्यात्पानार्थ मधुसंयुतम् ।
| कफजायां मसूर्यातु कठिनायां विशेषतः ॥
वांसे के पत्तोंका रस मधु मिलाकर पिलानेसे कफज मसूरिका (शीतला) को नाश करता है। | विशेषकर कठिना शीतला में उपयोगी है।
अथ चूर्ण-प्रकरणम्।
चूर्ण-व्याख्या अत्यन्तशुष्कं यद्व्यं सुपिष्टं वस्त्रगालितम्
चूर्ण तच्च रजः क्षोदस्तस्य पर्याय उच्यते अर्थात्-अत्यन्त शुष्क द्रव्यको पीसकर कपड़ेमें छान लिया जाय तो उसको चूर्ण, रज और क्षोद कहते हैं।
यदि एकाधिक औषधियोंका मिश्रित चूर्ण बनाना हो तो प्रत्येक औषधिका पृथक् पृथक् चूर्ण करनेके बाद तोल करके सबको यथा आवश्यक परिमाणमें मिलाना चाहिये क्योंकि सब औषधियों को मिलाकर एक साथ कूटनेसे किसी दवाका छानस अधिक और किसीका कम निकलनेके कारण उनके परिमाण में अन्तर पड़ जाता है।
चूर्णकी मात्रा कर्षश्चूर्णस्य कल्कस्य गुटिकानाश्च सर्वशः
द्रव शुत्क्या स लेढप्यः पातव्यश्च चतुर्द्रवः अर्थात्-चूर्ण, कल्क और गुटिका आदि की मात्रा १। तोला है । यदि इन्हें द्रव पदार्थ में मिलाकर चाटना होतो वह (द्रवपदार्थ) २॥ तोला, और यदि पीना होतो द्रवपदार्थ चूर्णादिसे ४ गुना लेना चाहिये । यह शास्त्रोक्त मात्रा है परंतु आजकल प्रायः चूर्ण लगभग ३ मासे की मात्रा में सेवन किये जाते हैं । चूर्ण दो मास पश्चात हीन वीर्य हो जाते हैं:
मासद्वयात्तथा चूर्ण हीनवीर्यत्वमाप्नुयात् । अतएव दो मास से अधिक पुराने चूर्ण इस्तेमाल करने ठीक नहीं ।
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अकारादि-चूर्ण
(१७)
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अकारादि चूर्ण प्रकरणम् यवानिका पञ्चगुणा पद्गुणा च हरीतकी । [४४] अग्निकरं चूर्णम् चित्रकः सप्तगुणितः कुष्ठं चाष्टगुणं भवेत् ॥
(व्यास० यो० सं०) एतद् वातहरं चूर्ण पीतमात्रं प्रसन्नया। शर्करा दाडिमं पथ्या रुचकं गिरिमल्लिका। पिबेद्दध्ना मस्तुना वा सुरया कोष्णवारिणा ॥ एषामग्निकर चूर्णमतिसारहरं परम् ॥ सोदावर्तमजीणं च प्लीहानमुदरं तथा।
चीनी, अनारदाना, हैड़, काला नमक, कूड़े- अङ्गानि यस्य शीर्यन्ते विष वा येन भक्षितम् ॥ कीछाल । इनका चूर्ण अग्नि दीपक और अतिसार अर्शोहरो दीपनश्च शूलनो गुल्मनाशनः । नाशक है।
| कासं श्वासं निहन्त्याशु तथैव क्षयनाशनः ॥ [४५] अमिमुखं चूर्णम् (१) चूर्णो ह्यग्निमुखो नाम्ना न कचित्प्रतिहन्यते । (बं० से; अजी० चि०)
हींग १ भाग, बच २ भाग, पीपल ३ भाग, चित्रकहबुषाग्रन्धिकपिप्पली
सोंठ ४ भाग, अजवायन ५ भाग, हरड़ ६ भाग, __ सौवर्चलाजमोदाभिः। चित्ता ७ भाग और कूठ ८ भाग,इनका चूर्ण बनाकर धान्यशटीयवपुष्करक्षाराजाजितिन्तिडीकैश्च ।। मात्रानुसार प्रसन्ना सुरा के साथ पीने से वायु का चव्ययवानीदाडिममृद्वीकैलाम्लवेतसैश्च समैः। नाश होता है । तथा इसे दही, मस्तु, सुरा अथवा अग्निमुखोऽयं चूर्णः काञ्जिकेन मस्तुना सीधुना। उप्ण जलके साथ सेवन करनेसे उदावर्त, अजीर्ण, पीतोऽन्यतमेन नृभिगुल्मारुचि- | तिल्ली, ऐसा उदररोग जिसमें अङ्ग विशीर्ण
पन्हिसादशूलानि । हो जाते हों तथा विषदोष का नाश होता है। यह दुर्नामप्लीहोदरकफवातगदान्विनाशयति । चूर्ण बवासीर नाशक, दीपक, शूलहर, गुल्म
चीत, हाऊबेर, पीपलामूल, पीपल, काला नमक, | नाशक, खांसी, श्वास नाशक और क्षय को हरने अजमोद, धनिया, कपूरकचरी, इन्द्रयव, पोखरमूल, वाला है। यह अग्निमुख चूर्ण कहीं भी निष्फल यवक्षार, सफेद जीरा, तितडीक, चव, अजवायन, नहीं होता। अनारदाना, मुनक्का, इलायची और अमलवेत, सब [४७] अग्रिमुख लवणम् समान भाग। इस अग्निमुख चूर्ण को कांजी वा (यो० र० । उ० चि०) मस्तु के साथ पीने से गुल्म, अरुचि, अग्निमांद्य, चित्रकत्रिवृतादन्तीत्रिफलारुचकैः समः। शूल, बवासीर, तिल्ली और कफज तथा वातज | यावन्त्येतानि चूर्णानि तावन्मात्रन्तु सैन्धवम् ।। रोगोंका नाश होता है।
भावयित्वा स्नुहीक्षीरैःस्नुक्काण्डे प्रक्षिपेत्ततः। [४६] अग्निमुखं चूर्णम् (२)
मृत्पङ्केनानुलिप्याथ प्रक्षिपेजातवेदसि ॥ (बं० से;च. प्र०,वृ. मा; यो० र० । अजी०चि०) सुदग्धं च ततो ज्ञात्वा शनैवैद्यः समुद्धरेत । हिंगुभागो भवेदेको वचा च द्विगुणा भवेत् । तक्रेण पीतं तच्चूर्ण यकृत्प्लीहोदरापहम् ।। पिप्पली त्रिगुणा ज्ञेया शृङ्गबेरं चतुर्गुणम् ॥ । एतदग्निमुखं नाम्ना लवणं वन्हिवर्धनम् ॥
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(१८)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
चीता, निशोत, त्रिफला, दन्ती, काला नमक, अजमोद (अजवायन), बच, कूठ, अम्लवेत, सब चीजें समान भाग और सबके बराबर सैंधा | सैंधानमक, सज्जीखार, हैड़, त्रिकुटा, ब्रह्मदण्डी, नमक लेकर चूर्ण करके थोहर के दूधकी भावना नागरमोथा, हुलहुल, सौंठ और बिडलवण । यह दे फिर थोहर के मोटे डंडे को भीतरसे खोखला | चूर्ण तक के साथ पीनेसे सब प्रकार के शूलोंका करके बीचमें इसे भरदे, इस स्नुही कांड को | नाश होता है। मिट्टी से लेप करके अग्नि में दग्ध करे फिर चूर्ण [११] अजमोदादि चूर्णम् (४) बना कर रक्खे । इसे तक के साथ पीनेसे तिल्ली, (वृ० नि० र० भा० ५ । शू०) जिगर और उदर रोगों का नाश होता है तथा | अजमोदाभयापाठा त्रिकटुः सम चूर्णकम् ॥ अग्नि दीप्त होती है।
भुक्तमुष्णांमसाऽजीर्ण शूलनिमूलनं क्षणात् ॥ [४८] अजमोदादि चूर्णम् (१)
अजवायन, हैड, पाठा, त्रिकुटा, सब चीजोंको (वृ० नि० २०, वृ० यो० त०, स्व० भ०)
समान भाग चूर्ण करके गरम पानी के साथ खाने से अजमोदां निशां धात्रीं क्षारं वन्हि विचूर्णयेत्।
| अजीर्णका नाश होता है और शूल तो क्षण भरमें मधुसपिर्युतं लीढं त्रिदोषस्वरभंगनुत् ॥ अजमोद (अजवायन), हल्दी, आमला, यव- |
निर्मूल हो जाता है। क्षार, और चीता, इनका चूर्ण मधु और घी के साथ |
[१२] अजमोदादि चूर्णम् (५) चाटने से त्रिदोषज स्वर-भंग का नाश होता है। . (शा० ध०, म० खं० अ. ६, यो० चि०)
[४९] अजमोदादि चूर्णम् (२) अजमोदा विडंगानि सैन्धवं देवदारु च । (शा० ध०, म० ख० अ० ६, वृ० मा०, यो० चित्रकः पिप्पलीमूलं शतपुष्पा च पिप्पली ॥ र० । अति०)
मरिचं चेति कपाशं प्रत्येकं कारेयद् बुधः । अजमोदा मोचरसं सशृङ्गवेरं सधातकीकुसुमम्। कर्षास्तु पंच पथ्याया दश स्युवेद्धदारकात् ॥ गोदधिमथितयुक्तं गङ्गामपि वाहिनीं मध्यात नागराच्च दशैव स्युः सर्वाण्येकत्र चूर्णयेत । - अजमोद (अजवायन), मोचरस, सोंठ और | पिवेत्कोष्णजलेनैव चूर्ण श्वयथुनाशनम् ॥ धायके फूल । इनका चूर्ण बनाकर गायक तक के | आमवातरुजं हन्ति सन्धिपीडां च गृध्रसीम् । साथ पीने से प्रबल अतिसार का नाश होता है। | कटीपृष्ठगुदस्थां च जंघयोश्च रुजं जयेत् ॥ [५०] अजमोवादि चूर्णम् (३) तूनीप्रतूनींविश्वाचीकफवातामयाञ्जयेत् ।
(वृ० नि० । भा० ५ शू०) समेन वा गुडेनास्य वटकान्कारयेत् भिषक् ।। अजमोदा वचा कुष्ठमम्लवेतससैन्धवम् । ____ अजमोद, बिडंग, सैंधा नमक, देवदारु, सर्जिक्षार तथा पथ्या त्रिकटु ब्रह्मदंडिका ॥ चीता, पीपलामूल, सोया, पीपल और काली मिर्च । मुस्ता सुवर्चला विश्वा लवणं विडपूर्वकम् । प्रत्येक १। तोला; हैड़ ६। तोला, विधारा १२॥ पीतं तक्रान्विते पूर्णममीपां सर्वशूलहृत् ॥ । तोला, सोंठ १२॥ तोला । सबका चूर्ण बनाकर
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अकारादि-चूर्ण
(१९)
एकत्र मिलालें। इस चूर्णको गर्म पानी के साथ | और घोर विसूचिका (हैज़े) का नाश करता है। सेवन करने से सूजन, आमवात, गठिया, गृध्रसी, [५५] अजित अगद कमर, पीठ, गुद, जंघा आदि की पीड़ा, तूनि, प्रतूनि, (सु० सं० क० अ०५) विश्वाचि तथा कफ और वायु के रोगोंका नाश विडङ्गपाठात्रिफलाजमोदा होता है । इस चूर्ण को समान भाग गुड़ में हिङ्गुनि वक्त्रं त्रिकटूनि चैव । मिलाकर मोदक भी बना सकते है। .
सर्वश्च वर्गों लवणः सुमुक्ष्मः [५३] अजमोदादिचूर्णम् (६) सचित्रका क्षौद्रयुतो निधेयः॥ (वृ० नि० २० । वा० चि०)
शृङ्गे गवां शृङ्गमयेन चैव अजमोदा कणा रास्ना गुडूची विश्वमेषजम् ।
प्रच्छादितः पक्षमुपेक्षितश्च।
एषोऽगदः स्थावरजङ्गमानां शतपुष्पाश्वगन्धा च शतमूली समांशतः ॥
जेता विषाणामजितोहि नाम्ना॥ मुलक्ष्णं चूर्णमेतेषां भक्षितं सर्पिषा सह ।।
बायविडंग, पाठा, त्रिफला, अजमोद, हींग, हत्कुक्षिकोष्ठकण्ठस्थं मारुतं हन्ति वेगतः ॥
| तगर, त्रिकुटा, लवणवर्ग ( पांचो लवण ) और ___ अजमोद (अजवायन), पीपल, रास्ना, गिलोय, | चीता । इन सबका महीन चूर्ण करके शहद मिलासोंठ, सोया, असगन्ध और शतावर । सब समान | कर उसे गायके सींगमें भरदे और फिर उस सींगको भाग । इनका चूर्ण करके घीके साथ खानेसे हृदय, | १५ दिन तक सींगोंके ढेर में दबा रहने दे। कुक्षि (कोख) उदर और कण्ठगत वायु वेगपूर्वक फिर निकालकर काममें लावे । यह अगद स्थावर शान्त हो जाती है।
और जंगम विषोंका नाश करता है। [१४] अजाज्यादि चूर्णम् [५६] अतिविषादि चूर्णम् (१) (मै० र० । ग्र० चि०)
(च० सं० चि० अ० १५) पलद्वन्द्वमजाज्यास्तु पलैकं यावशूकजम् ।
सामे सातिविषाव्योषलवणक्षारहिङ्गुवत् । अम्बुदं द्विपलं ज्ञेयं फणिफेनपलं तथा ॥
निकाथ्य पाययेच्चूर्ण कृत्वा वा कोष्णवारिणा।। अर्कमूलभवं चूर्ण चतुःपलमितं स्मृतम् ।
आमयुक्त संग्रहणी में-अतीस, त्रिकुटा, सेंधा, अजाज्यादिकमेतद्धि हन्त्युग्रं ग्रहणीगदम् ॥
नमक, यवक्षार और हींग इस चूर्णको उष्ण जलके सरक्तमथ नीरक्तमतीसारं सुदारुणम् ।
| साथ सेवन करनेसे सामग्रहणी रोग नष्ट होता है। ज्वरातिसारं शमयेद्विसूची घोररूपिणीम् ॥ । (५७)
। (५७) अतिविषादि चूर्णम् (२) सफेद जीरा १० तोला, यवक्षार ५ तोला, (वाग्भट । उ० अ० २) नागर मोथा १० तोला, अफीम ५ तोला और मधुनाऽतिविषाशृङ्गीपिप्पलीलेहयेच्छिशुम् । आककी जड़ २० तोला । यह चूर्ण प्रबल संग्रहणी | एकां वातिविषां कासज्वरच्छर्दिरुपद्रुतम् । रक्त सहित अतिसार या रक्त रहित ज्वरातिसार । * कासज्वरादिभिरुपद्रुतमिति ससुचित पाठः।
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(२०)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
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केवल अतीसका चूर्ण अथवा--अतीस, काक- । मोथा और चिरायता, सब समान भाग लेकर चूर्ण डासींगी और पीपल के चूर्ण को शहदके साथ | बनाकर इस में सब के बराबर गुड़ मिलावे । इसे चटानेसे बालकोंकी खांसी ज्वर और छर्दि का नाश प्रतिदिन १। तोला खावे और इसके पचने पर होता है।
छाछ पिये। [५८] अतिविषादि चूर्णम् (३) [६१] अपामार्गादि कल्कः (यो० र० स्नायुका०)
(वृ० नि० र० अर्श भा० ४ शा. ध.) अतिविषमुस्तकमाविश्वौषध
अपामार्गस्य बीजानां कल्कस्तण्डुलवारिणा। पिप्पलीविभीतानाम् ।
पीतो रक्तार्शसां नाशं कुरुते नास्ति संशयः॥ चूर्ण तन्तुकृमिघ्नं पुंसामुष्णेन
__अपामार्ग के बीजोंका कल्क चावलों के पानी वारिणा पीतम् ।।
के साथ सेवन करने से खूनी बवासीर का नाश अतीस, नागरमोथा, भारङ्गी, सोंठ, पीपल और | होता है । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। बहेडा इनका चूर्ण गरम पानी के साथ सेवन करनेसे
[६२] अभयादि चूर्णम् स्नायुक (नहरवा ) नष्ट होता है।
(वृ० नि० र० भा० ४ अति०) [२९] अनन्तादि चूर्णम् अभयातिविषा हिंगु सौवर्चलकटुत्रयम् । (वृ० नि० र०, बृ० यो० त०)
एतच्चूर्ण सुतप्ताम्भःपीतं श्लेष्मातिसारजित ।।
हैड़, अतीस, हींग, काला नमक, त्रिकुटा । अनन्तं वालकं मुस्तं नागरं कटुरोहिणीम्।
। सब चीजें समान भाग लेकर चूर्ण को गरम पानी सुखाम्बुना प्रागुदयात्पिबेदक्षसमं रवेः॥ |
| के साथ सेवन करने से कफज अतिसार का नाश एतत् सर्वज्वरान् हन्ति दीपयत्याशु चानलम्।।
होता है। अनन्तमूल, सुंगधवाला, नागर मोथा, सोंठ
[६३] अभयादि योगः और कुटकी इनका ११ तोला चूर्ण प्रातःकाल कुछ
(वृ० नि० र० भा० ५ गु० चि०) गरम (मन्दोष्ण) पानी के साथ सेवन करनेसे सब
अभया सैन्धवं तकं भोजनान्ते पिवेदनु । प्रकारके ज्वरों का नाश होता है और अग्नि दीप्त
त्रिफला सुवर्चलाक्षारं तुल्यं गुञ्जकैकं भक्षयेत्।। होती है।
त्रिदोषोत्थं हरेद् गुल्मं त्रिफला सश्चलं तथा । [६०] अपामार्ग बीजादि चूर्णम् । उष्णे तक्रे पिबत्कर्ष मुण्डीमूलं च वारिणा ।। (वृ० नि० र० । अर्श०)
हैड़ और सैंधा नमक का चूर्ण छाछ में मिला अपामार्गस्य वीजानि वह्निः शुण्ठी हरीतकी। कर भोजन के बाद पीने से अथवा त्रिफला और मुस्ताभूनिम्बतुल्यांशं सर्वतुल्यं गुडं भवेत्॥ हुलहुल का क्षार ये दोनों समान भाग मिला कर कर्षकं भक्षयेच्चानु जीर्णान्ते तक्रभोजनम् । इस में से १-१ रत्ती भर खाने से अथवा त्रिफला __ अपामार्गके बीज, चीता, सोंठ, हैड, नागर- : और कालानमक के चूर्ण को गरम छाछ के साथ
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अकारादि-चूर्ण
(२१)
पीने से या १। तोला मुण्डी की जड़ को पानी के | जल में मिलाकर पकावे । जब चौथाई पानी शेष साथ पीने से त्रिदोषज गुल्म का नाश होता है। | रहे तो उसे (२१ बार) कपड़े में छान ले और [६४] अभयालवणम्
फिर उस पानी (क्षारोदक) में सेंधानमक १ सेर, हैड (भै. र. प्ली. चि.) .
१/२ सेर और गोमूत्र क्षारोदक के बराबर मिलाकर
मंदाग्नि पर पकावे । जब गाढ़ा होजाय तो उतार पारिभद्रपलाशार्कस्नुह्यपामार्गचित्रकान् ।
कर गरम गरम में ही (इतना गरम रहना चाहिये . वरुणाग्निमन्थवसुकश्वदंष्ट्रहती द्वय ।।
कि भाप निकलती रहे) नीचे लिखी चीजोंका चूर्ण पूतिकास्फोत कुटज कोषातक्यः पुनर्नवा ।
मिलावे-जीरा, त्रिकुटा, हींग, अजवायन, पोखरमूल समूलपत्रशाखाश्च क्षोदयित्वा उदूखले ॥
और कपूरकचरी, प्रत्येक का चूर्ण २॥ २॥ तोला । तिलनालप्रदीप्ताग्निसुदग्धं भस्मशीतलम् ।
इसे यथोचित मात्रा में और यथोचित अनुक्षारप्रस्थं गृहीत्वा तु न्यसेत्पात्रे दृढे नवे ॥
पान के साथ सेवन करने से उदररोग, जिगर और जलद्रोणे विपक्तव्यं ग्राह्य पादावशेषितम् ।
तिल्ली के रोग, अफारा, गुल्म अष्ठीला, मन्दाग्नि, पूर्ववत् क्षारकल्पेन स्रावयीत विचक्षणः ॥
| शिरोरोग, हृद्रोग और शर्कराजन्य पथरी का नाश प्रस्थमेकं च लवणं तदद्धां च हरीतकीम् ।
| होता है । ४ तुल्याम्बुभागं गोमूत्रं साधयेन्मृदुनाग्निना॥ किश्चित्सावाष्पसान्द्रे च सम्यक् सिद्धेऽवतारिते।
[६५] अभया विरेचनम्
११ अजाजीत्र्यूषणं हिङ्गु यमानी पौष्करं शटी ॥ (सु. स. । उ० अ० ४०) एतैरधेपलैर्भागेश्चूर्ण कृत्वा प्रदापयेत् । स्तोकं स्तोक विबद्धंवा सशूलं योऽतिसार्यते । अभयालवणं नाम भक्षयेच्च यथा बलम् ॥ अभया पिप्पली कल्कैः सुखोष्णैस्तं विरेचयेत् ॥ व्याधिश्च वीक्ष्य मतिमाननुपानं यथः हितम्। हैड और पीपल समान भागका चूर्ण मन्दोष्ण ये च कोष्ठ गता रोगास्तानिहन्ति न संशयः॥ पानी के साथ खाने से अल्प अल्प, बार २ होने यकृत्प्लीहोदरानाहगुल्माष्ठीलाग्निसादजित । वाले प्रवल और शूल सहित अतिसार का हन्याच्छिरोऽर्तिहृद्रोगान् शर्कराश्मरीनाशनम् ॥ नाश होता है। . पारिभद्र (फरहद) ढाक, आक, थोहर, चिर- [६६] अमलतास रखने की विधि चिटा, चीता, बरना, अरणी, सफेद आक, गोखरु, |
(च. सं. क.।) दोनों कटेली, करंजवा, आस्फोत (कचनार) कुड़ेकी | फलकाले फलं तस्य ग्राह्यं परिणत यत् । छाल, कड़वी तोरी और पुनर्नवा। इन सब वृक्षोंके | एषां गुणवतां भारं सिकतासु निधापयेत् ॥ मूल, पत्र, शाखा लेकर ओखली में कूट कर तिल- | १ हाफरमालीति बङ्गे नाल की अग्नि में जलावे । जब इनकी भस्म (राख) | अभया लवण तिल्ली और जिगर के लिये ठंडी होजाय तो उसमें से १ सेर लेकर १६ सेर । खास तौर पर फायदेमन्द है।
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(२२)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
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सप्तरात्रात्समुद्धृत्य शोषयेदातपे भिषक् । | देना चाहिये। ततो मज्जानमुद्धृत्य शुचौ भाण्डे निधापयेत् ॥ अमलतास की मज्जा (गूदे) के साथ दूधको
जिस समय अमलतासपर फल आवे उस सिद्ध करके उससे धी निकाले, फिर उस धीको समय उसके पके हुए भारी और उत्तम फल लेकर | आमलेके रस और उसके गूदेके कल्कसे सिद्ध रेत में दबादे, फिर उन्हें सात दिन पश्चात् निकाल करके सेवन करे । अथवा उसी धीको दशमूल कर धूप में सुखावे और सूखने पर उनका गूदा | कुल्थी और जौके कषाय तथा निसोत आदिके निकाल कर अच्छे बरतन में भर कर रखदे। कल्कसे सिद्ध करके सेवन करे । अथवा दन्ती [६७] अमलतास के कल्प
क्वाथ लेकर उसमें अमलतास की मज्जा (गूदा) (च. सं. । क. अ. ८)
२० तोला और गुड़ २० तोला मिलाकर यथा द्राक्षारसयुतो देयो दाहोदावर्त पीडिते ।
| विधि सन्धान कर ४५ दिन तक रक्खारहने दे चतुवर्षमुखे बाले यावद्वादश वार्षिके ॥
| जब अरिष्ट सिद्ध होजाय तब उसे सेवन करे । चतुरङ्गुल मज्ज्ञस्तु प्रसृतं वाथवाञ्जलिम् ।
जिस मनुष्य को मधुर, कटु या लवण जिस सुरामण्डेन संयुक्तमथवा कोलसीधुना ॥
प्रकार का खान पान प्रिय हो उसको उसी के दधिमण्डेन वा युक्तं रसेनामलकस्य वा। साथ अमलतास से विरेचन देना चाहिये । कृत्वा शीतकषायं तं पिवेत् सौवीरकेण वा ॥ [६८] अमृत प्राश चूर्णम् चतुरङ्गुलसिद्धाद्वा क्षीराद्यदुदियाघृतम् ।
(र. र. स. । अ० २१) मज्ज्ञः कल्केण धात्रीणां रसे तत्साधितं पिवेत्॥ ऐलेयकं समूलं हि मुद्गपर्णी तथैव च । तदेव दशमलस्य कुलत्थानां यवस्यच । शतावरी विदारी च वाराहीकन्दमेवच ॥ कषाये साधितं कल्कै सर्पिः श्यामादिभिः पिबेत् मधुकं च मधूकं च तुगाक्षीरी च गोस्तनी। दन्तीकाथेऽजलिं मज्ज्ञः शम्पाकस्य गुडखच। एतानि द्विपलांशानि चूर्णीकृत्य पृथक् पृथक् ॥ दत्वा मासार्धमासस्थमरिष्टं पाययेत च ॥ सरलं चन्दनं चोचमुत्पलं कुमुदं जलम् । यस्य यत्पानमन्नं च हृद्यं खादपि वा कटु। | काकोली क्षीरकाकोली द्वे मेदे जीवकर्षभौ ॥ लवणं वा भवत्तेन युक्तं दद्याद्विरेचनम् ॥ एतेषां चादपलिकं प्रत्येकं शर्करायुतम् ।
अमलतास को दाद और उटाव से पीडित | ऐलेयकं विदारी च वाराही मुद्पर्णिका ॥ रोगी को दाख के रस के साथ देना चाहिये। | एतेषां खरसैः शुद्धैः शतावर्याश्च मावितम् ।
चार वर्ष की अवस्था से लेकर बारह वर्ष एतत्सर्प समाहृत्य छाया शुष्कं तु सप्तधा ॥ तक की उम्र वाले के लिये अमलतासके गूदेकी | इक्ष्वामलकयोः क्षौद्रेर्भावित सप्तधा पुनः । मात्रा १० तोला से २० तोला तक है । उसे | पयसा तु पिबेत्प्रातर्यथाग्निबलवानरः ॥ सुरामण्ड, कोलशीधु, दधिमण्ड, आमले के रस या | अगदाहं शिरोदाहं रक्तपितं सुदारुणम् । शीत कषाय बनाकर अथवा सौवीरक के साथ | शिरोऽक्षिकम्पभ्रमणमित्यादिक गदाञ्जयेत् ।।
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अकारादि-चूर्ण
(२३)
___(च. सं.)
एलेयक, मूल सहित मुद्गपर्णी, शतावर, | अमृतेन्द्रयवारिष्टपटोलं कटुरोहिणीम् । विदारीकंद, वाराहीकंद, मुलहठी, महुवा, बंसलोचन | नागरं चन्दनं मुस्तं पिप्पलीचूर्णसंयुतम् ॥
और दाख प्रत्येक १०-१० तोले सरलकाष्ट, सफेद अमृताष्टक इत्येष पित्तश्लेष्मज्वरापहः । चन्दन, दालचीनी, नीलोफर, कुमुद, दोनों काकोली, | हल्लासारोचकच्छर्दिपिपासादाहनाशनः ॥ मेदा, महामेदा, जीवक, ऋषभक, चीनी प्रत्येक २॥ हरड़, इंद्रयव, नीम, पटोलपत्र, कुटकी, सोंठ, तोला ।इन सब का चूर्ण कर उसे एलेयक, विदारी- | चन्दन, नागरमोथा और पीपल । इनका चूर्ण कंद, वाराहीकंद और मुद्गपर्णी तथा शतावर के पितश्लेष्म-ज्वर, उबकाई, अरुचि, छर्दि, पिपासा रस की भावना दे और फिर सब को ईख, आमला | और दाह का नाश करता है ।
और शहद की सात बार भावना देकर रक्खे। [७२] अम्लकादि चूर्णम् इस चूर्णको प्रातःकाल दूधके साथ पीनेसे अङ्गदाह, शिरोदाह, प्रबल रक्तपित्त, शिरका कांपना और
चतुर्णा प्रस्थमम्लानां त्र्यूषणं च पलत्रयम् । आंखका फड़कना, भ्रम इत्यादि रोगोंका नाश लवणानां च चत्वारि शर्करायाः पलाष्टकम् ॥ होता है।
संचूर्ण्य सूपानरागादिष्ववचारयेत् । [६९] अमृतादि चूर्णम् (१)
कासाजीरुचिश्वासहृत्पाण्डामयगुल्मनुत् ॥ (भा. प्र., म. खं. आ. वा.)
| चतुराम्ल १ सेर, त्रिकुटा १५ तोला, लवण २० अमृतानागरगोक्षुरमुण्डितिकावरुणकैः कृतं ।
| तोला, चीनी ४० तोला, इस चूर्ण को दाल और चूर्णम् ।
अन्नादि में डाल कर सेवन करने से खांसी, मस्त्वारनालपीतं सामानिलनाशनं ख्यातम् ॥
अजीर्ण, अरुचि, श्वास, हृद्रोग, पाण्डु और गुल्म गिलोय, सोंठ, गोखरु, गोरख मुण्डी और
का नाश होता है। बरना। इनका चूर्ण मस्तु और आरनाल के साथ
[७३] अयोरजादि चूर्णम् पीने से आमवात का नाश होता है। [७०] अमृतादि चूर्णम् (२)
(बृ. नि. र. काम.) (वृ. नि. र., वा. र.)
अयोरजोव्योषविडङ्गचूर्ण अमृता कटुका शुण्ठी यष्टीकल्क समाक्षिकम् ।। लिह्याद्धरिद्रात्रिफलान्वितं वा। गोमूत्रपीतं जयति सकर्फ वातशोणितं ॥ सशर्कराकामलिनांत्रिमण्डी गिलोय, कुटकी, सोंठ और मुलैठी । इनका चूर्ण
हितागवाक्षी सगुडाचशुण्ठी ॥ शहद के साथ चाटकर ऊपर से गोमूत्र पीने से | लोहचूर्ण, त्रिकुटा, बिडंग, हल्दी और त्रिफला । कफ दोषयुक्त वातरक्त को आराम होता है। अथवा निसोत और मिश्री वा इन्द्रायण का गूदा, [७१] अमृताष्टक चूर्णम् गुड़ और सोंठ मिलाकर खाने से कामला को (भै. र. ज्व. चि.)
आराम होता है।
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(२४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
[७४] अयोरजादियोगः
[७७] अर्कपुष्पी योगः (पृ. नि. र. काम.)
(वृ. नि. र. भा. ५ अश्म.) तुल्यमयोरजः पथ्या हरिद्रा क्षौद्रसर्पिषा। गव्येन पिष्टा पयसार्कपुष्पी चूणितं कामली लिह्याद्गुडक्षौद्रेण वामयाम् ॥ | निपीयमाना त्रिदिनं प्रभाते ।
लोहचूर्ण, हरड़ और हल्दी । इनका चूर्ण शहत विदार्य वीर्येण निजेन तीव्रामप्यश्मरी और घीके साथ अथवा हैड़ का चूर्ण गुड और |
या कुरुते च दाहम् ।। शहद के साथ चाटने से कामला को आराम
। अर्कपुष्पी (हुलहुल) गायके दूधमें पीसकर होता है।
| ३ दिन तक रोज प्रातःकाल पीनेसे दाह युक्त [७५] अरिष्टादि चूर्णम्
प्रवृद्ध पथरी का भी नाश होता है । (यो. चि.)
[७८] अर्कादिक्षार निम्बच्छदो दशपलं त्र्यूषणं च पलत्रयम् ।
(ा नि. र. वाताशें) त्रिपलं त्रिफला चैव त्रिपललवणत्रयम् ।।
| तरुणान्यर्क पत्राणि पश्चैव लवणानि च । द्रौ क्षारौ द्विपलं चैव यवानी पलपश्चकम् ।
युक्तानि तैलेनाम्लेन दहेत्क्षारश्च युक्तितः ।। सर्वमेकीकृतं चूर्ण प्रत्यूषे भक्षयेभरः ॥
उष्णोदकेन मद्यैर्वापीतो वातार्शसां हितः ॥ एकाहिकं द्वयाहिश्च त्राहिकश्च तथा ज्वरम् ।
___आकड़ेके कोमल पत्तोंको तेल और पांचो चतुर्थिकं महाघोरं सान्त्वयेत्सन्ततं ज्वरम् ॥
नमक तथा कांजी के साथ विधिवत् भस्म करके नीमके पत्ते ५० तोला, त्रिकुटा १५ तोला,
क्षार बनावे । इसे गरम पानी या मद्यके साथ त्रिफला १५ तोला, सैंधा, सौंचल और सांभर
सेवन करनेसे बादीकी बवासीरका नाश होता है। तीनो १५ तोला, दोनों क्षार १० तोला, अजवायन
[७९] अर्जुनादि क्षीरम् २५ तोला । इन सबका चूर्ण करके प्रातः काल
(यो. र. ह. रो.) खानेसे दैनिक, तिजारी, चौथिया आदिका नाश
अर्जुनस्य त्वचासिद्धं क्षीरं पित्तहृदतिजित् । होता है। [७६] अर्कलवणम्
सितया पश्चमूल्या वा वलया मधुकेन वा ।। (च. द. उ. चि.)
दूधको अर्जुनकी छाल डालकर पकाकर अर्कपत्रं सलवणनन्तधूमं दहेत् ततः
मिश्रि मिलाकर पीनेसे अथवा पञ्चमूल या बला मस्तुना तं पिबेत्क्षारं गुल्मप्लीहोदरापहम् ॥
के साथ या मुलैठी के साथ पकाकर मिश्री आकड़े के पत्ते और लवण को मिट्टी के
डालकर पीनेसे पित्तज हृद्रोगका नाश होता है । बरतन में बन्द करके मुख पर कपड़मिट्टी करके
[८०] अलम्बुषादि चूर्णम् चूल्हे पर चढाकर अन्तधूम जला ले। इस क्षार को
(मा. प्र. म. खं. आ. वा.) मस्तु के साथ पीने से गुल्म और तिल्ली का | अलम्बुषा गोक्षुरकं गुडूची वृद्ध दारकम् । नाश होता है।
| पिप्पली त्रिवृतां मुस्तां वरुणं सपुनर्नवम् ॥
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अकारादि-चूर्ण
(२५)
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त्रिफला नागरं चैव श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् । । काञ्जिकेन तु तत्पेयं विडालपदमात्रकम् । मस्त्वारनालतक्रेण पयोमांसरसेन वा ॥ आमवाते प्रवृद्धे च योगोयममृतोपमः॥ आमवातं निहन्त्याशु श्वयधुं सन्धिसंस्थितम् ॥ गोरखमुण्डी, गोखरु, वरुणाकी जड़, गिलोय ___ गोरख मुण्डी, गोखरु, गिलोय, विधारा, | और सोंठ प्रत्येक सम भाग लेकर चूर्ण बनाषे । पिप्पली, निसोत, नागरमोथा, बरना, सांठीकी जड, गुण-प्रबल आमवात (गठिया)को आराम त्रिफला और सोंठ । इन सबका महीन चूर्ण करके करता है । मात्रा-१। तोला । अनुपान-~-काजी । मस्तु, आरनाल, छाछ, दूध या मांसरसके साथ यह योग अमृतके समान गुणकारी है । सेवन करनेसे आमवात और सन्धिगतशोथको शीघ्र आराम होता है।
[८३] अविपत्तिकर चूर्णम् [८१] अलम्बुषादि चूर्ण (२)
(वं. से.; धन्व, भै. र; रसे. चि; रसे. सा. सं. अम्ल.) (भा० प्र०, म० ख० आ० वा०)
त्रिकटु त्रिफला मुस्तं विडश्चैव विङ्गकम् । अलम्बुपागोक्षुरकं त्रिफला नागरामृताः।
एला पत्रश्च सर्वाणि समभागानि कारयेत् ।। यथोत्तरं भागवृद्धथा श्यामाचूर्णं च तत्समम् ॥
यावन्त्येतानि सर्वाणि लवङ्गं तत्समं भवेत् । पिवेन्मस्तसुरातक्रकाजिकोष्णोदकेन वा। सर्वचूर्णाद्विगुणितं त्रिवृच्चूणे तु कारयेत् ॥
आमवातं जयत्याशु सशोथं वातशोणितम ॥ यावन्त्येतानि सर्वाणि तावती शर्करा भवेत् । त्रिकजानूरुसन्धिस्थं ज्वरारोचकनाशनम् ॥
सर्वमेकीकृतं पात्रे स्निग्धे चैव निधापयेत् ॥ अलम्बुषादिकंचूर्ण रोगानीकविनाशनम् ।
भोजनादौ ततो भक्षेन्मासाष्टकमिदं शुभम् । हरीतक्यक्षधात्रीभिः प्रसिद्धा त्रिफला क्रमात् ।
शीततोयानुपानं च नारिकेलोदकं तथा ।। प्रत्येकं तेन वा युञ्ज्याद् भागद्वचा यथोत्तरम| ततो यथेष्टमाहारं कुर्यात्क्षीरोदनं च वै । गोरखमुंडी १ भाग, गोखरू २ भाग, हरड
अम्लपित्तं हरत्याशु शूलदुर्नामनाशनम् ॥ ३ भाग, बहेडा ४ भाग, आमला ५ भाग, सोंठ | प्रमेहां विंशतिश्चैव मूत्रघातं तथाश्मरीम् । ६ भाग, गिलोय ७ भाग, और निसोत २८ भाग। | अवित्तिकर चूर्णमगस्त्यमुनिभाषितम् ॥ इस चूर्णको मस्तु, सुरा, तक्र, कांजी अथवा गरम त्रिकुटा, त्रिफला, नागरमोथा, बिड नमक, पानीके साथ पीनेसे आमबात तथा शोथ युक्त | बायबिडंग, इलायची, तेजपात, सब समान भाग, वातरक्त, त्रिक, जानु, उरु और संधियोंमें स्थित वायु लवंग सबके बराबर, और इस सब चूर्णसे दो गुनी तथा ज्वर और अरुचिका नाश होता है। यह निसोत तथा इन सबके बराबर चीनी । सबका चूर्ण अलम्बुषादि चूर्ण रोग सनूहों कानाश करता है। करके चिकने बरतन में भरकर रक्खें । फिर भोजन
[८२] अलम्बुषादि चूर्णम् (३) । के पहिले ठंडे पानी या नारियलके पानीके साथ
(भा० प्र०, म० ख० आ० वा०) ८ माषा खाना चाहिए। फिर यथेष्ट दूध चावल अलम्बुषा गोक्षुरकं मूलं वरुणकस्य च। का आहार करे । इसके सेवनसे अम्लपित्त, शूल, गुडूची नागरं चेति समभागानि कारयेत् ॥ बवासीर, बीस प्रकारका प्रमेह, मूत्राघात, और
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(२६)
भारत-मैपन्य-रत्नाकर
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पथरीका नाश होता है । यह अविपत्तिकर चूर्ण । रानाकटुकरोहिण्या जीवन्ती कुष्ठकं तथा । अगस्त मुनिका निर्दिष्ट किया हुआ है। | प्रायः कर्षमितं चूर्ण चूर्णन समशर्करा॥
[८४] अश्वगन्धादि चूर्णम् (१) प्रातः काले त्विदं चूर्ण जलेनोष्णेन सेवयेत् ।
- (शा० ध० म० खं० अ० ६) घातपित्तक्षये चैव अजागोघृत संयुतम् ॥ अश्वगन्धा दशपला तन्मात्रो वृद्धदारुकः।। श्लेष्मक्षये क्षौद्रयुक्तं नवनीतेन मेहजित् । चूर्णीकृत्योभयं विद्वान् घृतभांडे निधापयेत् ॥ शिरोभ्रमणपित्तार्ने गोक्षुरेण समन्वितम् ॥ कर्फकं पयसा पीत्वा नारीभिनैव तृप्यति । क्षतक्षीणे च देहेच विशेषवलवर्द्धनम् । अगत्वा प्रमदा भूयाद् वलिपलितवर्जितः॥ | मेदोदरं च मन्दाग्नि कुक्षिशूलोदरापहम् ॥ __ असगन्ध ५० तोला और विधारा ५० अनुपानविशेपेण सर्वरोगहरं परम् ।। तोला इन दोनोंका चूर्ण करके चिकने बर्तनमें असगन्ध ५० तोला, सोंठ २५ तोला, पीपल रक्खे । मात्रा-१।। तोला अनुपान दूध । १२॥ तोला, काली मिर्च ६। तौला, चातुर्जात,
गुण-पौष्टिक और वाजीकरण है। इसको | दालचीनी, भारंगी, तालीसपत्र, कपूरकचरी, सफेद सेवन करनेके साथ यदि ब्रह्मचर्यका पालन किया जीरा, बकायन, जटामांसी, कंकोल, नागरमोथा, जाय तो बलिपलित रोग नष्ट होता है। | रास्ना, कुटकी, जीवंती, कूठ प्रत्येक १। तोला । [८५] अश्वगन्धादि चूर्णम् (२) । सबका चूर्ण करके चूर्णके बराबर शर्करा मिलावे । (वं. से. रसाय. अ.)
साधारण अनुपान-गरम पानी । वातज और अश्वगन्धातसी शुंठी निर्गुण्डी मागधी तथा। पित्तज क्षयमें बकरी या गायके धीके साथ, कफज षड्वापराजितं चैव समभागानि कारयेत ॥ क्षयमें मधुके साथ और प्रमेहमें नौनी धीके साथ कर्फकं भक्षयेन्नित्यं पयसान्नं पिबेदनु । । | खाना चाहिए । पित्त रोगोंमें और शिरके घूमने सन्धिवातं निहन्याशु साध्यासाध्यं न संशयः॥
(चक्कर) में गोखरूके पानीके साथ सेवन करना रसायनमिदंप्रोक्तं वलीपलितनाशनम् ॥
| चाहिए । यह चूर्ण क्षत, क्षीण, मेदोदर, मन्दाग्नि, ___ असगन्ध, अलसी, सोंठ, निर्गुण्डी, पीपल, |
| शूल आदिका नाश करता है एवं बलवर्द्धक है । यह
" अपराजिता । सब समान भाग । गुण-रसायन, चूर्ण अनुपान भेदसे बहुतसे रोगोंको नाश करता है। पौष्टिक, सन्धिवात (गठिया) और वलिपलित नाशक [८७] अश्वगन्धादि चूर्णम् (४) है । मात्रा-११ तोला । अनुपान दूध ।
(वृ. नि. र.) [८६] अश्वगन्धादि चूर्णम् (३) अश्वगन्धामृताभीरुदशमूली बलाद्वयम् ।
(वृ. नि. र. यो. र. क्ष. चि०) पुष्करातिवला हन्ति क्षयं क्षीररसाशिनः ।। अश्वगन्धादशपलं तदधं नागरान्वितम् । ____ असगन्ध, गिलोय, शतावर, दशमूल, बला, तदर्धकणसंयुक्तं मरीचं च चतुर्थकम् ॥ अतिबला और पोखरमूळ इनका चूर्ण सेवन करने चातुर्जातं वराङ्गं च भाङ्गी तालीसपत्रकम् । और दूधादि पथ्य आहार खानेसे क्षयका नाश कचूराजाजि कैटयं मांसी ककोलमुस्तकम् ॥ होता है।
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अकारादि-चूर्ण
(२७) [८८] अश्वगन्धादि चूर्णम् (५) । [९१] अष्टाङ्ग लवणम् (चं. सं.चि.अ. १५) (वं. से. र. अ.)
सौवर्चलमजाजी च वृक्षाम्लं साम्लवेतसम् । अश्वगन्धा पलं त्रिंशच्चूर्णयित्वा विचक्षणः। त्वगेलामरिचाशं शर्करा भागयोजितम् ।। वृद्धदारुकचूणन समभागन्तु कारयत् ।। । एतल्लवणमष्टांगमग्निसन्दीपनं परम् । स्थापयित्वा घटे दिव्ये सर्पिषा परिभाविते । । मदात्यये कमाये दद्यात्स्रोतोविशोधनम् ॥ कर्षमेकं समश्नीयाच्चूर्णस्य पयसा सह ॥ . संचल नमक, जीरा, इमली, अमलबेत, दालकरीव नित्यं स्रवति सर्व दोष विवर्जितम् ।। । चीनी, इलायची, कालीमीर्च प्रत्येक आधा भाग, चीनी तेजसा प्रभत्वयुग्रो रश्मिमानिव भास्करः। १ भाग। सबको महीन करके चर्ण बनावे । इस भवत्येव चतुर्मासर्वलिपलिस वर्जितः ॥ अष्टाङ्ग लवणके सेवनसे मन्दाग्नि तथा कफज ___ असगन्ध चूर्ण १ सेर ७० तोला, विधारा चूर्ण | मदात्यय का नाश होता है और स्रोत शुद्ध होते हैं। १ सेर ७० तोला । दोनों चूर्णों को मिश्रित करके [९२] असनादि योगः शुद्ध चिकने पड़े में भरकर रखदे। इस में से
(भा. प्र. म. खं. प्रमे.) प्रतिदिन १। तोलाभर लेकर दूधके साथ सेवन
असनंच पियालं च शालं खदिरकं तथा। करने से हाथीके समान नित्यप्रति मैथुन करनेकी
शालवर्ग तथा ग्राह्यं भवेचैतद्विचक्षणैः।। शक्ति प्राप्त होती है। . तथा इसके सेवनसे ४ मास में मनुष्य |
मधुमेहत्वमापनं भिषग्भिः परिवर्जितम् । अत्यन्त तेजस्वी और बलीपलित रहित होजाता है।
योगेनानेन मतिमान् प्रमेहिणमुपाचरेत् ॥
___पीतशाल, चिरौंजी, साल, खैर और साल वर्ग [८९] अश्वगन्धायोगः (वृ. नि. र.) ।
| ( दोनों प्रकार के साल, करंजद्वय, खैर, दोनों अश्वगन्धाकषायेण सिद्धं दुग्धं घृतान्वितम् ।।
चन्दन, अर्जुन, भोजपत्र, दोनोंप्रकारकी लोध, ऋतुस्नातागना प्रातः पीत्वा गर्भ दधाति हि ॥
सिरस, अगर, सुपारी, पिलखन, धाय, दारुहल्दी, असगन्धके कषायके साथ दूध पकाकर उसमें घी डालकर ऋतुस्नाता स्त्री प्रातःकाल
और बेला) की औषधियों से मधुमेह और घोरतर पिए तो गर्भ रहे।
प्रमेह का नाश होता है। [१०] अश्वत्थवल्कलादि योग
[९३] अहिफेन योगः (यो. र. छ. चि.)
___ (वृ. नि. र.) अश्वत्थवल्कलं शुष्कं दग्धं निर्वापितं जले। अहिफेनं सुसंभृष्टं खपरे मृदुवह्निना । तज्जलं पानमात्रेण छर्दि जयति दुस्तराम् ॥ पक्कातिसार शमनं भेषजं नास्त्यतः परम् ॥
पीपलकी सुग्वी छालको जलाकर पानीमें | अफीम को एक ठिकरे में डाल कर मन्दाग्नि बुझावे उस पानीके पीनेसे छर्दी ( वमन ) का नाश पर पकाले । यह पक्वातिसारके लिये अत्यन्त होता है।
| उपयोगी है।
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(२८)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
अथ अकारादिगुटिका प्रकरणम्
गुटिका व्याख्या औषधियोंके महीन चूर्णको मधु, गुड़, खांड आदि चाशनीमें मिलाकर अथवा औषधियोंको जल स्वरस या काथ आदिमें पीसकर या पाक करके जो गोलियां बनाई जाती हैं उन्हें गुटिका कहते हैं
वटको मोदकः पिण्डी गुडो वर्तिस्तथा वटी। . वटिका गुडिका चेति संज्ञावान्तर भेदतः॥ वटक, मोदक, पिण्डी, गुड़, वर्ति, वटी और वटिका तथा गुटिका यह सब एक ही प्रकारकी बनाघट है, केवल आकार और परिमाणमें भेद होता है। इनमें प्रधान भाग काष्ठौषधियोंका ही होता है।
भावनाविधिद्रवेण यावता द्रव्यमेकीभूयाद्रतां ब्रजेत् । तावत् प्रमाणं कर्तव्य मिषभिर्भावना विधौ ॥ भाव्यद्रव्यसमं काथ्यं काथ्यादष्टगुणं जलम् ।
अष्टांशशोषितः क्वाथो भाज्यानां तेन भाषना ॥ जितने द्रव पदार्थसे औषधि अच्छी तरह भीग जाय उतना ही द्रव पदार्थ लेकर भावना देनी चाहिये । अथवा जिस चीज़के काथसे भावना देनी हो वह भाव्य (जिसे भावना देनी हो) द्रव्यके बराबर लेकर आठ गुने पानी में पकावे और आठवां भाग शेष रहने पर छानकर उससे भावना दे।
यदि गोलियोंको धूपमें सुखानेके लिये लिखा हो तो धूपमें और छायामें सुखानेके लिये लिखा हो तो छायामें ही सुखाना चाहिये, क्योंकि धूप. और छांवके प्रभावसे भी दवाके गुणमें अन्तर पड़ जाता है।
गोलियों पर वर्क चढाना यदि गोलियों पर सोने चांदी आदिके वर्क चढ़ाने हों तो पहिले उन्हें मुगलई बेदानेके लुआबमें अच्छी तरह तर करलें, फिर उनपर सोने या चांदी के (जैसी आवश्यकता हो ) वर्क डालकर हाथसे मलदें और फिर चीनीके चौड़े मुंह वाले वर्तनमें डालकर तेजी के साथ उस वर्तनको गोल दायरेमें घुमाना चाहिये (जिस प्रकार चक्की पीसते हैं) इस क्रियासे गोलियां सुन्दर हो जाती हैं।
सेवन करते समय गोलियोंको पीसकर अनुपानके साथ मिलाकर सेवन किया जाय तो जल्दी असर होता है। धात्रीलोह आदि कितनी ही कटिन गोलियां तो साबित निगल जानेसे दस्तके साथ ज्यों की त्यों बाहर निकल जाती है अतएव कठिन गोलियोंको बिना पीसे न सेवन करना चाहिये।
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अकारादि-गुटिका
(२९)
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अथ अकारादिगुटिका प्रकरणम् । उदावर्तगुल्मरोगोदरामयविनाशनम् । [९४] अङ्कोट वटक ( भा. प्र. अति.) | खस, सुगन्धबाला, नागरमोथा, दालचीनी, पलमकोटमूलस्य पाठां दार्वी च तत्समाम् ।
| तेजपात नागकेशर, सफ़ेदजीरा, कालाजीरा,काकड़ापिष्ट्वा तण्डुलतोयेन वटकानक्षसम्मितान् ॥
सींगी, कायफल, पोखरमूल, कपूरकचरी, त्रिकुटा, छायाशुष्कांश्च तान्कुर्यात् तेष्वेकं तण्डुलाम्बुना।
बेलगिरी, धनियां, जायफल, लवंग, कपूर, कांतलोहपेपयित्वा प्रदद्यात्तं पानाय गदिने भिषक् ॥
भस्म, शिलाजीत, बंसलोचन, इलायची के बीज, वातपित्तकफोद्भूतान् द्वन्दजान् सान्निपातिकान्
जटामांसी, रास्ना, तगर, मजीठ, अतिबला, अभ्रकहन्यात् सर्वानतीसारान् वटकोऽयं प्रयोजितः ॥
न भस्म, मुरामांसी और बङ्गभस्म । सब समान भाग अंकोट (ढेरावृक्ष)की जड़, पाठा और दारु
और सब के बरावर मेथी और फिर सब चूर्ण से हल्दी, प्रत्येक एक एक पल, । सब को चावलों के
आधी भांग लेकर चीनी और शहद के साथ मोदक पानी में पीसकर १। तोला प्रमाण वटक बनावे और
बनावे । प्रातः काल १। तोला मोदक शीतल जल छाया में सुखा कर रखे फिर चावलों के पानी के
या बकरी के दूध के साथ खाने से प्रबल ग्रहणी, साथ पीस कर सेवन करे। ये वटक वातज,
श्वास, खांसी, आमवात, मन्दाग्नि, जीर्णज्वर, पित्तज, कफज, और सान्निपातिक आदि सब
विषमज्वर, विबंध, अफारा, शूल, जिगर, तिल्ली,
अठारह प्रकारके कुष्ठ, उदावर्त और गुल्मादि उदर प्रकार के अतिसारों का नाश करते हैं।
रोगोंका नाश करता है। [९५] अग्निकुमार मोदक (भा. प्र. अति.)
[९६] अग्निगर्भा वटिका (र. र. प्ली. चि.) उशीरं वालकं मुस्तं त्वक्पत्रं नागकेशरं ।।
शुद्धं रसं पलं ग्राह्यं गन्धकं द्विपलं भवेत् । जीरद्वयश्च शृंगी च कटफलं पुष्करं शटी॥ लौह टडू वचाकुष्ठं रामठं त्रिकटुं निशाम् ॥ त्रिकटु बिल्वक धान्यं जातीफललवंगकम् ।
रसा भागमानेन सर्वमेकत्र कारयेत् । कर्पूरं कान्तलौहश्च शैलजं वंशलोचना ॥
माणौल्वघण्टकर्णानां त्रिफलानां रसेन च ॥ एलाबीजं जटामांसी रास्ना तगरपादुकम् ।
रक्तीषोडशमानेन वटिका परिनिर्मिता । समङ्गातिवला चादं मुरा वङ्गं तथैव च ॥ अग्निगर्भयमुदिता प्लीहगुल्मोदरापहा ॥ अस्य चूर्ण समा मेथी चूर्णा, विजयारजः ।
शूलनी यकृतं हन्यादष्ठीलां कामलानि च । शर्करा मधुसंयुक्तं मोदकं परिकल्पयेत् ॥
हलीमकंच पाण्डुत्वं कृमिकुष्ठविनाशिनी ॥ कमेकं प्रमाणन्तु भक्षयेत्प्रातरुत्थितः। चंद्रनाथेन गदिता रसमङ्गलभूषिता ॥ शीततोयानुपानेन आजेन पयसाथवा ॥ लवंगयोगे कर्तव्या महाग्निदायिनी मता ॥ ग्रहणी दुस्तरां हन्ति श्वासं कासमतीव च । । आनाहकासशमनी व्रणविस्फोटनाशिनी।
आमवातमग्निमान्धं जीर्णश्च विषम ज्वरम् ॥ | संग्रहग्रहणी हन्याच्छेलष्म दोषोद्भवामपि ॥ विबन्धानाहशूलं च यकृत्प्लीहोदराणि च । शुद्ध पारद ५ तोला, शुद्ध गंधक १० तोला इन्त्यष्टादशकुष्ठानि ग्रहणीदोषनाशनम् ॥ लोहभस्म, सुहागे की खील, बच, फूठ, हींग,
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(३०)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
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त्रिकुटा, और हल्दी प्रत्येक २॥ तोला सब को , की भावना देकर मरिचके बराबर गोलियां बनावे । महीन करके मानकन्द, घण्टाकरण और त्रिफला | ये गोलियां अग्निमांध के लिये उपयोगी हैं। * के रस की भावना देकर १६-१६ रत्तीभर की १९९] अग्नि दीपनी वटी (र. रा. सु.) गोलियां बनावे । अग्निगर्भा नामकीये गोलियां तिल्ली, गन्धकं मरिचं शुंठी सैन्धवं यवजं तथा। गुल्म, उदररोग, शूल, जिगर, अष्ठीला, कामला, निम्बूरसेन षटिका घणमात्रानिदीपनी॥ हलीमक, पाण्डु, कृमि और कुष्ठ का नाश करती शुद्ध गन्धक, काली मिर्च, सोंठ, सेंधा नमक हैं। लवंग के साथ सेवन करने से अत्यन्त अग्नि तथा यवक्षार । सबको महीन कर नींबू के रस की वृद्धि करती हैं । अफारा, खांसी, अण, विस्फोटक, भावना देकर चने के बराबर गोलियां बनावे । ये तथा श्लेष्मज संग्रहणी का नाश करती हैं। गोलियां अग्नि दीपक हैं। [९७] अग्नि जननी वटी
[१००] अगस्ति मोदक (र. र. स. अ. १६)
(यो. र. अग्नि, चि) कणनागरगन्धकपारदकं
हरीतकीनां त्रिपलं त्रीण्याम्राणि कटुत्रिकम् ॥ गरलं मरिचं समभागयुतम् । | त्वपत्रकं धार्धपलं गुडस्याष्टपलं मतम् । लकुचस्य रसैश्चणकममिता
अगस्ति मोदकानेतान् कल्पितान्परिभक्षयेत् ।। गुटिका जनयत्यचिरादनलम् ॥ | शोफार्थीग्रहणीदोषकासोदावर्तनाशनाम् ॥ पीपल, सोंठ, शुद्ध गंधक, शुद्ध पारद, शुद्ध हैड १५ तोला, त्रिकुटा १५ तोला, दालविष, और काली मिर्च सब समान भाग लेकर, चीनी और तेजपात २॥२॥ तोला और गुड़ लकुच (वढल) के रस की भावना देकर चने के
आधासेर । विधिवत मोदक बना कर सेवन करने से बराबरा गोलियां बनावे । इन गोलियों के सेवन से
सूजन, बवासीर, ग्रहणी, खांसी और उदावर्त का शीघ्र ही अग्नि दीप्त होती है।
नाश होता है। [९८] अग्नितुण्डी बटी (भै. र. अ. मां) १०१] अगस्तिषटी (व. नि. र. शूला.) शुद्धसूतं विषं गन्धमजमोदा फलत्रयम् । दशाम्रक हैमवतीसमेतं सर्जिक्षारं यवक्षारं वहिसैन्धवजीरकम् ।। स्त्रिनं तुषोदे विषतिन्दुवीजान् । सौवर्चल विडङ्गानि सामुद्रं टङ्कणं समम् ।। कबुत्रिक क्षारयुगं त्रिदीप्यं विषमुष्टिं सर्वतुल्यं जम्बीराम्लेन मर्दयेत् ॥ कृमिनहिंगु त्रिपटु त्रिविल्वम् ।। मरिचाभा वटी खादेदग्निमान्यप्रशांतये ।। पृथक्प्लुते जम्भजलै वटीय
शुद्ध पारद, शुद्ध विष, शुद्ध गंधक, अजमोद, मगस्त्यपूर्वा बदरप्रमाणा । त्रिफला,सज्जीखार,यवक्षार, चीता, सेंधानमक, जीरा, शूलानि गुल्मकृमिमन्दवह्निसौंचल नमक, बायबिडंग, सामुद्र लवण और शुद्ध प्लीहामवाताञ्जयति प्रसय ॥ सुहागा सब समान भाग लेवें तथा कुचला सब वच ५० तोला, कुचला ५० तोला, दोनोंको के बराबर ले सब को महीन करके जम्बीरी नींबू बहनों के कमि रोग के लिये अकसीर है।
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अकारादि-गुटिका
(३१)
तुषों के काढे में पका कर चूर्ण करे तथा इस में : बायबिडंग, देवदारु, चीता, सोया, सेंधानमक और त्रिकुटा, सज्जीखार, जवाखार, अजवायन, अजमोद, | पीपलामूल। प्रत्येक ५ तोला सोंठ ५० तोला, खुरासानी अजवायन, बायबिडंग, हींग, सैंधा नमक, विधारा ५० तोला, हैड़ २५ तोला । सब को कूट बिडनमक तथा सौंचल नमक । प्रत्येकका चूर्ण | कर चूर्ण करके रक्खे । अथवा इस चूर्ण में समान १५ तोला मिला कर नींबू के रस में धोटकर बेर भाग गुड मिला कर वटक बनावे थोडा पानी के समान गोलियां बनावे । ये गोलियां शूल, डालकर गुड़को अग्निपर गरम करके पिधलावे तदगुल्म, कृमि, मन्दाग्नि, तिल्ली और आमवात का
न्तर उसमें चूर्ण मिलावे इस प्रकार वटक बनाये नाश करती हैं।
अथवा तो गुड वगर का चूर्ण । इसे गरम पानी के [१०२] अजमोदादि वटक
साथ खाने से आमवात से उत्पन्न होने वाले रोग, (भै. र. आ. वा. चि.)
हैजा, प्रतूनी, हृद्रोग, उग्र गृध्रसी, कमर, बस्ती अजमोदामरिचपिप्पली
गुदा और जंघाकी हडफूटन, तथा सूजन और विडङ्गसुरदारुचित्रकशनाहाः।
गठिया आदि अनेक आमवातज रोगों का नाश
होता है। सैंधवं पिप्पली मूलं
[१०३] अजमोदादिवटी भागा नवकस्य पलिका स्युः ॥
(वृ. नि. र. भा. ५ वा. व्या) शुण्ठी दश पलिकास्या
अजमोदा कणा वेल्लं शतपुष्पा सनागरम् । पलानि तावन्ति वृद्धादारस्य । | मरिचं सैंधवादेव भागैकं च पृथक् पृथक् ॥ पथ्या पञ्च पलानि च
पशभागा हरीतक्याः शुंठी च दशभागिका । सर्वाण्येकत्र संचूर्ण्य ॥
वृद्धदारुर्दशांशःस्यात्पत्रिंशद्गुडभागिकाः ।। समगुडवटकानदतचूर्ण वाप्युष्णवारिणा पिवतः
गुडपाकैवटीं कृत्वा मात्रा कर्षप्रमाणतः । नश्यन्त्यामानिलजाः सर्वे रोगाः सुकष्टाश्च ॥
सन्धिपाते प्रदेयं तदामयाते सुदारुणे । विचिकापतितूणीहद्रोगा गृध्रसी चोग्रा।। उष्णोदकानुपानेन सर्ववातानियच्छति ॥ कटिवस्तिगुदस्फुटनं चैवास्थिजयोस्तीत्रम् ॥ | आत्यवाते हनुस्तम्भे शिरोवातापतानके। श्वयधुस्तथाङ्गसन्धिषु
भ्रूशक कर्णनासाक्षिजिलास्तम्भ च दारुणे॥ ये चान्येऽप्यामवातसम्भूताः। | कलापखंजतापगुसर्वाङ्गकाङ्गमारुते । सर्वे प्रयान्ति नाशं तम इव सूर्याशु विधस्तम् अदिते पादहर्षे च पक्षाघाते प्रशस्यते ॥ अजमोदादि वटके सर्वचूर्णसमोगुडः। अजमोद, पीपल, वायविडंग, सोया, नागरकिश्चिदुदकं दत्वा वन्ही गुडं द्रवीकृत्य तत्र मोथा, काली मिर्च, सेंधा नमक प्रत्येक १-१भाग, चूर्ण प्रक्षिप्य वटिकाः कार्याः। चूर्ण वेत्ति गुडं हर्ड ५ भाग, सोंठ १० भाग, विधारा १० भाग, विहाय केवलमुष्णोदकादिभिः पेयमितिभानुः। गुड़ ३६ भाग । गुड़ की चाशनी करके उस में
अजमोद (अजवायन), काली मिर्च पीपल, ' अन्य सब द्रव्यों का चूर्ण मिला कर १२-१।
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- भषज्य - रत्नाकर
(३२)
तोले की गोलियां बनावे । इनके सेवन से सन्धिवात, दारुण आमवात, आढ्यवात, हनुस्तम्भ, शिरोवात, अपतानक, भ्रूशंख, कर्ण, नाक, आंख और दारुण जिह्वास्तम्भ आदि तथा लंगड़ापन, छलापन, सर्वांग वायु, एकांग वायु, अर्दित, पादहर्ष और पक्षाघात
[१०६] अनङ्गमेखलागुटिका ( वृ. यो. त.) आदिका नाश होता है। अनुपानः - गरम पानी । | विषमुष्टिर्द्वयब्धिशोषोऽहिफेन हलकः समाः ।
भङ्गनीरेण गुटिका कार्या प्रकृतिरूपतः ॥ सायान्हे भक्षयेद्वीर्यरोधिनीं कामवर्द्धिनीम् । निम्बुनीरेण चोतार्या गुटिकाऽनङ्गमेखला ||
भारत
[१०४] अजाज्यादि गुटिका (बृ. नि. र. ) अजाजी पौष्करं पाठा त्र्यूषणं दहनं शिवा । गुडेन गुटिका ग्राह्मा सर्वार्शः शोधनक्षमा ॥
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देयाः पश्चदशानु निम्बुकज लेखेधा त्रिधा चित्रकै ॥ त्रेधाचss कजै रसैः शुभधिया सप्तै व चावेदिना पञ्चाच्छुक कला संमितवटी कार्या भिषकसम्मता शुद्धोधप्रकरी त्रिशूलशमनी जीर्णज्वरध्वंसिनी कासारोचक पांडुतोदरगदान्पामामरुनाशिनी । वस्त्याटोपहलीमकामयहरी मन्दाग्नि संदीपनी सिद्धयं तु महोदधि प्रकटिता सर्वामयनी सदा
|
|
शुद्ध जमालगोटा, चीता, सोंठ, लौंग, शुद्ध गंधक, शुद्ध पारद, शुद्ध सुहागा, काली मिर्च विधारा, शुद्ध वच्छनाग, सब को समान लेकर खरल में डाल दो पहर तक खरल करे, फिर १५ भावना दन्ती के रस की, ३ भावना नींबूके रसकी, ३ चित्रक के काथ की, तीन अदरख के रसकी और ७ भावना पद्याख की देकर उर्द के बराबर गोली
1
बनावे | ये गोलियां क्षुधावर्धक, शूल, जीर्णज्वर, खांसी, अरुचि, पांडु, दाह, उदररोग, खुजली, आमवात, अफारा, हलीमक, मंदाग्नि आदि रोगों का नाश करने वाली हैं ।
जीरा, पोखरमूल, पाठा, त्रिकुटा, चीता, हरीतकी । इन सब चीजों का चूर्ण करके गुड़ के साथ गोली बनावे | यह गोलीयां हर प्रकार की बवासीर का नाश करती हैं [१०५] अजीर्णहरीवटी (यो. र. अ. चि.) दन्तीवीज मकल्मषं सदहनं शुण्ठी लवगं समम् गन्धं पारदटङ्कणं च मरिचं श्रीवृद्धदारो विषम्
शुद्ध कुचला १ भाग, समुद्रझाग २ भाग तथा अफीम और अकरकरा १-१ भाग सब को भांग के रस में घोट कर गोलियां बनावे और सायंकाल में सेवन करे । गुण-वीर्यस्तम्भक और कामवर्द्धक है । [१०७] अनङ्गमेखलामोदक (बृ. यो. त.) अहिफेनं पलमितं वरं दुग्धाढके पचेत् । जातीफलं चतुर्जातं जातिकोशं लवङ्गकम् ॥
।
खल्वे यामयुगं विमर्द्य विधिना दन्तीद्रवैर्भावना | व्योषमाकारकरभमजमोदा पतङ्गकम् ॥
कङ्गोलं चन्दनं चपि कुङ्कमैणमदेन्दुकाः ॥ जातिफलाद्यं भैषज्यं प्रत्येकं कर्षसम्मितम् । मृगनाभिश्च कर्पूरं प्रत्येकं माषयुग्मकम् ॥ सितां ह्यष्टपलां दत्वा युक्त्वा गुरुमुखोत्थया । सम्मेल्य गुटिका कार्या यथा देहं यथा बलम् ॥ महाबलकरी वृष्या रतिरागविवर्द्धिनी । शुक्रस्तम्भकरी पुंसां वनितानां समागमे ॥ पाण्डुकासक्षयश्वासशूल मेहत्रण भ्रमान् । निहन्ति जनयत्यग्निं सर्वदैवप्रपूजितः || उक्तप्रमाणादर्थान्तु गुटिकां ब्रुवतेऽपरे । अनङ्गमेखला नाम शिवेन समुदीरिता ।
५ तोला अफीमको ४ सेर दूध में पकावे फिर जायफल, चतुर्जात जावित्री, लौंग, त्रिकटु, अकरकरा, अजमोद अजवायन, पतंग, कंकोल,
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[१०९] अभयादि चतुस्समवटी
(बृ. यो. त.)
अकारादि-गुटिका
चन्दन और केशर प्रत्येक १/- १। तोला तथा कस्तूरी और कपूर प्रत्येक २-२ मासे । चीनी आध सेर । यथा विधि गुटिका बनावे | गुणः - बलवर्द्धक, वीर्यवर्द्धक, कामशक्ति वर्द्धक, वीर्य स्तम्भक, पाण्डु, खांसी, क्षय, श्वास, शूल, प्रमेह, व्रण और भ्रम नाशक तथा अग्नि संदीपक है । यह शिवद्वारा बाई हुइ गुटिका है। [१०८] अभयादिगुटिका (घृ. नि. र. भा. ५. आ. वा.) अभया सैन्धवं शम्पा विशाला विश्वभेषजम् । इन्द्रवारुणिका मज्जा तथा सर्व विमर्द्दयेत लोभांडे विनिक्षिप्य द्यादग्निं शनैः शनैः । वदराभा प्रमाणेन वटी कार्या भिषग्वरैः ॥ उष्णोदकानुपानेन मुक्त्वा दोषाद्यपेक्षया । पथ्यं दध्योदनं देयमामरोगं विनाशयेत् ॥
हरीतकी, सैंधा नमक, अमलतास, महाइन्द्रायण, सोंठ और इन्द्रायण की मज्जा । इन सब का 'चूर्ण करके लोहे के बरतन में डाल कर धीरे धीरे अग्नि दे। फिर बेर के समान गोलियां बनावे इन्हें ऊष्ण जल के साथ अथवा यथा दोष अपेक्षा सेवन करने से तथा दही चावल पथ्य खाने से आमरोग का नाश होता है ।
अभया नागरं मुस्तं गुडेन सहयोजितम् । चस्मेयं गुटिका त्रिदोषनी प्रकीर्तिता । आमातिसारमारनाहं सविबन्धं विचिकाम् कामला रोचकं हन्याद्दीपयत्याशु चानलम् ॥
हैड़, सोंठ, नागरमोथा और गुड़ सब समान भाग लेकर गुटिका बनावे। यह त्रिदोष, आमातिसार, अफारा, विबंध, हैजा, कामला और
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( ३३ )
अरुचिका नाश करती है तथा शीघ्री अग्नि को प्रदीप्त करती है ।
[१०] अभयादिमादक
(शा. ध. सं. उ. खं. अ. ४) अभया मरिचं शुण्ठी विडंगामलकानिच । पिप्पली पिप्पलीमूलं त्वक्पत्रं मुस्तमेवच ॥ एतानि समभागानि दन्ती च द्विगुणा भवेत् । त्रिवृदष्टगुणा ज्ञेया षड्गुणा चात्र शर्करा । मधुना मोदकान्कृत्वा कर्षमात्र प्रमाणतः । एकैकं भक्षयेत्प्रातः शीतं चानुपिवेञ्जलम् || तावद्विरिव्यते जन्तु यावदुष्णं न सेवते । पानाहारविहारेषु भवेन्निर्यन्त्रणः सदा ॥ विषमज्वरमन्दा त्रिपांडुकास भगन्दरान् । दुर्नामकुष्टगुल्मार्शो गलगंड भ्रमोदशन् । विदाहलीहमेहांश्च यक्ष्माणं नयनामयान् । वातरोगस्तथाध्मानं मूत्रकृछ्राणि चाश्मरीम् ॥ पृष्ठपार्श्वोरुजघनजङ्घोदररुजं जयेत् । सततं शीलनादेषां पलितानि प्रणाशयेत् ॥ अभया मोदका होते रसायनवराः स्मृताः ॥
हरीतकी, काली मिर्च, सोंठ, बायबिडंग, आमला, पीपल, पीपलामूल, दालचीनी, तेजपात और नागर मोथा, सब एक एक भाग, वन्ती २ भाग, निसोत ८ भाग, चीनी ६ भाग । मधु साथ १।- १ । तोला भरके मोदक बनावे | प्रातःकाल १-१ मोदक खावे और उपर से शीतल जल पान करे । इससे जब तक ऊष्ण जल न पिया जाय तब तक दस्त आते रहते हैं । इसके सेवन में किसी विशेष पध्यकी आवश्यक्ता नहीं है । ये मोदक विषम ज्वर, मन्दाग्नि, पाण्डु, खांसी, भगंदर, दुष्ट कोढ़, गुल्म, बवासीर, गलगण्ड, भ्रम, उदररोग, विदाह, तिल्ली, प्रमेह, यक्ष्मा, नेत्ररोग, वातरोग,
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(३४)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
अफारा, मूत्रकृच्छ, पथरी, पृष्ठ पार्श्व, उरू, जांध , लोहा, तिल, त्रिकुटा, प्रत्येक ३-तोला, तथा उदरशूल आदि अनेक रोगोंका नाश करते हैं। सोनामवी सब के समान, इनको शहद में मिलाइसका लगातार सेवन करने से पलित रोग का | कर मोदक बनावे इनसे पाण्डु रोग का नाश होता है। नाश होता है तथा यह उत्तम रसायन है। [११३] अभया वटी (रसे. चि. म.) । [१११] अभयामोदक (१) (वृ. यो. त.) | अभया मरिचं कृष्णा टङ्कणश्च समांसकम् । त्रिपलममयाफलानां पलत्रयं
सर्वचूर्णसमं चैव दद्यात्कानकजं फलम् ॥ त्रिकटुकात्पलं मूलात् । स्नुहीक्षीरैवटीकार्या यथा स्विन्नकलायवत् । दीप्यक चविका चित्रक
वटी द्वयं शिवामेकां पिष्ट्वाचोष्णाम्बुना पिवेत्॥ विडंगवृक्षाम्लसैन्धवार्धपलैः ॥ उष्णा विरेचयेदेषा शीते स्वास्थ्यमुपैति च। स्वपौलाकर्षेत्रिभिर्युतं
जीर्णज्वरं पाण्डुरोगं प्लीहाष्ठीलोदराणि च ॥ चूर्णित सूक्ष्मम् ।
रक्तपित्ताम्ल पित्तादि सर्वाजीर्ण विनाशयेत् ।। त्रिंशत्पलगुडसहितास्त्वक्षमितास्तस्य
हरीतकी, काली मिर्च, पीपल, शुद्धसुहागा सब मोदकाः कार्याः।
समान भाग, शुद्धजमाल गोटा सबके समान । थोहअभयावटका नाम्ना
रके दूधकी भावना देकर भीगी हुई मटरके बराबर प्लीहार्यो गुल्म जठरहराः। गोली बनावे । २ गोली और १ हैडका चूर्ण ऊष्ण पांडवामयिकामलिनां मन्दाग्निनां | पानीके साथ खानेसे विरेचन होता है और शीतल च सर्वदा शस्ताः ॥
जल पीनेसे विरेचन रुक जाता है । इनके सेवनसे हैड़ १५ तोला, त्रिकुटा १५ तोला, पीपला | सब जीर्णज्वर, पाण्डु, प्लीहा, उदररोग, रक्त पित्त, मूल ५ तोला, अजवायन २॥ तोला, चव्य, चीता, | अम्लपित्त, पित्ताजीर्णादिक रोगोंका नाश होता है। घाय बिडंग, इमली और सैन्धव प्रत्येक २॥ तोला [११४] अभ्रकहरीतकी (र. रा. सु.) दालचीनी, तेजपात, इलायची प्रत्येक २॥ तोला मृताभ्रकं पलं विशन्मृतलोहस्य पञ्चकम् । सबका महीन चूर्ण करके १ सेर ७० तोला गुड़के गन्धकस्य पलं पश्च त्रिभिर्द्विगुणमाक्षिकम् ।। साथ ११-१॥ तोलाके मोदक बनावे । यह मोदक पध्याशतपलं योज्यं धात्रीपलशनद्वयम् । तिल्ली, बवासीर, गुल्म, उदररोग, पाण्डु और | सर्वमेका तच्चूर्ण जम्बीरैमर्दयेद्दिनम् ॥ मन्दाग्नि आदि में हितकर है।
भृङ्गी पुनर्नवादावैः पातालगरुडाकुलैः । [११२] अभयामोदक (२) .भल्लातबन्हिकोराटेहेस्तिशुण्डी त लागली ।।
(वृ. नि. र. भा. ५ पा. चि.) क्षीरिणी जलकुम्भी च प्रत्येकं प्रत्यहं द्रवैः । अयस्तिलयूषणकोलभागः
भावयेन्मर्दयेदित्थं मध्वाज्याभ्यां विलोलयेत्।। सर्वैः समं माक्षिकधातुचूर्णम् । स्निग्धभाण्डे स्थितं खादेन्नित्यं निष्कद्वयं द्वयम् । तैर्मोदका क्षौद्रयुतो हि भक्तः | सिद्धसावरयोगोऽयं त्रिदोषाआँसि नाशयेत् ॥ पाण्ड्वामये दूरगतेऽपि शस्तः ॥
अभ्रक भस्म १। सेर, लोह भस्म २५ तोला,
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अकारादि-गुटिका
(३५)
-
गन्धक २५ तोला, सोना मक्खी भस्म ३।। सेर, , रसतुल्यं प्रदातव्यं चूर्ण मरिचसम्भवम् । हरीतकी ६। सेर, आमला १२॥ सेर । इन सब शुमे शिलामये पात्रे घर्षणीयं प्रयत्नतः ॥ को एकत्र चूर्ण करके जम्बीरी नींबू , भांगरा, पुन- शुष्कमातपसंयोगाद्वटिकां कारयेद्भिषक् । नवा, पाताल गरुडी, भिलावा, चीता, हाथी सुण्डी, कलाय परिमाणान्तु खादेत्तां तु प्रयत्नतः॥ कलिहारी, दूधी तथा जलकुम्भी के रस में १-१
दृष्ट्वा वयश्चाग्निवलं यथाव्याध्यनुपानतः । दिन खरल करके शहद और घृत में मिला कर |
। कर हन्ति कासं क्षयं श्वासं वात श्लेष्मभवं रुजम् ।। चिकने बरतन में रक्खें। मात्रा ४--६ रत्ती ।
परं वाजीकरः श्रेष्ठो बलवर्णाग्निवर्द्धनः। यह त्रिदोषज अर्श का नाश करती है ।
| ज्वरे चैवातिसारे च शुद्ध एष प्रयोगरा ॥ [११५] अभ्रकादिवटी
(वृ. नि. र. भा. ४ सं. चि.) नातः परतरः श्रेष्ठो विद्यतेऽभ्ररसायनः । रसं गन्धं विषं व्योष टङ्कणं लोहभस्मकम्। चातुर्थके ज्वरे श्रेष्ठः सूतिकातकनाशनः॥ अजमोदाहिफेनं ज सर्वतुल्यं मृताभ्रकम् ॥ भोजन शयने पाने नास्त्यत्र नियमः कचित् । चित्रकत्वक्पायेण मर्दयेद्याममात्रकम् ॥ दधि चावश्यकं लक्ष्यं प्राह नागार्जुनो मुनिः।। मरिचामा वटीं कृत्वा खादेदेका जयेदसौ ।।
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अभ्रकभस्म, प्रत्येक १। चतुर्विधां च ग्रहणी रहस्यं तदिदं स्मृतम् ॥ ११ तोला सबकी कजली करके त्रिकुटेका चूर्णx __शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध विष, त्रिकुटा, मिलावे और फिर भांगरा, काला भांगरा, निर्गुण्डी, सुहागेकी खील, लोहभस्म, अजमोद (अजवायन) चीता. गोमा, जयन्ती, मण्डूक पर्णी (ब्राह्मीभेद), अफ्रीम, सब समानभाग, अभ्रक सब के बराबर । | भंग और श्वेत अपराजिताके पत्तोंके रसकी भावना इन सब को चीते की छाल के काथ में १ पहरामा
थि म १ पहर दे । फिर इसमें पारदके बराबर कालीमिर्च डालनी तक खरल करके काली मिर्च के बराबर गोलियां चाहिये इसके बाद पत्थरके खरलमें घोट कर और बनावें । प्रतिदिन १-१ गोली खानेसे ४ प्रकारकी
| धूपमें सुखाकर उर्दके बराबर गोलियां बनावे । ये संग्रहणीका नाश होता है।
गोलियां यथोचित अनुपान के साथ आयु, अग्नि, [११६] अभ्रवटिका (१) (रा. रा. सु.)
बल आदिके अनुसार सेवन करने से खांसी, क्षय, अथ शुद्धस्य सूतस्य गन्धकस्याभ्रकस्य च।
| श्वास, कफ, वायुके रोग और ज्वर तथा अतिसारका प्रत्येकं कर्षमानं तु ग्राह्यं रसणुणैषिणा ॥ ततः कालिकां कृत्वा व्योषचूर्ण प्रदापयेत् ।
नाश करती हैं । यह योग अत्यन्त वाजीकरण और केशराजस्य भृङ्गस निर्गुण्डयाचित्रकस्य च ॥
बल तथा जठराग्नि वर्द्धक है। चातुर्थिक ज्वर, ग्रीष्मसुन्दरकस्याथ जयन्त्याः स्वरसन्तथा।।
सूतिका रोगका नाश करता है । इसके ऊपर दही मण्डूकपण्योः स्वरसं तथा शक्राशनस्य च ॥ सेवन करना चाहिये । श्वेतापराजितायाश्च स्वरसं तथा पर्णसम्भवम्। त्रिकुटे का पूर्ण सघ चीजों के बराबर दापयेत्तत्र तुल्यं च विधिज्ञः कुशलो भिषक् ॥ या प्रत्येक के बराबर लिया जा सकता है।
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(३६)
भारत-भैषज्ये-रत्नाकर
[११७] अमरसुन्दरीवटी
अजीर्ण आदिका नाश करती हैं तथा धातु पुष्टि (वृ. नि. र. भा. ५वा. व्या.) और अनुपान भेदसे अनेक रोगों का नाश त्रिकटु त्रिफला चैव प्रन्थिका रेणुकानलम् । | करती हैं। मृतलोहं चतुर्जातं पारदं गन्धकं विपम् ॥ [११९] अमृतप्रभावटी विडङ्गाकल्लकं मुस्ता सर्वेभ्यो द्विगुणो गुडः। (वृ. नि. र. भा. ५; अरुचौ) चणकप्रमाणगुटिका नाम्ना चामरसुन्दरी ॥ परिचं पिप्पलीमूलं लवंगं च हरीतकी । अपस्मारे सन्निपाते श्वासे कासे गुदामये । । यवानी तिन्तिडीकं च दाडिम लवणत्रयम् ।। अशीतिवातरोगेषु उन्मादेषु विशेषतः ॥ एतानि परमात्राणि मागधी क्षारचित्रकम् ।
त्रिकुटा, त्रिफला, पीपलामूल, चीता, लोह व्यजाजी नागरं धान्यमेला धात्रीफलं समम् ॥ भस्म, चातुर्जात, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध एतान् द्विपलिफान् भागान् भावयेद्वीजपूरकैः । मीठातेलिया, बायबिड़ङ्ग, अकरकरा, और नागर- भावनात्रितयं दत्त्वा गुटिकां कारयेद्बुधः ॥ मोथा। सब समान भाग, गुड़ सबके वजनसे छायाशुष्कां प्रकुर्वीत ह्यजीणेस्य प्रशान्तये। दोगुना । चने के बराबर गोलियां बनावे । ये गोलियां | अग्नि च कुरुते घोरं गुटिका चामृतप्रभा॥ अपस्मार, सन्निपात, श्वास, खांसी, गुदरोग, अस्सी - काली मिर्च, पीपलामूल, लोंग, हैड़, अजवाप्रकारके वायुरोग और विशेष कर उन्मादका नाश | यन, तिन्तड़ीक, अनारदाना, सेंधानमक, सौंचलकरती हैं।
नमक, सांभरनमक, प्रत्येक ५तोला, पीपल, यवक्षार, [११८] अमृतकल्पवटी
| चीता, तीनों जीरे, (सफेद जीरा, कालाजीरा और (र. सा. सं. अ. चि)
| कलोंजी) सोंठ, धनिया, इलायची और आमला शुद्धौ पारदगन्धौ च समानौ कन्जलीकृतौ ।
| प्रत्येक १० तोला । सबको महीन करके बिजौरे तयोरद्धं विषं शुद्धं तत्समं टंकणं भवेत् ॥
के रसकी ३ भावना देकर गोलियां बनावे और भृङ्गराजद्रवभाव्य त्रिादन वत्नतः पुनः। छायामें सूखाकर अजीर्ण तथा अग्निमांद्यमें मुद्गप्रमाणा वटिकाः कर्तव्याः भिषजां वरैः॥ प्रयोग करे। वटीद्वयं हरेच्छूलमग्निमांद्यं सुदारुणम् । । [१२०] अमृतवटी (१) अजीणे जरयत्याशु धातुपुष्टिं करोति च ॥
(रसे. चि. म. अ. ९) नानाव्याधिहरा चेयं वटी गुरुवचो यथा। कुर्याद्गन्धविषव्योपत्रिफलापारदैः समैः । अनुपानविशेषेण सम्यग्गुणकरी भवेत् ॥ भृङ्गाम्बुमर्दितैर्मुद्गमात्रामृतवटी शुभाम् । ___ शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक दोनों समान | अजीर्ण श्लेष्मवातघ्नी दीपनी रुचिवधिनीम् । भाग लेकर कजली करे फिर शुद्ध विष और सोहागे शुद्ध गन्धक, विष, त्रिकुटा, त्रिफला, शुद्ध की खील. प्रत्येक पारेकी बरावर डालकर भांगरेके पारद । सब समान भाग लेकर प्रथम पारद रसमें ३ दिन तक घोटे और मूंगके बराबर गोलियां । गंधककी कजली बनावें फीर अन्य द्रव्योंका चूर्ण बनावे । मात्रा-२ गोली । गुण-शूल मंदाग्नि, । मिलाकर भांगरेके रसमें खरल करके मूंगके
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अकारादि-गुटिका
बराबर गोलियां बनावे। ये गोलियां अजीर्ण, कफ रोग, वायुरोग नाशक तथा अग्नि दीपक और रुचि धर्द्धक है ।
[१२१] अमृतवटी (२) (भै. र. अ. मां.) अमृतवराटकमरिचैर्द्विपञ्चनवभागिकः क्रमशः वाटिका मुद्रसमाना कफपित्ताग्निमान्द्यहारिणी ||
।
( ३७ ) दिनेश इव तेजस्वी कन्दर्प इव रूपवान् ॥ सहस्रायुर्महावो गन्धर्व इव गायकः । स्त्रीशतं रमते नित्यं नावसादं व्रजत्यसौ || न भजन्त्यापदः काश्चित्कामरूपी भवेदसौ । पद्मगन्धि वपुस्तस्य पुष्पस्येव सुकोमलम् ॥ जराचयैः सुजीर्णस्य नखकेशादयो यथा । प्रभवन्ति बलादुग्रादथ कन्दा इवाम्बुदात् ॥ हृष्टः पुष्टश्च पापन्नः शान्तो भवति मानवः । श्री अमृतवर्तिकानाम मृत्युञ्जयमुखोदिता । रसायनानां श्रेष्ठेयं सर्वव्याधिनिषूदनी ॥
।
शुद्ध मीठा तेलिया २ भाग, कौड़ी भस्म ५ भाग, काली मिर्च ९ भाग लेकर (पानी या नीबुके रसमें खरल करके) मूंगके बराबर गोलियां बनावे | इनके सेवन से कफ, पित्तरोग और अग्नि मान्यका नाश होता है ।
हरड, बहेड़ा, आमला, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, ब्राह्मी, गिलोय, लाल चीता, नागकेशर, सांठ, काला भंगरा, संभालके पत्ते, हल्दी, दारुहल्दी, इन्द्रजौ, दालचीनी, इलायची, खंभारी, बायबिडंग और बच, १०-१० तोले लेकर चूर्ण बनावें और उसे २५० तोले कामरूप देशके उत्तम गुड़की चाशनी में मिलाकर ३६० गोलियां बना लें ।
[१२२] अमृतवर्तिका ( भै. र रसायने ) त्रिफला त्रिकटु ब्राह्मी गुडूची रक्तचित्रकम् । नागकेशरचूर्णश्च शृङ्गवेरं समार्कनम् ॥
सिन्दुवारो हरिद्रे द्वे शक्राशन गुडत्वचौ । एला मधुपर्णी व विडङ्गोग्रन्धिका ॥ चूर्ण प्रत्येकमेतेषां समादाय पुलम् | कामरूपसमुद्भूतैर्गुडैः पञ्चाशते ॥ पष्टित्रिंशती कार्या वर्तिस्तेन समानतः । चन्द्रताराविशुद्धौ च पूजयित्वे देवताम् ॥ सुकृति प्रज्ञया प्रीतो वर्तिकां तु भक्षयेत् । ततोऽनुपानं पानीयं सलिलं च सुशीतलम् || कट्वम्ललवणञ्चैव नातिमात्रं कदाचन । यः प्रत्यहमिदं खादेत्कर्षमानं निरन्तरम् ॥ भोजनादौ प्रदोषे वा शृणु यादृक् फलं भवेत् । नष्टवन्तु दीप्ताग्निर्वडवानलसन्निभः ॥
पि भवती कान्तिचन्द्रिकेव निशामुखे । काशपुष्परुचः केशाः शिखिकण्ठमनोरमाः ॥ पटलावहतं चक्षुर्लक्षयोजनदर्शनम् । जरा विश्लथ देहोऽपि लेपनिर्माणशाद्वलः ॥ निर्व्याधिनिर्जरः पर्वगेनोचैश्रवा इव ।
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शुभ दिन और शुभ नक्षत्र में इष्ट देवताका पूजन करके प्रति दिन भोजनके प्रारम्भ या सायंकालमें १-१ गोली शीतल जलके साथ प्रेम पूर्वक सेवन करे। इनके सेवनकालमें कटु, अम्ल और नमकीन पदार्थों का अधिक सेवन कदापि न करना चाहिए ।
इनके सेवनसे:-- :- नष्ट जठराग्नि वडवानलके समान प्रदीप्त हो जाती है । कान्ती उगते चन्द्रमाके समान भास्मान होने लगती है । काशपुष्पके समान सफेद केश काले हो जाते हैं। पटल युक्त नेत्र भी लक्ष योजन तक देखने में समर्थ हो आते हैं । जराजर्जरित शरीर भी सुगठित मांसल हो जाता है । सब व्याधियां और वृद्धावस्था नष्ट
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(३८)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
हो जाती है । गमनशक्ति अत्यन्त बढ़ जाती है। , सप्तमे वाजिवेगः स्यादष्टमे मन्त्रसाधकः । तेज सूर्यके समान और रूप कामदेवके समान | सर्वज्ञो नवमे मासि दशमे पवनोपमः ॥ हो जाता है । इसे सेवन करने वालेकी आयु एक स्त्रीजिदेकादशे मासे नाग्निना द्वादशे दहेद हजार वर्षकी होनी संभव है । वह गन्धर्व के स- बलीपलितनिमुक्ती युवकादधिको भवेत् ॥ मान गायक और महा सत्ववान हो जाता है। एवं संवत्सरं यावधः करोति पुमानिह । सौ स्त्रियोंके साथ समागम करने पर भी उसमें | वत्सराणां सहसानि जीवेन्नास्त्यत्र संशयः ।। शिथिलता नहीं आती, उसे कोई रोग नहीं सताता। हरड, बहेडा, आमला, गिलोय, नागरमोथा, उसका शरीर सुगन्धमय और पुष्पके समान को- | विधारामूल,बायबिडंग और बच १०-१० तोले मल हो जाता है। जिस प्रकार पत्र शाखा आदि | तथा सोंठ, काली मिर्च, पीपल, पीपलामूल, सुगन्धसे हीन कन्द वर्षासे पुनः अङ्कुरित हो जाते हैं | बालाकी जड़, चीतामूलकी छाल, दालचीनी, उसी प्रकार इस प्रयोगके सेवनसे वृद्धावस्थासे मुर- इलायची और नागकेशर ५-५ तोले लेकर बारीक झाया हुवा शरीर नवयौवन युक्त हृष्ट पुष्ट पाप
चूर्ण बनावें । यह १२५ तोले चूर्ण, २५० तोले (रोग) रहित और शान्त स्वभाव युक्त हो जाता | गुड़की चाशनीमें मिलाकर सबके ३६० मोदक है। इस "अमृतवर्तिका" नामक श्रेष्ठ रसावन का बना लें। आविष्कार श्रीमृत्युञ्जय भगवान ने किया था। (पश्च कर्म द्वारा) शरीर शुद्धि करके शुभ [१२३] अमृतसारगुटिका
दिनमें इनका सेवन आरम्भ करे । इनमें से १ (र. र. रसायने)
मोदक प्रतिदिन भोजनके अन्तमें शीतल जलके फलत्रिकामृतामुस्तवृद्धदारविडङ्गकम् । साथ सेवन करनेसे १ मासमें समस्त रोग नष्ट हो पचानामेकशंश्चैव द्विपलं द्विपलं भवेत् ।। जाते हैं । दूसरे मासमें शरीर पुष्ट हो जाता है। कटुत्रिकं कणामूलं जलमूलकचित्रकैः। तीसरे मासमें शरीर कान्ति स्वर्ण के समान हो स्वगेलानागचूर्णानां प्रत्येकं च पलं पलम् ॥ जाती है। चौथे मासमें अत्यन्त शुक्र वृद्धि होती सर्व वर्णमिदं इलक्षणं पलानां पञ्चविंशतिः।। है और पाचवें मासमें मनुष्य अत्यन्त मतिमान हो द्विगुणेन गुडेनैव मोदकं परिकल्पयेत् ॥ जाता है। छठे मास में सहस्रों हाथियों से भी शतत्रयं षष्टयधिकं प्रत्यहं भोजनोपरि। अधिक बल आ जाता है । सातवें मास में घोडेके सुविशुद्धशरीरस्तु शस्ते काले शुभे दिने । समान तीव्र गमनकी शक्ति आ जाती है। आठवें एकैकं कृत्वा काले च भक्षयेदमृतोपमम् । मासमें मन्त्रसाधनकी सामर्थ्य आ जाती है। नवे जलं वा अनुपातव्यं भोजनं सार्वकामिकम् ॥ | मासमें मनुष्य सर्वज्ञ और दसवें में वायुके समान मासे तु प्रथमे सर्वान्व्याधींश्च नाशये ध्रुवम् । (वेगयुक्त) हो जाता है। ११ मास तक इसे द्वितीये पुष्टिजननं तृतीये कनकपभः॥ सेवन करने से पुरुष खिजिरे हो जाता है तथा १२ चतुर्थे शुक्रबहुलः पञ्चमे तु महामतिः।। मासके सेवनसे वह अग्नि में भी नहीं जलता एवं षष्ठे मागसहस्राणां बलादेवातिरिच्यते ॥ बलिपलित रहित युगको भी अधिक यौवनयुक्त हो
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अकारादि-गुटिका
जाता है । इसे १ वर्ष तक सेवन करने से एक ____ चीता, हैड, प्रत्येक १५ तोला, शुद्ध पारद, हज़ार वर्षकी आयु हो जाती है।
त्रिकुटा, पीपला मूल, नागरमोथा, जायफल, विधारा [१२४] अमृताङ्करवटी (भै. र. क्षुद्र) प्रत्येक ५ तोला, इलायची, वंसलोचन, कूठ, शुद्ध अमृतं पारदं गन्धं लोहम, शिलाजतु ।
गन्धक, शुद्ध हिंगुल,मैनफल, मालकंगनी, दारचीनी, गुञ्जामात्रां वटी कुर्यान्मईयित्वामृताम्भसा ।।
अभ्रकभस्म, लोहभस्म प्रत्येक २॥ तोला, हलाहल एषामृताङ्कुरवटी पीता धान्यम्भसा सह ।।
विष १ निष्क, (२-३ रत्ती) गुड़ आधा सेर । क्षुद्ररोगानशेषांस्तु गदान पित्तास्त्रकोपजान॥ सबको भांगरे के रसमें मर्दन करके बेरके बराबर ज्वरं जीर्ण प्रमेहं च कार्यमग्निक्षयं सथा।
| गोलियां बनावे । प्रति दिन एक एक गोली खानेसे नाशयेज्जनयेत्पुष्टि कान्ति मेधां शुभांगतिम॥ ८० प्रकार की बात व्याधि, १८ प्रकार के कुष्ठ, शुद्ध मीठातेलिया, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक,
२० प्रकार के प्रमेह, ६ प्रकार के अपस्मार, नाड़ी लौहभस्म, अभ्रकभस्म और शिलाजीत सब समान। व्रण (नासूर) ११ प्रकारका क्षय, ऊर्ध्वश्वास, सूजन, सबको गिलोयके रसमें खरल करके एक एक रत्ती | पसूतवात, आमवात, पाण्डु, कामला,बवासीर आदि की गोलियां बनावे । इन्हें आमले के रस के साथ रोगों का नाश होता है । x सेवन करने से क्षुद्र रोग, पित्त और रक्तदोषज रोग, । [१२६] अम्लपित्तान्तको मोदकः जीर्ण ज्वर, प्रमेह, कृशता और अग्निमांद्य का नाश
(भै. र. अ. पि.) होता है तथा बल पुष्टि और कान्ति तथा बुद्धि | नागरस्य कणायाश्च पलान्यष्टौ प्रदापयेत् । बढती हैं।
गुवाकस्य पलान्यष्टौ सर्वमेकत्र कारयेत् ॥ [१२५] अमृतानामगुटिका
घृत क्षीरं ततः पश्चात्प्रस्थं प्रस्थं प्रदापयेत् । (र. रा. सु.)
लवर्ष केशरं कुष्ठं यवानी कारवी वच ।। पलत्रयं चित्रकच चेतकी च पलत्रयम् ।
चन्दनं मधुकं रास्ना देवदारु फलत्रिकम् । पारदं त्रिकुटं चैव पिप्पलीमूलमुस्तकम् ।।
पत्रमेला वराङ्गं च सैन्धवं हबुषं शठी ॥ जातीफलंयुद्धदारु ग्राहयेच्च पलं पलम् ।
मदन कटफलं मांसी गगनं बगरूप्यकम् ॥ एला शुभा कुष्ठगन्धं दरदं करहाटकम् ॥ तालीशं पपकं मूर्वा समङ्गा वंशलोचना ।। ज्योतिष्मती त्वगभ्रश्च आयसं च पलधिकम् । प्रन्थिकं शतपुष्पा च शतमूलकुरुण्टकम् । हालाहलं निष्कमेकं गुडं पलाष्टकम् ।। भुंगराजरसेनैव गुटिका कोलसम्मिता।
जातीफलं जातीकोष ककोलमम्बुदं कणा ॥ एकैकां भक्षयेन्नित्यं वाताशीतिविनश्यति ॥
| कर्पूरश्च विडङ्गश्च अजमोदा बलामृता । कुष्ठाष्टादश नश्यन्ति प्रमेहान् विंशतिरतथा।।
| मर्कटी क्षुरषीजश्च चन्दनंदेवताडकम् ॥ अपस्मारं षडैतानि सर्वनाडीव्रणाणि च x इस प्रयोग को अत्यन्त सावधानी पूर्वक क्षयमेकादशकं हन्ति ऊर्ध्वश्वासं सुसुप्तिका । विष को शुद्ध करके लेना चाहिये अन्यथा
बनाना तथा व्यवहार करना चाहिये । हलाहल शोथामवातपाण्डुत्वं कामलार्शो निहन्ति षट् ॥ | हानि की संभावना है।
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भारत-भैन्य- रत्नाकर
(४०)
लौह कांस्यं प्रदव्यं कर्षमात्रं भिषग्विदा । अन्यत्सर्वं कर्षमात्रं कर्षाद्धं स्वर्ण भस्मकम् ॥ चतुर्थी तु विधानेन मारितं ग्राहयेत्सुधीः । अम्लपित्तान्तको ह्येष मोदको मुनिभावितः ॥ वान्ति मूर्च्छाश्च दाहश्च कासं श्वासं भ्रमं तथा । वातजं पित्तञ्चैव कफजे सान्निपातिकम् ॥ सर्वरोगं निहन्त्याशु प्रमेहं सूतिकागदम् । शूलञ्च वह्निमांद्यञ्च मूत्रकृच्छं गलग्रहम् ॥
सोंठ, पीपल, सुपारी प्रत्येक आधा सेर, दूध, घी प्रत्येक २ सेर, लौंग, केशर, कूठ, अजवायन, काली जीरी, वच, सफेद चन्दन, मुलैठी, रास्ना, देवदारु, त्रिफला, तेजपात, इलायची, दालचीनी, सेंधा नमक, हाऊबेर, कपूर कचरी, मैनफल, कायफल, जटामांसी, अभ्रक, बंग तथा चांदी भस्म, तालीश पत्र, पद्माख, मूर्वा, मजीठ, बंसलोचन, पीपलामूल, सोया, शतावर, कुरण्टा, जायफल, जावत्री, ककोल, नागरमोथा, पीपल, कपूर, बायबिड़ंग, अजमोद (अजवायन ) बला, गिलोय, कौंच के बीज, तालमखाना, चन्दन, देवताड़ (देवदाली), लोहभस्म, कांसी भस्म, प्रत्येक १। तोला, सोना भस्म ६० रत्ती । सब को एकत्र कर विधिवत् मोदक बनावे । गुण---ये मोदक बमन, मूर्छा, दाह, खांसी, श्वास, भ्रम, प्रमेह, सूतिका रोग, शूल, अग्निमांद्य, मूत्रकृच्छ्र, गलग्रह और अम्लपित्तादि को आराम करते हैं । *
[१२७] अर्जकादि वटिका (भै. र.वी. स्तं . ) मूलमर्जकशङ्खिन्योनिर्गुण्डीकेशराजयोः । जातीफलं देवपुष्पं विडङ्गं राजपिप्पलीम् ॥ * इस प्रयोग में पहिले घी को कढाई में चढावे
गरम होने पर उसमें दूध और अन्य चीजें का चूर्ण मिलाकर पाक सिद्ध करना चाहिये ।
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चातुर्जातं तुगाक्षीरीमनन्तां मुपलीं क्षीरीम् । विदारीं गोक्षुरं बीजञ्चाभातोयेन मर्दयेत् ॥ मापमानां वटीं कृत्वा सुरामण्डेन योजयेत् । वीर्य्यस्तम्भकरी वृष्या वटिकेयं प्रकीर्तिता ॥
सफेद तुलसी की जड, शङ्खपुष्पी की जड, निर्गुण्डी, भांगरे की जड, जायफल, लौंग, बायबिडंग, गजपीपल, चातुर्जात, बंसलोचन, अनन्तमूल, सफेद मूसली, शतावरी विदारी कन्द्र, गोखरू, सब को कीकर की छाल के रस में खरल करके एक एक माशे की गोलियां बनावे | ये गोलियां वीर्य स्तम्भक और वृष्य हैं। अनुपान - सुरामण्ड । [१२८] अर्द्धनारीश्वरः (भै. र. शि. रो.)
वराटं टङ्कनं शुद्धं पञ्चभागसमन्वितम् । नवभागं मरीचस्य विषं भागत्रयं मतम् ॥ स्तन्येन वटिकां कृत्वा नस्यं दद्याद्विचक्षणः । शिरोविकारान्विविधान्हन्ति श्लेष्मोत्तरानपि ॥
कौडी भस्म, सुहागे की स्वील प्रत्येक ५ भाग मरिच ९ भाग, मीठा तेलीया ३ भाग । स्त्री के दूध में गोली बनाकर रक्खे | इसकी नस्य देनेसे अनेक प्रकारकी शिरो वेदना शान्त होती है । [१२९] अर्शोघ्नवटक
( र. र. स. अ. १५)
अर्शोघ्नं वटकं वक्ष्ये पुत्रक ! शृणु, भद्रक । पिप्पलीपिप्पलीमूलबनसूरण चित्रजम् ॥ मरिचं कण्टकारी च रक्तपुष्पी समांशकम् । पलमेकं पृथक् सर्वं श्लक्ष्णं दृपदि पेपयेत् ॥ गजाजपशुमुत्रेषु शुभे भाण्डे विनिक्षिपेत् । मृद्रग्निना पचेत्सर्व चूर्णशेषं यथा भवेत् ॥
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अकारादि-गुटिका
(४१)
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लवणत्रयश्च तत्रैव पलमेकं तु निक्षिपेत् । । [१३१] अष्टादशांगगुटिका अक्षप्रमाणवटकान्कुर्यादेवं पृथक् पृथक् ॥
(वं. से. पां. चि.) त्रिंशदिनानि मतिमान प्नं दीपनं परम् ।
- किराततिक्तं सुरदारु दार्वी, घृततक्रसमायुक्तं भोजनं सम्प्रदापयेत् ।।
-- मुस्ता गुडूची कटुका पटोलम् । पीपल, पीपलामूल, वनसूरण, चीता, मरिच,
दुरालभा पर्पटकं सनिम्ब, कटेली, लाल सांठी की जड़। प्रत्येक ५-५ तोला
कटुत्रिकं वापि फलत्रिकश्च ॥ इन सबके कल्कको हाथी और बकरीके मूत्रमें
विडंगसारश्च समांशकानि, मिट्टीके बरतनमें मन्दाग्नि पर पकावें । जब मूत्र ।
सर्वैः समं चूर्णमथात्रलौहम् ।। जल जाय और केवल चूर्ण बाकी रहे तो उसमें त्रिलवण (सेंधा, सौंचल और सांभर) ५ तोला
सर्पिमधुभ्यां गुटिका विधया, मिलाकर १।-१। तोला के वटक बनावे और एक
तक्रानुपानं भिषा प्रयोज्यम् ॥ मास तक सेवन करे तो बवासीर और मन्दाग्निका
निहन्ति पाण्डु श्वयधुं प्रमेहं नाश हो । व्यवहारिक मात्राः-३ माशा । इस पर
हलीमकं हृद्ग्रहणीप्रदोषम् । घृत और तक्रयुक्त आहार पथ्य है। श्वासञ्च कासश्च सरक्तपित्त[१३०] अष्टांगलवणवटिका
मास्यथोवाग्रहमामवातम् । .. (च. सं. चिं. अ. २५)
व्रणान्सकुष्ठान् कफविद्रधींश्च, सौवर्चलमजाजी च वृक्षाम् साम्लवेतसम् ।
श्वित्राणि कुष्ठं सततप्रयोगात् ॥ स्वगेला मरिचार्भाशं शर्कराभागयोजितम् ॥ । चिरायता, देवदार, दारु हल्दी, नागरमोथा, एतल्लवणमष्टांगमग्निसंदीपनं परम् । गिलोय, कुटकी, पटोलपत्र, धमासा, पित्तपापड़ा, मदात्यये कफनाये दद्यात्स्रोतो विशोधनम् ॥ नीम की छाल, त्रिकुटा. त्रिफला और वायविडंग सब
सौंचल, जीरा, वृक्षाम्ल (इमली), अम्लवेत, समान भाग, सबके बराबर लोह भस्म । इन सबका दालचीनी, इलायची और मरिच, प्रत्येक आधा महीन चूर्ण करके पी और शहदमें मिला कर भाग, शकर (चीनी) १ भाग । यह अष्टांग लवण गोलियां बनावे । इन्हें छाछके साथ सेवन करनेसे अत्यन्त अग्नि सन्दीपक और कफ प्रधान मदात्यय पाण्डु, शोथ, प्रमेह, हलीमक, हृद्रोग, ग्रहणी, श्वास, नाशक तथा स्रोत शोधक है। मात्रा-२ माशा. खांसी, रक्तपित्त, अर्श. उरुग्रह, आमवात, व्रण, ____इन सब को पानी में पीसकर गोलियां कुष्ट, कफ विद्रधी और श्वेत कुष्टका नाश होता बना लेनी चाहिये।
है। मात्रा-२ से ४ रनी।
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(४२)
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भारत - भैषज्य रत्नाकर
अथ अकारादि गुग्गुलु प्रकरणम्
गुग्गुल व्याख्या
जिन औषधियों में प्रधान उपादान गुग्गुलु (गूगल) होता है उन्हें गुग्गुलु कहते हैं । अनेक बार गुग्गुल का पाक किया जाता है और अनेक बार दवाइयों में मिलाकर घी आदि के साथ कूटा जाता है, गुग्गुलु का पाक भी गुड़ आदि के समान ही किया जाता है । परन्तु गुड़ आदि का पाक सिद्ध होने पर पतला रहता है और गुग्गुलु घन रहता है । यदि पानी में डालने से नीचे बैठ जाय और इधर उधर फैल न जाये तो पाक सिद्ध समझना चाहिये |
यदि पाक न करना हो तो दवाइयोंका चूर्ण मिलाकर हामिन दस्ते में डालकर खूब कूटना चाहिये और बीच बीच में थोड़ा २ घी डालते रहना चाहिये। जितना ही अधिक कूटा जाय उतना ही उत्तम है ।
अकारादि गुग्गुलु प्रकरणम् [१३२] अभयादि गुग्गुलुः (भै. र. परिशिष्टे अभयामलकीद्राक्षाः शताह्वां ब्रह्मयष्टिकाम् । शारिवाद्वयमजिष्ठा निशादारुनिशावचाः || शिथिलं वाससा वद्धं गुग्गुलुश्चाष्टमुष्टिकम् । सार्द्धद्रोणे जले पक्त्वा पादे शिष्टेऽवतारयेत् ॥ ततस्तं गुग्गुलं तस्मिन्काथतोये पुनः पचेत् । सिद्धप्रये क्षिपेत्पामुलींमधुकं मुराम् ॥ चातुर्जातं विडङ्गं च देवपुष्पं दुरालभाम् । त्रिवृतां त्रायमाणाञ्च त्र्यूषणं च पलोन्मितम् ॥ अभयादिरसौ हन्ति गुग्गुलुः स्नायुसम्भवान् । मास्ति कानपि रोगांश्च मधुना सह सेवितः ॥
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हरीतकी, आमला, दाख, सोया, भारङ्गी, दो प्रकारकी शारिवा, मजीठ, हल्दी, दारु हल्दी और बचा, (५-५ तोला) सब को समान भाग ले अ कूटा कर २४ सेर पानी में चढा कर इसमें आध सेर गूगल पोटली में ढीला बांध कर डालदे और पकावे जब चौथाई पानी शेष रहे तब उता -
/
रले । फिर इस गूगलको इस क्वाथमें पकावे, पाक सिद्ध होने पर, सफेद मूसली, मुलैठी, मुरामांसी, चातुर्जात, बायबिडङ्ग, लौंग, घमासा, निसोत, त्रायमाणा, त्रिकुटा, प्रत्येक का ५-५ तोले चूर्ण मिलावे । यह गूगल स्नायु और मस्तिष्क सम्बन्धी रोगोंका नाश करता है | अनुपानः - मधु
[१३३] अमृतादि गुग्गुलः (१) (भै. र. स्थौ.)
अमृता त्रुटि वेल्लवत्स कं,
कलिङ्गपथ्यामलकानि गुग्गुलम् । क्रमवृद्धमिदं मधुप्लुतं,
पिडिका स्थौल्य भगन्दरं जयेत् ॥
गिलोय, छोटी इलायची, वायबिडंग, कुडेकी छाल, इन्द्रयव, हैड़, आमला और गूगल यथा क्रम १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८ भाग लेकर गूगलमें समस्त औषधियोंका चूर्ण मिलाकर सुरक्षित रक्खें । इसे मधु में मिलाकर सेवन करने से पिड़िका, स्थौल्य और भगन्दर रोग का नाश होता है ।
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[१३४] अमृतादि गुग्गुलः (भै. र. कुठे )
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अकारादि-गुग्गुल
अमृतायाः पलशतं दशमूल्यास्तथा शतम् । पाठा मूर्वा वला तिक्ता दार्वी गन्धर्वहस्तकाः । एषां दशपलान्भागान् विभीतक्याशतं हरेत् । द्वे शते च हरीतक्या आमलक्यास्तथा शतम् ॥ जलद्रोणत्रये पक्त्वा अष्टभागावशेषितम् । प्रस्थं गुग्गुलुमाहृत्य प्रखार्द्ध च घृतं पचेत् । पाकसिद्धौ प्रदातव्यं गुरुच्याः सत्वमेव च । पलद्वयं तथा शुण्ठयाः पिप्पल्याच पल द्वयम् ॥ ततो मात्रां प्रयुञ्जीत ज्ञास्वा दोष बला बलम् अष्टादशपु कुष्ठेषु वातरतगदेषु च ॥ कामलामामवातं च अग्निमान्द्यं भगन्दरम् । पीनसं च प्रतिश्यायं प्लीहानमुदरं तथा ॥ एतान् रोगान् निहन्त्याशु मास्करस्तिमिरं यथा
।
मूल,
० ॥
गिलोय ६ । सेर, दशमूल ६ । सेर, पाठा, मूर्वा, खरैटी, कुटकी, दारु हल्दी और एरण्ड प्रत्येक ५० तोला, बहेड़ा ६ । सेर, १२ ॥ सेर हैड़ और आमला ६। सेर लेकर सबको ९६ सेर जलमें पकाकर आठवां भाग शेष रहने पर उतारकर छान और उसमें गूगल १ सेर और घृत सेर डालकर पुन: पकावे पाक सिद्ध होने गिलोय का सत, सोंठ और पीपल प्रत्येक १०-१० तोला मिलावे । इसे मात्रानुसार दोषके वलावल को देखकर सेवन करने से १८ प्रकारके कुष्ट, वातरक्त, कामला, आमवात, मन्दाग्नि, भगन्दर, पीनस, प्रतिश्याय, प्लीहा और उदर रोग इस प्रकार शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार सूर्योदय से अन्धकार |
[१३५] अमृतादि गुग्गुलः (३) (भा. प्र.वा. र . )
पर
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(४३)
प्रस्थमेकं गुडूच्याच अर्धप्रस्थं च गुग्गुलोः । | प्रत्येकं त्रिफलायास्तु तत्प्रमाणं विनिर्दिशेत् ॥ सर्वमेकत्र संकु साधयेदुखणेऽम्भसि । पादशेषं परिस्राव्य कषायं ग्राहयेद्भिषक् ॥ पुनः पचेत्कषायन्तु यावत्सान्द्रत्वमागतम् । दन्तीव्योषविडङ्गानि गुडूची त्रिफला त्वचः ॥ ततश्चार्द्धपलं चूर्ण गृहीयाच्च पृथक् पृथक् । कवितायाश्च सर्वमेकत्र चूर्णयेत् । तस्मिन्सुसिद्धं विज्ञाय कोष्णे प्रक्षिपेद्बुधः ॥ ततश्चाग्निबलं मत्वा खादेत्कर्ष प्रमाणतः । वातरक्तं तथा कुष्ठं गुदजान्यग्नि सादनम् ॥ दुष्टणं प्रमेहांश आमवातं भगन्दरम् । नाड्याढवतं श्वयथुं सर्वानेतान्व्यपोहति ॥
गिलोय १ सेर, गूगल ० ॥ सेर, हैड़, बहेड़ा, आमला, प्रत्येक आधा सेर लेकर सबको कूटकर ३२ सेर पानी में पकावे, चौथा भाग शेष रह जाने पर छानले और फिर पकावे जब तक घनता न आजावे और फिर दन्ती, त्रिकुटा, बायविडंग, गिलोय, त्रिफला, दालचीनी, प्रत्येक २॥ तोला, और निसोत १ । तोला लेकर सबका चूर्ण करके उपरोक्त गरम २ पाक में मिलावे | मात्रा :- १ | तोला । गुण- वातरक्त, कोढ़, अर्श, मन्दानि, दुष्ट ब्रण, प्रमेह, आमवात, भगन्दर, नाडीव्रण, आढ्यवात सूजन आदिका नाश करता है ।
[१३६ ] अमृतादि गुग्गुलः (४) (भा. प्र.वा. र . ) त्रिप्रस्थममृतायाश्च प्रस्थमेकन्तु गुग्गुलोः । प्रत्येकं त्रिफला प्रस्थं वर्षा सूप्रस्थमेव च ॥ सर्वमेकत्र संकट साधयेदुवणेऽम्भसि । पुनः पचेत्पादशेषं यावत्सान्द्रत्वमागतम् ॥
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(४४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
-
दन्ती चित्रकमूलानां कणाविश्वफलत्रिकम् ।। [१३७] अमृतादि गुग्गुलुः (५) गुडूचीत्वर्गडंगानाँ प्रत्येकार्द्ध पलंमतम् ॥
__ (वृ. यो. त.) त्रिवृता कर्षमेकन्तु सर्वमेकत्र चूर्णयेत् । गुडूचीत्रिफलाक्वाथैगुग्गुलुः पिण्डितो वरः। सिद्ध उष्णे क्षिपेत्तत्र अमृतागुग्गुलं परम् ॥ क्रोष्टुशीप निहन्त्युचैः सेवितो मासमात्रतः। अतो यथाबलं खादेदम्लपित्ती विशेषतः।
| हृते रक्तेऽनिलहरो विधिः कृत्स्नः प्रशस्यते । वातरक्तं तथा कुष्ठं गुदनान्यग्निसादनम् ॥
___उत्तम प्रकार के गूगल में गिलोय और
निफले का काढ़ा मिलाकर कूटे । इसे एक मास दुष्टत्रणं प्रमेहाँश्च आमवातं भगन्दरम् ॥
तक सेघन करने से क्रोष्ठुशीर्ष का नाश होता है । नाडथाढयवात श्वयधुं हन्यात्सर्वामयांस्तथा।
क्रोष्टुशीर्ष में रक्त निकालने के बाद वायु नाशक अश्विभ्यां निर्मितश्चायममृताख्योहि गुग्गुलुः। उपाय करना चाहिये।
गिलोय ३ सेर, गूगल १ सेर, हैड़, बहेड़ा, [१३८] अमृतादिवटिका गुग्गुलुः (६) आमला और पुनर्नवा हरेक १-१ सेर, सबको
(र. र. ब्र. चि.) कूटकर ३२ सेर पानीमें पकावे । चौथा भाग शेष अमृतापटोलमूलत्रिफलात्रिकटुक्रिमिघ्नानाम् । रहने पर छानकर फिर पकावे, गाढ़ा होने पर दन्ती, समभागानां चूर्ण सर्वसमोगुग्गुलोर्भागः ॥ चीतामूल, सोंठ, पीपल, त्रिफला, गिलोय, दालचीनी प्रति वासरमेकैका गुडिको खादेदक्षपरिमाणाम् और बायबिडंग, प्रत्येक २॥-२॥ तोला, निसोत जेतुंबणवातासृग्गुल्मोदरश्वयधुपाण्डुरोगान् । ११ तोला सबका चूर्ण करके मिलावे । यह भी नं० गिलोय, पटोल की जड़, त्रिफला, त्रिकुटा १३५ के समान ही गुणकारी है परन्तु अम्ल- और बायबिडंग, सब समान भाग, गूगल सबके पित्तमें विशेष गुणकारी है । इस गूगलकी योजना बराबर । यह गूगल ब्रण, वातरक्त, गुल्म, शोथ भश्विनीकुमारोंने की थी।
और पांडु का नाश करता है । मात्रा-१। तोला.
अथाकारायवलेह प्रकरणम्
अवलेह व्याख्या मधु, गुड, स्वरस आदि द्रव पदार्थों में औषधियों का चूर्ण मिलाकर अथवा क्वाथ आदि को पुनः पकाकर जो चटनी तैयार की जाती है उसे अवलेह अथवा लेह कहते हैं। यदि औषधियों का परिमाण न लिखा हो तो अवलेह पाकके लिये
सिता चतुर्गुणाकार्याचूर्णाच्च द्विगुणोगुड़ः । द्रवं चतुर्गुणं दद्यादिति सर्वत्र निश्चयः ।।
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..
अकारादि-अवलेह
..
(४५)
औषधियों के चूर्ण से मिश्री ४ गुनी, गुड २ गुना और क्वाथादि द्रव पदार्थ ४ गुने लेने चाहिये।
प्रथम धी, तेल आदि स्नेहों को कढ़ाई में चढ़ाकर गर्म करना चाहिये और यदि आमले का कल्क, पेठा आदि स्नेह में भूनने योग्य पदार्थ हों तो उन्हें भी इसी समय भून लेना चाहिये, फिर जब कल्कादि भुन जाएं तो उनमें क्वाथादि द्रव पदार्थ और चीनी गुड़ आदि मिला कर. पकाना चाहिये। जब चाशनी तैयार हो जाय और उसमें तार छूटने लगे तो प्रक्षेप द्रव्योंका चूर्ण मिलाकर कौंचे आदि से खूब घोटना चाहिये और नीचे उतारकर ठण्डा होने पर शहद मिलाकर मिट्टी या । र, चीनी आदि के चिकने पात्रमें भरकर रख देना चाहिये।
पाक पाक भी अवलेह के समान ही बनाया जाता है परन्तु इतना भेद है कि अवलेह मे इसकी चाशनी कठिन होती है और तैयार होने पर यह जम जाता है परन्तु अवलेह नरम रहता है। . अकारायवलेह प्रकरणम् . गजपीपल, खरैटी और पोखरमूल प्रत्येक १० -१० [१३९] अगस्त्यहरीतकी (बू. नि. र. क्षय.) तोले । हैड़ और इन्द्रजौं को पोटली में बांधे और हरीतकीशतं भद्रयवानामाढकं तथा। बाकी द्रव्यों को मिलाकर अर्धकुटा करके २० सेर पलानि दशमलस्य विंशतिश्च नियोजयेत ॥ पानी में पकाये तथा इसमें पोटली रखदे । जब हैड़ चित्रकः पिप्पलीमूलमपामार्गः शठी तथा।। और इन्द्रजौं उसीज (उबल) जायें तथा क्वाथ तैयार कपिकच्छः शापप्पी भार्गी च गजपिप्पली॥ हो जाय तो उतार लें । इस क्वाथ को छान कर बला पुष्करमूलं च पृथक् द्विपलमात्रया । इसमें उसीजी हुइ हैडों को मिलावे, तथा ४०-४० पचेत्पश्चाढके नीरे यवैःस्विनैः शृतम् नयेत् ॥ तोले घृत और तेल तथा ६। सेर गुड मिलाकर सच्चाभयाशतं दद्यात काथे तस्मिन्विचक्षणः। पकावे । अवलेह सिद्ध होने पर तथा ठंडा होने सर्पिस्तैलाष्टपलकं क्षिपेद्गुडतुला तथा पर मधु और पिप्पली-चूर्ण प्रत्येक २०-२० पक्त्वालेहत्यमानीय सिद्धे शीते पृथक् पृथक् । तोले मिलावे । इसमें से प्रतिदिन २ हैड खावे क्षौद्रं च पिप्पलीचूर्ण दद्यात्कुडवमात्रया ॥
और लेह चाटे तो क्षय, खांसी, ज्वर, श्वास, हरीतकीद्वयं खादेत्तेन लेहेन नित्वशः।
हिक्का, अर्श, अरुचि, पीनस, ग्रहणिरोग और बलीक्षयं कासं ज्वरं श्वासहिकारुिचिपीनसान्॥
पलित का नाश होता है । यह अवलेह रसायन ग्रहणी नाशयेदेष बलीपलितनाशनः ।
| है तथा यल और वर्ण का देने वाला है । इस बलवर्णकरः पुंसामवलेहो रसायनः।
अवलेह का अविष्कार अगस्त मुनिने किया है। विहीतोऽगस्त्यमुनिना सर्वरोगप्रणाशनः ॥ । [१४०] अपराजितोलेहः हैड़ १०० नग, श्रेष्ठ इद्रजौं ४ सेर, दश-
(बं. से. प्र. चि.) मूल १। सेर, चित्रक, पीपलामूल, चिरचिटा, पलार्द्धमरुणायास्तु द्विपले कुटजत्वचः। कर्पूरकचरी, कौंच के बीज, शंखपुष्पी, भारंगी, । केशराजस्य मूलानि कर्व तत्सर्वमेकतः ।।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकर
सङ्कटय सलिलप्रस्थे पक्वा पादस्थिते रसे।। हैड़, पीपल, दाख, मिश्री और धमासा । दत्वा सिता सप्तपलं छागंक्षीरं चतुष्पलम् ॥ इन्हें मधु के साथ लेह बनाकर चाटने से कण्ठ शोष्यं पक्करसं भूयः पचेद्दवीं पलेपनम् । और हृदय की दाह, मूर्छा, कफ और अम्लपित्तका विश्वातिविषयोश्चूर्ण मुस्तस्येन्द्रवयस्य च ॥ | नाश होता है । प्रत्येकमक्षमात्रन्तु क्षिप्त्वा पक्त्वा च भक्षयेत् । [१४३] अभयामलकी रसायनम् शुद्धं तदनुभुजीत काजिकाम्बु प्रसाधितम् ।। (ब्राह्म रसायनम् ), (च. सं. चि. अ. १) माषगोक्षुरसिद्धं वा छागक्षीरं पिवेन्नरः। पञ्चानां पञ्चमलानां भागान्दशपलोन्मि तान ग्रहण्यतिसारहरो लेहो ऽयमपराजितः ॥ हरीतकीसहस्रञ्च त्रिगुणामलकं नवम् ।। ___ अतीस २॥ तोला, कुड़ेकी छाल १० तोला, विदारिंगन्धा बृहतीं पृश्निपणी निदिग्धिकाम् । और काले भांगरे की जड़ ११ तोला । सब को विद्याद्विदारिगन्धाचं श्वदंष्ट्रापञ्चमं गणम् ॥ कूटकर १ सेर पानी में पकावे जब चौथा भाग
| बिल्वाग्निमन्थश्योनाकं काश्मर्यमथ पाटलम् । रह जाये तो छान ले । फिर इसमें ३५ तोला | पुनर्नवा शूर्पपण्यौँ बलामेरण्डमेव च ॥ खांड, २० तोला बकरी का दूध मिलाकर पुनः | जीवकर्षभको मेदां जीवन्ती सशतावरीम् । पकावे और सोंठ, अतीस, नागरमोथा, इन्द्रयव शरेक्षुदर्भकासानां शालीनां मूलमेव च ॥ इनमें से प्रत्येक का चूर्ण ११-१। तोला मिलाकर इत्येषां पञ्चमूलानां पश्चानामुपकल्पयेत् । सुरक्षित रक्खें ।
भागान्यथोक्तांस्तत्सर्व साध्यं दशगुणेऽम्भसि। इसे खाकर ऊपर से कांजी से तैय्यार किया
दशभागावशेषन्तु पूतं तत्ग्राहयेद्रसम् । हुआ आहार या उड़द और गोखरू से सिद्ध किया
| हरीतकीश्च ताः सर्वाः सर्वाण्यामलकानि च ॥ हुआ बकरीका दूध पीने से ग्रहणी और अतिसार
तानि सर्वाण्यनस्थीनि फलान्यापोथ्य कूर्चनैः। का नाश होता है। [१४१] अपराजितोलेहः (यो. र. कास.)
विनीय तस्मिन्निहे चूर्णानीमानि दापयेत् ॥
मण्डूकपर्ष्याः पिप्पल्या शंखपुष्प्याः प्लवस्य च शटी शृङ्गीकणाभार्गीगुडवारिदयासकैः। सतैलैर्वातकासनो लेहोयमपराजितः॥
मुस्तानां सविडङ्गानां चन्दना गुरुणोस्तथा ।। ___ कपूर कचरी, काकड़ा सींगी, पीपल, भारंगी,
मधुकस्य हरिद्राया बचायाः कनकस्य च ॥ गुड़, नागरमोथा और धमासा सब समान भाग
भागाँश्चतुष्पलान् कृत्वा सूक्ष्मैलायारत्वचस्तथा ॥ लेकर चूर्ण बनावें और उसमें तिलका तेल
सितोपलासहस्रन्तु चूर्णितं तुलयाधिकम् । मिलाकर चाटने योग्य करलें यह अवलेह वातज
तैलस्य द्वथाढकं तत्र दद्यात् त्रीणि च सर्पिषः॥ कासको नष्ट करता हैं।
साध्यमौदुम्बरे पात्रं तत्सर्व मृदुनामिना । [१४२] अभयादि लेहः (यो. र. अ. पि.) | ज्ञात्वा लेहमदग्धं च शीतं क्षौद्रेण संसृजेत् । अभया पिप्पली द्राक्षा सिता धन्वयवासकम् । क्षौद्रप्रमाणं स्नेहाद्धं तत्सर्व घृतभाजने । मधुना कण्ठहृद्दाहमुश्लेिष्माम्लपित्तनुत् ॥ तिष्ठेत् सम्मूच्छितं तस्य मात्रा काले भयोजयेत्
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अकारादि - अबह
।
या नोपरुन्ध्यादाहारमेवं मात्रा जरां प्रति । षष्टिकः पयसा चात्र जीर्णे भोजनामिष्यते ॥ वैखानसा वालखिल्यास्तथा चान्ये तपोधनाः रसायनमिदं प्राश्य बभूवुरमितायुषः || मुक्त्वा जीर्ण वपुश्चाग्र्यमवापुस्तरुणं वयः । वीततन्द्राक्कमश्वासानिरातङ्काः समाहिताः ॥ मेघास्मृतिबलोपेताश्विररात्रं तपोधनाः । ब्राह्म तपो ब्रह्मचर्यं चेरुश्वात्यन्तनिष्ठया ॥ रसायनमिदं ब्राह्मथमायुष्कामः प्रयोजयेत् । दीर्घमायुर्वश्वाग्रयं कामांश्चेष्टान् समश्नुते ॥
हैड़ १००० नग, नवीन आमले ३००० नग, १ शालपर्णी, २ छोटी कटेली, ३ प्रश्निपर्णी, ४ बडी कटेली, ५ गोखरू, (१ लघु पंचमूल), १ बेल की छाल, २ अरणी, ३ सोना पाठा, ४ खम्भारी, ५ पाढल (२ बृहद् पंचमूल, .१ पुनर्नवा, २ मुद्गपर्णी, ३ माषपर्णी, ४ बला, ५ एरण्डमूल (३ पुनर्नवादि पंचमूल), १ जीवक, २ ऋषभक, ३ मेदा, ४ जीवन्ती, ५ शतावर(४ जीवनीय पंचमूल) १ शर, २ ईख, ३ कास, ४ दर्भ, ५ शालीमूल (५ तृणपंचमूल), इन पांच प्रकार के पंचमूलों की प्रत्येक औषधि ५०-५० तोला लेकर सब को दस गुने पानी में पकावे जब दशवां भाग बाकी रहे तो उतार कर छान ले और हैड़ तथा आमलों की गुठली दूर कर के उन्हें कूटकर उस रसमें मिला दे और साथ ही नीचे लिखी दवाइयों का चूर्ण भी मिलावे:- मण्डूकपर्णी (ब्राह्मी), पिप्पली, शंखपुष्पी, केवटी मोथा, नागरमोथा, बायबिडंग, चन्दन, अगर, मुलैठी, हल्दी, बच, नागकेसर, छोटी इलायची और दारचीनी प्रत्येक का चूर्ण २० - २० तोला, मिश्री ६८|| सेर, तेल ८ सेर, घी १२ सेर । सब को मिलाकर तांबे से कढ़ाव में मन्दाग्नि
|
(४७)
पर पकावे जब पाक सिद्ध हो जाये ( खरपाक न होने पावे) तो ठंडा करके उसमें १० सेर शहद मिलाकर घी के चिकने बरतन में भर कर रखदे ।
इसे उचित काल में उचित मात्रानुसार सेवन करे और पचने पर साठी के चावल और दूध खावे ।
इसके सेवन से वैखानस और बालखिल्यादि ऋषिगणों ने अमित आयु और तरुणावस्था को प्राप्त किया था तथा तन्द्रा और कमरहित, निर्भय, मेधा और स्मृतिमान् एवं बलवान् होकर बहुत समय तक तप करते रहे थे। इस ब्रह्म रसायन के सेवन से दीर्घायु प्राप्त होती है । [१४४] अमृतप्राश्यावलेहः ( वृ. नि. र. क्षय)
क्षीर धात्री विदारीक्षुक्षीरीणां च तथा रसे। पचेत्समे घृतं प्रस्थं मधुरैः कर्षसम्मितैः ॥ द्राक्षाद्विचन्दनोशीरशर्करोत्पलपद्मकैः । मधूककुसुमानन्ताकाश्मरीतृणसंज्ञकैः ॥ प्रस्थार्द्ध मधुनः शीते शर्करायास्तुलां तथा । पलार्द्धकांश्च सञ्चूर्ण्य त्वगेलापत्र केशरान् । विनीय तस्य संलिह्यान्मात्रां नित्यं सुयन्त्रितः। अमृतप्राश्यमित्येतन्निर्मितं त्रिपुरारिणा || क्षीरमांसासिनो हन्ति रक्तपित्तक्षतक्षयान् । तृष्णारुचिश्वासकास छर्दिहिकाप्रमर्दनम् ॥ मूत्रकृच्छ्रज्वरनं च बल्यं स्त्रीरतिवर्द्धनम् ॥
I
दूध, आमले का रस, बिदारीकन्द का रस, गन्ने का रस, पंच क्षीरी वृक्षों का रस या काथ और धी । प्रत्येक १-१ सेर मिलाकर पकावे फिर इसमें मधुरादि गण, दाख, दोनों चन्दन, खस, चीनी, नीलोफर, कमल, महुवेके फूल, अनंत मूल, खम्भारी, पंचतृणका कल्क १ - १| तोला डाल कर अवलेह बनावे, शीतल होने पर १ सेर मधु, ६ | सेर चीनी
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(४८
भारत-मैषज्य रत्नाकर
और दालचीनी, इलायची, तेजपात और नागकेशर, दन्ताश्च शीर्णाः पुनरुद्भवन्ति, २॥-२॥ तोला डाल कर भले प्रकार मिलावे। केशाश्च शुक्ला पुनरेव दिव्या। इसके यथोचित भवन से रक्तपित्त, क्षत, क्षय, नीलाञ्जनालिप्रतिभा भवन्ति, . तृष्णा, अरुचि, श्राम, खांसी, वमन, हिचकी, मूत्र | त्वचा विवर्णाः पुनरेय दिव्याः ॥ कृष्ट तथा ज्वर का नाश होता और बल तथा विशीर्ण कर्णाङ्गलि नासिकोऽपिकामशक्ति बढ़ती है।
कुम्यदितो भिन्नपलोऽपि कुष्ठी। [१४५] अमृतभल्लातक्यवलेहः सोऽपिक्रमादङ्कुरिताग्रशाख(वृ. नि. र., भै. र. कुष्टा.)
__ स्तरुयथा भाति नभोऽम्बुसिक्तः ।।
उष्ट्रान् मयूराजयति स्वरेणभल्लातकानां पवनोद्धृतानां,
बलेन नागस्तुरगो जवेन । वृन्तच्युतानां च यदाढकं स्यात् ।
रसायनस्यास्य नरः प्रसादाद् तच्चेष्टकाचूर्णकणैर्विघृष्य,
बृहस्पतेरप्यधिको हि बुद्धथा। प्रक्षालयित्वा विसृजेत्प्रवाते ॥
प्रन्थान् विशालान् पुनरुकिदोषान् शुष्कं पुनस्तद्विदली कृतञ्च,
गृह्णाति शीघ्रं न च नश्यते तु। ततः पचेदप्मु चतुर्गुणासु । कुर्वनिमंकल्पमनल्पबुद्धितत्पादशेष परिपूतशीतं,
जीवेन्नरो वर्षशतानि पञ्च । क्षीरेण तुल्येन पुनः पचेत्तु ॥ राजाह्ययं सर्व रसायनानां तत्पादशेषं पुनरेव शीतं,
चकार योगं भगवानगस्त्यः ॥ घृतेन तुल्येन पुनः पचेत्तु । ___पवनसे टूटे हुवे और डंठलों से पृथक हुवे तदर्धया शर्करया विमिश्रं,
भिलावे ४ सेर लेकर ईंट के चूर्ण के कणों में मसल ततः खजेनोन्मथितं विधाय॥ कर पानी से धोकर वायु में फैलादे सूखने पर बीचसे तत्सप्त रात्रादुपजातवीर्य,
१.-१ के दोदो दल करके चौगने पानी में पकावे । सुधारसादप्यधिकत्वमेति । चौथाई भाग रहने पर छानकर ठंडा करके बराबर प्रातर्विशुद्धः कृतदेव कार्यो, ! दूध डालकर फिर पकावे, चौथा भाग रहने पर
मात्राञ्च खादेत स्वशरीरयोग्याम ॥ टण्डा करके समान भाग धृत डालकर घृतावशेष न चान्नपागे परिहार्यमस्ति,
एकावे, पश्चात् धीसे आधी खांड मिलाकर कौंचेसे न चातपे चाध्वनि मैथुने च । मन्थन करे और सातदिन तक रक्खा रहने दे, यथेष्टचेष्टो विहितोपयोगाद्,
सात दिन पश्चात् वह पूर्ण वीर्ययुक्त और अमृत के भवेन्नरः काञ्चनराशिगौरः॥ रससे अधिक गुण वाला हो जाता है फिर प्रातःकाल अनन्यमेधा नरसिंहतेजो,
शुद्ध होकर देवार्चन करके यथोचित यथाबल हृष्टेन्द्रियोऽव्याहतबुद्धिसत्वः। मात्रानुसार खावे । इसको सेवन करते हुए अन्न
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अकारादि-अवलेह
(४९)
पान, ताप तथा मैथुन आदि का त्याग नहीं करना धात्री रात्रिश्च मंजिष्टा मरिच नागरं कणा । पड़ता। इसके सेवन से बल, पुष्टि, कान्ति, मेधा, यवानी सैन्धवं मुस्तं वगेला नागकेशरम् ।। बुद्धि आदि बढ़ती हैं, गिरे हुवे दांत निकल आते पपेटः बालमुशीरं चन्दन तथा। हैं, सफेद बाल काले हो जाते हैं, त्वचा का गोक्षुरस्य च कचूरो रक्तचन्दनम ।। विवर्णत्व दूर होकर रंग सुन्दर हो जाता है । जिस पृथक्पलार्द्धमानानामेपां चूर्णमिदं क्षिपेत् । कोढ़ी के कान, उंगली और नाक आदि गल गये सम्यक् सम्मिश्य तद्रक्षेद् भाजने मृन्मये नवे ।। हों और कीडे पड गये हों मांस भी गल गया हो ! प्रभाते भक्षिते जीर्णोऽमृतमल्लातकाभिधम् । इससे, जिस प्रकार वर्षा जलसिञ्चित वृक्ष पुनः अवलेहं समश्नीयात् पलमा जलेनहि ॥ अङ्कुरित हो जाता है वैसे ही इसको भी धीरे २ प्रकृत्या देहिनो यस्य सहतेऽरुष्करो न चेत् । . आराम हो जाता है। इसका सेवन करने वाला सोऽरुष्करस्य संसर्ग सदा दुरात्परित्यजेत् ॥ स्वर में ऊंट और मोरों को, बल में हाथी भल्लातकावलेहोऽयं वातरक्तान्त कन्मतः।। और गति मे घोड़ों को जीतने वाला हो जाता चातरक्तसमुद्भूतान विकारानानु नाशयेत् ।। है । इस रसायन के सेवन से वृहस्पति के समान ! कुष्ठानि सकलान्येव दुर्नामानि हरेदयम् । बुद्धि वाला हो जाता है, विशाल ग्रंथो को तथा विसर्प मण्डलं कण्डं शमयेदेष सेवितः ॥ पुनरूक्ति दोषों को शीत्र ही ग्रहण कर लेता है विकारान्वातिकान्सस्तिथा रुधिरसम्भवान् ।
और यह शक्ति फिर नष्ट नही होती, जो बुद्धिमान हरत्येव प्रयोगोऽयं यत्नतः सेवितः सदा ॥ इस का कल्प करता है वह १०५ वर्ष तक जीता व्यायाममातपं वह्निमम्लं मांसं दधि स्त्रियम् । है । यह योग भगवान अगस्तजीने सब रसायनो तैलाभ्यङ्गं तथा ध्यानं नरी भल्लातके त्यजेत् ॥ का राजा बताया है।
पानीमें डूब जाय ऐसे भिलावे हितकर होते [१४६] अमृतभल्लातक्यावलेहः हैं । ऐसे मिलावे २ सेर लेकर १-१ के दो दो (वृ. नि. र. वा. र.)
दल करके ३२ सेर पानीमें चढावे और उसमें निमञ्जन्ति जले यास्तु भल्लात्तक्यश्च ता हिताः का २ सेर गिलोय डालकर पकावे । ताच सवा विधातव्याः साछनमुखमुद्रिका ॥ चतुर्थाश रहने पर उतारे और छान कर गाढ़ा तासां प्रस्थद्वयं छित्वा द्विजलद्रोणे परिक्षिपेत् । करके उसमें सोंठ, गिलोय, हैड, बावची, पवांड, प्रस्थद्वयं गुडूच्याश्च क्षुण्णं तत्राम्भसि क्षिपेत् ॥ नीम चतुर्थाशावशेषन्तु कषायमवतारयेत् । सोंठ, पीपल, अजवायन, संधानमक. नागरवस्त्रपूते कषाये च वक्ष्यमाणानि निक्षिपेत् ॥ मोथा, दालचीनी, इलायची. नागकेशर, पित्तसर्वाण्येकत्र भाण्डे तु पचेन्मृद्वग्निना शनैः। पापडा, तेजपात, सुगन्धवाला, स. चन्दन, सर्वद्रव्ये घनीभूते पावकादवतारयेत् ॥ | गोखरू, कचूर और लाल चन्दन, प्रत्येक का तत्रक्षेप्याणि चूर्णानि ब्रूमो विश्वाऽमृता। २॥२॥ तोले का चूर्ण डाल कर खूब मिलावे बाकुची चर्कमर्दश्च पिचुर्मदो हरीतकी ॥ फिर मिट्टी के नथे बरतन में रवखे । मात्रा.५ तोला
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(५०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
प्रातःकाल खावे। अनुपान-पानी । जिन्हे प्रकृति से तत्सप्तराबादतिजातवीर्य ही भिलावा अनुकूल न आता हो उन्हे भिलावेका सुधारसाप्यधिकं वदन्ति ॥ संसर्ग दूर से ही छोड़ देना चाहिए । गुण-वात | प्रातः प्रबुद्धः कृतदेवकार्यों रक्त और तजन्य अन्य विकार, सब प्रकारके कुष्ट, । मात्रां भजेत्सात्म्यशरीरयोग्याम् ॥ बवासीर, विसर्प, खुजली, मण्डल तथा वायु | न चानुपाने परिहार्यमस्ति और रक्त के सब विकारोंको नाश करता है। नचातपे नाध्वनि मैथुने च । व्यवहारिक मात्राः-१ तोला । भिलावा सेवन यथेष्टचेष्टो विचरेत्प्रयोगाकरने के दिनों में व्यायाम, धूप, अग्नि खटाई, नरो भवेत्काञ्चनराशिगौरः ॥ मांस, दही, स्त्रीप्रसंग, तेल मर्दन और ध्यान इन अनेन मेधानरसिंहवीर्यो वस्तुओं से परहेज़ करना चाहिये।
दृढेन्द्रियो व्याधिगतः सुबुद्धिः। [१४७] अमृतभल्लातकः (यो. र. वा. र.) दन्ता विशीर्णाः पुनरेव दिव्याः मल्लातकानां पवनोद्धृतानां
केशाश्व शुभ्राः पुनरेव कृष्णाः ॥ तरुच्युतानां च यदाढकं स्यात् ।
नीलाञ्जनालि प्रतिमा भवन्ति घृष्ट्वेष्टिकाचूर्णकणैजलैश्च
त्वचो विशीर्णाः पुनरेव भव्याः। प्रक्षाल्य संशोध्य च मारुतेन ॥
विशीर्णकर्णाङ्गुलिनासिकोऽपि शुष्काणि तानि द्विदली कृतानि
कृम्यदितो भिन्नगलोऽपि कुष्ठी ॥ विपाचयेदप्सु चतुर्गुणासु। शुष्कः पुनःस्याद्तमूलशाखतत्पादशेषं पुनरेव शीतं
स्तरुयथा भाति नवाम्बुसिक्तः । क्षीरेण तुल्येन विपाचयेत्तत् ।। बृहस्पतेरप्यधिको हि बुद्धया तदर्धया शर्कराया विमिथ्य
__ग्रन्थं विशालं च नवं करोति ॥ पश्चात्खजेनोन्मथनं विधाय ।
गृह्णाति सद्यो न च विस्मृति च सत्र्यूषणं त्रैफलचन्द्रमांसी
करोति कल्पायुरनल्पवीर्यम् । त्रिच्च वांशी खदिरामृतं च ॥ कुर्वभिम कल्पमनल्पबुद्धिसचन्दनाकल्लकणाकवावं
जीवेनरो वर्षशतं सुखी स्यात् ॥ सदेवपुष्पं मुसलीद्वयश।
पवन से गिरे हुवे और डंठल से पृथक हुवे कहोलमोचालयदीप्ययुग्म
भिलावे ४ सेर लेकर ईट के चूर्ण के कणो में नतं समातङ्गकणा विदारी॥ मसल कर जल से धोकर वायु में सुखावे, सूखने जातेफलं मुस्तक जातिपत्री
पर उनके दो दो दल करके चार गुने पानी में कुबेरजीरागुरु साधिशोषम् । | पकावे फिर चतुर्थाश रहने पर ठंडा करके समान मेदाद्वयं लोहं रसेन्द्रवङ्ग
भाग दूध डालकर तथा चतुर्थीश घृत मिलाकर मनं तथा कुङ्कुमकं च कर्षम् ॥ 'घृतावशेष पकावे फिर उससे आधी चीनी डाल कर
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अकारादि-अवलेह
(५१)
-
घी में आलोडन करे फिर उसमें त्रिकुटा, त्रिफला, । षडूषण, पांचों नमक, हींग, यवक्षार, सुहागा, जीरा, कपूर, जटामांसी, निसोत,बंसलोचम, खैरसार, शुद्ध | अजमोद प्रत्येक १-१ भाग, निसोत सबका आधा। विष(वत्सनाभ), चन्दन, अकरकरा, पीपल, कबाब | इनका महीन चूर्ण करके कपडे में छानकर चूकेके चीनी, लौंग, दोनों प्रकार की मूसली, कंकोल, | रसमें घोटकर उन हैड़ों के बीचमें बीजोंके स्थानमें मोचरस, सफेद जीरा, काला जीरा, तगर, गज | भरकर डोरेसे बांधकर सुखा देवे । इसमें से प्रति पीपल, विदारी कन्द, जायफल, नागरमोथा, जावित्री, | दिन १ हैड़ खानेसे मन्दाग्नि, उदरविकार, शूल, करंजबीज, जीरा, अगर,समंदरशोष, मेदा, महा मेदा, ग्रहणी, मस्से, अफारा और आमबातका नाश लोहभस्म, रससिंदूर, बंगभस्म, अभ्रकभस्म और | होता है । केसर प्रत्येक ११-१। तोला लेकर पहिले चूर्ण बनावे । [१४९] अमृताख्या हरीतकी फिर घृतमें डाल कर भली प्रकार मिलाकर सातदिन
(र. रा. सु. पां. चि.) तक रक्खा रहने दे इस प्रकार जातवीर्य होने पर | शतावरी भृङ्गराजपुनर्नवकुरण्टकः । यह अमृतसमान गुणदायी हो जाता है। मात्रा | प्रतिसप्तपलं द्रव्यं जले क्वाथ्यं चतुर्गणे॥ गुणपथ्यादि नं. १४६ के अनुसार । पादशेषं कषायं तं वस्त्रपूतं समाहरेत् । [१४८] अमृतहरीतकी
हरीतकीफलं तस्मिन् षष्टयाधिकशतत्रयम् ।। __(यो. र. अ. चि.)
पाचयेच्छोषयेत्पश्चाविंशदुग्धपलैः पयेत् । तके समुत्स्वेध शिवा शतानि, भित्वा निवारयेद्दण्डं तद्गर्भे च क्षिपेदिदम् ।।
तद्वीजमुद्धृत्य च कौशलेन । षट्पलौ रसगन्धौ द्वौ सुपात्रे च क्षणं पचेत् । षडषणं पञ्चपटूनि हिङ्गु,
उत्तार्य चालयेत्तावद्यावत्कठिनतां प्रजेत् ॥ क्षारावजाजीराजमोदकश्च ॥ चूर्णयित्वामृतासत्वपलान् सप्त विमिश्रयेत् । पडूषणादेखिदई भागं,
मधुना वटिकाः कार्याः षष्ठयधिकशतत्रयम् ।। गणे प्रदेयं पटगालितस्य । एकैकां यमयागर्भे कृत्वासूत्रेण वेष्ठयेत् । विभाव्य चुक्रेण रजांस्यमीषां, मधु भाण्डे क्षिपेत्पश्चादेकैकं भक्षयेदिनम् ॥
क्षिपेच्छिवावीननिवासगर्भ ।। शुष्कपाण्डहरा सम्यगमृताख्या हरीतकी । सम्मुद्रय धर्मेषु विशोष्य तासां, ___ शतावर, भांगरा, पुनर्नवा, कुरंटक, प्रत्येक
हरीतकीमन्यतमा निषेवेत् । ३५ तोला, चारगुने जलमें पकाकर चौथा भाग अजीर्णमन्दानलजाठरामयान् ,
रहनेपर कपड़े छान ले । फिर उसमें ३६० हैड समूलशूलग्रहणीगुदाकुरान् ।। डालकर पकावे और सुखाकर फिर उन्हें १५० तोला विबन्धमानाहरुजो जयत्यसौ, दूधमें पकावे । फिर उनकी गुटली निकालकर उनके
तथामवाताममृताहरीतकी ॥ भीतर नीचे लिखी गोलियां भरे-शुद्ध पारा ३० तोला, १०. हैडों को तक्रमें पकाकर मुलायम होने शुद्ध गन्धक ३० तोला (कज्जली करके) किसी स्वच्छ पर उनकी गुठली कुशलतापूर्वक निकाल डाले फिर ' पात्रमें थोड़ी देर तक पकावे फिर उतारकर उस समय
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(५२)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
तक चलाता रहे जब तक कि कठिन न हो जाय | अजमोद (अजवायन), लोहभस्म, अभ्रकभस्म, कठिन होनेपर चूर्ग करके इसमें ३५ तोला गिलोयका काकडासांगी, कायफल, नागरमोथा, इलायची, सत मिलाकर मधुमिश्रितकर ३६० गोलियां बनावे । | जायफल, जटामांसी, तमालपत्र, तालीस पत्र, इनमें से प्रत्येक हैड़में १-१ गाली भरकर उस पर | नागकेशर, अजवायन, कचूर, मुल्हेटी, लौंग और होरा लपेट दे । इन हैड़ोंको शहदमें डालदे और | लाल चन्दन । सब समान भाग, सोंठका चूर्ण इसमें से प्रतिदिन १-१ सेवन करे तो शुष्क पाण्डु | सबके बराबर, मिश्री सबसे दो गुनी, गायका दृध रोगका नाश होगा।
४ गुना मिलाकर विधिवत पाक बनावे । मात्रा-१ [१५०] अमृताधवलेहिका । तोला, पानी या दूधके साथ । गुण-अम्लपित्त, - (या. र. वा. र.)
अरुचि, शूल, हृद्रोग, वमन,कण्ठदाह, हृदयकी जलन, अमृताकटुकाशुण्ठी यष्टीकल्कं समाक्षिकम् । ।
| शिर शूल, मन्दाग्नि, हृदय, पार्श्व, कोख, बस्तिका गोमत्रपीतं जयति सकफ वातशोणितम् ॥ शूल और गुदाकी पीडाका नाश करता है तथा
गिलोय, कुटकी, सोंठ और मुल्हेठीका कल्क | बल और पुष्टि देता है विशेषकर अम्लपित्त, शहद में मिलाकर चाटे और ऊपरसे गोमूत्र पीवे तो मूत्रकृच्छ, ज्वर और भ्रम का वैसे ही नाश करता कफप्रधान वातरक्तका नाश होता है।
है जैसा सूर्य अन्धकार का। [१५१] अम्लपित्तहरपाकः
[१५२] अश्वगन्धापाकः (१)
___ (यो. र., वृ. नि. र.) त्रिकटुत्रिफलाभृङ्गजीरकद्वयधान्यकम् । कुष्ठाजमोदलोहाभं शृङ्गीकट्फलमुस्तकम् ॥ पलान्यष्टावश्वगन्धां विपाच्य एला जातीफलं मांसी पत्रं तालीशकेशरे । ___ दुग्धे षट्शेरके मन्दवहौ। गन्धपत्राशटी यष्टी लवङ्गं रक्तचन्दनम् ॥ दालेपो यावदास्ते सुपक्क एतानि समभागानि शुण्टीचूर्ण तु तत्समम् ।। चातुर्जातं क्षिप्य कर्पप्रमाणम् ॥ सिता द्विगुणिता तत्र गव्यक्षीरं चतुर्गुणम् ।। जातीजातं केशरं वंशसत्वंनोलप्रमाणं दातव्यं क्षीरेणापि जलेन वा। ____मोचं मांसी चन्दनं कृष्णसारम् । अम्लपित्तं निहन्त्येतदरोचकनिदनम् ।। पत्रीकृष्णापिप्पलीमूलदेवशूलहृद्रोगवमनं कंठदाहं नियच्छति। ___ पुष्पं ककोलालिका क्षोटसारम् ।। हहाहं च शिरः शूलं मन्दाग्निं च विनाशयेत् ।। भल्लीबीजं शृङ्गटं गोक्षुराख्यंशुलं हत्पार्श्वकुक्षिस्थं पस्तिशूलं गुदेरुजम् । सिन्दूरानं नागवङ्गं च लोहम् । बलपुष्टिकरं चैव वशीकरणमुत्तमम् ॥ कर्षाद्धि सर्वचूर्ण प्रकल्प्य. विशेषादम्लपित्तं च मूत्रकृच्छं ज्वरं भ्रमम् । संशोप्याथो शर्करापक्कपाके ॥ निहन्ति नात्र सन्देहो भास्करस्तिमिरं यथा । पक्वा शीतं फारयेदश्वगन्धा
त्रिकुटा, त्रिफला, दोनों जीरे, धनियां, कूट, पाकोऽयं वै हन्ति मेहानशेषान् ।
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अकारादि-पाक
(५३)
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ज्वरं जीणे शोषगुल्मान्विकारान्- पूर्व क्वथित दुग्धेन क्षिप्त्वा चूर्ण पवेद्भिषक् ।
पैचान्वाताञ्छुक्रवृद्धिं करोति ॥ दार्वीप्रलेपसंजाते चातुर्जातं विमुश्चयेत् ॥ पुष्टिं दद्यादग्निसंदीपनोऽयं
यजातं तण्डुलाकारं तावन्निष्पन्नमाचरेत् । कान्ति कुर्यात्सौमनस्यं नराणाम् ॥ पयोमुक्तं घृतं दृष्ट्वा तावदुत्तारयेत्ततः ॥
आध सेर असगन्धको ६ सेर दूधमें उस वक्त | ग्रन्थिकं जीरकं छिन्ना लवंग तगरन्तथा । तक मन्द अग्निपर पकावे जबतक कि करछीको न जातीफलमुशीरश्च वालुकं मलयोद्भवम् ॥ लगने लगे, फिर चातुर्जीत १। तोला, जायफल, श्रीफलाम्भोरुहं धान्यं धातकी वंशलोचनम् । केसर, वंसलोचन, मोचरस, जटामांसी, चन्दन, | धात्री खदिरसारश्च घनसारं तथैव च ॥
खैरसार, जावित्री, पीपल, पीपलामूल, लौंग, कंकोल, पुनर्नवाजगन्धा च हुताशन शतावरी । पाढल, अखरोटकी गिरी, भिलावा, सिंघाडा, गोखरू, मात्रा गद्याणकांचैव द्रव्याणामेकविंशतिः । रससिन्दूर, अभ्रकभस्म, नागभस्म, बङ्गभस्म, सूक्ष्मं चूर्णकृतं चैव योगेयस्मिन् विनर्दिशेत् ।
और लोह भस्म प्रत्येक का चूर्ण ७।-७।। मासा पश्चात्सुशीतलं कृत्वास्निग्धमाण्डेनिधापयेत् ॥ मिलाकर सबको खांडकी चासनीमें डालकर यथा- | पलार्द्धमपि भुजित यदृच्छाहारभोजनः । विधि पाक बनावे । पकने पर इसे ठंडाकर रखे । कासं श्वास तथा हन्यादजीर्ण वातशोणितम् ॥ यह अश्वगंध पाक सब प्रकारके प्रमेह, जीर्ण व्वर, | प्लीहानं मदश्च मेदश्च आमवातं च दुजेयम् । शोष, गुल्म और वायुपित्तके रोगोंका नाश करता है
शोफ शूलश्च वातार्शः पाण्डुरोगं च कामलाः॥ तथा इसके सेवनसे शुक्रवृद्धि, कान्तिवृद्धि, पुष्टि,
ग्रहणीं गुल्मरोगश्च अन्यं वातकफोद्भवम् । और अग्नि संदीप्त होती है।
विकारो विलयं याति यथा सूर्योदये तमः ॥ [१५३] अश्वगन्धपाकः (२) (यो. चि.)
एकमासप्रयोगेण वृद्धः संजायते युवा । पूर्व कृत्वाऽश्वगन्धायाश्चूर्ण दश पलानि च ।
मन्दाग्नीनां हितं बल्यं बालानाश्चाङ्गवर्द्धनम् ॥ तदद्ध नागरं चूणे तस्याओं पिप्पली शुभा ॥
स्त्रीणाश्च कुरुते पुष्टिं प्रसवेस्तन्य वर्द्धनम् । मरिचानां पलं चैकं सूक्ष्मं चूर्णन्तु कारयेत् ।
यावत्स्तन्यं भवेस्तोकं तावदुग्धयुतं पिबेत् ॥ त्वगेलापत्रपुष्पाणि चैकैकन्तु पलं पलम् ।।
क्षीणानाञ्चाल्प वीर्याणां हितं कामाग्निदीपनम् । तुलाई महिषीदुग्धं तस्यास्य च माक्षिकम् । माक्षिकाई धृतं गव्यं खण्डादशपलानि च ॥
सर्वव्याधिहरं श्रेष्ठं योग सर्वोत्तमं विदुः॥ पयः खण्डाज्य माक्षिकं चत्वार्येका कारयेत् ।
____ असगन्धका चूर्ण ५० तोला, सोंठका चूर्ण कटाहेमृन्मये क्षिप्त्वा पाचयेन्मृदुवह्निना ॥
२५ तोला, पीपलका चूर्ण १२॥ तोला तथा काली
| मिर्च चूर्ण ५ तोला, दालचीनी, इलायची, तेजपात कुशानुज्वालयेतावद्यावदुत्कलितं भवेत् ।। अश्वगन्धादिकं चूर्ण किञ्चित दग्धेन पाचयेत ॥ और लौंग, प्रत्येक ५-५ तोला ले। फिर ६। सेर
भैसका दूध औटाकर उसमें ३ सेर १० तोला १ चातुर्जात-दालचीनी, तेजपात, नागकेशर, इलाययी।
शहद और १ सेर ४५ तोला घी, ५० तोला खांड
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(५४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
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लेकर इन चारों को एकत्र मिलाकर मिट्टीके बरतन विचूर्ण्य लेहयेद् युक्त्या क्षौद्रेणा रसेन वा ॥ में मन्दाग्नि पर पकावे । जब उबाल आ जाय तो | अष्टांगाख्यमिदं हन्ति सन्निपातं सुदुर्जयम् । अश्वगन्धा आदि के उपरोक्त समस्त चूर्ण को थोडे | प्रमेहं श्वासं कासश्च तन्द्राहिक्कागलग्रहान् ।। दूधके साथ पकाकर इसमें डालदे और फिर मन्दा- उर्द्धगश्लेष्महरणे उष्णे स्वेदादि कर्मणि । ग्नि पर इतना पकावें कि करछी से लगने लगे तत्प- विरोध्युष्णे मधुत्यक्त्वा कार्यैषाकज रसैः॥ श्वात् उसमें चतुर्जातका चूर्ण २ तोला डालकर कायफल, पोखरमूल, काकड़ा सींगी, त्रिकुटा, पकावे जब उसमें चावलके समान दाने पड़ने लगे धमासा, काली जीरी, इनका चूर्ण बनाकर मधु वा और घी अलग होने लगे तो उतार कर पीपलामूल, ! अद्रकके रसके साथ चाटने से दुर्जय सन्निपात, जीरा, गिलोय, लोंग, तगर, जायफल, खस, प्रमेह, श्वास, खांसी, तन्द्रा, हिचकी, गलग्रह सुगन्धवाला, सफेद चन्दन, बेलगिरी, कमल, आदि का नाश करता है और ऊर्ध्वजत्रुगत कफको धनियां, धायके फूल, वंसलोचन, आमला, खैरसार, निकालनेके लिए उष्ण स्वेद आदि देना हो तो फपूर, पुनर्नवा, *वनतुलसी, चीता, शतावर, प्रत्येक | मधुमें न देकर यह अवलेह (या कोई भी औषध) चीज ०।-०॥ तोला लेकर महीन चूर्ण करके मिलावे | अद्रकके रसमें देनी चाहिए क्यों कि मधु और और ठण्डा होने पर चिकने वर्तनमें भरकर रखे । उष्ण क्रियाका परस्पर विरोध होता है । यथा इच्छा भोजन करते हुए २॥ तोला प्रतिदिन
[१५५] अहिफेन पाकः (यो. चि.) खानेसे खांसी, श्वास, अजीर्ण, वातरक्त, तिल्ली, मद, मेदरोग, दुर्जय आमवात, शोथ, शूल, बादी,
आकल्लक केशरदेवपुष्पं, बवासीर, पाण्डु, कामला, ग्रहणी, गुल्म और अन्य जातीफलं भङ्गं सहसपाकम् । वायु और कफ से होने वाले रोगोंका इस प्रकार एतानि कुर्वीत समानि विद्वान्, नाश होता है जैसे सूर्योदय से अंधकार । इसका मूलार्द्धमागं क्षिप नागफेनम् ॥ एक मासपर्यन्त सेवन करनेसे वृद्ध युवा वन जाता क्षीरेण फेनं परिपच्य बध्वा, है। मंदाग्मि वालों के लिये हितकर, शक्ति उत्पन्न म्लासितां षड्गुणमानयोग्या। करनेवाला तथा बालकों के शरीरों को बढानेवाला, विमर्च कुर्याद् गुटिका निशायां, स्त्रियों की पुष्टि करनेवाला प्रसवकालके स्तनोंमें मुखे कृते कामयते शतानि, दुग्ध वर्द्धक, जब तक दूध बढ न जावे तब तक प्रसेवनं यः प्रकरोति नित्यं, इसे दूध के साथ पीवे । क्षीण और अल्पवीर्य पुरुषों
दृढोन्नताङ्गः स च मानवः स्यात् । के लिए यह विशेष गुणकारी काम और अग्नि- समस्तमातंगबला सकामी, वर्द्धक है । यह सर्वव्याधिहर योग सर्वोत्तम है। । व्रजन्ति रोगाः क्षयजाश्च सर्वे ।। [१५४] अष्टाङ्गवलेहः (र. र.)
अकरकरा, केसर, लौंग, जायफल, भांग और कट्फले पौष्करं शृङ्गी व्योषं यासश्च कारवी। शुद्ध सिंगरफ सब समान भाग, अफीम अकरकरेसे *फरञ्ज मुश्क ।
आधी। अफीमको दूधमें पकावे जब सख्त हो जाय
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अकारादि-घृत
(५५)
तो उसमें उपरकी दवाइयां और अफीम से छः गुणी | और स्तम्भन होता है । इस दवाको नित्य सेवन करनेसे शरीर हृष्ट पुष्ट और बलवान होता है तथा क्षयज रोगोंका नाश होता है ।
चीनी मिलाकर मर्दन करके गोलियां बनावे | इन गोलियोंको रातमें मुंहमें रखनेसे कामशक्ति बढ़ती है ।
अथ अकारादि घृत प्रकरणम्
घृत व्याख्या
घृत पाक करनेमें सबसे पहिले घृत को मूर्च्छित किया जाता है, इसके बाद उसमें काथ, दूध, दही आदि द्रव पदार्थ और औषधियों का कल्क डाल कर पकाया जाता है फिर तैयार होने पर छान कर उसमें प्रक्षेप - द्रव्यों का चूर्ण डाला जाता है ।
मूर्छा-१ सेर घी को मंदाग्नि पर गरम करके फेन रहित होनेपर उसमें हैड़, बहेड़ा, आमला, हल्दी और नागरमोथा इन सबको ५ तोला लेकर बिजौरे के रस में पीस कर डाले । इससे घृत साफ, आमदोष रहित और वीर्यवान हो जाता है ।
काथ — घृत पाक के लिये जिन चीजों का क्वाथ बनाना हो वह सब मिला कर घृत से दो गुनी लेनी चाहियें और आठ गुने पानी में पका कर चौथा भाग शेष रहने पर छान लेना चाहिये । यदि क्वाथ्य द्रव्यों का परिमाण बहुत अधिक हो तो सब का क्वाथ एक साथ ही न बनाकर ६ - ६ । सेर द्रव्य लेकर कई बार में क्वाथ तैयार करे और सब क्वाथों को मिलाले । औषधि (क्वाथ्य द्रव्य) का परिमाण ६ | सेर हो तो जल ३२ सेर लेना चाहिये ।
दूध आदि - यदि केवल दूधसे ही घृत पाक करना हो और उसमें क्वाथ आदि अन्य द्रव पदार्थ न डालने हों तो दूध घृतसे आठ गुना लेना चाहिये और यदि अन्य द्रव पदार्थ भी डालने हों तो दूध घृत के समान लेना चाहिये । यदि ३ द्रव पदार्थों से घृत पाक करना हो तो इन्हें बराबर २ मिलाकर घृतसे चार गुना लेना चाहिये और यदि चार या चारसे अधिक द्रव पदार्थ डालने हों तो प्रत्येक पदार्थ घृत के समान लेना चाहिये । यदि केवल स्वरस, दूध और दही आदि से पाक करने के लिये लिखा हो तब भी स्नेह से चार गुना जल अवश्य मिला लेना चाहिये क्योंकि केवल दूध दही आदि से स्नेहका पाक भली भांति सिद्ध नहीं होता ।
कल्क – स्नेह में साधारणतः स्नेहका चौथा भाग कल्क डाला जाता है परन्तु यदि बासापुष्प आदि का कल्क डालना हो तो स्नेह से आठवां भाग लेना चाहिये । यदि केवल जलसे स्नेह सिद्ध करना हो तो कल्क चौथा भाग, क्वाथ से सिद्ध करना हो तो छटा भाग और स्वरस से सिद्ध करना हो तो आठवां भाग कल्क डालना चाहिये ।
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(५६)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
विशेष ज्ञातव्य-१-स्नेहका परिमाण न लिखा हो तो १ सेर स्नेह लेना चाहिये और उसमें उपरोक्त
परिभाषा के अनुसार क्वाथ, जलादि डालना चाहिये । २--उपरोक्त परिभाषाएं केवल उस स्थान के लिये हैं जहां द्रव्यों का परिमाण न लिखा हो, जहां
परिमाण लिखा हो वहां लेखानुसार ही सब पदार्थ लेने चाहियें चाहे परिभाषा इससे सहमत
हो या विरुद्ध । ३-यदि गोमूत्रादि क्षारयुक्त पदार्थों के साथ स्नेह पाक करना हो तो बहुत सावधानी रखनी
चाहिये कि कहीं स्नेह कड़ाही से बाहर न निकल जाए क्यों कि क्षार पदार्थों के योगसे स्नेह में
अत्यधिक झाग आते हैं। ४-जिस प्रयोगमें जितने स्नेह का पाक करने का विधान हो उतना ही लेना चाहिये उससे आधे
चौथाई या दो चार गुने स्नेह का पाक ठीक नहीं होगा। ५-जहां किसी गणकी समस्त औषधियां न मिल सकें वहां जितनी मिल जाएं उन्हीं से काम लेना चाहिये। ६–यदि स्नेह को दूधके साथ सिद्ध करना हो तो २ दिनमें, स्वरसके साथ सिद्ध करना हो तो.३
दिनमें और तक्र, कांजी आदि से सिद्ध करना हो तो ५ दिनमें पाक पूर्ण करना चाहिये अर्थात् पहिले दिन थोड़ी देर पका कर छोड़दे और फिर दूसरे दिन पकावे । इस प्रकार एक ही
दिनमें पाक सिद्ध न करके कइ दिनमें पूर्ण करने से स्नेह अधिक गुणवान बनता है। स्नेह सिद्धिके लक्षण-यदि स्नेह का कल्क अग्निमें डालने से किसी प्रकार का शब्द न हो तो स्नेह
को सिद्ध समझना चाहिये । घृत का पाक पूर्ण होने के समय खूब झाग उठते हैं। स्नेह पाक ३ प्रकार का होता है, मृदु, मध्यम और खर । यदि स्नेह का कल्क किञ्चित् रसयुक्त हो
तो उसे मृदु पाक और नीरस किन्तु कोमल हो तो मध्यम पाक और कठिन हो तो खर पाक
समझना चाहिये। इन तीनों प्रकारके पाकोंमें मध्यम पाक सर्वोत्तम और खर पाक निकृष्ट माना गया है परन्तु मालिशके
लिये खर पाक ही उत्तम होता है।
अकारादि घृत प्रकरणम् आर्द्रकखरसप्रस्थं घृतप्रस्थे विपाचयेत् । [१५६] अग्निघृतम् (१) (वृ. नि. र.) | एतदग्निघृतं नाम मन्दामिना प्रशस्यते ॥ पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रकं गजपिप्पली। अर्शसां नाशनं श्रेष्ठं तथा गुल्मोदरापहम् । हिङ्गु चव्याजमोदा च पञ्चव लवणानि च ॥ | नाशयेद् ग्रहणीदोषं श्वयधुं सभगन्दरम् ॥ द्वौ क्षारौ हवुषा चैव दद्यादईपलोन्मिता। | ये च बस्तिगता रोगा ये च कुक्षिसमाश्रयाः। दधिकाञ्जिकसूक्तानि स्नेहमात्रासमानि च ॥ सर्वोस्तानाशत्याशु सूर्यस्तम इवोदितः ॥ ___नोट-घृत के समान ही तेलादि समस्त स्नेहोंका पाक किया जाता है केवल मूर्छा विधिमें अन्तर होता है जो तेलप्रकरण में लिखा जायगा।
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अकारादि- धृत
पीपल, पीपलामूल, चीता, गजपीपल, हींग, चव, अजमोद, पांचोनमक, साजीक्षार, यवक्षार और हाऊबेर । प्रत्येक २ ॥ - २॥ तोला, दही, कांजी, शुक्त और अद्रकका रस प्रत्येक १-१ सेर । सबको १ सेर घृत में यथाविधि पकावे । यह अग्निघृत मन्दाग्निवालों के लिए श्रेष्ट है। अर्श, गुल्म, उदररोग, ग्रहणी, सूजन, भगंदर, और बस्ति तथा कुक्षि के समस्त रोगों का नाश इस प्रकार होता है जिस प्रकार सूर्योदयसे अन्धकार का । [ १५७ ] अभिघृतम् (२) (ग.नि.) भल्लातकारपलशतं जलद्रोणे विपाचयेत् । चतुर्भागावशेषं तु कषायमवतारयेत् ॥ यूषणं पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली । हिङ्गु चव्याजमोदं च पञ्श्चैव लवणानि च ॥ द्वौ क्षारौ बुषा चात्र दद्यादर्द्ध पलोन्मिताम् । मस्त्वम्लरसचुक्राणां प्रस्थं प्रस्थं प्रदापयेत् ॥ आर्द्रकस्य रसमस्थं घृतप्रस्थं विपाचयेत् । एतदनिघृतं नाम मन्दाग्निनां प्रशस्यते ॥ अशसि वातरोगं च प्लीहोदरजलोदरम् । ग्रन्थ्यर्बुदापची शोफकुष्ठ मेदोऽनिलांस्तथा ॥ ये च कुक्षिगता शेगा ये च वस्तिसमाश्रिताः । तान्सर्वान्नाशयत्येतत्सूर्यस्तम इवोदितः ||
६ । सेर भिलावे लेकर ३२ सेर जलमें पकावे चौथा भाग रहने पर उतारले इस कषाय में त्रिकुटा, पीपलामूल, चीता, गज पीपल, हींग, चव, अजमोद, पांचों लवण, सज्जीखार, यवक्षार, हाऊबेर प्रत्येक २॥ २॥ तोले का कल्क, मस्तु, कांजी, चुक और अद्रकका रस प्रत्येक १ – १ सेर मिलावे और इसमें १ सेर धृत मिलाकर पाक सिद्ध करे । यह अग्निघृत मन्दाग्निवालों के लिए अत्यन्त हितकारी है। इसके सेवन से अर्श, वात व्याधि, प्लीहोदर,
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(५७)
जलोदर, ग्रन्थि, अर्बुद, अपची, शोथ, कुष्ठ, मेद और बस्ति तथा कुक्षिगत रोग इस प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार सूर्योदयसे अन्धकार | [१५८] अभिघृतम् (३) (ग.नि.) चतुष्पलं चव्यचित्रकपाठा, तेजस्विनी पिप्पलिमूलमेदाः । दद्याच सुस्ता त्रिफलं विशुद्धं,
मुष्टिं समग्रामथ पल्लवानाम् ॥ आस्फोटजातीमथ सप्तपर्ण,
पटोलशा खोटकनक्तमालम् । निम्बं प्रदद्यादथ कल्कम स्मि अधिश्राम कटाहे || सुक्कथितं द्रोणजालेन पूर्ण, पादावशिष्टं पुनरुद्धरेत् । पलार्द्ध तुल्यातिविषा सभद्रा, कल्कीकृतानि द्विपलानि दद्यात् ॥ सयावशूकं विडसैन्धवं च,
पलानि चत्वारि च पिप्पलीनाम् । कल्कैः कषायेण च सिद्धमेत
न्मृद्वग्निसिद्धं ह्यवतारयेत्तत् ॥ पिबे जीर्णे तु घृतस्य कर्षे,
विष्टम्भदोषे द्विगुणं पिबेन्च | अनेन सर्वे ग्रहणी विकाराः, शाम्यन्ति गुल्माश्च बहुप्रकाराः ॥ विंशत्क्रिमीणामथ जातयश्च,
शाम्यन्ति सर्वा विविध प्रयोगात् । पांवामयलीहगरोद्भवाथ,
रोगा भविष्याश्च शमं ब्रजेयुः ॥ सेवेत मद्यं पिशितानि चैव,
विवर्जकः स्यादपतर्पणस्य । नाम्ना तदप्यग्नि घृतं प्रसिद्धं, as च सन्दीपयति प्रसह्य ||
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(५८)
भारत-मैषज्य-रत्नाकर
चव्य, चित्रक, पाठा, वचा, पिप्पलीमूल, । कल्कैरेषां घृतं सिद्धमजेयमिति विश्रुतम् । मेदा, नागरमोथा, त्रिफला, पाढल, अस्कोता के विषाणि हन्ति सर्वाणि शीघ्रमेवाजित क्वचित् ।। पत्ते, चमेली के पत्ते, सतौना, पटोल पत्र, सहारा, मुल्हैठी, तगर, कूठ, देवदारु, रेणुका, पुन्नाग कर तथा नीम के पत्ते प्रत्येक का अधकुटा चूर्ण | (सुलतान चंपा), इलायची, एलवालक, नाग केसर, २०-२०तोले लेकर ३२ सेर जलमें तांबे के कढाव | नीलोफर, मिश्री, वायबिडंग, चन्दन, तेजपात, फूल, में पकावे, जव चतुर्थीश रह जाय तो उतार कर प्रियंगू , रोहिषतृण, हल्दी, दारु हल्दी, कटेली, छानले, और फिर उसमें निम्नलिखित द्रव्यों का बडी कटेली, दोनों सारिघा, शालपर्णी और माषकल्क तथा घृत मिलाकर घृत सिद्ध करे। कल्क | पर्णी या घृतकुमारी। इनके कल्क से सिद्ध घी द्रव्यः-अतीस और नागरमोथा २।।-२॥ तोले,
शीघ्र ही सब प्रकार के विषों का नाश करता है । यवक्षार, विडनमक, सैंधानमक १०-१० तोले । [१६१] अमृत घृतम् और पीपल २० तोले।
(च. सं. चि. अ. २३. विषचिकित्सा) ___इस घृत की मात्रा १। तोला है तथा वि- | शिरीषत्वक् त्रिकटुकं त्रिफला चन्दनोत्पले। ष्टम्भ दोष (विबंध) में २ तोले सेवन करे। वे बले शारिवास्फोता सुरभी निम्ब पाटला|| ____ इसके सेवन से सब ग्रहगिविकार, अनेक धन्धुजीवाडकीपूर्वावासासुरसवत्सकान् । प्रकार के गुल्म, वीस प्रकारके कृमि, पाण्डु, प्लीहा पाठांकोलाश्वगन्धाके मूलयष्टथापनकान् ।। और विषरोगों का नाश होता है। इसका सेवन । | विशाला बृहतीं लाक्षां कोविदारं शतावरीम् । करते हुए मध और पिडीका सेवन भी कर सकते कटभीदन्त्यपामार्गान् पृश्निपर्णी रसाञ्जनम् ।। हैं। अपतर्पण का त्याग करना चाहिए। यह |
| श्वेतभण्डाश्वखुरको कुष्ठदारु प्रियङ्गुकान् । अग्निघृत अग्नि को दीप्त करता है। विदारी मधुकात्सारं करजस्य फलं वचाम् ।। [१५९] अजापञ्चकघृतम् (भै. र. क्षय) | रजन्यो लोधमक्षांशं पिष्ट्वा साध्यं घृताटकम् । छागशद्रसमूत्रक्षीरदध्ना च साधितंसर्पिः। तल्याम्बुछागगोमच्याढके तद्विक्षापहम् ।। सक्षारं यक्ष्महरं श्वासकासोपशान्तये परमम् ।। | अपस्मारक्षयोन्मादभृतग्रहगरोदरम् ।
. बकरी की मांगनियों का रस, बकरी का | पाण्डुरोगान् क्रिमीन्गुल्मान् मूत्र, दूध, और दही तथा यवक्षारके ककसे
प्लीहोरुस्तम्भकामलाः॥ बकरीका घृत सिद्ध करे इसके सेवन से यक्ष्मा | हनुस्कन्धग्रहादींव पानाभ्यञ्जननावनैः । श्वास और खांसी में अत्यन्त शान्ति मिलती है। हन्यात्सञ्जीवयेच्चापि विपोद्वेगमृतानरान् ।।
[१६०] अजेयघृतम् (सु. सं.) नाम्नेदममृतं सर्व विषाणां स्याद् धृतोत्तमम् ।। मधुकं तगरं कुष्ठं भद्रदारु हरेणवः ।। सिरसकी छाल, त्रिकुटा, त्रिफला, सफेद पुमागैलैलवालूनि नागपुष्पोत्पलं सिता ॥ चन्दन, नीलोफर, बला, अतिबला, शारिवाx आविडङ्गं चन्दनं पत्रं प्रियङ्गामकं तथा। स्फोता, सुरभी (तुलसी), नीमकी छाल, पाढल, हरिद्रे द्वे बृहत्यौ च सारिवे च स्थिरा सहा ॥। हाफरमालीति अंगे।
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अकारादि-वृत
(५९)
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बन्धुजीव (गुलदुपहरी), अरहर, मूर्वा, वासा, [१६३] अमृतादि घृतम् (१) तुलसी, कूड़ा, पाठा, वेर, असगन्ध, आक की
(र. र. वातर.) जड़, मुल्हैठी, पद्माख. इन्द्रायन, कटेली, लाख, अमृतायष्टिकाश्मर्यद्राक्षान्दारग्वधामरैः । *कोविदार, शतावर, कटभि (कप्टक शिरीष), दन्ती, गोक्षुरेक्षुरवृश्रीरवृद्धदारबलावृषः ।। अपामार्ग, पृष्ठपर्णी, रसौत, सफेद कोयल, नखी, | रास्नैरण्डवरातिक्ताभीरुशुण्ठीकणोत्पलैः। कूठ, देवदारु, फूलप्रियंगु, विदारी कन्द, मुल्हैटी | धात्रीरससमं सर्पिः साधितं त्रिगुणे जले ॥ का सार, करंजवेके फल, बच, हदी. दारु हल्दी, गम्भीरोत्तान वातास्त्रं त्रिकजचोरुजानुजम् | लोध्र प्रत्येक ११-१। तोला, इन को पीसकर इस
हन्त्युग्रं क्रोष्टुशीप च रुगाहं सानिलं ज्वरम् ।। कल्क और ४ सेर पानी, बकरी का मूत्र तथा मेदोदावर्तबध्नादीनिदमायुबलपदम् ।। गोमूत्र प्रत्येक १२--१२ सेर के साथ ४ सेर
गिलोय, मुल्हैठी, खंभारी, दाख, नागरमोथा, घीका पाक सिद्ध करे। यह धी विष नाशक,
अमलतास का गूदा, देवदारु, गोखरू, तालमखाना, अपस्मार, क्षय, उन्माद, भूतबाधा, ग्रहरोग, गर
श्वेत पुनर्नवा, विधारा, बला, बासा, रास्ना, एरण्ड विष विकार, उदररोग, पाण्डुरोग, कृमिरोग, गुल्म, प्लीहा, उरुस्तम्भ, कामला, हनुग्रह, स्कन्धग्रह
मूल, त्रिफला, कुटकी, सतावर, सोंठ, पीपल, और आदिको पीने या अभ्यंग करने या नस्य लेनेसे
नीलोफर, इनके कल्क और धी तथा घी के बराबर आराम करता है यह घृत विषवेगसे मृत प्राणीको
आमले के रस में ३ गुना पानी मिलाकर यथाभी जीवित कर देता है।
| विधि घृत बनावे । [१६२] अमृतषट्पलघृतम् (वृ. नि. र.) यह घृत त्रिक, जचा और जानु तक फैले नागरं चविका क्षारः पिप्पलीमूल चित्रकम। हुवे, गम्भीर तथा उत्तान वातरक्त, उग्र कोष्ट. कृष्णा च पलिकान भागान घृतप्रस्थं विपाचयेत॥ शीष, रुग्दाह सन्निपात. वातज चर, मेद, उदावर्त
| और बद आदि का नाश करता है तथा आयु और भृङ्गवेररस प्रस्थं मधुप्रस्थं तथैव च। एकाहिक द्वयाहिकं च व्याहिकं च चतुर्थकम् ।। बल वर्द्धक है । एतान्सर्वज्वरान्हन्ति स्थूलं च कुरुते भृशम् ।। १६४] अमृतादि घृतम् (२) (वृ.नि.र.) दुर्नामश्वासकासनं वलवर्णाग्निवर्द्धनम् ॥ अमृता त्रिफला पटोलयासैः,
सोंठ, चव्य, यवक्षार, पीपलामूल, चीता, ___संपाविधिवद्धृतं विपक्वम् ।। और पीपल, प्रत्येक ५-५ तोला, धृत १ सेर, | विषमज्वरनाशनं प्रधानं, अद्रकका रस १ सेर, शहद १ सेर। यथाविधि
क्षयगुल्मारुचिकामलापहारि ।। घृतपाक करे । यह घृत दैनिक, तिजारी, चौथिया गिलोय, त्रिफला, पटोलपत्र, धमासा, और आदि ज्वर और बवासीर श्वास तथा खांसीका अमलतास इनके क्वाथ तथा कल्कसे सिद्धघृत नाश करता है तथा बल, वर्ण और अग्नि वर्द्धकहै। विशेषतया विषमञ्चर, तथा क्षय, गुल्म अरुचि *कालकचनार
। और कामला का नाश करता है।
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(६०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
[१६५] अमृतादि घृतम् (३) । उत्तानं वापि गम्भीरं त्रिकजबोरुजानुजम् ।
(वृ. नि. र., बं. से. वातर.) क्रोष्टुशीर्षे महाशूले चामवाते सुदारुणे ॥ अमृतायाः कषायेण कल्केन च महौषधम् । महारोगोपसृष्टस्य वेदना चाति दुस्तरा । मृद्वग्निना घृतं सिद्ध वातरक्तहरं परम् ॥ मूत्रकृच्छमुदावर्त प्रमेहं विषमज्वरान् । आमवाताळ्यवातादीन कृमिकुष्ठवणानपि। एतान्सर्वान निहन्त्याशु वातपित्तकफोत्थितान् । अशॉसि गुल्मांश्च तथा नाशयत्याशु योजितम्॥ सर्वकालोपयोगेन बलवर्णाग्निवर्द्धनम् ॥
गिलोय के कषाय और सोंठके कल्क से मृदु | अश्विभ्यां निर्मित श्रेष्ठं घृतमेतदनुत्तमम् ॥ अग्निपर सिद्ध घृत वातरक्त नाशक श्रेष्ठ तथा | गिलोय, मुल्हैठी, दाख, त्रिफला, सोंठ, खरैटी, आमवात, उरु स्तम्भ, कृमि, कुष्ठ, व्रण, अर्श, और बासा, अमलतास, सफेद पुनर्नवा, देवदारु, गोगुल्म रोग नाशक औषधि है।
खरू, कुटकी, पीपल, खम्भारी के फल, रास्ना, [१६६] अमृतादिधृतम् (४)
तालमखाना, एरण्डमूल, देवदारु, बला और नीलो___(वृ. नि. रयो. र. वातर.) | फर, इन सब के कल्क में १ सेर घृत को १ सेर अमृतायाः पलशतं जलद्रोणे सुशोषितम् । आमले के रस तथा ३ सेर दूध के साथ पाक घृतमयं विपक्तव्यं कल्कानष्टपलानि च ॥ करे। यह घृत पिलाने या भोजन के साथ सेवन चतुर्गुणेन पयसा वातासृक्कुष्ठनाशनम् ।। करने से बहु दोषोंसे उत्पन्न हुए प्रबल वातरक्त, कामलापाण्डुरोगनं प्लीहकासज्वरापहम् ॥ | जो जंघा, जानु और त्रिक तक फैल गया हो,
६। सेर गिलोय को ३२ सेर जल में पका- | चाहे उत्तान हो या गंभीर को नष्ट करता है इसके कर चौथाई रहने पर उस काढ़े और गिलोय के | अतिरिक्त यह क्रोष्टुशीर्ष, दारुण आमवात, कुष्ठा४० तोला कल्क तथा ८ सेर दूध के साथ २
| दि की भयंकर वेदना मूत्रकृच्छू, उदावर्त, प्रमेह,
दि की भयंकर वेदन सेर घृत सिद्ध करे। यह घृत वातरक्त, कुष्ठ, का-विषम ज्वर आदि का नाश करता और सर्व का. मला, पाण्डु, तिल्ली, खांसी, और ज्वर का नाश | लोपयोगी है तथा बलवर्ण और अग्नि की वृद्धि करता है।
करता है। इस श्रेष्ठ घृतका निर्माण अश्विनि[१६७] अमृतादिधृतम् (५) (वृ. नि. र.)
कुमारोंने किया था। अमृता मधुकं द्राक्षा त्रिफला नागरं बला। बासारग्वधवृश्चीरदेवदारुत्रिकण्टकम् ॥
[१६८] अमृतादि गुग्गुलु घृतम् (र.र.) कटुकारोहिणी कृष्णा काश्मर्याश्च फलानि च। अमृतवृषपटोलं चन्दनं मुस्ततिक्ता, रास्नाक्षुरकगन्धर्वदेवदारुबलोत्पलैः ॥ __ कुटजकुटजबीजं पूतनाकाण्डतिक्ता । कल्कैरेभिः समं कृत्वा सर्पिःप्रस्थं विपाचयेत् । दहनविटपिमूलं दीर्घमूला यवं च धात्रीरसः समो देयो पयस्त्रिगुणसंयुतः ॥ कलितरुफलधात्री सर्वतोभद्रविश्वम् ॥ सम्यक् सिद्धं च विज्ञाय भोज्ये पाने च शस्यते। समधरणधृतानां काथमादाय चैषां, महुदोषोत्थित्वं वातरक्तेन सह मूर्छितम् ॥ । विधिवदिति पचे सर्पिषः प्रस्थमेकम् ।
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अकारादि घृत
भिषगपि विधिपूर्व शोधयित्वा पुरस्य, कषाय एषां पेष्याणि जीवन्ती कटुरोहिणी।
वमुपलपरिमाणं कल्कमत्रैव दत्वा ॥ पिप्पली पिप्पलीमूलं नागरं सुरदारु च ॥ सुतिथिदिवसचन्द्रे भास्करं पूजयित्वा, | कलिङ्गाः शाल्मलं पुष्पं वीरा चन्दनमुत्पलम् ।
नयनगदगदी यः सपिरेतञ्च कुर्यात् ।। कटफलं चित्रकं मुस्तं प्रियंग्वतिविषास्थिराः ।। असितसितसमुत्थानबुंदान् काचशुक्रान् , पद्मोत्पलानां किंजल्कं समङ्गा सनिदिग्धिका । ___पटलतिमिररोगान् पिल्वकण्ड्वामयांश्च ॥ बिल्वं मोचरस: पाठा भागाः कर्षसमन्विताः॥ विविधनयनदोषानश्रुपातामवातान् , चतुः प्रस्थे शृतं प्रस्थं कपायमवतारवेत् ।
समशनदिनपूर्वो भोजनान्ते निहन्ति। त्रिंशत्पलानि प्रस्थोऽत्र विज्ञेयो द्विपलाधिकः ॥
गिलोय, बासा, पटोलपत्र, लाल चन्दन, सुनिषण्णकचातेयः प्रस्थो द्वौ स्वरस्य च । नागरमोथा, कुटकी, कूड़े की छाल, इन्द्रयव, हैड़, | सर्वैरेतैयथोद्दिष्टघृतप्रस्थं विपाचयेत ॥ चिरायता, चित्रकमूल, कालीसर, जौं, बहेड़ा, आ- एतदर्शस्यतीसारे रक्तस्रावे त्रिदोषजे। मला, खम्भारी और सोंठ प्रत्येक समान भाग प्रवाहने गुदभ्रन्शे पिच्छास विविधास च । मिलाकर क्वाथ वनावे । इनके क्वाथ तथा ४०
उत्थाने चातिबहुशः शोथशूले गुदाश्रये ॥ तोला शुद्ध गूगल के कल्क से १ सेर घी बिधिवत्
मूत्रग्रहे मूढवाते मन्देऽनावरुचावपि । पाक करके रक्खे । उत्तम तिथि और शुभ नक्षत्रमें | प्रयोज्यं विधिवत सर्पिलवर्णाग्निवर्द्धनम ॥ सूर्य भगवानकी पूजा करके इसे सेवन करना आ
विविधेष्वन्नपानेषु केवलं वा निरत्ययम् ॥ रम्भ करे । यह घृत सर्व प्रकार के नेत्र के काले और सफेद भाग का अर्बुद, मोतियाविन्द, फूला,
सौंफ, बला दारुहल्दी, पृश्निपणी, गोखरू,
| वड़, गूलर और पीपल के अंकुर, प्रत्येक १०. पटल, तिमिर, पिल्व (रोहे), कण्डु, और आंसुओं
| १० तोला । इनके क्वाथ और नीचे लिखे कल्क का यहना आदि नेत्ररोग तथा गठिया आदिका
| तथा रस के साथ २ सेर घृत सिद्ध करे।। नाश करता है। इसे प्रातःकाल या भोजन के
___ कल्क-द्रव्यः-जीवन्ती, कुटकी, पीपल, पीपलाअन्त में सेवन करना चाहिये।
मूल, सोंठ, देवदारु, इन्द्रयव, सेमर के फूल, [१६९] अर्जुन घृतम् (भै. र.)
काकोली, चन्दन, नीलोफर, कायफल, चीता, पार्थस्य कल्कखरसेन सिद्धं,
| नागरमोथा, फूलप्रियंगु, अतीस, शालपर्णी, लाल शस्तं घृतंसर्वहृदामयेषु । अर्जुन की छाल के रस और कल्क से सिद्ध
और नीलकमल का केसर, मजीठ, कटेली, बेल,
मोचरस और पाठा । प्रत्येक ११-१। तोला । घृत समस्त हृद्रोगों के लिये लाभदायक है।
क्वाध्य को ८ सेर जल में पकाकर २ सेर रहने [१७०] अवाक्पुष्पयादि घृतम् (च.सं.) पर कानले । (यहां प्रस्थ ३२ पलका मानना आवाक्पुष्पी बला दार्वि पृश्निपणि त्रिकण्टकः।। चाहिए) चौपतिया का रस और तिपतयाका रस न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थानाच द्विपलोन्मिताः ॥ ४-४ सेर ।
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(६२)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
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यह घृत अर्श और अतिसार के रक्तस्राव, । मुल्हैठी, अशोक की जड़ की छाल, मुनक्का, शताप्रवाहिका, गुदभ्रंश (कांच निकलना), गुदशोथ, वर, चौलाई की जंड, प्रत्येक २॥२॥ तोले मूत्रावरोध, मूवात, मन्दाग्नि, अरुचि आदि का | इनके कल्क के साथ १ सेर घृत का पाक सिद्ध नाश करता है तथा वल वर्ण और अग्नि वईक करे । फिर ठण्डा होने पर ४० तोला शर्करा मिलावे । है। इसे विविध प्रकार के अन्न पान के साथ यह घृत सफेद, नीला, पीला आदि सब प्रकार के अथवा अकेले ही सेवन करना चाहिये। प्रदर रोग, कोख का शूल, कमर और योनी की
[१७१] अशोक घृतम् (भै. र. स्त्री. रो.) पीड़ा, मन्दाग्नि, अरुचि, पाण्डु, दुबला पन, श्वास, अशोकवल्कलप्रस्थं तोयाढकविपाचितम् ।
कामला, और स्त्रियों के सब रोगों का नाश पादस्थेन घृतप्रस्थं जीरकक्वाथसंयुतम् ।।
| करता है । बल, वर्ण, पुष्टि और आयु वर्द्धक है । तण्डुलाम्बुत्वजाक्षीरं घृततुल्यं प्रदापयेत् ।
[१७२] अश्वगन्धादिघृतम् (न. मृ.) तथैव केशराजस्य प्रस्थ मेकं भिषग्वरः ।। अश्वगन्धा प्रस्थमेकं दुग्धं चैवाढकद्वयम् । जीवनीयैः प्रियालैस्तु परुषैः सरसाञ्जनैः।
घृतप्रस्थमितं दद्याच्छनैमृद्वग्निना पचेत् । यष्टयाह्वयाशोकमूलश्च मृद्वीका च शतावरी ।।
त्रिकटुकं चतुर्जातं विडङ्ग जातिपत्रकम् । तण्डुलीयकमूलश्च कल्कैरेभिर्पलाईकैः। बला चातियला चैत्र श्वदंष्ट्रा वृद्धदारुकम् ॥ शर्करायाः पलान्यष्टौ सिद्धशीते प्रदापयेत् ॥
मिटीले प्रदाता पलैकश्च प्रदातव्यं लोहं वङ्ग तथाभ्रकम् । पीतमेतद्धृतं हन्ति सर्वदोष समुद्भवम् ।।
| प्रस्थाद्धं माक्षिक दद्यात्प्रस्था॰ शर्करा शुभा ॥ श्वेतं नीलं तथा कृष्णं प्रदरं हन्ति दुस्तरम् ।।
सर्वमेतद्विनिक्षिप्य स्निग्धे भाण्डे निधापयेत् । कुक्षिशूल कटीशूलं योनिशूलञ्च सर्वगम् ।
द्वौ कालौ भक्षयेन्नित्यं समीक्ष्याग्नि बलं यथा ॥ मन्दाग्निमरुचिं पाण्डु कृशतां श्वासकामलाम् ॥
अर्थ वातं हनुस्तम्भं सन्धिवातं कटिग्रहम् । आयुः पुष्टिकरं बल्यं बलवर्णप्रसादनम्।
गर्भप्रसवजान्दोषाञ्छुक्रदोषांस्तथैव च ॥ देयमेतत्परं सर्पि विष्णुना परिकीर्तितम् ॥
सर्ववातानिहन्त्येतद्यथोन्मत्तगज हरिः।
| अश्वगन्धादिविख्यातं घृतं वाजीकरं परम् ।। १ सेर अशोक की छाल । ४ सेर जल में
___ आसगन्ध १ सेर, दूध ८ सेर, घृत १ सेर, पका कर चौथाई रहने पर छान ले इस काढ़े
यथा विधि पाक करके उसमें त्रिकुटा, चातुर्जात, और जीरेका क्वाथ, चावलों का पानी, बकरी का
बायबिडंग, जावित्री, बला, अतिबला, गोखरू और दूध तथा भांगरे का रस प्रत्येक १-१ सेर और
विधारा, प्रत्येक ५-५ तोला, और लोह भस्म, जीवनीय गण, पियाल (चिरौंजी), फालमा, रसौत, .
। बंग भस्म, अभ्रक भस्म, प्रत्येक ५-५ तोला, शहद १ जीवकर्षभको मेदे काकोल्यौ शूर्पपणिके ।
०॥ सेर और चीनी आधा सेर मिलावे फिर धृत जीवन्ती मधुकञ्चेति दशको जीवनो गणः॥ के बरतन में भरकर रक्खे । इसके दोनों समय जीवनीय गण-जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, मुद्रपर्णी, |
सेवन करने से अर्दित, हनुस्तम्भ, सन्धि बात, माषपणी, जीवन्ती, ल्हैठी।
कमर का रह जाना, प्रसूत रोग, शुक्र दोष, और
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भकारादि-तैल
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समस्त वायुके रोगों का नाश होता है तथा यह , [१७४] अष्टमङ्गल घृतम् अत्यन्त वाजीकरण है।
(भै. र., यो. त.) [१७३] अश्वगन्धाघृतम्
वचा कुष्ठं तथा ब्राह्मी सिद्धार्थकमथापि वा। (वृ. नि. र., ग. नि. बालरो.)
| शारिवा सैन्धवश्व पिप्पली घृतमष्टमम् ।। पादकल्केऽश्वगन्धायाः क्षीरेऽष्टगुणिते पचेत् । मेध्यं घृतमिदं सिद्धं पातव्यश्च दिने दिने । घृतं देयं कुमाराणां पुष्टिकृद्धलवद्धनम् ।। दृढस्मृतिः क्षिप्रमेधा कुमारी बुद्धिमान् भवेत् ॥ ___ आठगुणे दूध और चौथाई अश्वगन्धाके कल्कन पिशाचा न राक्षांसि न भृताः न च मातरः। के साथ पाक किया हुआ घृत बालकोंके लिये प्रभवन्ति कुमाराणां पिबतामष्टमङ्गलम् ।। पौष्टिक तथा बलवर्धक होता है। ____ वच, कृठ, ब्राह्मी, सरसों (सफेद), सारिया, ___ नोट-यह वास्तवमें घृत नहीं बल्कि सेंधा नमक और पीपल, इनके कल्क से यथा विधि अवलेन बनेगा । यदि घृत बनाना । तो १ . सिद्ध किया हुआ घृत पिलाने से बच्चोंकी मेधा, प्रस्थ असगंधको ८ गुने पानी में पकाकर
और जटि बरती है तथा उन पर २ प्रस्थ रहने पर छान ले, फिर इसमें दूध और घी मिलाकर पकावें । जब घृत मात्र शेष |
पिशाच, गक्षस और मातृका आदिका बुरा प्रभाव रहे तो छानकर अन्य सब पदार्थ मिला। नहीं होता ।
अथ अकारादि तैल प्रकरणम्
तैल व्याख्या तेलोंका पाक भी घृतके समान ही सिद्ध किया जाता है परन्तु मूर्छा विधि भिन्न होती है अतएव यहां केवल मूर्छाविधि का वर्णन कर देना ही उचित प्रतीत होता है ।
कटु तैल मूर्छा आमला, हल्दी, नागरमोथा, बेलकी छाल, अनार की छाल, नागकेसर, पीपल, जीरा, सुगन्ध बाला और बहेड़ा । सब समान भाग मिलाकर १ सेर तेलमें १। तोलेके हिसाबसे ग्रहण करे । तैलको मन्दाग्नि पर गरम करके इनका कल्क धीरे धीरे थोड़ा थोड़ा करके मिलादे ।
तिल तैल मूर्छा मजीठ, हल्दी, लोध, नागर मोथा, नलिका, बहेड़ा, हैड़, धीकुमार, बड़की जटा और सुगन्धबाला । इनमें से तेलका सोलहवां भाग मजीठ और मजीठ का चौथा भाग अन्य सब द्रव्य (समान मात्रा में मिले हुए लेने चाहियें।)
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(६४)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
एरण्ड तैल मूर्छा मजीठ, नागरमोथा, धनियां, त्रिफला, जयन्ती, मुगन्ध बाला, खजूर, बड़की दाढ़ी, हल्दी, दारु हल्दी, नलिका, केतकी, दही और कांजी । १ सेर तेलको मूर्छित करने के लिये इनमें से प्रत्येकं वस्तु ४-४ माशा लेनी चाहिये। [१७५] आगार धूमाचं तेलम् । काष्ठ, इन्द्रायण, चिरचिटा, केलेका कन्द । थोहर
[ देखो प्र. स. ४२३] | और आकका दूध २-२ सेर । इनके कल्क तथा [१७३] अग्निमन्थादि क्षारतैलम्
१६ सेर बकरी के मूत्रसे यथाविधि २ सेर सरसों के (च. सं. अ. १३ उदर)
तेल का पाक करे। इसे लगाने से कच्ची और तथाग्निमन्यश्योनाकपलाशतिलनालजैः ।
अधपकी गण्डमाला पक जाती है और पकी हुई बलाकदल्यपामार्गक्षारैः प्रत्येकशः मुतैः ।।
शुद्ध होकर भर जाती है तथा वह स्थान मदु तैलं पक्त्वा भिषम् दद्यादुदराणां प्रशान्तये ।
हो जाता है। निवर्तते चोदरिगां हृद्ग्रहश्वानिलोद्भवः ॥
। [१७८] अजित तैलम् (वं. से.) ____ अरणी, सोनापाठा, ढाक, तिलनाल, बला,
| तैलस्य पचेत्कुडवं मधुकस्य पलेन कक्लपिष्टेन। केला और अपामार्ग, इनमेंसे किसी एकके क्षारसे
आमलकरसप्रस्थं क्षीरप्रस्थेन संयुतं कृत्वा ।।
| अजितं नाम्ना तैलं तिमिरं हन्याबिभिप्रोक्तम् । सिद्ध तैल पिलानेसे उदररोग शान्त होता है, विशेषतः उदर रोगी को वातज हृद्ग्रह हो जाय तो यह तैल
विमलां कुरुते दृष्टि नष्टामप्यानयेन्नयने ।। बहुत लाभ पहुंचाता है (क्षारजल १६ सेर, तेल
तिल तेल ४० तोले, मुल्हठी का कल्क ५
तोले, आमले का रस १ सेर, दूध १ सेर एकत्र ४ सेर । मिलाकर पकावें ।)
मिलाकर तेल पाक सिद्ध करें। यह निमि प्रणीत [१७७] अजमोदादि तैलम्
सेल तिमिर रोगको नष्ट करता है और नष्ट दृष्टिको ___ (व. नि. र., ग. नि. तैला)
भी पैदा कर देता है। अजमोदा च सिन्दूरं हरितालं निशाद्वयम् ।
[१७९] अणुतलम् (१) धारद्वयं फेनयुतं सार्द्रकं सरलोद्भवम् ।
(सु. सं. चि. अ. ४) इन्द्रवारुण्यपामार्गकदलीकन्दकैः समैः ।
तिलपरिपीडनोपकरणएभिःसार्षपकं तेलमजामूत्रऽष्टयोजितम् ।। काष्ठान्याहृत्यानल्पकालं तैलपरि मृद्वग्नौ पाचयेदेतत् स्नुह्यकक्षीरसंयुतम् । पीतान्यणूनि खण्डशः अजमोदादिकं तैलं गण्डमालां व्यपोहति ॥ । कल्पयित्वाऽवक्षुद्यमहति कटाहे, आमां विदग्धां तु पचेत् पक्कां चैव विशोधयेत् ।। पानीये आप्त.व्य क्वाथयेत् रोपणं मृदुभावं च तैलेनानेन कारयेत् ॥
ततःस्नेहमम्बुपृष्ठाद्यदुदेति ___ अजमोद, सिंदूर, हरताल, हल्दी, दारु हल्दी, । तत् सरकपाण्योरन्यतरेणादाय यवक्षार, सज्जीखार, समुद्र फेन, अदरक, सरल वातनौषधप्रतीवापं च ।
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अकारादि-तैल
(६५)
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स्नेहपाककल्पेन विपचेदेतदणु- । दद्यादेषोऽणुतैलस्य नावनीयस्य संविधिः ॥
तैलमुपदिशन्ति वातरोगेषु, तस्य मात्रां प्रयुञ्जीत तैलस्वार्द्ध पलोन्मिताम् । अणुभ्यस्तैलद्रव्येभ्यो निष्पाद्यते इत्यणुतैलम् । स्निग्ध स्विन्नोत्तमाङ्गस्य पिचुना नावनैस्त्रिभिः ___कोल्हु (तेली लोग लकड़ीके जिस यन्त्र में , व्यहात् व्यहाच सप्ताहमेतत्कर्म समाचरेत् । तिल,सरसों आदि भरकर तेल निकालते हैं वह यन्त्र) | निवातोष्णसमाचारो हिताशी नियतेन्द्रियः ।। जो बहुत पुराना हो और जिसने बहुत दिनों तक | तैलमेतत्रिदोषघ्नमिन्द्रियाणां बलप्रदम् । खूब तेल पिया हो, लाकर उसके छोटे २ टुकड़े | प्रयुञ्जानो यथाकालं यथोक्तानश्नुते गुणान् ।। करले और उन्हें कूट कर एक बड़े कढ़ावमें घने | लाल चन्दन, अगर, तेजपात, दारुहल्दी की पानीमें भिगोदे फिर उसे अग्नि पर चढ़ावे ऐसा | छाल, मुल्हैठी, बला (खरैटी), पुण्डरिया, छोटी इलाकरने से पानी के ऊपर तेल आजायगा उसे हथेलीसे यची, बायबिडंग, बेल की छाल, कमल, सुगन्ध उतारकर अन्य पात्रमें एकत्रित करलो फिर उसे | बाला, खस, दारचीनी, केवटी मोथा, सारिवा वातघ्न औषधियों* के कल्क के साथ यथा विधि शालपणी, जीवन्ती, पृश्निपणी, देवदारु, शतावर, सिद्ध करे । यह तेल वात रोगों का नाश करता है। रेणुका, बडी कटेली, छोटी कटेली, शल्लकी और कमल [१८०] अणु तैलम् (२)
केसर । (सब पदार्थ समान भाग मिलाकर ६। सेर ___ (च. सं. । सू. अ. ५)
लेकर अधकुटे करले)। सबको १०० सेर स्वच्छ चन्दनागुरुणी पत्रं दावीत्वक् मधुकं बलाम्। आकाश जलमें पकाकर २५ सेर पानी शेष रहनेप्रपौण्डरीकं सूक्ष्मैलां विडॉ विल्वमुत्पलम् । | पर छानले । इसके बाद २॥ सेर तिलके तेल में हीबेरममयं+ वन्यं त्वङ्मुस्तं शारिवां स्थिराम् |
समान भाग यह काथ डाल कर पकावे । इसी जीवन्तीं पृश्निपर्णी च सुरदारु शतावरीम् ॥ प्रकार १० बार करके इस दस गुने क्वाथके साथ हरेणुं वृहतीं व्याघीं सुरभी पद्मकेशरम् ।
| तैल पाक सिद्ध करे। इसके अन्तिम (दसवें) पाकमें विपाचयेच्छतगुणे माहेन्द्रे विमलेऽम्भसि ॥
समान भाग (२॥ सेर) बकरी का दूध भी डाल तैलाद्दशगुणं शेषं कषायमवतारयेत् । देना चाहिये। तेन तैलं कषायेण दशकृत्वो विपाचयेत् ॥ व्यवहार विधि–पहिले शिर में तेल लगाकर अथास्य दशमे पाके समांशं छागलं पयः। फिर स्वेद देकर (सीधा लिटाकर) रुई के फाहे से
* वातघ्न ओषधियांः-यथा-भद्दार्वादिगण तीन बार करके २॥ तोला यह तेल दोनों नस्को(देवदारु, हल्दी, दारुहल्दी, भारती, बरनेकी | रोमें निचोड़ना चाहिये । छाल, मेंढासिंगी,पियाषांसा, गुन्द पटेर, त्रिफला, । इस प्रकार इस तेलका नस्य एक एक दिन गोखरू, सफेद आक, अरणी, धतूरा, पाषाण के अंतर से (तीसरे दिन) ७ दिन तक लेना भेद, शतावर, शालपर्णी, पटोल-पत्र, कुटकी, पुनर्नवा, अगथिया, जौ), इसी प्रकार दशमूल
चाहिये । नस्य सेवन काल में निर्वात स्थान, ऊष्ण आदि अन्य वातनाशक औषधियां ले सकते हैं। और पथ्य आहार बिहार करते हुए संयम से + अभयामिति पाठान्तरम् ।
रहना चाहिये।
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भारत - भैषज्य रत्नाकर
(६६)
यह तेल त्रिदोष नाशक और इन्द्रिय-बलवर्द्धक है । इसे यथाकाले सेवन करने से शास्त्रोक्त प्राप्त होते हैं ।
१ वर्षे वर्षेऽणुतैलं च कालेषु त्रिषुमाचरेत् । प्रावृट्शरद्वसन्तेषु गतमेघे नभस्तले ॥
प्रतिवर्ष प्रावृट ( आषाढ श्रावण) शरद (कार्तिक मार्गशीर्ष) और वसन्त (फालगुन, चैत्र) इन तीन ऋतुमें जब बादल आदि न हों तब भणु तैलका नस्य लेना चाहिये ।
२ नस्यकर्म यथाकालं यो यथोक्तं निषेवते । न तस्य चक्षुर्न घ्राणं न श्रोत्रमुपहन्यते ॥ न स्युः श्वेतान कपिलाः केशाः इमधूणिवा पुनः । न च केशाः प्रलुप्यन्ते वर्द्धन्ते च विशेषतः ॥ मन्यास्तम्भः शिरः शूलमदितं हनुसंग्रहः । पीनसाद्धविमेदौ च शिरः कम्पञ्च शाम्यति ॥ सिराः शिरः कपालानां सन्धय स्नायु कण्डराः । नावनप्रीणिताश्चास्य लभन्तेऽभ्यधिकं बलम् ॥ मुखं प्रसन्नोपचितं स्वरः स्निग्धः स्थिरो महान् सर्वेन्द्रियाणां वैमल्यं बलं भवति चाधिकम् ॥ न चास्य रोगा सहसा प्रभवन्त्यूर्द्धजत्रुजा । जीर्यतश्चोत्तमाङ्गे च जरा न लभते बलम् ॥
यथोक कालमें अणु तेलका नस्य लेने से आंख, नाक और कानों की शक्ति क्षीण नहीं होती, शिर और दाढी मूछके बाल श्वेत या कपिल नहीं होते । बाल विशेष रुप से बढते हैं और गिरते नहीं । मन्यास्तम्भ, शिरशूल, अर्दित, हनुग्रह, पीनस, आधासीसी, सिरका कांपना आदि रोग शान्त होते हैं । नस्यकर्मके द्वारा तर्पित होने से शिर और कपाल की शिराएं, कण्डराएं तथा संधियां अधिक दृढ होती हैं। मुख प्रसन्न और पुढ होता है । स्वर मधुर, गम्भीर और तेज होता है। समस्त इन्द्रियां बलवान एवं निर्मक होती हैं। ऊर्द्धजगत (गलेसे ऊपर के ) रोगों के आक्रमण से रक्षा होती हैं तथा वृद्धावस्था जाने पर भी बलीपलित आदि | वृद्धावस्था लक्षण अधिक नहीं होते ।
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[१८१] अपामार्ग क्षार तैलम् (भै. र. । कर्णरोगा . ) मार्गक्षारजलेन च तत्कृतकल्केन साधितन्तैलम् अपहरति कर्णनादं वाधिर्यं चापि पूरणतः ॥
अपामार्ग के क्षारके जल और उसी के कल्क से सिद्ध किया हुवा तेल मन्दोष्ण कानमें डालने से कर्णनाद और बहिरापन का नाश होता है ।
टिप्पणी- जिन तेलों में क्षार पडते हैं उन्हें बहुत बडे पात्रमें पकाना चाहिए क्योंकि क्षारके कारण फेन बहुत अधिक आते हैं और तेल बहार निकल जानेका भय रहता है । जब तेलमें फटे हुवे दूध के समान छिछड़े से दीखने लगें तब उसे सिद्ध समझना चाहिए । क्षार सिद्ध तेल पाककी परीक्षा है ।
[१८२] अमृतादि तैलम् (१)
(च. सं. । चि. अ. २८ वा. व्या.) तुलाः पञ्च गुडूच्यास्तु द्रोणेष्वष्टास्वपां पचेत् । पादशेषे समं क्षीरं तैलस्य द्वाढकं पचेत् ॥ एलामांसीन तोशी रशारिवाकुष्टचन्दनैः । शतपुष्पा चला मेदामहामेदधिजीव कैः । काकोलीक्षीरकाकोली श्रावण्यतिबलानखैः । महाश्रावणिजीवन्तीविदारीकपिकच्छुभिः ॥ शतावरी तामलकी कर्कटाख्याहरेणुभिः ।
गोक्षुर कैरण्डरानाकालासहाचरैः ॥ वीराशल्लकि मुस्तत्वक्पत्रर्षभकवालकैः । मञ्जिष्ठायास्त्रिकर्षेण मधुकाष्टपलेन च ॥ कल्कैस्तत क्षीणवीर्याग्निवलसंमूढचेतसः । उन्मादारत्यपस्मारैरार्तश्व प्रकृतिं नयेत् ॥ वातव्याधिहरं श्रेष्ठं तैलाग्रथममृताह्रयम् । कृष्णात्रयेण गुरुणा भाषितं वैद्य पूजितम् ॥
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अकारादि-तैल
(६७)
३१। सेर गिलोय को २५६ सेर जलमें। सिद्धं बलाभ्याश्च सदेवदारु पकावे चौथाई रहने पर छान ले । फिर इस काथ हिताय नित्यं गलगण्डरोगे॥
और १६ सेर गायका दूध निम्नलिखित कल्कके | गिलोय, नीम, बालछड, कुड़ेकी छाल, पीपल, साथ १६ सेर तिल तेल सिद्ध करे ।
बला, अतिबला, देवदारु । इनके कल्क और क्वाथ कल्क द्रव्य-इलायची, जटामांसी, तगर, | से सिद्ध तेल गण्डमाला के लिए लाभदायक हैं। खस, सारिवा, कूठ, सफेद चन्दन, बला, सोया, | [१८५] अमृताख्यतैलम् (४) मेदा, महामेदा, ऋद्धि, जीवक, काकोली, क्षीर
(च. सं. अ. २९. वा. र.) काकोली, गोरखमुण्डी, अतिवला (कंधी), नखी, | गुडूची मधुकं इस्वं पञ्चमूलं पुनर्नवाम् । सफेद मुण्डी, जीवन्ती, विदारीकन्द, कौंचके बीज, | रास्लामेरण्डमूलञ्च जीवनीयानि लाभतः ॥ शतावर, भुई आमला, काकडासिंगी, रेणुका, बच, | पलानां शतकैर्भागैर्बलापञ्चशतं तथा । गोखरू, एरण्डमूल, रास्ना, काली निसोत, पियाबांसा, | कोलबिल्वयवान्माषान् कुलत्थांश्चाढकोन्मितान पृश्निपर्णी, शल्लकी (सलई), नागरमोथा, दारचीनी, | काश्मर्याणां सुशुष्काणां द्रोणं द्रोणशतेऽम्भसि । तेजपात, ऋषभक, सुगन्ध बाला और मजीठ। प्रत्येक | साधयेज्जजेरं धोतं चतुद्रोणं च शेषयेत् ॥ ३॥ तोले, महुवे के काष्ट का सार ४० तोले। तैलद्रोणं पचेत्तेन दत्वा पञ्चगुणं पयः। यह तेलसे धातुक्षीणता, मन्दाग्नि, निर्बलता, चित्तः | पिष्टवा त्रिपलिकाश्चैव चन्दनोशीरकेशरान ॥ विभ्रम, उन्माद, बेचैनी, अपस्मार और वातव्याधि पौलागुरुकुष्ठानि तगरं मधुयष्टिकाम् । में अत्यन्त गुणकारी है । वैद्यों द्वारा प्रशंसित यह |
मञ्जिष्ठाष्टपलं चैव तत्सिद्ध सार्वयौगिकम् ॥ श्रेष्ठ तेल गुरुवर कृष्णात्रेयने बतलाया था।
वातरक्त क्षते क्षीणे भारार्ने क्षीणरेतसि । [१८३] अमृतादितैलम् (२) (वृ.नि. र.)
बेपनोक्षिप्तभग्नानां सर्वाङ्गकाङ्गरोगिणाम् ॥ तैलं पिवेचामृतपल्लिनिम्ब
योनिदोषमपस्मारमुन्मादं विषमज्वरम् ।
हन्यात्पुंसवनं चैतवेलाग्रथममृताह्वयम् ।। हिंङ्गवाभयावृक्षकपिप्पलीभिः ।।
गिलोय, मुल्हठी, लघुपंचमूल, सांठीकी जड, सिद्ध बलाम्यां च सदेवदारु हिताय नित्यं गलगण्डरोगे॥
रास्ना, एरण्डमूल और जीवनीय गण, प्रत्येक ६। गिलोय, नीमकी छाल, हींग, हैड़, कुड़े की |
सेर । बला ३१। सेर और बेर, बेल, जौ, उडद
तथा कुल्थी प्रत्येक ४-४ सेर । सूखे हुवे खम्भारी छाल, पीपल, बला, अतिबला (कंघी) और देवदार
११९ के फल १६ सेर इनको कूट धोकर २० मन के कल्क और क्वाथ से सिद्ध किया हुवा तेल
जलमें पकावे । जब ६४ सेर शेष रहे तो छानले गलगंड रोगमें लाभदायक है।
और इसमें १ मन दूध डालकर तथा सफेद [१८४] अमृतावितैलम् (३) (भै. र.) चन्दन, खस, नागकेसर, तेजपात, इलायची, अगर, तैलं पिवेचामृतमल्लिनिम्ब
कूठ, तगर और मुल्हैठी प्रत्येक १५-१५ तोले हिंसाहयावत्सकपिप्पलीभिः। और मजीठ ४० तोले का कल्क बनाकर उसके
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- भैषज्य-र भारत- -रत्नाकर
(६८)
साथ १६ सेर तेलका पाक सिद्ध करे । यह तेल । पुष्पैई बेरमधुकः शारिवापद्मकेशरैः ॥ वातरक्त, क्षत, क्षीणता, वीर्यकी अल्पता, भार | मेदापुनर्नवा द्राक्षा मजिष्ठावृहतीद्वयैः । उठानेसे उत्पन्न हुवे विकार, कंपन, भग्न, सर्वांग एलैलवालुत्रिफलामुस्तचन्दनपद्मकैः ॥ बात रोग, एकांग वात रोग, योनिदोष, अपस्मार, पक्कं रक्ताशयं वातं रक्तपित्तमसृग्दरम् । उन्माद और विषमज्वर का नाश करता है । इन्त्यात्पुष्टिवलं कुर्यात् कृशानां मांसवर्द्धनम् ॥ [१८६] अर्कपत्ररस-तैलम् रेतोयोनिविकारनं व्रणदोषापकर्षणम् । (बृ. नि. र. ) षण्डानपि वृषान् कुर्यात् पानाभ्यङ्गानुवासनैः ॥ अर्कपत्ररसे पक्कं हरिद्राकल्कसंयुतम् । नाशयेत्सार्षपं तैलं पानां कच्छु विचर्चिकाम् || आकके पत्तोंका रस ४ सेर और २० तोला हल्दी के कल्कसे सिद्ध किया हुवा १ सेर सरसोंका तेल पामा, कच्छु और विचर्चिकाका नाश करता है । [१८७] अर्कादितैलम्
(बृ. नि. र.)
॥
अर्कस्य च रसप्रस्थं प्रस्थं धत्तूरकस्य च । श्वेतस्नुहीरसप्रस्थं प्रस्थं सौभांजनाद्रसात् ॥ कुष्ठसैन्धवयोः कल्कं पले द्वे द्वे प्रमाणतः । तैलप्रस्थं काञ्जिकेन पचन् मृद्वग्मिना समम् ॥ खल्लीं विषूचिकां हन्ति पक्षाघातं च गृध्रसीम् आकके पत्तों का रस १ सेर, धतूरेका रस १ सेर, सफ़ेद थोहरका रन १ सेर, सौंजनेका रस १ सेर, काञ्जी १ सेर । कूठ और सेंधा नमक प्रत्येक १०-१० तोले का कल्क | इनके साथ १ सेर तेलका मंदाग्नि पर पाक सिद्ध करे । इत तैलकी मालिश से खल्ली (हाथ पैरों की ऐंठन), हैजा, पक्षाघात और गृध्रसी का नाश होता है । [१८८] अश्वगन्धा तैलम्
|
(च. द., वा. व्या., ग. नि. तैला . ) शतं पक्त्वाश्वगन्धाया जलद्रोणेऽशशेषितम् । विस्राव्य विपचेत्तैलं क्षीरं दत्वा चतुर्गुणम् ॥ कल्के मृणालशालक विसकिञ्जल्क मालती
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| सेर असगन्ध को ३२ सेर जलमें पकावे, चौथा भाग शेष रहनेपर छानले । फिर इस क्वाथ और ८ सेर दूध तथा निम्नलिखित कल्क से २ सेर तैल सिद्ध करें ।
कल्क द्रव्य :- कमलनाल, कमलका कन्द, कमलनाल के भीतर के बारीक तंतु, कमल कोष (जिसमें कमलके बीज रहते हैं), मालतीके फूल, सुगन्धवाला, मुलैठी, सारिवा, कमलकेसर, मेदा, पुनर्नवा, मुनक्का, मजीठ, कटेली, बडी कटेली, इलायची, एलवाल, त्रिफला, नागरमोथा, लाल चन्दन और पद्माख । यह तैल रक्ताशयगतवायु (हृद्गतवात), रक्तपित्त, रक्तप्रदरका नाश करता है । इसके सेवनसे बल, पुष्टि और मांसवृद्धि होती है । वीर्यविकार, योनिविकार, ब्रणदोष और नपुंसकता इसके प्रभाव से नाश होती है । इसे पान, अभ्यङ्ग और अनुवासन वस्तिके द्वारा सेवन करना चाहिये । [१८९] अश्वगन्धादितैलम् (बृ. नि. र; यो. र. ज्वर)
अश्वगन्धा बला लाक्षा प्रस्थं प्रस्थं पृथक् पृथक् जले द्रोणे विपक्तव्यं चतुर्भागावशेषितम् ॥ तैलं त्रिमानकं दद्याद्दधिमस्तु चतुर्गुणम् । अश्वगन्धा शिला दारू कौन्ति कुष्ठान्द चन्दनैः।। निशा तिक्ता शताह्वा च लाक्षा मूर्वा समूलकैः। सुरदारु च मंजिष्ठा मधुकोशीर शारिवा ॥
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अकारादि-पाक
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समभागानि सर्वाणि करकीकृत्य विपाचयेत् । । शीघ्र नाश होता है। सर्वज्वरान् हरत्याशु सर्वधातुविवर्द्धनम् ॥ [१९०] अष्टकट्वर तैलम् एतदभ्यञ्जनेनाशु क्षयरोग विमुश्चति ॥
(भा. प्र., वृ. यो. त. त. ९२) ___ असगन्ध, बला, लाख प्रत्येक, १-१ सेर पलाभ्यां पिप्पलीमूलानागरादष्टकट्सवरम् । लेकर १६ सेर जलमें पकावे, जब चौथा भाग शेष तैलप्रस्थं समंदना गृध्रस्युरुग्रहापहम् ॥ रहे तो छानलें। फिर दधिमस्तु ६ सेर और सस्नेहदधि सघृतं तर्क कवरमुच्यते । असगन्ध, मनशिल, दारूहल्दी, रेणुका, कूठ, नाग- अष्टकवरतैले च तैलं सार्षपमिष्यते ॥ रमोथा, चन्दन, हल्दी, कुटकी, सोया, लाख, मुर्वा, पिप्पलीमूलशुण्ठयाच प्रत्येक द्विपलं कृतम् ।। मूली, देवदारू, मजीठ, मुल्हैठी, खस और सारिवा पीपलामूल और सोंठ १०-१० तोले लेकर समान भाग मिलित २५ तोले इनका कल्क करके कल्क बनावें, कट्वर (मलाई युक्त दहीसे बनाया उसके साथ १॥ सेर लेलका पाक सिद्ध करे। यह । हुवा घृत युक्त मदा) सरसों का तेल और दही तैल सब प्रकारके ज्वरोंका नाश तथा सब धातुओं | प्रत्येक १ सेर। इनसे पका हुआ तेल गृध्रसी की वृद्धि करता है। इसकी मालिशसे क्षयरोगका | और उरुग्रह रोग का नाश करता है।
अथ अकाराद्यासवारिष्ट प्रकरणम्
व्याख्या आसव और अरिष्ट दोनों मद्यके भेद हैं
__ यथा-यदपकौषधाम्बुभ्यां सिद्ध मद्यं स आसवः । अर्थात्-अपक्क औषधियों और जलसे जो मद्य तैयार किया जाता है उसे आसव कहते हैं।
अरिष्टः क्वाथसिद्धः सात् सम्पको मधुरद्रवैः । औषधियों के क्वाथ और मधुर वस्तु तथा तरल पदार्थोंसे सिद्ध (मद्य) का नाम अरिष्ट है ।* यद्यपि आसव और अरिष्ट मद्य हैं परन्तु इनसे नशा नहीं होता।
निर्माण-विधि पात्र—आसवारिष्ट साधारणतः मिट्टीके पात्रमें ही बनाये जाते हैं, यद्यपि किसी किसी स्थान पर स्वर्ण
पात्र में भी आसव संधान करनेका विधान है। जिस पात्रमें आसव अरिष्ट तैयार करना हो पहिले उसे भीतरसे घी से भले प्रकार चिकना कर देना चाहिये और साथ ही धाय के फूल तथा
लोध के कल्क का लेप करके सुखा लेना चाहिये । एवं उपरोक्त विधि से पात्र तैयार करके * ये परिभाषाएं “पारिभाषा प्रदीप" के अनुसार लिखी गई है परन्तु चरकसुश्रुत में पह विधान नहीं मिलता।
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(७०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
उसमें क्वाथ (या जल) में मिश्रित गुड़, मधु, औषधियां का चूर्ण आदि डालकर उसके मुखको शराव से अच्छी तरह वन्द करके उसके ऊपर कपड़ मिट्टी कर देनी चाहिये कि किसी स्थान से वायु उसके अन्दर न जासके। अब इस बरतन को भूमि के अन्दर गढ़े में या किसी अन्य गरम स्थान में १५ दिन या १ महीने तक (जैसी शास्त्राज्ञा हो) रक्खे रहने देना चाहिये।
इसके बाद आसव या अरिष्ट को निकालकर छानकर बोतलों या पत्थर की बरनियों में भरकर बन्द करके रखदेना चाहिये ताकि अन्दर हवा न जा सके क्योंकि हवासे आसव खराब हो जाता है।
यदि बोतलों में भरना हो तो बोतलों को मुंह तक लवालब न भरना चाहिये बल्कि थोड़ा स्थान खाली छोड़ देना चाहिये क्योंकि मुंह तक बोतल भर देनेसे आसवमें जोश आकर उसके बाहर निकल जाने या बोतलके फट जानेका भय रहता है। .. आसव और अरिष्ट ज्यों ज्यों पुराने होते जाते हैं त्यों त्यों उनमें गुणवृद्धि भी होती जाती है। यथा
प्रायशोऽभिनवं मद्यं गुरुदोषसमीरणम् ।
स्रोतसां शोधनं जीर्ण दीपनं लघुरोचनम् ॥ (चरक सू. अ. २) अर्थात्-प्रायः नवीन मद्य गुरु और वायु कारक होते हैं और पुराने होने पर (१ वर्ष बाद) स्रोतशोधक, दीपन और रुचिवर्द्धक होते हैं।
सेवन-विधि मात्रा--आसवारिष्ट १ तोले से २ तोले तक की मात्रामें सेवन किये जाते हैं। समय-साधारणतः सभी आसव और अरिष्ट भोजन के पश्चात् पिये जाते हैं, परन्तु रोग और रोगी की परिस्थिति के अनुसार समय में फेर फार किया जा सकता है।
आसव या अरिष्ट में समान भाग पानी मिलाकर सेवन करना चाहिये क्योंकि पानी के साथ सेवन करने से प्रभाव शीघ्र होता है एवं पानी रहित सेवन करने से कभी कभी गले और
छातीमें दाह आदि होने लगती है [१९१] अभयारिष्टः (१) | द्रोणशेषे रसे तस्मिन् पूते शीते समावपेत् ।
(च. स. चि. अ. १४ अर्श) गुडस्य द्विशतं तिष्ठेत् तत् पक्षं घृतभाजने ॥ हरीतकीनां प्रस्थाई प्रस्थमामलकस्य च । पक्षाचं भवेत्पेया ततो मात्रा यथा बलम् । स्यात्कपित्थादशपलं पलार्द्धनेन्द्रवारुणी ॥ अस्याभ्यासादरिष्टस्य गुदजा यान्ति संक्षयम् ॥ विडङ्ग पिप्पली लोधं मरिचं सैलबालुकम् । । ग्रहणी पाण्डुहृद्रोगप्लीहगुल्मोदरापहः । दिपलांशं जलस्येतचतुद्रोणे विपाचयेत् ॥ । कुष्ठशोफारुचिहरो बलवर्णाग्निवर्दनः ।
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अकारादि -आसवअरिष्ट
सिद्धोऽयमभयारिष्टः कामलाश्वित्रनाशनः । क्रिमिग्रन्थर्बुदव्यङ्गराजयक्ष्मज्वरान्तकृत् ॥
हैंड़ आधा सेर, आमले १ सेर, कैथ ५० तोले, इन्द्रायन २॥ तोले, वायविडंग, पीपल, लोध, काली मिर्च और एलवाल्लुक प्रत्येक १० - १० तोला । सबको १२८ सेर जलमें पकावे । सेर पानी बाकी रहने पर छानकर उसमें सेर गुड़ डालकर चिकने मटके में भर कर यथा विधि सन्धान करके १५ दिन तक रक्खा रहने दे ।
३२
इसे यथोचित मात्रा में सेवन करने से अर्शके मस्से नष्ट हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त यह ग्रहणी विकार, पाण्डु, हृद्रोग, प्लीहा (तिल्ली ), गुल्म, उदर रोग, कोढ़, सूजन और अरुचिका नाश होता है तथा बल, वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती है । यह कामला, श्वेत कोढ़, कृमि, ग्रन्थि, अर्बुद, व्यङ्ग - झाई, राजयक्ष्मा और ज्वर का नाश करता है । मात्रा - २ तोले
१२ ॥
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(७१)
है ६ । सेर, दाख ३ सेर १० तोला, वायबिड़ंग ५० तोला और महुवे के फूल ६० तोला । सबको १२८ सेर जलमें पकाकर ३२ सेर रहने पर ठंडाकरके छानले और फिर उसमें गुड़ ६ । सेर, गोखरू, निसोत, धनियां, धायके फूल, इन्द्रायण, चय, सोया, सोंठ, दन्तीमूल और मोचरस प्रत्येक १०-१० तोले कूटकर डाले और यथाविधि मिट्टी पात्र में सन्धान करके अरिष्ट बनावे | १ मास पीछे छानकर सुरक्षित रक्खे। इसे अग्नि, कोष्ठ और बलादिके अनुसार सेवन करने से अर्श, आठ प्रकार के उदर रोग, मलावरोध, पेशाब बन्द होजाना और अग्निमांद्य आदिका नाश होता है । मात्रा - १ तोलेसे २ तोले तक ।
[१९३] अभयारिष्टः (३) (ग.नि.) हरीतकीदलप्रस्थं प्रस्थमालकस्य च । विशालायाः कपित्थस्य पाठाचित्रकमूलयोः ॥ द्वेद्वे पले समापोध्य द्विद्रोणे साधयेदपाम् । पादशेषे च पूते च रसे तस्मिन्प्रदापयेत् ॥ गुडस्यैकां तुलां वैद्यः संस्थाप्य मृतभाजने । पक्षस्थितं पिवेन्नित्यं ग्रहण्यशविकारनुत् ॥ प्लीहहृत्पाण्डुरोगमः कामला विषमज्वरान् । कासं श्वासं उदावर्त फलारिष्टो व्यपोहति ॥
[१९२] अभयारिष्टः (२) (भै. र. अर्श) अभयायास्तुलामेकां मृद्वीकार्द्धतुलां तथा । विडङ्गस्य दशपलं मधूककुसुमस्य च ॥ चतुद्रणे जले पक्त्वा द्रोण मेवावशेषयेत् । शीतीभूते रसे तस्मिन् पूते गुडतुलां क्षिपेत् ॥ श्वदंष्ट्रां त्रिवृतां धान्यंधातकीमिन्द्रवारुणीं । चव्यं मधुरिकां शुण्ठीं दन्तीं मोचरसं तथा ॥ पलयुग्ममितं सर्व पात्रे महति मृन्मये । क्षिप्त्वा संरुध्य तत्पात्रं मासमात्र न्निधापयेत् ॥ ततो जातरसंज्ञात्वा परिस्राव्य रसनयेत् । बलं कोgञ्च वन्हिश्च वीक्ष्य मात्रां प्रयोजयेत् । अशसि नाशेयच्छीघ्रं तथाष्टावुदराणि च । विद्धो बहि सन्दीपयेत्परम् ॥
|
हैड़ (गुठलीरहित) १ सेर, आमला १ सेर, इन्द्रायण, कैथ, पाठा, चीतामूल प्रत्येक १०-१० तोला । सबको कूट कर ६४ सेर जलमें पकावे, चौथा भाग रहनेपर छानकर उसमें ६ | सेर गुड़ धोलकर मिट्टीके चिकने बरतनमें विधिवत संघ करे । १५ दिन बाद निकालकर छानकर रक्खे | इसके सेवन से ग्रहणीविकार, बवासीर, तिल्ली, हृद्रोग, पाण्डुरोग, कामला, विषमज्वर, श्वास, खांसी और उदावर्तका नाश होता है । मात्रा - २ तोले ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[१९४] अभयारिष्टः (४) (ग. नि.) गिलोय ६। सेर, दशमूल ६। सेर। सवको अष्टौ पलानि वर्षाभू दशमूलार्कचित्रकाः। १२८ सेर जलमें पकाकर चौथा भाग शेष रहने दन्तीश्यामात्रिवृद्रानाश्चैवं स्युत्रिफलाढकम् ॥ पर छान ले और इसमें गुड़ १८॥ सेर, जीरा १ अम्बुद्रोणाष्टके पक्त्वा पादशेषे रसे स्थिते । सेर, पित्तपापड़ा १० तोले, सतोनेकी छाल, त्रिकुटा, द्वै गुडस्य तुले पूते तत्पश्चाद्घटके क्षिपेत् ॥ नागरमोथा, नागकैसर, कुटकी, अतीस और इन्द्रजौं गवा मूत्राढकं प्रस्थौ द्वावयोरजसस्तथा। प्रत्येक ५-५ तोले मिलाकर यथाविधि मिट्टी के विडॉ कुटजं कुष्ठं चित्रकं मरिचं वचाम् ॥ | पात्र में सन्धान करके रक्खा रहने दे । यह अरिष्ट सञ्चूर्ण्य द्विपलान्यस्मिन्दत्वा मासस्थितं पिवेत्। सब प्रकारके ज्वरोंका नाश करता है। आभयोऽयमरिष्टेन्द्रो मेहाशः कुष्ठशोफहा॥ । [१९६] अरविन्दासवः । प्लीहपाण्डामयान् गुल्मान्
(आ. वे. सं, भै. र. बालरोगा.) जठराणि च नाशयेत् ॥
अरविन्दमुशीरश्च काश्मरी नीलमुत्पलम् । पुनर्नवा, दशमूल, आक, चीता, दन्ती, काली | मञ्जिष्ठलाबलामांसीरम्बुदं शारिवां शिवाम् ॥ निसोत, रास्ना ४०-४० तोले, त्रिफला (मिलित) विभीतकवचाधात्रीः शठी श्यामां सनीलिनीम्। ४ सेर । सवको २५६ सेर जलमें पका, चौथा | पटोले पर्पटं पार्थ मधुकं मधूकं मुराम् ॥ भाग शेष रहनेपर छानकर ठंडा करके उसमें पलमानेन संगृह्य द्राक्षायाः पलविंशतिम् । १२॥ सेर गुड़ डाले और फिर ८ सेर गोमूत्र, लोह धातकी पोडशपला जलद्रोणद्वये क्षिपेत् ॥ चूर्ण (लोह भस्म) २ सेर, वायबिडंग, कुड़ेकी छाल, | शर्करायास्तुलां तत्र तुलाधे माक्षिकस्य च। कूठ, चीतामूल, मिर्च और बच प्रत्येक १०-१० । मासं संस्थापयेद् भांडे मृत्तिकापरिनिर्मिते ॥ सोले । कूट कर डाले और यथाविधि संधान करके | बालानां सर्वरोगघ्नो बलपुष्टयग्निवर्द्धनः ।। रक्खे । १ मास बाद निकाल कर छान ले। यह । अरविन्दासवः प्रोक्त आयुष्यो ग्रहदोषहत ॥ अरिष्ट प्रमेह, बवासीर, कोढ़, सूजन, तिल्ली, पाण्डु, कमल, खस, खम्भारीके फल, मजीठ, नीलोगुल्म और उदररोगोंका नाश करता है। फर, इलायची, बला, जटामांसी, नागरमोथा, [१९५] अमृतारिष्टः (आ. वे. सं. ज्वर.) सारिवा (अनन्तमूल), हैड, बहेड़ा, बच, आमला, अमृतायाः पलशतं दशमूली शतं तथा।। कचूर, काली निसोत, नीलका पंचांग, पटोल पत्र, चतुोणे जले पक्त्वा कुर्यात् पादावशेषितम् ॥ पित्तपापड़ा, अर्जुनकीछाल, महुवा, मुल्हैठी और शीते तस्मिन् रसे पूते गुडस्य त्रितुलाःक्षिपेत् । मुरामांसी। प्रत्येक ५-५ तोले, मुनका १०० अजाजीषोडशपलं पर्पटस्य पलद्वयम् ॥ तोले, धायके फूल १ सेर, पानी ६४ सेर, खांड सप्तपर्ण त्रिकटुकं मुस्तकं नागकेशरम् । ६। सेर, शहद ३ सेर १० तोला । सबको मिलाकटुकातिविषे चैन्द्रयवञ्च पलसम्मितम् ॥ । कर यथाविधि मिट्टी के बरतनमें सन्धान करके एकीकृत्य क्षिपेन्द्राण्डे निदध्यान्मासमात्रकम् ।। १ मास तक रक्खा रहने दे । यह आसव बालकों अमृतारिष्ट इत्येष सर्वज्वरकुलान्तकृत् ।। ' । के समस्त रोगोंका नाश करता है, बल, पुष्ठि आयु
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अकारादि-आसवअरिष्ट
(७३)
और अग्निकी वृद्धि करता है तथा ग्रह दोष घातक्याः षोडशपलं माक्षिकस्य तुलात्रयम् ॥ नाशक है।
| व्योपस्यद्विपलश्चापि त्रिजातकचतुष्पलम् । [१९७] अशोकारिष्टः
चतुष्पलं प्रियङ्गोश्च द्विपतं नागकेशरम् ॥ (आ. वे. सं.)
मासादूद्ध पिवेदेनं पलार्द्ध परिमाणतः। अशोकस्यतुलामेकां चतुद्रोणे जले पचेत् ।
| मूर्छामापस्मृति शोषमुन्मादमपि दारुणम् । पादशेषे रसे पूते शीते पलशतद्वयम् ॥ कार्यमासि मन्दत्वमग्नेर्वातभवान् गदान् । दद्याद् गुडस्य धातक्याः पलपोडशिकं मतम् । अश्वगन्धाधरिष्टोऽयं पीतो हन्यादसंशयम् ।। अजाजी मुस्तकं शुण्ठी दाव्युत्पलफलत्रिकम् ॥ असगन्ध ३ सेर १० तोला, सफेद मूसली १०० आम्रास्थि जीरकं वासां चन्दनच विनिक्षिपेत्। तोला, मजीठ, हरीतकी, हल्दी, दारु हल्दी, मुलैठी, चूर्णयित्वा पलाशेन ततो भाण्डे निधापयेत् ॥ रास्ना, विदारीकन्द, अर्जुन की छाल, नागरमोथा, मासादृर्द्धश्च पीत्वैनमसृग्दररुजां जयेत् । निसोत प्रत्येक ५०-५० तोले । अनन्तमूल, ज्वरश्च रक्तपित्ताशों मन्दाग्नित्वमरोचकम्। | और काली निसोत, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, मेहशोथारुचिहरस्त्वशोकारिष्टसंज्ञितः ॥
| बच और चिता प्रत्येक ४०-४० तोले। ____ अशोककी छाल ६। सेर लेकर १२८ सेर पानीमें पकावे । ३२ सेर पानी बाकी रहने पर
सबको अधकुटा करके १२८ सेर पानीमें पकावे ।
जब ३२ सेर बाकी रहजाय तो छानकर ठंडा छानकर ठंडा करके उसमें १२॥ सेर गुड़, १ सेर धायके फूल, जीरा, नागरमोथा, सोंठ, दारु हल्दी,
होनेपर उसमें धायके फूल १ सेर, शहद १८॥
सेर, त्रिकटु १०-१० तोले, त्रिजातक (तेजपात, नीलोफर, त्रिफला, आमकी गुठलीकी गिरी, काला
दाल चीनी, इलायची) २०-२० तोले, फूल प्रियंगु जीरा, बासा और सफेद चन्दन, प्रत्येकका चूर्ण ५-५ तोला मिलाकर यथाविधि सन्धान करके १
| १० तोले और नागकेसर १० तोले इन सबका मास तक रक्खा रहने दे । इसके सेवनसे लाल
चूर्ण डालकर यथाविधि सन्धान करके १ मास प्रदर, ज्वर, रक्तपित्त, बबासीर, मन्दाग्नि, अरुचि,
| तक रक्खा रहने दे । इसे प्रतिदिन २॥ तोले पीनेसे प्रमेह और सूजनका नाशहोता है । मात्राः-२ तोला
| मूर्छा, अपस्मार, शोष, दारुण उन्माद, कृशता, [१९८] अश्वगन्धारिष्टः (भै. र.)
अर्श (बबासीर), मन्दाग्नि, और वातज रोगोंका तुलार्द्ध आश्वगन्धायाः मुषल्याः पलविंशतिः। अवश्य नाश होता है । मञ्जिष्ठाया हरीतक्या रजन्योर्मधुकस्य च ॥ [१९९] अष्टशतोऽरिष्टः रास्नाविदारीपार्थानां मुस्तकत्रिवृतोरपि। (च. स. चि. अ. १२ श्वयथु) भागान् दशपलान् दद्यादनन्ताश्यामयोस्तथा ॥ काश्मर्यधात्रीमरिचाभयानां चन्दनद्वितयस्यापि वचायाचित्रकस्य च। । द्राक्षाफलानां च सपिप्पलीनाम् । भागानष्टपलान् क्षुण्णानष्टद्रोणेऽम्भसःपचेत् ॥ शतं शतं क्षौद्रगुडात् पुराणात् द्रोणशेषे कषायेऽस्मिन पूते शीते प्रदापयेत् । तुलान्तु कुम्भे मधुनापलिप्ते ॥
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(७४)
सप्ताहमुष्णे द्विगुणं तु शीते, स्थितं जलद्रोणयुतं पिबेना । शोफान्विबन्धकफवातजांश्च, सहन्त्यरिष्टोऽष्टशतोग्निकुच ॥
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भैषज्य रत्नाकर
[२०१] अजगन्धादि लेपः (बृ. नि. र. )
भारत-भ
1
|
खम्भारी के फल, आमला, काली मिर्च, हैड़, बहेडा, मुनक्का और पीपल, प्रत्येक ६ | सेर | पुराना गुड़ और शहद प्रत्येक १२ || सेर | सबको ३२ सेर पानीमें मिलाकर शहद से लेप किये हुवे मटके में भरकर यथाविधि सन्धान कर - गरमियों में १ सप्ताह तक और जाड़ोंमें २ सप्ताह तक रक्खा रहने दे । यह अरिष्ट कफ वातज सूजन और विबन्ध का नाश तथा अग्नि प्रदीप्त करता है ।
अथ अकारादि लेप प्रकरणम्
[२००] अहिफेनासवः (भै. र.) तुला मधूकमद्यस्य शुभे भाण्डे परिक्षिपेत् । फणिफेनस्य कुडवं मुस्तकं पलसम्मितम् ॥ जातीफलञ्चन्द्रयवं तथैलां तत्र दापयेत् ॥ रुद्धा भाण्डं मासमात्रं यत्नतः परिरक्षयेत् ॥ हन्त्यतीसारमत्युग्रं विसूचीमपि दारुणाम् ॥
महुवे की शराव १२ ॥ सेर, अथवा ( रेक्टीफाइड स्प्रिट), अफीम २० तोले, नागरमोथा, जायफल, इन्द्रयव और इलायची प्रत्येक ५-५ तोले । सबको यथाविधि मिट्टी के बरतन में सन्धान करके एक मास तक सुरक्षित रक्खे | इसके सेव - नसे अत्यन्त प्रबल अतिसार और दारुण विसूचिका (हैजे ) का नाश होता है । (मात्रा:- १० बूंद )
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[२०३] अयोरजादिलेप: (१) (बृ. नि. र., यो. चि . ) अयोरजो भृंगराजस्त्रिफला कृष्णमृत्तिकाः । स्थित मिक्षुरसे मासं लेपनात् पलितं जयेत् ॥
लोहका बुरादा, काला भांगरा, त्रिफला और काली मिट्टी को ईखके रसमें १ मास तक भीगा रहने दें | इसका लेप करने से पलित (बालोंका सफेद होना) रोगका नाश होता है [२०४] अयोरजादि लेपः (२)
( वृ. नि. र. )
अजगन्धाश्वगन्धा च काला सरलया सह ।
॥
कम्पिलका च भृंगी च प्रलेपः श्लेष्मशोथहा बनतुलसी, असगन्ध, कालानिसोत, सरल काष्ठ, कमीला और काकड़ासींगी । इनका लेप कफजनित सूजन का नाश करता है । [२०२] अजाज्यादि लेपः
(वृ. नि. र.) अजाजी हबुषा कुष्ठं गोमयं बदरान्वितम् । काञ्जिकेन तु सम्पिष्टं कुर्याद ब्रघ्नप्रलेपनम् ॥ जीरा, हाऊबेर, कूठ, गायका गोबर और बेर को काञ्जी में पीसकर लेप करने से वदका नाश होता है ।
अयोरजः सकासीसं त्रिफला कुसुमानि च । प्रलेपः कुरुते दायः सद्यएव नवत्वचि ॥
|
लोहेका बुरादा, कसीस, त्रिफला, लौंग और दारु हल्दी का लेप करने से नवीन त्वचाका रंग
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अकारादि-लेप
(७५)
पहिले जैसा होजाता है।
लेपः सनवनीता वा श्वेताश्वखुरजा मसीः॥ [२०५] अयोरजादि लेपः (३) ___अर्जुनकी छाल, मजीठ और बांस को पीसकर (वृ. नि. र.)
शहद में मिलाकर लगाने से अथवा सफ़ेद घोड़ेके सायोरजः कृष्णतिलांजनानि
खुरकी राख नवनीत में मिलाकर लगाने से झाई सावरगुजान्यामलकानि दग्ध्वा । और व्यंगका नाश होता है। पिष्ट्वा हि भृगस्य सकृद्रसेन
[२०९] अर्शोहर लेपः हन्यात् किलासं परिघृष्ट लेपात् ॥
(च. सं., चि. अ. १४ अर्हो) लोहेका बुरादा, काले तिल, सुरमा, बावची | कुञ्जरस्य पुरीपञ्च घृतं सर्जरसो रसः । और आमला, इनको जला कर भांगरे के रस में | हरिद्राचूर्णसंयुक्तं सुधाक्षीरं प्रलेपनम् ॥ पीस कर लेप करने से किलास कुष्टका नाश होता है। शिरीषबीज कुष्ठश्च पिप्पल्यः सैन्धवं गुडः । ___ मोट-लेप करने से पहिले कुष्ट को खुजा | अर्क श्री सधानी त्रिफला च प्रलेपनम ॥ लेना चाहिये।
पिप्पल्याचित्रकार श्यामाः किण्वं मदनतण्डुला: [२०६] अर्कादिलेपः (१) (वृ. नि. र.) दशशतकरदुग्धं पुष्करत्वक्समेतम् ।
प्रलेपः कुक्कुटशकृद् हरिद्रागुडसंयुतः ॥
___हाथीकी लीद, धी, राल, पारा और हल्दी दहनगुडनिकुम्भाकुष्ठकासीसयुक्तम् ॥
इनको थोहर के दूधमें पीसकर लेप करने से अथवा अपनयति वितीण लेपनं सप्तरात्रात् ।
सिरस के बीज, कूठ, पीपल, सेंधानमक, गुड़ और श्वयथुहरणयुक्तं कर्णकग्रन्थिमेतत् ॥
| त्रिफले को थोहर और आक के दूध में पीस कर पोखरमूल, दालचीनी, चीता, गुड़, दन्तीमूल
लेप करने से अथवा पीपल, चीता, काली निसोत, (अथवा कायफल), कूठ, कसीस, और सांठी की जड़ को आकके दूधमें पीसकर लेप करने से कर्णमूल
मैनफलके बीज, हल्दी, गुड़, और मुगेकी बीट इन शोथ का नाश होता है।
सबको किण्व (सुरा बीज) में पीसकर लेप करने से [२०७] अर्कादि लेपः (२)
अर्शका नाश होता है। (यो. र; ग. नि. अशों) [२१०] अवल्गुजादि लेपः आर्के पयः सुधाकाण्डं कण्टकालाबुपल्लवाः।
(च. सं., यो. र.) करञ्जो बस्वमूत्रेण लेपनं श्रेष्ठमर्शसां ॥ | अवल्गुजं कासमदं चक्रमदं निशायुतम् । ___ आक का दूध, और थोहर का डंठल, गोखरू, माणिमन्थं च तुल्यांशं मुस्तकाजिकपेषितम् ॥ कड़वी तोरीके पत्ते, करंजवे के पत्ते,. इन सबको कण्डूं कृच्छां जयत्युग्रां सिद्ध एष प्रयोगराट् ।। बकरे के मूत्रमें पीसकर लेप करने से मस्सोंका बाबची, कसौंदी, पंचाड़, हल्दी, सेंधानमक नाश होता है।
और नागरमोथा । इन सब को समान भाग लेकर २०८] अर्जुनत्वगादि लेपः (वृ. नि. र.) | कांजी में पीसकर लेप करनेमे अत्युग्र कंडू (खुजली) व्यङ्गेषु चार्जुनत्वक् च मञ्जिष्ठा वृष माक्षिकैः। ' का नाश होता है । यह सिद्ध प्रयोग है ।
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भारत-भैषज्य रत्नाकर
अथ अकारादि धप प्रकरणम्
[२११] अगुर्वादि धूपः (बृ. नि. र.)
अगुरुघनसारसल्लक
कररुहनतनीर चन्दनैर्युक्तः ।
सर्जरसेन समेतो धूपोरुग्दाहकं हन्ति ॥
अगर, कपूर, सल्लकी, नखी, तगर, सुगन्ध बाला, चन्दन, और राल । इनकी धूपसे रुग्दाह . सन्निपात शान्त होता है ।
[२१२] अश्वगन्धादि धूप : (वृ. नि. र. ) अश्वगन्धोऽथ निर्गुण्डी बृहती पिप्पलीफलम् ।
अथ अकारादि
[२१४] अर्कमूलादि धूम्रः (बृ. नि. र.) अर्कमूलशिलातुल्यं ततोर्जेन कटुत्रिकम् । चूर्णितं वह्निनिक्षिप्तं पिबेद्ध्रुमं तु योगवित् ॥ भक्षयेदथ ताम्बूलं पिबेदुग्धमथापि वा । कासः पश्वविधो याति शान्तिमाशु न संशयः ॥
[२१५] अञ्जन नं. १ (मूर्द्धान्तिक ) शिरीषबीजं गोमूत्रं कृष्णमरिच सैन्धवैः । अञ्जनं स्यात् प्रबोधाय सरसोनशिलावचैः ।
सिरस के बीज, पीपल, काली मिर्च, सेंधा नमक, ल्हसन, मनसिल और चचको गोमूत्र में पीसकर अञ्जन बनावे । इससे मूर्छा नष्ट होती है
[२१६] अञ्जन नं. २ (बृ. नि. र.) अञ्जनं सम्यगारन्धं मधुसिन्धुशिलोषणैः । प्रमोद्रोहि भवति भाषितं भिषजां वरैः ॥
धूपोयं स्पर्शमात्रेण ह्यर्शसां शमने लम् ॥ असगन्ध, निर्गुण्डी बड़ी कटेली और पीपल । इसकी धूनी के स्पर्श मात्र से ही अर्श नष्ट हो जाती है।
अथ अकारादि अञ्जन
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[२१३] अष्टगन्ध धूप: (शा. नि. भू.) कर्पूरं चन्दनं मुस्ता कुङ्कुमं देवदारु च । रोचना केशरोशीरं गन्धाष्टकमुदाहृतम् ॥
कपूर, चन्दन, नागरमोथा, केसर, देवदारू, गोरोचन, नागकेसर और खस । इनके योग को गन्धाष्टक कहते है ।
धूम्र प्रकरणम्
आक की जड़ और मनसिल, १ - १ भाग । त्रिकुटा आधा भाग । इनके चूर्णका विधिवत् धूम पान करके ऊपरसे ताम्बूल खानेसे अथवा दूध पीनेसे पांच प्रकारकी खांसीका नाश होता है ।
प्रकरणम्
शहद, सेंधानमक, मनसिल और मरिच । इनका अञ्जन मोहका नाश करता है । [२१७] अञ्जन नं. ३ (चातुर्थिकारी) ( वृ. नि. र. ) त्र्यूषणं हिंगुलवण वचा कटुरोहिणी । शिरीषनक्तमालानां वीजं श्वेताश्च सर्षपाः ॥ गोमूत्रपिष्टैरेतैस्तु वर्तिनेत्राञ्जने हिता । चातुर्थकमपस्मारमुन्मादं च नियच्छति ॥ त्रिकुटा, हींग, लवण, बच, कुटकी, सिरस के
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अकारादि-अञ्जन
(७७)
बीज, करञ्जवे की गिरी, सफ़ेद सरसों । इन्हे गोमूत्रमें | बकरीके दूधमें ७-७ बार यथा क्रम बुझावे । फिर पीमकर वत्ती बनावे । इसे आंखमें आंजने से चौथिया इस शुद्ध सीसेकी सलाई बनवावे । यह सलाई ज्वर, अपस्मार और उन्माद का नाश होता है। आंख में अञ्जन लगानेके लिए अत्युत्तम है । अञ्जन
[२१८] अञ्जन नं. ४ (वृ. नि. र.) काले भागके नीचे आंखके कोये तक करना शिरीषपुष्पं लशुनं शुण्ठी, सिद्धार्थकं वचा। चाहिये । सलाई से आंखके तिल का स्पर्श न होने मञ्जिष्ठा रजनी कृष्णा बस्तमूत्रेण पेपयेत् ॥ | दे। पहिले बाई आंखमें 3जन लगावें और फिर वटी छायासु शुष्काया सा हिता नावनाञ्जने ॥ दाहिनी आंखमें । हेमन्त और शिशिर ऋतुमें अञ्जन
सिरसके फूल, ल्हसन, सोंठ, सफेद सरसों, मध्याह्नमें लगावें ग्रीष्म और शरदकालमें प्रातः तथा बच, मजीठ, हल्दी, पीपल, इनको बकरेके मूत्रमें सायंकाल एवं वसन्त ऋतुमें चाहे जब लगा पीसकर गोलियां बनाकर छायामें सुखावे । इसका खकते हैं। अञ्जन अथवा इसकी नस्यसे उन्माद का नाश
[२२१] कामला हराञ्जनम् (बृ. नि. र.) होता है।
। अञ्जनं कामलार्वानां द्रोणपुष्पीरसं शुभम् । [२१९] अञ्जन नं. ५ नेत्रशुक्र(फुला)
निशागैरिकधात्रीणां चूणसिंप्रकल्पयेत् ॥ नाशक (वृ. नि. र.) । ताप्यं मधूकसारो वा बीजं चाक्षस्य सैन्धवम् ।
___ कामलासे पीड़ित रोगीके लिये गोमाके रस मधुनाञ्जनयोगास्युश्चत्वारः शुक्रनाशनः॥
| अथवा हल्दी, गेरू और आमले के चूर्णका अञ्जन सोना मक्खी, महुवेका सार, बहेड़ेकी मांग | हितकर और सेंधानमक । इनमें से किसी एकको मध [२२२] अमृताञ्जन नं. ७ (र. चि. म.) साथ मिलाकर अञ्जन करने से आंखके फूलेको रसेन्द्रभुजगौ तुल्यौ ताभ्यां द्विगुणमञ्जनम् । आराम होता है।
ईपत्कर्पूरसंयुक्तमञ्जनं तिमिरापहम् ॥ [२२०] अञ्जनशलाका (यो.र.र. चं। नेत्ररोगा.) शुद्ध पारा और सीसा १-१ भाग, इनसे त्रिफलाभृङ्गशुण्ठीनां रसैस्तद्वच्च सर्पिषा। दोगुना सुरमा और थोड़ासा कपूर मिलाकर बनाया गोमूत्रमध्वजाक्षीरः सिक्तो नागः प्रतापितः॥ हुवा सुरमा तिमिर (आंखों के आगे अंधेरा आना) कृष्णभागादधः कुर्यादपाङ्गं यावदञ्जनम्। रोगका नाश करता है। प्रथमं सव्यमञ्जीयात् पश्चाद्दक्षिणमञ्जयेत् ॥ [२२३] अञ्जन नं. ८ (अपामार्गादि) शलाकया साञ्जनया न च तनयनं स्पृशेत् ।। ।
(वृ. नि. र.) हेमन्ते शिशिरेवापि मध्याह्नेऽञ्जनमिष्यते ॥ अपामार्गस्य पत्राणि मरिचानि समानि च । पूर्वाह्न वा ऽपराह्ने वा ग्रीष्मे शरदि चेष्यते। | अश्वस्य लालया पिष्टान्यञ्जनाद्धन्ति सूचिकाम् ।। वर्षास्विनः नात्युष्णे वसन्ते च सदैव हि ॥ | अपामार्ग (चिरचिटे) के पत्ते और कालीमिर्च
सीसेको तपा तपाकर त्रिफला, भांगरा, सोंठ, समान भाग लेकर घोड़े की लारमें पीसकर अञ्जन इनके रस या क्वाथ और घी, गोमूत्र, शहद तथा लगाने से हैंजेका नाश होता है।
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भारत-भैषज्य रत्नाकर
[२२४] असुरादि अञ्जन नं. ९ । शिरीषबीजं मरिचोपकुल्या (वृ. नि. र.)
मूत्रेण घृष्टं सह सैन्धवेन। असुराहस्य विट्चूर्ण कस्तूरीमधुसंयुतम् । ।
नेत्राञ्जनं स्यानयने नराणां अञ्जनाद्बोधयेन्मुग्धं तन्द्रितं सन्निपातिनम् ।।
प्रनष्टसंज्ञं प्रकरोति बोधः॥ ____ कांसीके भैलका चूर्ण और कस्तूरीको बारीक | पीसकर मधुमें मिलाकर अञ्जन लगानेसे सन्निपात सिरसके बीज, काली मिर्च, पीपल और सेंधा की बेहोशी और तन्द्रा दूर होती है। नमक इनको गोमूत्रमें पीसकर अञ्जन लगाने से [२२५] अञ्जन नं. १० (बोधक) (हा. सं.) बेहोशी दूर होती है।
अथ अकारादि नस्य प्रकरणम् [२२६] अगस्तिपत्र-नस्यम् (बृ. नि. र.) | हितकारी है। एवं कुत्ते, गीदड़, बिल्ली तथा अखण्डितशरत्कालकलानिधिसमानने। सिंहादिके मूत्रकी नस्य भी हितकर है। चातुर्थिकहरं नस्य मुनिद्रुमदलाम्बुना॥ (१) भारंगी, वच और नागदन्ती, (२) श्वेत
हेचन्द्रमुखि ! अगस्ति (अगथिया) के पत्तोंके | अपराजिता और वृहत् मेढा शृङ्गी, (३) माल रसकी नस्य लेनेसे चातुर्थिक ज्वरका नाश होता है। | कंगनी और नाग दन्ती इन तीनों प्रयोगोंमें से २२७] अपस्मारहरनस्यम्(१) (वृ.नि. र.)| किसीको गोमूत्रमें पीसकर पांच छ: बिन्दु नाकमें आरण्यत्र सीचूर्ण नस्येनापस्मृतिं जयेत् ॥ | टपकाने से अपस्मारका नाश होता है।
बनखीरेके चूर्णका नस्य अपस्मार रोगका | त्रिफला, त्रिकुटा, दारु हल्दी, यवक्षार,तुलसी, नाश करता हैं।
काली निसोत, अपामार्ग और करञ्जवेके फलोंके [२२८] अपस्मारहरनस्यम् (२) (च. सं.)| कल्क तथा बकरेके मूत्रसे सिद्ध तैलकी नस्य देनेसे कपिलानां गवां मूत्रं नावनं परमं हितम्। | अपस्मारका नाश होता है। श्वशृगालविडालानां सिंहादीनाश्च शस्यते ॥ [२२९] अश्वगन्धादि नस्यम् भाङ्गी वचा नागदन्ती श्वेता शता विषणिका। | तुरंगगन्धा लवणोपगन्धा ज्योतिष्मती नागदन्ती पादोत्था मूत्रपेषिताः॥ मधूकसारोषणमागधीभिः। योगास्त्रयोऽतः षड्विन्दून् पञ्च वा नावयेद्भिपक्| वस्ताम्बुशुण्ठीलशुनान्विताभित्रिफलाव्योषपीतद्रुयवक्षारफणिञ्झकैः॥ नस्यं त्वसंभुनदृशं करोति ॥ श्यामापामार्गकारञ्जफलैमत्रेऽथ वस्तजे। । असगन्ध, सेंधानमक, वच, महुवेका सार, साधितं नावनं तैलमपस्मारविनाशनम् ॥ | मरिच, पीपल, सोंठ और ल्हसनको बकरेके मूत्रमें
अपस्मारमें कपिला गायके दूधकी नस्य अत्यन्त 'पीसकर नस्य लेनेसे नेत्र स्वच्छ होते हैं।
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अकारादि-रस
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अथ अकारादि रस प्रकरणम्
ज्ञातव्य रसों की शक्ति अचिन्त्य है, जहां अन्य समस्त औषधियां निष्प्रयोजन सिद्ध होती हैं वहां रस अपने अनन्य प्रभाव से पण्डितों तक को आश्चर्य में डाल देते हैं । रसों के सेवन से वृद्धावस्था का निरोध, रोगोंका बहिष्कार और स्वस्थ शरीरों में शक्ति का संचार होता है। सर्व साधारण का यह विचार कि ४० वर्षकी अवस्थासे पहिले रस सेवन न करना चाहिये, यह सर्वथा निर्मूल और शास्त्र विरुद्ध है, वस्तुतः शास्त्र लेख तथा अनुभव तो कहता है कि जन्म काल से अन्त समय तक हर अवस्था में निर्भय होकर रसोंका सेवन किया जा सकता है। रसों के समान गुणकारी हानि रहित अन्य वस्तु मिलना कठिन हैं, परन्तु वह सब गुण तभी प्राप्त हो सकते हैं कि जब औषधियां शास्त्रोक्त रीति से तैयार की गई हों अन्यथा लाभ के स्थान में हानि हो तो कोइ आश्चर्य की बात नहीं है। इसके अतिरिक्त रसोंमें जो धातु, उपधातु, रन, उपरत्न, उपरस, विष, उपविष आदि व्यवहृत होते हैं उन्हें भी विधिवत् शोधन, मारण करके ही लेना चाहिये चाहे पाठ में शोधन की आज्ञा स्पष्ट रूपेण लिखी हो अथवा इस विषय में मौन धारण किया गया हो।
[२३०] अगन्धखर्परपर्पटी (वृ. नि. र.) , जयन्ती, निर्गुण्डी, त्रिकुटा, वासा, कन्या कुमारी। भागौ रसस्य द्वावेको द्वावेको लोहमस्मनः। | इनके रसकी ७-७ भावना देकर सुखाकर १
लघु पुट दे। यह रस उचित अनुपान के साथ एतद् घृते द्रवीभूतं मृद्वग्नौ कदली दले॥
सेवन करने से समस्त रोगों का नाश करता है पातयेत् गोमयगते तथैवोपरि योजयेत् । ।
और पान तथा तुलसी के काथ के साथ या गो ततः पिष्ट्वा द्रवैरेभिर्मदयेत् सप्तधा पृथक् ॥
मूत्र के साथ सेवन करनेसे श्वास और खांसी का माङ्गीशुण्ठीमुनिवराजयानिर्गुण्डिकाद्रवैः।।
नाश होता है। मात्रा २ माशे । व्यवहारिक व्योषवासककन्याद्रवैः शुष्कैः पुटेल्लघुः॥
मात्राः-२ रती। अगन्ध खर्परो नाम्ना पर्पटीति रसोभवेत् ।
[२३१] अगस्ति सूतराजः (१) (र.से.चि.) सर्वरोगहरः स्वैः स्वैरनुपानैर्द्विमाषतः॥ ।
रसोंऽशुमालीजयपाललोहःताम्बूलपत्रसहितः कासश्वासहरः परः।
शिलाहरिद्रावलयः समांशाः । सकणः सुरसाकाथोऽनुपानं वा सगोजलम् ।।
व्योषाग्निभृङ्गाकनिम्बुनीरैशुद्ध पारा १२ भाग, लोह भस्म १२ भाग,
निर्गुण्डिकारग्वधमूलकाभिः॥ इनको खूब घोट कर फिर थोड़ेसे धीमें मन्दी आग
पृथग्विमोदरनाशनीयम्पर पिघलाकर विधिवत् गोवर केलेके पत्र पर पर्पटी
बल्लद्वयो वा क्रमसात्म्यतो वा। बनावे फिर पीसकर नीचे लिखी चीजोंकी ७-७ कम्पिल्लचूर्णेन समश्च दत्तोभावना दे। भारंगी, सोंठ, अगथिया, त्रिफला, जलोदरादीञ्जयतीह रोगान् ॥
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(८०)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
अगस्तिसूतः सशिवा गुडोयम्- है जिस प्रकार अगस्य मुनिने समुद्र का शोषण
सम्पाचनादि क्रम शुद्ध देहे। क्षणभरमें कर लिया। शुद्ध पारा, ताम्र भस्म, शुद्ध जमाल गोटा, इसे १ रत्ती की मात्रामें घृत और कालीमिर्च लोह भस्म, शुद्ध मनसिल, हल्दी, और शुद्धगन्धक के चूर्णके साथ सेवन करानेसे प्रवाहिका, जीरे प्रत्येक १.१ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी और जायफलके चूर्णके साथ देनेसे ६ प्रकारके कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधियों अतिसार तथा त्रिकुटेके चूर्ण और मधुके साथ का चूर्ण मिला कर खरल करें तत्पश्चात् त्रिकुटेके देनेसे हर प्रकारका वमन, शूल, कफ और वातके क्वाथ, चीते, भांगरे और नींबुके रस तथा अद्रकके विकार अग्निमांद्य और निद्राका नाश होता है। रस और संभालु तथा अमलतासकी छालके रस [२३३] अग्निकुमारोरसः (१) की १-१ भावना दे। पाचनादि क्रमसे रोगीकी ! (र. र. स. अं. वृ., र. च. गुन्मा) शुद्धि करके हरड़के चूर्ण और गुड़के साथ इसे जैपालगंधाश्मरसत्रयाणां३-३ रतीकी मात्रामें खानेसे अथवा कबीलेके साथ ।
___फलत्रयस्यापि कटुत्रयस्य । खानेसे जलोदरादि उदररोगोंका नाश होता है।
मूत्रे गवां षोडशभागमाने[२३२] अगस्ति सूतराजः (२)
भागानवैकत्र दिनत्रयं च ॥ (यो.र., र.रा. सु., र.चं. ग्रहण्या., बृ.यो.तत. ६७) ।
विमर्य तेषां बदरप्रमाणारसवलिसमभागं तुल्याहिङ्गुलयुक्तं
बद्धा वटीमुष्णजलानुपानात् । द्विगुणकनकबीजं नागफेनेन तुल्यम् । एकात्र युक्ता सहसा निहन्तिसकलविहितचूर्ण भावयेद् भृङ्गनीरे- +
सा रेचयित्वा मलजालमादौ॥ ग्रहणीजलधिशोषे सूतराजोद्य गस्ति । गुल्मं यत्कृत्पाण्ड्डविबन्धशूलंघृतमरिचयुतोऽयं गुञ्जमानं प्रवाह
मान्य ज्वरं चाथ जलोदरश्च । हरति षडतिसाराञ्जीरजातीफलेन ॥ अग्नेः कुमारः सहसा निहन्यात्रिकटुकमधुयुक्तः सर्ववान्तिश्चशूलम्
दुद्दीपितो दीप इवान्धकारम् । कफपवनविकारं वह्निमांद्यं च निद्राम् ॥ शुद्ध जमाल गोटा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारा,
पारा १ भाग, गन्धक १ भाग और हिंगुल त्रिफला और त्रिकुटा, १-१ भाग ले प्रथम पारे १ भाग, धतूरेके बीज २ भाग तथा शुद्ध अफीम और गन्धककी कजकी बनावें और फिर उसमें अन्य २ भाग। प्रथम पारे गंधककी कजली बनावे औषधियां मिलाकर सबको १६ गुने गोमूत्रमें ३ फिर अन्य पदार्थों का महीन चूर्ण करके सबको | दिन तक घोटकर छोटे बेरके समान गोलियां बनाबें मिलाकर भांगरेके रसमें घोटे । यह रसराज ग्रहणी ये गोलियां ऊष्ण जलके साथ खानेसे विरेचन रोग रूपी समुद्रका उसी प्रकार नाम शेष कर देता होकर उदरस्थ मल बाहर निकल जाता है। और
+ पाठान्तरः-निखिल विहत चूर्ण षोडशाश गुल्म, पाण्डु, जिगर, कब्ज, शूल अग्नि मान्द्य ज्वर विषं स्याद्
| जलोदर, आदिका नाश होता है। मात्राः-१गोली
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अकारादि-रस
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( ८१ )
[२३५] अग्निकुमारो रसः (३) (बृ. नि. र. र. से. चि., अ. र. ) star का ग्राह्य गन्धकाद् द्वौ तथैव च । यत्नतस्तूभयं मद्यं दिनं हंसपदीरसैः । कल्कस्य टिकां कृत्वा निक्षिपेत् काचभाजने ।
ममृतं तत्र क्षिया वक्त्रं निरोधयेत् ॥ कूपिकायाः परौ भागौ वालुकाभिश्च पूरयेत् । सार्द्धं यावदहोरात्रं तावत्तत्र पचेद्रसम् ॥ दीपमात्रं समारभ्य पावकं वर्द्धयेच्छनैः । स्वाङ्गशीतलतां ज्ञात्वा समाकृष्यरसं ततः ॥ तोलार्द्धममृतं तत्र क्षिपेत्तावत्तथोपणम् ॥ भक्षितोरयंरक्तिमात्रो रसस्त्वग्निकुमारकः । सन्निपातज्वरं हन्याद्वातं मन्दाग्नितामपि ।। शूलं संग्रहणीं गुल्मं क्षयं पाण्डुगदं तथा । श्वासकासादिकान्सर्वान् गदानेष विनाशयेत् ॥
[२३४] अग्निकुमारो रसः (२) (भै. र.) मरिचोप्राकुष्ठस्तैः सर्वैरेव समं विषम् । पिष्ट्वा चार्द्ररसेनैव वटिका रक्तिकामिता ॥ आमज्वरे प्रथमतः शुण्ठया च मधुपिष्टया । आर्द्रकस्यरसेनापि निर्गुण्ड्याच कफज्वरे ॥ पीनसे च प्रतिश्याये आर्द्रकस्य च वारिणा । अग्निमान्धे लवङ्गेन शोथे सदशमूलकः ॥ ग्रहण्ये सहशुण्ठया च मुस्तकेनातिसारके । सामे च धान्यशुण्ठीभ्यां पक्के च कुटजं मधु। सभपातज्वरारम्भे पिप्पल्यार्द्रकवारिणा ॥ कण्टकार्या रसैः कासे श्वासे तैलगुडान्वितम् । पीत्वा वटीद्वयं रोगी स्वास्थ्यं समुपगच्छति । सर्वेषामेव रोगाणामामदोषप्रशान्तये । अग्निवृद्धिकरोनाना विख्यातोऽग्निकुमारकः ॥
॥
1
काली मिर्च, वच, कूठ और नागरमोथा, १ - १ भाग तथा विष ४ भाग लेकर सबको अद्रक के रसमें घोटकर १९ - १ रत्ती भरकी गोलियां बनावें । इसे सोंठ और मधुके साथ खाने से आमज्वर, अद्रक और निर्गुण्डीके रसके साथ खाने से कफज्वर, अद्रक के रसके साथ सेवन करने से जुकाम और पीनसका नाश होता है। अग्निमांद्यमें लवंगके साथ, सूजनमें दशमूल क्वाथ के साथ । ग्रहणीमें सोंठके साथ, अतिसारमें नागरमोथेके साथ, आमतिसारमें सोंठ और धनियेंके साथ, 'पक्वातिसार में कूड़ेकी छालके क्वाथ और मधुके साथ, सन्निपात ज्वरके आरम्भमें पीपल और अद्रक के रसके साथ, खांसी में कटेली रसके साथ, श्वासमें तैल और गुड़के साथ २-२ गोली खानी चाहिएं। ये गोलियां समस्त रोगों में आमदोषकी शान्ति के लिये सेवन की जा सकती हैं । यह रस अग्निवृद्धिके लिए प्रसिद्ध है ।
शुद्ध पारद और गन्धक २॥ - २॥ तोले लेकर दोनोंको १ दिन हंसापदीके रसमें खरल करे फिर उसका गोला बनाकर कपरमिट्टी की हुई आतशी शीशीमें डाल दे और उसमें १ | तोला शुद्ध वच्छनाग डाले, फिर शीशीका मुख बन्द करके बालुका यन्त्र में रखकर शीशीके गले तक रेत भरकर १ || दिनतक अग्नि दे। प्रारंभ में दीप शिखा के समान अग्नि देकर धीरे धीरे बढानी चाहिए सर्वथा शीतल होने पर गोलेको निकालकर खरल में डालें और उसमें आधा तोला शुद्ध विष तथा आधा तोला कालीमिर्च डालकर घोटे | यह 'अग्निकुमार रस' एक रत्ती की मात्रा में खानेसे सन्निपात ज्वर, वातज्वर, मन्दाग्नि, शूल, संग्रहणी, गुल्म, क्षय और पाण्डु, तथा श्वास खांसी का नाश करता है । मात्रा:१ रत्ती ।
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[२३६] अग्निकुमारो रस: ( ४ ) (बृ. नि. र.)
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भारत-भैषज्य-२
सूतेन गन्धं सह टङ्कणेनसमं विषं योज्यमिह त्रिभागम् । कपर्दशंखावपि तत्र भागौमरीचकैरष्टगुणैर्विमिश्रम् || जम्बीरनीरेण विमर्दनीयं
सिद्धो भवेदग्निकुमार एषः । देयो हि गुञ्जाद्वितयो हि शूलेत्रिदोषजे योजय सानुपानम् ॥
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध सुहागा १-१ भाग, विष ३ भाग तथा कौड़ी भस्म और शंख भस्म, २-२ भाग, कालीमिर्च ८ भाग । सबको जंबीरी नींबू के रस में खरल करे यह 'अग्निकुमार रस' उचित अनुपानसे २ रत्ती मात्रा में सेवन करनेसे त्रिदोषज शूलका नाश करता है ।
[२३७] अग्निकुमारो रस: (५) ( र. र., रसे. (चि. )
टङ्कणं रसगन्धौ च सम भागंत्रयं विषात् । कपर्दः स्वर्जिकाक्षारो मागधी विश्वभेषजम् ॥ पृथक्पृथक् कर्षमात्रं वसुभागमिहोषणम् । जम्बीराम्लैर्दिनं घृष्टं भवेद ग्रिकुमारकः ॥ विसूचीशूलवातादिवह्निमान्द्यप्रशान्तये |
शुद्ध सुहागा, शुद्धपारा, शुद्ध गन्धक, प्रत्येक १। - १। तोला, शुद्ध विष ३ ||| तोला, कौड़ी भस्म, सज्जीखार, पीपल और सोंठ, ११-१| तोला, काली मिर्च १० तोला लेकर, पहले पारे गन्धककी कज्जली करके सबको जम्बीरी नींबू के रसमें खरल करे। यह 'अग्निकुमार रस' विषूचिका, शूल, अग्निमांद्य और आमाजीर्ण का नाश करता है ।
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[२३८] अग्निकुमारी रस: ( ६ ) ( र. र.) शुद्धं सूतं विषं गन्धं प्रतिनिष्कत्रयं त्रयम् । मरिचं सर्वतुल्यं स्यात्कण्टकारीफलद्रवैः || मर्द्दयेद्भावयेत्तेन भावनाचैकविशंतिः ॥ देया गुञ्जाद्वयं खादेत्सर्वाजीर्ण प्रशान्तये । विसूचिकां निहन्त्याशु रसोह्यग्निकुमारकः ।
शुद्ध पारा, शुद्ध विष, शुद्ध गन्धक १-११ तोला, काली मिर्च सबके बराबर लेकर प्रथम पारा गन्धककी कज्जली करके सबको कटेलीके फलों के रसकी २१ भावना दे । यह 'अग्निकुमार रस' सर्व प्रकार के अजीर्ण और विसूचिका का नाश करता है । मात्राः - २ रत्ती ।
[२३९] अग्निकुमारो रसः (७)
( र. र., र. र. स.)
शुद्धतं 'विषं गन्धं द्विक्षारं पदुपञ्चकम् । दशकं तुल्यतुल्यांशं भर्जिता विजयानवा || दशानां तुल्यभागानां ततोर्द्ध शिशुमूलकम् । तत्सर्व विजयाद्रावैः शिचित्रकभृङ्गजैः ॥ द्रवैर्दिनद्वेयं मद्यं ततो भाण्डे पचेल्लघु दीप्ताग्निना तु यामेकं शुद्धं पक्कं समुद्धरेत् ।। सप्तधा चार्द्रकद्रावैचित्रकैर्भावयेद् भिषक् ॥ दीपनोऽग्रिकुमारोऽयं निष्कैकं मधुनालिहेत् । प्रतिकर्ष गुडं शुण्ठीमनु स्यादग्निदीपनः ॥
शुद्ध पारद, शुद्ध विष, शुद्ध गन्धक, यवक्षार, सजी क्षार, पांचोनमक । यह दशों चीजें समान भाग, ताजी भुनी हुई भांग सबके बराबर सौंजनेकी जड़की छाल भांगसे आधी लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य पदार्थों का चूर्ण मिलाकर सबको भांग, सौंजने, चीते और भांगरेके रसमें पृथक् पृथक् २-२ पाठान्तर :- १ मृतं २ त्रिक्षारं ३ श्रयं
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अकारादि-रस
(८३)
दिन खग्ल करके सम्पुट में रखकर १ पहर तक | 'वैरोचन' रस की भांति पकावे । इसके सेवन दीप्ताग्निमें पकावे । फिर निकाल कर अद्रक और | करने से अनेक प्रकार के रोगों का नाश होता है। चीतके रसकी ७-७ भावना दे । इसे ५ माषा इसके ऊपर घी कुंवारके रसमें सेंधानोन मिलाकर की मात्रा से मधुके साथ सेवन करनेसे और उप- | लेहकी तरह बनाकर चाटें, यह अनुपान है। रसे गुड़ और सोंठ ११-१। तोला मिलाकर खानेसे | इससे अग्नि प्रदीप्त होती है। अग्निप्रदीप्त होती है। ( व्यवहारिक मात्रा २-३ [२४२] अग्निकुमारो रसः (१०) (र. र.) रत्ती)।
पलैकं मूञ्छितं मृतं मरीचं हिगुजीरकम् । [२४०] अग्निकुमारो रसः (८) (र. र.) प्रतिकर्ष वचाशुण्ठी तत्सर्व भृङ्गजैवैः ॥ शुद्धसूतं विषं गन्धमजमोदां फलत्रिकम् । दिन मद्य लिहेन्माषं मधुवह्निदिने पिवेत् । खर्जिक्षारं यवक्षारं वहिसैन्धवजीरकम् ॥ माषैकं भक्षयेच्चानु दाडिमं नागरं गुडम् ।। सौवर्चलं विडङ्गानि सामुद्रं त्र्यूषणं समम् । कजली ५ तोला, काली मिर्च, हींग, जीरा, विषमुष्टिं सर्वसमां जम्बीराम्लेन मद्देयेत् ॥ | वच और सोंठ, ११-१। तोला लेकर सबको एक मरिचाभा वटी खादे वह्निमान्द्यप्रशान्तये। दिन भांगरे के रसकी भावना दें। इसे चीते के पथ्यां शुण्ठी गुडं चानु पलार्द्ध भक्षयेत्सदा॥| चूर्ण और शहद के साथ मिलाकर चाटने और
शुद्ध पारा, शुद्ध विष, शुद्ध गन्धक, अज- ऊपर से गुड़ और सोंठ का चूर्ण तथा दाडिम का मोद, त्रिफला, सज्जीखार, यवक्षार, चीता, सेंधा- रस पीनेसे अग्नि प्रदीप्त होती है । मात्राः-१ माषा । नमक, जीरा, सौंचल, वायविडंग, समुद्रनमक, | [२४३] अग्निकुमारो रसः (११) (र. र.) त्रिकुटा प्रत्येक समान भाग, कुचला सबके बगबर द्विपलं शुद्धताम्रन्तु शुद्धसूतं पलत्रयम् । लेकर प्रथम पारा गन्धककी कजली बनाकर सबको | पिष्टं जम्बीरजैवैः कुर्यात्खल्वे भिषग्वरः ।। जंबीरीके रसमें धोटकर मरिचके बराबर गोलियां | गन्धकं चामृतं तत्र प्रत्येकं पलपञ्चकम । बनावे । इसको खाकर ऊपरसे हैड सोंठ और गुड़
| कजलीकृत्य तत्सर्व भाव्यं निम्बुकजैवैः ॥ २॥-२॥ तोला खानेसे अग्निमांद्य नष्ट होता है ।
चूर्णित पिठरीमध्ये क्षिपेनिम्बुकजेद्रवे । [२४१] अग्निकुमारो रसः (९) (र. र.)
धर्मे दिनाष्टकं भाव्यं द्रवो देयः पुनः पुनः।। रसभस्मसमं गन्धं धात्री द्विगुणटङ्कणम् । भद्रावस्यहं भाव्यं त्रिवारमाकजैद्रवैः । दिनं जम्बीरजैविमद्य पूर्या वराटिका ॥ विधामृतारसैर्भाव्यं रसो ह्यग्निकुमारकः ॥ रुद्धा गजपुटे पश्चाद्यथा वैरोचनो रसः।।
अस्य गुञ्जात्रयं खादेदग्निमान्धप्रशान्तये ॥ तथा कुर्याच रोगाणां फलं तद्वन्न संशयः
___शुद्ध ताम्र (भस्म) १० तोला और पारा १५ कुमारी सैंधवं चानु लेहयेदग्निदीपनम् । तोला सब को जम्बीरी नीबूके रस में घोटे फिर
रस सिन्दूर, गन्धक १-१ भाग, आमला, गन्धक और शुद्ध वच्छनाग २५-२५ तोला डालकर सुहागा २-२ भाग । १ दिन जम्बीरी नींबू के कजली करके कांच की बरनी में भरदे और जरस में खरल करके कौड़ियों में भरकर गजपुट में ' म्बीरी नींबूके रसकी भावना दे। धूप में सुखाकर
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भारत-भैषज्य-रत्नाकर
फिर भावना दे इसी प्रकार ८ दिन नींबूके रसकी, , तांबे की भस्म मिलाकर ज्वालामुखी के रसकी २१ ३ दिन भांगरे के रसकी, ३ दिन अद्रक के भावना दे । इसे २ रत्तीभर नागरवेल के पानमें रसकी और ३ दिन गिलोय के रसकी भावना दे। रखकर खाने से वातगुल्म का नाश होता है । इसको ३ रत्ती प्रमाण में सेवन करनेसे अग्निमांद्य | अनुपान काक जंघाका क्वाथ । का नाश होता है।
[२४५] अग्निकुमारो रसः (१३) [२४४] अग्निकुमारो रसः (१२)
(र. र. स. अजीर्णा.) (र. र. उदरा.)
हंसपादीरसैः पिष्टं रसगन्धकयोः पलम् । शुद्धं सूतं समं गन्धं शुद्धतालं मनःशिला। | कोलं च विषचूर्णस्य वालुकायन्त्रपाचितम् ।। तुल्यांशं चैत्रकं मूलं यवमासूरजैवैः॥ शाणं विषस्यार्धपलं मरिचस्य विमिश्रयेत् । जम्बीरैश्च तथा मयं तद् गोलं श्रावसम्पुटे । | दीपनोऽग्निकुमारोऽयं ग्रहण्यां च विशेषतः॥ रुद्ध्वा बहिर्मापपिष्टैस्तयोर्लेप्यं च सम्पुटम् ।। | सवातश्लेष्मजान् रोगान् क्षणादेवापकर्षति । गोधूमपिष्टिका वाऽथ विलेप्या वस्त्रमृत्तिका । । सन्निपातज्वरश्वासक्षयकासांश्च नाशयेत् ॥ विशोष्य पाचयेद्यन्त्रे द्विषड्यासैः सबालुके ।। शुद्ध पारे, और गन्धक की २॥ २॥ तोले की क्रमवृद्धयाग्निना पाच्यं स्वाइशीतं समद्धरेत । कजली बनाकर उसमें १। तोला शुद्ध वच्छनाग डाल दशमांशं विषं दत्वा विषांशं मृतताम्रकम् ॥ कर हसपादी के रस में मर्दन करे । फिर इसे शराव ज्वालामुख्या द्रवैः सर्व भावयित्वा त्रिसप्तधा। संपुट में बंद करके वालका यन्त्र में १ पहर पकावे रसो ह्यग्निकुमारोऽयं सेव्यं गुञ्जाद्वयं सदा ॥
| फिर इसमें शुद्ध वच्छनाग ५ माषा तथा २॥ तोला ताम्बूलपत्रसंयुक्तं वातगुल्मोदरातिजित् ।।
काली मिर्च मिलाकर खरल करे । यह रस अग्निकाकजङ्घाकषायश्च ह्यनुपानं सदा पिवेत् ॥
। दीपक, विशेषतः संग्रहणी नाशक है । इसके सेवन शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध हरताल, शुद्ध
| से वातकफजरोग क्षणभर में शान्त हो जाता है। मनसिल, आम की जड की छाल प्रत्येक समान
यह रस सन्निपात ज्वर, श्वास, खांसी तथा क्षयका भाग । प्रथम कज्जली बनाकर उसमें औषधियों का
भी नाश करने वाला है। चूर्ण मिलाकर सबको जौं और मसूर के क्वाथ तथा
[२४६] अग्निकुमारो रसः (१४) जम्बीरी नींबू के रसकी एक एक दिन भावना
(र. र., स. अग्निमां. देकर गोला बनावे और उसे शराब सम्पुट में रसगन्धकयोः कृत्वा कजली तुल्यभागयोः । बन्द करके सन्धि पर उड़द या गेहूं की पिट्ठी का | पादांशममृतं दत्वा शुक्तिभस्म कलांशकम् ।। लेप करके कपड़ मिट्टी कर दे, फिर सुखाकर १२ | हंसपादीरसैः सम्यङ् मर्दयित्वा दिनत्रयम् । पहर तक बालुका यन्त्र में मृदु, मध्यम और ती- स्थूलगोलं ततः कृत्वा परिशोष्य खरातपे॥ ब्राग्नि पर पकावें । फिर यन्त्र के स्वांगशीतल होने । निरुध्य बालुकायन्ने क्रमपुष्टेन वहिना । पर उसमें से औषधको निकालकर उसका दसवां पचेदेकमहोरात्रं स्वतः शीतं विचूर्ण्य च ।। भाग शुद्ध वच्छनाग और बच्छनाग का चौथा भाग तुल्यांशममृतं दत्वा मर्दयेदाकजैवैः ।
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अकारादि-रस
(८५)
विलिप्य स्थालिकामध्ये ततोऽन्यस्थालिकोदरे॥ अग्निमांद्य, ज्वर, वातजरोग, शोथयुक्त पाण्डु रोग, पलार्धममृतं क्षिप्त्वा रसस्थाली च तन्मुखे। । कफरोग, तिल्ली, गुल्म, गुदपीडा, सर्वाङ्ग शूल, न्युजां दत्त्वा दृढं रुद्ध चुल्ल्यामारोप्य यत्नतः लूला, लंगड़ापन और स्त्रियोंके रक्तगुल्मादि असाध्य यामं प्रज्वालयेदग्नि विचूर्ण्य तदनन्तरम। रोगों को इस प्रकार नष्ट कर देता है जिस प्रकार करण्ड के विनिक्षिप्य स्थापयेदतियत्नतः ।।
विष्णु भगवान पापों को। रसोह्यग्निकुमाराख्यो दिष्टो मन्थानभैरवैः। । [२४७] अग्निकुमारोरसः (१५) हन्यादत्यग्निमान्धं ज्वररुजमखिलं
(र. र. स. अ. अ.) वातजातं क्षयार्तिम् । दग्धां कपर्दिका पिष्ट्वा त्र्यूषणं टङ्कनं विषम् । शोफाढ्यं पाण्डुरोगं
गन्धकं शुद्धसतं च तुल्यं जम्बीरजैवैः ।। ___ कफजनितगदान्प्लीहगुल्मं गुदातिम् ॥ । मर्दयेद् भक्षयेद्वल्लं मरिचाज्यं लिहेदनु । सर्वाङ्गीणं च शूलं जठरभवरुज निहन्ति ग्रहणीरोगं पथ्यं तक्रोदनं हितम् ।। ___ खंजतां पङ्गुलत्वम् ।
कौड़ी भस्म, त्रिकुटा, शुद्ध सुहागा, शुद्ध सर्वा श्वासाध्यरोगान्हरिरिवशुद्धदुरितं
वच्छनाग, गन्धक और शुद्ध पारा, सब समान रक्तगुल्मं बधूनाम् ॥ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें पारा और गन्धक समान भाग लेकर कज्जली | फिर उसमें अन्य औषधियोंका चूर्ण मिलाकर करके उसमें उसका चौथा भांग शुद्ध वच्छनाग | सबको जम्बीरी नींबू के रस में घोटकर रखे । तथा सीपी भस्म १६ वां भाग मिलाकर ३ दिन | यह ग्रहणी रोगका नाश करता है। मात्राः-२-३ तक हंसपादी के रसमें मर्दन करे, फिर एक गोला | रत्ती । अनुपान काली मिर्च का चूर्ण और धी। बनाकर तेज धूपमें मुखावे और फिर १ दिन रात पथ्यः-छाछ और भात ।। मृदु, मध्य और तीवाग्नि पर वालुका यन्त्र में | [२४८] अग्निकुमारो रसः (१६) (र.चि.) पकाकर ठण्डा होने पर निकालकर उसमें समान टङ्कणं रसगन्धौ च समं भारात्रयं विषात। भाग शुद्ध वच्छनागका चूर्ण मिलाकर अद्रक के कपर्दशंखौ त्रिनवौ वसुभागं मरीचकम् ।। के रसकी भावना देकर घोटे, फिर उस लुगदी को दिन जम्भाम्भसा पिष्टं भवेदग्निकुमारकः ॥ एक हाण्डी के बीचमें लेप करदे और दूसरी हाण्डी विसचीशूलवातादियहिमांये द्विगुञ्जकः॥ में २॥ तोला शुद्ध बच्छनागका चूर्ण डालकर उसके अजीर्ण संग्रहण्या वा प्रयोज्योऽयं निजौषधैः ।। ऊपर पहली हांडी उलटी करके रखदे और सुहागेकी खील, शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक सन्धिको अच्छी तरह बन्द करदे । इस यन्त्रको १-१ भाग, शुद्ध वच्छनाग ३ भाग, कौड़ी भस्म फिर चूल्हे पर चढ़ाकर १ पहर तक आग जलावे ३ भाग, शंख भस्म ९ भाग, काली मिर्चका चूर्ण पश्चात् स्वांग शीतल होने पर दवाको निकालकर | ८ भाग। प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें पीसकर रक्खे। इस अग्निकुमार रस का आविष्कार और फिर उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर श्री मन्थानभैरवने किया था। यह रस अत्यन्त । एक दिन जम्बीरी नींबूके रसमें धोटे । इसे रोगोचित
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भारत-भैषज्य रत्नाकर
अनुपानके साथ २-२ रत्तीकी मात्रामें सेवन करने । अरुचिमें त्रिकुटाके साथ सेवन करना चाहिए । से विसूचिका, शूल, मन्दाग्नि, अजीर्ण और संग्र- यह अग्निकुमार रस सर्व रोगनाशक है। हणीका नाश होता है।
[२५०] अग्निकुमाररसः (१८) [२४९] अग्निकुमारोरसः (१७)
(भै. र. र. रा. मुं. ग्रहणी) (र. रा. सुं. अरुयौ) | रसं गन्धं विषं व्योष टङ्कन लौहमस्मकम् । यवक्षारं तथा खर्जी टङ्कणं लवणानि च। अजमोदाहिफेनं च सर्वतुल्यं मृताभ्रकम् ।। त्रिकटुत्रिफलालोहं चूर्ण द्विविधभागकम् ॥ चित्रकस्य कषायेण मर्दयेद्याममात्रकम् । कपूरं च लवङ्गश्च चव्यकं चित्रकं तथा। मरिचाभा वटी खादेदजीणं ग्रहणी तथा ॥ दाडिमाम्लं विशेषेण शृङ्गवेरश्च रेणुकाम् ॥ नाशयेनात्र सन्देहो गुह्यमेतचिकित्सितम् ॥ एतानि समभागानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ।। रसश्चाग्निकुमारोऽयं दीपयत्याशु पावकम् ॥ पवानीनिम्बुनीरेण दिवसत्रयभावितम् ॥ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध विष, त्रिकुटा, तथामृतारसेनैव मर्दितं चाम्लवेतसः। सुहागा, लोहभस्म, अजमोद और अफीम, सब चणकाकारमात्रेण दीयते रसउत्तमः ॥ समान भाग, अभ्रक भस्म सबके बराबर। प्रथम अरोचकं वहिविशेषमान्य,
पारद गन्धककी कजली बनाकर पश्चात् सबको १ गुल्मप्रमेहं विनिहन्त्यवश्यम् । पहर तक चित्रकके रसमें घोटकर निःसन्देह काली चुक्रेण युक्तं खलु पक्तिशूलं,
मिर्च बराबर गोलियां बनावे । यह रस अजीर्ण, सूर्योदयात् वृद्धमतीव जातम् ॥ ग्रहणी, और मन्दाग्निका नाश करता है। श्वासकासकफातङ्कनाशनं प्राणवर्द्धनम् ॥ [२५१] अग्निकुमारोरसः (१९) दद्यात् त्रिकटुकश्चैव कफारोचकनाशनम् ॥
(र. र. स. स्थौ अ. १-८) रसो ह्यग्निकुमारोऽयं सर्वरोगप्रणाशनम् ॥
| गन्धकेन द्विकर्षण शुद्धसूतेन तावता । यवक्षार, सज्जी खार, सुहागा, पांचो लवण, | विधाय कजली सूक्ष्मामेकवासरमदनात् ॥ त्रिकुटा, त्रिफला और लोहचूर्ण २-२ भाग । कपूर, कर्षमात्रं विषं दत्वा मदयित्वा दृढं पुनः। चव्य, लौंग, चीता, दाडिम (अनार दाना) सोंठ | हंसपादीरसस्तैवा स्तोकं स्तोकं मुहुर्मुहुः॥ और रेणुका १-१ भाग । सबका बारीक चूर्ण कुडवार्थमितः पश्चागोलं कृत्वा विशोष्य च । करके ३ दिन तक अजवायन और नीबूके रसमें काचकुप्यां विनिक्षिप्य शुल्वनाडी पिधाय च ॥ घोटे फिर गिलोय और अमलवेतके रसमें ३-३ | देवीशास्त्रे पुनः प्रोक्तं विषं कर्ष विचूर्णितम् । दिन घोटकर चनेके बराबर गोलियां बनावे । यह ऊर्धाधो गोलकानां हि काचकृप्यां विनिक्षिपेत् रस अरुचि, मंदाग्नि, गुल्म और प्रमेह का नाश निक्षिपत्कजली मध्ये यतश्चायं मजायते। करता है। चूक्रके (काञ्जी का एक भेद) के साथ | ततश्च द्वयङ्गुलोत्सेधं मृदा कूपी विलिप्य च ॥ सेवन करने से परिणाम शूल, सूर्यावर्त, श्वास, विशोष्य बालुकायन्त्रे यंत्रवर्गप्रकाशिते। खांसी, कफरोग आदिका नाशक है। कफ की अधोमुखीं घटी क्षिवा क्षिपेदुपरि बालकाम् ।।
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अकारादि-रस
निरुध्य भाण्डवक्त्रं च चुल्यामारोप्य यत्नतः। २॥ तोले शुद्ध गन्धक और २॥ तोले शुद्ध वहिं प्रचालयेत्साध दिनं क्रमविवर्धितम ।। पारदको १ दिन खरल करके सूक्ष्म कन्जली बना खांगशीतलमाकृष्य सह ताम्रेण मर्दयेत् । । लें। फिर उसमें १। तोला शुद्ध बच्छनागका चूर्ण पलार्ध मरिचं सूक्ष्म कांधे वत्सनाभजम् ॥ मिलाकर अच्छी तरह मर्दन करें और हंसपादीका विनिक्षिप्य विमथ क्षिपेद रम्यकरण्डके। रस थोड़ा थोड़ा डालकर इतना घोटें कि १०तोले नन्दिना तु समुद्दिष्टं रसतुल्यं मरीचकम् ॥ रस सूख जाए । तदनन्तर उसकी गोलियां बना वत्सनाभं तु कर्षाशं मिश्रयेत विचूर्ण्य तत। | कर सुखा ले। निर्दिष्टोऽग्निकुमारको रसबरो देव्यातथा नन्दिना
___अब कपरमिट्टी की हुई आतशी शीशीमें ७॥ सेव्यो वैद्य यशःप्रभूतफलदश्वानाहविध्वंसनः।
| माशे शुद्ध बच्छनागका चूर्ण डालकर उसके ऊपर
उपरोक्त गोलियां रख दें और ऊपरसे पुनः ७॥ सद्यापाचनदीपनो रुचिकरराशीघ्रं तथाष्ठलिकाम् | सामां च ग्रहणी हरेत् कफरुजाकण्ठामयधंसनः।।
HD माशे बछनागका चूर्ण डालकर उसे (२॥ तोले) बल्यो भोजनतोयभक्ष्यसुखदःश्रेष्टो रसानां प्रभु
शुद्ध ताम्रकी नली (कटोरी या गिलास)से ढक दें। मन्दाग्नि कफवातजं क्षयगदं निःशेषशूलामयान्
तत्पश्चात् उस शीशी पर २ अंगुल ऊंचा मिट्टीका
लेप करके सुखालें। श्वासं कासगदं तथाकफरुज स्थौल्यंच पाण्डुतथा
इसके पश्चात् इस शीशीको बालुका यन्त्रकी शोफ वातगदं तथा खलु रतीकुर्याच्च पर्णान्वितः
| हांडीमें रखकर उसके उपर मिट्टीकी एक ऐसी कुप्पी कणया सितयाज्येन दातव्योऽसौ महारसः।। हा
उल्टी करके ढक दें जो शीशीको अच्छी तरह ढक प्रत्यष्ठीलादिरोगेषु जलकूर्मगदेषु च ॥
ले और जिसका मुख बालुका यन्त्रवाली हाण्डीके नन्दिना तु पुनः प्रोक्तस्तत्तद्रोगहरौषधैः।।
भीतर तलीमें अच्छी तरह जमकर बैठ जाए। निहन्ति सकलान्रोगान् दुप्पत्नीव मनोरथान्॥
__अब बालुका यन्त्रवाली हाण्डीमें इतना रेत रसजनितविदाहे शीततोयाभिषेको,
भरें कि उल्टी ढकी हुई कूपीके ऊपर तक आ मलयजघनसारैऽर्लेपनं मन्दवातः। जाए । (इस रसको बनानेके लिए आतशी शीशी तरुणदधिसिताक्तं नारिकेलीफलाम्भो,
चौड़े मुंहकी लेनी चाहिए जो बहुत ऊंची न हो। मधुरशिशिरपानं शीतमन्यच्च शस्तम् ॥ | दवाके ऊपर ढकनेको ताम्रकी कटोरी ऐसी बनवानी सौभाग्यं मेघनादाख्रिसितामधुकचंदनम्। चाहिए जो अधिक चौड़ी न हो पर दवा को भलीतबोदकेन दातव्यं सर्वस्मिन् रसवैकृते ॥ भांति ढक ले। आतशी शीशीको ढकनेके लिए छौं तुष्णासु दातव्यं कपित्थं वा सितान्वितम् मिट्टीका बना हुआ मज़बूत गिलास लेना चाहिए कुमारीक्षीरलेपश्च सर्वाङ्गीणः प्रशस्यते ॥ और उस पर कपरमिट्टी कर लेनी चाहिए । यह क्षीरं मधुसितोपेतं क्वाथो वाऽमृतबन्धुकः। गिलास शीशीसे कुछ उंचा होना चाहिए ।) उपचारा अमी सर्वे प्रशस्ता रसतापिनाम् ॥ तदनन्तर बालुका यन्त्रकी हाण्डीके मुख पर रसस्याग्निकुमारस्य प्रभावं वेत्ति तत्वतः। शराव ढक कर सन्धिको भली भांति बन्द करके गिरिजा नन्दिकेशो वा यद्वो नारायणः खयम् ।। सुखा लें और इस यन्त्रको चूल्हे पर रखकर १॥
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भारत-य-रत्नाकर
(८८)
दिन तक पकायें । प्रारम्भमें बहुत मृदु अग्नि दें और फिर धीरे धीरे अग्नि तीव्र करते रहें। इसके बाद यन्त्रके स्वांग शीतल होने पर उसमें से औषध को निकाल कर ताम्रकी नली समेत पीस लें। (यदि ताम्रकी भली प्रकार भस्म न हुई हो तो उसे समान भाग पारद गंधककी कज्जलीके साथ घोटकर शराव सम्पुट में बन्द करके गजपुटमें फूंक दें और आवश्यकता हो तो इसी प्रकार कई पुट देकर निरुत्थ भस्म कर लें) अब इसमें २|| तोले काली मिर्च और ७|| माशे शुद्ध बच्छनागका चूर्ण मिलाकर खरल करें और शीशी में भरकर सुरक्षित रक्खें । श्री नन्दी महाराजका मत है कि इसमें कालीमिर्चका चूर्ण सम्पूर्ण रसके बराबर और बच्छनागका चूर्ण १| तोला मिलाना चाहिए ।
इस रसश्रेष्ठ अग्निकुमारका आविष्कार देवी भगवती और श्रीनन्दी महाराजने किया है । यह वैद्यको अत्यन्त यश दिलानेवाली फलप्रद औषध है।
और इसके सेवन से आनाह नष्ट होता है । यह पाचन, दीपन और रोचक है । अष्ठीलिका तथा सामग्रहणीको शीघ्र नष्ट करता है । कफके रोग, कण्ठरोग, अग्निमांद्य, कफवातज क्षय, समस्त प्रकारके शूल रोग, श्वास, कास, स्थूलता, पाण्डु, शोथ, बातज रोग, प्रत्यष्टीला और जलकूर्म रोग ( जलोदर तथा अत्यन्त प्रवृद्ध और कठोर यकृत् प्लीहा) आदि रोग इसके सेवनसे नष्ट हो जाते हैं।
यह बलकारक और भोज्य भक्ष्य तथा पेय पदार्थों में आनन्द दायक है ( इसकी सहायता से उत्तमोत्तम पदार्थ खाकर शीघ्र पचाए जा सकते हैं ।) इसे पानके साथ खानेसे रति-शक्ति बढ़ती हैं।
अनुपान पीपलका चूर्ण, मिश्री और घृत ।
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नदी महाराजका कथन है कि रोगोचित यह समस्त रोगोंको इस
अनुपान के साथ देने से प्रकार नष्ट कर देता है जिस प्रकार दुष्ट पत्नी मनोरथों को ।
यदि इसके खानेसे दाह हो तो शीत जलका अवसेचन और कपूर युक्त चन्दनका आलेपन करना चाहिए | मन्द मन्द पवन के सेवन करने, ताजी दही में मिश्री मिलाकर खाने और नारियलका जल पीनेसे भी रस जनित दाह शान्त हो जाती है । इसके अतिरिक्त दाहशान्तिके लिए मधुर और शीतल (शरदत आदि) पेय पिलाने और अन्य शीतल उपचार करने चाहिएं ।
सुहागेकी खील, चौलाइकी जड़, मिश्री, मुलैठी और चन्दन समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे कांजी के साथ पीने से ( दाह आदि) समस्त रसविकार नष्ट होते हैं ।
यदि छर्दि होने लगे या तृषा वढ़ जाए तो कपित्थ फलके गूदे में मिश्री मिलाकर खिलाना चाहिए ।
रजनित दाह में समस्त शरीर में घृतकुमारीके रसका या गोदुग्धका लेप करना, दूधमें मधु और मिश्री मिलाकर पीना तथा बाराही कन्द और बन्धूक ( गुलदोपहरी ) का क्वाथ पीना भी लाभदायक है ।
इस अग्निकुमार रसके प्रभावको भगवती गिरिजा या भगवान नन्दीकेश अथवा नारायण ही पूर्णतः जानते हैं ।
[२५२] अग्निकुमारो रसः २० (र. सु.) कर्पूरं च लवङ्गं च चव्यकं चित्रकं तथा । दाडिमाम्लं विशेषेण शृङ्गवेरं च रेणुकाम् || एतानि समभागानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । यवक्षारं तथा स्वर्जी टङ्कणं लवणानि च ।
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(८९)
शूलं दुस्तरसन्निपातमनिलं मन्दाग्निपाण्डु क्षयाती सारग्रहणीज्वरान्द्रततरं स्वीयानुपानैर्जयेत् ॥
त्रिकटु त्रिफला लोहं सर्वमेव द्विभागिकम् । वानी निम्बुनीरेण दिवसत्रय भावितम् ॥ तथामृतरसेनैव मर्दितं चाम्लवेतसैः । चणकाकारमात्रेण दीयते रस उत्तमः ॥ अरोचकं वह्निविशेषमांद्यं,
गुल्मं प्रमेहं विनिहन्त्यवश्यम् । चुक्रेणयुक्तं खलु पक्तिशूलं, सूर्योदयावृद्धमतीव जातम् ॥ त्रिकटुकेन दत्तश्चेच्छ्वासकासामयापहः । रसो ग्निकुमारोऽयं सर्वरोगप्रणाशनः ॥
कपूर, लौंग, चव्य, चीता, अनारदाना, सोंठ और रेणुका, १-१ भाग तथा जवाखार, सज्जीखार, सुहागेकी खील, पांचो नमक, त्रिकुटा, त्रिफला, लोह भस्म, २-२ भाग । सबके चूर्णको एकत्र मिलाकर अजवायन के क्काथ, नींबूके रस, गिलोय के रस और अम्लवेत के रस या क्वाथ में पृथक् पृथक् ३-३ दिन घोट कर चने के बराबर गोलियां बनावे । इसके सेवन से अरुचि, अग्निमांद्य, गुल्म और प्रमेह का अवश्य नाश होता है । चुक्र (काञ्जीका एक भेद) के साथ सेवन करने से पक्तिशूल और सूर्यावर्तका, और त्रिकुटेके चूर्ण के साथ सेवन करनेसे खांसी और श्वास का नाश होता है । [२५३] अग्निकुमारो रसः (२१) (र. यो. सा.) कर्णौ तवली पृथक्समरसीभृतौ मराठाङ्किका नीरेणा लुलितौ विषं बलिदलं
विन्यस्य कूप्यांच तत् । रुद्धा द्वादशयाममेव सिकतायन्त्रे पचेद्वह्निनादीपारम्भवताऽवतार्थ शिशिरं भित्वा रसंचूर्णितम् शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और शुद्ध सीसा कर्षार्द्ध विषमूषणं विषसमं दत्त्वा विमर्धाखिलं ( भस्म), समान भाग लेकर कञ्जली करके एक दिन गुञ्जस्याऽग्निकुमारकस्य जठरलीहत्रणापस्मृती: हंसपादी के रस में घोटे, फिर उसका गोला बना
शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक १४ - १ | तोला लेकर कज्जली करके हंसपादी (हंसराज ) के रस की भावना दे फिर ७|| माशे शुद्ध मीठा तेलिया मिलाकर आतशी शीशी में भरकर १२ पहर तक वालुकायन्त्र में क्रमसे मंद, मध्य और तीव्र अग्नि पर पकावे | फिर उतार कर शीतल होने पर उसे निकाल कर पीसे और उसमें | माशे शुद्ध मीठा तेलिया और ७|| माशे काली मिर्च का चूर्ण मिलाकर खरल करके रक्खे | मात्रा:- १ रत्ती । इसे सेवन करनेसे उदर रोग, तिल्ली, ब्रण, अपस्मार, शूल, कष्टसाध्य सन्निपात, मंदाग्नि, वातजरोग, पाण्डु, क्षय, अतिसार, संग्रहणी और ज्वर आदि का शीघ्र ही नाश होता है । [२५४] अग्निकुमारो रसः (२२) (र. मं.) सूतगन्धकनागानां चूर्ण हंसाद्विवारिणा । दिनमेकं विमर्द्याथ गोलकं तस्य योजयेत् ॥ काचकूप्यां च संवेष्टय तां त्रिभिर्मृन्पटैर्दृढम् । मुखं संरुध्य संशोप्य स्थापयेत्सिकताह्वये ॥ सार्द्धं दिनं क्रमेणाग्निज्वालयेत्तदधस्ततः । स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य पडंशेनामृतं क्षिपेत् ॥ मरिचान्यर्द्धभागेन समस्तस्याथ मर्दयेत् । अग्निकुमाराख्यो रसो मात्राऽस्य रक्तिका ।। ताम्बूलीरस संयुक्तो हन्ति रोगानमृनयम् । वातरोगान् क्षयं श्वासं कसं पाण्डु कफोल्वणम् || अग्निमांद्यं सन्निपातं पथ्यं शाल्यादिकं लघु । जलयोगप्रयोगोऽपि शस्तस्तापप्रशान्तये ॥
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(९०)
भारत-भैषज्य-रलाकर
ले। इसे सुखाकर ३ कपरमिट्टी की हुई आतशी ! मिलाकर भांगरे के रस की भावना देकर कपरशीशी में भर दे फिर उसका मुंह बन्द करके १॥ | मिट्टी की हुई आतशी शोशी में भर दे और विधिदिन तक बालुका यन्त्र में पकावे और क्रमशः । वत् १ दिन बालुका यन्त्रमें मन्दाग्नि पर पकावे अग्नि बढ़ाता रहे । फिर उतार कर स्वांग शीतल ! और स्वांग शीतल होने पर निकाल कर खरल होने पर उसके अन्दर से औषध को निकाल और करके रक्खे । इसे यथोचित अनुपान के साथ घोटकर उसमें समस्त औषध का छठा भाग शुद्ध चनेके बराबर मात्रा में सेवन करने से चौथिया मीठा तेलिया और आधा भाग काली मिर्च का | ज्वर, और सन्निपात तथा अन्य अनेक रोगों का चूर्ण मिलाकर मदन करे । इसे १ रत्ती की मात्रा नाश होता है। में पान के रसके साथ सेवन करने से वातव्याधि, ।
[२५६] अग्निकुमारो रसः (२४) क्षय, श्वास, खांसी, कफज पाण्डु, मन्दाग्नि और सन्निपात का नाश होता है। पथ्य-शालीचावलों |
(र. चं. ग्रहणी) का भात आदि । यदि इसके सेवन से दाह हो तो
शुद्धसूतं समं गन्धं त्रिकटुं पटुपञ्चकम् । शिर पर जल अवसेचन आदि शीतल क्रियाएं दशकं तुल्यतुल्यं च विजया सर्वसम्मिता ॥ करनी चाहिए।
भावयेचित्रभृङ्गोत्थैस्त्रिधा च विजयाद्रवैः । [२५५] अग्निकुमारोरसः (२३) दीप्ताग्निना तु यामैकं चालुका यन्त्रगे पचेत् ॥
संचूर्ण्य चाकद्रावैर्भावयित्वा च भक्षयेत् । रसं विषं चाभ्रगन्धौ तालकं हिङ्गुलं विषम् । मधुना शाणमानं तु रसो ह्यग्निकुमारकः ॥ शुल्वमस्मसमं तुल्यं मर्दितं भृङ्गवारिणा ॥ दीप्ताग्निकारकः सामग्रहणीदोषनाशनः । काच कूप्यां विनिःक्षिप्य विलेप्या वस्त्रमृत्तिका। शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, त्रिकुटा, पांचों नमक । बालुकायन्त्रके पाच्य दिनैकं मन्दवह्निना ॥ । ये दशों चीजें वराबर और भांग सबके बराबर स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य दातव्यं चणमात्रकम् । लेकर प्रथम पारे गन्धक की कजली करके और अनुपानविशेषेण चातुर्थिकज्वरं हरेत् ॥ फिर उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर सब सन्निपातं निहन्त्याशु सर्वरोगहरं परम् । | को चीतामूलके काथ भांगरे के रस और भांग के महानग्निकुमारोऽयं सर्वव्याधिनिवारणः ॥ रसकी ३- ३ भावना देकर (सुखाकर) आतशीशी
शुद्ध पारा, शुद्ध बच्छनाग, अभ्रकभस्म, शुद्ध में भर कर १ पहर तक बालुकायन्त्र में तीव्राग्नि गन्धक, शुद्ध हरताल, शुद्ध सिंगरफ, शुद्ध विष | पर पकावे । फिर स्वांग शीतल होने पर रसको (इस प्रयोग में विष शब्द दो वार आता है अतः । निकालकर चूर्ण करके अद्रक के रसकी भावना दे। या तो वह २ भाग लेना चाहिए या एक स्थान | इसे ४ माशे की मात्रा में शहद के साथ सेवन पर विष का अर्थ संखिया कर सकते हैं) और ताम्र | करने से आम सहित संग्रहणी का नाश होता है भस्म समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी | और अग्नि प्रदीप्त होती है । (व्यवहारिक मात्राकजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधियां ' आधे से १ माशा पर्यन्त)
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अकारादि-रस
[२५७] अग्निकुमारो रस: (२५) (यो. र. र. रा. सु., अजी.) पारदं च विषं गन्धं टङ्कणं समभागतः । मरीचादष्टभागाः स्युद्वौ द्वौ शङ्खवराटयोः ॥ पक्कजम्बीरजैगढिं रसैः सप्त विभावयेत् । गुमित देयो रसो ह्यग्निकुमारकः ॥ समीरणसमुद्भूतमजीणं च विचिकाम् । क्षणेन क्षपयत्येष कफरोगानिकृन्तनः ॥
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध मीठा तेलिया, सुहागे की खील, १-१ भाग । काली मिर्च का चूर्ण ८ भाग, शंख भस्म २ भाग और कौड़ी भस्म २ भाग । प्रथम पारेगन्धक की कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर सबको खरल करके पक्के जम्बीरी नींबू के रसकी ७ भावना दे । इसे २ रत्ती मात्रा में सेवन करने से वातज अजीर्ण और हैजा तथा कफज रोगोंका शीघ्र ही नाश होता है ।
[२५८] अग्निकुमारो रसः (२६) (र. यो. सा.) रसगन्धकरसकामृतकल्कःसव्योषभृङ्गरस मिलितः अग्निकुमारनामा जयति रसो रोगिणामिष्टः ॥
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, खपरिया और शुद्ध बच्छनाग इन सबको बराबर लेकर त्रिकुटे के क्वाथ और भांगरे के रससे क्रमसे भावना देना । यह अग्निकुमार रस सबसे उत्तम है और रोगियों के वास्ते हितकर है।
[२५९] अग्निकुमारो रसः (२७) (र. यो. सा.) योषं जातीफले द्वे च लवङ्गं च वराङ्गकम् । पत्रं शृङ्गी कणाटकं यमानी जीरकद्वयम् ॥ सैन्धवं च विडं हिङ्गु रसं गन्धं च रौप्यकम् ।
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( ९१ )
लोहमश्रं समं सर्व जम्बीरीरसमर्दितम् ॥ अजीर्णशान्तये खादेच्चतुर्गुञ्जां वटीं नरः । अत्यग्निकारकश्चायं रसखाग्निकुमारकः ॥
ग्रहणञ्चैव वातपित्तकफोद्भवाम् । नाशयेदामदोषं च त्रिदोषजनितं च यत् ॥ शूलदोषं विसूचीं च भास्करस्तिमिरं यथा ।
त्रिकुटा, जायफल, जावित्री, लौंग, दालचीनी, तेजपात, काकड़ासिंगी, पीपल, शुद्ध सुहागा, अजवायन, दोनों जीरे, सेंधानमक, बिड नमक, भुनी हुई हींग, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, चांदी भस्म, लोह भस्म और अभ्रक भस्म । सब समान भाग लेकर पारद गन्धक की कज्जली बनावे फिर उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर जम्बीरी नींबूके रसकी भावना देकर ४-४ रत्ती की गोलियां बनावे | इसके सेवन करने से अजीर्ण का नाश होता है और अग्नि प्रदीप्त होती है। यह वातज, पित्तज और कफज, संग्रहणी, आम दोष, त्रिदोषज शूल और विसूचिका आदि इन सबको इस तरह नष्ट करता है जैसेकि सूर्य अन्धकारको ।
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[२६०] अग्निकुमारो रसः (२८) (र. रा. सु. । अजीर्ण) समानौ गन्धकरसौ तदर्द्ध वत्सनाभकम् । रसस्य ताम्र भस्मोपि समं चूर्ण विमर्दयेत् ॥ इंसपादीरसेनाथ काचकूप्यां विनिक्षिपेत् । बालुकायन्त्रविधिना त्रियामं पाचयेद्भिषक् ॥ सार्द्धममृतं क्षिप्त्वा पुनः सञ्चूर्ण्य. मर्दयेत् । वह्नित्रिकटु सिन्धूत्थयुक्त नाईकवारिणा ॥ गुजामात्रो हि दातव्यो मन्दाग्नौ सान्निपातिके । धनुर्वातेऽप्यजीर्णो च शूले च क्षयकासयोः ॥ अयमग्निकुमाराख्यो रसः स्यात् ष्ठीइगुल्मनुत् ॥ शुद्ध पारा, ओर शुद्ध गन्धक २-२ भाग,
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भारत-भैषज्य रत्नाकर
(९२)
शुद्ध मीठा तेलिया १ भाग और ताम्र भस्म २ भाग लेकर कज्जली करके हंसपादीके रसकी भावना देकर कपर मिट्टी की हुई आतशी शीशी में भरकर यथाविधि वालुका यन्त्र में ३ पहर तक पकावे । फिर स्वांग शीतल होने पर रसको निकालकर उससे आधा शुद्ध मीठा तेलियेका चूर्ण मिलाकर खूब घोटे और चीता, त्रिकुटा, सेंधानमक का चूर्ण मिलाकर अद्रकके रसकी भावना दे ।
इसे १ रत्ती प्रमाण में सेवन करनेसे मन्दाग्नि, सन्निपात, धनुर्वात, अजीर्ण, शूल, क्षय, खांसी, तिल्ली और गुल्मका नाश होता है । [२६१] अग्निकुमारो रसः (बृहदाद्यः) (२९) (र. चं । अजीर्ण)
1
शुद्धतं द्विधा गन्धं गंधतुल्यं च टङ्कणम् । फलश्रयं यवक्षारं व्योषं पश्चपटूनि च । द्वादशैतानि सर्वाणि रसतुल्यानि दापयेत् । संम सप्तधा सर्वं भावयेदार्द्रकजैद्रवैः ॥ संशोध्य चूर्णयित्वा तु भक्षयेदाद्रकाम्बुना । शाण मात्रं वयो वीक्ष्य नानाऽजीर्ण प्रशान्तये ।। रसधाग्निकुमारोऽयं महेशेन प्रकाशितः । महानिकारकश्चैष प्रतापे कालभास्करः । अग्निमांद्यभवान् रोगान्
शोथं पाण्ड्वामयं जयेत् । दुर्नामग्रहणीसामरोगान् हन्ति न संशयः ॥ यथेष्टाहारचेष्टस्य नास्त्यत्र नियम कचित् ॥
शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, सुहागे की खील २ भाग, त्रिफला, यवक्षार, त्रिकुटा, पांचों नमक, ये बारह चीजें १-१ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धक की कज्जली बनावें और फिर अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर
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अद्रकके रसकी ७ भावना दे । फिर सुखाकर चूर्ण करके रक्खे । इसे आयुके अनुसार ४ माशे तक की मात्रा में अद्रकके रसके साथ सेवन करने से अनेक प्रकार का अजीर्ण रोग नष्ट होता है । यह महेश द्वारा प्रकट किया हुवा अग्निकुमार रस अत्यन्त अग्निवर्धक है । रोगों का नाश करने के लिए यह रस प्रलय कालके सूर्य के समान प्रतापवान है यह अग्निमान्ध जनित रोग, शोथ, पाण्डु, बवासीर, संग्रहणी, और आमविकारों को अवश्य नष्ट कर देता है और अग्नि प्रदीप्त करता है । इसके सेवन कालमें आहारादि का कोई विशेष नियम नहीं है ।
[२६२] अग्निकुमारो रसः (३०) (यो. र., वृ. नि. र., र. च., ग्रहण्य) भागो दग्धकपर्दकस्य च तथा शङ्खस्य भागद्वयं; भाग गन्धक तयोर्मिलितयोः
पिद्वा मरीचादपि ।
भागस्य त्रितयं नियोज्य सकलं
नानावहितो रसोऽयमचिरान्माद्यं जयेद्दारुणम् घृतेन खण्डैः सह भक्षितोऽसौ क्षीणान्नरान् हस्तिसमान् करोति । समागधीचूर्णघृतेन लीवा
नरः प्रमुञ्चद्ग्रहणीविकारात् ॥ शोषज्वरारोचकशूलगुल्मान्
पाण्डूदराशग्रहणीविकारान् । तक्रानुपानी जयति प्रमेहान् युक्तया प्रयुक्तोऽग्निसुतो रसेन्द्रः ॥
कौड़ी भस्म १ भाग, शंख भस्म २ भाग, खरल करके । समान भाग मिलित पारद गन्धककी कज्जली १
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निम्बूरसैर्मर्दितम्,
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अकारादि-रस
भाग, काली मिर्चका चूर्ण ३ भाग । सबको खरल । भरकर बालुका यन्त्र में रस सिन्दूर बनाने की विधिसे करके नीबूके रसमें घोटे । इसके सेवनसे दारुण क्रमवर्द्धित अग्नि पर) पकावें । (यदि १० तोले अग्निमांद्यको शीघ्र ही नाश हो जाता है। इसे घी । गन्धक हो तो ३० घण्टे पकाना पर्याप्त है) इसके और खांडके साथ सेवन करनेसे क्षीण व्यक्ति हाथी
बाद जब शीशी स्वांग शीतल हो जाय तो उसमें से के समान पुष्ट हो जाता है। और घी पीपल से
रसको निकालकर ताम्र सहित पीस लें और उसे
चित्रक तथा त्रिफलाके क्वाथमें पृथक् पृथक् खरल ग्रहणी विकारों का नाश होता है । इसे तक्रके साथ
करके (शराव सम्पुट में बन्द करके) पुट लगावें। सेवन किया जाए तो प्रमेह रोग नष्ट होता है।
इसी प्रकार चित्रक और त्रिफलाके क्वाथ में घोटकर इसके अतिरिक्त उचित अनुपान के साथ देनेसे यह
दस पुट दें । तत्पश्चात् गिलोय, भंगरा, संभालु, शोथ, ज्वर, अरुचि, गुल्म, शूल, पाण्डुरोग, उदर- |
सूरण (जिमीकन्द) और विधारे के स्वरस या काथमें रोग और अर्शको भी नष्ट करता है । मात्रा-४ | पृथक् पृथक् ७--७ दिन खरल करें। रत्ती । और छाछके साथ सेवन करनेसे शोष-ज्वर, | इसे सूरण के चूर्ण और गुड़के साथ या शुद्ध अरुचि, शूल, गुल्म, पाण्डु, उदररोग, बवासीर, भिलावा, हरड और मधुके साथ सेवन करनेसे संग्रहणी, तथा प्रमेहका नाश होता हैं। अर्श, अग्निमांद्य, उदररोग, श्वास और वातव्याधि [२६३] अग्निकुमारो रसः (३१)
का नाश होता है । मात्रा–६ रत्ती (व्यवहारिक (र. यो. सा.)
मात्रा-१-२ रत्ती) विमर्दितो सूत वली समांशी
[२६४] अग्निकुमारलोहम् । ताम्रस्य पत्रेण विमर्च पाच्यौ।
__ (र. चि. । अ. ९) विमर्दयेद्वद्विवरारसाभ्यां
तुत्थरामठटङ्कानि सैन्धवं धान्य जीरकम् । पुटं च दद्यादशधा पुनस्तत् ॥
यमानी मरिचं शुण्ठी लवङ्गैलाविडङ्गकम् ॥ गुडूचिकाभृङ्गरसद्रवेण च
प्रत्येकं तोलकं चूर्ण लौहचूण तु तत्समम् । - निर्गुण्डिकामुरणवृद्धदारुकैः। रसस्य गन्धकस्यापि पलैकं कज्जली कृतम् ।। विमर्दयेत्सप्तदिनं पृथक् पृथक्
घृतेन मधुना खाद्यं लौहमग्नि कुमारकम् । सिद्धोभवेदग्निकुमार नामकः ।। यकृत्प्लीहोदरहरं गुल्मं चापि हलीमकम् ॥ अर्शोनचूर्णेन गुडान्वितेन
बलवर्णाग्नि जननं कान्तिपुष्टि विवद्धनम् । भल्लातपथ्यामधुनाऽपि युक्तः । श्रीमद्गहननाथेन निर्मितं विश्व सम्पदे । अर्थोविकारञ्जयति द्विवल्लो
___तूतियाकी भस्म, भुनी हुई हींग, सुहागे की मान्द्योदरश्वाससमीरणांश्च ॥ खील, सेंधा नमक, धनियां, जीरा, अजवायन,काली शुद्ध पारा, गन्धक और ताम्र पत्र समान । मिर्च, सोंठ, लौंग, छोटी इलायची और बायबिडङ्ग, भाग लेकर पारदमें ताम्रपत्र डालकर खरल करें जब इनका ११-१। तोला चूर्ण ले। लोहभस्म सबके दोनोंकी पिष्टी हो जाए तो उसमें गन्धक मिलाकर बराबर । तथा पारद और गंधककी कजली ५ कज्जली बनावें । तदनन्तर उसे (आतशीशी में तोला । इसे धी और शहद के साथ मिलाकर सेवन
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(९४)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
करनेसे प्लीहा, यकृत् , उदर रोग, गुल्म(गोला) और । अवजातीफलमर्धभागिकं, हलीमकका नाश होता है तथा बल, वर्ण, अग्नि, तिन्तिडीकरसकेन मर्दितम् ॥ कान्ति और पुष्टि बढ़ती है।
माषमात्रमनुपानमाकं, [२६५] अग्नितुण्डोरसः (र.र.स.। अ.र.) सद्य एष जठराग्निदीपनः ॥ उदराध्माननुत्यर्थ रसो ह्येष निगद्यते । शुद्ध पारा, शुद्ध बच्छनाग, शुद्ध गन्धक, और अमितुण्ड इति विख्यातः सर्वोदरगदापहः॥ लौंग १-१ भाग. कालीमिर्च २ भाग तथा जायरसगन्धाजमोदानां कृमिनब्रह्मबीजयोः। फल आधा भाग। प्रथम पारे गन्धककी कजली एकद्वित्रिचतुःपञ्चभागान्पविषतिन्दुकात् ॥ बनावें और फिर उसमें अन्य औषधियोंका चूर्ण सञ्चूर्ण्य मधुना सर्व गुटिकां कृमिनाशिनीम्। मिलाकर तिन्तिडीकके रसकी भावना देकर रक्खे । खादयित्वानुतोयं च मुस्तानां कृमिशान्तये ॥ इसे १ माशेकी मात्रामें अद्रकके रसके साथ सेवन आखुपर्णीकषायं च शर्करां पिव सर्वथा। करनेसे शीघ्र ही अग्नि प्रदीप्त होती है। व्यवहारिक कमिज्वरोपशान्त्यर्थ खण्डामलकमत्ति वा॥ | मात्रा-३ रती स जग्ध्वैवं पर्पटी च स्नुहीरसं पिवेदनु। [२६७] अग्निप्रदोरसः (र.प्र.सु.। अ. ८) स्नुहीरसं बिना कश्चिच्छेत्तुं जन्तुम्न शक्नुयात् ॥
बाद" कर्षों द्वौ रसगन्धयोस्तु समयोः समर्थ व्यालस्यवै। शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, |
| ककेनविषेण कजलनिभं काचस्प कूप्या क्षिपेत्॥ अजमोद ३ भाग, बायबिडंग ४ भाग, ढाकके |
| लिवाकर्पटमृत्स्नया सुविधिना सम्पाच्ययामाष्टकं बीज (पलास पापड़ा) ५ भाग और शुद्ध कुचला ६ भाग । प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और | ज्ञात्वा शीतलमत्र विधिना मधे द्विकर्षोषणैः।। उसमें अन्य औषधियोंका चूर्ण मिलाकर खूब खरल !
भक्षेद्रक्तिकमिक्षुशरयुतं नाम्ना रसोऽग्निप्रदो। करके शहदके साथ (३-३रत्तीकी) गोलियां बनावे।
मन्दाग्निक्षयसभिपातमरुतां नाशाय चायं वरः। इन्हें कृमि रोगके लिये मोथेके क्वाथके साथ या
शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक ११-१। तोला चूहाकन्नी के कषाय और चीनीके साथ सेवन करना
लेकर कजली बनावें और फिर उसमें सीसा(भस्म) चाहिये। कृमि ज्वरके लिये इसे खानेके पश्चात्
तथा शुद्ध वच्छनाग १।-११ तोला, लाल चीता, आमला और खांड मिलाकर खाना चाहिए, कृमि
मीठा तेलिया १।-११ तोला । सबको धोटकर कपर रोगकी शान्तिके लिए उक्त विधिसे रस अथवा पर्पटी
मिट्टीकी हुइ आतशी शीशीमें भरकर (मुख बन्द (रसपर्पटी) खाकर थूहरके पत्तोंका रस अवश्य पीना करके) विधिवत् ८ पहर तक (बालका यन्त्रमें) चाहिए क्योंकि थूहरके पत्तोंके रसके बिना प्रायः पकावे इसके बाद स्वाङ्ग शीतल होनेपर निकालकर कृमियोंका नाश नहीं होता।
| उसमें २॥ तोला काली मिर्चका चूर्ण मिलाकर [२६६] अग्निदीपनरसः (र.प्र.सु.। अ. ८) पारदामृतलवङ्गगन्धक,
इसे ईखके रस या चीनी के साथ १ रत्तीकी मागयुग्ममरिचेन मिश्रितम् । मात्रा में सेवन करने से मन्दाग्नि, क्षय, वायु और
| मर्दन करे।
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अकारादि-रस
(९५)
सन्निपातका नाश होता है। इन रोगोंके लिए यह । असाध्यं श्वयधुं हन्ति पाण्डुरोग चिरोद्भवम् । एक उत्तम रस है।
खयमग्निमुख नाम सर्पिः क्षौद्रेण मर्दयेत् ॥ [२६८] अग्निमुखताम्रम्
६० तोले मण्डूर (भस्म)को ८ गुने गोमूत्रमें (र. र. अ. पि.)
| पकावे और पाकके अन्तमें उसमें पीपल,पीपलामूल, गन्धकेनाक्षमात्रेण मृततुल्येन निम्मिता। चव्य, चीता, सोंठ, देवदारू, नागरमोथा, त्रिकुटा, कजली या तया लेप्यं ताम्रपत्रन्तुतत्समम् ॥ त्रिफला और वायबिडंग; इनमें से प्रत्यकका चूर्ण अर्जुनत्वग्रसैः सार्द्ध पक्कोदुम्बरपल्लवे।। ५---५ तोले मिलाये। इसे प्रतिदिन ११ तोलेकी आच्छाद्य पश्चलवणैश्चूर्णैश्वापि च मृण्मये॥ मात्रामें तक्रके साथ सेवन करनेसे असाध्य शोथ अन्धभूषागतं ध्मात तत्सिद्धं भक्षयेन्नरः। (सूजन) और पुराने पाण्डुका नाश होता है। इसे शाणकं रक्तिकावृद्ध्या मासमात्र प्रयोगतः॥ धी और शहदमें मिलाकर खाना चाहिये। व्यवअम्लपित्तं क्षयं शूलं जरपित्तं सुदारुणम्।।
हारिक मात्रा-३ माषा। सप्तरात्रप्रयोगेण शरीरःनिर्मलं भवेत ।।
[२७०] अग्निमुखो रसः (१) १-१। तोला शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक
(र.सा.सं., शूले. । र.का.धे.,वृ. यो. त.। त. ८४) की कजली बनाकर उसे अर्जुनकी छालके क्वाथसे
रसवलिगगनार्क वेतसाम्लं विषं स्यात् खरल करे इस कजलीसे २॥ तोले शुद्ध तांबे के पत्रों ___ सवरमिह पृथक्स्याद्भावयेद्धस्रमेतैः । पर लेप करदें। तदनन्तर उन्हें गूलरके पत्तोमें लपेट | कनकभुजगवल्लीकण्टकारीजयाद्भिः कर और पत्थरके चूनेके चूर्णके बीचमें रखकर मट्टीके | कमलसलिलवासामुष्टिरास्वाम्बुनीरैः॥ अन्धमूषामें पकावे । इसे १ रत्तीकी मात्रासे आरंभ | अरुणसदृशशाकमातुलुङ्गोऽथ योज्यः । करके धीरेधीरे मात्रा बढाते हुवे १ मास तक सेवन । पटुगण रस तुल्यो भावयेदाकाद्भिः। करें। इसकी अधिकसे अधिक मात्रा १ शाण (४ | दहनवदनसंस्थो वल्लमात्रो निहन्ति । माशा) की है। (वर्तमान कालमें पूर्ण मात्रा ४ | प्रवलपवनशूलं तद्विकाराश्वसर्वान् ॥ रत्ती समझनी चाहिए) इसको एक २ रत्ती रोज ___ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, ताम्रबढ़ाता हुआ १ शाण तक खावे, इससे अम्लपित्त, भस्म, अमलवेत, शुद्ध वच्छनाग और त्रिफला यह क्षय, शूल, और दारुण पक्ति-शूल सात रोजमें दूर |
सब औषधियां समान भाग लेकर प्रथम पारा गन्धहोजाते हैं, और शरीर दोष रहित होजाता है। ककी कजली करके उसमें अन्य औषधियोंका चूर्ण [२६९] अग्निमुख-मण्डूरम् मिलाकर धतूरेके पत्ते, नागरवेलके पान,कटेली, जैत, (भै. र. । शोथे)
कमलका फूल, अडूसा, कुचला, रास्ना सुगंधबाला पलद्वादशमण्डूरं गोमूत्रेऽष्टगुणे पचेत् । लाल शाक, और बिजोरा नींबू , इनमेंसे प्रत्येक रस पञ्चकोलं देवदारु मुस्तं व्योषं फलत्रयम् ॥ या क्वाथकी १-१ भावना देकर उसमें सबके बराविडम पलमात्रन्तु तक्रेण चूर्णितं क्षिपेत् । बर पांचो नमक मिलाकर पुनः अदरक के रसमें पाययेदक्षमात्रन्तु तक्रेण सह बुद्धिमान् ॥ घोटें। दो दो रत्ती की गोलियां बना लेवे । इन
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(९६)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
गोलियोंको सेवन करने से प्रबल वातज शूलरोग | जयाजयन्तीनिर्यासैस्तथा च विषतिन्दुकैः।। और शूलजनित अन्यान्य विकार नष्ट होते हैं। । मर्दितं कुक्कुटपुटे पचेदग्निमुखाहयः । [२७१] अग्निमुखोरसः (२) | अष्टगुञ्जामितः सोयं प्रयोज्यः साज्यनागरैः। ___ (यो.र.,अजी. । र.का.धे., वृ.पो.त. ७१) हिमुसौवचलोष्णाम्बुयुतो वा गुल्मशूलनुत ।। मृतं गन्धं विषं तुल्यं मर्दयेदाकद्रवैः। शुद्ध पारा, सोनामक्खी भस्म, ताम्र भस्म, अश्वत्थचिश्चापामार्गक्षारःक्षारौ च टङ्कणम् ॥ |
कृष्णाभ्रक भस्म, तीन प्रकारका गन्धक, (श्वेत, जातीफलं लवङ्ग च त्रिकटु त्रिफलासमम् ।।
पीला, काला) सेंधा नमक, शुद्ध बछनाग, भुनी शङ्खक्षारं पश्चलवणं हिगुजीरं द्विभागिकम् ।।
हींग, दालचीनी, हल्दी, जिमीकन्द और स्वर्ण भस्म
समान भाग लेकर प्रथम पारा गन्धककी कज्जली मर्दयेदम्लयोगेन गुञ्जामात्रावटी शुभा।
बनाकर और उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण पाचनी दीपनी सद्योऽजीर्णशूलविचिकाम् ॥
| मिलाकर लाल चौलाई, निर्गुडी, महाराष्ट्री अडूसा, हिक्कां गुल्मं च मोहं च नाशयेन्नात्र संशयः ।
अरणी, जैत और कुवलेके रस या क्वाथकी एक रसेन्द्रसंहितायां च नाना वहिमुखो रसः॥
एक भावना देकर कुक्कुटपुटमें पकावे । इसे आठ शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक और शुद्ध बच्छनाग,
रत्ती की मात्रा में घी और सोंठ अथवा हींग और १-१ भाग लेकर कजली बनावें अदरकके रसमें
| सौंचल में मिश्र कर गरम पानीके साथ देनेसे गुल्म खरल करे, फिर पीपल, इमली और ओंगा इनका
और शूलका नाश होता है । व्यवहारिक मात्राखार, जवाखार, सज्जीखार, सुहागेकी खील, जाय
२ रत्ती। फल, लौंग, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, हैड़, बहेड़ा | [२७३] अग्निमुख लोहम् और आंवला १-१ भाग लेवे तथा शंख भस्म,
(भै. र. । अर्श.) पांचों नमक, हींग और जीरा दो दो भाग लेवे, इन | त्रिवृच्चित्रकनिगुण्डी स्नुहीमुण्डिरिका जटाः। का चूर्ण बनाकर सबको नींबूके रसमें खरल करके । प्रत्येकशोऽष्टपलिकान जलद्रोणे विपाचयेत ॥ १-१ रत्तीकी गोलियां वनावें । यह रस पाचन पलत्रयं विडङ्गाच व्योपं कर्षत्रयं पृथक् । करता है, जठराग्निको दीपन करता है और अजीर्ण, | त्रिफलायाः पलान् पश्च शिलाजतु पलं न्यसेत् । शूल, विषूचिका, हिचकी, गुल्म (गोला) और मोह दिव्यौषधिहतस्यापि वैकङ्कतहतस्य वा। शीघ्र नष्ट करता है इसमें संदेह नहीं है । रसेन्द्र- | पलद्वादशकं देयं रुक्मलौहस्य चूर्णितम् ॥ संहिता में इसका नाम वन्हिमुख रस है । पलैश्चतुर्विंशत्याज्यान्मधुशर्करयोरपि । [२७२] अग्निमुखो रसः । घनीभूते सुशीते च दापयेदवतारिते ॥
(र. र. स. । अ. १८) एतदग्निमुखं नाम दुर्नामान्तकरं परम् । पारदं माक्षिकं तानं कृष्णानं गन्धकं त्रयम् । मन्दाग्नि करोत्याशु कालाग्निसमतेजसम् ।। मणिमन्थं विषं हिङ्गु त्वनिशाकन्दकांचनान् पर्वताश्चापि जीर्यन्ति प्राशनादस्य देहिनाम् । रक्तमारीपनिर्गुण्डीमहाराष्ट्रयाठरूषकैः। । दुर्नामपाण्डुश्वयथुकुष्ठप्लीहोदरापहम् ।।
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अकारादि-रस
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अकालपलितं हन्यादाभवातं गुदामयम् । । पीपल ३ भाग, हरीतकी (हर्र) ४ भाग, बहेड़ा ५ नस रोगोऽस्ति यं चापि न निहन्ति क्षणादिदम ॥ भाग, अडूसा ६ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी करीरकाञ्जिकादीनि ककारादीनि वर्जयेत् ॥ कजली बना और फिर उसमें अन्य औषधियों का ___निसोत, चीता, निर्गुण्डी, थूहर, मुण्डी की जड | चूर्ण मिलाकर बबूलकी छालके क्वाथकी २१ भावना प्रत्येक ४०-४० तोला लेकर सबको कूटकर ३२ सेर देकर रक्खे । इसे शहदके साथ देनेसे खांसीका जलमें पकावे । जब ८ सेर पानी रह जाय तो उसे नाश होता है। मात्रा--३ माशे । छान कर पुनः पकावे और गाढा हो जाने पर [२७५] अग्निरसः (२) (र. प्र. सु. । अ. ८) उतार कर ठंडा करके उसमें बायबिडंग १५ सूतं द्विधा गन्धकभागयुग्मं तोले, त्रिकुटा ३॥ तोला, त्रिफला २५ तोले ___ कुर्याञ्च खल्वेन तु कज्जली हि । शिलाजीत ५ तोला, मन्सिल या वैकङ्कत तस्याःसमं तीक्ष्णकचूर्णमेव ( सुवावृक्ष ) से भस्म किया हुवा तीक्ष्ण लोह ___ सम्मर्दयेत्खलु रसेन च कन्यकायाः ॥ ६० तोला, घी, शहद, और चीनी प्रत्येक ! आच्छाद्य पत्रेण रुबूद्भवेन १२० तोला मिलावे । यह अग्निमुख लोह अत्युत्तम ___ यामार्धकेनाप्यथ उष्णता भवेत् । अर्शनाशक औषध है। इसके सेवनसे मन्दाग्नि धान्यस्य राशी विनिवेश्य सप्त शीत्र ही कालाग्निके समान (अत्यन्त तीव्र) होजाती | दिनानि सम्म ततो दृढं हि ॥ है । इमे सेवन करनेवाला रोगी पत्थर भी पचा वस्त्रेण संगाल्य ततो हि यत्नाडालता है । यह रस पाण्डु, शोथ, कुष्ट, तिल्ली, | । तच्चूर्णकं वारितरं हि सत्यम् । उदररोग, अकालमें बालोंका पकना, आमवात और व्योषं चतुर्जातवरालवङ्गं गुद रोगोंका नाश करता है। ऐसा कोई रोग नहीं ___ जातीफलैलं च समांशकानि ॥ जिसे यह नष्ट न कर दें। इसके सेवन कालमें करीर, ! सञ्चूये सर्व समभागतीक्ष्णं कांजी आदि 'ककारादि पदार्थोंका सेवन न करना क्षौद्रेण लीढं खलु निष्कमात्रकम् । चाहिए।
रसोऽग्निनामा क्षयकासजूर्ती[२७४] अग्निरसः (१) (र. र. स.। अ. १३)/ विनाशयत्येव न संशयोऽस्ति । रसगन्धकपिप्पल्यो हरीतक्यक्षवासकम् । __शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग षडुत्तरगुणं चूर्ण बब्बूलकाथभावितम् ॥ लेकर कजली बनावे और फिर उसमें ३ भाग एकविंशतिवाराणि शोषयित्वा विचूर्णयेत् ।
लोहभस्म मिलाकर घीकुमारी के रसमें घोटे । और भक्षयेन्मधुना हन्ति कासमग्निरसो छयम् ।।
सबका एक गोला बनाकर अरण्ड के पत्तों में लपेट शुद्ध पारद, १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग,
कर आधा पहर तक (अग्नि पर) गरम करके
अनाज के ढेरमें दबा दे । सातदिन पश्चात् उसे १ कालशाक, कुष्माण्ड, कर्कटी, कर्कन्धु, कर्कोटक, कुलिंग, करमर्द, करीर, कतक. कशेरु |
निकाल कर खूब घोट कर कपड़े छानले यह और काजी।
| लोहकी वारितर भस्म है । त्रिकुटा, तेजपात, दाल
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( ९८ )
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चीनी, इलायची, नागकेशर, त्रिफला, लौंग, जाय फल और इलायची । यह सब चीजें समान भाग लेकर इनका चूर्ण तथा उपरोक्त लोह भस्म सबके बराबर लेकर सबको एकत्र खरल करे । इसे ४ माशेकी मात्रामें मधुके साथ सेवन करने से क्षय, और खांसीका नाश होता है । व्यवहारिक मात्रा - २ रत्ती ।
भैषज्य रत्नाकर
[२७६] अग्निसन्दीपनो रसः (र. रा. सु, भै. र । अजी.)
भारत
।
षडूषणं पञ्चपटु त्रिक्षारं जीरकद्वयम् । ब्रह्मदभोग्रगन्धा च मधुरी हिङ्गुचित्रकम् ।। जातीफलं तथा कुष्ठं जातीको त्रिजातकम् चिश्वाशेखरिकक्षारममृतं रसगन्धकौ ॥ लोहमभ्रं च वङ्गं च लवङ्गं च हरीतकी । समभागानि सर्वाणि भागौ द्वावम्लवेतसात् ॥ शङ्खस्य भागाश्चत्वारः सर्वमेकत्र भावयेत् । कानपञ्चकस्य चित्रापामार्गयोस्तथा ॥ अम्ललोणीरसेनैव प्रत्येकं भावयेत् त्रिधा । त्रिसप्तकृत्वो लिम्पाकरसैः पश्वाद्विभावयेत् ॥ बदराभावटी कार्या योक्तव्या सन्ध्ययोर्द्वयोः । अनुपानं प्रदातव्यं बुध्या दोषानुसारतः ॥ अग्निसन्दीपनो नाम रसोऽयं भुविदुर्लभः । दीपयत्याशु मन्दाग्निजीर्ण च विनाशयेत् । अम्लपित्तं तथा शूलं गुल्ममाशु व्यपोहति ।
सुहागा,
पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, काली मिर्च, पांचोंनमक, जवाखार, सज्जीखार, सफेद जीरा, काला जीरा, अजवायन, बच, सौंफ, भुनी हुई हींग, चीतेकी छाल, जायफल, कूठ, जावित्री, दालचीनी, तेजपात, इलायची, इमली का क्षार, चिरचिटेका क्षार, शुद्ध बच्छनाग, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोहभस्म, अभ्रक भस्म, बंगभस्म,
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लौंग और हरड़का चूर्ण १-१ भाग । अम्लवेत २ भाग और शंख भस्म ४ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर सबको कूट पीसकर पंचकोल, चिता, ओंगाके काढे और खट्टे लोनिया करकी ३ - ३ भावना और नींबूके रसकी २१ भावना देकर छोटे बेरके समान गोलियां बनाकर रक्खे । प्रातः काल और सायंकाल दोनों वक्त एक दो गोलियां दोषके अनुसार अनुपान के साथ सेवन करने से अग्नि शीघ्र ही दीप्त हो जाती है। यह संसार दुर्लभ अग्नि सन्दीपन रस मंदाग्नि, अजीर्ण, अम्लपित्त, शूल और गोला आदि का शीघ्र नाश करता है। [२७७] अचिन्त्य शक्तिरसः
(र. रा. ( ज्वरे सुं, भै. र ।) रसगन्धकयोग्रं प्रत्येकं माषकद्वयम् । भृङ्गकेशाख्यनिर्गुण्डी मण्डूकीं पत्रसुन्दरः ॥ श्वेतापराजितामूलं शालिश्चकालमारिषम् । सूर्यावर्त्तः सितश्चैषां चतुर्माषकसम्मितेः ॥ प्रत्येक स्वरसैः श्लक्ष्णं शिलायामवधानतः । स्वर्णमाक्षिकमाषञ्च दत्वा मरिचमापकम् ॥ नेपाल ताम्रदण्डेन घृष्ट्वा तत्कज्जलद्युतिम् । वीमुपमाका छायाशुष्का तु रक्षिता ।। प्रथमे वटिकास्तिस्रः कृत्वा नवशरावके । ततः समर्पणं सूर्य्यं पूजयित्वा प्रणम्य च । वारिणा गालयित्वा तु पातुं देयश्च रोगिणे॥ स्वेदोपवासविहिते क्लान्ते चात्यबले तथा । द्वितीयेह्निवटीयुग्मं वटीमेकां तृतीयके ॥ यावत्यो वटिका देयास्तावञ्जलशरावकम् । लुलायदधिसंयुक्तं मक्तं भोज्यं यथेप्सितम् ॥ पथ्यमग्निबलं वीक्ष्य वारिभक्तरसं तथा । शिरवलनशुलादौ तैलं नारायणादि च ॥
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अकारादि-रस
(९९)
सभिपातं निहन्त्याशु ज्वरांश्च विविधांस्तथा । । बनावे । इनमें से एक अथवा दो गोलीयां खानेसे ___ शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक दो-दो माशे | अजीर्ण शांत हो जाता है, अग्निकी वृद्धी होती है लेकर दोनोंकी कजली करके भांगरा, सुगन्धवाला, | और कफका नाश होता है। निर्गुण्डी, ब्राह्मी, गर्मा, सफेद कोयलकी जड़,शालिञ्च | [२७९] अजीर्णकण्टकोरसः -शाक, कालमारिष (बड़े पत्ते की चौलाई) और सफेद | ( भै. र., रसें. चि. म., अ. ९; यो. र. अजी.) सूर्यावर्तके चार-चार माशे स्वरसकी भावना देकर शुद्धसूतविषगन्धकं समंतुल्यभागमरिचंच चूर्णितं पीछे सोना मक्खी भस्म १ माशा, काली मिर्च १ । मर्दयेत्त वृहत्तीफलद्रवैरेकविंशतिविभावितं पुनः॥ माशा मिलाकर सबको नेपाली तांबेके मूसले से | गुञ्जिकात्रयमिदं सुभक्षितंसद्य एव जठराग्निवर्धनं । घोटकर कजलीके समान करे। फिर मूंगके समान एपकंटकरसोविचिकाजीर्णमारुतगदानिहन्तिच गोलियां बनावे । उनको छायामें सुखाकर अच्छी शुद्ध पारा, शुद्ध वच्छनाग और शुद्ध गन्धक तरह रख छोड़े। जिसने पसीना और उपवास | १-१ भाग तथा काली मिर्च ३ भाग। प्रथम किया हो तथा क्लेशित शरीर और अतिनिर्बल ||
पारे गन्धककी काली बनाकर और फिर अन्य पुरुषको प्रथम दिन ३ वटी मिट्टीके कोरे शरावमें
सबका चूर्ण मिलाकरके कटेलीके फलके रसकी रखकर भगवान भास्करकी पूजा करके उन्हें प्रणाम करें और फिर गोलियोंको पानीमें घोलकर रोगीको
| २१ भावना देवे, फिर तीन २ रत्तीकी गोलियां
बनावे । एक २ गोली नित्य खानेसे अग्निकी वृद्धि पिलादें। इसी प्रकार दूसरे दिन २ गोली, तीसरे । दिन १ गोली देवे, जितनी गोली देवे उतनी ही
तथा विसूचिका अजीर्ण और वातरोगोंका नाश
| होता है। सरैया जलकी देनी चाहिएं, और अग्निका बलाबल
। [२८०] अजीर्णवल-कालामलो रसः देखकर पथ्य देना चाहिये। यदि इसके सेवन
(र. रा. सुं.। अजी.) करनेसे शिरका घूमना, तथा मस्तक शूल हो तो नारायण तैल आदिका मर्दन करना चाहिये। इसके
द्विपलं शुद्धसूतं च गन्धकं च समं मतम् । सेवनसे सन्निपात और अन्य विविध प्रकारके ज्वर
लोहं तानं हरितालं विषं तुस्थं सबङ्गकम् ।। शीघ्रही नष्ट हो जाते हैं।
पलप्रमाणं च प्रथग् लवङ्गं टङ्कणं तथा । [२७८] अजीर्णकंटकोरसः (भा.प्र.। अजी.) | दन्ती मूलं त्रिवृच्चूर्णमेकैकं पलसम्मितम् ।। टकणकणामृतानां सहिङ्गुलानां समं भागाः।। अजमोदो यवानी च द्विक्षारौ लवणानि च। मरिचस्स भागयुगलं निम्बूनीरैवटी कार्या॥ पृथगर्द्धपलं ग्राह्यमेकीकृस्य च भावयेत् । पटिका कलायसदृशीमेको द्वे वा समश्नीयात्। आर्द्रकखरसेनैकविंशतिं पश्च कोलजैः। सत्यमजीर्णे शान्त्यै वह्वेर्बुद्धथैः कफध्वस्त्यै ।। | दशधा भावयेत्तोयैर्गुडूचीनां रसैर्दश ॥
सुहागेकी खील, पीपल, शुद्ध बच्छनाग और | सर्वार्द्ध मरिचं दत्वा काचकुप्यां च धारयेत् । हिंगुल १-१ भाग, काली मिर्च २ भाग लेकर चणमात्रां वटीं कृत्वा छायायां परिशोषयेत् ।। नींबूके स्वरससे खरल करके मटरके समान गोलियां रसोजीर्णवलकालानल एष प्रकीर्तितः।
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(१००)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
अनेककालनष्टाग्नेर्दीपनः परमः स्मृतः॥ खा लेनेसे आधे पहरमें वह सब अवश्य पच जाता आमवातकुलध्वन्सी प्लीहपाण्डुगदापहः। है। महाराज भोजकी चार प्रकारके (मधुर, अम्ल, प्रमेहानाहविष्टम्भमतिकाग्रहणीहरः॥ लवण, कटु) रसोंसे युक्त बहुत अधिक भोजन श्वासकासप्रतिश्याययक्ष्मक्षयविनाशनः । | करनेकी इच्छा होने पर सर्वहितैषी गहनानन्दनाथने अम्लपित्तं च शूलं च भगन्दरगुदोद्भवौ ॥ कृपा करके यह रस उन्हें बतलाया था । अष्टोदराणि प्लीहानं यकृतं हन्ति दारुणम् । [२८१] अजीर्णारि रसः (वृ. नि.र.। अजी.) आकण्ठं भोजयित्वा तु खादयेच्च रसोत्तमम् ॥ शुद्धं सूतं गन्धकं च पलमानं पृथक् पृथक् । अर्धयामेन तत्सर्व भस्मीभवति निश्चितम् ।। हरीतकी च द्विपला नागरस्त्रिपलास्मृतः ॥ चतुर्विधरसोपेतं महाभोजनमिच्छतः॥ कृष्णा च मरिच तद्वसिन्धूत्थं त्रिपलं पृथक्। भोजस्य नृपतेः कांक्षा भोजने कृपया कृता। चतुष्पला च विजया मर्दयेन्निम्वुकद्रवैः॥ गहनानन्दनाथेन सर्वलोकहितैषिणा ॥ पुटानि सप्तदेयानि धर्ममध्ये पुनः पुनः ।
शुद्ध पारा और गन्धक १०-१० तोले, लोह अजीर्णारिरयं प्रोक्तः सद्योदीपनपाचनः॥ भस्म, ताम्रभस्म, हरताल, शुद्ध वच्छनाग, नीला
भक्षयेद् द्विगुणं भक्ष्यं पाचयेद् रेचयेदपि ॥ थोथा (भस्म), बंग भस्म, लौंग, सुहागेकी खील,
शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक ५-५ तोले, दन्तीमूल और निसोत, ५-५ तोले। अजमोद, अजवायन, सज्जीखार, यवक्षार, पांचों लवण, २॥
हैड़ १० तोले, सोंठ, पीपल, काली मिर्च, सेंधानमक
| १५-१५ तोले, भांग २० तोले । प्रथम पारे -२॥ तोले लेवे। प्रथम पारे गन्धककी कज्जली |
गन्धककी कजली बनावें और फिर अन्य औषधियों बनावें और अन्य सबका चूर्ण करके अद्रक के रसकी २१, पंचकोल के काथकी १०, गिलोयके
| का चूर्ण मिलाकर नींबूके रसमें घोट कर धूपमें रसकी १० भावना देकर फिर सबके वजन से
सुखावें । इसी प्रकार ७ भावना दें। इसके सेवन भाधा काली मिर्च का चूर्ण मिलाकर चनेके बराबर
से मन्दाग्नि, अजीर्ण और कब्ज दूर होता है। इससे गोलियां बनाकर छायामें सुखा लेवे । इसका नाम क्षुधा दो गुनी हो जाती है। यह आहारको पचाता "अजीर्णबल-कालानल" रस है। बहुत समयसे
भी है और मलका रेचन भी करता है। (मात्रागष्ट हुई अग्नि प्रदीप्त करनेके लिये यह अत्युत्तम
| २ माशे.) औषध है। यह रस आमवात रोगके कुलको विध्वस्त । अञ्जनभरथरस:-प्रयोग. सं.८९०३ देखिए। कर देता है। इसके अतिरिक्त यह तिल्ली, पाण्डु, । अलनरसा-प्रयोग. सं. ८९०४ तथा ८९१७ प्रमेह, अफारा, कब्ज, सुतिका रोग, ग्रहणी विकार,
देखिए। श्वास, खांसी, प्रतिश्याय, राजयक्ष्मा, क्षय, अम्ल
[२८२] अतिसारभसिंहो रसः विस, शूल, भगन्दर, अर्श, आठ प्रकारके उदर ___ (र. रा. मुं. अति.) रोग और दारुण यकृत्प्लीहा रोगको भी नष्ट करता | पारदं गन्धकं शुद्धमहिफेनं च तत्समम । है, कण्ठ पर्यन्त भोजन करनेके पश्चात् यह रस मर्दयेद्विजया द्रावैर्धत्तूरस्य रसैः पुनः ॥
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अंकारादि-रस
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जातीफलं चतुर्थाशं माषमात्रन्तु भक्षयेत् । । [२८५] अतिसारान्तकोरसः अतिसारेभसिंहोऽयं विख्यातो रस सागरे ।
(रसा. सा. अति.) __शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और अफीम ४-४ तोले सुवर्णसिन्दूररसेन मर्दिता,
और १ तोला जायफल लेकर प्रथम पारे और कर्पूरकृष्टेन रसेन निर्मिता। गन्धककी कज्जली बना कर सबको भांग और धतूरे सूताई कार्त स्वरभस्मपर्पटी, के रसमें घोटे। इसे १ माशे की मात्रा में सेवन
रुणद्धयतीसारप्रवाहमन्तकम् ॥ करमेसे अतिसार का नाश होता है। रससागर स्वर्ण सिन्दूर (षड गुण बलिजारित ) ग्रन्थमें वर्णित यह रस अतिसार रूपी हाथीके लिये १ भाग, रस करिसे निकले हवे पारे और पारेसे सिंहके समान है। (व्यवहारिक मात्रा-४ रत्ती) | आधे स्वर्ण से बनी हुई स्वर्ण पर्पटी १ भाग। २८३] अतिसारवारणरसः दोनोंको मिलाकर घोटकर रक्खे । इसके सेवन से (र. सा. सं. । अति.)
अतिप्रवल अतिसार का नाश होता है। दरदं कृतकपूर मुस्तेन्द्रयवसंयुतम् ।। [२८६] अनिलरसः (रसे. चि. म. अ. ९) सर्वातीसारशमनं खाखसीक्षीरभावितम् ॥ | ताम्रभस्म रसभस्म गन्धकं ___ शुद्ध हिंगुल, पक्वकपूर, नागरमोथा और इन्द्र वत्सनाभमपि तुल्यभागिकम् । जौं ये सब औषधियां समान भाग लेकर पोस्तके दूध वद्वितोपरिमदित पचेत । (पोस्तके डोढेसे जो दूध जैसा द्रव निकलता है) की | यामपादमथ मन्दवहिना॥ सात भावना देवे । इसको यथायोग्य अनुपान और रक्तिकायुगलमानतोऽनिला उचित मात्रानुसार सेवन करनेसे सब प्रकार का शोथपाण्डुघनपंचकशोषकः ॥ अतिसार नष्ट होता है। इसको अतिसारवारण रस ताम्रभस्म, पारद भस्म, शुद्ध गन्धक, और कहते हैं।
शुद्ध वत्सनाभ; इन सबको बराबर लेकर चूर्ण करके [२८४] अतिसारहरो रस: चीतेके काथमें घोट कर मन्दी आंचसे चौथाई प्रहर (र. प्र. सु. अ. ८)
तक पकावे । इसका नाम अनिल रस है इसे दो रालमोचरसनागफेनकं
रत्ती की मात्रा में सेवन करने से सूजन, पाण्डु वत्सकातिविषमेव नागरम्। आदि का नाश होता है। चूर्णितं च मधुनावलेहितं
[२८७] अनिलारिरसः ____ वल्लमात्रमतिसारकं जयेत् ॥
(र. रा. सु., वा. व्या.) राल, मोचरस, अफीम, कुडेकी छाल, अतीस रसेन गन्धं द्विगुणं विमर्य और सोंठ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे वातारिनिर्गुण्डिरसैदिनकम् । शहदके साथ सेवन करनेसे अतिसारका नाश होता | निवेशयेत्साम्रमये पुटे तत् है। मात्रा २ या ३ रत्ती।
सर्व मुद्रावेष्टय च बालुकाख्ये ॥ * रसराजसुन्दरस्यातिसारदलनोरसः । यंत्रे पुदोमयचूर्णवन्ही
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(१०२)
भारत-भैषज्य रत्नाकर स्वभावशीस तु समुद्धरेत्तत् । निशि च सुजगवल्लीपर्णखण्डेन भुक्तः॥ निर्गुण्डिकावातहराग्नितोयैः
तदनु सुरभि दुग्धं पेयमल्पं सिताढयं संचूर्ण्य यत्नेन विभावयेत्तत् ॥ पुनरपि ससितानं चारताम्बूलमद्यात् । रसोनिलारिकथितोऽस्यबल्ल- इह समुदितमन्नं पथ्यमाह द्विजन्मा मेरण्डतैलेन ससैन्धवेन ।
मुनिरखिलगदानामन्तके ख्यातवीर्ये ॥ मरीचचूर्णेन ससर्पिषा वा
एनं संसेव्य मयों निर्गुण्डिचित्रैश्च कटुत्रिकैर्वा ॥
रमयति रमणी इन्दमानन्दतुन्द शुद्ध पारा १ ताला, और शुद्ध गन्धक मामन्दं तस्य शक्रं तोला लेकर कज्जली करके अरंड और निर्गुडी के
___कच न च भवति प्रत्यहं वर्द्धते च । रसमें १-१ दिन खरल करे, फिर उसको तांबेके |
पण्डः पाण्ढयं जहाति संपुटमें रखकर कपर मिट्टी करके वालुका यन्त्रमें |
प्रबलतरमपि प्रौउमाप्नोति गाढं आरने उपलोंकी अग्नि देवे, जब स्वांग शीतल हो
शेफापातित्ययुक्तं जावे तब निकालकर निर्गुडी, अरंड, चीता इनके
गतनवतिसममापि मर्त्यस्य चारु ॥ रसोंकी पृथक् पृथक् भावना देवे । इस अनिलारिरस
किं बहुना कथितेन गृहेऽसौ को दो वा तीन रत्ती अरंडीके तेल वा सेंधानमकके
यस्य नरस्य वसत्यसमस्य। साथ अथवा काली मिर्च और घीके साथ अथवा | पञ्चशरस्य शरस्य शर निर्गुडी, चीता और त्रिकुटा के साथ सेवन करने
__ भवतीह सदा महिलाहदयस्थः से सब प्रकारके वात रोग नष्ट होते हैं ।
मेहान्विंशतिमेष हन्ति सहसा यक्ष्माणमुग्रं जये. [२८८] अनङ्गनिगडोरसः
दानाहग्रहणीग्रहान्ग्लपयति प्रौढं विधत्ते बलम् । (बृ. यो. त., त. १४७) पाण्डे खण्डयति प्रसबरचयत्पर्शोविनाशं भृशं मिहिरकुलिशमुक्तातालवैक्रान्तभास्व- पित्तात्रं दलयत्यवश्यादरम्पाधि विलुम्पत्यपि।।
न्मणिकुजमणिभस्मान्येकभागानि कृत्वा । ओजःकान्ति वलप्रमोदधिपना नदन्तनासाश्रुति कनकरजतताप्यव्योमसत्त्वानि चत्वा प्रौढिं देहदृढत्वमग्निपदुतां पुंसःप्रकुर्यादयम् ।
र्यखिलसमरसेन्द्र गन्धकं सर्वतुल्यम् ॥ रोगो नास्ति स योनशान्तिमपयात्येतेन भूमितले मृदुविदलितमेतच्छोणकार्पासपुष्पा- भूमीपवजपूजितेन रमणी प्रेमास्पदेनाशिनम् ।।
म्बुभिरमलतरैत्रिर्भावयित्वा विशोष्य । ताम्र भस्म, हीरा भस्म, मोती भस्म, हरताल क्रमदहनविपक्कं वालुकाकाचकुम्भे भस्म, वैक्रान्त भस्म, सूर्यकान्तमणि भस्म, पद्ममणि
त्रिदिनमथ कलांशेनाच्छहालाहलेन ॥ (माणिक्य) भस्म, स्वर्ण मस्म, रौप्य भस्म, स्वर्णपुतमथमरिन्दुत्वक्पयोजातिकोशा- माक्षिक भस्म और अभ्रक सत्वकी भस्म १-१
मरकुसुममृगाण्डैर्भावयेज्जायतेऽसौ। भाग, शुद्ध पारद सबके बराबर (११ भाग) और मदननिगडनामा मापमात्रो दिनादौ शुद्ध गन्धक २२ भाग लेकर प्रथम पारदमें भस्में
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अकारादि-स
मिलाकर भली भांति खरल करें और फिर लाल । इसके अतिरिक्त यह रस २० प्रकारके प्रमेह कपासके फूलोंके रसकी तीन भावना देकर सुखा- | को नष्ट करता है, उग्र राजयक्ष्मा पर सहसा विजय कर कपर मिट्टी की हुई आतशी शीशी में भरें तथा । प्राप्त कर लेता है तथा आनाह, ग्रहणी, गृहवाषा, बालकायन्त्र में क्रमवर्द्धित अग्नि पर तीन दिन पाक | पाण्डु, अर्श, रक्तपित्त, और उदर व्याधिको अवश्य करें। (चन्द्रोदय बनाने की विधिसे पकाना चाहिए)। | नष्ट कर देता है। तदनन्तर रसको निकालकर उसमें उसका सोलहवां | इसके सेवनसे ओज, कान्ति, बल, हर्ष बुद्धि भाग शुद्ध हलाहल (मूल-विष विशेष) मिलाकर और जठराग्निकी अत्यन्त वृद्धि होती है, दृष्टि, दन्त, कालीमिर्च, कपर, त्वकक्षीरी (बंसलोचन), जावत्री, | नासा और श्रवण शक्ति बढ़ती है तथा देह दृढ़ हो लौंग और कस्तुरी की भावना' देकर सुरक्षित रक्खें। जाती है । भूमितल पर कोई ऐसा रोग नहीं जिसे मात्रा-१ माशा।
यह राजाओं द्वारा सम्मानित भौर रमणियों का इसे प्रातः और सायंकाल पानमें खाकर थोड़ी | प्रेमपात्र रस नष्ट न कर दे। मिश्री मिला हुवा गोदुग्ध पियें और फिर उत्तम (२८९) अनङ्गसुन्दरोरसः (१) नागरवेलके पानमें (आधी रत्ती)कपूर रखकर खावें। (र. रा. सु., रसा.)
यह सम्पूर्ण रोगों को नए करने के लिए शुद्धसूतं समं गन्धं व्यहं कल्हारजैवैः। प्रख्यात रस है । इसके सेवन कालमें यथेष्ट पथ्या- मर्दितं बालुकायंत्रे याम संपुटके पचेत् ॥ हार करना चाहिए।
रक्तागस्त्याद्रवैर्भाव दिनमेकं सिताम्बुजैः। इसे सेवन करने से मनुष्य अनेकों युवतियों के
यथेष्टं भक्षयेचानु कामयेत् कामिनी शतम् ॥ साथ रमण करे तब भी उसका शुक्र क्षय न होकर शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक ४-४ तोले लेकर बढ़ता ही है।
दोनों की कज्जली करके कल्हार (कुछ सफेद और __ इसके प्रभावसे नपुंसक पुरुषकी नपुंसकता | कुछ लाल ऐंसे कमल)के रसमें ३ दिन खरल करे, दर हो जाती है और ६० वर्षसे अधिक आयुके फिर संपुट में रख बालका यंत्र में एक प्रहर पकावे वृद्ध का शिथिल शिश्न भी दृढ़ हो जाता है। फिर एक दिन लाल अगथिया और सफेद कमलके अधिक कहने से क्या लाभ, जिस के पास यह | रसमें घोट कर सुखाकर रक्खे इसे बलाबलके रस होगा उसे कामदेव अपने बाणका निशाना अनुसार सेवन करने से सौ स्त्रियोंसे रमण करनेकी भवश्य बनाएगा और वह कामिनियों का सदा शक्ति प्राप्त हो जाती है। प्रिय रहेगा।
[२९०] अनङ्गसुन्दरोरसः (२) (र. मं.) १ऐसा प्रतीत होता है कि यहां काली पलद्वयं यं शुद्ध पारदं गन्धर्क तथा। मिर्च आदि पदार्थों का चूर्ण रसके समान भाग | मृतहेम्नस्तु कर्षकं पलैक मृतताम्रकम् ॥ मिलाना प्रयोग कर्ताको अभीष्ट है । यदि ऐसा नहीं किया जाय तो बंसलोचन की भावना
मृततारं चतुनिष्कं मर्च पञ्चामृतैर्दिनम् । व्यवहार विरुद्ध है तथा १ माशा मात्रा में |
रुद्ध्वा तु वै पुटे पश्चादिनैकं तु समुद्धरेत् ।। माधीरतीहलाहल विष आता है जो अधिक है। पिष्टा पश्चामृतैः कुर्याइटिका बदराकतिम् ।
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(१०४)
भारत-पन्य-रत्नाकर
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अनङ्गसुन्दरो नाम परं पुष्टि प्रदायकः॥ । साथ देनेसे जीर्णज्वर, धातुगत ज्वर, और गिलोय के
शुद्ध पारा १० तोले, शुद्ध गन्धक १० तोले, सत्व और मिश्री के साथ देनेसे सर्व प्रकार के प्रमेह सोनेकी भस्म ११ तोला, ताम्रभस्म ४ तोला और दूर होते हैं। तथा बिजोर की जड़के रसमें देने से चांदी भस्म २० माशे लेकर सब को एकत्र करके पथरी नष्ट होती है। एक दिन तक पञ्चामृत (समान भाग मिलित घृत, (२९२] अभयसिंहो रसः दुग्ध, मधु, शर्करा, दधि), में घोटकर सम्पुट में
(म. र. अति.) बन्द करके एक पुट दे, फिर पञ्चामृत के रस में | दरद विष व्योष जी ममम । घोटकर छोटे बेरके समान गोलियां बनावे । यह
| गन्धकश्चाभ्रकञ्चैव भागैकं शुद्धसूतकम् ॥ अनङ्ग सुन्दर रस अत्यन्त पौष्टिक है। (व्यव- मण्डूरं सर्वतुल्यं स्यान्मदयेन् निम्बुकद्रवैः । हारिक मात्रा–२ रत्ती)
एकैकं भक्षयेचानु जीरकं मधुना सह ॥ [२९१] अपूर्वमालिनी वसन्तः त्रिदोषोत्थमतीसारं सज्वरं वाथ विज्वरम् । (यो. र., वि. ज्व.)
सर्वरूपमतीसारं सङ्ग्रहग्रहणीं जयेत् ॥ वैक्रांतमभ्रं रविताप्यरौप्यं
रसोऽभयनृसिंहोऽयमतीसारे सुपूजितः॥ वंङ्ग प्रवालं रस भस्म लोहम् । शुद्ध शिंगरफ़, शुद्ध मीठातेलिया, त्रिकुटा, सुटणं कम्बुकभस्म सर्व
| जीरा, सुहागा की खील, शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारा और समांशकं पाच्य वरीहरिद्रा। अभ्रकभस्म, १-१ भाग, मण्डूर भस्म सबके द्रव्यैविभाव्यं मुनि संख्यया च बराबर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनाकर फिर
मृगाङ्कजाशीतकरण पश्चात् । | सबको नींबूके रसमें घोटकर गोलियां बनावे । इसे वल्लप्रमाणो मधुपिप्पलीभि
जीरके चूर्ण और शहदके साथ सेवन करने से जीर्णज्वरे धातुगते नियोज्यः। ज्वरयुक्त अथवा ज्वरसे रहित त्रिदोषज अतिसार, गुडूचिकासत्वसितायुतश्च
संग्रहणी, और अन्य सब प्रकार के अतिसारों का सर्वप्रमेहेषु नियोजनीयः। नाश होता है। कच्छाश्मरी निहन्त्याशु मातुलुङ्गानिजद्रवेः।। [२९३] अभ्रक शोधन (धान्याभ्रक) रसोवसंतनामाऽयमपूर्वो मालिनीपदः॥ (र. सा. सं. वृ. यो. त; त. ४१ भा. प्र. पू.
वैक्रान्तमणि, अभ्रक, ताम्र, सुवर्णमाक्षिक, ख.। आ. वे. प्रा, यो. र.) रूपा, वंग, मूंग, पारा, लोह इनकी भस्म और पादांशं शालिसंयुक्तभ्रकं कम्बलोदरे । शुद्ध सुहागा तथा शंख भस्म, सब समान भाग त्रिरात्रं स्थापये नीरे विक्लिनं मर्दयेद् दृढम् ॥ लेकर शतावरी और हल्दी की सात सात भावना | कम्बलाद्गलितं श्लक्ष्णं वालुकारहितश्च यत् । देकर चांदनी में रख दे फिर टिकिया बनाकर रख । तद्धान्याभ्रमिति प्रोक्तमभ्रमारणसिद्धये ॥ छोड़े। इसमें से २ रत्ती रस शहद और पीपल के ' स्वच्छ बज्राभ्रक १ पाव, शालीधान्य १ सेर,
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मकारादि-रस
(१०५)
इन दोनों को कम्वल के टुकड़े में बांध कर जल | अगस्त्यपुष्पतोयेन पिष्टं शूरणकन्दगम् । (काजी) में भिगों देवे तीसरे दिन निकाल कर किसी ! गोष्ठभूमिगतं मासं जायते रससनिभम् ॥ बड़ी परातमें उस कंबलकी पोटली को मसले जिस | अभ्रक को अगस्त्यपुष्पों (वकपुष्पों) के रस में से सब अभ्रक बारीक होकर छनकर कंबल से । रगड़कर जिमीकन्द के बीच में भर कर जिमीकन्द बाहर निकल आवे । उस स्वच्छ बारीक अभ्रक को के टुकड़े से बन्द कर गौत्रों के रहने के स्थान में ले लेवे । इसमें से कोई कंकड़ी आदि अन्य वस्तु | पृथ्वी में गाढ़ देवे। फिर एक महीने के बाद पहिले ही निकाल देनी चाहिये । इसे धान्याभ्रक | निकाले यह अभ्रफ शुद्ध और रस के समान हो कहते हैं यही मारण आदि सब कर्मों में लेना जाता है। चाहिये ।
[२९७] अभ्रकभस्मविधि (र. सा. सं.) [२९४] दूसरा प्रकार
वजानकं समादाय निक्षिप्य स्थालिकोदरे। __(र. सा. सं, यो. र; रा रा. सु. आ. रम्भादिक्षारतोयेन पचेगोमयवहिना ॥ वे. प्र, अ. ४ ।)
यावत्सिन्दूरसंकाशं न भवेत्स्थालिकाबहिः। त्रिफलाकाथगोमूत्रक्षीरकाञ्जिकसेचितम् । सेचनीयं ततः क्षीरस्ततः सूक्ष्म विचूर्णयेत् ।। मखायौ सप्तधा व्योम तप्तं तप्तं विशुध्यति ॥ शुद्ध वनाभ्रक को आगे कहे हुये केले आदि
बज्राभ्रक को कोयलों की तीक्षणाग्नि में धोकनी के खार (खार के पानी) में खूब घोटकर एक मिट्टी से धमाकर लाल करके त्रिफले के काथ में बुझावे के पात्र में डाले । इस पात्र को गोवरी (उपलों) ऐसे ही सात २ वार गरम करके त्रिफले के क्वाथ, | की आग में रख कर तब तक तीक्षण आंच देता गोमूत्र, दूध और कांजी में बुझावे तो अभ्रक शुद्ध | रहे जब तक उस पात्र का वर्ण अग्नि के तापसे हो जाता है।
| सिन्दूर के समान लाल न हो जाय, फिर अग्निं से [२९५] तीसरा प्रकार
निकालकर दूध में बुझाकर चूर्ण करे (निश्चंद्र होने (र. सा. सं, वृ.यो. त.। र. म. ११, र. रा.. पर्यन्त ऐसा ही करे) तो अभ्रक की भस्म हो
सु; आ. वे. प्र., अ. ४ । जाती है। अथवा पदरीकाथे ध्मातमभ्रं विनिःक्षिपेत् । । [२९८] दुसरी विधि (र. रा. सं.,र.रा.सु., मर्दितं पाणिना शुष्कं धान्याभ्रादतिरिच्यते ॥ र.म., रसे.चि.म.। अ.४ । आ.वे.प्र.। अ.४ । वृ. ___ अथया अभ्रक को तीक्षणाग्नि में तपा २ कर यो.त, त. ४१ । यो. र.) * बेरी के क्वाथ में बुझावे, फिर सुखाकर हाथों से धान्याभ्रकं समादाय मुस्त काथैः पुटत्रयम् । मल कर बारीक कर ले, यह अभ्रक शुद्ध होता है | तद्वत्पुनर्नवानीरैः कासमईरसैस्तथा ॥ और धान्याभ्रक से भी अच्छा होता है। नागवल्लीरसैः सूर्यक्षीरेयं पृथक् पृथक् । [२९६] अभ्रकद्रावणम | दिनं दिनं मईयित्वा क्वाथैटजटोद्भवैः ।। (र. सा. सं., र. म., रा रा. सु., रसे. चि. यो.र.में सूर्यक्षार की जगह गोदुग्ध है म. । अ. ४)
तथा लोधके पुटका अभाव है।
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भारत-भैषज्य रत्नाकर
दत्वा पुटत्रयं पश्चात् त्रिःपुटेन्मुसलीजलैः। तिक्ताखुपर्णिकामदेनार्कावपिलक्षसुतमातृकाभि त्रिगोक्षुरकषायेण त्रिःपुटेद्वानरीरसः॥
चौलाई, कटैली, नागरवेल (पान), पिण्ड, मोचकन्दरसः पाच्यं त्रिवारं कोकिलाक्षः। तगर, पुनर्नवा, हुलहुल, मण्डूकपर्णी, (ब्राह्मी)कुटकी, रसैः पुटं लोधकैस्तु क्षीरादेकपुटं पुनः॥ मूषकपर्णी, मैनफल, आक और शतावर ये १३ दना घृतेन मधुना स्वच्छया सितया तथा। द्रव्य अभ्रक को मारने वाले हैं (शुद्ध अभ्रक को एकमेकं पुटं दद्यादभ्रस्यैवं मृतिर्भवेत् ॥ अलग इनके रसमें रगड़ कर गजपुटमें फूंक देनेसे सर्वरोगहरं व्योम जायते योगवाहिकम् ।
भस्म हो जाती हैं)॥ कामिनीमददर्पघ्नं शस्तं पुंस्त्वोपघातिनाम्।। [३००] चौथी विधि (र. रा. सं.) पृष्यमायुष्करं शुक्रवृद्धिसन्तानकारकम् ॥
रम्भादिनानं लवणेन पिष्टवा धान्याभ्रक को लेकर नागरमोथे के क्वाथमें
चक्रीकृतं तद्दलमध्यवत्ति । खरल कर टिकिया बनावे फिर संपुट कर गजपुट
दग्धेन्धनेषु व्यजनानिलेन में फूंकदे, स्वांगशीतल होने पर नागर मोथे के
स्नुह्यर्कमूलाम्बुपुटेन सिद्धम् ॥
रम्भादि गण के रस में (अथवा केलाखार, क्वाथ में खरल करके गजपुट दे। ऐसे तीन पुटें देवे । फिर इसी प्रकार पुनर्नवाका रस, कसौदीका
सजीखार, चनाखार, और नमक इनके जलों में)
शुद्ध अभ्रक को खूब घोट कर टिकिया बना ले रस, नागरवेलके पानका रस, आकका दूध, बटकी जटाका क्वाथ, काली मुसलीका क्वाथ, गोखरूका
फिर इन टिकियों को केलेके पत्रों में रख पंखे की क्वाथ, कौंच का रस, मोचाकन्द का रस, तालम
| पवनसे चैतन्य की हुई कोयलों की अग्निमें फूंके । खानेका रस और पठानीलोध का क्वाथ इनमें से फिर निकाल कर थोहरके दूधमें घोटकर टिकिया प्रत्येककी अलग २ तीन तीन पुटें दे। फिर गाय बना संपुट करे और गजपुट में फूंक दे। ऐसे ही के दूधकी एक पुट दे (कहीं "क्षीरादष्टपुटेन्मुहुः" आकके दूधमें घोटकर टिकिया बना संपुट करे ऐसा पाठ है, अर्थात् गो दूधकी आठ पुटे दे) | और गजपुट में ही फूंके तो अभ्रक की भस्म हो फिर दही, घी, शहद और मिश्रीकी अलग २ एक
जाती है। एक पुट देवे तो अभ्रककी उत्तम भस्म हो जायगी। [३०१] पांचवीं विधि (अभ्रक सत्व विधि) यह भस्म सम्पूर्ण रोगोंको हरने वाली और योगवाही (र.सा.सु., रसे.चि.म.अ.४। र.र., र.म., बृ.या.त., हो जाती है। तथा स्त्रियों के मद को हरण करे, ।
त. ४१ । यो. र., आ.वे.प्र., शा. सं,अ. ४ ) नपुंसकताको दूर करे, शरीरको पुष्ट करे और आयु
धान्याभ्रकस्य भागकं भागौ द्वौ टंकणस्य च । को बढ़ावे एवं वीर्यवर्द्धक और संतानकारक है। ।
पिष्ट्वा तदन्धमूषायां रुद्धा तीवाग्निना पचेत् । [२९९] तीसरी विधि (र. रा. सं,
स्वभावशीतलं चूर्ग सर्वयोगेषु योजयेत् ॥ रसे. चि. म. । अ. ४)
१ मदनाद्रिक पलाशसूत मातृकादीभिर्मतण्डूलीयक-बृहती-नागवल्ली पिंडतगायनवा | देन पुटनैरपि मारणीयम् । रसे. चि. म.
| २ र सा. सु. में टंकण आधा भाग है। हिलमोचिला-मण्डूकपर्णी। अनेक प्रन्थोमैं इसे भस्म लिखा है।
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अकारादि-रस
(१०७)
धान्याभ्रक एक भाग, सुहागा दो भाग इन दोनों । बढ़े, शरीर दृढ़ हो जाय, निश्चन्द्र अभ्रक भस्म को इकट्ठा ही घोटकर अंधमूषा बन्ध कर कोयलों जरा और अकाल मृत्यु तथा रोगोंके समूहको नष्ट की तीन अग्नि में फूंक दे। (अथवा गजपुट में फूंक करती है। दे) जब स्वांगशीतल हो जाय तो निकाल कर पीस [३०४] अभ्रकनिश्चन्द्रीकरणम् ले । (निश्चन्द्र भस्म न हो तो फिर इसी प्रकार
(रसा. सा.)x फूंके) (निश्चन्द्र होने पर) इस भस्म को सब रोगों सुवचिंकामानमितं गुडं च में प्रयोग करना चाहिये।
तयोः समानं गगनं प्रगृह्य । [३०२] छठी विधि (१० पुटी भस्म) संमेल्य हण्ड्याच निधाय सर्व (र.सा.सं.. यो.चि.म., अ. ७ । आ.वे.प्र., अ.४ । । सर्वार्थकां प्रददीत वन्हिम् ।। वृ.यो त; त.४९। रसे. चि.म., अ.भा.प्र.,प्र.खं
तीव्राग्नितापेन सशब्दवनिधान्याभ्रकं दृढं मर्चमकक्षीरैर्दिनावधि । निर्याति चेदभ्रकहण्डिकातः। वेष्टयेदपत्रेण चक्राकारन्तु कारयेत् ।।
भीतिर्विधेया न तदा कदापि कुञ्जराख्ये पुटे दग्ध्वा सप्तबारान्पुनःपुनः ।
सुरर्चिका निःसरतीति मथा। ततो वटजटाक्वाथैस्तदेयं पुटत्रयम् ।।
पुटैकमात्रेण समुज्झय चान्द्रीं नियते नात्र सन्देहः सर्वरोगेषु योजयेत् ॥
निश्चन्द्रभावं भजतेअमेवम् । धान्याभ्रक को २४ घण्टे आक के दूध में !
मुवचिकापायनियन्यचान्द्रीखूब रगड़े फिर गोल गोल टिकिय वना कर आक
निर्भाति चेदयपुटं प्रदेयम् ॥ के पत्रों में लपेट संपुट करे और गजपुट में फूंक
ततोभ्रक यामयुगं सताक्ष्य दे शीतल होने पर निकाल कर फिर आकके दृधमें
जले निधायाथ करेण मर्दैन । उसी प्रकार रगड़ कर टिकिया बना गजपुट में स्थितं जलं चाप्यवपातनीयं फूंके। ऐसेही सात सात पुट आक के दूध की शनैर्यथाऽभ्रं न परिश्रुतं स्यात् ।। देवे तदनन्तर तीन बड़ की जटा के क्वाथ की । साध्याणि तावद्धि पयांसि यावत् । देवे तो अवश्य अभ्रक की उत्तम भस्म हो जायगी, म्वादोन मासेत सुवचिकायाः॥ इसको संपूर्ण योगोंमें प्रयोग करना चाहिये।
वैद्य लोग अभ्रक में सौ सौ पुट देते हैं तो [३०३] अभ्रक भस्म के गुण भी अभ्रक की चन्द्रिका (चमक) नहीं मिटती; निश्चन्द्रमारित व्योमरूपं पीय्ये दृढ तनुम्। और अभ्रको चमक रह जाने से रोगी की आंते कुरुते नाशयेन्मृत्युं जरारोगकदंषकम् ॥ कट जाती हैं जैसे काच की भस्म में चमक रह
निश्चन्द्र अभ्रक भस्म (शुद्ध देह मनुष्य जाने से। इसकी चमकके एक ही पुटमें दूर करने सेवन करे तो) आयु की वृद्धि हो, रूप और वीर्य |
___ x इस ग्रन्थमे रसायनसारके जितने प्रयोग १ आ.वे. प्र. में मर्क दुग्ध और अमूल दिये गये हैं उन सबकी टीका मूल ग्रन्थकार (ससे मन लिखा है।
। (रसायनकर्ता)की ही लिखी हुई है।
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भारत-रत्नाकर
(१०८)
का उपाय लिखता हूं-पावभर कलमी सोरेका चूर्ण और पावभर गुड, दोनों में थोड़ा पानी डाल कर मर्दन करलें, इसमें आधासेर शुद्ध अभ्रक मिलाकर एक हांड़ी में भरदें और हांडीकी मुद्रा करके सर्वार्थक भट्टी की लोहजाली पर अथवा कषायकरी भट्टी की लोहजाली पर पांचसेर पत्थर के कोयले रखकर हांडी को रख दे, और नीचे लकड़ी की आंच जलाकर कोयलों को सुलगाले । तेज अग्नि के कारण जो हांडी से आवाज़ करती हुई अग्नि निकले तो कुछ भयकी बात नहीं है क्योंकि तेज अग्नि लगने से सोरा उड़कर जा रहा है । कभी २ हांडी अग्नि को सह जाती है तो सोरा नहीं भी उड़ता है । इस रीति से एक ही बार में बहुत आसानी और कम खर्च के साथ अभ्रक निवन्द्र हो जाती है । कदाचित् सोराके उड़ जाने से हांडी के ऊपर के भाग की अभ्रक में कुछ २ चमक दीख पड़े तो उतने भाग को निकाल कर पूर्व की तरह गुड़, सोरा में रखकर एक पुट और दे, छुट्टी । इस निश्चन्द्र अभ्रक में सोरा मिला हुआ है इस लिये इसको कूटकर दोपहर तक जलमें भिगो दे फिर हाथ से खूब मल डाले । जब पानी स्थिर हो जाय और अभ्रक पात्रके पेंवें में जमजाय तब धीरे २ होशियारी के साथ पानी को गिराने जिससे अमी में वह जाय । फिर पानी भरके छोड़ रे । इसी तरह बराबर पानी गिराता जाय जब तक कि वह जिह्वापर खारी लगे ।
पुटत्रयेणापि पिपर्ति योगान् बिभर्ति कायं खलु केवलञ्च ॥ प्रथम कही हुई रीति से अभ्रक को निश्चन्द्र करके मंदार के पत्तों के स्वरस में घोटकर टिकिया
ना । जब टिकिया खूब सूख जाय सब गजपुट में अथवा सर्वार्थकरी भट्टी के तल भाग में सम्पुट को रखकर फूंक दे । ऐसे तीन पुट देने से लाल वर्ण की अभ्रक भस्मं बनेगी । इस भस्म को जिस रोग के योग में डालेंगे उसका गुण पूर्ण होगा । और केवल इस अभ्रक भस्म को मधु के साथ या पान में रख कर खाने से श्वास कास ज्वरादि अनेक रोग दूर हो जायगे और यदि अच्छा आदमी स्वायेगा तो ताकत बढेगी और अनेक रोगों से बचा रहेगा ।
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[३०६] मृतोत्थापनाभ्रक भस्म (रसा. सा.)
कृष्णेन मल्लेन च हिङ्गुलेन
समानमानेन चतुर्थभागम् । निवन्द्रमभ्रं परिमर्दयेत
दवाssसर्व संपुटके च रुद्ध्वा ॥ वनोपलङ्गारघृतं पचेत
तथा यथोद्गच्छति नेह मल्लः । पुनर्विमर्धापि पुनः पचेत
एव
[३०५] अभ्रकस्य नित्योपयोगि भस्म पुनर्यथापूर्वमिदं विमर्ध
(रसा. सा.)
पूर्वोक्तरीत्योक्तिचन्द्रिकाभ्रं मन्दारपत्रोद्भववारिणापि ।
दवा च दयापुनरासवं तम् ॥ कुर्यादुपविशवा नुत्थापयेचानु विशुद्धयुग्मम् ॥
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पचेत यावच्छत वारपाकाः ॥
कन्याद्रवेणानु विवर्ध सम्यक् विधाय चक्रीश्च पुटेद्गजाख्ये ।।
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अकारादि-रस
(१०९)
मृतं समुत्थापयतीदमभ्रं
तक लकड़ियों की खूब तीव्र आंच दे । स्वांगशीतल मध्वादिलीढं बलकल्प्यमात्रम् ।। होने पर ऊपर की हांडी में लगे हुए हिंगुल संखिया पाव भर निश्चंद्र अभ्रक (उक्त प्रकार से निचंद्र | के सार को जुदा निकाल ले और अभ्रक भस्मको किया हुआ) आधी छटांक काली संखिया, (काली | घृत कुमारी के रस में घोट कर टिकिया बना ले। संखिया के न होने पर लाल पीली भी ले सकते हैं) | जब टिकिया सूख जाएं तब उन को संपुट में फेंक आधी छटांक हिंगुल, इन तीनों चीजों को कुमार्या- दे । इसका नाम मृतोत्थापन अभ्रक भस्म है सव आदिके साथ दोपहर घोटकर लुगदी को संपुट | अर्थात् सन्निपात, हैजा (विसूचिका) सर्पदंशन में रखकर मुद्रा बन्द कर दे । फिर कुक्कुट पुट में । | आदि किसी कारण से मनुष्य के प्राण जाते हों तो दो सेर बन के उपले सुलगा दे जब निर्धूम अंगार। उस आसन्नमृत्यु रोगी को आधी रत्ती से दो रत्ती हो जाय तब उनके ऊपर सम्पुट को रख दे, तक बलाबल देखकर मधु आदि किसी अनुपान के परन्तु यह स्मरण रहे कि संपुट को अंगारों के साथ देने से रोगी अवश्य बच जायगा। यदि इसके बीच में न रखें नहीं तो संखिया और हिंगुल उड़
देने पर भी रोगी के आसार कच्चे दीखे तो "इयं जायेंगे । स्वांग शीतल होने पर पूर्व की तरह फिर
शतघ्नी यदि कुण्ठिता स्यान्नितान्तमन्तं कुरुते कृताउतना ही हिंगुल और संखिया डालकर आसव के
| न्तः” इस वक्ष्यमाण वचन का यहां भी अनुसन्धान साथ मर्दन करे । जव इस प्रकार लगभग बीस
कर ले । और जो डमरू यन्त्र की ऊपर की हांडी
में हिंगुल संखिया का सार भाग निकलता है पुट के हो जाय तब उस लुगदी को डमरू यन्त्र में रख कर चार पहर की अग्नि देकर संखिया
उसका भी मृतोत्थापन लोह विधि में कहे हुए मल्लहिंगुल को उड़ा ले । स्वांगशीतल होने पर डमरू सिन्दूर के विधान से मल्लसिंदूर बना ले जिस से यन्त्र को खोल डाले, ऊपर की हांडी में लगे हये | यह भी मृतोत्थापन और पौष्टिक बने । हीरे के समान चमकते हुए हिंगुल संखिया के । [३०७] सरवप्रधानमभ्रकभस्म सार को खुर्च कर निकाल ले, और नीचे की हांडी,
(रसा. सा.) में जो अभ्रक भस्म मिले उसको फिर पूर्व की तरह सेटोन्मितं व्योम तदर्धमानं आधी भाधी छटांक हिंगुल संखिया डालकर आसव ___ सुटङ्कणं तवयमावपेत । के साथ मर्दन करे । फिर लगभग २० पुट के हो हण्डयांतलच्छिद्रयुजिप्रगादं जाने पर डमरू यन्त्र द्वारा संखिया हिंगुल के सार मल्लं पिधायात्रषिवायमुद्राम् ॥ को पूर्व की तरह निकाल ले। यदि कोई वैद्य कषायकर्यामथकोष्ठिकायां संखिया हिंगुल ज्यादा खर्च करना नहीं चाहे तो ___ दृष्ट्वाभ्रहण्डोमिवसंहसन्त्याम् । डमरूयन्त्र से निकले हुए हिंगुल संखिया के सार निधायहण्डीमथकोष्ठयधस्ताद को ही आधी २ छटांक डालकर पूर्वोक्त क्रिया करे। काचाभसत्त्वंपततीत्थमभ्रात् ॥ इस प्रकार अभ्रक में सौ पुट दे । सौ पुट के बाद । नामापिनास्मिन्ननुचन्द्रिकानां उस लुगदी को डमरू मन्त्र में रखकर चार पहर । सवप्रधानबहसवयोगात् ।
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(११०)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
मन्दारदुग्धेनदिनद्वयञ्चेद्विमर्च के दूध में खूब घोटे बाद को टिकिया बनाकर
सम्यकच विधायचक्रीः॥ । धूप में सुखाले और गजपुट में फूंक दे, छुट्टी । धर्मेण शुष्काः प्रपुटेर गजाख्ये परन्तु पहले इस सत्व को कूटकर कपरछन करले
बारेण चैकेन भवेत्सभस्म। | फिर मदार के दूधमें धोटे । एक सेर शुद्ध अभ्रक और आधसेर चौकिया (३०८) अथाभ्रआनुपानानि सुहागा दोनों को मिलाकर जिसके तलभाग में सत्व | अभ्रकं च निशायुक्तं पिप्पली मधुना सह । गिरने के लिये छिद्र किया है ऐसी हांडी में खूब | विंशतिं च प्रमेहनां नाशयेनात्र संशयः ।। भरदे और उसके मुख पर शराव रखकर मुद्रा करदे। | अभ्रकं हेमसंयुक्तं क्षयरोगविनाशनम् । परन्तु यह स्मरण रहे कि हाण्डी पर तीन कपरमिट्टी | रोप्यहेमाभ्रकं चैव धातुवृद्धिकरं परम् ॥ करके सुखाले । बाद कषायकरी भट्ठी में पत्थर के | अभ्रकं च हरीतक्या गुडेन सह योजितम् । कोयले भरकर नीचेसे लकड़ी की आंच दे जब कोयले | एलाशकेरया युक्तं रक्तपित्तविनाशनम् ।। खब दहकने लगे तब लोहे के छड़से कुछ कोयलों को | त्रिकटु त्रिफलां चैव चातुर्जातं सशर्करम् । हटाकर बीचमें उस हांडी को रखकर दहकते हुए मधुना लेहयेत्प्रातः क्षयार्शः पाण्डुनाशनम् ॥ कोयलों को उस हांडी के ऊपर से भी ढांक दे, भट्टी | गुडूचिसत्वखण्डाभ्यां मिश्रित मेहनाशनम् ॥
नीचे से सब आंच को निकाल कर हांडी के ठीक | एलागोक्षुरभूधात्रीसितागव्येन मिश्रितम् ।। नीचे भाग में एक लोहे का तसला रख दे । एक प्रातः संसेवनानित्यं मेहकच्छनिवारणम् । घण्टे के बाद हांडी के अभ्रक का सम्पूर्ण सत्व बह पिप्पलीमधुसंयुक्तं भ्रमजीर्णज्वरापहम् ॥ २ कर तसले में गिर जायगा । इसका वर्ण कांच | मधु त्रिफलया युक्तं दृष्टिपुष्टिकरं मतम् । के समान काला होगा जिसको देख कर कोई | मूसत्तयुतं व्योम व्रणानां च विनाशनम् ॥ नहीं पहचान सकता कि यह अभ्रक है। इसमें | गोक्षीरक्षीरकन्दाभ्यां बलवृद्धिकरं परम् । अभ्रक का भी अंश मिला हुआ है इसलिये यह | भल्लातकयुतं व्योम त्वोंदोषनिवारणम् ॥ खाली सत्व नहीं है। इसमें चन्द्रिकाओं का नाम | नागरं पौष्करं भागी गगनं मधुना सह । निशान भी नहीं है । हमने इस सत्व को निकाल- | अश्वगन्धायुतं खादेदातव्याधिनिवारणम् ॥ कर बहत वैद्यों को दिखाया है जिसने देखा उसीने | चातुर्जातं सिता चाभ्रं पित्तरोगनिवारणम् । प्रसंशा की है । जैसे गुड़ और सोरे के योग से कट्फलं पिप्पली क्षौद्रं श्लेष्मरोगनिवारणम ॥ एक बारमें ही अभ्रक निश्चन्द्र हो जाती है इसी | सर्वक्षारयुतं चाभ्रममिद्धिकरं परम्। प्रकार इस विधिसे केवल सुहागेके योगसे भी अभ्रक मूत्राघातं मूत्रकृच्छ्म श्मरीमपि नाशयेत् ।। निश्चन्द्र हो जाती है और अभ्रक का सत्वांश रह | विजयारससंयुक्तं शुक्रस्तम्भकरं परम् । जाता है इसी लिये इसका माम सत्वप्रधान अभ्रक | लवङ्गमधुसंयुक्तं धातुवृद्धिकरं परम् ॥ भस्म रक्खा है। इस सत्व की भस्म करने की यह | गोक्षीर शकरायुक्तं पित्तरोगविनाशनम् । विधि है कि इस अनकसत्व को दो दिन तक मंदार अभ्रक विधिसंयुक्तं पथ्ययोगेन योजितम् ।
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अकारादि-रस
( १११ )
दिव्याभ्रं क्षयपाण्डुसंग्रहणिकाशूलं च कुष्ठामयम् । सर्वश्वासगदं प्रमेहमरुचिं कासामयं दुर्धरं । मन्दाग्नि जठरव्यथां परिहरेच्छेषामयानिचितम् वली पलितनाशः स्याज्जीवेच्च शदां शतम् । नातः परतरं किंचिजरामृत्युविनाशनम् ॥
अभ्रक भस्म को हल्दी, पीपल का चूर्ण और शहद के साथ सेवन करने से बीस प्रकार के प्रहों का नाश होता है। सोनेके साथ अभूक भस्म सेवन करने से क्षयका नाश होता है तथा अभ्रक भस्म को चांदी की भस्म और स्वर्ण भस्म के साथ सेवन करने से अत्यन्त धातु वृद्धि होती है । अभ्रक भस्म, गुड़ और हैड़ का चूर्ण मिलाकर देने से अथवा इलायची का चूर्ण और चीनी मिला कर देने से रक्तपित्त का नाश होता है। शहद और त्रिकुटा, त्रिफला, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर और चीनी के साथ प्रातः काल सेवन करने से क्षय, बवासीर और पाण्डु का नाश होता है। गिलोय के सत और चीनी के साथ खानेसे प्रमेहका नाश होता हैं। इलायची, गोखरू, भूमि आमला, मिश्री और दूध के साथ प्रातः काल सेवन करनेसे मूत्रकृच्छ्र का नाश होता है और पीपल चूर्ण तथा शहद से साथ सेवन करनेसे भ्रम और जीर्णज्वर का नाश होता है। शहद और त्रिफले के चूर्ण के साथ सेवन करने से दृष्टि पुष्ट होती है । मूर्वा के सत के साथ सेवन करने से ब्रण मिटते हैं। गाय के दूध और बिदारीकन्द के साथ सेवन करने से अत्यन्त बल वृद्धि होती है । अभ्रक भस्म भिलावे के साथ सेवन करने से बवासीर का नाश होता है । सोंठ, पोखरमूल, भारंगी, असगन्ध,
वेल्लव्योषसमन्वितं घृतयुतं वल्लोन्मितं सेवितं । करने से वातत्र्याधिका नाश होता है। दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर और चीनी के साथ अभ्रक भस्म सेवन करने से पित्त रोग शान्त होते हैं । कायफल, पीपल का चूर्ण और शहद के साथ सेवन करने से कफ रोग शान्त होते हैं । जवाखार, सुहागा, सज्जीखार आदि खारों के साथ सेवन करने से अभ्रक भस्म अत्यन्त अग्नि प्रदीप्त करती है तथा मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात और पथरी का नाश करती है । भांग के रस के साथ सेवन करने से वीर्य स्तम्भ करती है। लौंग और शहद के साथ सेवन करने से अत्यन्त धातुवृद्धि होती है | गाय के दूध और चीन के साथ खाने से पित्त रोगों का नाश होता है । अभ्रक भस्म को बायविडंग, त्रिकुटा और धी के साथ एक बल ३-४ रती ) प्रमाण में सेवन करने और पथ्य पालन करने से क्षय, पाण्डु, संग्रहणी, शूल, कुष्ठ, सब तरह का खाम, प्रमेह, अरुचि, प्रबल खांसी, मंदाग्नि, उदर व्य रोगोंका नाश होता है । अभ्रक सेवन से बलीपलित बुढापा और अकालमृत्यु का नाश हो कर मनुष्य १०० वर्ष तक जीवित रह सकता है । (३०९) अभ्रककल्प ( आ. वे. प्र. । अ. ४) निश्चन्द्रमभ्रकं भस्म धात्रीव्योषविडङ्गकम् || भृङ्गाम्बुना जलैर्वाऽपि खल्वे मधे द्वियामकम् ॥ गुटिकां कारयेत्सव छायाशुष्कां सुरक्षयेत् । एकैकां भक्षयेत्प्राज्ञो वर्षमेकं निरन्तरम् || द्वितीये तु पुनर्वर्षे भक्षयेद्गुटिकाद्यम् । एवं संवत्सरेणैव गुटिकैकां विवर्धयेत् ॥ त्रिवर्षस्य प्रयोगोऽयमभ्रकस्य प्रकीर्तितः । अनेन क्रमयोगेन व्योम्नः शतपलं नरः ॥ अद्याद्भवेन संदेहो वज्रकायो महाबलः ।
|
के
इनके चूर्ण और शहद के साथ अभ्रक भस्म सेवन । मासत्रयेण रक्ताख्यं क्षयं श्वासं सुदारुणम् ॥
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(११२)
भारत-भैषग्य-रत्नाकर
-
पञ्चकासांश्च हृच्छूलं ग्रहण्यशोगदांस्तथा। ___पांच तोला शुद्ध पारद, पांच तोला शुद्ध आमवातं तथा शोषं पाण्डुरोग सुदारुणम् । गंधक, पांच तोला निश्चन्द्र, शतपुटी अभ्रक, पांच मृत्युकल्पं महाव्याधि वातपित्तकफोद्भवम् । तोला सोंठ, पांच तोला काली मिर्च, पांच तोला इन्त्यष्टादशकुष्ठानि नृणां पथ्याशिनां ध्रुवम् ॥ चौकिया सुहागे की खील । इन चीजों में से पहिले
निश्चंद्र अभ्रक भस्म, आंबला, त्रिकुटा और | गन्धक पारे की कजली कर ले फिर अभ्रक को वायविडंग, सब समान भाग लेकर भांगरे के रस भी उस कजली में डाल कर खूब घोट ले फिर अथवा पानी में २ पहर घोट कर गोलियां बनाकर | सोठ आदि सब चीजों को कूट कर कपरछन कर छाया में सुखावे । १-१ गोली वर्ष भर तक सेवन | ले । फिर सब चीजों को मिलाकर मर्दन करे, करे फिर दूसरे वर्ष २-२ गोली खावे और तीसरे और इन चीजों के स्वरस की भावना दे-मांगरा, वर्ष प्रति दिन ३-३ गोली सेवन करे। इस प्रकार | चित्रक, सम्भालु, भांग, मोगरा, अरणि, ब्राह्मी,श्वेता१०० पल अभ्रक सेवन करने से मनुष्य वनकाय पराजिता (सफेद कोयल) इनमें से जो चीज सूखी हो जाता है । ३ मास में क्षय, श्वास, पांच प्रकार
मिलें उनका क्वाथ करले और हरी पत्ती मिलें तो की खांसी, हृदय का शूल, ग्रहणी, बवासीर, आम
उनका स्वरस निकाल लें। जब सब चीजों की वात, शोष, पाण्डु तथा अठारह प्रकार के कुष्टोंका
पृथक् पृथक् भावना समाप्त हो जायं तब उस चूर्ण, नाश होता है, परन्तु पथ्य सेवन करना आवश्यक
के बराबर काली मिर्च का चूर्ण लेकर डाल दें।
फिर उक्त स्वरसों की एक एक भावना और देकर है। इस कल्प को पूरे तीन वर्ष तक सेवन करने
मटर के समान गोलियां बना ले । इनको छाया में से शरीर अत्यन्त दृढ़ हो जाता है ।
सुखाकर रख छोडे । इसको अभ्रक रसायन कहते [३१०] अभ्रकरसायनम् (रसा. सा.) ।
हैं । मनुष्य की जठराग्नि और ताकत तथा व्याधि सूतगन्धाभ्रकव्योपभृष्ट टङ्कणकाःसमाः। | को देखकर योग्य अनुपान के साथ देनेसे श्वास, सूतगन्धककज्जल्या जातायां पटगालितान् । कास, क्षय, कफजन्य व्याधि, वात व्याधियों को सनीय मईयेत्सर्वान् भावयेदेभिरौषधैः।। यह अभ्रक रसायन दूर करे और शुक्र, जठराग्नि, भडाराजाग्निनिर्गुण्डीविजयाग्रीष्मजाजया ॥ ताकत और कान्ति को बढ़ाती है एवं अतिसार, ब्राझी श्वेता समस्तानां मरिचं समचूर्गकम् । | ज्वर, सूतिका रोग में अच्छा काम करती है । इस श्लक्ष्णमर्दितकल्कस्य वटिका रेणुकोन्मिता॥ रसायनके सेधन करनेमें भोजनपान आचार कुछ समीक्ष्याग्नि बलं व्याधि योजयेदनुपानतः। पालन करना नहीं पड़ता केबल मैथुनको त्याग श्वासकासक्षयश्लेष्मवातिकव्याधिसम्भवम् ॥ देना चाहिये और रोज़ दही सेवन करना चाहिये। निहन्याज्जनयेच्चाशु शुक्रं वह्नि बलं प्रभाम् ।। [३११] अभ्रकविकारशान्तिः अतीसारे ज्वरे मृतौ पूज्यं चाऽभ्ररसायनम् ॥
(रसा. सा.) आचारे भोजने पाने यन्त्रणा नापि विद्यते । दुष्टाभ्रसेवाजनिस्तांस्तु रोगा दधि संसेव्यते चात्र मैथुनं च विवर्जयेत् ॥ । नपानुनुन्सुर्यदि सेवते ना।
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अकारादि-रस
(११३)
उमाफलं वारिणि संविमर्थ
गन्धकं च सममत्र मर्दितं दिनत्रयं तेन लभेत शर्म ॥
भृङ्गराजरसकेन संयुतम् ॥ चमकदार अभ्रक सेवन करने से शरीर में | काकमाचिजरसैश्च मर्दित उत्पन्न हुए रोगोंको दूर करने के लिये उमाफल कुक्कुटाख्य पुटपश्चकेन हि । (तीसी) को जलमें घोट घोटकर तीनदिन तक पीवे। | पाचितं हि सितया समं सदा
[३१२] अभ्रकहरीतकी (र. रा. सु., अश.) सेवितं सकलरोगघातकम् ॥ मृताभ्रकपलं विशन्मृतलोहस्य पंचकम् ।।
रससिन्दूर, शुद्ध हिङगुल, हरतालसत्व १-१ गन्धकस्य पलं पंच त्रिभिद्विंगुणमाक्षिकम् ॥
भाग और शुद्ध गन्धक सब के बराबर लेकर भांगरे पथ्याशतपलं योज्यं धात्रीपलशतद्वयम् ।
और मकोय के रस में धोट २ कर कुक्कुट पुट सर्वमेकत्र तच्चूर्णं जम्बीरैर्भावयेद्दिनम् ॥
में ५ पुट दे । इसे समान भाग मिश्री के साथ भंगीपुनर्नवाद्रावैःपातालगरुडाकुलैः।
सेवन करने से सव रोगों का नाश होता है । भल्लातवह्निकोराटैईस्तिशुण्डी तु लागली ॥ । [३१४] अमृतकलानिधि क्षीरिणीजलकुम्भी च प्रत्येकं प्रत्यहं द्रवैः।। (वृ. नि. र. । ज्वरे) भावयेन्मर्दयेदित्यं मध्वाज्याभ्यां विलोलयेत । अमृतवराटिकमरीचैपिंचनवमांशकैः कुर्यात् ।। स्निग्धभाण्डे स्थितं खादेन्नित्यं निष्कद्वयं द्रयम मुद्गप्रमाणा वटिका ज्वरपित्तसिद्धसावरयोगोत्थं त्रिदोषाासि नाशयेत ॥ कफाग्निमान्द्यहारी स्यात् ॥ ___अम्नक भस्म १०० तोले, लोहभस्म २५ शुद्ध वच्छनागविष दो भाग, कौडीकी भस्म तोले, शुद्ध गंधक २५ तोले, सोनामक्खी की भस्म | ५ भाग, काली मिर्च ९ भाग लेकर खरल करके ३०० तोले, हरड ५०० तोले, आमले १००० मूंगके बराबर गोलियां बनावे । यह ज्वर, पित्त तोले, इन सब पदार्थोंको एकत्र चूर्ण करके १ | और कफज अग्निमांद्य का नाश करता है। दिन जंबीरी नींबूके रसकी भावना दे। फिर भांगरा, [३१५] अमृतसुन्दरो रसः सांठी, पातालगरुडी, भिलावा, चीता, कुरंटक, हाथी
(र. प्र. मु. अ. ८) शुंडी, कलहारी, दुदी और जलकुम्भी इनमें से प्रत्येक मनःशिलामाक्षिकतालगन्धं के रसमें एक एक दिन खरल कर, तदनन्तर मधु मृतं तथा खर्परमेव तुल्यम् ।
और घी में मिलाकर रख छोड़े । इसमें से ८ माशे, संमर्दितं चादरसेन सम्यग् । नित्य खाने से त्रिदोषजन्य बवासीर दूर होती है ! वासारसैश्चेत्सुरसारसेन । [३१३] अमरसुन्दरो रसः
आपूरितं नाम्रजपात्रमध्ये (र. प्र. सु. । अ. ८)
तत्संपुटं वै त्रिदिनं प्रपाचयेत् । सूतभस्म दरदं विशोधितं
तं स्वाङ्गशीतं हि समुद्धरेद्वै तालसत्वमिति चैकभागिकम् । वल्लोन्मितं तं परिभक्षयेच्च ॥
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(११४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
वातोद्भवान् हन्ति समस्तरोगान् लेकर दोनों को तीन दिन तक २० गयाण आकके
तथा च श्लेष्मोद्भवरोगसंघान् । । दूधमें घोटे फिर तीन दिन सेहुंड के दूध में घोटकर मनसिल, सोनामक्खी, हरताल, गंधक, पारा, | शरावसंपुट में रख कर भूधरयन्त्र में पुट देवे । खपरिया । सबको समान भाग लेकर अद्रक, बांसा | इसी प्रकार आठ पुट देने के बाद पीसकर बारीक और तुलसी के रसमें खरल करके तांबे के पात्र में चर्ण करके चन्दन, हरड़, मिरचों के क्वाथ और भर कर सम्पुट करके ३ दिन तक पकावे फिर और अम्बरबेल के रस की सात सात भावना दे । ठण्डा होने पर निकाल कर रक्खे । इसे ३ रत्ती । इसे दो रती, एक गद्याण खांड के सहित ठण्डे की मात्रा में सेवन करने से वातज और कफज
पानी से सब रोगों में देवे । यह वातशूल, पसली रोगों का नाश होता है।
का दर्द, परिणामशूल, वातज्वर, मन्दाग्नि, अजीर्ण, [३१६] अमृतगर्भ रसः
कफ के रोगोमें पीनस आमवात और वात कफ (र. चि. ७ स्तबक)
के रोगों का नाश करता है। प्रत्येकं दशगयाणाः शुद्धगन्धकस्तयोः। [३१७] अमृतमञ्जरी रसः विंशत्यर्कजदुग्धेन द्वयोः पिष्टवा दिनत्रयम् ॥ (र. सा. सं. कासे) व्यहं सेंहुण्डदुग्धेन शरावस्थं च तं पुटेत । | हिंगुलश्च विषश्चैव कणा मरिच टङ्कणम् । भूधराख्ये च यन्त्रे वै क्रमादेवं पुटाष्टकम् ॥ जातीकोष सम सर्व जम्बीररसमर्दितम् ॥ ततः खल्वेन संपिज्य सूक्ष्म चूर्ण विधीयते । रक्तिमानां वटीं कुर्यादाटेकरससंयुताम् । श्रीखण्डेन च पथ्यानां देयास्तत्रैव भावनाः ।। | वटीद्वयं त्रयं खादेत्सन्निपाते सुदारुणम् ॥ मरिचानां जलेनाऽथ दद्याच सप्त भावनाः। | अग्निमान्धमजीर्णश्च सामवातं सुदारुणम् । आकाशवल्ल्याश्च रसैर्भावनास्तावतीस्ततः॥ | उष्णतोयानुपानेन सर्व व्याधि नियच्छति ॥ खल्वे पिष्ट्वा ततः शुष्कं कूप्यां चूर्ण क्षिपेत्सुधीः कासं पञ्चविध श्वासं सर्वाङ्गग्रहमेव च । नाम्ना अमृतगर्भोयं कीर्तितो रसवेदिभि ॥ जीर्णज्वरं क्षयं कासं इन्यादमृतमञ्जरी ॥ द्विगुञ्जामात्रकश्चायं गद्याणैका च शर्करा। शुद्ध हिङ्गुल, शुद्ध वच्छनाग, पीपल, काली सर्वरोगेषु दातव्यः समं शीतेन वारिणा॥ | मिर्च, सुहागे की खील और जावित्री इन सब को वातशूले तथा पार्श्व शूलेऽथ परिणामजे।। समान भाग लेकर जम्बीरी नींबू के रस में खरल पातज्वरे च मन्दाग्नौ हजीर्ण श्लेष्मरोगिणि॥ करके एक एक रत्ती की गोलियां बनाकर अदरख पीनसे चामवातेषु वातश्लेष्मादिरोगिषु ।।
के रस के साथ दो अथवा तीन गोली सेवन करने रोगाः सर्वे विलीयन्ते प्रोक्तैकेन क्रमेण हि ॥
से दारुण सन्निपात, मन्दाग्नि, अजीर्ण ओर आमवात शुद्ध गन्धक और शुद्ध पारद दश दश गद्याण
रोग नष्ट होते हैं । गर्म जल के साथ सेवन करने
से सब प्रकार के रोग शमन होते हैं । इस से पांच प्रस्थमेकन्वेति पाठान्तरमम् । +कोर २ "विंशति,
प्रकारकी खांसी, श्वास, सर्वाङ्ग पीडा, जीर्णज्वर मोर गन्धक के २० गधाण लेते हैं। ' और क्षय की खांसी दूर होती है।
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अकारादि--रस
(११५)
[३१८] अमृतमण्डूरम् (र. र. शूले) पुनर्नवाबलाकाशाः शिग्रु मोरटदारकाः । मण्डूरस्य पलान्यष्टौ शतावर्या रसन्तथा । स्नुही रविरसो दर्भः कुशास्थि सहपीवरी ॥ क्षीराज्यदधिप्रत्येकं पिष्ट्वा चतुष्पलं पचेत् ॥ गवाक्षी वरुणः कन्दश्चविका तालमूलिका । यावत्पिण्डं तदुत्तार्य निष्कैकं भोजयेत्सदा।। नागबला कणामूलं कुष्ठं ब्राह्मणयष्टिका ॥ प्रातः सन्ध्यां सदाखादेत् पक्तिशूलप्रशान्तये ॥ पलोन्मितानि सर्वाणि जलद्रोणे विपाचयेत् । वातजं पितजं मिश्रममृताख्यो हि मृत्युजित् । अष्टभागावशिष्टन्तु कपायापकल्पयेत् ।।
मण्डूर भस्म ४० तोला, शतावर का रस ४० | त्रिफलायास्तथा प्रस्थं जलाष्टगुणप्राचितम् । तोला दूध, घी, और दही २०-२० तोला लेकर | तस्मादष्टावशेषस्तु कषायस्तु परिनुतैः ॥ एकत्र पीसकर पकाकर गाढा करे इसको प्रातः
माक्षिकेन हतश्चापि पुटितश्च यथाविधिः । काल और सन्ध्या समय ४--४ माशाभर खाने से
आयसं चूर्णितं पूतं पलं षोडशसम्मितम् ।। वातज पित्तज सन्निपातज और परिणाम शूलका
पलान्यभ्रस्य चत्वारि तावन्ति गन्धकस्य च । नाश होता है।
द्वे द्वे पले रसस्यापि खल्लितस्य यथा विधिः। [३१९] अमृत रसः । (र. चि.। ११ स्तबक)
गुडस्य च पलान्यष्टौ भितायाचाथ पैत्तिके । कर्षद्वयं गन्धकस्य तदर्ध पारदस्य च ॥
रक्तपित्तेऽथ खण्डस्य मत्स्यण्डया वाथ कासके। त्रिकटु त्रिफला मुस्ता विडङ्गं चित्रकं तथा ।। एषा सञ्चूर्णितानां च प्रत्येकं तु पलं भवेत् ॥
गुग्गुलोपिलं दत्वा * प्रस्थाधं सर्पिषस्तथा। बिडालपदमात्रं तु लिह्यात्तन्मधुसर्पिषा ।
| एवं पाकविधिज्ञस्तु पचेल्लोहं समाहितः ।। शीतोदकं चानुपिवेत्क्रमाद्व्यं पयस्तथा ॥
शीतेऽवतार्य मधुनः क्षिपेदष्टपलं मिषक् । अम्लपित्तमग्निमांद्यं परिणामरुजं तथा ॥
माक्षिकस्य विशुद्धस्य द्विपलं रजसः क्षिपेत् ।। कामलां पाण्डुरोगं च हन्यादमृतको रसः ॥ |
| शिलाजतोस्तथा चूर्ण पलाधं सम्मितं भिषक् । ____ शुद्र गंधक २॥ तोला, शुद्ध पारद १। तीला, ।
| अथैषां प्रक्षिपेच्चूर्ण पलमानं पृथक् पृथक् ।। त्रिकट, त्रिफला, नागरमोथा, बायबिडंग और चित्रक | त्रिकटु त्रिफला दन्ति त्रिवृता जीरकदम । का चर्ण ५-५ तोला, सबको मिलाकर रक्खे । गायत्रिसारं तालीसं धान्यकं मधुयष्टिका ।। इस में से ११-१। तोला शहद और घृत में मिला- | शुभा रसाञ्चनं शृङ्गी चित्रकं चव्यमुस्तकं । कर चाटे और ऊपर ठण्डा पानी तथा गो दुग्ध चातुर्जातक ककोलं लवङ्गं जातिकं फलम् ॥ यथाक्रम पान करे तो अम्लपित्त, मन्दाग्नि, परिणाम- द्राक्षा खजूरकं चूर्ण पलार्धसम्मितं भिषक् । शूल, कामला और पाण्डु रोग का नाश होता है। एषः लोहवरः श्रीमान् सर्व व्याधि विनाशनः।। [३२०] अमृताख्यलोहरसायनम् | यत्र यत्र प्रयुञ्जीत तत्तदाशु विनाशयेत् । (बं. से. रक्तपित्त)
रक्तपित्तऽम्लपित्ते च क्षये कुष्ठे बरेऽरुचौ ॥ अमृता तिश्ता दन्ती श्रावणी खदिरो घृषः। दुर्नाम्नि चोदरे शूले ग्रहण्याचामवातके । चित्रको भृगराजय कोकिलाक्षः स पुष्करः। 'वातरक्त मूत्रकच्छ्रे प्रमेहे शर्करागदे ॥
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भारत-भैषज्य रत्नाकर
अस्योपयोगान्मनुजस्तारुण्यमधिगच्छति। तोला मिलावे । यह श्रीमान् सर्व लोहो में उत्तम ब्राह्मचर्येण कुर्वीत प्लतं माक्षिक सर्पिषा॥ सर्व प्रकारके रोगोंको हरनेवाला है इसको जिस मापकं रक्तिका वृद्धया यावदष्टौ च माषका। रोगमें दिया जावे उसीको यह नष्ट कर देता है। वर्जयेद् द्विदलं सूपं मांस चानूपसम्भवम् ॥
यह लोह रक्तपित्त, अम्लापित्त, क्षय, कुष्ठ, ज्वर, ककारपूर्व सर्व प्रत्यनेन विवर्जयेत् ।
अरुचि, बवासीर, उदररोग, शूल, ग्रहणी, आमवात, अमृताख्यो वरो लोहः सर्वत्रैवोपयुज्यते ।।
| वातरक्त, मूत्रकृच्छ, प्रमेह और शर्करा रोगका अनेन जन्तवः स्वस्था नीरुजः सन्ति नान्यथा ॥
नाश करता है । इसके प्रयोग से मनुष्य जवान हो गिलोय, निसोत, दन्ती, मुण्डी, खदिर, बांसा
जाता है । इसको सेवन करनेवाला मनुष्य ब्रह्मचारी
रहे । इसे शहद और धी में मिलाकर १ मासे की चीता, भांगरा, ताल मखाना, पोखर मूल, पुनर्नवा
मात्रा से शुरू करके रत्ती रत्ती बढ़ाकर ८ माशे खरैटी, कांसा, सोजना, ईख की जड़, विधारा,
| की मात्रा तक पहुंच जाना चाहिये। थोहर का दूध, आक का दूध, दाब, कुश की जड़,
अपथ्य-दाल, अनुप देश के जीवोंका मांस, ककार हडसंकरी, शतावर, इन्द्रायण, वरुणा, कमल कन्द,
वाली चीजें। चव्य, मूगली, गंगेरन, पीपला मूल, कूट और
[३२१] अमृताङ्कुरलौहम् भारंगी । सव ५-५ तोला लेकर १६ सेर जलमें
(भै, र., र. र. । कुष्ठा रसें. चि. अ. ९.) पकावे, आठवां भाग शेष रहने पर उतार कर छान
हुताशमुखसंशुद्धं पलमेकं रसस्य वै । ले । फिर एक सेर त्रिफले को आंठ गुने जल में पकाकर आठवां भाग रहने पर छान ले। फिर
पलं लोहस्य ताम्रस्य पलं भल्लातकस्य च ॥ सोना मक्खी के द्वारा भस्म किया हुआ लोह १
गन्धकस्य पलश्चैकमभ्रकस्य च गुग्गुलोः। सेर, २० तोले अभूक भस्म, २० तोले शुद्ध गंधक,
हरीतकी विभीतक्योश्चूर्ण कर्षद्वयं द्वयोः ।। रस सिन्दुर २० तोला, गुड ४० तोला, (यदि
अष्टभागाधिकं तत्र धान्यापाणितलानि षट् । पैत्तिक रोग हो तो गुड़ की जगह बूरा, और रक्त
घृतं द्वयष्टगुणं लौहात् द्वात्रिंशत् त्रिफलाजलम् पित्त में मिसरी और खांसी में चीनी ले] शुद्ध गूगल
एवं कृत्वा पचेत् पात्रे लौहे च विधि पूर्वकम् ।
पाकमेतस्य जानीयात् कुशलौ लौहपाकघत् ॥ सिद्ध करके उतार कर ठण्डा होने पर ४० तोला विबुद्धः प्रातरुत्थाय गुरुदेव द्विनार्चकः । शहद मिलावे और सोना मक्खी भस्म १० सोला, रक्तिकादिक्रमेणैव घृतभ्रामरमर्दितम् ॥ शुद्ध शिला जीत २॥ तोला,त्रिकुटा, त्रिफला, दन्ती, लौहे लौहस्य दण्डेन कुर्यादेतद् रसायनम् । निसोत, कालाजीरा, सफेद जीरा, खैरसार, तालीस-, अनुपानश्च कुर्वीत नारिकेलोदकं पयः। पत्र, धनिया, मुल्हैठी, वंशलोचन, रसौत, काकड़ा सर्वकुष्ठहरं श्रेष्ठं वलीपलित नाशनम् ॥ सिंगी, चीता, चव्य, नागरमोथा, तेजपात, दाल- पाण्डु मेहामवातघ्नं वातरक्तरुजापहम् ।। चीनी, इलायची, नागकेसर, कंकोल, लौंग, और कृमि शोथाश्मरी शूल दुर्नामवातरोगनुत् । जायल ५-५ तोला दाख और खजुर २॥ २॥ क्षयं हन्ति महाश्वासमत्यर्थ शुक्रवर्द्धनम् ॥
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अकारादि-रस
(११७)
आग्निसन्दीपनं हृद्यं कान्त्यायुबलबुद्धिकृत् । । ब्राह्मायुः स्याचतुर्मासै रसोऽयममृतार्णवः ॥ विवज्य शाकाम्लमपि स्त्रियश्च
| तिलकौरुण्टपत्राणि गुडेन भक्षयेदनु ॥ सेव्यो रसो जाङ्गललावकानाम् ।
चार भाग रससिन्दुर, आठ भाग लोह भस्म, शाल्योदनं षष्टिकमाज्य मुद्ग
| छः भाग अभूक भस्म और पांच भाग शुद्ध गन्धक। औद्रं गुड क्षीमिह क्रियायाम् ॥
इन सबको त्रिफले के क्वाथ, भांगरा, सहजना, रस सिन्दूर * ५ तोला, लोह भस्म ५ तोला, चीता और कुटकी, इन सब के रस में अलग २ ताम्र भस्म ५ तोला, मिलावा,गन्धक, अभ्रक भस्म, सात सात भावना दे। फिर सब वस्तुओं के और शुद्ध गूगल ५.५ तोला, हैड़, बहेड़ा २॥२॥ बराबर पिप्पली चूर्ण मिलावे । यह औषधि ४ माशा तोला, आमला ८ तोला २ माशे, घृत १ सेर । लेकर पुराने गुड के साथ सेवन करने से जरा त्रिफले का काथ २ सेर, सबको विधि पूर्वक लोहे ! और अकाल मृत्यु हार जाती हैं । चार मास तक के बर्तन में पाक करे। इसके पाककी विधि लौह
इस अमृतार्णव के सेवन करने से ब्रह्मा के समान के पाक के समान है। इसे लोहे के पात्र में लोहे
परमायु होती है (?) इस औषधि को सेवन करके के डंडे से शहद और घृत के साथ मर्दन करके
तिल, गुड और कुरण्ट के पत्तों का रस एकत्र प्रतिदिन प्रातः काल १-१ रत्ती सेवन करे और
करके पीना चाहिए। ऊपर से नारियल का पानी पिये। इससे सब प्रकार
[३२३] अमृतार्णवोरसः के कुष्ट, बलि पलित, पाण्डु, प्रमेह, आमवात, वातरक्त, कृमि, शोथ, पथरी, शूल, मस्सा, वात
(र. रा. मु., भै. र. र., सा. सं. वराति. अति.) व्याधि, क्षय, श्वास आदि रोगों ना होता है तथा हिंगुलोत्थं रसं गन्धकं टङ्कणं शटी । यह शुक्र वृद्धि, अग्नि संदीपन, बल, बुद्धि और धान्यकं बालकं मुस्तं पाठा जीरघुणप्रिया ।। कान्ति की वृद्धि करता है।
प्रत्येकं तोलकं चूर्ण छागीक्षीरेण पेपयेत् । अपथ्य--अम्लरस युक्त शाक और स्त्री प्रसंग। मापाभा वटिका कार्या रसोयममृतार्णवः ।। पथ्य-शाली चावल, शाठी चा पन्त, धी, मूंग, शहद, वटिकां भक्षयेत्प्रातर्गहनानन्दभाषितम् । गुड़ और दूध ।
धान्यजीरकयूषेण विजयाशणवीजतः ।। [३२२] अमृतार्णवः (सें. चि. अ. ८) मधुना छागदुग्धेन मंडेन शीतवारिणा । सूतभस्म चतुर्भागं लोहभस्म तथाष्टकम् । कदलीमोचकरसैः कश्चटद्रवकेण च ॥ मेघभस्म च षड्भानं शुद्ध गन्धस्य पञ्चकम् ॥ अतिसारं जयेदुग्रमेकजं द्वंदजं तथा । भावयेत् त्रिफला क्वाथे तत्सर्व भृङ्गजद्रवः। दोपत्रयसमुद्भूतमुपसर्गसमन्वितम् ।। शिवहिकटुक्काथैः सप्तवा भावयेत्पृथक् ॥ शूलनो वद्विजननो ग्रहण्यर्थी विकारनुत् । सर्वतुल्या कणा योज्या गुडैमिश्र पुरातनैः। | अम्लपित्तप्रशमनः कासनो गुल्मनाशनः ।। निष्कमात्रं सदा खादेत् जरां मृत्युं निहन्त्ययम् | हिंगुल से निकाला हुवा पारा, लोहभस्म, शुद्ध
* कोई कोई हिंगुल का पारद लेते हैं। गन्धक, सुहागे की खील कचूर, धनिया, सुगंध
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(११८)
भारत-औपश्य-रत्नाकर
3
वाला, नागरमोथा, पाठा, जीरा और अतीस, एक | हन्त्यष्टादश कुष्ठानि वातरक्तं सुदुस्तरम् ॥ एक तोला लेवे प्रथम पारा गन्धककी कजली | जयेदासि सर्वाणि प्रमेहमुदराणि च ॥ बनावें और उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर सोंठ, काली मिर्च, पीपल, हरड़, बहेड़ा, बकरी के दूध से पीस कर १-१ माशे की गोलियां | आमला और लोहभस्म एक एक भाग और सब से वनावे । इसे धनियां और जीरके साथ मूंग का | आधी शुद्ध शिलाजीत एकत्र मिला कर चूर्ण करे, यूष, जीरा, भांग, सनके बीज, शहद, बकरी का इस चूर्ण को गिलोय के रस की तीन भावना देकर दूध, भात का मांड, शीतल जल, केले के फूल का सुखा देवे, फिर इसमें घी मिलाकर खरल करके रस, और जलपीपल का रस, इनमें से किसी एक | एक माशा, शहद में मिलाकर खावे । यह अठारह के साथ खाने से घोर अतिसार का नाश होता | प्रकार के कोढ़, दुस्तरवातरक्त, सर्व प्रकार की है। यह एक दोषज, द्विदोषज, त्रिदोषज, उपद्रव- बवासीर, प्रमेह और उदर रोगों का नाश करता है। युक्त सव अतिसार, शूल संग्रहणी, बवासीर, अम्ल- ३२६] अमृतेश्वरोरसः। पित्त, खांसी और अग्नि को प्रज्वलित करता है।
(रसे. चि. अ. ९) [३२४] अमृतार्णवोरसः रसभस्मामृतासत्वं लौहं मधु घृतान्वितम् । (र. रा. सु. श्वा.)
अमृतेश्वरनामायं षड्गुओ राजयक्ष्मनुत् ।। पारदं गन्धकं शुद्धं मृतलोहश्च टङ्कणम् । रस सिन्दूर, सत गिलोय और लौहभस्म इन राना विडङ्ग त्रिफला देवदारू कटुत्रयम् ॥ | इन सब को इकट्ठा करके शहद और घी में मिलावे । अमृता पमकं क्षौद्रं विषतुल्यं सूचूर्णितम् ।। | इसका नाम अमृतेश्वर रस है। इसे ६ रत्ती की द्विगुंजं श्वासकासातः सेवयेदमृतार्णवम् ॥ | मात्रा में प्रयोग करने से राजयक्ष्मा का नाश
शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, लोहभस्म, सुहागेकी । होता है । खील, रास्ना, बायबिडंग, त्रिफला, देवदारु, त्रिकुटा, [३२७] अम्लपित्तान्तको रसः गिलोय, पत्माख, शहद और शुद्ध विष । सव को | (र. रा. सुं., अम्ल., रसे. चि. म. अ. ९) समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली मृतसताभ्रोहानां तुल्यां पथ्यां विमर्दयेत । बनाकर उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर । माषमात्रं लिहेत क्षौद्रेरम्लपित्तप्रशान्तये ॥ खरल करें । यह, दो रत्ती की मात्रा में सेवन करने रससिंदूर, अभ्रक की भस्म और लोह भस्म, से श्वास और खांसी को दूर करता है। समान भाग लेकर सबके बराबर हरड मिलाकर ' [३२५] अमृतार्णवलोहः (र. र. कुष्ठ) चूर्ण करे । इसे एक माशे की मात्रा में शहद के त्रिकटु त्रिफला लौहं समभागं विचूर्णितम् ।। साथ चाटने से अम्लपित्त का नाश होता है । सर्वेषामपि चूर्णानामर्द्धभागं शिलाजतु ॥ [३२८] अलोकेश्वरो रसः गुडूचीस्वरसैया भावना रविरश्मिभिः । __(र. सं. क. ४ टल्ला.) वारत्रयं ततः शुष्कं घृतेन सह मर्दयेत् ॥ शुद्धं सूतं पलं चार्कक्षीरैर्मधे पुनः पुनः । मास मात्रं च मधुना मर्दितं भक्षयेभरः। द्विपलं शुद्धगन्धस्य महाकम्बु पलाष्टकम् ।।
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अकारादि-रस
(११९)
उमे वह्निरसैर्भाव्ये शोष्ये पेध्ये दिनत्रयम् । । दूध में इसकी नस्य देने से सन्निपात का नाश मेलयेत्पूर्वसूतेन तदधं टङ्कणं क्षिपेत् ॥ होता है। अर्कक्षीरैः पुनः सर्व यामैकं मर्दयेद् दृढम् ।। [३३०] अर्केश्वरः तच्छुष्कं चूर्ण लिप्तेऽथ भाण्डेरुद्ध्वा पुटेपचेत् ॥ (र. रा. सुं., र. सा. सं. रक्तपि.) चतुर्गुजामितं खादेन्मरिचाज्येन संयुतम् ।। | मृतार्क मृतं वङ्गंश्च मृतानं च समाक्षिकम् । देयं दध्योदनं पथ्यं विजयासगुडानिशि ॥ | अमृताम्बुरसैर्भाव्यं त्रिसप्तक पुटे पचेत् ॥ ग्रहणीदोषनाशार्थ नास्त्यनेन समम्भुवि । वासा क्षौद्रविदारीभ्यां चतुर्गुञ्जा प्रमाणतः । ग्रहणीं नाशयेत्सर्वामर्कलोकेश्वरो रसः ॥ भक्षणाद्विनिहन्त्याशु रक्तपित्त सुदारुणम् ।।
५ तोला शुद्ध पारद को बार २ आक के | ताम्रभस्म, बंगभस्म, अभ्रकभस्म और सोनादूध में खरल करके उसने शुद्ध गन्धक १० तोला । मक्खी भस्म समान भाग लेकर सबको गिलोय और बड़े शंखकी भस्म ४० तोला (दोनों को चीते और सुगन्ध बाला के रसकी २१ पुट देकर शराव के रसमें तीन दिन खरल करके) और सुहागे की | संपुट में रखकर फूंक दे फिर अडूसा, शहद और खील २॥ तोला मिलाकर प्रथम पारा गन्धककी
विदारीकन्द के रसमें घोटकर चार रत्ती की गोलियां कजली करके उसमें अन्य औषधियां मिलाकर एक | बनावे,इसके सेवन से रक्तपित्त तत्काल नष्ट होता है। प्रहर आक के दूध में खरल करे, फिर उसको सुखा । [३३१ अर्केश्वरो रसः कर शराबों के भीतर संपुट कर के फूंक दे, जब
(र. र. स. । अ. २१) शीतल हो जाय तब निकाल कर रक्खे इसमें से | रसेन गन्धं द्विगुणं प्रमर्य ४ रत्ती रस काली मिर्च और धी के साथ खावे,
ताम्रस्य चक्रैण सुतापितेन । इसपर दही भाथ का पथ्य और रात्रि में गुड मिली | आच्छाध भृत्या तु ततःप्रयत्नाहुई भांग देनी चाहिये, संग्रहणी दोष के दूर करने चक्री विलग्नं च रसं प्रगृह्य ।। को इससे बढकर दूसरी औषधि पृथ्वी पर नहीं है, | विचूर्ण्य तद् द्वादशधार्कदुग्धैः सब प्रकार की संग्रहणी को यह अर्क लोकेश्वररस | पुटेत वह्नित्रिफलाजलैश्च । दूर करता है।
| सम्भावितोऽर्केश्वर एष सूतो [३२९] अर्केश्वरो रसः (र. रा. मुं. सन्नि.) गुञ्जाद्वयं चास्य फलत्रयेण ॥ मृतसूतं मृतं तानं मृततीक्ष्णं च टङ्कणम् । ददीत मासत्रितयेन सुप्तखपरं त्रिकटुं तालं अर्कक्षीरेण मर्दयेत् ॥ वाताद्विमुक्तो हि भवेद्धिताशी। दिनकेन भवेत्सिद्धं नाम्ना ह्यश्वरो रसः। क्षारं सुतीक्ष्णं दधिमांसमा अर्कक्षीरेण वै नस्य सनिपातहरं परं ॥
वृन्ताकमध्वादिविवर्जनीयम् ॥ रससिंदूर, ताम्रभस्म, लोहभस्म, सुहागे की __ शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक *दो भाग। खील, शुद्ध खपरिया, त्रिकुटा और शुद्ध हरताल । दोनों को खूब खरल करके (किसी मिट्टी के बरइन सबकोआकके दूध से १ दिन खरल करे । आकके । * कहीं कहीं गन्धक ३ भाग लिखा है।
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(१२०)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
तन में रखकर) उसके ऊपर एक गरम की हुई , जयपालत्वगकोलपत्रराजफलानि च । तांबे की कटोरी ढक दे । और फिर उस वरतन तिलपाश्ववीजानि समभागानि चूर्णयेत् । को राख से भर कर (अग्नि पर चढ़ावे)। पश्चात् तुत्थाद्ध भागसंयुक्तं नस्यं संज्ञाप्रबोधनम् ॥ हांडी को चूल्हे से उतारकर ठण्डा होने पर कटोरी सन्निपातं जयेच्चातिनिद्रातद्राशिरोरुजाम् ।। और उसके भीतर लगे हुए रस को छुड़ा कर चूर्ण स्वासकासप्रलापानि कफमुग्रं च तत्क्षणात् । करके आक के दूध, चीता और त्रिफले के काथ | तृतीयो रसराजःस्यादर्दू नारीश्वरोरसः॥ की १२-१२ भावना देकर फूंके । इसे दो रत्ती जमाल गोटे की छाल, अंकोल, तेज पत्र, की मात्रा से त्रिफले के चूर्ण के साथ ३ मास तक परवल, अजमोद, मेथी सब समान भाग लेकर चूर्ण सेवन करने और पथ्य पालन करने से सुप्तवात ! करके इस में आधा भाग नीलाथोथा मिलावे । (अंगों का सोजाना-बेहोस हो जाना)का नाश
| इसका नस्य देने से बेहोशी, सन्निपात, अयन्त होता है।
निद्रा, तन्द्रा, मस्तकपीड़ा, स्वांस, खांसी, प्रलाप ___ अपथ्य-तीक्ष्णक्षार, दही, मांस, उर्द, बैंगन और उग्रफ का नाश होता है । और शहद (तथा लवण) आदि न खाने चाहियें। [३३४] अाङ्गवातारि रसः [३३२] अर्द्धनारीनाटेश्वरो रसः (१) (र. र. र. चं. वा. व्या) (र. रा. सुं. ज्वरे)
| मूतस्य च पलात्पश्च पलेकं 'मृतताम्रकम् । पलैकं भावयेत्सालं कूष्माण्डकफलद्रवैः। जम्बीराणां द्रवैःपिष्टं सूत तुल्यञ्च गन्धकम् ।। निःसप्तकृत्वश्चुर्णाद्भिस्तथाकर्कटिकारसैः ।। नागवल्लीदलैःपिष्टं स्थित्वा मूषां विलेपयेत् । चतुःशाणा हि निर्मोकयुक्त कूप्यां निरोधयेत्। रुद्ध्वा लघुपुटे पाच्यं त्र्यूषणेन समन्वितम् ।। विपचेद्वालुकायन्त्रे द्वादशप्रहरं ततः ॥ अर्धाङ्गकम्पवातातों भक्षयेच्च द्विगुञ्जकम् ।। स्वांङ्गशीतं समुदृत्य द्विशाणं तुत्थकं क्षिपेत्। शुद्ध पारा २५ तोला, शुद्ध गन्धक २५ अञ्जनात्स ज्वरं हन्ति सद्यो गुंजा मितो रसः। | तोला, ताम्र भस्म ५ तोला, इन सबको नागरवेल अर्द्धनारीश्वरो ह्येष कृपया शङ्करोदितः॥ | पानों के रस और जम्बीरी नीबू के रसमें घोटकर
___५ तोला हरतालको पेठेके रस चूना और मूषामें रख मुंह बन्द करके लघुपुटमें फूंक दे। वांझककोड़े के रस की २१ -२१ भावना दे, फिर
फिर निकाल कर इस रसमें त्रिकुटे का चूर्ण मिला इसमें ११ तोला सांप की कांचली मिलाकर शीशीमें | कर इस को दो रत्ती की मात्रा में सेवन करने से भर कर १२ प्रहर बालुका यंत्र में पकावे । स्वांग अग कम्पवात का नाश होता है। शीतल हो जाय तब निकाल कर ७॥ माशा शुद्ध [३३५] अर्बुदहरो रसः नीला थोथा मिलावे, इसके एक रत्ती अंजन करने
(र. र. स. २४ अ.) से शीघ्र ही ज्वर दूर हो जाता है।
तण्डुलीयकवर्षाभूनागकन्यावलारसे । [३३३] अर्द्धनारीनाटेश्वरो रसः (२) गोमूत्रं च रसः पिष्टः पुटपक्कोऽर्बुदादिजित् ॥ (र. रा. सुं. सन्नि.)
१ अभ्रक चूर्ण-रु. चं.
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अकारादि-स
(१२१)
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___पारे (रससिन्दूर) को चौलाई, विसखपरा, , व्यषणं लागली दन्ती पीलुकं चित्रकं तथा। पान, धीकुमार, खरैटी, और गोमूत्र की भावना देकर | प्रत्येकं द्विपलं योज्यं यवक्षारं च टङ्ककम् ॥ (पानमें लपेटकर उसके ऊपर मिट्टी का दो अंगुल उभौ पञ्च पलो योज्यौ सैन्धवं पलपञ्चकम् । मोटा लेप करके सुखाकर) एक (लघु) पुट दे। द्वात्रिंशत्पलगोमूत्रं स्नुही क्षीरं च तत्समम् ।। इसके सेवन से अर्बुद का नाश होता है। मृमिना पचेत्स्थाल्या सर्व यावत्सुपिडितम् ॥ [३३६] अथाऽशःकुठारो रसः माष द्वयं सदा खादेद्रसोधर्शः कुठारकः । (रसा. सा. अर्श)
तक्रेण दाडिमाम्भोःभि पक्कान्देन वाऽथ तत् ॥ पारदाद् द्विगुणो गन्धस्ततुल्यौ व्योमतीक्ष्णको। ___शुद्ध पारा ५ तोला, गन्धक १० तोला, ताम्र पिल्वमज्जाशिवाऽग्रित्रिकटुदन्त्यो रसोन्मिताः॥ भस्म और लोह भस्म १५-१५ तोला । त्रिकुटा, टकणं सैंधवं यावक्षारा भागाश्च पश्चशः। कलिहारी, दन्ती, पीलू, चीता, १०-१० तोला, द्वात्रिंशद्राग गोमत्रं तावद्धागा स्नुही भवेत् ॥ जवाखार और सुहागे की खील प्रत्येक २५-२५ पक्त्वा मन्दाग्निना सर्व द्विमाषप्रमिता वटी। तोला सेंधानोंन २५ तोला, गोमूत्र २ सेर, थूहर प्रत्येहं सेषनीया स्यादों वनकुठारिका॥ का दूध २ सेर, प्रथम पारे गन्धककी कज्जली ____ एक छटांक शुद्ध पारद, आधपाव गन्धक, ।
बनावे फिर उसमें अन्य औषधियोंका चूर्ण मिलाकर आधपाव अभ्रक भस्म और फौलादलोह भस्म, | पात्र में भर मन्दाग्नि पर पकावे । नब गाढा होजाय बेलगिरि, बड़ी हरड, चित्रक, सोंठ, मिरच, पीपल, | तब दो दो माशे को गालया बनाव । एक एक शुद्ध जमाल गोटा, एक एक छटांक, सुहागे की गोली नित्य छाछ, अनार के रस या जिमीकन्द के खील (लावा ), सेंधा नोन, जवाखार पांच पांच । रसके साथ खाने से बवासीर का नाश होता है। छटांक । बत्तीस छटांक गोमूत्र, बत्तीस छटांक थूहर [३३८] अर्शकुठारो रसः (२) का दूध, इन औषधियों में से कूटने योग्य औष
(र. रा. सु. अर्श) धियों को कूटकर कपरछन करले, फिर सब चीजों श्रेष्ठा दन्त्यग्नियुग्मत्रिकटु को लोहे की कड़ाही में मन्दी मन्दी आंच से पकावे ।
कहलिनीपीलुकुम्भं विपक्कम् । जब गाढ़ा होजाय तब सब को खरल में घोटकर प्रस्थे मूत्रस्य सस्नुपयसि दो दो माशे की गोलियां बनाले । एक गोली को
रसपलं द्वेपले गन्धकस्य ॥ प्रातः काल गरम जल के साथ सेवन किया करे लोहस्य त्रीणि ताम्राकुडवमय करे तो बवासीर के मस्से नष्ट हो जायँ ।
___ रजः क्षारयोवापि पश्च। [३३७] अर्शःकुठारो रसः (१) क्षिप्त्वा स्थाल्या पचेत्तु (र. र. स., यो. त. का. धे.)
___ ज्वलतिदहनतश्चूर्णमर्शः कुठार ॥ शुद्धसूतं पलैकन्तु द्विपलं शुद्धगन्धकम् । । त्रिफला, दन्ती और भिलावा, चीता, त्रिकुटा, मृतं तानं मृतं लोहं प्रत्येकन्तु पलत्रयम् ॥ कलियारी, पीलू और जमालगोटा १-१ भाग । १ पाठान्तर-अभ्र
। १ शेर गोमूत्र और १ सेर थूहर का दूध, शुद्ध पारा
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भारत-भैषज्य रत्नाकर
५ तोला, शुद्ध गन्धक १० तोला (कजली करके), | [३४०] अस्पज्वरांकुशोरसः (भै.र. ज्वरे) लोह भस्म १५ तोला, ताम्र भस्म २० तोला, | शुद्धं सूतं विष गन्धं धृतबीजं त्रिभिः समम् । सुहागोकी खील और जवाखार दोनों १०-१० चतां द्विगुणां व्योषं चूर्ण गुञ्जाद्वयं हितम् ।। तोला सबको एकत्र घोटकर मिट्टी के पात्रमें भरकर
जम्पीरस्य च मजाभिराईकस्य रसैयुतम् । पकावे । यह रस अर्श (बवासीर) का नाश
ज्वरांकुशो रसो नाम्ना ज्वरान् सर्वान् प्रणाशयेत् करता है।
___ शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध मीठा तेलिया १ [३३९] अर्थोरिमण्डूरम् (बृ. नि. र. अर्श)
भाग, शुद्ध गन्धक १ भाग, धतूरे के बीज ३ भाग, अतिरक्तं यदात्वर्शो निपातयति पीडितम् ॥
त्रिकुटा १२ भाग । प्रथम पारेगन्धक की कजली दृश्यते तच्छरीरस्यलोहकिट्ट तदानयेत् ।। | बनावे और अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर गवां मूत्रेण तत्पक्वं बहुशश्चूर्णवत्कृतम्।। खरल करे। इसे जम्बीरी नीबू की मज्जा (गूदे ) अतिसूक्ष्ममिदं तस्य त्रिकटुत्रिफलायुतम् ।। या अदरक के रस के साथ सेवन करने से सब किट्टस्यान संमिश्रच चूर्ण शर्करया युतम् ॥ प्रकार के ज्वरों का नाश होता है। दीयते त्रिदिनादूर्द्ध रक्तं तिष्ठति नान्यथा। [३४१] अथाश्मरीकण्डनो रसः दुग्धात् शालिमसूरादि दीयते पथ्य भोजनम् ॥ पलाशरम्भातिलकारवल्ली अशांसि प्रशमं यांन्ति काश्य वै याति दूरतः॥ यवाम्लिकाशैखरिकक्षपाणाम् । अत्यन्तबलमाप्नोति निरातको यथेच्छया। क्षारं समादाय कलांशमस्य महोत्साहयुतो भूत्वा यावजीवेनिरामयः ।। रसं च गन्धं वरलोहभस्म ॥ उष्णाम्लं वर्जयेन्नित्यं स्त्रीणां सेवां विशेषतः॥ द्वयोः समं सर्वमिदं विचूर्ण्य
यदि बवासीर से अत्यन्त खून बहता हो और संस्थापयेदश्मरिकण्डनाख्यम् । अत्यन्त पीड़ा होती हो तो पुरानी मण्डूर को लेकर चूर्ण तदक्षप्रमित प्रलिह्य गोमूत्र में पकावे कि जिससे चूर्णसा हो जाय फिर
दनाऽनुपेयं वरुत्वगम्भः ॥ इस में त्रिकुटा, त्रिफला और आधी मिश्री मिलाकर मुच्येत मोऽश्मरिशर्करातो तीन दिन तक धरा रहने दे पश्चात् रोगी को देवे
निःसंशयं मृत्युमुखागतोऽपि ॥ तो यह गुदा से बहते हुए रुधिर को बन्द कर ___ ढाक, केला, तिल, करेला, जौं, इमली, चिरदेता है इसके सेवन करने वाले को दूध के साथ | चिटा और हल्दी इनमें से प्रत्येक का क्षार १६ १६ शाली चावल और मसूर का पथ्य देवे, इस से बवा- भाग, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक १-१ भाग, लोह सीर और कृशता नष्ट होती है, अत्यन्त बलकी भस्म २ भाग। प्रथम पारेगधन्क की कजली प्राप्ति होती है तथा मनुष्य जब तक जीता है तब | बनावें और फिर अन्य औषधियों का चूर्ण तक निरातंक यथेच्छा चारी महोत्साही रोग रहित | मिलाकर खरल करें। स्हता है। इसका खानेवाला गरम पदार्थ और इसे १। तोला की मात्रा में दही या बरने की खटाई न खाय तथा स्त्रीगमन करना भी निषेध है। छाल के काथ के साथ सेवन करने से पथरी और
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अकारादि-रस
(१२३)
शर्करा का नाश होता है। व्यवहारिक मात्रा , (इन्हें ठण्डे पानी के साथ सेवन करने से विरेचन १ माशा।
| होता है।) [३४२] अश्मरीभिद्रसः(र. प्र. सु. अ. ८) [३४५] अश्वचोली रमानुपानम् रसं सिन्दूरनामानं गन्धतैलेन मर्दितम् । ।
(र. रा. सुं. श्वासे) भक्षयेदल्लमात्रं हि अश्मरीरोगघातकम् ।।
शृङ्गवेररसैः साधं वटीमेको प्रयोजयेत् । लोहाकमूलस्वरसं शर्करासंयुतं पिवेत् ॥
उष्णेन वारिणा शूले कासे खासे च यक्ष्मणि ।। रस सिन्दुर को गन्धक के तेल में घोटकर ३
घोडाचोलीति विख्याता नाम्ना नागार्जुनोदिता
मधुना वलित पलिंत जयेत् । रत्ती प्रमाणमें खाने से पथरी रोगका नाश होता है।
शोभाञ्चनरसगोघृताभ्यां जठरशूलं जयेत् । [३४३] अश्मरीभेदको रसः (र. प्र. सु.अ.८)
दध्नाऽजीर्ण शतपत्ररसेन शीतज्वरम् । श्वेताम्बरी तथा श्वेता चाश्वगन्धा पुनर्नवा ।
पुनर्नवारसेन पाण्डं तिलपर्णीरसेन । तासां रसेन संमर्य पारदं दोषवर्जितम् ॥
नेत्राञ्जनेन नेत्ररोगान्, तण्डुलोदकेन विषम् । गन्धकेन द्विमागेन कारयेद्गोलमुत्तमम् ।।
जीरशर्करया ज्वरं बहुदिनसेवनेन सुभगो भवेत्।। स्वेदयेद्याममधं तु भक्षितं चाश्मरीप्रणुत ॥
वचादेवदारुकुष्ठरस्थिगतवातं। मस्तककेशान्सिखाल, श्वेत अपराजिता, असगन्ध, और
रीकृत्य छित्वा निम्बु नीरेण मर्दयेत् । दन्तनिपुनर्नवा । इनके स्वरस से पारद को भावना देकर
मुक्तत्वं भवति गोमूत्रेण पूगलग्नव्यथा हरेत् । शुद्ध करे फिर यह शुद्ध पारद एक भाग और शुद्ध
आर्द्रकरसेन विरेचनं भवेत् । जातीफलेनार्शसा गन्धक दो भाग लेकर कजली करके गोला बनाकर
नाशः। पुत्रजीवरसेन वन्ध्यायाः पुत्रो भवेत् । उसे आधा पहर तक स्वेदन करके रक्खे । यह
शिरीष रसेन सर्पविषनाशः । वचायवानीरसेन पथरी रोग का नाश करता है।
कटीवातम् । आटरूषकरसेन श्वासकासौ॥ [३४४] अश्व कंचुकी रसः(र. रा. सु. श्वासे)
___ अद्रक के रस और गरम पानी के साथ १ गोली पारदं टकणं गन्धं विष व्योषं फलत्रयम्। | खाने से शूल, खांसी, श्वास और यक्ष्मा का नाश तालकश्च समं सर्व जैपालं चापि तत्समम् ॥ होता है। मधु के साथ सेवन करने से वलीपलित मदयेत् भुंगनीरेण भावना तु त्रिसप्तधा। रोगका नाश होता है। सौंजने के रस और गुञ्जामात्रां वटीं कृत्वा छायायां शोषयेत् बुधः॥ गोघृत के साथ जठर शूल मिटता है और दधि ___शुद्ध पारा, सुहागे की खील, शुद्ध गन्धक, | के साथ सेवन करने से अजीर्ण नष्ट होता है। शुद्ध विष, त्रिकुटा, त्रिफला, हरताल, और शुद्ध | कमल के पत्तों के रस के साथ देने से शीतज्वर जमाल गोटा । सब समान भाग लेकर प्रथम पारे और पुनर्नवा के रस के साथ सेवन करने से पाण्ड गन्धककी कजली बनावें और अन्य औषधियों का | का नाश होता है, तिलपर्णी के रस के साथ चूर्ण मिलाकर भांगरे के रस की २१ भावना देकरे आंखों में अंजन करने से नेत्र रोगों का और १-१रती की गोलियां बनाकर छाया में सुखावें । ! चावलों के पानी के साथ देने से विष का नाश
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(१२४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
होता है । जीरे और चीनी के साथ सेवन करने । वचया दीप्ययुतो हन्ति कटिपीडां मरूद्भवाम् । से ज्वर का नाश होता है। बच, देवदारु और कसनं श्वसनं हन्ति मधुवासारसान्वितः॥ कूठ के चूर्ण के साथ सेवन करने से अस्थिगत ज्वरं हन्ति विशालाक्षि ! सुरसास्वरसाञ्जितः। वायु का नाश होता है। सिर को मुंडा कर इसे तथा नित्यज्रं हन्ति भक्षितः कन्यकाम्बुना।। नींबू के रस में घिसकर मालिश करने से बन्द नारीदग्धेन नक्तामध्यमवश्वासं वरायुतः। जवाड़ी खुल जाती है। अद्रक के रस के साथ |
हन्ति दाहयुतं पित्तज्वरमामलकान्वितः ॥ खाने से विरेचन होता है। जायफल के चूर्ण के सेवितोघृतसंयुक्तः सर्वशूलानि संजयेत् । साथ खाने से बवास्वीर का और पुत्रजीवक (जिया
शिव मूलाम्बुगोसर्पिर्माक्षिकैर्वा विचक्षणे ॥ पोता) के रस के साथ सेवन करने से वंध्यत्व दूर होता है । सिरस के रस से सर्प विष, बच और
कर्णरोगशिरोम्याधिपीनसार्धावभेदकान् । अजवायन के काढ़े से कमर की वायु तथा वांसा
जयेआतीफलेनायं वाजिवर्मा रसोत्तमः ॥ के रसके साथ सेवन करने से श्वास और खांशी
कन्यकातुलसीतोयेमाक्षिकः सूतिका गदम् ।। का नाश होता है।
दध्ना वा तु गवांमूत्रैरतीसारं जयत्ययम् ।। [३४६] अश्वचोलीरसानुपानम् तक्रतोयेन वा जातीफलेनाम्बुरुहेक्षणे!। (अनुपा. त.)
अथवा महिषीमूत्रै जयेत् संग्रहणीगदम् ।। पटीमेको नरः खादेद् द्वे वा कञ्जविलोचने!।
कासमदरसैर्वापि टकणेनानिमांद्यजित् । पथ्ययुक्तो गदं हन्याद्यथा रोगानुपानतः ॥
| तथा बाहिरसेनायं बुद्धिदो बुद्धिमत्ययम् ।। वातशुलं क्षयं कासं श्वास मूलकनीरतः। ताम्बूलवीटिकेनायं कान्तिसंस्कारको मतः। हन्ति वा शृङ्गवेराम्बु पिप्पलीमधुतः प्रिये ! ।।
सुधाक्षीरयुतो गुल्मं निर्गुण्डीखरसेन वा ।। वलीपलितरोगनो वाजिवर्मा समाक्षिकः।। यवानिकायुतोहन्ति समिपातं सुदारुणम् । शिशु मूलाम्बुगोसर्पियुतः शूलं ज्वरं जयेत् ॥
वातामयमजाक्षीरैरथवा गोघृतेन च ।। मस्तुनाऽजीर्णकं शीतज्वरमम्बुजनीरकैः ।। सर्ववातामयान्वायं मार्कवखरसैजयेत् । पुनर्नवायुतः पाण्डं तण्डुलाम्बुयुतो विषम् ॥ वाजमोदाजयायुक्तो वरायुक्तोऽथवा प्रिये ! ॥ तिलपर्णीरसैरक्ष्णो रंजितो तद्गदापहः। वाऽश्वशन्धारजः क्षौद्रसंयुक्तो सर्ववातजित् । शर्कराजाजिसंयुक्ता ज्वरं पित्तभवं जयेत् ॥ विष्णु क्रांताजटायुक्तो धनुर्वातामयं जयेत् ।। काथेनास्तिगतं वातं देवकाष्ठवचारुजाम् ।। कुष्माण्डस्वरसमेहं गोदध्ना वा विनिर्जयेद् । जातीफलान्वितोऽसि वातशूलं कटुत्रिकैः॥ गोक्षुरकरजो युक्तो धातुदोष निवारयेत् ।। गोमूत्रेण नरः खादन् पुरुषत्वमवाप्नुयात् । । वर्द्धयेत् सर्पिषा शुक्रं कृच्छ्रे पूगरसैर्जयेत् । पुत्रजीवरसैर्बाले ! वन्ध्यास्थादेव गर्भिणी॥ रेचायैरण्डतैलेन विद्रधिं गुउयुक् तथा । लिप्तः सर्पविषं दंशे हन्ति निम्घुरसैस्तु वा। । आद्रकस्वरसैलिप्तो वृश्चिकस्य विषं जयेत् । शिरीषवरसैर्वाज्ये मेघनादरसैहि वा ॥ स्वेदं भृङ्गरसैः सार्द्ध चंपानीरैर्विगन्धताम् ।।
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अकारादि-रस
(१२५)
शुक्रमेहमजाक्षीरैः पित्तं शिवसितांन्वितः। देवदारु बच और कूट के काढ़े से अस्थिगत वागु अंजितो निम्ब तोयेन भृतावेशनिवारण :॥ रोग, जायफल के साथ बवासीर और त्रिकुटे के त्रिफलारुबुतैलेन संजयेदुदरामयान् । | साथ सेवन करने से वातज शूल का नाश होता काकमाचीरसैर्वापि नात्र कार्या विचारणा ॥
है । गो मूत्र के साथ सेवन करने से पुरुषत्व उत्पन्न मार्कवस्वरसैः शोफ वा पलाण्डुरसैर्जयेत् ।
होता है। तथा पुत्रंजीव [जिया पोता) के रस के करजत्वग्रसेरेवं कृमिरोगं न संशयः ॥ साथ सेवन करने से वंध्यत्व (अपना) दूर होता शक्तिकृन्नवकंजाक्षि ! नागवल्लीदलाम्बुना ।
है । सांप के काटे पर नींबू के रस में पीसकर लेप अजाजीक्षौद्रसंयुक्त ऊष्णवातविघातकः ॥
करने से अथवा सिरस के स्वरस में या धी अथवा वीटकेन युतः स्वर्यः स्वरजिह्वरकोकिले ! ।
नागरमोथे के रस में पीसकर लेप करने से सर्प
। विष का नाश होता है। अन्तवायन और बच के आमशूलं मुरायुक्तः पामां गोमूत्रलेपितः ॥ लेपितो मक्षितो लूनाविषं भृङ्गरसान्वितः ।
| चूर्ण के साथ खाने से कमर की वातज पीड़ा का तथा पल्लीविपं हन्ति लेपितो भक्षितोऽम्बुना ॥
। नाश होता है । इस रसको श्वास कास में शहद उन्मत्तश्वविष हन्ति मेघनादरसैरयम् ।।
और बांसे के रस के साथ, ज्वर में तुलसी के रस
के साथ, दैनिक ज्वर में घीकुमार के रस के साथ गोमूत्रेण गुडूच्या वा कुष्ठं कष्टतरं तथा ॥
देना चाहिये । रतौधे में स्त्री दुग्ध में घिस कर न मे रोगो भवेदेवम् यस्येच्छास्ति वराङ्गने ।।
आंख में आंजना चाहिए। त्रिफले के साथ देने गुटिमेकां तथाधी वा प्रत्यहं सेव द्धि सः ।।
1 से ऊर्ध्वश्वास का नाश होता है। दाहयुक्त पित्तअश्वचोली रस यथोचित अनुपान के साथ
ज्वर में आमले के साथ, शूल में घी, सोजनेकी जड़ सेवन करने से और पथ्य पालन करने से अनेक रोगों का नाश करता है । मूली के रस के साथ ।
के रस और गोघृत तथा शहद के साथ देना या अद्रक के रस और पीपल तथा शहद के साथ
| चाहिए । कर्ण रोग, शिरोव्यथा, पीनस और आधा सेवन करने से वातज शूल, क्षय, खांसी और श्वास ! शीशी का आयफल के चूर्ण से, सूतिका रोग का का नाश होता है । शहद के साथ सेवन करनेसे । घृतकुमारी के रस और तुलसी के रस तथा शहद बलीपलिप्त रोग का नाश होता है । सौंजने के के साथ देने से नाश होता है, अश्वचोली रस मूल की जड़ के रस और गाय के घी के साथ अतिसार में दही या गोमूत्र के साथ और ग्रहणी शूल और ज्यर का तथा मस्तु के साथ अजीर्ण
में तक अथवा जायफल के चूर्ण और भैंस के मूत्र का और कमल के रस के साथ सेवन करने से ! के साथ देना चाहिए । कसौंदी के रस और सुहागे शीत ज्वर का नाश होता है । पुनर्नवा के रस के के साथ सेवन करने से अग्निमांद्य का नाश होता साथ सेवन करने से पाण्डु का नाश होता है. है । ब्राह्मी के रस के साथ सेवन करने से बुद्धि तिलपर्णी के रस में घिसकर आंख में आंजने से बढ़ती है । नागरवेल के पान में रखकर खाने से नेत्र रोगों का नाश होता है । चीनी और जीरे के कान्ति बढ़ती है। थोहर के दूध या निर्गुण्डी के साथ सेवन करने से पित्तज्वर का नाश होता है। रस के साथ सेवन करने से गुल्म का नाश होता
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(१२६)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
है । अजवायन के साथ खाने से दारुण सन्निपात । खाने से आमशूल और गोमूत्र में मिलाकर लेप
और बकरी के दूध के तथा गोघृत के साथ खाने करने से पामा का नाश होता है। भांगरे के रसके से वायु के रोगों का नाश होता है । अथवा वात- | साथ खाने और लेप करने से मकड़ी का विष नष्ट व्याधि के लिए भांगरे की जड़ के स्वरस या होता है । पानी से पीस कर लेप करने और खाने अजमोद और भांग के साथ अथवा त्रिफला या | से पल्ली विष का नाश होता है । नागरमोथे के रसके असगन्ध के चूर्ण और शहद के साथ खाना | साथ सेवन करने से उन्मत्त कुत्ते के काटे का विष चाहिए । विष्णु कान्ता की जड़ के साथ खाने से | नाश होता है। गोमूत्र या गिलोय के रसके साथ धनुर्वात का नाश होता है। पेठे के रस के साथ | खानेसे कुष्ठका नाश होता है। जिसकी इच्छा सदैव खाने से प्रमेह मिटता है । अथवा प्रमेह में गाय | स्वस्थ रहने की हो उसे प्रतिदिन १ या आधी के दही के साथ देना चाहिए । गोखरू के चूर्ण के | गोली उचित अनुपान के साथ खानी चाहिये । साथ खाने से धातु दोष दूर हो जाते हैं। धी के । [३४७] अश्वत्थवाललादि लोहम् साथ खाने से शुक्र वृद्धि होती है। सुपारीके रस
(वृ. नि. र. । क्षये) के साथ सेवन करने से मूत्रकृच्छ्र मिटता है । एरण्ड अश्वत्थवल्कलं चैव त्रिकटुलॊहकिट्टकम् । तेल के साथ देने से विरेचन होता है। गुड के | गुडेन सह दातव्यं क्षयरोगविनाशनम् ॥ साथ देने से विद्रधि मिटती है । अद्रक के रस में ____ पीपलकी छाल, सोंठ, काली मिर्च, पीपल और पीसकर लगाने से विच्छू काटे को आराम होता है। मंडूरभस्म । इनके चूर्ण को एकत्र करके गुड के भांगरे के रस में स्वेद और चंपा के रस में शरीर
साथ सेवन करने से क्षय रोग का नाश होता है। की दुर्गन्ध दूर होती है। बकरी के दूध के साथ
[३४८] अश्विनीकुमारो रसः (अनु.त.) सेवन करने से प्रमेह, आमला और मिश्री के साथ | यूषण फलत्रिकश्च नागफेनकं विषम् । खाने से पित्त का नाश होता है। नींबू के रस में | मागधीजटालवङ्गं दन्तिवीजतालकं ॥ घिस कर आंजने से भूतावेश मिटता है। त्रिफलाटणं च गन्धकं रसं पृथक् पिचं प्रिये ।
और एरण्ड के तेल के साथ खाने से उदर रोगों का | क्षीरमर्द्धमस्थक गवां विशोषयेदातपे ॥ विनाश होता है, अथवा मकोय के रसके साथ | मूत्रकं गवां विशोष्य भृङ्गराजनीरकम् । सेवन करने से भी उदरामय मिटते हैं । भांगरेकी शोषयेद्विधर्षयनिरन्तरं विवन्धयेत् ॥ जड़ के रस या प्याज (पलाण्डु) के रसके साथ | पाजीमन्थसनिभा वटीमतीवसुन्दराम् । सेवन करने से सूजन, करञ्जवे की जड़ की छालके | अश्विनीकुमार इत्ययं रसो वराङ्गाने । रसके साथ खाने से कृमि रोगों का नाश होता है। त्रिकुटा, त्रिफला, अफ्रीम, शुद्ध मीठातेलिया, नागरवेल के पानके रसके साथ खाने से शक्ति | पीपलामूल, लौंग, जमालगोटा, शुद्ध हरताल, सुहागे बढ़ती है । जीरा और शहद के साथ खाने से | की खील , शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारा । सब चीजें अष्ण वात का नाश होता है । नागरवेल के पानमें | ११-१। तोला लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली खाने से स्वर सुन्दर होता है । मुरामांसी के साथ ' बनावे फिर अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर
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अकारादि-रस
(१२७)
यथाक्रम आधे आधे सेर गाय के दूध, गोमूत्र । [३५२] अष्टाङ्ग रस (र. सा.सं.,र. चं. अशें) और भांगरे के रस में घोटकर सुखा कर गोलियां | गन्धं रसेन्द्रं मृतलौहकिट्टे बनावे । (यह अनुपान भेदसे अनेकों रोगोंका नाश | फलत्रयं त्र्यूष्णवभृिङ्गम् ॥ करता है)
कृत्वा समं शाल्मलिकागुडूची [३४९] अष्टधातुनिरूपणम्
रसेन यामत्रितयं विमद्य ॥ (र. सा. १ पट.)
निष्कप्रमाणं गदितानुपानः सुवर्ण रजतं तानं लोहं च त्रपु शीसकम् ।। सर्वाणि चाांशि हरेद्रसोऽयम् ॥ रीतिका कांस्यकं चैव अष्टधातून् क्रमेण तु ॥ शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारा, लोहभस्म, मण्डूर ___ सोना, चांदी, तांबा, लोहा, रांग, सीसा, पीतल भस्म, हरड, वहेडा, आमला, सोंठ, काली मिर्च, और कांसी इन आठ चीजों का नाम अष्टधातु है।।
पीपल, चीते की जड़ और भांगरा इन सब औष[३५०] अष्टमहारसाः (रा. नि. व. २२) | घिया
धियों को समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी दरदः पारदः शङ्खः वैक्रान्तं कान्तमभ्रकम् ।
कजली बनावे फिर उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण माक्षिकं विमलञ्चति स्युरेतेऽष्टौ महारसाः ॥
मिलाकर सेमल और गिलोय के रस में तीन प्रहर
खरल कर के रक्खे । इसे चार माशे की मात्रा में १ हिंगुल (शिंगरफ), २ पारा, ३ शंख, ४
यथोचित अनुपान के साथ सेवन करने से सब वैक्रान्त, ५ कान्तलोह, ६ अभ्रक, ७ सोनामक्खी,
प्रकार की बवासीर दूर होती है। इसको अष्टांग और ८ रूपामक्खी, इन आठ चीजों का नाम
रस कहते हैं। "महारसाष्टक" है। (३५१] अष्टमूर्तिरस (वृ. नि. र. ज्वरे)
| [३५३] अष्टादशरससंस्काराः
___ (र. प्र. सु. १ अ.) हेमरूप्यं ताम्रनागं मृतं गन्धकमाक्षिकं॥ विमला च शिला शुद्धा सर्वाशं शुद्धसतकं ॥
स्वेदनं मर्दनं चैव मूर्छनं स्यात्तदुत्थितम् ।
पातनं रोधनं सम्यक् नियमं च सुदीपनम् ॥ अम्लेन मर्दयेद्यामं पुटे कुम्भधरे पचेत् ॥
| तथाभ्रकग्रासमानं चारणं च क्रमेण हि । अष्टमूर्तिरसो नाम गुंजैकं भूतिक ज्वरे ॥
गर्भद्रुतिर्बाह्यद्रुतिः प्रोक्तं जारणकं तथा। देयश्चातुथिकं व्याहं द्वथाहिकं च विनाशयेत् ॥
रञ्जनं सारणं प्रोक्तं क्रामणं बेध कर्म च सुवर्ण, चांदी, तांबा, और सीसा इनकी भस्म
सेवनं पारदस्याथ कर्माण्यष्टादशैव हि ॥ शुद्ध गन्धक, सोनामक्खी भस्म, शुद्ध मनसिल समान भाग, इन सबके बराबर शुद्ध पारा लेकर
उद्देशतो मयाऽत्रैव नामानि कथितानि वे।
पारद के निम्न अठारह संस्कार होते हैं:प्रथम पारेगन्धककी कजली बनाकर सबको एकत्र कर नींबूके रसमें एक प्रहर घोटकर कुम्भपुट देवे,
| (१) स्वेदन (२) मर्दन (३) मूर्छन (४) उत्थापन यह (अष्टमूर्ति रस) १ रत्ती की मात्रा में ज्वरवाले | (५) पातन (६) रोधन (अन्य ग्रन्थों में 'रोधन) के को देनेसे भूतज्वर, चातुर्थिक, त्र्याहिक, द्वयाहिक,
स्थान में 'बोधन' भी लिखा है) (७) नियमन् (८) आदि का नाश होता है।
| दीपन (९) अभ्रक प्रासमान (१०) चारण (११)
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(१२८)
भारत-भषग्य-रत्नाकर
गर्भद्रुतिः (१२) बाह्यद्रुतिः (१३) जारण (१४) [३५५] अष्टावक्ररसः (भै. र. रसा.) रञ्जन (१५) सारण (१६) क्रामण (१७) वेधकर्म रसराजस्य भागकं द्विभागं गन्धकस्य च । (१८) सेवन ।
भागमेकं सुवर्णस्य भागाद्धं रजतस्य च ।। [३५४] अष्टादशाङ्ग लोह (भा. प्र. पांडु) नागं तानं खपरश्च वङ्गं चैव समांशकम् । किराततिक्ता सुरदारु दावी
प्रत्येकं रजतार्द्धश्च सर्वमेका मर्दयेत् ॥ मुस्ता गुडूची कटुका पटोलम् । वटाङ्कुररसैर्याम यामं कन्यारसैः सह । दुरालभा पर्पटकं सनिम्बं
कूप्यभ्यन्तरे संस्थाप्य त्रिदिनं पाचयेत्सुधीः॥ कटुत्रिकं वह्नि फलत्रिकञ्च ॥ दाडिमीकुसुमप्रख्यं जायते चाविकल्पतः । फलं विडङ्गस्य समांशिकानि
बलीपलितविध्वंसि बलपुष्टिकरं महत् ।। सर्वैः समं चूर्णमथायसश्च ।
आरोग्यजननं मेधाकान्तिकृच्छुक्रवर्द्धनम् । समिधुभ्यां वटिका विधेया
महौषधवरश्चैतदष्टावक्रेण निर्मितम् ॥ ___ तक्रानुपानाद्भिपजा प्रयोज्या ॥ शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक दो भाग, निहन्ति पाण्डुश्च हलीमकञ्च
सोना भस्म एक भाग, चांदी भस्म आधा भाग, शोथं प्रमेहं ग्रहणी रुजश्च ।
सीसा भस्म, ताम्रभस्म, खपरिया और बंगभस्म
प्रत्येक चौथाई भाग, प्रथम पारे और गन्धककी श्वासश्च कासश्च सरक्तपित्तमास्यथो वाग्ग्रहमामवातम् ।
कजली बनावे और फिर अन्य औषधियां मिलाकर
बरगदके रस और धीकुमार के रसमें मर्दन करके वांश्च गुल्मान् कफविद्रधिश्च
आतशी शीशी में भरकर बालुकायन्त्र में तीन दिन चित्रश्चकुष्ठश्च ततः प्रयोगात् ।।
तक पकावे । तैयार होने पर इसका रङ्ग अनारके चिरायता, देवदारु, दारुहल्दी, नागरमोथा,
| फूलके समान हो जाता है। यह बलीपलित गिलोय, कुटकी, परवल, धमासा, पित्तपापड़ा, नीम,
नाशक, बलवर्द्धक, पौष्टिक, आरोग्यरक्षक और बुद्धि त्रिकुटा, (सोंठ, मिर्च, पीपल) चीता, हरड, बहेडा,
कान्ति तथा वीर्य वर्द्धक है। आमला, और वायबिडंग, ये सव औषधियां सम भाग लेकर चूर्ण करे और सबकी बराबर लोहभस्म [३५६] अष्टावुपरसाः (र. प्र. मु.अ. ५) मिलाकर धी और शहद के साथ गोलियां बनाकर । तालकं तुवरी गन्धं कष्टं कुनटी तथा । मठेके साथ सेवन करनेसे पाण्डु, हलीमक, सूजन, सौवीरं गैरिकं चैव अष्टमं खेचराह्वयम् ॥ प्रमेह, संग्रहणी, श्वास, खांसी, रक्तपित्त, अर्श, १ हरताल, २ सौराष्ट्र मृत्तिका, ३ गन्धक, जीभका रुक जाना, आमवात, ब्रण, बायुगोला, ४ कंकुष्ट ५ मनसिल, ६ सौवीराञ्जन (सुरमा), कफरोग, विद्रधि, और श्वेत कुष्ट आदि का नाश | ७ गेरु, ८ कसीस । यह आठ चीजें "उपरसाष्टक" होता है।
कहलाती हैं।
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आकारादि क्वाथ
(१२९)
आ
अथाकारादि क्वाथ प्रकरणम् [३५७] आकल्लकादि काथः ___ बासा, सिरस की छाल, असगन्ध और पुनर्नवा
____ (वृ. नि. र. अश्म.) (बिसखपरा)। इससे दूध पका कर पीने से राजआकल्लगोक्षुरजटातुलसीशिलाभि- यक्ष्मा का नाश होता है।
रेरंडमूलमगधामधुकैः प्रयुक्तः।। [३५९] आटरूषादि कषायः (२) तक्राह्वमूलसुरसासुरपुष्पशुंठी
(यो. र. । र. पि.) काथो निहंति बहुलाप्रतिवापतोयम् ।।
वृषपत्राणि निष्पीडय रसं समधुशर्करम् । सप्ताहमेव पिवता नियमेन पुंसां घोराश्मरीमतिरुजं सहशर्करां च ।
अनेन प्रशमं याति रक्तपितं सुदारुणम् ।। आवीपयो मधुविमिश्रितमाशु तद्वत् ।
मध्वाटरूपकरसौ यदि तुल्यभागौ । चूर्ण त्रिवृत्कुटजबीजभवं वदन्ति ॥
कृत्वा नरः पिबति पुण्यतरः प्रभाते । अकरकरा, गोखरू, जटामांसी, तुलसी, शिला
तद्रक्तपित्तमतिदारुणमप्यवश्यजित, अरण्डमूल, पीपल, मुलैठी, x तक्रा (एक
माशु प्रशाम्यति जलैरिव वह्निपुञ्जः ।। प्रकार का पौदा) की जड़, निर्गुण्डी (संभाल) लौंग
आटरूषक नियूहः प्रियङ्गुम॒त्तिकाञ्जने । और सोंठ। इनके काथ में इलायची के चूर्णका ! विनीय लोध्र सक्षौद्रं रक्तपित्तहरं पिवेत् ॥ *प्रक्षेप डालकर नियमपूर्वक सात दिन तक पीनेसे | पिष्टानां वृषपत्राणां पुटपाको रसो हिमः। अत्यन्त पीड़ा युक्त अश्मरी और शर्करा (पथरी और | मधुयुक्तो जयेद्रक्तपित्तकासज्वरक्षयान् ॥ रेग) का नाश होता है । भेड़के दूध में मिलाकर बांसे के पत्तों के स्वरस में शहद और खांड पीने या निसोत और इन्द्रयव का चूर्ण सेवन करने | मिलाकर सेवन करने से या केवल शहद और बांसे से भी पथरी और रेग का नाश होता है । के पत्तों का स्वरस बराबर बरावर (१..१ तोला) [३५८] आटरूषादि कषायः (१)
मिलाकर प्रातः काल सेवन करने से अथवा बांसे के (वृ. नि. र. क्षय)
| पत्तों के कषाय में फूल प्रियंगु, सौराष्ट्रीमृत्तिका
(गोपीचन्दन) रसौत तथा लोघ का चूर्ण और शहद आटरूषो शिरीषाश्वगन्धाश्चेति पुनर्नवा ।। एतै + काथ्यं पयः पीतं क्षयरोगविनाशनम्॥
डालकर पीने से रक्तपित्त का नाश होता है । x तक्राका अर्थ कोई कोई कैथ भी करते हैं।
बांस के पत्तोंको पीसकर * पुटपाक विधि * प्रक्षेप-विधि पृष्ठ ३ में देखिये।
से रस निकालकर उसमें शहद मिलाकर पीनेसे + पक्कामिति समुचित पाठः । रक्तपित्त, खांसी, ज्वर और क्षय का नाश होता है।
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(१३०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
[३६०] आटरूषादि कषायः (३) । [३६२] आमलक्यादि कषायः (वृ. नि. र. सन्नि.)
(वृ. नि. र. ज्वरे) सिंहास्यपर्पटारिष्टयष्टीधान्याब्दनागरम् ।। आमलकीघननागरसिंहि दारूग्रगन्धेन्द्रयवश्वदंष्ट्रा ग्रनथिकं तथा ॥
छिन्नलताविहितश्च कषायः। एषां कषायमाहृत्य सन्निपातज्वरी पिबेत् ।।
माक्षिकमागधिकापरिमिश्रो श्वासातिसारकासघ्नं शूलारुचिहरं परं ।। ___हन्त्यनिशं संततज्वरमाशु ॥ ___अडूसा, पित्तपापडा, नीमकी छाल, मुलैहटी, आमला, नागरमोथा, सोंठ, कटेरी और गिलोय धनिया. नागरमोथा. सोंड देवदास, बचइन्द्रजी. के काढ़ेमें शहद और पीपल का चूर्ण डालकर गोखरू और पीपलामूल । इनका काढा सन्निपात
पीने से संततम्बर का नाश होता है। वर, स्वास, अतिसार, खांसी, शूल और अरुचि | [३८३] आमलक्यादिक्वाथ: का नाश करता है।
(वृ, नि र. मू. कृ.) [३६१] आमलक योगः।
गुडेनामलकीकाथं श्रमनं तर्पणं परम् । (वृ. नि. र. स्त्री. रो.)
पित्तासृग्दाहशूलनं मूत्रकृच्छनिवारणम् ।। जलेनामलकीबीजकल्कं समधुशर्करम् ।
___ आमलों के काढ़ेंमें गुड मिलाकर पीनेसे रक्तपिबेदिनत्रयेणैव श्वेतप्रदरनाशनम् ॥
| पित्त, दाह, शूल, मूत्रकृच्छू और थकावट का नाश __ आमले की गुठलीको जलमें पीसकर उसमें
| होता है। शहद और मिश्री मिलाकर तीनदिन तक पीनेसे
[३६४] आमलक्यादि गणः श्वेत प्रदर का नाश होता है।
(सु. सं. सू. अ. ३८)
आमलकीहरीतकीपिप्पल्यश्चित्रकश्चेति । * पुटपाकविधिद्रव्यमापोथितं जम्बुवटपत्रादिसंपुटे।
आमलक्यादिरित्येष गणःसर्वज्वरापहः॥ वेष्टयित्वा ततो बदध्या दृढं रज्वादिना तथा॥ चक्षुष्यो दीपनो वृष्यः कफारोचकनाशनः॥ मृल्लेपं प्रयङ्गुलं कुर्यादथवांगुलिमात्रकम् । । आमला, हैड, पीपल और चीता । यह आमलदहेत्पुटान्तरादग्नौ यायल्लेपस्य रक्तता॥ | क्यादि गण सर्व ज्वर नाशक, नेत्रोंके लिये हितकारी,
(प्र० प्र० २ खं०) | दीपन, वृष्य और कफ तथा अरुचि नाशक है। द्रव्य को कुचलकर जामन, बढ़ आदि के पत्तो | में लपेटकर उसे डोरे से खूब कसकर बाँध
[३६५] आमलक्यादियोगः दे फिर उसके ऊपर १ या २ अंगुल मोटा
(वृ. नि. र. वा. व्या.) मिट्टी का लेप करके अग्नि में दवा दे। जब आमलक्याश्च करकेन बस्तिभागं प्रलेपयेत् । ऊपर वाले लेप का रंग लाल हो जाय तो |
तेन प्रशाम्यति क्षिप्रं नियमान्मूत्रनिग्रहः ।। औषधि को निकाल कर उसका रस निचोड़ले। मात्रा-पलमात्रो रसोग्राह्य कर्षमात्रं मधुक्षिपेत् ।
बस्ति पर आमले के कल्क का गाढ़ा २ लेप अर्थात ५ तोला रस लेना चाहिये और उसमें | करने से मूत्राघात (पेशाब की रुकावट) को अवश्य १। तोला शहद डालना चाहिये।
आराम होता है।
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आकारादि क्वाथ
(१३१)
[३६६] आमलेकी आलवाल
आम और जामनकी कोंपल, कमल और (भा. प्र. म. खं अति.) वडके अंकुर और खस । इनके फांट (अथवा शीत कृत्वालवालं सुदृढं पिष्टैरामलकैभिषक् । कषाय) में शहद डालकर पीनेसे ज्वर, पिपासा, आर्द्रकस्य रसेनाशु पूरयेनाभिमण्डलम् ॥ वमन, अतिसार और दुस्साध्य मूर्छा का नाश नदीवेगोपमं घोरं प्रवृद्धं दुर्द्धरं नृणाम् ।। होता है। सद्योऽतिसारमजयं नाशयत्येष योगराट् ॥ | | [३७०] आम्रादियोगः (वृ. नि. र. संग्र.) ___आमलों को जलमें पीसकर उससे रोगीकी ।
आम्रास्थिविश्वगोशृंगवत्सश्वानरसेन तु ॥ नाभि के चारों ओर थामला सा बनादे फिर उसमें
मर्दयेत् त्रिदिनं सम्मक् सितया सह योजयेत् ।। अदरक का रस भर दे तो शीघ्र ही अत्यन्त भयंकर,
तस्यपित्तोद्भवां हन्ति ग्रहणी रोगकारिणी॥ नदीके वेगके समान दुर्जय अतिसार भी नष्ट हो
ज्वरातिसारं तीवं च रक्तस्रावं सशूलनुत् ।। जाता है।
___ आमकी गुठली, सोंठ, बबूल की छाल और [३६७] आम्रत्वचाका स्वरस
कुडेकी छाल को आमके रसमें तीन दिन तक खरल ___(वृ. नि. र. उपदंशे)
करके इसमें मिश्री मिलाकर सेवन करने से पित्तज आम्रत्वचं विनिष्पीडय निगृह्य स्वरसं पलम् ॥
| संग्रहणी, वरातिसार, रक्तस्राव और शूल का नाश चतुःपलं त्वजाक्षीरं संयुक्तं प्रपिबेत्प्रगे।
होता है। एवं मुनिदिनं कुर्यादुपदंशवणे हितम् ॥
आमकी छालका ५ तोला स्वरस लेकर उसमें | [३७१] आम्रादि यवागूम् २० तोला बकरी का दूध मिलाकर प्रातःकाल (वृ. नि. र. संग्र, शा. ध. म. खं. अ. २) सात दीन तक पीने से उपदंशत्रण ( उपदंश का | आम्रमानातक जंबृत्वकषाये पचेद्भिषक् ।। घाव ) नष्ट होता है।
यवागू शालिभियुक्तां भुक्त्वा तां ग्रहणीं जयेत्।। [३६८] आघ्रादिकषायः (वृ.नि. र. तृष्णा) __आम, अंबाडा और जामुन की छालका काढा आमजबूकषायं वा पिडेन्माक्षिकसंयुतम् ।।
करके उसमें शाली चावलोंकी यवागू सिद्ध करके छर्दि सनी प्रणुदति सृष्णां चैवापकर्षति ॥ सेवन करने से पित्तज संग्रहणी का नाश होता है । ____ आम और जामुन की छाल का काढ़ा शहद
[३७२] आम्रादिहिम (रक्तपित्तपर) मिलाकर पीनेसे सब प्रकार की वमन और तृषा शान्त हो जाती है।
(शा. ध. २ खं. ३ अ.) [३६९] आम्रादि फांट (हिम)
आनं जम्बू च ककुभं चूर्णीकृत्य जले क्षिपेत् । (शा. ध. म. खं., वृ. नि. र. ज्वर.) | हिमं तस्य पिबेत्प्रातः सक्षौद्रं रक्तपितजित् ॥ आमजबूकिसलयैर्वटभंगप्ररोहकैः ॥ ___ आम, जामन और अर्जुनकी छाल के चूर्ण उशीरेण कृतः फांटा सक्षौद्रो ज्वरनाशनः॥ | का शीत कषाय (हिम) बनाकर उसमें शहद मिलापिपासाच्छर्यतीसारान् मूछों जयति दुस्तराम्॥ कर प्रातःकाल पीनेसे रक्तपित्त का नाश होता है।
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(१३२)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
(वृ. नि. र. ज्वरे)
[३७३] आम्रास्थ्यादि कषायः खुलकर हो जाते हैं, उदरका दोष निःशेष हो जाता ( वृ. नि. र. अति.)
है और भूख खूब लगती है। आम्रास्थिमध्य मालूरफलक्वाथ समाक्षिकः । [३७५] आरग्वधादि कषायः (२) शर्करासहितो हन्याच्छद्यतीसारमुल्वणम् ॥ ___ आमकी गिरीकी गुठली और बेलगिरी का | आरग्वधफलं मुस्तं यष्टीमधुकमेव च । काढा शहद और मिश्री मिला कर पीने से वमन | उशीरमभया चैव हरिद्रादारुसाह्वया ॥ भौर अतिसार का नाश होता है।
पटोलं पिचुमन्दं च ह्यमृता कटुरोहिणी । [३७४] आरग्वधादि कषायः (१) ।
एषां पीतः कषायः स्याद्वातपित्तभवे ज्वरे ।। (रसा. सा. ज्वरे )
___अमलतासका गूदा, नागरमोथा, मुलैठी, खस, विष्टम्भनिःशेषविधौ तु रोगी
हैड़, हल्दी, दारुहल्दी, पटोलपत्र, नीम की छाल, सेवेतयोगं शतशोऽनुभूतम्। गिलोय और कुटकी । इनका क्वाथ वातपित्तज आरग्वधोरोहणिकाऽर्धचन्द्रा- ज्वर के लिये हितकारी है। द्राक्षातथाहेमदलावयःस्था॥
[३७६] आरग्वधादि कषायः (३) पुष्पश्च शुष्कं शतपत्रिकायाः (च. द., वै. र., हा. सं; शा. ध. म. खं; बृ. समानि सर्वाणि तदधभूताः॥
यो. त. त. ५८ ज्वरे) सम्मूञ्छिता शर्करयासुश्रुता
आरग्वधग्रन्थिकमुस्ततिक्तापलार्द्धकल्पाकथिता प्रपेयाः॥ हरीतकीभिःक्कथितःकषायः। ज्वर के दूर होजाने पर यदि विष्टम्भ (कब्- सामे सशूले कफवातयुक्ते ज़ियत) रहे तो इस आगे लिखेहुए काढ़े को पीवे, ज्वरे हितो दीपनपाचनश्च ॥ जो मेरा सैकडों बारका अनुभूत है। अमलतास अमलतास, पीपलामूल, नागरमोथा, कुटकी का गूदा दो तोला, कुटकी दो तोला, निसोत दो और हरड । इनका क्वाथ आम और शूल युक्त सोला, मुनक्का (बीज निकाली हुई ) पांच नग, कफवातज्वर नाशक एवं दीपन पाचन है । सनाय की पत्ती दो तोला, बड़ी हरड़ की छाल दो। [३७७] आरग्वधादि कषायः (४) तोला, सुग्वे हुवे गुलाबके फूल दो तोला) ( यदि
(वृ. नि. र. बाल.) गीले हों तो चार तोला ) सब औषधियों से आधा आरग्वधः सातिविषः समुस्तगुलकन्द । इन आटोंमें से अमलतास का गूदा, स्तिक्ताकपायो ज्वरमाशु हन्यात् । दाख और गुलकन्द, इन तीन चीजों को छोड़कर | सामं सशूलं सवमि सदाहं बाकी पांचों चीजोंको कूटकर चूर्ण करले, पीछे इन | सकामलं हन्ति सरक्तपित्तम् ।। तीनों चीजोंको भी मिलाकर कल्क करले । इस अमलतास का गूदा, अतीस, नागरमोथा कल्कमें से दो ढाई तोले के अन्दाज पावभर पानीमें | और कुटकी। इनका कषाय, शूल, वमन, दाह, डालकर अधौट क्वाथ कर पीवे तो एक दो दस्त कामला और रक्तपित्त युक्त ज्वर का नाश करता है।
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आकारादि क्वाथ
[३७८] आरग्वधादिगणः (३८१] आरोग्याम्बु (भा. प्र. म. खं)
(सु. सं. सू. अ. ३८) । पादशेषं तु यत्तोयमारोग्यांबु तदुच्यते । आरग्वधमदनगोपघोंटाकुटजपाठाकरण्टकी आरोग्याम्बु सदा पथ्यं कासश्वासकफापहम्॥ पटलाव॑न्द्रययसप्तपर्णनिम्बकुरुण्टकदासी सद्यो ज्वरहरं ग्राहि दीपनं पाचनं लघु । कुरुण्टकगुडूचीचित्रकशाष्टाकरञ्जद्वय | आनाहपांडशूलाओं गुल्मशोथोदरापहम् ।। पटोलकिराततिक्तकानि सुषवी चेति
जो जल औटाते औटाते चार भाग का एक आरग्वधादिरित्येष गणः श्लेष्मविषापहः॥ भाग अर्थात् सेरभर का पावभर शेष रहा हो उसको मेहकुष्ठज्वरवमीकण्डूनो व्रणशोधनः ॥ "आरोग्याम्बु” कहते हैं । आरोग्याम्बु-सदैव पथ्य, ___ अमलतास. मैनफल, गोपघोंटा, कुडा, पाठा, खांसी, श्वास और कफ नाशक, विशेषतः ज्वरको कटैली, पाढल, मूर्वा, इन्द्रयव, सतौना, नीम, |
नानी तत्काल हरनेवाला, मलरोधक, अग्निदीपक, पाचन कुरण्ट (पियाबांसा), दासी कुरण्ट (नीले फूल का
और हलका है एवं आनाह (अफारा) पांडुरोग, पियाबांसा) गिलोय, चीता, - शार्ङ्गष्टा, नाटा
| शूल, बवासीर, गुल्म, सुजन और उदर रोगोंको
नष्ट करता है। करंजवा, परवल, चिरायता और करेला । यह (आरग्वधादि गण) कफ, विष, प्रमेह, कोढ, ज्वर,
[३८२] आर्द्रक स्वरसः (वृ. नि. र. शोथे) वमन और कण्डु नाशक तथा ब्रण शोधक है।
आर्द्रकस्वरसः पीतः पुराणगुडमिश्रितः ।
अजाक्षीराशिनां शीघ्र सर्वशोथहरो भवेत् ॥ [३७९] आरोग्यपश्चकम् (१) (वं. से.)
____ अदरक के रस और पुराने गुड़ को मिलाकर पिप्पली पिप्पलीमूलं चव्य चित्रक नागरैः।
सेवन करने तथा बकरी का दूध पीनेसे शीघ्र ही सब दीपनीयः भृतोवर्गः कफानिलगदापहः॥
प्रकार की सूजनें नष्ट हो जाती हैं । पीपल, पीपलामूल, चव, चीता और सोठ ।। ३८३] आकादि कल्कः इनका क्वाथ दीपन पाचन और कफज तथा वातज
(भा. प्र. म. खं. ज्वरे) रोग नाशक है।
सहाईकयवक्षारौ पीत्वा कोष्णेन पारिणा । [३८०] आरोग्यपञ्चकम् (२)
नानादेशसमुद्भूतं वारिदोषमपोहति ॥ (वै. श. सिं.)
___अदरक और जवाखार का कल्क बनाकर पध्यारग्वधतिक्तात्रियदामलकेषु । किञ्चित गरम जलके साथ पीनेसे अनेक देशों के एतत्सिद्धं पाचनं सामे जीर्णज्वरे हितम् ॥ जलके पीने (पानी लगनेसे)से उत्पन्न हुए रोग दूर
हर, अमलतास,कुटकी, निसोत और आमला। | हो जाते हैं। इनका पाचन आमञ्चर तथा जीर्ण ज्वरके लिये [३८४] आर्द्रकादि कवलग्रह हितकर है।
(च. द. ज्वरे) * गोपघोंटा-विलायती कुम्हेड़ा, सुपारी भेद। आद्रेकस्वरसोपेतं सैन्धवं कटुकत्रयं । x शार्ङ्गष्ठा-काक जंघा, मकोय, चौटली। 'आकण्ठाद्धारयेदास्ये निष्ठीवेच्च पुनः पुनः॥
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(१३४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
-
तेनात्यहदयक्लोममान्यापार्श्वशिरोगलान् ।। रहे । इससे हृदय, मुख, क्लोम, मन्यापार्श्व और लीनोप्याकृष्यते श्लेष्मा लाघवं चास्यजायते॥ गले आदिमें लिप्त कफ निकल कर लघुता आ जाती पर्व नेदो ज्वरो मूळ निद्रा श्वासगलामयाः।। है । एवं पर्व मंद, ज्वर, मूर्छा, निद्रा, श्वास, गले, शुखाक्षिगौरवं जाड्यमुत्लशचोपशाम्यति ॥ मुख और आंखों के रोग, गुरुता (भारीपन), जडता सकृद् द्वित्रिचतुःकुर्यादृष्ट्वा रोगबलाबलम्। और अरुचि आदि का नाश होता है । इस प्रयोग एसद्धि परमं प्राहुर्भेषजं सन्निपातिनाम् ॥ को बलाबल विचार कर २--४ बार करना चाहिये।
अद्रक के स्वरस में सेंधा नमक और त्रिकुटा सन्निपातके लिये यह अत्युत्तम प्रयोग है । मिला कर *कवलग्रहण करे और बारम्बार थूकता [३८५] आर्द्रकादि स्वरसः ____ * पृष्ट१२ में गण्डूष को व्याख्या लिखी जा
(वृ. नि. र. शोथा) चुकी है। कवल और गण्डूष दोनों एक ही प्रकार के कर्म हैं परन्तु इतना भेद है कि गण्डू
रसस्तथैवाकनागरस्य एमें द्रव पदार्थ इतना लिया जाता है कि वह
पेयोथजीर्णे पयसाथचाद्यत् । नुखके भीतर चलायमान न हो सके और शिलाह्वयं वा त्रिफलारसेन चलमें इतना लिया जाता है कि जिससे सुख
हन्यात् त्रिदोषं श्वयधुं प्रसह्य ॥ पुर्वक चलाया जा सके।
कचल के लिये द्रव पदार्थ में चूर्ण १ तोला त्रिदोषज शोथ रोगकी शान्ति के लिये अद्रकका जिलाना चाहिये ! कवल और गण्डप ५ वर्ष स्वरस और सोंठका काथ अथवा त्रिफले के रसमें की अवस्था से धारण कराए जा सकते हैं। ।
शिलाजीत मिलाकर सेवन करना चाहिये. और ___ कवल और गण्डूष धारण करने के लिये
औषध पचजानेपर दुग्धयुक्त भोजन करना चाहिये। जकाग्रचित्त हो कर सीधे बैठना चाहिये और उस समय तक धारण करे रहना चाहिये [३८६] आस्थापनोपगमहाकषायः जब तक कि मुंह दोषों (ककादि) से न भर आय और नाक. आंत्र आदि से पानी न निक
(च. सं. सू. अ. ४) लने लगे। ऐसी दशा होनेपर पहिले कवलको त्रिविल्वपिप्पलीकुष्ठसर्षपवचावत्सकनिकाल कर दूसरी बार पुनः धारण करना फलशतपुष्पामधुकमदनफलानीति दशेचाहिये । इसी प्रकार ३ से ८ बार तक धारण करना उचित है।
मान्यास्थापनोपगानि भवन्ति । मचल और गण्डूष के ४ मेद हैं:
निसोत, बेल, पीपल, बूट, सरसों, बच, १-नेही-जो वातज रोगों में स्निग्ध और ऊष्ण इन्द्रजौ, सौंफ. मुलहैटी और मैनफल यह आस्था
जाधियों से धारण किया जाता है। २-अलादी-जो पैत्तिक रोगों में मधुर और
पनोपग महा कपाय है। सीलाल द्रव्यों से धारण किया जाता है। ४-रोपणी-इसका प्रयोग व्रण (धावों) के लिये
डीओ कफज रोगों में कटु. अम्ल और | किया जाता है एवं इसके कषाय, तिक्त रामरक युक्त तथा रूक्ष और ऊष्ण द्रव्यों और मधुर रस युक्त एवं ऊष्ण भौषधियां हैरण किया जाता है।
। व्यवहत होती है।
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आकारादि-चूर्ण
(१३५)
अथ आकारादि चूर्णप्रकरणम्
[३८७] आनन्दयोगः (भै र. अश्म.) , सर्पिषा वाऽपि लेयं तु दधिमण्डेन वा पुनः॥ बिलापामार्गकदलीपलाशामलकाण्डकान् । अस्थिसधिगतं वायुं स्नायुमजाश्रितं च यम् । दग्ध्वा तदस्मतोयन्तु वस्त्र पूतश्च कारयेत् ॥ कटिग्रहं गृध्रसीं च मन्यास्तम्भं हनुग्रहम् ॥ तत्पयेत्तोयशेषान्तं ततधूर्ण द्विगुंजकम् । ये च कोष्ठगता रोगास्तांश्च सर्वान्प्रणाशयेत् । पाययेदविमूत्रेण शर्कराश्मरिजिद्भवेत् ॥ आमाद्यो नाम चूर्णोऽयं सर्वव्याधिनिवर्हणः॥
तिल, चिरचिटा, केला और ढाक की स्वच्छ * कीकर, रास्ना, गिलोय, शतावरी, सोंठ, सोया, छालों को जलाकर, पानी में घोलकर उसे (२१ असगन्ध, हाउबेर, विधारा, अजवायन और अजबार) छानकर ( चुवाकर ) पकावें। जब पकते | मोद । इन सब चीजों को समान भाग लेकर चूर्ण पकते सब पानी जलकर चूर्ण सा हो जाय तो | करके १। तोला की मात्रा से मद्य, यूष, तक्र, उतार कर रख छोड़ें।
गरम पानी, धी या दधिमण्ड के साथ सेवन करने इसे दो रती की मात्रा से भेड़ के मूत्र के | से अस्थि सन्धिगत, तथा स्नायु और मज्जागत साथ सेवन करने से शर्करा और पथरी का नाश वायु, कटिंग्रह, गृध्रसी, मन्यास्तम्भ, हनुग्रह और होता है।
समस्त उदर विकारों का नाश होता है। [३८८] आभादिचूर्णम् (वृ. नि. र. भग्न.) [३९०] आमलक्यादि चूर्णम् आभाचूर्ण मधुयुतमस्थिभंगे व्यहं पिबेत् ॥
___ (यो. र. ज्वरा.) पीत्वा चास्थि भवेत्सम्यग् वज्रसारनिभ दृढम् ।। आमतं चित्रक पथ्या पिप्पली सैंधवं तथा । बबूल का चूर्ण तीन दिन तक शहद में मिला
चूर्णितोऽयं गणो ज्ञेयः सर्वज्वरविनाशनः॥ कर पीने से टूटी हुइ हड्डी जुड़कर बज्र के समान
भेदी रुचिकरः श्लेष्मजेता दीपनपाचनः॥ मजबुत हो जाती है। [३८९] आभादिचूर्णम् (यो. र. वा व्या.)
आमला, चीता, हैड़, पीपल और सेंधानमक ।
इनका चूर्ण सब प्रकार के ज्वरों को नाश करता आभा रास्ना गुडूची च शतावों महौषधम् ।।
है एवं रोचक, श्लेष्म नाशक और दीपन पाचन है। शतपुष्पाऽश्वगन्धा च हपुषा वृद्धदारकः ।।
[३९१] आम्रादि चूर्णम् यवानी चाजमोदा च समभागानि कारयेत् । सूक्ष्मचूर्णमिदं कृत्वा बिडालपदकं पिबेत् ॥
(वृ. नि. र. हिक्का ) मद्यै...."यूषस्तकै रुष्णोदकेन वा।
| आम्रादिलाजसिंधूत्थं सक्षौद्रं छर्दिनुद्भवेत् ।। * यहां पर मामल' शब्द ग्रहण करके |
__आम्रादि चूर्ण, खील और सैंधानमक को मामला भी लिया जा सकता है। शहदमें मिलाकर चाटने से वमन का नाश होता है ।
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त - भैषज्य -
भारत
रत्नाकर
अथ आकारादि गुटिका प्रकरणम्
तिलापामार्गयोः कांड कारवेल्या यवस्य च । पलाशकाष्ठसंयुक्तं तुल्यं सर्वं दहेत्पुटे || तं निष्कै कमजामूत्रैर्वीं चानन्दभैरवीम् । पाययेदश्मरी हन्ति सप्तरात्रान्न संशयः ॥
तिलशठ, चिरचिटे के डंठल, करेला, जव के डंठल और ढाकका काठ इन सबको बराबर २ लेकर पुटमें भस्म करे । फिर इस भस्म को (बकरी के मूत्र में घोटकर) ४–४ माशे की गोलियां बनावे । इसका नाम आनन्द भैरवी वटी है । इसको सात दिनतक बकरी के मूत्र के साथ सेवन करने से पथरीका नाश होता है। [३९४] आमनाशिनी वटिका
(र. चि. स्तबक. ४ )
[३९२] आदित्य गुटिका ( वै.. जी. ) बचाविश्वाजीरोपण गरलवाहीकदहनत्वचां कार्या वटयश्चणकतुलिता मार्कवरसैः । यथा भानोर्भासस्तिमिरनिकरं यामिनिभवं हरन्त्येताः शूलान्यनिलमनलग्लानिमपि च ॥
सुरदाली पुष्पचूर्ण गुडेन गुटिकाकृताः । गुदमध्ये प्रदेयैका पातयत्यामसागरम् ॥ अघथेत्सा समायांति मुगुरुध्वं च धारयेत् ॥ अनेन क्रमयोगेन मलं सामं विरेचयेत् ॥ जायते सकलो देहः शुद्धयु पेतो निरामयः ॥
बच, सोंठ, जीरा, कालीमिर्च, शुद्ध मीठातेलिया, हींग और चीते की छाल । इन सब को समान भाग लेकर महीन चूर्ण करके भांगरे के रस में घोटकर चने के बराबर गोलियां बनावें । यह गुटिका सर्व प्रकार का शूल और अग्निमांद्य को इस प्रकार नष्ट करती है जैसे रात्री के अंधकार को सूर्य की किरणें ।
|
[३९३] आनन्द भैरवी वटी
(र. चि. म. । अ. ९ )
देवदाली के फूलों को पीस कर गुड़में मिलाकर गोली (बत्ती) बनावे | इस बत्ती को गुदा में रखने से उदरस्थ समस्त आम ( कच्चामल) निकल जाता है और शरीर शुद्ध एवं स्वस्थ होजाता है । यदि बत्ती नीचे गिर पड़े तो उसे फिर ऊपर चढ़ा देना चाहिये । [३९५] आमवातगजसिंहोमोदकः (र. सा. सं. आ. वा. ) शुण्ठीचूर्णस्य प्रस्थैकं यमान्यश्च पलाष्टकम् । जीरकस्य पले द्वे च धन्याकश्च पलद्वयम् ।। पलैकं शतपुष्पाया लवङ्गम्य पलन्तथा ॥ टङ्कणस्य पलं भृष्टं मरीचस्य पलानि च । त्रिवृतात्रिफलाक्षारपिप्पलीनां पलन्तथा ॥ शटथैला तेजपत्रश्च चविकानां पलन्तथा ॥ अभ्रं लौहं तथा वङ्ग प्रत्येकञ्च पलं पलम् । एतेषां सर्वचूर्णानां खण्डं दद्याद्गुणत्रयम् ॥ घृतेन मधुना मिश्र कर्षमात्रन्तु मोदकम् । एकैकं भक्षयेत्प्रातर्धृतञ्चानुपिवेत्पयः ॥ शूलघ्नो रक्तपित्तानश्चाम्लपित्तविनाशनः । आमवात कुलध्वंसी केशरी विधिनिर्मितः ॥
सोंठ का चूर्ण १ सेर, अजवायन का चूर्ण आधा सेर, जीरे का चूर्ण १० तोला, धनिये का
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आकारादि-गुटिका
(१३७)
सोंठका चूर्ण १ सेर, अजवायनका चूर्ण आधा सेर, समभागं विचूाथ चूर्णाद्विगुणगुग्गुलुः ।। जीरेका चूर्ण १० तोला, सोया, लौंग, सुहागे की गुग्गुलोः पादिकं देयं त्रिवृतामूलवल्कलम् । खील, काली मिर्च,निसोत, त्रिफला, जवाखार,पीपल, तत्समं चित्रकं देयं घृतेन परिमईयेत् ॥ कचूर, इलायची, तेजपात, चव, अभ्रक भस्म, लोह खादेन्माषदयश्चास्य त्रिफलाचूर्णयोगतः । भस्म और बंगभस्म । इनमें से प्रत्येक का चूर्ण आमवातारिवटीका पाचिका मेदिका मता ।। ५-५ तोला । खांड सब औषधियोंसे ३ गुनी । आमवातं निहन्त्याशु गुल्मशूलोदराणि च । सब को शहद और घी में मिलाकर ११-१। तोला यकृरप्लीहोदराष्ठीलाकामलापाण्डवरोचकान् ॥ के मोदक बनावें । इसमें से प्रतिदिन प्रातःकाल ग्रन्थिशूलं शिरःशूलं वातरोगश्च गृध्रसीम् । एक २ मोदक खाकर ऊपर से घृत युक्त दूध पिया गलगण्डं गण्डमालां क्रिमिष्टभगन्दरान ॥ जाय तो शूल, रक्त पित्त, अम्लपित्त और आमवात विधिमन्त्रवृद्धिश्च अर्शासि गुदजानि च । (गठिया) का नाश होता है । इन आमवात गज
आमवातारिवटिका पुरेशानेन चोदिता। सिंह मोदकोंको ब्रह्माने कहा है।
___शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, लोहभस्म, तूतिया, [३९६] आमलक्यादि गुटिका
| सुहागे की खील और सेंधा नमक यह प्रत्येक (वृ. नि. र., शा. ध. म. ख. अ. ७, औषधि एक २ भाग लेवे । शुद्ध गूगल २ भाग, भा. प्र. म. खं. तृष्णा .)
निसोत की जड़ की छाल आधा भाग, चीते की आमलं कमलं कुष्ठं लाजाश्च क्टरोहकम् ।। जड़ की छाल आधा भाग । प्रथम पारा गन्धककी एतच्चूर्णस्य मधुना गुटिकां धारयेन्मुखे ॥ कजली बनाकर उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण तृष्णां प्रवृद्धां हंत्येषा मुखशोषं च दारुणम् ।। भिलाकर इन सब औषधियों को एकत्र खरल करके ___ आमले, कमल, कूट, खील और वड़की | घी में धोटकर दो माशे (१॥ माशा) परिमाण कोंपल इन पांच औषधियों का चूर्ण करके शहद में औषधि त्रिफले के चूर्ण के साथ सेवन करें। यह मिला कर गोली बनावे । इसको मुख में रखने से औषधि पाचक, भेदक तथा आमवात, गुल्म, शूल, प्रबल तृष्णा और मुख शोष का नाश होता है। उदररोग, यकृत, प्लीहोदर, अष्टीला, कामला, पांडु, [३९७] आमवातारिः (र. चि. म. ९. अ.) | अरुचि, ग्रंथिशूल, शिरःशूल, वातरोग, गृध्रसी, एरण्डम्लत्रिफलागोमूत्रं चित्रकं विषम् । । गलगण्ड, गण्डमाला, क्रिमि, कुष्ट, भगन्दर, विद्रधि, गुंजैका घृतसंपन्ना सर्वान् वातान् विनाशयेत् ॥ अन्त्रवृद्धि, बवासीर और गुदा के समस्त रोगों का __ अंडकी जड़, त्रिफला, गोमूत्र, चीता और | नाश करनेवाली है। शुद्ध मीठातेलिया इन सब द्रव्यों को पीस कर | [३९९] अपर आमवातारि वटिका एक रत्ती की मात्रा से घी के साथ सेवन करने से
(र. सा. सं.) सब प्रकारके वातरोग नष्ट होते है। रसगन्धौ वरा वह्निर्गुग्गुलुः क्रमवर्द्धितः । [३९८] आमवातारि वटिका (र. सा.सं.)। एतदेरण्डतैलेन मईयेदतिचिक्कणम् ॥ रसगन्धकलौहानं तुत्थं टङ्कणसैन्धवम् । । कर्पोऽस्यैरण्डतैलेन हन्त्युष्णजलपायिनः ।
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(१३८)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
आमवातमतीवोग्रं दुग्धं मौद्गादि वर्जयेत् ॥ [४००] आरग्वधादि वर्ती शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग,
| (वृ. नि. र., सु. सं चि. अ. र; भा. प्र. त्रिफला तीन भाग, चीते की जड़ ४ भाग और
म. खं. नाडीव्रण) शुद्ध गूगल ५ भाग लेवे । प्रथम पारा गन्धककी
आरग्वधनिशाकोलचूर्णाज्यक्षौद्रसंयुता। कजली बनावे फिर उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण
सूत्रवर्त्तिव्रणेयोज्या शोधनी गतिनाशिनी ।। मिलाकर अण्डीके तेलमें खूब खरल करे। इसमें से एक तोला औषधि अण्डी के तेल के साथ सेवन
___ अमलतास, हल्दी और बेर इनका चूर्ण करके करे और ऊपर से गरम जल का अनुपान करे तो | उसमें शहद और घी मिलाकर इसमें सूतकी बत्ती अत्यन्त उग्र आमवात रोग नष्ट होता है। इस | को भिगोकर नासूर में रक्खे । यह व्रणको शोधन औषधि पर दूध और मूंग आदि न खाना चाहिये। । करनेवाली तथा व्रण की गति को नाश करनेवाली है
अथ आकारादि गुग्गुल्ल प्रकरणम् [४०१] आदित्यपाक गुग्गुलु: (बं. से.) क्वाथ मिलाकर खूब मन्थन करके धूप में सुखाले। पृथक् पलांशं त्रिफला पिप्पली चेति चूर्णितम्। इसी प्रकार दशमूल के क्वाथ की सात भावना दशमूलाम्बुना भाव्यं त्वगैलाईपलान्वितम् ॥ देकर गोलियां बनावें । इसके सेवनसे अस्थिगत, दत्ता पलानि पश्चैव गुग्गुलोर्यटकीकृतः। मनागत और सन्धिगत वायुका नाश होता है। हन्तिसन्ध्यस्थिमज्जस्थान्वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ।। [४०२] आभागुग्गुलुः (च. द. भग्न. ) लेहवद्विगुणेनीयमालोडयालोडथ चातपे ॥ आमाफलत्रिकोषैः सर्वैरेभिः समीकृतैः। दशमूलाम्बुना शोष्यः सप्तवारान् सुगुग्गुलुः ॥ तुल्यो गुग्गुलुरायोज्यो भमसन्धिप्रसाधकः ।।
त्रिफले का चूर्ण ५ तोला, पीपल का चूर्ण | ___कीकर, त्रिफला और त्रिकुटा । सब समान ५ तोला, इलायची और दारचीनी का चूर्ण | भाग, शुद्ध गूगल सब के समान । (सब को ६॥-२॥ तोला, शुद्ध गूगल २५ तोला । सबको मिलाकर कूट कर रक्खे) इसके सेवन से सन्धिभंग एकत्र करके उसमें सबसे दो गुना दशमूल का । (जोड़ के खुल जाने) को आराम होता है।
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आंकारादि-अवलेह
(१३९)
अथाकाराद्यवलेह प्रकरणम्
[४०३] आमलकाचवलेहः (१) मरिचं कुडवोन्मानं पिप्पली द्विपलोन्मिता ! (र. र.,ग. नि. ज्वरा)
सलिलस्याढकं दत्वा सर्वमेकत्र कारयेत् ॥ स्विनमामलकं पिष्ट्वा द्राक्षाशुंठीसमन्वितम् । विपचेन्मृण्मये पात्रे दारुदा प्रचालयेत् ! मधुना लेहयेन्मूर्छाकासश्वासोपशान्तये ॥ चूर्णान्येषां क्षिपेत्तत्र घनीभूतेऽवतारिते ॥ ___ स्विन्न (उसीजे हुवे) आमले, दाख, और सोंठ | धान्यकं जीरकं पथ्यां चित्रकं मस्तकत्वचम समान भाग लेकर पीस कर शहद में मिलाकर
घृहज्जीरकमप्यत्र ग्रन्थिकं नागकेशरम् ॥ चाटने से मूर्छा, खांसी और श्वासका नाश होता है। [४०४] आमलक्यवलेहः (२)(यो. र. पांडु.
एलाबीज लवङ्गश्च पृथग्जाती पलम्पलम् ।
सिद्धे शीते प्रदद्याच्च मधुनः कुडवद्वयम् ।। रसमामलकानां तु संशुद्धं यन्त्रपीडितम् । द्रोणं पचेच्च मृद्वनौ तत्रेमानि प्रदापयेत् ॥
भक्षयेद्भोजनादवाक्पलमात्रमिदं नरः ।। चूर्णितं पिप्पलीप्रस्थं मधुकं द्विपलं तथा ।
अथवा नियतं नात्र मात्रां खादेद्यथानलम् ।। प्रस्थं गोस्तनिकायाच दाक्षायाः किल पेषितम्
मानवः सेवनादस्य बाजीव सुरते भवेत् । भृङ्गवेरपले द्वे तु तुगाक्षीर्याः पलद्धयम् ।
समर्थो बलवान्पुष्टो नित्यं स स्यानिरामयः।। तुलाध शर्करायाश्च घनीभूतं समुद्धरेत् ॥
| ग्रहणीं नाशयेदेव क्षयं श्वासमरोचकम् ॥ मधुप्रस्थसमायुक्तं लेहयेत्पलसंमितम् ।।
अम्लपित्तं महाश्वासं रक्तपित्तश्च पांडुताम् ॥ हलीमकं कामलां च पांडुत्वं चापकर्षति ॥
पक्के आमों का रस ३२ सेर, चीनी ४ सेर, यन्त्र द्वारा निकाला हुआ आमले का स्वच्छ |
घी २ सेर, सोंठ आधा सेर, कालीमिर्च २० तोला, रस ३२ सेर लेकर उसमें पीपल का चूर्ण १ सेर
पीपल १० तोला और जल ८ सेर लेकर चूर्ण
| योग्य औषधियों का वर्ण करके सब को एकत्र १० तोला, मुलैठी, मुनक्का (निर्बीज) और किशमिश का कल्क (पिसी हुई) १ सेर अदरक और बंस
मिलाकर मिट्टी के बर्तन में पकांवे और लकड़ी की लोचन १०-१० तोला और खांड २५० तोला
| करछली से चलाता रहे । जब गाढ़ा हो जाय तो मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावे । जब गाढ़ा हो
उतार कर उस में इन चीजों का चूर्ण मिलावे । जाय तो उतार कर ठण्डा होने पर उसमें २ सेर
| धनिया, जीरा, हरे, नागरमोथा, चीता, दारशहद मिलावे ।
| चीनी, बड़ा जीरा,पीपलामूल, नागकेसर, इलायचीके इसे ५ तोला मात्रा में सेवन करने से हलीमक, | बीज, लवंग और जावित्री ५---५ तोला । इन चीजों कामला और पांडु का नाश होता है। | को मिलाने के बाद ठण्डा होने पर उसमें १ सेर [४०५] आम्रपाकः (भा. प्र. उ. खं. ३) शहद मिलावे । इसे भोजन से पहिले ५ तोला या पक्कामस्य रसद्रोणे सितामाठकसम्मिताम् । | अग्नि बलानुसार उचित मात्रा से सेवन करना घूतं भस्थमितं दद्यात्रागरस्य पलाष्टकम् ॥ चाहिये। यह अत्यन्त वाजीकर, पौष्टिक, बलदायक,
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(१४०)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
ग्रहणी, क्षय, श्वास और अरुचि, अम्लपित्त, रक्तपित्त । लोहे विशाले सुदृढे मृन्मये वा विचक्षणः
और पांडु नाशक तथा स्वास्थ्य संरक्षक है। | यावन्मात्राकाःखण्डास्तावऽमात्रीगुडः स्मृतः।। [४०६] आर्द्रकखण्डम्
दाचालनयोगेन पाचयेन्मृदुवहिना ॥ (पृ. यो. त. १२१ त. भै. र. शीतपीत्त.) सम्यक्पक्कं ततो ज्ञात्वा द्रव्याणीमानि दापयेत् ॥ आर्द्रकं प्रस्थमेकं स्याद्गोघृतं कुडवदयम् ।
विश्वाजाज्युषणं नागकेसरं जातिपत्रिका ॥ गोदुग्धं प्रस्थयुगलं तदर्धा शर्करा मता।
एलात्वग्पत्रमगधाधान्यकं कृष्णजीरकम् ॥ पिप्पलीपिप्पलीमूलमरिचं विश्वभेषजम् ।
ग्रंथिकं च विडङ्ग च तस्मिन्शीते प्रदापयेत् ॥ चित्रकं च विडङ्गं च मुस्तकं नागकेसरं ॥
पलार्द्धमपिभुञ्जीत शीतकाले विशेषतः ।। त्वगेलापत्रकचूंरं प्रत्येकं पलमात्रकं ।
श्वासं कासं स्मृतिभ्रंशं स्वरमंगमरोचकम् ।। विधाय पाकं विधिवत्खादेदेतत्पलोन्मितम् ॥ हद्राग ग्रहणागुल्मशूलशाकानवारयत् ।। इदमाईकखण्डाख्यं प्रातर्भुक्तंव्यपोहति ।
" अद्रक को (छील कर) बारीक बारीक टुकड़े
करके लोहे या मिट्टी के दृढ़ पात्र में गाय के घी में शीतपित्तमुदर्द च शीतमुत्कोठएव च ॥
भूने फिर उसमें अद्रक के बराबर गुड़ मिलाकर यक्ष्माणं रक्तपित्तं च कासश्वासमरोचकम् ।
मन्दाग्नि पर पकावे और करछली से चलाता रहे । वातगुल्ममुदावर्त शोथकण्डूकमीनपि ॥
जब पाक सिद्ध हो जाय तो ठण्डा करके उसमें दीपयेदुदरे वहि बलवीर्य विवर्धयेत् ।
इन चीजों का चूर्ण मिलावे । सोंठ, जीरा, काली वपुः पुष्टं प्रकुरुते तस्मात्सेव्यमिदं सदा ॥
| मिर्च, नागकेसर, जावित्री, इलायची, दारचीनी __ अद्रक २ सेर, गाय का धी १ सेर, गाय का
तेजपत्र, पीपल, धनिया, काला जीरा, पीपलामूल दूध ४ सेर, चीनी १ सेर ।।
और बायबिडंग। प्रक्षेप-द्रव्य–पीपल, पीपलामूल, कालीमिर्च,
इसे प्रतिदिन २॥ तोले की मात्रा में सेवन सोंठ, चीता, बायबिडंग, नागरमोथा, नागकेसर,दार
करने से श्वास, खांसी, स्मरणशक्ति की कमी, स्वरचीनी, इलायची, तेजपत्र और कचूर का चर्ण ५-५ |
भंग, अरुचि, हृद्रोग, ग्रहणी, गुल्म, सूजन और तोला । यथा विधि पाक सिद्ध करके प्रातः काल | शूल का नाश होता है । ५ तोला मात्रा से सेवन करे । यह शीत पित्त, यह पाक शीतकाल में विशेष रूपसे सेवन उदर्द, शीत, उत्कोठ, राजयक्ष्मा, रक्तपित्त, खांसी, | करना चाहिये। श्वास, अरुचि, बायगोला, उदावर्त, सूजन, कृमि, [४०८] आर्द्रकमातुलगावलेहः कंडू आदि रोगों का नाश करता और जठराग्नेि (वृ. नि. र. अरुचौ) तथा बल वीर्य आदि की वृद्धि और शरीर को | आर्द्रकस्वरसं प्रस्थं तदशं गुडं क्षिपेत् । पुष्ट करता है।
कुडवं बीजपूराम्लं गालयित्वा विचक्षणः ।। [४०७] आर्द्रकपाकः ( यो. चि. पाका.) सर्व मंदाग्निना पक्त्वा तत्रेमानि विनिक्षिपेत् । आर्द्रकं खंडशः कृत्वा प्रक्षिपेत्सुरभीघृते ॥ त्रिजातकं त्रिकटुकं त्रिफलायासमेव च ।।
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आकारादि - अवलेह
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( १४१ )
अर्श, ज्वर, पीनस, सूजन, गुल्म और क्षय का नाश होता है ।
॥
चित्रकं ग्रंथिकं धान्यं जीरकद्वयमेव च । कर्षाशं श्लक्ष्णचूर्णं तु मेलयित्वा तु भक्षयेत् ॥ अरोचकक्ष हरममिदीप्तिकरं परम् । कामलापांडुशोफर्म कासश्वासहरं परम् ॥ आध्मानोदरगुल्मांश्च प्लीहं शूलं च नाशयेत् अद्रक का रस २ सेर, गुड़ ४० तोला, विजौरे नीबू का छना हुवा रस ४० तोला । सबको एकत्र करके मंदाग्नि पर पकावे और पाक सिद्ध होने पर उसमें यह चीजें मिलावे - दालचीनी, तेजपात, इलायची, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, हैड़, बहेडा, आमला, धमासा, चीता, पीपलामूल, धनिया और दोनोंजीरे प्रत्येक द्रव्यका चूर्ण ११ - १ तोला । यह अरुचि, क्षय, कामला, पाण्डु, सूजन, खांसी, उदररोग, गुल्म, तिल्ली और शूल श्वास, अफारा, नाशक तथा अग्निवर्द्धक है ।
[ ४०९] आर्द्रकावलेह (वै. जी. ३ वि.) आर्द्रादितला गुडादपि
६। सेर कुड़ेकी गीली छालको ३२ सेर पानी में पकावे, जब चौथा भाग शेष रह जाव तो छानकर उसमें - लजालु, धायके फूल, बेलगिरी, पाठा, मोचरस, नागरमोथा और अतीस, इनमें से प्रत्येक का ५ - ५ तोला चूर्ण मिलाकर पुन: पकावे । जब गाढ़ा होकर करछी को लगने लगे तो उतार ले । इसे पानी, बकरीके दूध या चावलों के * मांड के साथ सेवन करने से रङ्ग विरङ्गे, वेदनायुक्त और अन्य सब प्रकार के प्रबल अतिसार, रक्तप्रदर बवासीर और प्रवाहिकाका नाश होता है ।
।
तथा द्वथा च कस्तुम्बरी दीप्यायोजरण त्रिजात जलदादेतत्पचेद्यु क्तितः लेहो रत्नक ले ! तवैव कथितः प्राणप्रियाया मया कासार्शोज्वरपीनसश्वयथुरुग्गुल्मक्षयध्वंसनः ॥
अदरक ६। सेर, गुड़ २५० तोला, कुस्तुम्बरी, ( कच्चा धनिया ) अजवायन, लोह भस्म, जीरा, दालचीनी, तेजपात, इलायची और नागरमोथा इनमें से प्रत्येक का चूर्ण १० - १० तोला यथा विधि पाक सिद्ध करे । इसके सेवन से खांसी,
[४१०] आर्द्रकुटजावलेहः (वृ. नि. र. अति.)
कुटजत्वक्तु लामाद्रीं द्रोणनीरे त्रिपाचयेत् । पादशेषं भृतं नीत्वा चूर्णान्येतानि दापयेत् ॥ लज्जालु धातकी बिल्वं पाठा मोचरसस्तथा । मुस्तं प्रतिविषा चैव प्रत्येकं स्यात्पलं पलम् || ततस्तु विपचेद्भूयो यावद्दवप्रलेपनं । जलेन छागदुग्धेन पीतो मण्डेन वा जयेत् || सर्वातिसारान् घोरांस्तु नानावर्णान् सवेदनान् । असृग्दरं समस्तं च सर्वाशसि प्रवाहिकाम् ।।
+ मांड - चावलोंको १४ गुने पानी में पकाकर तइयार किया जाता है। इसमें कण बिलकुल नहीं रहता । मण्डचतुर्दशगुणे यवागूः षडगुणेऽम्भसि । ferenरहितो मण्डः सिक्थसमन्विता ॥
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(१४२)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
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अथ आकारादि रसायनानि
ज्ञातव्य जिस औषधि से जरा, व्याधि का नाश हो कर आयु, बल, ओज, मेधा आदि की वृद्धि होती है एवं युवावस्था तथा आयु स्थिर रहती है उसे रसायन कहते हैं। चरक सुश्रतादि प्राचीन ग्रन्थों में कितने ही दिव्य रसायन प्रयोगों की इतनी प्रशंसा मिलती है कि जिसे देखकर आश्चर्य होता है एवं बहुत सम्भव है कि कितने ही सज्जन उसे गप्प से अधिक महत्व देने के लिये तैयार न हों परन्तु गहरी दृष्टि से देखा जाय तो तनिक भी असम्भव प्रतीत नहीं होगा।
प्रथम तो प्राचीन काल में मनुष्यों के शरीर स्वभावतः ही अत्यधिक बलवीर्यवान और पुष्ट होते थे आयु दीर्घ होती थी, दूसर उनके आचार व्यवहार शुद्ध और पवित्र होते थे एवं वह लोग योग तपादि के अभ्यासी होते थे, धैर्य पूर्वक बहुत समय तक कठिन से कठिन नियमों का पालन कर सकते थे, इसके सिवाय उस समय औषधियां भी अधिक प्रभावशाली होती थी अतएव उस समय इन रसायन प्रयोगों से यथोक्त गुण प्राप्त होना कुछ आश्चर्य की बात नहीं थी परन्तु आज कल जब कि औषधियां प्रभाव हीन हो गई हैं ( स्वयं महर्षि चरकने भी इस बात को स्वीकार किया है), शरीर निर्बल हो गए हैं, जप, तप, योगादि का नाम नहीं, ब्रह्मचर्याश्रम का निशान नहीं, आचार, व्यवहार और नियमादि पालन हो नहीं सकते ऐसी अवस्था में वह गुण प्राप्त होना अवश्य असम्भब है। हां, यदि नियमों का पालन करते हुए विधि पूर्वक रसायन औषधियों का प्रयोग किया जाय तो परिस्थिति के अनुसार न्यूनाधिक लाभ अवश्य हो सकता है।
रसायन प्रयोग दो प्रकार के होते हैं (१) कुटिप्रावेशिक । (२) वातातपिक । विस्तार भयके कारण यहां इनका वर्णन नहीं किया गया अतएव जो सजन रसायन प्रयोगों से अधिक लाभ उठाना चाहें उन्हें चरकादि ग्रन्थों में वर्णित पूरा २ वर्णन देखकर यथाशक्ति नियमों का पालन करते हुए प्रयोग करने चाहिये। [४११] आमलकी रसायनम् (१) मात्रा पौर्वाहिका प्रयोगः । सात्म्यापेक्षः
(च. सं. चि. अ. १) चाहारविधिना पराज्ञिकस्तस्य प्रयोगाद आमलकसहस्रं पिप्पलीसहस्रसंप्रयुक्तं प- शतमजरं वयस्तिष्ठतीति समानं पूर्वेण ॥ लाशतरुक्षारोदकोत्तरं तिष्ठे तदनुगतक्षार । १ हजार नग आमले और १ हज़ार पिप्पमनातपशुष्कमनस्थिचूर्णीकृतचतुर्गुणा- लियों को ढाकके * क्षारजल (क्षारके पानी) में भ्यां मधुसपिा संनीय शर्करा चूर्णाचतु
*क्षारा त् षडगुणं जलं दवा वस्त्रेण दोलायन्त्रं भागसम्प्रयुक्त वृतमाजनस्थ पामासान् स्थाविधाय तदधः पात्रं पातयित्वा क्षारोदकं ग्राह्यम्। पयेदन्तर्भूमेस्वस्योचरकालमग्निवलसमा 'एवं एकविंशतिवारं पुनः पुनः नापयित्वा प्रायम्॥
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आकारादि-रसायन
भिगोदें पानी इतना होना चाहिये कि उस में उपरोक्त दोनों चीजें अच्छी तरह डूब जायं । जब सब क्षारजल सूख जाय तो उन्हें छाया में सुखाकर आमलों की गुठली दूर करके दोनों का चूर्ण कर लें। फिर उसमें चार गुना शहद और घी एवं चौथाई भाग चीनी मिलाकर किसी चिकने बरतन में भर जमीन में दबादें इसके बाद उसे छः मास पश्चात् निकाल कर अग्नि बलानुसार उचित मात्रा से प्रतिदिन प्रातः काल सेवन करें। और सायंकाल को पथ्य भोजन करें । इसके सेवन से मनुष्य १०० वर्ष की अजर (वार्द्धक्य रहित ) आयु प्राप्त कर सकता है।
[४१२] आमलकी रसायनम् (२) (च. सं. चि. अ. १ ) आमलक चूर्णाकमेकविंशतिरात्र मामलकसहस्वरस परीपीतं मधुघृताढकाभ्यां द्वाभ्यामेकी कृतमष्टभागपिप्पलीकं शर्करा चूर्णाचतुर्भागसम्प्रयुक्तं घृतभाजनस्थं प्रावृषि भस्मराशौ निदध्यात्तद्वर्षान्ते सात्म्यापेश्रीप्रयोजयेदस्य प्रयोगाद्वर्षशतमजरमायुस्तिष्ठतीति समानं पूर्वेण ।
४ सेर आमले के चूर्ण को २१ दिन तक १ हजार आमलों के रसमें भिगोयें फिर उसमें ४-४ सेर शहद और घी तथा सबके वज़न से आठवां भाग पीपल का चूर्ण और चौथा भाग खांड मिलाकर (मिट्टी के ) चिकने बर्तन में भरकर वर्षा ऋतु राखके ढेर में दबादें । और बरसात भर वहीं अर्थात- क्षार ( ढाक आदि की भस्म ) से ६गुना
पानी मिलाकर उसे दोलायन्त्र विधि से ( रैनी बढा कर ) २१ बार चुवाले तो इस जलका नाम क्षारोदक होगा।
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(१४३)
दबा रहने दें। फिर बरसात बाद निकाल कर यथाविधि सेवन करें और पथ्य पालन करें। इसके सेवन से १०० वर्ष की अवर (वार्द्धक्य रहित ) आयु प्राप्त हो सकती है। [४१३] आमलकी रसायनम् (३) (च. सं. चि. अ. १ ) यथोक्तगुणानामामलकानां सहस्रमाई पलाशूद्रोण्यां सपिधानायां वाष्पमनुद्वमन्त्यामारण्यगोमयाग्निभिरुपस्वेदयेत् । तानि सुस्विमशीतानि उद्धृत कुलकान्यापोथ्यादकेन पिप्पलीचूर्णानामाढकेन च विडङ्गतण्डलचूर्णानामध्यर्धेन चाढकेन शर्कराचूर्णानां द्वाभ्यां द्वाभ्यामाढकाभ्यां तैलस्य मधुनःस पिषश्च संयोज्य दृढे घृतभाविते कुम्भे स्थापयेदेकविंशतिरात्रमतऊर्द्ध प्रयोगः अस्य प्र योगाद्वर्षशतमजरमा यस्तिष्ठतीतिसमानं पूर्वेण ॥
यथोक्त गुणान्वित १००० आमलों को ढाककी गीली लकड़ी की ढक्कनदार हांडी में भरकर उसके मुखको अच्छी तरह बन्द करदें कि जिससे भाप न निकल सके। अब इस हांडी को अरने उपलों की (मृदु) अग्नि पर रखकर आमलों को स्वेदित करें । जब आमले उसीज जायं तो ठण्डा होने पर उनकी गुठली निकाल कर गूदे को अच्छी तरह मथलें । अब ४ सेर यह मथा हुआ गूदा लें और ४ सेर पीपल का चूर्ण, ६ सेर बायबिडङ्ग का चूर्ण, खांड ४ सेर, शहद, घी और तेल ८-८ सेर लेकर सबको मिलाकर घृतके चिकने घड़े में भरकर २१ दिन तक रक्खा रहने दें। इसके पश्चात् यथोचित पथ्य पालन करते हुवे विधि पूर्वक सेवन करें। इसके सेवन से १०० वर्ष की अजर आयु प्राप्त हो सकती है।
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भारत-भैषज्य रत्नाकरे ।
(१४४)
[४१४] आमलकरसायनम् (४) ( च. सं. चि. अ. १ ) संवत्सरं पयोवृत्तिगवां मध्ये वसेत्सदा ।
[४१५] आमलक रसायनम् (५) (च. सं. चि, अ. १ )
अथामलक हरीतकी नामामलकाविभीतका
संवत्सराते पौषीं वा माघीं वा फाल्गुनीं तथा । योपवासी शुद्ध प्रविश्यामलकीवनम् ॥ बृहत् फलादथमारुह्य द्रुमं शाखगतं फलम् । गृहीत्वा पाणिना तिष्टे जपन्ब्रह्मामृतागमात् । तदाह्यवश्य ममृतं वसत्यामलके क्षणम् ॥ शर्करामधुकल्पानि स्नेहवन्ति मृदनि च । भवन्त्यमृतसंयोगात्तानि यावन्ति भक्षयेत् ॥ जीवेद्वर्षसहस्राणि तावन्त्यागतयौवनः । सौहित्यमेषां गत्वा तु भवत्यमरसन्निमः । स्वयं चास्योपतिष्ठन्ति श्रीर्वेदवाक्यरूपिणी
सावित्री मनसाध्यायन् ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः । नामामलकहरीतकीविभीतकानां वा पलाशत्वगवनद्धानां मृदावलिप्तानां कुकूलेस्त्रिना नामकुलकानां पलसहस्रमुदूखले संपोथ्य दधिघृतमधुपललतैलशर्करा संप्रयुक्तं मक्षयेदनन्न भुग्यथोक्तेन विधिना तस्यान्ते यवाग्वादिभिः प्रकृत्यवस्थापनमभ्यङ्गोत्सादनं सर्पिषा यवचूर्णैः अयञ्च रसायन प्रयोगप्रकर्षो द्विस्तावदग्निबलमभिसमीक्ष्यप्रतिभोजनं यूषेण पयसा वा षष्टिकः ससर्पिष्कोऽतः परं यथासुखविहारः काममक्ष्यः स्यादनेन प्रयोगेण ऋषयः पुनर्युवत्वमत्रापुः । बभूवुश्वानेकवर्षशतजीविनो निर्विकारा परं शबुद्धीन्द्रियवलसंमुदिताचे रुचात्यन्तनिष्ठन्तपः ।
प्रथम एक वर्ष पर्यन्त जितेन्द्रिय होकर ब्रह्मचर्य पूर्वक सावित्री का ध्यान करते हुवे केवल दुग्धाहार पर रहें । इसके पश्चात् पौष, माघ या फाल्गुन के महीने में १ दिन निराहार व्रत धारण करके पूर्णमासी के दिन आमलों के वनमें प्रवेश करें | वहां पहुंचकर बृहत्फलों से परिपूर्ण आमले के किसी वृक्षपर चढ़ जाएं और किसी शाखा के एक आमले को हाथमें लेकर उस समय तक ब्रह्मामृत मन्त्र का जाप करें जब तक कि वह आमला अमृतमय होकर शर्करा और मधुके समान मधुर एवं स्निग्ध और कोमल न हो जाय। इस - प्रकार आमले में सुधा सञ्चार होने पर उसे भक्षण
है और आमले या बहेड़ा और आमले अथवा है, बहेड़ा और आमलों को ढाक की छाल में बन्द करके ऊपर से मिट्टी का लेप करके अरने उपलों की अग्नि में स्वेदन करें। फिर निकालकर गुठली दूर करदें और उसमें से ६२ ॥ सेर लेकर ओखली में कूट लें । फिर इसमें दहीं, घी, शहदऔर चीनी तथा चूर्ण तथा तिलका तेल मिलाकर विधिपूर्वक विना भोजन किये इसका सेवन करें । इसके पश्चात् यथोचित काल में प्रकृत्यनुकूल यवागु आदिका आहार करें । एवं जौके चूर्ण को घी में मिलाकर देहपर मर्दन करें ।
करें । इस समय जितने अमृतमय आमले खाए जाएंगे उतने ही हज़ार वर्षो की युवावस्था प्राप्त होगी । यदि इस समय पेट भरकर ऐसे आमले खाए जाएं तो मनुष्य देव तुल्य हो जाता है एवं लक्ष्मी तथा सरस्वती स्वयं उसके समीप में रहती है।
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जिस समय तक इस रसायन का प्रयोग जारी रहे उस समय तक प्रत्येक भोजन में अग्निबलानुसार मूंग के यूष या दूध के साथ साठी
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आकारादि-रसायन
(१४५)
चावलों का घृत युक्त भात खाएं और उस के जमदग्निर्भरद्वाजो भृगुरन्ये च तद्विधाः ॥ पश्चात् यथेच्छ सुखकारक आहार विहार करें। ! प्रयुज्य प्रयतामुक्ताः श्रमव्याधिजरामयात् ।
इस के सेवन से प्राचीनकाल में ऋषियों ने यावदिच्छन्तपस्तेषुः तत् प्रभावान् महाबलाः॥ पुनः यौवनावस्था एवं सैकड़ों वर्ष की निर्विकार तपसाब्रह्मचर्येण ध्यानेन प्रशमेन च । आयु प्राप्त की थी। तथा इस के प्रभाव से अत्यन्त रसायनविधानेन कालयुक्ते चायुषा ।। शारीरिक बल, इन्द्रियबल एवं बुद्धि प्राप्त कर के स्थिता महर्षयः पूर्व, नहि किश्चिद्रसायनम् । निष्ठा के साथ तप करते रहेथे ।
ग्राम्यणामन्यकार्याणां सिद्धिश्चप्रयतात्मनाम् ।। [४१६] आमलकायसरसायनम्
इदं रसायनश्चक्रे ब्रह्मावर्षसहस्रिकम् । (च. सं. चि. अ. १)
जराव्याधिप्रशमनं बुद्धीन्द्रियबलप्रदम् ॥ करप्रचितानां यथोक्तगुणानामामलकाना•
प्रथम माध या फागुन मास में हाथ से तोड़े मुद्धृतास्थ्नां शुष्कचूर्णितानां पुनः माघे हुवे यथोक्त गुण सम्पन्न आमले लेकर उनकी फाल्गुने वा मासे त्रिःसप्तकृत्वःस्वरसपरिपी गुठलियां निकाल कर सुखा कर आमलों का चूर्ण तानां पुनः शुष्कचूर्णाकृतानामाढकमेकं ग्राहयेद करें। फिर इसको आमले के रसकी २१ भावना अथजीवनीयानां बृहणीयानां
देकर सुखा कर महीन करले । इसके बाद षड् स्तन्यजननानां शुक्रवदनानां वयःस्थापनानां | विरेचन शताश्रितीयाध्यायोक्त जीवनीय, वृंहणीय, षविरेचनशताश्रितीयोक्तानामौषधानां स्तन्यजनक, शुक्रवर्द्धक और वयःस्थापक गण एवं चन्दनागुरुधवतिनिशखदिरशिंशपासन चन्दन, अगर, धव, तुन, खदिर, सीसम और पीतसाराणाश्चाणुशाश्च्छिनानां क्षिप्तानामभ
शाल इन वृक्षों के सार (राछ-बीचका सारवान याविभीतकपिप्पलीवचाचव्यचित्रकवि. भाग) हैड़, बहेड़ा, पीपल, वच, चव्य, चीता और उङ्गानाश्च समस्तानामाढमेकं दशगुणना- बायविडङ्ग । सब चीजें मिलाकर ४ सेर ग्रहण करें। म्भसा साधयेत् । तस्मिन्नावकावशेषे रसे। अब इनमें से चन्दनादि के सारों को कूटकर बारीक सुपूते तान्यामलकचूर्णानि दत्वा गोमयानि- । २ टुकड़े करलें और फिर सब चीजों को ८० सेर भिवंशविदलशरतेजनाग्निभिर्वा साधयेत्। | जलमें पकावें जब ८ सेर जल शेष रह जाय तो यावदुपनयाद्रसस्य तमनुपदग्धमुपहृत्याय- नीचे उतार कर छानकर उसमें आमलों का पूर्वोक्त सीषुपात्री वास्तीर्य शोषयेत् । सुशुष्कं कः । ४ सेर चर्ण मिलाएं और फिर उसे उपलों या बांस ष्णाजिनस्योपरिदृषदिश्लक्ष्णपिष्टमयः अथवा सरकंडे की अग्नि में पकावें । जब पानी जल स्थाल्यान्निधापयेत् । तच्चूर्णमयचूर्णा- | जाय (परन्तु औषधि न जलने पावे) तो नीचे उतार ष्टभागसम्प्रयुक्तं मधुसर्पिामग्निबलम- | कर किसी लोहे के पात्र में फैला कर सुखावें । इसके भिसमीक्ष्य प्रयोजयेदिति ॥ | पश्चात् काले हरीन की चर्म पर एक पत्थर की
आमलाकायस रसायनके गुण। शिला बिछाकर उसे उसपर पीसें। इसे आठवां एतद्रसायनं पूर्व वसिष्ठः कश्यपोऽङ्गिराः। '
'भाग लोह चूर्ण और घृत तथा शहद मिला कर
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(१४६)
भारत-भैषग्य-रत्नाकर
अग्निबलानुसार मात्रा में सेवन करना चाहिये। धारणशक्ति बढ़ती है । यह प्रयोग जितने मास तक
इस रसायन को पूर्वकाल में वशिष्ठ, कश्यप, | सेवन किया जाता है उतने ही सौ वर्ष की आयु अङ्गिरा आदि ऋषियोंने सेवन किया था और उसके । प्राप्त होती है । पथ्य---औषधि पच जाने पर मूंग प्रभाव से श्रम, व्याधि, जरा आदि रहित अत्यन्त | और आमले के लवण रहित किञ्चित घृत युक्त बलवान होकर यथेच्छ समय तक तपस्या करते | यूषके साथ घृत युक्त भात खाना चाहिये । रहे थे। इसके प्रभावसे ही उन्होंने तप, ब्रह्मचर्य,
[४१८] अन्यत्र ध्यान और शान्तियुक्त आयु प्राप्त की थी । यथोक्त नियमों को पालन करने से ग्राम्य जनों को भी | विडङ्गतण्डुलानां द्रोणं पिष्टपचनेपिष्टवादइससे सिद्धि प्राप्त हो सकती है।
स्वेधविगतकषायं स्विन्नमवतार्य दृषदि [४१७] आयुर्वर्द्धकप्रयोगः पिष्टमायसे दृढे कुम्भे मधुदकोत्तरं प्रावृषि
(सु. सं. चि. अ. २६) भस्मराशवन्तर्गृहे चतुरो मासान्निदध्यान् । तत्रविडङ्गतण्डुलचूर्णमाहृत्य यष्टीमधुयुक्तं
वर्षाभिगमे चेद्धृत्योपसंस्कृतशरीः सहस्त्रयथावलं शीततोयेनोपयुञ्जीत शीततोयं | सम्पाताभिहुतं कृत्वा प्रातः प्रातर्यथावलमचानुपिबेदेवमहरहर्मासं तदेव मधुयुक्तं भल्लातक पयुञ्जीत ॥ जीर्णे मुद्गामलकयुषेणालवक्वाथेन वा मधुद्राक्षाकाथयुक्तं वा मध्याम- | णेनाल्पस्नेहेन घृतवन्तमोदनमश्नीयात् । लकरसाभ्यां वा गुडुचीक्काथेन वा । एवमे- | पशुशय्यायां शयीत् । तस्य मासा सर्वाः ते पञ्च प्रयोगा भवन्ति । जीर्णेमुद्गामलक
| ड्रेभ्यः कृमयो निष्कामन्ति तानणुतैलेनाम्ययषणालवणेनाल्पस्नेहेन घृतवन्तमोदनमश्नी | क्तस्य वंशविदलेनापहरेत् ॥ द्वितीयेपिपीयात । एतेखल्वासि क्षपयन्ति कमीनप- लिकास्तृतीये यूकास्तथैवापहरेत् चतुर्थे घ्नन्ति ग्रहणधारणशक्ति जनयन्ति । मासे मासे | दन्तनखरोमाण्यवशीयन्ते पञ्चमे प्रशस्तगुण प्रयोगे वर्षशतमायुषोऽभिवृद्धिर्भवति ॥ लक्षणानि जायन्ते । अमानुषं चादित्यप्रका___वायबिडंग और मुल्लैटी का चूर्ण समान भाग | शवपुरधिगच्छति ॥ दूराच्छ्रवणानि दर्शमिलाकर अग्निबलानुसार मात्रा से ठंडे पानी के साथ | नानि चास्य भवन्ति । रजस्तमसीचापोध खाकर ऊपर से ठंडा पानी पियें । इसी प्रकार प्रति- | सत्वमधितिष्ठति ॥ श्रुतिनिगाधपूर्वोत्पादी दिन १ मास तक इसे सेवन करें । अथवा उपरोक्त | गजबलोऽश्वयवःपुनर्युवाष्टौ वर्षशतान्याचूर्ण में शहद मिलाकर मिलावे के क्वाथ या| युरवाप्नोति । तस्याणुतलमभ्यंगार्थे अज. मुनक्का के काथ अथवा आमले के रस के साथ | कर्णकषायमुत्सादनार्थे सोशीरं कूपोदकं वा गिलोय के रसके साथ १ मास तक सेवन | स्नानार्थे चन्दनमुपलेपनार्थे भल्लातककरें। इस प्रकार यह पांच प्रयोग हुवे । इनमें से | विधानवदाहारः परिहारश्च ॥ चाहे जो सेवन किया जा सकता है। इसके सेवन १६ सेर वायबिडंग लेकर उसे पीसलें और से बवासीर और कृमि रोग का नाश होता है एवं । फिर उसे बायबिडंग के कषाय में स्वेदन करें।
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आकारादि-घृत
(१४७)
जब बायबिडंग उसीज जाय (स्विन्न हो जाय) | उन्हें भी उपरोक्त विधि से दूर कर देना चाहिये ।
और सब पानी जल जाय तो उसे नीचे उतार कर | चौथे मास में दांत, नख और केशादि गिरने शिलापर पीसें और फिर उसमें शहद और पानी | लगेंगे । फिर पांचवें महीने में शुभ लक्षण प्रकट (बायबिडंगका कषाय) मिलाकर लोहेके मज़बूत
होंगे । इसके पश्चात् शरीर सूर्य के समान अपूर्व घड़ेमें भरकर बन्द करके राख के ढेरमें दबा दें
तेजोमय हो जायगा । श्रवण शक्ति तथा नेत्र ज्योति और बरसात भर वहीं दबा रहने दें। फिर उसे
अत्यन्त तीव्र हो जायगी। वह मनुष्य तमो गुण बरसात के ४ महीने बीत जाने पर निकाल कर विरेचनादि के द्वारा शरीर शुद्धि करने के बाद
और रजोगुण दूर हो जाने के कारण केवल सतोसहस्त्र आहुतियों से हवन करके यथा बल प्रातः
गुणी हो जायगा । इस प्रयोगका प्रयोगी अपूर्व काल सेवन करें और औषधि पच जाने पर मूंग
| वेदवक्ता, हाथी के समान बलवान, घोड़े के समान तथा आमले के अलूने (लवण-रहित) किश्चित
शीघ्रगामी एवं यौवन संपन्न होकर ८०० वर्ष पर्यन्त घृतयुक्त यूषके साथ घृतयुक्त भात खाएं । एवं
जीवित रह सकता है । उस मनुष्य को अणुतैल रेतीमें सोया करें । इस प्रयोग से १ मास पश्चात्
की मालिश, अजकर्ग (पलाश भेद) के कषाय-कल्क शरीर से कृमि निकलेंगे उस समय शरीर पर "अणु | से उद्वर्तन एवं उशीर-खस-युक्त कुंवेके जलमें तेल" की मालिश करके उन कृमियों को बांसकी स्नान और चन्दन का उपलेपन करना चाहिये चिमटी से अलहदा कर दें । दूसरे मास में शरीर | तथा अन्य समस्त आहार विहार, भिलावा सेवन से चींवटियां और तीसरे मास में जुवें निकलेंगी | की विधि के अनुसार करना चाहिये ।
अथ आकारादि घृतप्रकरणम् [४१९] आनन्दभैरवघृतम् । [४२०] आमलकघृतम् (र. र. स. अ. २१)
(च. सं. चि. अ. १) एरण्डतैलं त्रिफला गोमूत्रं चित्रकं विषम। आमलकानां सुभूमिजानां कालजानामनुसर्पिषा सहितं पक्त्वा सर्वाङ्ग तेन मर्दयेत॥ | पहतगन्धवणेरसानामापूर्णरसप्रमाणत्वग्वातनं महाश्रेष्ठं घृतमानन्दभैरवम् ।
वीर्याणां स्वरसेन पुनर्नवाकल्कपादसंयुक्तेन लशुनं सैन्धवं तैलमनुपानं प्रकल्पयेत् ॥
सर्पिषः साधयेदाढकम् । अतः परं विदारीत्रिफला, चीता और शुद्ध मीठे तेलिये के स्वरसेनजीवन्तीकल्कसंप्रयुक्तेन अतः परं कल्क और गोमूत्र के साथ अरण्डी का तेल और | चतुगुणेन पयसा वा बलातिबलाकषायेण घृत बराबर मिलाकर यथा विधि पाक सिद्ध करें। शतावरीकल्क संयुक्तेन अनेन क्रमेणैकैकं इसकी मालिश से त्वग्गत वायु का नाश होता है। शतपाकं सौवर्णे राजने मातिके वा शुचौ यदि इसे खाने के लिये देना हो तो ल्हसन, सेंधा- | दृढे घृतभाविते कुम्भे स्थापयेत् । तयथोक्तेन नमक और तैल का अनुपान देना चाहिये। । विधिना यथामिं प्रातः प्रयोजयेत् । जीणेच
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(१४८)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
क्षीरसपियां शालिषष्टिकमश्नीयात् अस्य । काथ । इन में से प्रत्येक वस्तु समान भाग लेकर त्रिवर्षेप्रयोगाद्वषेशतं वयोऽजरं तिष्ठति । उनके साथ सबके वजन से चौथाई घृत का पाक श्रुतमवतिष्ठते सर्वामयाः प्रशाम्यन्ति अपति- सिद्ध करें। इसके सेवन से पित्तगुल्म का नाश हतगतिः स्त्रीष्वपत्यवान् भवतीति ॥ होता है।
उत्तम भूमि में यथोचित कालमें उत्पन्न हुवे । [४२२] आवर्तकीघृतम् (ग. नि.) गन्ध, वर्ण और रससे परिपूर्ण वीर्यवान् आमलों के आवर्तकीमूलशतं सुसिद्धम् स्वरस और चौथाई माग पुनर्नवा के कल्क के साथ ____ काथीकृतं कल्कपलाष्टयुक्तम् ।। ४ सेर घृत सिद्ध करें । फिर उसे बिदारीकन्द के प्रस्थं पुराणाद्धविषः सुगव्यात् स्वरस और जीवन्ती के कल्क के साथ, इसके बाद | पकं शनैः साधु तदावतार्य ॥ चार गुने दूध और बला, अतिबला के कषाय और मात्रां पिबेद्वयाधिवलानुरूपां शतावर के कल्क के साथ सिद्ध करें। उपरोक्त भुजीत चानं सह काक्षिकेन । प्रयोगोंमें से एक के साथ १००-१०० अथवा द्रवोत्तरं कोद्रव सुजीर्णे हजार हजार बार घृत सिद्ध करके चौथा भाग
कामं पुरस्तादपरेऽहि शुद्धात् ॥ खांड और शहद मिलाकर सोने चांदी या मिट्टीके त्रिसप्तरात्रं विधिनवमाशु मज़बूत, स्वच्छ और घृतसे चिकने घड़ेमें भरकर ___ पीतं निहन्यादचिरेणकुष्ठम् । रक्खें । इसे यथोक्त विधि के अनुसार अमिबलानु- खबवणं भग्ननखाङ्गदेहं कुल मात्रा से प्रातः काल सेवन करें और इसके मण्डानुपूर्ध्या विधिनाथ चैतत् ॥ पच जाने पर दूध और घी के साथ साली या साठी । ६। सेर दन्तीमूल के काथ और उसीके ४० चावल का भोजन करें । इसे ३ वर्षे तक सेवन | तोला कल्क से २ सेर पुराना गोघृत मन्दाग्नि पर करने से १०० वर्ष तक यौवनावस्था स्थिर रहती | सिद्ध करें । है । समस्त रोग शान्त हो जाते हैं एवं वह सन्ता- इसे रोगानुसार उचित मात्रा में सेवन करना नोत्पत्ति में समर्थ होजाता है।
चाहिये और विरेचन होने के पश्चात् शामको काजी [४२१] आमलक्यादि घृतम् युक्त आहार एवं उसके पच जाने पर कोदों का (बृ. नि. र. गुल्म)
| काथ सेवन करना चाहिये । इस प्रकार इसे विधिरसेनामलकेक्षणां घृतपादं विपाचयेत् । वत् २१ दिन सेवन करने से स्रावयुक्त व्रण एवं पथ्यायाश्च पिबेत्सर्पिस्तत्सिद्धं पित्तगुल्मनुत् ॥ गलित कुष्ट जिसमें नख और शरीरावयव गल
आमले का रस, ईखका रस और हरीतकी का ' गए हों नष्ट होता है।
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आकारादि-तैल
(१४९)
अथ आकारादि तैल प्रकरणम् [४२३] आगारधूमतैलम् फिर उत्पन्न नहीं होते। (वृ, नि., भा. प्र. उपदंशे)
[४२५) आरग्वधाद्य तेलम् आगारधूमो रजनी सुराकिण्वं च तैत्रिभिः ।
(भा. प्र. म. खं, भै. र. कुष्ठा) भागोत्तरः पचेत्तलं कण्डु शोथरुजापहम् । आरग्वधं धवं कुष्ठं हरितालं मनःशिला । शोधनं रोपणं चैव सवर्णकरणं तथा ।
| रजनीद्वयसंयुक्तं पचेत्तैलं विधानवित् ॥ ___धरका धुवां १ भाग, हल्दी २ भाग, सुरा- | एतेनाभ्यञ्जनादेव क्षिप्रं श्वित्रं विनश्यति ॥ किण्व ३ भाग । इन पदार्थो से सिद्ध तैल खुजली, अमलतास, धव, कूट, हरताल, मनसिल, सूजन और पीड़ा नाशक तथा शोधन, रोपण | हल्दी और दारुहल्दी । इनके कल्क से सिद्ध तैल (घाव को शुद्ध करने और भरने वाला) एवं नवीन | श्वेत कुष्ठ का अत्यन्त शीव्र नाश करता है। त्वचाके रंगको ठीक करने वाला है। [४२६] आदित्यपाक तैलम् [४२४] आरग्वधादितैलम्
(बृ. नि. र., वा. र.) (र. र. यो. व्या)
मञ्जिष्ठात्रिफलालाक्षालाङ्गलीरात्रिगन्धकैः। आरग्वधमलपलं कर्षद्वितीयन्तु शङ्खचूर्णस्य। चूर्णितस्तैलमादित्यपाकं पामाहरं परम् ॥ हरितालस्य च खरस्य मूत्रप्रस्थे कटुतैलम् ॥ मजीठ, त्रिफला, लाख, कल्हारी, हल्दी और पक्कं तैलन्तु दत्वा सशंखहरितालचूर्णित लेपात गन्धक । इनके कल्क से सिद्ध तैल पामा (खुजली) निर्मूलयति हि रोमाण्यन्येषां सम्भवो नैव ॥ | नाशक है। खरोगर्दभःशंखहरितालयोमिलित्वा पादिकत्वम् [४२७] आरनालतैलम् (पृ. नि. र., वा.र.)
अमलतास की जड़ ५ तोला । शंख चर्ण २॥ | आरनालाडके तैलं पादसर्जरसं भृतम । तोला। हरताल २॥ तोला । इनके कल्क और २ सेर प्रस्थस्ये निर्जिते तोये ज्वरदाहातिनुत्परम् ॥ गधे के मूत्र के साथ कड़वा तेल सिद्ध करें इस | आरनाल ८ सेर और सर्ज रस का क्वाथ तेलमें चौथा भाग शंख और हरताल का चूर्ण | १ सेर इनसे २ सेर तैल सिद्ध करें । यह तैल ज्वर मिलाकर लेप करने से बाल उड़ जाते हैं और एवं दाह का नाश करता है।
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१५०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
अथ आकारायासवप्रकरणम् [४२८] अवर्तक्याद्यासवः ( ग.नि.) । दद्रु मासयुगलेन निश्रितम् ॥ नेत्रभेषजशिफापलाष्टकं
सनाय की जड़ ४० तोला, एलवा ७॥ तोला, सार्धमैलपलमधमस्तकीम् । | रूमीमस्तकी २।। तोला, रेवन्द चीनी २॥ तोला । हेमजापलमेकतः कृतं
| सबको ३२ सेर पानी में मिलाकर सन्धान करके द्रोणवारिमिलित दिनत्रयात् ।। ३ दिन तक रक्खा रहने दें। पश्चात् छानकर यः पिबेद्विपलिंक दिनोदये रखें । इसे प्रातः और सायंकाल १० तोलेकी
नीरमस्तसमये समाहितः। मात्रा में २ मास तक सेवन करने से कमर का तस्य नश्यति कटि समुद्भवं दाद मिट जाता है।
अथ आकारादि लेपप्रकरणम् [४२९] आमवातहरो (अहिंस्त्रादि)लेपः। आमकी गिरी और है। दोनों समान भाग (यो.र.)
लेकर चर्ण करके दूधमें पीसकर लेप करनेसे भयंकर अहिंसाकेम्बुकामूलं शिग्रु वल्मीकमृच्च यैः। दारूणका नाश होता है। मूत्रपिष्टै श्च कर्तव्य उपनाहोऽनिलामजित् ॥ [४३१] आरग्वधादिलेपः (कृ.नि.र.त्वग्दोघे) कटेली, सुपारी की जड़, सौंजना और दीमक
आरग्वधदलैःपिष्टैर्लेपकांजिकयुक्कृतः । की मिट्टी । इन्हें गोमूत्रमें पीसकर लेप करनेसे आमवात (गठिया) का नाश होता है।
करित्वक्दद्रुकुष्ठानि हन्ति पामां विघर्चिकाम् ॥ [४३०] आम्रबिजादिलेपः (वृ.नि.र.क्षुद्र.) अमलतास के पतों को कांजी में पीसकर लेप आम्रबीजस्य चूर्ण तु शिवाचूर्ण समं द्वयम् । | करने से करित्वक, दाद, कुष्ट, पामा और विचर्चिका दुग्धपिष्टःप्रलेपोऽयं दारुणं हन्ति दारुणम् ॥ . का नाश होता है।
___ अथ आकारादि नस्यप्रकरणम् [४३२] आरग्वधादि नस्य और लेप [४३३] आर्द्रकादिनस्यम् (१) (वृ. नि. र, वृ. मा. ग्रन्थ्या )
(वृ. नि. र. सन्नि.) आरग्वधशिफां पिष्ट्वा सम्यक्तन्दुलवारिणां। आद्रेकखरसोपेतं सिन्धुत्थं सकटुत्रिकम् । तेन नस्यप्रलेपाभ्यां गंडमाला समुद्धरेत॥ प्रबोधाय मुखे दद्यान्नस्य वा मरिचेन च ॥ ___ अमलतासकी जड़को चावलोंके पानी में पीसकर अद्रकके स्वरसमें सेंधानामक और त्रिकुटे का नास लेने और लेप करनेसे गण्डमाला का नाश चर्ण मिलाकर रोगी के मुखमें लगाने ( जीभ आदि होता है।
में मलने ) से अथवा काली मिरचों की नसबार
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आकारादि-रस
(१५१ )
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देनेसे मूर्छा ( बेहोशी ) दूर होती है। फूल और मुलैठीके चूर्ण को स्त्री के दूध में मिलाकर [४३४] आर्द्रकादिनस्यम् (२) नास लेनेसे नकसीर बन्द होती है।
(वृ. नि. र. रक्तपि.) [४३५] आम्रादिनस्यम् (वृ.नि.र. रक्तपि.) शृंगगैरिकयौः कल्कं धातक्या मधुकस्य च। आम्रास्थि च पलाण्डुर्वा नासिकाच्युतरक्तजित् । घाणसु ते सृजिप्रोक्तं योषरक्षीरेण नावनम् ॥ आमकी गिरी या प्याज के रसकी नसवार अदरक ( सोंठ) और गेरूको अथवा धायके | लेने से नकसीर बन्द होती हैं।
___ अथ आकारादि रसप्रकरणम् [४३६] आदित्यरसः (वृ.नि.र. अजी.) । द्विगुजं भक्षयेन्नित्यं हन्ति मेहं चिरोद्भवम् ।। दरदं च विष गन्धं त्रिकटु त्रिफला समम् । | गुञ्जामूलं तथा क्षौद्रेग्नुपानं प्रशस्यते । जातीफलं लवङ्ग च लवणानि च पञ्च वै ॥ बंग भस्म, स्वर्ण भस्म और सिन्दूर। इन्हें सर्वमेकीकृतं चूर्णमम्लयोगेन सप्तधा । | समान भाग लेकर शहद में घोटकर दो दो रत्ती भावयित्वा वटी कुर्याद् गुञ्जाधप्रमितां बुधः।। की गोलियां बनावे ! इसे चोटली की जड़ के चूर्ण रसोयादित्यसंज्ञोयमजीर्णक्षयकारकः । और शहद के साथ सेवन करते से पुराना प्रमेह भुक्तमानं पाचयति जठरानलदीपनः॥ नष्ट होता है। शुद्ध शिंगरफ, शुद्ध मीठा तेलिया, शुद्ध
| [४३८] आनन्दभैरवो रसः (२) गन्धक, त्रिकुटा, त्रिफला, जायफल, लौंग और पांचों |
( भै.र;बृ.नि.र; अति.) नमक । सब चीजों का चूर्ण समान भाग लेकर
दरदं मरिचं टङ्गममृतं मागधीसमम् ।। सबको एकत्र करके + अम्ल वर्ग अथवा कांजीकी
श्लक्ष्णविष्टन्तु गुञ्जकं रसमानन्दभैरवम् ।। सात भावना देकर आधी रत्ती की गोलियां बनावें ।
लेहयेन्मधुना चानु कुटजस्य फलत्वचोः। यह रस अजीर्ण नाशक, अग्निदीपक और पाचक है [४३७] आनन्दभैरवो रसः (१)
चूर्णितं कर्षमात्रन्तु त्रिदोषोत्थातिसारजित् ।। (र. चि. म. अ.९)
दध्यन्नं दापयेत् पथ्यं दध्याज्यं तक्रमेव वा । बंगभस्म मृतं स्वर्ण रसं क्षौद्रविमईयेत् ।
पिपासायां जल देय विजया च हिता निशि ॥
शुद्ध शिंगरफ, काली मिर्च, सुहागेकी खील, मम्लवेतसजम्बोरलुमाम्लवणकाम्लकाः ।
शुद्ध मीठा तेलिया और पीपल सब चीजें समान भाग नारंगं तिन्तिडी च चिचापत्रञ्च निम्बुकम् ॥
लेकर महीन चूर्ण करके रक्खें । इसे १ रत्ती की चालेरी दाडिमञ्चव करमर्द तथैव च। मात्रा में शहद तथा इन्द्रयव और कुड़े की छाल के पष चाम्लगणः प्रोक्तो वेतसाम्लसमायुतः ॥ तोला चर्ण के साथ सेवन करने से त्रिदोषज ___ भन्लवेत, जम्मीरी नींबू, विजौरा नींबू, चनेका खार, |
अतिसार का नाश होता है। पथ्य-दही भात, नारजी, तिन्तिडी, इमली के पत्ते, नींबू, चांगेरी, दाडिम और कमरख । इन चीजों का नाम अम्लवर्ग है। बकरी का दही तथा तक (छाछ ) और जब प्यास
+ अम्लवर्ग
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(१५२)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
लगे तब शीतल जल देवे तथा रात्रीमें थोडी भांग । करता है। शुद्धकर घोट छानके पीवे तो यह अतिसार वालेको | [४४१] आनंदरसः (वृ. नि. र. अति.) हीतकारक होती है।
जातीफलं सैन्धवहिङ्गुलश्च [४३९] आनन्दभैरवो रसः (३)
वराटशुण्ठीविषहेमबीजम् । (भै. र, अति.)
सपिप्पलीकं वटिकां च हिङ्गुलश्च विषं व्योषं टङ्गनं गन्धक समम् । कुर्याद्गुंजाप्रमाणां जठरामयघ्नीं ॥ जम्बीररससंयुक्तं मर्दयेद्याममात्रकम् ॥ निहन्ति वातं कफशूलमात्रकासश्वासातिसारेषु ग्रहण्या सानिपातिके । मामातिसारं ग्रहणीविकारम् । अपस्मारेऽनिले मेहऽप्यजीणें वह्निमान्धके । । निहन्ति शुष्कं सितया गुञ्जामात्रः प्रदातव्यो रसो ह्यानन्दभैरवः॥ । समेतं रसोयमानंद इति प्रदिष्टः ॥ ___ शुद्ध सिंगरफ, शुद्ध मीठा तेलिया, त्रिकुटा, | ___ जायफल, सेंधा लवण, शुद्ध शिंगरफ, कौड़ी सुहागेकी खील और शुद्ध गन्धक सब चीजें समान | भस्म, सोंठका चूर्ण, शुद्ध मीठा तेलिया, धतूरे के भाग लेकर महीन चूर्ण करके एक पहर तक जम्बीरी | बीज और पीपल । सब चीजें समान भाग लेकर नींबू के रस में धोटें। इसे १ रत्तीकी मात्रा में सेवन | घोट कर एक एक रत्ती की गोलियां बनावें । करने से खांसी, श्वास, अतिसार, संग्रहणी, सन्नि- इनको खांडके साथ सेवन करने से उदररोग, वात, पात, अपस्मार, वातव्याधि, प्रमेह, अजीर्ण और | कफशूल, आमातिसार, संग्रहणी और मुखिया मसान मन्दाग्नि का नाश होता है।
का नाश होता है। [४४०] आनन्दभैरवो रसः (४) [४४२] आनन्दोदय रसः (भै. र. पाण्डु)
(र. रा. सुं. श्वासे.) पारदं गन्धकं लोहमभ्रकं विषमेव च । पारदं गन्धकं चैव भृङ्गराजेन मर्दयेत् ।। समांशं मरिचं चाष्टौ टङ्कणश्च चतुर्गुणम् ॥ हिङ्गुलं च विषं व्योष टङ्कणं मगधा समम् ।। | भृङ्गराज रसैः सप्त भावना चाम्लदाडिमैः । मातुलुङ्गरसर्मद्य रसमानन्दभैरवम् । गुञ्जाद्वयं पर्णखण्डे खादेत सायं निहन्ति च॥ कासे खासे क्षये गुल्मे ग्रहण्या सान्निपातिके ॥ वातश्लेष्मभवान् रोगान् मन्दाग्नि ग्रहणी ज्वरान् अपस्मारे महाघोरे शस्तमानंदभैरवम् ।। अरुचिं पाण्डुताश्चैव जयेदचिरसेवनात् ॥ ___ शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धक समान भाग | नष्टमग्नि करोत्येष कालभास्करतेजसम् । लेकर कजली करके भांगरे के रस में घोटें फिर पर्वतोऽपि हि जिर्यंत प्राशनादस्य देहिनः॥ इसमें शुद्ध शिंगरफ, शुद्ध मीठा तेलिया, त्रिकुटा, गर्वनमम्लमाषश्च भक्षणादेव जीर्यति । सुहागेकी खील और पीपल । इनमें से प्रत्येक का
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोहभस्म, अभ्रकचूर्ण पारेकी बराबर मिलाकर बिजौरे नींबू के रस | भस्म और शुद्ध मीठातेलिया १-१ भाग, काली में खरल करें। यह खांसी, श्वास, राजयक्ष्मा, गुल्म, | मिर्च ८ भाग, सुहागेकी खील ४ भाग । प्रथम संग्रहणी, सन्निपात और घोर अपस्मार का नाश पारागन्धककी कजली बनावें फिर उसमें अन्य
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आकारादि-रस
(१५३)
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द्रव्य मिलाकर भांगरे के रस और खट्टे अनार के , भाग शुद्ध मीठे तेलिये का चूर्ण मिलाकर चीतेके रसकी ७-७ भावना दें। इसे २ रत्ती की मात्रा रसमें घोटकर २-२ या ३-३ रत्तीकी गोलियां में सायंकाल के समय पानमें रखकर सेवन करने | बनाएं । इसके सेवन से वातव्याधि, अपस्मार, से वातश्लेष्मज रोग (वायु और कफके रोग), | उन्माद, सींग पीड़ा, आमवात, हनुस्तम्भ और मन्दाग्नि, संग्रहणी, ज्वर, अरुचि और पाण्डु का शैत्य आदि का नाश होता है। नाश होता है । इसके सेवनसे गुरु अन्न, अम्ल [४४५] आमवातारिरसः (भै. र.,आ. वा.) तथा उडद आदि जीर्ण हो जाते है । रसो गन्धो वरा वह्निर्गुग्गुलुः क्रमवद्धितः । [४४३] आमलक्यादि लोहः एतदेरण्डपत्रेण श्लक्ष्णचूर्ण विमर्दयेत् ॥
(र. सा. सं., रक्तपि.) काशैरण्डतैलेन हत्युष्णजलपायिनः । आमलापिप्पलीचूर्ण तुल्यया सितया सह। | आमवातवते देयं दुग्धमुद्गादि वर्जयेत् ।। रक्तपित्तहरं लौहं योगराजमिदं स्मृतम् ॥ शुद्ध पारा १ भाग, शुद् गन्धक २ भाग, वृष्याग्निदीपनं बल्यमम्लपित्तविनाशनम् । त्रिफला ३ भाग, चीता ४ भाग, शुद्ध गूगल ५ पित्तोत्थानपि वातोत्थनिहन्ति विविधान् गदान भाग । प्रथम पारा गन्धककी कजली बनावें फिर
___ आमला १ भाग, पीपल १ भाग, चीनी २ | उसमें द्रव्यों का चूर्ण मिलाकर अरण्ड के पत्तों के भाग, लोह भस्म ४ भाग । सबको महीन करके रसमें घोटकर रक्वें । इसे ११ तोला अरण्ड के रक्खें । यह रस वृष्य, अग्नि दीपक, बलकारक,
| तेल के साथ दें और ऊपर से गरम पानी पिलाएं अम्लपित्त नाशक तथा पित्तज और वातज अनेक
तो आमवात का नाश होता है। पथ्य-मूंग इत्यादि। रोगों का नाश करने वाला है।
[४४६] आमवातेश्वरो रसः [४४४] आमवातविध्वंसनो रसः ।
(भै. र., आ. वा.) (बृ. नि. र., आ. वा.)
शुद्धगन्धपलार्धश्च मृततानं च तत्समम् । प्रक्षिप्य गन्धं रसपादमागं
| ताम्राई पारदं देयं रसतुल्यं मृतायसम् ॥ कलाप्रमाणं च विष समस्तात् ।
सर्व पश्चाङ्गुलदले ढालयेन्निपुणःकृती। कृशानुतोयेन च भावयित्वा
सञ्चूर्ण्य पञ्चकोलस्य सर्व काथे विमर्दयेत् ॥ वल्लं ददीतास्य मरुत्प्रशांत्यै ॥
रौद्रे विंशतिवारांश्च गुडुचीनां रसर्दश । अपस्मारे तथोन्मादे सर्वाङ्गव्यथनेपि च । | भृष्टटङ्कणचूर्णन तुल्येन सह मेलयेत् ॥ एकाङ्गवाते सामे वा दंष्ट्राबन्धे हिमे तथा॥ टकणाध विडं देयं मरिच विडतुल्यकम् । देयोय वल्लमात्रं तु सर्ववातनिवृत्तये ॥ तान्तडाबाजचूण तु सूतुल्यं च दन्तिका ॥
शुद्ध पारद ४ भाग, शुद्ध गन्धक १ भागx/ त्रिकटु त्रिफला चैव लबङ्गश्चार्धभागिकम् । होनों की कजली करके उसमें सबका सोलहवां आमवातेश्वरो नाम विष्णुना परीकीर्तितः ॥ ___x यहां पारा १ भाग और गन्धक ४ भाग
महाग्निकारको ह्येष चामवातकुलान्तकः । यह अर्थ निकलता है।
स्थूलानां कुरुते कार्य कृशानां स्थौल्यकारकम्
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(१५४)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
अनुपानवशेनैव सर्वरोगकुलान्तकः । रसोगन्धकणामूलं वंशजं जयपालकम् । साध्यासाध्यं निहन्त्याशु चामवातं सुदारुणम् ॥ व्योषं च बाणलवणं विडं चंद्रलवं क्षिपेत् ॥ भोजयेत्कण्ठपर्यंत चतुर्गुआमित रसम् । | ताम्बूलरसतोमा दिनं ताम्बूलपत्रयुक् । कट्वम्लतिक्तरहितं पिबेत्तदनुपानकम् ॥ दत्तो नवज्वरं हन्ति तापे शीतक्रियोचिता ।। शीघ्रं जीर्य्यति तत्सर्व जायते दीपनः परः। सर्वज्वरे सन्निपातं ददेत्तं तु द्विगुंज कम् । अनेन सदृशो नास्ति वह्नि संदीपनो रसः ॥ | आरोग्यरागिनामायं रसः परमदुर्लभः ॥ गुल्माझे ग्रहणीरोगशोथपांडूदरापहः ॥ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, पीपलामूल, वसलो___ शुद्ध गंधक २॥ तोला, ताम्रभस्म २॥ तोला, | चन, शुद्ध जमालगोटा, त्रिकुटा, पांचों लवण, विड शुद्ध पारा ११ तोला, लोहभस्म १॥ तोला । सबकी | नमक और कपूर सब समान भाग लेकर प्रथम कजली करके यथाविधि अरण्ड पत्रपर ढालकर | पारा गन्धककी कजली बनावें फिर उसमें अन्य पर्पटी बनाएं फिर उसे पीसकर पंचकोल के क्वाथ | द्रव्योंका चूर्ण मिलाकर एक दिन पान के रसमें में घोटें और धूपमें सुखा दे । इसी प्रकार २०
| घोटें । इसे २ रती की मात्रा में पानमें रखकर भावना पञ्चकोल के क्वाथकी और १० भावना | सेवन करने से नवीन ज्वर और सन्निपातादि सब गिलोय के रसकी देकर उसमें सुहागेकी खील प्रकार के ज्वरों का नाश होता है । यदि सन्ताप सबके बराबर, विड लवण सुहागे से आधा, काली
| अधिक हो तो शीत-क्रिया करनी चाहिये। मिर्च का चूर्ण बिड लवण के बरावर, तिन्तडीक [४४८] आरोग्यवर्द्धनी गुटीका [रस] के बीज १। तोला, दन्ती १। तोला, त्रिकुटा,
(र. र. स., अ २०) त्रिफला और लौंग प्रत्येक ७॥ माशा सबको । रसगंधकलोहाभ्रशुल्वभस्म समांशकम् । मिलाकर खरल करे।
त्रिफला द्विगुणा योज्या त्रिगुणं तु शिलाजतु।। ___ यह रस अत्यन्त अग्निवर्द्धक और आमवात | चतुर्गुण पुरं शुद्धं चित्रमूलं च तत्समम् । के लिये अत्यन्त उपयोगी है। इसके सेवनसे | तिक्ता सर्वसमा ज्ञेया सर्व संचूर्ण्य यत्नतः॥ अनुपयोगी स्थूलता तथा कृशता नष्ट होकर शरीर | निववृक्षदलांभोभिर्मदयेद् द्विदिनावधि ।। सुडौल हो जाता है । यह अनुपान भेद से सब ततश्च वटिकाःकार्या राजकोलफलोपमाः ॥ रोगों का नाश करता है । अत्यधिक भोजन करने | मण्डलं सेविता सैषा हन्ति कुष्ठान्यशेषतः । के बाद यदि इसमें से ४ रत्ती दवा खा ली जाय | वातपित्तकफोद्भूतावामानाप्रकारजान् ॥ तो वह सब पच जाता है। इसके समान अग्नि- | देया पञ्चदिने जाते ज्वरे रोगे वटी शुमा । संदीपक, गुल्म, बवासीर, ग्रहणी, शोथ, पाण्डु पाचनी दीपनो पथ्या हया मेदोविनाशिनी।।
और उदररोग नाशक अन्य औषधि नहीं है। मलशुध्धिकरी नित्यं दुर्धर्ष क्षुत्प्रवर्तिनी । अनुपान ---मधुर, कषाय और लवण रसयुक्त पदार्थ।। बहुनात्र किमुक्तेन सर्वरोगेषु शस्यते । [४४७] आरोग्यरागि रसः आरोग्यवर्धनी नाम्ना गुटिकेयं प्रकीर्तिता ।
(वृ. नि. र., ज्वरे) सर्वरोगप्रशमनी श्रीनागार्जुनयोगिना ॥
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आकारादि-रस
(१५५)
___ शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, लोहभस्म, अभ्रकभस्म । हन्यात्पाण्डुरोचकं गुदगदं वातं च पित्तं कर्फ
और ताम्रभस्म १-१ माग, त्रिफला २ भाग, शुद्ध गुल्माध्मानकशोफरोगमथ च श्वासं शिरोति शिलाजीत ३ भाग, शुद्ध गूगल ४ भाग, चीतामूल
वमिम् । ४ भाग और कुटकी सबके बराबर । प्रथम पारा
अत्यर्थानलमंदतां गुरुमुदावतं विचित्रज्वरान् । गन्धककी कजली बनाये, फिर उसमें अन्य द्रव्यों
| रोगानप्यपरारक्तिद्वयमितः सूतो
से का चूर्ण मिलाकर सबको दो दिन तक नीम के
मरीचाज्यवान् ।। पतों के स्वरसमें घोटकर बड़े बेरके बराबर गोलियां बनावें । इनके सेवन से मंडलकुष्ट, अन्य सब प्रका
___शुद्ध पारा ५ तोला, शुद्ध गंधक ५ तोला
| दोनों की कजली करले । उसमें सोनामक्खी भस्म रके कुष्ठ, वातज, पित्तज और कफज ज्वर आदिका
१० तोला, शुद्ध हरताल ५तोला, शुद्ध मनसिल ५ नाश होता है। इन्हें ज्वर आनेके पांचवें दिन से
| तोला, अभ्रकभस्म ५ तोला, सुखस्पर्शमणि ( स्फासेवन कराना चाहिये । यह गोलियां पाचनी, दीपनी, पथ्या, हृद्या ( हृदय के लिये हितकारी)
टिकमणि ) की भस्म १। तोला मिलाकर खरल मेद नाशक, मलशोधक, अत्यन्त क्षुधावर्द्धक तथा
करके मूषामें भरकर उसका मुख ३॥ तोला अन्य सर्व रोग नाशक हैं।
वजनी तांबेके शुद्ध पत्रसे बन्द कर दें एवं उसके [४४९] आरोग्यसागरो रसः
उपर मजबूत कपर मिट्टी करके सुखालें और अपने (र. र. स. अ. १९)
उपलों की अग्निमें गजपुट लगादें । जब स्वांगशीत एकैकपलगन्धाश्मरससंभवकजलीम् ।।
हो जाय तो निकाल कर खरल करें और उसमें तस्य मध्येद्विपलिक ताप्यं तापलोमितमा शुद्ध गंधक,शुद्ध हरताल तथा शुद्ध मनसिलका चूर्ण पलमात्रां मनोहां च पलमभ्रकभस्मकम।। पारे के बराबर मिलाकर वग़ह पुटमें फूंके । इसी सुखस्पशेस्य कर्ष च निक्षिप्य परिमर्य च ॥ प्रकार १० पुट दें। मृपामध्ये विनिक्षिप्य पिनद्धांतमुखीं ततः।।
| हर पुटमें गन्धक. हरताल और मनसिल मिलाते पत्रेण शुद्ध ताम्रस्य निर्मलेन त्रिकर्षिणा ॥ रहें । इसके बाद उसमें सबके वजन से वीसवां मूषा मृद्धिः सवस्राभिः परिरुच्य यथा दृढम् । भाग वैक्रान्त भस्म मिलाकर घोटकर कपरछन करके परिशोष्य गिरिडैश्च पुटेद् गजपुटेन हि ॥ चांदीकी शीशी (करंड) में भरकर रक्खें । खाङ्गशीतं समुद्धृत्य खोटीभूतं विचूर्णयेत् । इसके सेवनसे पाण्डु, अरुचि, गुदरोग, वातगन्धतालशिलाचूर्णैः सहितं खल्वचूर्णकम् ॥ | व्याधि, पित्तज और कफजरोग, गुल्म, अफारा, पुटेल् क्रोडपुटे चैव दशवारं ततः परम् ।। सूजन, श्वास, मस्तक पीडा, वमन, अत्यन्त अग्निक्षिपेद्विंशतिभागेन वैक्रान्तं भस्मतां गतम् ॥ मांद्य, भयंकर उदावत, नाना प्रकार के वर और विमद्य गालितं कृत्वा क्षिपेद्रौप्यकरंडके।। अन्य अनेक रोगोंका नाश होता है । अनुपान-- आरोग्यसागरो नाम रसोऽतिगुणवत्तरः ॥ । काली मिर्चका चूर्ण और धी।
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भारत-भैषज्य रत्नाकरे।
अथ इकारादि कषायप्रकरणम् (४५०) इन्द्रवारुणिमूलयोगः । गुल्मनाहामवातांश्च रक्तपित्तश्च नाशयेत् ।। (वृ. नि. र. अण्डवृद्धि)
_इन्द्रायनकी जड, कुटकी, नागर मोथा, कुठ, इन्द्रवारुणिकामूलं तैलं पुष्करजं तथा। | देवदारु और इन्द्रजौ श-१। तोला, अतीस ७॥ समर्थ च सगोदुग्धं पिबेजंतुः कुरण्डके ॥ माशा, मुलैठी २॥ तोला, सबको कूटकर गरम
इन्द्रायणकी जड ओर पोखरमूलको तैलमें पानीमें डालें और मल छानकर पिये फिर ऊपर से पीसकर गोदुग्धके साथ सेवन करने से अण्ड वृद्धिका | थोडासा शहद चाटलें। इसके सेवन से खांसी, नाश होता है।
श्वास, ज्वर, दाह, पाण्डु, अरुचि, गुल्म, अफारा, (४५१) इन्द्राणी मूलयोगः
आमवात और रक्तपित्तका नाश होता है ।
| [४५३] इक्ष्वादिकषायः ( वृ. नि. र. अण्डवृद्धि) वातारितैलमृदितं सुरवारुणीजं
(वृ. नि. र; ग. नि., भा. प्र. म. ख., र. पि.) मूलं नरः पिबति यो मसृणं विचूर्ण्य ।
इक्षणां मध्यकाण्डानि सकन्द नीलमुत्पलम् । गव्ये निधाय पयसि त्रिदिनावसाने
केसरं पुण्डरीकस्य मोचं मधुकपनके ॥ तस्य प्रणश्यति कुरण्डकृतो विकारः॥
वटमरोहशुङ्गाथ द्राक्ष खजूरमेव च । इन्द्रायणकी जडको अरण्डी के तेलमें महीन
एतानि समभागानि कषायमुपकल्पयेत् ॥ पीसकर गायके दूधके साथ ३ दिन तक सेवन
व्युपितं मधुसंयुक्तं कषायं शर्करान्वितम् ।
| सप्रमेहं रक्तपित्तं क्षिप्रमेतंन्नियच्छति ॥ करने से अण्ड वृद्धिका नाश हाता है।
__ईखका मध्यभाग (गन्ना) कन्द सहित निलो(४५२) इन्द्रवारुण्यादिफाण्ट
| फर, केसर, केलेका फूल (अथवा मोचरस) मुल्हैठी, ___ (च. सं. चि. अ. २०)
पद्माक, बड़की जटा और अंकुर, दाख और खजूर । विशाला १ कदुकामुस्तकुष्ठदारुकलिङ्गकान् ।
इनका शीत कषाय बना कर उसमें शहद और कार्षिकानकषांशान् कुर्यादतिविषां तथा ॥
खांड मिलाकर सेवन करने से प्रमेह और रक्तपित्त की मधुरसाया द्वौ १ सर्व चूर्ण सुखाम्बुना। का नाश होता है। मृदितं तं रसं पूतं पीत्वा लिह्याश्च मध्वनु ।
। त्रिफला मुस्तोति पाठान्तरम् - सर्वमेतकासं श्वासं ज्वरं दाहं पाण्डुरोगमरोचकम् । 'दिति पाठान्तरम्
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इकारादि-चूर्ण
(१५७
अथ इकारादि चूर्णप्रकरणम् [४५४] इन्द्रवारुणिचूर्णम् तुम्ब्याःफलरसैःशुष्कै सपुष्पैरवचूर्णितम् ।
___(वृ. नि. र., वा. व्या.) छर्दयेन्माल्यमाघ्राय गन्धसम्पत्सुखोचितः । इन्द्रवारुणिकामूलं मागधीगुडसंयुतम् । भक्षयेद् फलमध्यं वा गुडेन पललेन च । भक्षयेत्कर्षमात्रं तत्सन्धिवातं व्यपोहति ॥ | इक्ष्वाकुफलतैलं वा सिद्धं वा पूर्ववद् घृतम् ।।
इन्द्रायणकी जड़ और पीपलके चूर्णको गुड़ | पश्चाशदशवृद्धानि फलादीनां यथोत्तरम् । में मिलाकर १॥ तोला की मात्रा से सेवन करने से पिवेद्विमृद्य बीजानि कषायेष्वासुतं पृथक् ॥ सन्धिगत वायु का नाश होता है।
यष्टयाहकोविदाराद्यैर्मुष्टिमन्तनखं पिबेत् । [४५५] इन्द्रवारुण्यादिचूर्णम् | कषायैःकोविदाराद्यैर्मात्राश्चफलवत् स्मृताः॥ (. नि. र., शूले)
बिल्वमूलकषायेण तुम्बीबाजाञ्जलिं पचेत् । इन्द्रवारुणिकामूलं कटुत्रयसमन्वितम् ।। पूतस्यास्य त्रयोभागाःचतुर्थःफाणितस्य तु ॥ नभोम्बुना हरेत् पीतं शूलमत्यंतदुःसहम् ॥ | सघृतं बीजभागश्च पिष्टमर्धाशिकांस्तथा। ____ इन्द्रायणकी जड़ और त्रिकुटे का चूर्ण महाजालिनीजीमृतकृतवेधनवत्सकान् ।। पानीके साथ पीने से अन्यन्त दुस्सह शूल का | लेहयेत्साधयेद्दा घट्टयन मृदुनामिना। नाश होता है।
| यावत स्यात्तनुमत्तोये पतितं च न शीर्यते ॥ [४५६] इक्ष्वाकुकल्पः
| तं लिह्यान्मात्रया लेहं मन्थं चापि पिबेदनु । (च. सं. क. ३ अ.)
| कल्प एषोऽग्निमन्थादौ चतुष्के पृथगुच्यते ॥ अपुष्पस्य प्रवालानां मुष्टिं प्रादेशसंमिताम् ।
शक्तु भिर्वा पिबेन्मन्थं तुम्बीखरसभावितैः । क्षीरप्रस्थं भृतं दद्यात् पित्तोदिक्ते कफज्वरे ॥
कड़वी तोरी की १ मुष्टि प्रमाण (१२ अंगुल पुष्पादिषु च चत्वारःक्षीरे जीमूतके यथा । लम्बी पनि नि योगा हरितपाण्डूनां मुरामण्डेन पञ्चमः ॥
॥ नवीन कोमल शाखा लेकर उससे १ सेर दूध सिद्ध फलस्वरसभागश्च त्रिगुणक्षीरसाधितम् ।
करें । यह दूध पित्तोल्वण कफज्वर में वमनार्थ यवःस्थिते कफे दद्यात् स्वरभेदे सपीनसे ॥ | देना चाहिये । जीणे मध्योद्धृते क्षीरं प्रक्षिपेत्तद्यदा दधि। । जिस प्रकार जीमूतके, फल पुष्पादि-सिद्धजातं स्यात् कफजे कासे श्वासे वम्याच तप्तिबेद दुग्ध सम्बन्धी चार प्रयोगों की कल्पना की गई है अजाक्षीरेण बीजानि भावयेत् पाययेत च। उसी प्रकार इक्ष्वाकु (कड़वी तोरी) के पुष्पादि से विषगुल्मोदरग्रन्थिगण्डेषु श्लीपदेषु च ॥ सिद्ध दुग्ध के भी ४ योग होते हैं । *दधिमण्डै फलान्मध्यं पाण्डुकृष्ठज्वरादितः। जीमूतके समान ही इक्ष्वाकुके हरे पीले तेनतकं विपक्कं वा सक्षौद्रलवणं पिवेत् ॥ फलों से भी सुरामण्ड द्वारा एक प्रयोग की कल्पना * मस्तुनावेति पाठान्तरम्
करनी चाहिये।
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(१५८)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
उरःस्थित कफ, स्वरभेद और पीनस में १ । पहुंचाना चाहिये । इस प्रकार १०-२० ३०-४० भाग कड़वी तोरीके फलोंके स्वरससे ३ भाग दूध | और ५० बीजों के यह पांच योग होते हैं । सिद्ध करके देना चाहिये।
कड़वी तोरी के अन्तर्नखमुष्टि (अंगुठे का नख एक पुरानी कड़वी तोरी के बीचका गूदा | अन्दर करके भरी हुई मुट्ठी) बीज ले कर मुलैठी निकालकर उसमें दूध भरदें । जब दही जम जाय और कोविदारादि द्रव्यों के क्वाथ में पीस कर तो उसे कफज खांसी, स्वास और वमन में
वमनार्थ पिलाना चाहिये। प्रयोग करें।
____ इक्ष्वाकु को मदन फलके समान मात्रा में __कड़वी तोरी के बीजों को बकरी के दूध की | ग्रहण करके कोविदारिक आठ द्रव्यों के स्वाथ के भावना देकर चूर्ण करके उसे विषदोष, गुल्म, उदर- साथ पृथक् २ सेवन करे। यह आठ प्रयोग होते हैं । प्रन्थि, गण्डमाला और श्लीपद रोगमें सेवन
बेल की जड़ की छालके कषायमें २० तोले करना चाहिये।
कड़वी तोरीके बीजोंका चूर्ण मिलाकर पकाकर ___ कड़वी तोरी के गूदे को मस्तु (रही के पानी)।
छानले यह क्वाथ ३ भाग, राब (फाणित) १ भाग, के साथ सेवन करने से या उस गूदे के साथ
कड़वी तोरीके वीज १ भाग, घी १ भाग, महातक पकाकर उसमें शहद और सेंधा नमक मिला
जालिनी, जीमूत, कृतवेधन और इन्द्रजौ, प्रत्येक कर सेवन करने से पाण्डु, कुष्ठ और ज्वर का
का चूर्ण आधा आधा भाग । सबको मिलाकर नाश होता है।
मन्दाग्नि पर पकावे और करछी से चलाते रहे जब कड़वी तोरी के फूलों को उसके फलों के तार छुटने लगे और पानीमें डालने से फैल न जाय स्वरस के साथ सुखाकर चूर्ण करके उसे किसी | तो उतार लें । इसे मात्रानुसार खाकर ऊपरसे सुगन्धित मालामें छिड़ककर सुंघाने से वमन । मन्थ पीना चाहिये । हो जाती है।
इसी प्रकार सोना पाठा, खम्भारी, पाढल वमन के लिये इक्ष्वाकु के फलके गूदेको | और अरणी के क्वाथ से भी पृथक् २ चार लेह गड और तिलों के कल्क के साथ सेवन करना | बनाए जाते हैं। चाहिये अथवा उसके कल्क से सिद्ध तैल या
तूम्बीके रससे सत्तको भावना देकर उसका जीमतकल्प में वर्णित विधि से इक्ष्वाकुघृत बनाकर मंथ बनाकर वमनार्थ देना चाहिये । सेवन करना चाहिये।
____x कोई २ प्रथम योग ५० का मानकर कड़वी तोरीके बीज १० नग लेकर उन्हें
| उससे आगे १०-१० बढाते हुवे १०० तक मदनफलादि वमन कारक द्रव्यों में पीसकर आसुत पहुंचते हैं इससे यह ६ योग हो जाते हैं । करके पिलाएं इसी प्रकार बीजों की संख्या में यथा । इसके अतिरिक्त कोई २ आसुत (सन्धान) का क्रम १०-१० की वृद्धि करते हुवे ५० तक प्रथक प्रयोग मानते हैं।
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इकारादि-गुटिका
अथ इकारादि गुटिकाप्रकरणम् [४५७] इन्दुकला वटिका (भै. र. परिशि.) | [४५९] इन्द्रब्रह्मवटी (र. सा. सं. अपस्मारे) शिलाजत्वयसीहेमं संमार्जकवारिणा। मृतसताभ्रक तीक्ष्णं तारं ताप्यं विषं समम् । गुञ्जामात्रावटी कृत्वा कुर्याच्छायाविशोषिताः पाकेशरसंयुक्तं दिनैकं मर्दयेद् द्रवैः ॥ मसरिकायां विस्फोटे ज्वरे लोहितसंज्ञके। स्नुह्यग्निविजयैरण्डवचानिष्पावशूरणेः । एकैको दापयेदासां सर्वबणगदेषु च ॥ | निर्गुण्डयाश्च द्रवैर्मध तद्गोलं पाचयेत्पुनः ॥
शुद्ध शिलाजीत, लोह भस्म, स्वर्ण भस्म । सब | कंगुनीसर्षपोत्थेन तैलेन गन्धसंयुतम् । समान भाग लेकर अर्जक (तुलसी भेद) के रसमें | ततः पक्त्वा समुद्धृत्य चणमात्रा वटी कृता॥ घोटकर १-१ रत्ती की गोलियां बनाकर छाया में इन्द्रब्रह्मवटीनाम भक्षयेदाकद्रवैः । सुखावे । यह गोलियां मसूरिका, विस्फोटक, | दशमूलकषायश्च कणायुक्तं पिबेदनु ॥ लोहित ज्वर और बण आदि के लिये उपयोगी हैं। | अपस्मार जयत्याशु यथा सूर्योदये तमः॥ मात्रा एक गोली।
- रससिन्दूर, अभ्रक भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म, [४५८] हन्तुवटी (भै. र. कर्ण) चांदी भस्म, सोनामक्खी भस्म, शुद्ध मीठा तेलिया, शिलाजत्वभ्रलौहानि समानि हेमपादिकम् । | कमल केसर, शुद्ध गन्धक । सब चीजे समान काकमाचीवरीधात्रीपद्यानाम्भसा पृथक् ॥ | भाग लेकर थूहर के दूध, चीते की जड़के रस, भावयित्वा वटी कुर्याद् द्विगुञ्जाफलमानतः। भांग, एरण्ड, बच, सेम, जमीकन्द, और संभालु धात्रीतोयेन संमद्य प्रातःप्रातःप्रयोजयेत् ॥ | के रसमें १-१ दिन घोटकर गोला बनालें।। कणनादादयःसर्वे गदा वातोद्भवाश्चये। इस गोलेको कंगनी और सरसों के तैल में प्रमेहा विंशतिश्चापि नश्यन्त्येतभिषेवणात् ॥ | पकावें और फिर चनेके बराबर गोलियां बनाकर सुधावित्रावनादिन्दुर्जगतां तापहधथा। रक्खें । इन्हें अद्रक के रसके साथ खिलाकर तथैवेन्दुवटीनाम्ना रोगतापनिसदनी ॥ ऊपर से पीपल का चूर्ण मिलाकर दशमूल का काथ
शुद्ध शिलाजीत, अभ्रक और लोह भस्म, | पिलाया जाय तो अपस्मार का अत्यन्त शीघ्र प्रत्येक ४-४ भाग, स्वर्ण भस्म १ भाग । सव | नाश होता है। को एकत्र करके मकोय, शतावर, आमला और [४६०] इन्द्रवटी। कमल के रस में पृथक् पृथक् भावना देकर २-२ | (र. सा. सं, र. का. धे, प्रमेह) रत्ती की गोलियां बनावे । इन्हे आमले के रस में मृतं सूतं मृतं वङ्गमर्जुनस्य त्वचान्वितम् । घोटकर प्रातःकाल सेवन करने से कर्णनादादि तुल्यांशं मईयेत्खल्वे शाल्मल्यामूलजैवैः ॥ वातज रोग और २० प्रकार के प्रमेहों का | दिनान्ते वटिका कार्या माषमात्रा प्रमेहहा । नाश होता है।
एषा इन्द्रवटीनाम्ना मधुमेहप्रशान्तकृत् ।।
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(१६०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
रससिन्दूर, बंगभस्म और अर्जुन की छाल । | अपस्मारविषोन्मादनाशनं तद्रसायनम् ॥ सब समान भाग लेकर १ दिन सेंभल की जड के मुंई आमले का रस, ईख का रस, बंसलोचन, रसमें घोटकर १-१ माशे की गोलियां बनावें । प्रत्येक १-१ सेर, चीनी २५० तोला । कोंच के इनके सेवन से प्रमेह और मधुमेह का नाश | बीज, काली मिर्च, तेजपात, दालचीनी तथा होता है।
इलायची २०-२० तोला लें। [४६१] इक्ष्वादिमोदकं (वृ. नि. र., क्षय.) इनमें से चूर्ण करने योग्य औषधियों का उच्चटेक्षुरसः क्षौद्रं तुगाक्षीर्याश्च बुद्धिमान् । चूर्ण करके सबको एकत्र मिलाकर मथनी (रई) से प्रस्थं प्रस्थं गृहीत्वा तु शर्करार्धतुलां तथा ॥ खूब मथें और फ़िर ५-५ तोले के मोदक आत्मगुप्ताफलानां च कुडवं मरिचस्य च। | बनाकर रक्खें ।। त्रिसुगन्धं कृतावापं मंथानेन विमंथयेत् ।। । इन्हें दोनों समय अथवा एक समय अग्नि पलिकान् मोदकान्कृत्वा स्थापयेद्भाजने शुभे। बलानुसार सेवन करावें और ब्रह्मचर्य व्रत और एतत द्विकालमेकं वा खादेदग्निवलं प्रति ॥ पथ्यादि पालन करावें इसके सेवन से संग्रहणी, वटिकां नियताहारो ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः। ११ प्रकारके यक्ष्मा और भूतावेश का नाश ग्रहण्यां यक्ष्मिणे सद्यश्चैकादशविधे तथा ॥ होता है एवं स्वर, कान्ति, तुष्टि, पुष्टि, आयु स्वरवर्णवलौदार्यतुष्टिपुष्टिविवद्धनम् । | आदि की वृद्धि होती है । क्षीण वीर्य एवं व्याकुआयुष्यं पुष्टिकं चाथ भूतोपहतचेतसाम् ।। लताग्रस्त वृद्धों के लिये हितकर, वाजीकरण, व्याकुलकृतदेहानां वृद्धानां क्षीणरेतसाम् । वंध्यत्व नाशक, धनुष, मद्य और स्त्रीसमागम से वाजीकरणमप्येवं वंध्यानां पुत्रदं परम् ॥ उत्पन्न खिन्नता, हृद्रोग, तिल्ली, मूत्रकृच्छ, अपतन्त्रक, धनुस्त्रीमद्यभारैश्च खिमानां बलवर्द्धनम् । अपस्मार, विपदोष और उन्माद नाशक तथा हृत्प्लीहग्रहणीदोषमूत्रकृच्छापतंत्रकम् ॥ रसायन है ।
अथ इकारायवलेहप्रकरणम् [४६२] इक्ष्वाद्यावलेहः (वृ. नि. र. कासे) । सफेद चन्दन, मुल्हैठी, पीपल, दाख, लाख, काकइविक्षुबालिकापद्ममृणालोत्पलचंदनैः। डासिंगी और शतावर, १-१ भाग, बंसलोचन मधुकं पिप्पली द्राक्षा लाक्षा शृंगी शतावरी ॥ | २ भाग, मिश्री सब से चारगुनी । सबका चूर्ण द्विगुणा च तुगाक्षीरी सिता सर्वेश्चतुर्गुणा।
' करके शहद और धी में मिलाकर चाटने से क्षतज लिह्यातं मधुसर्पिभ्यां क्षतकासनिवृत्तये ॥
ईख, तालमखाना, कमल का डंठल, नीलोफर, | कास (खांसी) का नाश होता है।
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इकारादि-रस
अथ इकारादि रसप्रकरणम् । [४६३] इच्छाभेदीरसः (१) (ग्सा. सा.) । कगता है इस लिये इस को इन्छाभेदी रस कहते सूतशुण्ठयग्निकोलानां समानामर्द्धगन्धकः।। हैं। यह ग्स विना दस्त कराये पच नहीं सकता। निशोथस्तत्समस्तुल्या जैपालाः स्नेहवर्जिताः ॥ इस के सेवन करने से विष्टम्भ रोग, गुल्मरोग, भावयित्वाऽम्बुना बढ़े चणकप्रमिता वटीः॥ उदावर्नरोग, अरुचि, नष्ट होजाते हैं और शास्त्रकुर्यात्सर्वस्य चूर्णास्य करकोष्ठोऽपि रिच्यते ।। लिग्वित बवासीर. भगन्दर आदि रोगों के प्रयोगों
हिंगुलकापारद, सोंट, चित्रक, कालीमिर्च, | के साथ इसके सेवन करने से मुग्वी होजाता है । १-१ तोला और २ तोला शुद्ध गंधक लेकर [४६५] इच्छाभेदीरसः (३) पारद गंधक की कजली करले, बाद सोंठ, मिरच, (रसे. चि. म. ९. अ; र. का. धे. उदर) चित्रक के चूर्ण को और भी मिलादे। इस चूर्ण में | सूतं गन्धं च मरिच टङ्कणं नागरामये । ६ तोले निसोथ के चूर्ण को और १२ तोले शुद्ध जैपालपीजसंयुक्तं क्रमोत्तरगुणं भवेत् ।। जमालगोटे के चूर्ण को डालकर घोटे। इस चूर्ण | सर्वगुल्मोदरे देय इच्छाभेदी स्वयं रसः। में चित्रक के काटे की भावना देकर चने के समान | द्वित्रिगुजां वटी भुक्त्वा तप्ततोयं पिबेदनु ।। गोलियां बनावे । बलाबल देख कर एक गोली से | शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक ३ भाग, चार गोली तक ताजा पानी के साथ या धारोष्ण काली मिर्च ३ भाग, सुहागा की खील ४ भाग, (ताजा) दूध के साथ देने से मनुष्य कैसा ही कर- सोट ५ भाग. हैड़ ६ भाग और शुद्ध जमाल कोष्टी क्यों न हो जुलाब अवश्य होता है। गोटा ७ भाग । प्रथम पारा गन्धककी कजली बनावें [४६४] ईच्छाभेदीरसः (२) (रसा. सा.) | फिर उसमें अन्य द्रव्योंका चूर्ण मिलाकर खरल टणं पिप्पली शुण्ठी हिङ्गुलुनिम्बुशोधितः । | करें। हेमपत्रा त्रिवृदन्ती तिस्रो द्विद्विगुणाःक्षिपेत् ॥ इसे २ रत्ती मात्रा में गरम पानी के साथ चूर्ण धारोष्णदुग्धेन गिलेद् गुञ्जात्रयोन्मितम् । सेवन करने से ( विरेचन होकर ) गुल्म और सब इच्छया भेदकं नैतत् पच्यते रेचन विना॥ प्रकार के उदर रोगोंका नाश होता है। गुल्मं विष्टम्भकं हन्यादुदावर्त्तमरोचकम् । [४६६] इच्छाभेदीरसः (४) अर्घाभगन्दरादीनां योगैस्सेवेत कालवित् ॥ (र. सा. सं. रेचनाध्याये) __ अग्नि पर फुलाया हुआ सुहागा, पीपल, सोंट, | तुल्यं टकणपारदं समरिचं तुल्यांशकं गन्धक नीबू के रस में शोधा हुआ सिंगरफ, ये चारों | विश्वा च द्विगुणां ततो नवगुणं जैपालचूर्ण चीज़ १-१ तोले, सनायकी पत्ती २ तोले, निसोथ | क्षिपेत् । गुञ्जकप्रमितो रसो हिमजलै संसे४ तोले, शुद्ध जमालगोटे का चूर्ण ८ तोले | वितो रेचयेद्यावनोष्णजलं पिवेदपि वरं ले। इस चूर्ण की मात्रा कम से कम ३ रत्ती | पथ्यश्च दध्योदनम् ॥ लेकर ताजे दूध के साथ पीवे । यह यथेष्ट दस्त सुहागे की खील, शुद्ध पारा, काली मिर्च
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(१६२)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
और शुद्ध गन्धक १-१ भाग, सोंठ २ भाग और, पीपल, प्रत्येक १ भाग, शुद्ध जमाल गोटा सबके जमालगोटे का चूर्ण ९ भाग। प्रथम पारा गन्धक | बराबर । प्रथम पारा गन्धक की कजली बनावें फिर की कजली बनावें फिर उसमें अन्य द्रव्यों का उसमें अन्य द्रव्यों का चर्ण मिलाकर खरल करें। चूर्ण मिलाकर सबको मर्दन करके रक्खें। इसे ठंडे पानी के साथ देने से भले प्रकार विरेचन ___ इसे ठंडे पानी के साथ १ रत्ती भर खाने से होजाता है और गरम पानी से दस्त बन्द हो जाते जब तक गरम पानी न पिया जाय तब तक दस्त हैं। ( मात्रा १ रत्ती) आते रहते हैं । इससे विरेचन होने के बाद दही सोंठ, मरिच, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और भात का आहार करना चाहिये।
सुहागे की खील १-१ भाग। शुद्ध जमाल गोटा (४६७] इच्छाभेदी रसः (५) ३ भाग । प्रथम पारा गन्धक की कजली बनावें फिर
___ (र. सा. सं. रेचनाध्याये) सबको महीन करके एकत्र खरल करके रखें । जैपालाष्टौ द्विको गन्धस्रिशुण्ठी मरिच द्विकम् । इसमें से २ रत्ती भर औषध खांडमें मिलाकर एकः एतः सोहगैका गुजामात्रा वटीकता।। (ठंडे पानी के साथ) सेवन करावे । इस पर जितने शूलव्याधिप्रभृतयः कुष्ठैकादशपित्तजाः। चुल्लु पानी पिया जाय उतने ही दस्त आते हैं। भगन्दरादिहद्रोगाः सर्वे नश्यन्ति भक्षणात ।। पथ्य-विरेचन होने के बाद भात का
शुद्ध जमालगोटा ८ भाग, शुद्ध गन्धक २ | आहार देना चाहिये। भाग, सोंठ ३ भाग, स्याह मिर्च २ भाग, शुद्ध [४६९] इच्छाभेदीरसः (७) पारा १ भाग और सुहागे की खील १ भाग। (र. सा. सं., रेचनाध्याये) प्रथम पारा गन्धक की कजली बनावें फिर उसमें | शुण्ठीमरीचसंयुक्तं रसगन्धकटणम् । अन्य द्रव्यों का चूर्ण मिलाकर खरल करके १-१ | जैपालात्रिगुणाः प्रोक्ताः सर्वमेका चूर्णयेत् । रत्ती की गोलियां बनावें।
इच्छाभेदी द्विगुञ्जः स्यात्सितया सह दापयेत्। इसे सेवन करने से ( विरेचन होकर ) शूल, | यावन्तश्चिल्लुकाः पीतास्तावद्वारान्विरेचयेत् । कुष्ठ, ग्यारह प्रकार के पित्तज रोग, भगन्दर और तक्रौदनं खादितव्यमिच्छामेदी यथेच्छया ॥ हृद्रोगादि का नाश होता है।
सोंठ, मरिच, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और [४६८] इच्छाभेदीगुटिका (६)
| सुहागे की खील १-१ भाग । शुद्ध जमाल गोटा (र. सा. सं., रेचनाध्याये, ब. यो. त., यो. ३ भाग । प्रथम पारा गन्धक की कजली बनावें त. त. ७)
| फिर सबको महीन करके एकत्र खरल करके रक्खें । पारदं गन्धकं कुर्यात्सौभाग्यं पिप्पलीसमम् । इसमें से २ रत्ती भर औषध खांडमें मिलासमानि जयपालानि क्रियन्ते रेचनाय च। कर (ठंडे पानी के साथ) सेवन करावें । इस पर शीतेन रेचयेत्सम्यगुष्णेनैव प्रशाम्यति ॥ जितने चुल्लु पानी पिया जाय उतने ही दस्त
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, सहागेकी खील और . आते हैं।
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इकारादि-रस
(१६३)
पथ्य-विरेचन होने के बाद भात का । [४७१] इन्दुशेखरो रसः आहार देना चाहिये।
(भै. र., स्त्री. रो.) [४७०] इच्छाभेदीरसः (८)
शिलाजत्वभ्रसिन्दूरप्रयालायोरजांसि ज । (मै. र. उदरे)
माक्षिकश्च तथा तालं समभागानि मर्दयेत् ॥
भृङ्गराजस्य पार्थस्य निर्गुण्डया वासकस्य च । शुद्धस्तस्य मापैकं गन्धकान्माषकत्रयम् ।
स्थलपमस्य पत्रस्य कुटजस्य च वारिणा ।। विभीतकस्य माकं धान्याश्चैव तु माषकम् ॥
| भावयित्वा वटीः कृत्वा कलायपरिमाणतः । माषद्वयश पिप्पल्याः शुण्ठीनां माषकत्रयम् ।
यथा दोषानुपानेन गर्भिणीषु प्रयोजयेत् ॥ जैपालवीजमाया गुडकं विंशति तथा। गर्भिणीनां ज्वरं घोरं वासं कासं शिरोरुजम् । अम्ललोणीरसैपिष्ट्रा वटिका कारयेद्बुधः ।
| रक्तातिसारं ग्रहणीं वान्ति पहेश्च मन्दताम् ॥ कलायपरिमाणान्तु भक्षयेद्रेचनार्थकम् ।। ।
| आलस्यमपि दौर्बल्यं हन्यादेष न संशयः । अम्ललोणीरसैःसार्द्ध तोयमुष्णं पिबेदनु ।
कलेरादौ ससर्जेमं भगवानिन्दुशेखरः ॥ तावद्विरिच्यते वेगाद्यावच्छीतं न सेवते। शुद्ध शिलाजीत, अभ्रक भस्म, रससिंदूर, ___ शुद्ध पारा २ माशा, शुद्र गन्धक ३ माशे, | मूंगाभस्म, लोहभस्म, सोना मक्खी भस्म और शुद्ध बहेड़ा १ माशा और आमला १ माशा, पीपल २
| हरताल सब चीज़े समान भाग लेकर सबको एकत्र माशे, सोंठ ३ माशे, शुद्ध जमालगोटेकी मज्जा खरल करके भांगरा, अर्जुन, संभालु, बासा, स्थूल(गिरी ) २० नग, प्रथम पारा गन्धककी कजली पद्म, कमल और कुडेकी छाल, इनके यथासाध्य बनावें, फिर उसमें अन्य द्रव्योंका चर्ण मिलाकर । क्वाथ या रसकी भावना देकर मटर के समान अम्ललोणी (चूके) के रसमें खरल करके मटर | गोलियां बनावें। के समान गोलियां बनावें।
इन्हें यथोचित अनुपानके साथ सेवन करइन्हें चकेके रसके साथ खाकर उपरसे गरम | नेसे गर्भिणी स्त्रीका घोर ज्वर, श्वास, खांसी, शिर पानी पिया जाय तो उस समय तक दस्त आते । पीड़ा, रक्तातिसार, संग्रहणी, वमन, अग्निमांद्य, रहते हैं जब तक ठंडा पानी न पिया जाय। आलस्य, दुर्बलता आदि रोगों का नाश होता है।
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( १६४ )
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[ ४७२] उग्रगंधादियोगः (वृ. नि. र; छर्दि )
भारत-भैषज्य रत्नाकर
उ
अथ उकारादि कषायप्रकरणम्
उग्र गंधारनालेन पीता छर्दि निवारयेत् ॥ बच को कांजी में पीसकर पीने से वमनका नाश होता है। [४७३] उग्रादिक्वाथः (वृ. नि. र; सन्नि . )
उग्रासिंहीया सरानामृताहा शुण्ठीतिक्ांगिका पौष्कराणाम् ।
ब्राह्मी भागतिक्तवासा शठीनां
काथ हन्याजिह्नकं सन्निपातम् ॥ बच, कटैली, धमासा, रास्ना, गिलोय, सोंठ, कुटकी, काकड़ा सींगी, पोखर मूल, ब्राह्मी, भारंगी, चिरायता, बसा और कचूर | इनका क्वाथ जिह्नक सन्निपात का नाश करता है ।
[ ४७४ ] उत्पलषष्टक क्वाथः (भा. प्र. स्वगति.) पृश्निपर्णीला बिल्वधनिकानागरोत्पलैः । ज्वरातिसारयोर्वापि पिवेत्साम्लं शृतं नरः ||
पिठवन, खरेंटी, बेलगिरी, धनिया, मोंठ और नीलोफर इनके क्वाथ में दाड़िम का रस मिलाकर पीने से ज्वरातिसार का नाश होता है। [ ४७५] उत्पलादि क्वाथः (बृ. नि. र., स्त्री. गे .)
नीलोत्पल मृणालं च कोला क्षीरं तथैव च । केसरं पद्मकं चैव तोयेनालोड्य तत्पिबेत् ॥ एवं न पतते गर्भः स च शूलः प्रशाम्यति ॥
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नीलोफर, कमल नाल, बेर, दूध (?) नागकेसर और पद्माक | इन्हें पानी में घोटकर पीने से गर्भपात नहीं होता और गर्भावस्था के शूल नाश होता है।
[ ४७६ ] उत्पलादि गणः
(सु. सं. सू. अ. ३८) उत्पलरक्तोत्पल कुमुद सौगन्धिककुबलपुण्डरीकाणि मधुकचेति ।। उत्पलादिरयं दाहपित्तरक्तविनाशनः । पिपासाविपद्रो गच्छर्दिमूच्छहरो गणः ।। नीलोफर, सौगन्धिक लालकमल, कुमुद, कमल, कुवलय (घौला कमल) पुण्डरीक ( अत्यन्त सफेद कमल) और मुल्हैठी । इन चीजों के योग का नाम उत्पलादि गण है ।
यह दाह और रक्तपित्त का नाश करता है और पिपासा, विप, हृद्रोग, वमन और मूर्छा इनका हरण करनेवाला है।
[ ४७७ ] उदर्वप्रशमनमहाकषायः (च. सं. सू. ४) तिन्दुक पियालबदरखदिरसप्तपर्णाश्वकर्णार्जुनास नारिमेदा इति दशेमान्युदर्दमशमनानि भवन्ति ।
तिन्दुक (तेंदु ) पियाल (चिंगेज़ी वृक्ष) वेर, खैर, सफ़ेद खैर, सतौना, साल, अर्जुन, असना ( पीत शाल) और दुर्गन्ध खदिर । यह दश चीजें उदर्द नाशक है ।
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उकारादि-कवाय
(१६५)
[४७८] उदीच्यादिः (यो. र.,छर्दि.) अश्वत्थपाठासनवेतसाना सोदीच्यं गैरिकं देयं सेव्यं वा तण्डुलाम्बुना। कटकटेप्युत्पलमुस्तकानाम् । धात्री रसेन वा पीता सिता लाजाश्च हन्ति ताम् पैत्तेषु मेहेषु दशैव इष्टाः __सुगन्धबाला और गेरू को चावलों के पानी पादैःकषाया मधुसम्प्रयुक्ताः ।। में पीसकर अथवा आमले के रस के साथ धान (१) खस, लोध, रसौत और चन्दन । (२) की खील और मिश्री सेवन करने से वमन का नाश खस, नागरमोथा, आमला और हैड़। (३) पटोल होता है।
पत्र, नीमकी छाल, आमला और गिलोय । (४) [४७९] उदुम्बरादियोगः नागरमोथा, हैड, पनाक और कुड़ा । (५) लोध, (बृ. नि. र., ग. नि., रक्तपि.)
सुगन्ध बाला, कालीयक और धाय । (६) नीम, उदुम्बराणि पक्कानि गुडेन मधुनोऽपि वा।
अर्जुन, आम, तिनिश और नीलोफर । (७) सिरस, उपमुक्तानि निम्नन्ति नासारक्तं नृणां ध्रुवम् ॥
राल, अर्जुन और नागकेशर । (८) फूलप्रियंगु, ___ पक्के गूलर, गुड़ या शहद के साथ सेवन
कमल, नीलोफर और ढाकके फूल । (९) पीपल करनेसे नकसीर का नाश होता है।
(अश्वत्थ वृक्ष) पाठा, असना (पीतसाल) और
बेत । (१०) दारुहल्दी, नीलोफर और नागर मोथा। [४८०] उदुम्बरादिहिमः
इन दश कषायों में शहद मिलाकर पीनेसे पित्तज (वृ. नि. र., ज्वरे)
प्रमेह का नाश होता है। उदुम्बरशिफाछिनातजलं सितयान्वितम्। पात पित्तज्वर हान्त पटाल्या वा शिफाजलम्।। (मै. र., ग. नि., ज्वरा.)
गूलर की जड़ और गिलोय के कषायम उशीरं पालकं मुस्तं धान्यकं विश्वमेषजम् । अथवा पटोल की जडके क्वाथमें मिश्री मिलाकर
| समझा धातकीलोधं बिल्वं दीपनपाचनम् ॥ सेवन करने से पित्तज्वर का नाश होता है।
| हन्त्यरोचकपिच्छामविवद्धं सातिवेदनम् । [४८१] उशीरादि कषायः (१) सशोणितमतीसारं सज्वरं वाथ विज्वरम् ।। (च. सं. चि. अ. ६)
खस, सुगन्धबाला, नागरमोथा, धनिया, सोंठ, उशीरलोधाञ्जनचन्दनाना
धायके फूल, लोध और बेल । यह कषाय दीपन, मुशीरमुस्तामलकाभयानाम् । पाचन है और अरुचि, आम, विबन्ध और वेदना पटोलनिम्बामलकामृतानां
युक्त, ज्वर रहित अथवा ज्वर सहित एवं रक्तातिमुस्ताभयापमकक्षकाणाम् ॥ सारका नाश करता है। रोधाम्बुकालीयकधातकीना- [४८३] उशीराविक्याथः (३) निम्बार्जुनाम्रान्तिनिशोत्पलानां ।
(वृ. नि. र., वि. ज्व.) शिरीषसर्जार्जुनकेशराणां उशीर चन्दनं पाठा द्राक्षा मधुकपिप्पली।
प्रियंगुपयोत्पलकिंशुकानाम् ॥ सक्षौद्रं पाययेत् काथं रक्तपितहरं ध्रुवम् ॥
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(१६६)
भारत-मैपण्य-रत्नाकर
खस, चन्दन (लाल) पाठा, दास, मुल्हैठी | मोथा, शालपर्णी, दोनों कटेली ( कटेली, कटेला) और पीपल । इनके क्वाथमें शहद डालकर पीनेसे गिलोय और गोखरू । इनका क्वाथ वात ज्वर रक्तपित्तका अवश्य नाश होता है। का नाश करता है। [४८४] उशीरादी कषायः (४) ४८६] उशीरादि काथः (६) ___(वृ. नि. र., वि. च.)
(वृ. नि. र., स्त्री. रो.) उशीरं चन्दनं मुस्तं गुडची धान्यनागरम् । | उशीरगोक्षुरघनः समंगानागकेशरम् । अंभसा कथित पेयं शर्करा मधुयोजितम् । | सपनकं समधुरं पाययेच विचक्षणः ॥ ज्वरे तृतीयके पुंसां तृष्णादाहसमन्विते ॥ खस, गोखरू, नागरमोथा, मजीठ. नागखस, लाल चन्दन, नागरमोथा, गिलोय, ही
लाय, | केसर, पद्माक और सौंफ का कषाय * सेवन धनया और सोठ, इन के क्वाथ म खाड आर | करने से गर्भ की रक्षा होती है। शहद मिला कर पीने से तृष्णा और दाहयुक्त
| [४८७] उशीरादीषडंगकषायः (७) तिजारी ज्वरका नाश होता है। [४८५] उशीरादीकषायः (५)
(वृ. नि. र. ज्व.) (वै. जी. प्र. वि)
उशीरचन्दनोदीच्यद्राक्षामलकपर्पटैः। उशीरकलशीमहौषधकिरातकांभोधरस्थिरा- शृतं शीतं जलं दद्याद्दाहतृड्ज्वरशांतये ॥ पहातका द्वयामृतलतात्रिकटैःकृतम् । कषाय- खस, लाल चन्दन, सुगन्धबाला, दाख, कममुं पिवत्पवनजज्वरय्याकुलःप्रमानदशश- आमला और पित्तपापड़ा, इनसे पकाकर ठंडा तच्छदछदमदग्रसल्लोचने
किया हुआ जल दाह, तृषा और ज्वर का नाश खस, पृश्निपणी, सोंठ, चिरायता, नागर-करता है।
___ अथ उकारादि चूर्णप्रकरणम्। [४८८] उत्पलादि चूर्णम् उशीरं तगरं शुण्ठी ककोलं चन्दनद्वयम् ।
(भा. प्र., ज्वरातिसारे) लवज पिप्पलीमूलं कृष्णला नागकेशरम् ।। उत्पलं दाडिमत्वच पकेशरमेव च । मुस्तामधुककपरं तुगाक्षीरी च पत्रकम् । पीतं तण्डुलतोयेन ज्वशतिसारनाशनम् ॥ कृष्णा गुरुसमं चूर्ण सिता चाटगुणा तथा।
नीलोफर, अनार का छाल और कमलकेसरके रक्तवान्तिश्च तापश्च नाशयेनात्र संशयः॥ चूर्ण को चावलों के पानी के साथ पीने से ज्चरा- ___ खस, तगर, सोंठ, कंकोल, लाल चन्दन, तिसार का नाश होता है।
सफेद चन्दन, लौंग, पीपलामूल, कालीमिर्च, १८९] उशीरादि पूर्णम् (१) इलायची, नागकेसर, नागरमोथा, मुल्हैठी, कपूर, (म. र र पं.)
* यहां मधु भी लिया जाता है।
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उकारादि-गुटिका
(१६७)
वंसलोचन, तेजपात और काला अगर । सब का | साथ सेवन करने से रक्तपित्त, तमक श्वास, पिपासा चूर्ण समान भाग । मिश्री सब से अठगुनी और दाह का नाश होता है। ___ इस चूर्ण को सेवन करने से रक्त बमन और [४९१] उशीरादि चूर्णम् (३) सन्ताप का नाश होता है।
(वृ. नि. र., शूले) [४९०] उशीरादि चूर्णम् (२) उशीरं पिप्पलीमूलं चूर्ण कृत्वा समांशतः ।
(वृ. नि. र., रक्तपि.) गोघृतेन समं पीतं हन्ती हच्छूलमुल्वणम् ॥ उशीरकालीयकलोधपद्मकम् ___ खस और पीपलामूल बराबर लेकर चूर्ण प्रियंगुकाकदफलशङ्खगैरिकम् । करके गोघृत के साथ पीने से हृदय शूल का नाश पृथक्पृथक्चन्दनतुल्यभागिकं होता है। सशकरं तंदुलधावनप्लुतम् ॥ [४९२] उशीरादी चूर्णम्(वृ. नि. र; शूले) सरक्तपिसं तमकं पिपासां उशीरं सैन्धवं हिङ्गु मूलमेरण्डजं समम् । दाहं च पीतं शमयेद्धि सद्यः ॥ वातशूलं निहन्त्येव भुक्तं तप्तेन वारिणा ॥
खस, दारुहल्दी, लोध, पद्माक, फूलप्रियंगु, खस, सेंधानमक, हींग और अरण्डमूल सब कायफल, शंख, गेरू और चन्दन, सब समान भाग। समान भाग लेकर चूर्ण करके गर्म पानीके साथ
इनके चूर्ण में खांड मिलाकर चावलों के सेवन करनेसे वातज शूलका नाश होता है।
अथ उकारादि गुटिकाप्रकरणम्। [४९३] उन्मादभञ्जनी गुटीका चातुर्थकमपस्मारमुन्मादं च विनाशयेत् ॥ (र. सा. सं; उन्माद)
शुद्ध मनसिल, सेंधा नमक, कुटकी, बच. सुद्धं मनःशिलाचूर्ण सैन्धवं कटुरोहिणी। सिरस के बीज, हींग, सफेद सरसों, करंजवे की वचा शिरीषबीजश्च हिङ्ग च श्वेतसर्षपम् ॥ | गिरी, त्रिकुटा और कबूतर की बीट, सब चीजोंक करञ्जबीजं त्रिकटुं मलं पारावतस्य च । चूर्ण समान भाग लेकर गोमूत्र में पीसकर इन्द्र जौ एतानि समभागानि गौमूत्रटिकां कुरु ॥ के बरावर गोलियां बनाकर छाया में सुखाकर गिरिमल्लीबीजसमा छायाशुष्काच कारयेत् ।। रखें । इनमें से १-१ गोली सुबह शाम और प्रातःसन्ध्यानिशाकाले चक्षुपोरंजनं हितम् ।। रातको मधुरादि गण के रस या जल में घिस कर मधुरादि रसे चांज्यं रात्रावपिजलेन
घ अ नन करने से चौथिया बुखार, अपस्मार (मिरगी) वटिकका समाख्याता नाम्ना चोन्मादमजिनी। और उन्माद का नाश होता है।
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(१६८)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
अथ उकारादि लेहप्रकरणम् । [४९४] उतुम्बरादिलेहः (वृ. नि. र; र. पि.) गूलर और खम्भारी के पक्के फल, हैड़, पक्कोदुम्बरकाश्मर्यपध्याखजूरगोस्तनीः। खजूर और मुनक्का इन्हें पृथक् २ शहद में मिलामधुना प्रन्ति संलीहा रक्तपिस पृथक् पृथक् ॥ कर चाटने से रक्तपित्त का नाश होता है ।
___ अथ उकारादि घृतप्रकरणम् [४९५] उन्मादनाशक घृतम् । हींग, सोंचल नमक और त्रिकुटा १०-१०
(च. सं. चि, अ. १४) तोला, घी ८ सेर गोमूत्र ३२ सेर लेकर यथा विधि हिगुसौवर्चलाव्योपैपिलाशैघृताटकम् । सिद्ध करें । चतुर्गुणे गवांमूत्रे सिद्धमुन्मादनाशनम् ॥ इसके सेवन से उन्माद का नाश होता है।
अथ उकारादि तैलप्रकरणम् । [४९६] उदुम्बरादि तैलम् (१) । इस तैल का फाया योनि में रखें और
(च. सं. चि. अ. ३०) | उपरोक्त उदुम्बरादि औषधियों के शीत कषाय में उदुम्बरशलाटूनां द्रोणमन्द्रोणसंयुतम् । । मिश्री मिला कर उससे अवसेचन करें (धोवें) । इस सपश्चवल्ककुलकनिम्बमालतिपल्लवम् ॥ उपाय से ७ दिन में पिच्छिला, विवृता, काल निशिस्थाप्यं जले तस्मिस्तैलप्रस्थं विपाचयेत्। दुष्टा (दीर्घकाल से विकृता) योनि शुद्ध हो जाती लाक्षाधवपलाशत्वनिर्यासै शाल्मलेन च ॥ है एवं सन्तानोत्पत्ति की शक्ति प्राप्त होती है। पिष्टैसिद्धश्च तत्तै पिचुर्योनौ निधापयेत् । [४९७] उदुम्बरादि तैलम् (२) सशर्करैः कषायैश्च शीतैः कुर्वीत सेवनम् ॥ (च. सं. चि. अ. ३०) पिच्छिलाविताकालदुष्टयोन्यथदारुणम्। उदुम्वरस्य दुग्धेन षद्कृत्वो भावितांस्तिलान् । सप्ताहात् शुद्धति क्षिप्रं अपत्यश्चापि विन्दति । तैलं क्वाथे च तस्यैव सिद्धं धार्यश्च पूर्ववत् ।। ___ सूखे हुवे कच्चे गूलर के टुकड़े १६ सेर तिलों को गूलरके दूधकी छ: भावना देकर और पंच वल्कल (बड़ पीपल, पिलखन, गूलर । उनका तेल निकला और उस तैलको नं० ४९६ और बेत की छाल) पटोलपत्र, नीमके पत्ते, चमेली के समान उदुम्बरादि के कषाय में सिद्ध करके के पत्ते । सब समान मात्रा में मिले हुवे १६ सेर | उसका उसी प्रकार उपयोग करें, तो पूर्वोक्त (नं० लेकर रातको ३२ सेर पानी में भिगो दें और | ४९६ के समान) गुण प्राप्त होते हैं । सुबहको छान लें। इस जल और लाख, धव, |४९८] उन्मत्ततैलम् (भै. र. । कुष्ट) पलाश (ढाक) की छाल और सेमलका गोंद, इनके उन्मत्तकस्य बीजेन माणकक्षारवारिणा । कल्क से २ सेर तैलका पाक सिद्ध करें। कटुतैलं विषक्तव्यं शीघ्र हन्ति विपादिकाम् ।
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उकारादि-आसव
(१६९)
___धतूरे के बीजों के कल्क और मानकन्द के श्वदंष्ट्राशतपुष्पा च वाटयालकमधूरिके। क्षारोदक (क्षार के पानी के साथ) कड़वे तेल को | एतैःकर्षमितैर्मागैस्तैलप्रस्थं विपाचयेत् ।। सिद्ध करें । यह तैल विपादिका (पैरों की बिवाई) सपत्रफलमूलस्य गोक्षुरस्य पलं शतम् । का अत्यन्त शीघ्र माश करता है। जलद्रोणे विपक्तव्यं पादांशेनावतारयेत् ॥ [४९९] उपोदिकादि तैलम्
तकं तैलसमं देयं वीरणक्काथकाढकम् । ___ (यो. र., भै. र., वृं. मा; क्षु. रो.)
मूत्राधातं मूत्रकृच्छ्रमश्मरी हन्ति दारुणम् ॥ उपोदिकासर्षपनिम्बमोच
बलवणकरं वृष्यं वातपित्तनिषदनम् ।
उशीराद्यमिदं तैलं काशिराजेन निर्मितम् ।। कारुभस्मतोयः। तैलं विपक्कं लवणेन युक्तं
___ कल्कद्रव्य-खस, तगर, कूठ, मुल्हठी, चन्दन,
| बहेड़ा, हैड़, कटेली (या शतावर) कमल, नीलोफर, तत्पाददारी विनिहन्ति सघः॥
शारिवा, खरैटी, असगन्ध, दशमूल, शतावर, विदारी पौदीना, सरसों, नीम, केलेका फूल और |
कन्द, काकोली, गिलोय, गंगेरन, गोखरू, सोया, सैन्धव इनके कल्क तथा लघु कुम्हेड़ेके क्षारोदकके साथ सिद्ध किया हुवा तैल पाददारी (बिवाई)का
पीले फूलवाला बला (खरैटी) सौंफ ११-१। तोला ।
प्रथम पत्र फल मूल सहित गोखरू ६। सेर लेकर नाश करता है।
३२ सेर पानीमें पकावें जब चौथा भाग शेष रह [५००] उशीराचं तैलम् (भै. र. । मूत्रा.)
जाय तो उतारकर छानलें । उपरोक्त कल्क, इस उशीरं तगरं कुष्ठं यष्टीमधुकचन्दनम् । क्वाथ और ८ सेर खसके क्वाथ तथा २ सेर विभीतक्यभयाभीरुः पद्ममुत्पलशारिये ॥ तक्र के साथ २ सेर तैल सिद्ध करें । यह तैल बलातुरंगगन्धा च दशमूलं शतावरी। मूत्राघात, मूत्रकृच्छ, दुस्साध्य पथरी और वातपित्त विदारीचैव काकोली गुडून्यतिबला तथा ॥ | नाशक तथा बलवर्द्धक, कान्तिकारक और वृष्य है।
अथ उकारायासवप्रकरणम् [५०१] उशीरासवः (भै. र. । र. पि) । शर्करायास्तुलां दत्वा क्षौद्रस्यार्द्ध तुला तथा ॥ उशीरं बालकं पद्म काश्मीरं नीलमत्पलं । मासं संस्थापयेद्भाण्ड मांसीमरिचधूपिते । प्रियङ्ग पद्मकं लोधं मञ्जिष्ठा धन्वायसकम् ॥ | उशीरासव इत्येष रक्तपित्तविनाशनः ।। पाठां किराततिक्तश्च न्यग्रोधोदुम्बरं शटीम्। पांडुकुष्ठप्रमेहाशः कृमिशोथहरस्तथा ॥ पर्पटं पुण्डरीकश्च पटोलं काशनारकम् ॥ खस, सुगन्धबाला, कमल, खम्भारी, नीलोफर, जम्बूशाल्मलिनि-सं प्रत्येकं पलसंमितम् । फूलप्रियंगु, पनाक, लोध, मजीठ, धमासा, पाठा, सर्व सुचूर्णितं कृत्वा द्राक्षायाः पलविंशतिम् ॥ चिरायता, बड़, गूलर, कचूर, पित्तपापड़ा, श्वेत धातकी षोडशपला जलद्रोणदये क्षिपेत् । ! कमल, पटोलपत्र, कचनार, जामन की छाल,
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(१७०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
सेम्भल का गोंद (मोचरस) प्रत्येक का चूर्ण ५-५ | मिट्टीके पात्र में यथा विधि सन्धान करें। फिर १ तोला, दाख १०० तोला, धाय के फूल १ सेर मास पश्चात् निकाल कर छानकर रक्खें । यह
और पानी ६४ सेर, खांड ६। सेर, शहद ६। सेर। | रक्तपित्त, पाण्डु, कुष्ठ, प्रमेह, बवासीर, कृमि और सबको एकत्र करके जटामांसी और मरिचसे धूपित ' शोथ नाशक है ।
अथ उकारादि लेपप्रकरणम् [५०२] उपदंशलिंगलेपः (यो. र. । उप.) | त्रिफलामेव सेवेत ताम्रभस्मयुतां व्रणी ॥ रसकर्पूरगडाणं मर्दयेत्खदिराम्बुना। तद्वा तत्तलमाकपेनलीयन्त्रेण बुद्धिमान् । प्रक्षालयेद्वारिणा च शुष्के लेपस्तु वारिणा ॥ तुल्यसैन्धवपङ्केन बालुकापादपूरणात् ॥ लिंगलेपो व्रणं हन्ति त्रिदिनानात्र संशयः॥ तत्तललेपनाद्वाऽपि व्रणा गच्छन्त्यशेषताम् ।
६ माशे रसकपूर को खैरके रसमें घोटकर | शुष्कप्रायेषु जातेषु वराचूर्णमवचूर्णयेत् ।। पानीसे धोयें फिर सूख जानेपर पानीमें मिलाकर । इच्छेद्भूयोऽपुनर्भावमुपदंशं यदि व्रणी। लिंगपर लेप करें। इससे ३ दिन में उपदंशके । वराकाथं भजेन्मासं गन्धकं वा समाक्षिकम् ॥ घावोंका नाश होजाता है।
प्रत्यहं चित्रकक्वाथः पटुत्यागस्वतन्त्रतः।। [५०३] उपदंशस्फोटेऽवलेपः(यो. र. । उप.) लेप्यं वा ताल तैलं गान्धं वा समिश्रितम् । जातीफलविडङ्गानि रसकं देवपुष्पकम् । राल, मोम, गन्धाबिरोजा, इन तीनोंको आध समभागानि सर्वाणि नवनीतेन मर्दयेत् । आध पाव लेकर उमरूयन्त्रकी नीचेकी हांडीमें स्फोटानामुपदंशानां व्रणशोधनरोपणः ॥ | रखदे । दोनों हांडियों के मुखों को मिलाकर लोहेके
जायफल, बायबिडंग, रसकपूर और लौंग । बारीक तारोंसे खूब मजबूत बांधदे जिसमें कहीं से सबको समान भाग लेकर पीसकर नवनीत (नौनी | खसकने नहीं पावे । फिर उन तारोंके बन्धनके घी) में मिलाकर लेपकरने से उपदशके घाव शुद्ध ऊपर सात कपर-मट्टी करके सुखाले । इस डमरूहोकर भर जाते हैं।
यन्त्रको लिटाकर एसी युक्तिसे चूल्हेपर रखे कि [५०४] उपदंशहरो लेपः (रसा. सा.) जिसमें नीचेकी हांडीमें ही आंच लगे और ऊपरकी देवधूपमधूच्छिष्टश्रीवासान् समभागकान् । रीती हांडी चूल्हेसे दूर रहे । तब मन्दी २ आंच ढकायन्त्रे निधायाऽनुसन्धि तारैरयोमयैः॥ । लगाना शुरू करे, एक घण्टे के बाद चूल्हेसे बाहर बद्ध्वा गाढं च कुर्वीत मृत्पटान् सप्त तद्धरेत् । निकली हुई रीती (खाली) हांडीके तलभागको स्पर्श चुल्यां तिर्यग्ददीताऽनिं मन्दं हण्डी स्पृशेत्पगम् करके परीक्षा करे कि राल, मोम और गन्धाविरोज्ञात्वा स्पर्शासहं यन्त्रं शीतयेदवतार्य तत् । जेका सारभाग दूसरी हांडीमें उड़कर आया कि आज्यं तत्कर्दमोन्मानं तदद्वयं वन्हिगालितम् ॥ नहीं । जब हांड़ी ऐसी गरम होजाय कि उसमें उपदंशबणे लेप्यं क्षालयेत् त्रिफलाजलैः। हाथ नहीं लगा सके तब समझले कि उन तीनों
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उकारादि-लेप
(१७१)
चीज़ोंका सारभाग इस हांडीमें आचुका है तब । बारबार पानी भरता रहे और गरम होनेपर निकायन्त्रको धीरेसे उतारकर पृथ्वीमें रखदे जिससे वह | लता रहे । इस तेलको उपदंशके धावोंपर लगाने से घण्टे आध घण्टेमें ठंडा हो जाय फिर डमरूयन्त्रकी | सब घाव अच्छे होजाते है और इनके अलावा मुद्रा को खोलकर दूसरी हांडीमें जमेहुए उन तीनों | सर्व प्रकारके घाव नष्ट होजाते हैं । जब घाव सूखा चीजोंके कीचके समान घनभागको निकाल ले। सा हो जाय तब उसके ऊपर गादे कपड़े, छाना उसमेंसे एक छटांक लेकर एक छटांक घीके साथ हुआ त्रिफलाका चूर्ण बुरक देना चाहिये । कोई कटोरीमें रखकर अग्निपर पिधलाले जब घी और कोई वैध त्रिफलाकी भस्मको भी बुरकते हैं । यदि कीच एक जीव होजाय तब कटोरीको अग्निसे ऐसी इच्छा हो कि फिर गरमी उत्पन्न ही न होने उतारकर रखले । यह गरमी (आतशक) के घावोंकी पावे जड़से ही निकल जावे तो वह रोगी छटांक उत्तम मलहम बनकर तैयार होगई । इस मलहमको | भर त्रिफलाके क्वाथको या शहदके साथ एकतोले लिङ्गके ऊपर घावोंपर दिनमें दो दफे लगावे परन्तु गन्धक को रोज़ रोज़ एक महीने तक सेवन करे। प्रथम त्रिफलाके काढ़ेसे घावोंको धो लिया करे | परन्तु गन्धक चाटने के बाद दो तोले चित्रकका
और छटांक भर त्रिफलाके काढ़को प्रातःकाल और क्वाथ भी पीना चाहिये । यदि गन्धक खानेके रात्रिको पिया भी करे । त्रिफला पीनेके बाद या समय नोन न खाय तो अच्छी बात है यदि नोन पहिले ही एक रती ताम्रभस्म मधुके साथ चाट | बिना नहीं रहा जाय तो जहांतक हो सके थोड़ा लिया करे ताम्रभस्म नहीं हो तो खाली त्रिफला से | खाया करे । नोनके खानेसे कुछ विशेष शंकाकी भी काम चल सकता है। त्रिफलाके क्वाथकी | बातनहीं है किन्तु गन्धकका अल्प गुण हो जाता पीनेकी इच्छा नहीं हो तो एक तोला कपरछन है। जिस प्रकार राल, मोम, गन्धाविरोजेका तेल किया हुमा त्रिफलाका चूर्ण शहदके साथ दोनों ! गरमीके घावोंको अकसीर है उसी प्रकार हरितालका समय चाटा करे। अथवा उन तीनों चीज़ों के या धका तेल
या गन्धकका तेल भी बहुत उत्तम है। सारका तेल ही निकाल ले । उसकी विधि यह है
[५०५] उपोदिकाद्यभ्यंगः कि नलीयन्त्र (भवका) के चतुर्थांश भागमें बालु
वृ. नि. र., बं. से; अर्बु.) (रेता)भरदे फिर उस सारके समान सेंधानोंन मिलाकर (कोई कोई वैद्य चतुर्थाश चतुर्थाश हरिताल उपोदिकारसाभ्यक्तास्तत्पत्रपरिवेष्टिताः। और गन्धक भी मिला दिया करते हैं) उसे बालूपर
प्रणश्यत्यचिरान्नृणां पिडिकाबंदजातयः ।। रखदे और उस यन्त्रको ढक्कनसे ढककर तेल गिरने
पौदीने के पत्तोंका रस लगाकर उसपर पौदीने वाली नलीके तरफ किंचित् झुकाकर भवका यन्त्रको ।
के ही पत्ते बांध देने से अर्बुदादिका अत्यन्त शीघ्र चूल्हे पर रखे जिसमें बाहर टपकने वाले तेलको | नाश होता है। नलीतक दूर नहीं जाना पड़े। जब नलीके द्वारा। [५०६] उबटना (१) (वृ. नि. र. । मेद.) तेल टपकना शुरू हो तब उसके नीचे एक प्याला हरीतकीलोध्रमरिष्ट पत्रपूतत्वचो रखदे, परन्तु यह स्मरण रहे कि भवकाके ढक्कनमें " दाडिमवल्कलं च।
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(१७२)
भारत-भैषज्य रत्नाकर।
एषोंगरागः कथितोंगनाना । गोषसंस्वेदहरः प्रवर्षः । जंघाकषायश्चनराधिपानाम् ॥
सिरस, लामजक(खस भेद) नागकेसर और हैड, लोध्र, नीमके पत्ते, करंजवे की छाल, | लोधकी मालिश करने से त्वग्दोष तथा स्वेद (पसीने) और अनारके छिलके, सबका चूर्ण करके रक्खें। | का नाश होता है। यह उबटना स्त्रियोंके रंगको निखारता और घोड़े [५०८] उबटना (३) (इ. नि. र. । मेद.) पर चढ़ने से जंघामें जो चिन्ह हो जाता है उसे | प्रियंगलोधाभयचन्दनानि दूर करता है।
शरीरदोर्गन्भ्यहरं प्रदिष्ठम् । [५०७] उपटना (२) (वृ. नि. र. । भेद.) फूल प्रियंगु, लोध, खस और चन्दन का शिरीषलामजकहेमलोधैरत्व
लेप करने से शरीरकी दुर्गन्ध नष्ट होती है।
__ अथ उकारादि धूप-प्रकरणम् [५०९] उपवंशहरो (लिङ्गव्याधिहरो)। लौंग ९ नग, कपूर चनेके बराबर, शिंगरफ,
धूपः (र. र. स., अ. २५) पलाश और तालमखाने के बीज १-१ तोला लवङ्गजायों नवकं कर चणसंमितम् । लेकर सबको खूब घोटें यहां तक कि कजल के दरद तोलमानं च सवै खल्वे विमर्दयेत् ॥ | समान हो जाया फिर इसकी चौदह पुड़िया बनावें। प्रमाक्षं कोकिलाः सर्व यत्नेन मर्दयेत् ।।
रविवार के दिन अरने उपलों की अंगारी पर यावत्कज्जलसंकाशं श्यामतां च तथैव हि ॥
| एक पुड़िया डाल कर और उससे जो धुवां निकले चतुर्दशसमा कार्या पुडिका बन्धयेद्विपक। उसे श्वासोच्छवास के द्वारा अन्दर खींचें । धुवां रविवारे समादेया बंगारे छगणोद्भवे ॥ खींचते समय मुंहमें पान रखना और मुंहको कपड़े ai निक्षिप्याऽथ संगोप्य नासिका विकृता नयेद से ढांप लेना चाहिये । मुखमाच्छाद्य श्वासेन यातायातेन पाहयेत् ॥
" वीटिकापूर्णवदनो द्विवारं कारयेत्सदा।
इसी प्रकार ७ दिन तक प्रतिदिन २ बार
.धूनी लें और आठवें दिन स्नानादि करें। इस एवं सप्तदिनं कृत्वा पश्चात्स्नानादिकं चरेत् ।। पथ्यं निर्लवणं देयं जलं शीतं निषेवयेत् ।
" | प्रयोग से लिंग-व्याधि (उपदंश) का नाश होता है। अनेन योगराजेन लिंगव्याधिः प्रशाम्यति ॥ पथ्य-लवण रहित आहार और शीतल जल।
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उकारादि-रस
अथ उकारादि रसप्रकरणम्
[५१०] उड्डामरो रसः (र. र., गुल्म.) शुद्धभूतं समं गन्धं सूतांशं मृतताम्रकम् । पंचशैः शाकवृक्षस्य द्रवैर्मद्यं दिनद्वयम् ॥ सर्पाक्ष्य द्रवैरहि रुद्धहा लघुपुटे# पचेत् । पंचधा भूधरे वाथ चूर्ण जैपालतुल्यकम् ॥ द्विगुअं भक्षयेदाज्यैः पित्तगुल्मप्रशान्तये । द्राक्षाहरीतकीक्काथमनुपानं प्रकल्पयेत् ॥ उड्डामरो शुद्ध रसो नाम पित्तगुल्मं नियच्छति ।
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक प्रत्येक १-१ भाग ताम्र भस्म चौथाई भाग | सबको दिन तक सागोनके पंचागके रसमें और १ दिन सर्पाक्षी के रसमें खरल कर संपुट करके ५ लघु पुट दें अथवा भूधर - यन्त्र में पकावें । फिर पीसकर उसमें समान भाग जमालगोटे का चूर्ण मिलावें ।
इसे मुनक्का और हैड़ के काथ के साथ २ रत्ती की मात्रा से धीमें मिलाकर सेवन करने से पित्तज गुल्मका नाश करता है । [५११] उदय भास्करो रसः (१)
(यो. चि., ७ अ.)
पारदं गन्धकं दिव्यं व्योषं मिलवणानि च । सितकन्दा च वृद्धेला रसकर्पूरमेव च ।। समानि सर्वतुल्यं च शुद्धजैपालकं क्षिपेत् । बीजपूररसैर्भाथ्यो रसो हृदय भास्करः ॥
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोंग, (अथवा लोहभस्म) त्रिकुटा, त्रिलवण (सेंधा, सोंचल और बिड - लवण) सितकन्दा, बड़ी इलायची और रसकपूर सब समान भाग । शुद्ध ं जमालगोटा सबके बराबर प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बनावें फिर अन्य * 'गज पुढे' इति पाठान्तरम् ।
।
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( १७३ )
द्रव्यों का चूर्ण मिलाकर जम्बीरी नींबू के रसकी भावना दें। (गुण नं. ५१२) के समान) [५१२] उदय भास्करो रसः (२) (यो. चि., ७ अ.)
पारदं गन्धकं व्योषं द्वौ क्षारों लवणानि च । टक्कूणं चेति तुल्यानि जैपालं सकलैः समं ॥ भावना बीजपूरस्य सूक्ष्मं चूर्ण विचूर्णयेत् संग्राह्य रक्तिकायुग्मं वातं सामं विनाशयेत् । गोदुग्धं केवलं पथ्यं देयमुष्टिपयोथवा । अनं च वर्जयेत्तावदामशोफ निवारयेत् ॥
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, त्रिकुटा, सज्जीखार, पांचो नमक और शुद्ध सुहागा । सब चीजें समान भाग, शुद्ध जमालगोटा सबके बराबर प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बनावें फिर अन्य द्रव्यों का चूर्ण मिलाकर जम्वीरी नींबूके रसकी भावना देकर रक्खें। इसे २ रत्ती की मात्रा में सेवन करने से आमवात और सूजन का नाश होता है ।
इसके सेवन काल में अन्न का त्याग करके केवल गाय या ऊँटनी का दूध पीना चाहिये । [५१३] उदय भास्करो रसः (३)
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(बृ. नि. र., शूले) भस्मसूतं मृतं चात्रं शिलागन्धकतालकम् । हिब्रुकं कुष्ठस्तं च तुल्यं चूर्ण विभावयेत् ।। शुद्धार्कमत्तनिर्गुण्डीमहारास्त्राद्रवैः पृथक् । प्रतिदिनं द्रवैर्भाव्यं शुष्कं तद्गोलकृतम् ॥ वस्त्रे बद्धवा मृदा लेप्यं शुष्कं कृत्वा पुटे पचेत् चतुर्धा वस्तमूत्रेण समादाय विचूर्णयेत् ॥ द्वौ गुञ्जौ घृतशुण्ठीभ्यां लेयो हृदय भास्करः । बावलांस्पथे तिलवारं सकम् ।।
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भारत-भैषज्य रत्नाकर
( १७४ )
मथुना लेहयेच्चानु शूलं वा काकतुण्डकम् ॥
रससिन्दूर, अभ्रक भस्म, शुद्ध मनसिल, शुद्ध गन्धक, शुद्ध हरताल, हींग, कूट और नागरमोथा । सबका समान भाग महीन चूर्ण लेकर उसे इन्द्रयव, आक, धतूरा, निर्गुण्डी और महा राना के रस १-१ दिन घोट कर गोला बनाकर सुखाकर उसे एक कपड़े में बांधे और ऊपर से मिट्टी का लेप करके सुखाकर पुटमें पकावे । फिर उसे 1 बकरे के मूत्र की चार भावना देकर चूर्ण करके रक्खे।
इसे २ रत्ती की मात्रा से वृत और सोंठ के वर्ण के साथ अथवा तिलके खार, कूठके चूर्ण और शहद के साथ या काकतुण्डी के साथ सेवन करने से वातज शूल का नाश होता है । [५१४] उदय भास्करो रसः [४] ( र. र. स., १७ अ.)
पारदं मागमेकं तु गन्धकं टङ्कणं तथा । अभ्रकं लोहमेवं तु भागभेकं पृथक् पृथक् ॥ शिलाधातुस्तथा भागमम्लवेतसभागकम् । कफलं भागमेकं तु बङ्गेन सह मेलयेत् ॥ रसकं पञ्चमूत्रेण दिनानि त्रीणि मर्द्दयेत् । सर्वमेकत्र संयोज्य जम्बीररससंयुतम् ॥ मर्दयेद्दिनचत्वारि खल्वके बुद्धिमान्भिषक् । मूषिकालेपनं कुर्यान्मांसीगोक्षुरसंयुतम् ॥ मर्दयेच यथायोग्यं दिनानामेकविंशतिः । पुटमध्ये परिस्थाप्य कुक्कुटीमात्र के दहेत् शीतलं तं समादाय भावयेश्च यथाक्रमम् । कुमारी चित्रकं व्योषं जातीफलहियावली ॥ विषष्टिं नवं चाम्लवेतसं परिमर्दयेत् । शोषं कृत्वा यथायोग्यं दिनमेकं पृथक् पृथक्। तं सिद्धं बलमात्रं तु दापयेद् बुद्धिमान् भिषक् प्रमेहे मधुना युक्तं प्रयोज्यं भिषजां वरैः ॥
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शर्कराकसंयुक्तं रक्तपित्ते प्रयोजयेत् । त्रिंशद्दिनानि दातव्यं शूले च त्रिफलाजलैः ॥ मधुना चातिसारस्य सितया श्वासकासयोः । क्षीरेण चाग्निमांद्यस्य तैलकाञ्जिकसंयुतम् ॥ सिद्धनाथेन संप्रोक्तो नाम्ना हृदयभास्करः ॥
शुद्ध धारा, शुद्ध गन्धक, सुहागे की खील, अभ्रक भस्म, लोह भस्म, सोनागेरु, अम्लवेत, कायफल, बंगभस्म और शुद्ध खपरया । सब चीजे समान भाग लेकर प्रथम पारागन्धककी कज्जली बनायें फिर उसमें अन्य द्रव्यों का चूर्ण मिलाकर तीन दिन तक पञ्चमूत्रमें और चार दिन तक जटामांसी और गोखरू के क्वाथमें घोटकर उसे एक मूषके अन्दर लेप करके कुक्कुट पुटमें फूंक दे और स्वांग शीतल होने पर निकालकर धीकुमार, चीता, त्रिकुटा, जायफल, हडजोड़ी, कुचला, नखी और अम्लवेतके क्वाथमें १-१ दिन खरल करके सुखावें ।
इसे २-३ रत्तीकी मात्रा से प्रमेह में शहदके साथ, रक्तपित्त में खांड और अद्रकके रसके साथ और शूलमें त्रिफला क्वाथ के साथ ३० दिन तक सेवन करना चाहिये । इसे शहद के साथ देनेसे अतिसारका, मिश्रीयुक्त दूधके साथ देनेसे श्वास खांसीका और तैल तथा कांजी के साथ देने से अग्निमां का नाश होता हैं । [१५] उदय भास्करो रसः (५) (र. चि. म. ८ स्त. ) शुद्ध ताम्रस्य पत्राणि द्वयं गुलैकांगुलानि च । कंटवेध्यानि भृशमच्छानि कारयेत् ॥ ताम्राच्चतुर्गुणेनैव गन्धकेन पुटद्वयम् । ताम्रपत्रेषु दातव्यं यन्त्रे च भूधराभिधे ॥ सूक्ष्मं विचूर्ण्य तत्खल्वे वाससा गालये चतः
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उकारादि-रस
(१७५)
मरिचत्रिफलावत्सनागभेषजपश्चकम् ॥ - गन्धकसे मारा हुवा ताम्र १० भाग, काली प्रत्यौषधं ताम्रतुल्यं तुल्यं संचूर्णयेन्मुहुः। मिर्च ५ भाग, शुद्ध मीठा तेलिया २ भाग सबका ताम्र निक्षिप्य संमद्य वाससा गालयेत्ततः॥ | महीन चूर्ण करें। निष्पनो विधिनाऽनेन रसो ह्यु दयभास्करः।
___इसे १ रत्तीकी मात्रासे यथोचित अनुपान के रोगिभिः प्रातरुत्थाय ग्राह्यो बलचतुष्टयम् ॥
साथ सेवन करानेसे गलित और स्फुटित कुष्ठ, शिरःकंपे सन्धिशोफे समस्ताऽनिलरोगिषु ।
मण्डल कुष्ट, विसूचिका, विचर्चिका, दाद, पामा
और अन्य सब प्रकारके कुष्ठों का नाश होता है। प्लीहोदरविकारेषु देयः सर्वज्वरेषु च ॥ मन्दामौ बद्धकोष्ठेषु श्लेष्मरोगेषु निश्चयम् ।
[५१७] उदयभास्करः (७)
(वृ. नि. र., पाण्डु) रोगाणां नाशने शूरो रसो ह्य दयभास्करः ।। ___शुद्ध तांबे के कंटकवेधी उज्वल एक एक, या
भागैकं रसगन्धकं द्विगुणितं शुल्वं च भागाष्टकं दो दो, अंगुल लम्बे पत्र लेकर चार गुणी गन्धक
शैलेयास्त्रयस्तालकद्वयमिदं शुद्धं च खल्वे कृतं । मिलाकर तांबेके संपुट में बन्द करके भूधर यन्त्रमें
अर्ध व्योषजवेदभागसहितं भागद्वयं चामृतं । दो पुढे दें। फिर उसका महीन चूर्ण करके कपड़े
| निर्गुण्डयाकभृङ्गराजसहितं भाव्यं जयन्तीरसै। में छानकर उसमें कालीमिर्च, हैड़, बहेड़ा, आमला
प्रत्येकं दिनसप्तकं तु सुदृढ़ शोष्यं च सूर्यातपे और शुद्ध मीठा तेलिया इसमें से प्रत्येकका चूर्ण
योज्य गुञ्जमितं रसासहितं व्योषेण संमिश्रितं तांबे के बराबर मिलाकर खूब घोटें और कपड़ेमें | पाण्डूकामलरोगशोफदहनं सन्ने त्रिदोषे ज्वरे। छानकर रखें।
मेहप्लीहजलोदरं ग्रहणिका कुष्ठं धनुर्वातजं ॥ इसे प्रातःकाल ४ बल्ल (८-१२ रत्ती) प्रमाण पथ्यं षष्टिकतन्दुलं नवनितं तकं च शाल्योदनं देनेसे सिरका कांपना, सन्धियोंकी सूजन, समस्त | देयश्चोदयभास्करः क्षिततिले वातज रोग, तिल्ली, उदरविकार, सब प्रकारके ज्वर,
संवन्धिकारान् जयेत् ॥ मन्दाग्नि, कोष्ट बद्धता और श्लेश्मज रोगोंका नाश | । शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, होता है । (व्यवहारिक मात्रा १ रत्ती।) | ताम्रभस्म ८ भाग, शुद्ध शिलाजीत ३ भाग, शुद्ध [५१६] उदयभास्करः (६)
हरताल २ भाग, त्रिकुटा ४ भाग, शुद्ध मीठा (रसे. चि. म. ९ अ., रसे. सा. सं; र. रा. सु;
तेलिया २ भाग । प्रथम पारा गन्धंककी कजली र. चं., र. का. धे; धन्व; र. मं.) बनावें फिर अन्य द्रव्यों का चूर्ण मिलाकर निर्गुण्डी गन्धकेन मृतं तानं दशभागं समुद्धरेत् । (संभाल) अद्रक, भांगरा और जयंती के रसमें ऊपणं पञ्चभागं स्यादमृतं च द्विभागिकम् ॥ | सात सात दिन खूब खरल करके धूपमें सुखावें । श्लक्ष्णचूर्णीकृतं सर्व रक्तिकैकप्रमाणतः। । इसे अद्रकके रस और त्रिकुटे के चूर्णके साथ दातव्यं कुष्ठिने सम्यगनुपानस्य योगतः ॥ १ रत्ती मात्रा में सेवन करने से पाण्डु, कामला, गलिते स्फुटिते चैव विषूच्यां मण्डले तथा॥ सूजन, मन्दाग्नि, सन्निपात ज्वर, प्रमेह, तिल्ली, जलोविचत्रिकादद्रुपामाकुष्ठरोगपशान्तये ॥ दर, ग्रहणी, कुष्ठ और धनुर्वातका नाश होता है।
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(१७६)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
पथ्य-साठी चावल, नवनीत, तक और भात। [५१९] उदयमार्तण्डरसः [५१८] उदयभास्करः (८)
(र. र. स., ११ अ.) (र. र. स. १८ अ) पलोन्मितस्य शुल्वस्य सूक्ष्मपत्राणि कारयेत् । तोलतुल्यं रसं शुद्धं गन्धकं तचतुर्गुणम् ।।
| तत्समं गन्धकं दत्वा खल्वं सर्व विनिक्षिपेत् ॥ विधाय कज्जली लक्ष्णां ततो निम्बुकवारिणा
जम्बीररससंयुक्तं दिनं धर्मे निधापयेत् । तस्य कल्कं प्रकुर्वीत खल्वे यामचतुष्टयम् ।।
ततः शुल्वे द्रवीभूते रसकर्ष नियोजयेत् ॥ द्वितोलकच ताम्रस्य तनुपत्राणि सर्वशः ॥
तत्सिद्धमुदरे योज्यं शोफे चैव भगन्दरे । कल्केन तेन निंबूकरसेनाप्लाव्य खल्बके ।
| नाम्ना तूदरमार्तण्डरस एष प्रकीर्तितः ॥ स्थापयेदातपे तीव्र पिण्डीकृत्य ततः परम् ॥
____तांबेके सूक्ष्म ( कंटक बेधी ) पत्र ५ तोला मूषामध्ये निरुध्याथ कुक्कुटाख्यतिभिःपुटैः।
और शुद्ध गन्धक ५ तोले लेकर खरलमें डालें और पचेच्चुल्यां विनिक्षिप्य चुल्लीपरिमितोपलै।
उसमें जम्बीरी नींबूका रस भर कर धूपमें रखदें। तत आकृष्य संमर्य करण्डे तं विनिक्षिपेत् ।
जब तांबा द्रवीभूत हो जाय तो उसमें १। तोले रसोऽयं सर्वरोगनो नृणामुदयभास्करः॥
शुद्ध पारा मिलाकर घोटें। (पुटपाक करें) हन्ति शूलानि सर्वाणि तमांसीव दिवाकरः।
यह रस उदररोग, सृजन और भगन्दर पर्णखण्डीकया सार्द्ध देयश्चेत्यपरे जगुः॥ ।
नाशक है। पध्यं रोगोचित देयं रसस्यानुचित त्यजेत ॥ [५२०] उदयादित्योरसः शुद्ध पारा १ तोला, शुद्ध गन्धक ४ तोले।
(र. र. स., २०. अ.) दोनोंको खूब घोटकर कजली बनावें फिर ४ पहर | शुद्धस्तं द्विधा गन्धं मद्य कन्याद्रवैदिनम् । तक नींबूके रसमें धोटें । और उसे तांबेके २ तोले । तद्गोलं हण्डिकामध्ये ताम्रपात्रेण रोधयेत् ।। महीन पत्रोंपर लेपकरके खरल में रखकर उसपर | सूतकात्रिगुणेनैव शुद्धेनाधोमुखेन वै । नींबूका इतना रस डालें कि वह पत्र रसमें डूब- पार्वे भस्म निधायाऽथ पात्रोद्धं गोमयं जलम् ।। जायं । अब इसे तेज धूपमें सुखावें और गोला | किश्चित्किञ्चित्प्रदातव्यं चुल्लयां यामद्वयं पचेत् बनाकर मूषामें बन्द करके कुक्कुट पुटमें ३ पुट चण्डाग्निनोद्धृत्य ततः स्वागशीतं विचूर्णयेत् ॥ दें। कुक्कुट पुट साधारण चूल्हेमें ही लगा देनी काकोदुम्बरिकावहित्रिफलाराजघृक्षकम् ।
विडंग वाकुचीबीजं क्वाथयेत्तेन भावयेत् ॥ ___पुट देनेके बाद निकाल कर महीन चूर्ण करके दिनैकमुदयादित्यो रसो भक्ष्यो द्विगुश्चकः । शीशीमें भर कर रखें।
खदिरस्य कषायेण बाकुचीबीजचूर्णकम् ।। ___ इसे यथोचित्त अनुपानके साथ सेवन करने | | तुल्यं मृद्वग्निना पिण्डं जातं यावत्पचेल्लघु । और पथ्य पालन करनेसे सब प्रकारके शूल और | | त्रिनिष्कं तद्रविक्षीरैः काथैवा त्रिफलैरनु ॥ अन्य समस्त रोगोंका नाश होता है। त्रिदिनान्ते भवेत्स्फोटः सप्ताहे वा न संशयः।
चाहिये।
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उकारादि-रस
(१७७)
नीली गुश्चा च कासीसं धत्तूरं हंसपादिकाम् ॥ । [५२१] उदरनरसः (र. र. स. १६ अ.) सूर्यावर्त चाम्लपर्णो तुल्यं पिष्ट्वापलेपयेत् ।। जीमूतलोहरसगन्धशिलालताम्र स्फोटस्थाने प्रशान्त्यर्थ सप्तरात्रं पुनः पुनः॥ व्योपाग्निकुष्ठमुशलीविपदीप्यचूर्णम् । श्वेतकुष्ठं निहन्त्याशु साध्यासाध्यं न संशयः।। निम्बूकनीरलुलितं गुटिकी कृतं
शुद् पारा ५ तोले, शुद्ध गन्धक १० तोले, तद्भक्तं निशासु मधुना सकलोदरनम् ।। दोनोंकी कजली करके एक दिन धीकुमारके रसमें अभ्रकभस्म, लोहभस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध घोटकर उसका गोलासा बनाकर उसे एक हांडीमें | गन्धक, शुद्ध मनसिल, शुद्ध हरताल, तात्रभस्म, रक्खें और उसके ऊपर पारेसे तीन गुने वजनी शुद्ध | त्रिकुटा, चीता, कूठ, मूसली, शुद्ध मीठा तेलिया ताम्बे का बरतन ( कटोरी आदि ) उल्टा करके और अजवायन । प्रथम पारा गन्धक की कजली ढक दें और ( कटोरी की सन्धिको चिकनी मिट्टी | बनावें फिर उसमें अन्य द्रव्योंका चूर्ण मिलाकर आदि से बन्द करके ) उसके चारों ओर राख | गालिया बनावे । भरकर उसे चूल्हेपर चढ़ावें । अब इसके नीचे २ |
इन्हें रातको शहदके साथ सेवन करने से पहर तक तेज आग अलावें और उस तांबेके बर
सब प्रकार के उदररोगोंका नाश होता है। तनके ऊपर जराजरा करके गोबर का पानी डालते
[५२२] उदरध्वान्तसूर्यः
(र. स. क. ४ उल्ला) रहे । इसके बाद हांडीके स्वांग शीतल होजानेपर
शुल्वश्यामास्नुहीदन्तीपथ्यानेपालकाः क्रमात् । तांबेके पात्र सहित औषधिको निकाल कर पीसलें
भूद्वये कैकाग्नियुग्वल्लानेतानुष्णाम्बुना पिबेत् ॥ और फिर काकोदुम्बरिका (गूलर भेद ), चीता,
अष्टोदराणि हन्त्येष विशेषेण जलोदरम् । त्रिफला, अमलतास, बायबिडंग और बाबचीके
आध्मानगुल्मशूलन उदरध्वान्तभास्करः॥ काथमें १-१ दिन घोटे।
___ ताम्रभस्म १ वल्ल (२-३ रत्ती) निसोत वाध-खरक काथम समान भाग | २ वल्ल, स्नुही ( सेहुंड-थोहर ) १ वल्ल, दन्ती १ बाबचीका चूर्ण मिला कर मंदाग्निपर पकार्व, जब | वल्ल, हैड ३ वल्ल, शुद्ध जमालगोटा २ वल्ल । लुगदीसी होजावे तो ३ निष्क (६-९ रत्ती)
| सबका महीन चूर्ण करें। इसे गर्म पानीके साथ इस लुगदीके साथ २ रत्ती दवा खाकर उपरसे
सेवन करनेसे आठ प्रकारके उदर रोग, अफारा, आकका दूध या त्रिफले का काथ पियें। गुल्म, शूल और विशेषतः जलोदरका नाश होता है।
. इससे तीसरे या सातवें दिन सफेद कोढ़के [५२३] उदरामयकुम्भकेसरी रसः स्थान पर छाला पड़ जायगा, उसके उपर नीली, |
(र. सा. सं; प्ली.) चोटली, कसीस, धतूरा, हंसपादी, सूरजमूखी और रसगन्धकभस्मताम्रकं चांगेरी समान भाग लेकर सबको पीसकर ७ दिन कटुकक्षारयुगं सटङ्कणम् । तक लेप करें। इससे निसंदेह साध्य असाध्य श्वेत कणमूलकचव्यचित्रक कुष्टका अत्यन्त शीघ्र नाश होता है।
लवणानि यमानी रामठम् ॥
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(१७८)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
समभागमिदं विभावये.
में खरल करके १-१ माशे की गोलियां बनावे । खरातपे त्वथ जम्बुवारीणा | मात्रा १ गोली । इन्हें इमली के फल के रस के उदरामयकुम्भकेसरीरस
साथ सेवन करने से तीव्र विरेचन होकर स्त्रियोंका एष प्रथितोस्य माषकः॥ जलोदर रोग नष्ट होता है। पथ्य-दही, भात । सुरवाय॑नुदापयेद्भिपक्
[५२५] उदरारिरसः (२) (र. र., उदर.) प्रसभं हन्ति व्रण गदम्।
रसेन ताम्रायसभस्मगन्धं यकृतं क्रिमिमग्रमांसकं
शिला हरिद्रा जयपालतुल्यम् । कमळं प्लीहजलोदराह्वयम् ॥
शिलाजतुं टंकणकश्च सर्व जठरानलसार्द्धगुल्मकं
विमर्य सम्यकपरिभावयेञ्च ॥ परमसाममथाम्लपित्तकम् ॥
निर्गुण्डिकाव्युषणभृङ्गचित्रार्कशुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, ताम्रभस्म, त्रिकुटा,
तोयेन दिनप्रमाणम् । सोहागेकी खील, सज्जीखार, जवाखार, पीपला मूल, चव, चीता, पांचोंनमक, अजवायन और हींग ।
क्वाथेन निम्बस्य दिनप्रमाणं सब चीजें समान भाग लेकर पहिले पारे और
सिद्धो रसः स्यादुदरारिसंज्ञः॥ गन्धककी कजली करें फिर अन्य पदार्थोका चूर्ण |
यथाशनि धरपक्षपाते तथा मिलाकर तेज धूपमें नींबूके रसकी सात भावना
रसोऽयं धु दरं निहन्ति । देकर १-१ मारोकी गोलियां बनावें ।
रस सिन्दूर, ताम्र भस्म, लोह भस्म, शुद्ध ____ इन्हें देवदारु के क्वाथ के साथ सेवन करने
गन्धक, शुद्ध मनसिल, हल्दी, शुद्ध जमाल गोटा, से व्रणजन्य रोग, जिगर, किमि, अग्रमांस, कमठ,
| शुद्ध शिलाजीत और सुहागेकी ग्वील । सब चीजें तिल्ली, जलोदर, अग्निमांद्य, गुल्म, आमरोग और
समान भाग लेकर चूर्ण करके संभाल, त्रिकुटा, अम्लपित्त का नाश होता है।
भांगरा, चीता, आक और नीम के रस में १--१ [५२४] उदरारिरसः (१)
दिन घोटें। (र. सा. सं., उदर.)
यह रस उदर रोगों के लिये अत्यन्त उपयोगी है। पारदं शुक्तितुत्थश जैपालं पिप्पलीसमम्। | [५२६] उद्दामाख्यो रसः आरग्वधफलान्मजा वज्रीक्षीरेण मईयेत् ।।
(वृ. नि. र., गुल्म.) माणमात्रां वटी खादेत्स्रीणां जलोदरं जयेत् ।। सूतः कर्षः शांखवृक्षस्य ? नीरैः चिश्चाफलरसञ्चानु पथ्यं दध्योदनं हितम् ।
साक्ष्याद्भिः पेपयेद्धस्रमेकम् । दकोदरहरश्चैव तीत्रेण रेचनेन च ॥ भूमेः कुक्षौ पंचधैवं पुटित्वा ___शुद्ध पारा, सीप, शुद्ध नीला थोथा, शुद्ध | युज्यं तुल्यं चारुजेपालगर्भात् ।। जमाल गोटा, पीपल और अमलतास का गूदा । उद्दामाख्यः स्याद्रसः सर्पिसा यह सब चीजे समान भाग लेकर थोहर के दूध । यो गुंजायुग्मं पित्तगुल्मं निहति ।
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उकारादि-र
द्राक्षापध्याकाथ एवानुपानं वये सर्व पित्तलं दाहकारि ॥ १। लोला पारद को शंख पुष्पी और सपाक्षी के रस में १-१ दिन घोटकर ५ पुट दें। फिर उस में समान भाग जमाल गोटे की गिरी मिलावें *
इसे प्रति दिन रत्ती की मात्रा में घी के साथ सेवन करने से पित्तगुल्म का नाश होता है।
[ ५२८] उन्मत्त भैरवरस: (यो. र., कासे) पारदं दरदं शुद्धं गन्धकं कजलाकृति । गजकणावत्सनाभं शुण्ठी चोन्मत्तबीजकम् ॥ जातीफलं जातिपत्रं लवङ्गं मरिचं तथा । अकल्लकं समानं स्यान्मर्दयेश्च दिनत्रयम् ॥
अनुपान - दाख और हैड़ का क्वाथ । पथ्य --- दाह और पित्तकारक वस्तुएं न खानी चाहियें। [५२७] उद्धूलनरसः (र. सं. क. ४ उल्ला) आकल्लकं विषं कृष्णं हेमद्रुफलभस्मकम् । अजूनं स्वेदहरमेकद्वित्र्यष्टभागकैः ॥
इन्हें पीपल और शहद के साथ सेवन करने से क्षय, श्वास और कफ रोगों का नाश होता है । अनुपान विशेष से धातु पुष्टि करती है । [ ५२९] उन्मत्ताख्यो रसः (र. सं. क. ४ उ . )
|
आकरकरा, शुद्ध मीठा तेलिया, काली मिरच और धतूरे के फल की भरम यथाक्रम १, २, ३ और ८ भाग लेकर चूर्ण करें
रसं गन्धं समं व्योषं मर्थमुन्मत्त कर्दिनम् । उन्मत्ताख्यो रसेो नाम नस्ये स्यात्सन्निपातजित्
इसकी मालिश से स्वेदाधिक्य (अधिक पसीना आना) दूर होता है ।
* केवल पारद को पुट देने से रस सिद्धि सम्भव प्रतीत नहीं होती । वृ० नि० रत्नाकरकार चौबे जी जमाल गोटे की लुगदी में रखकर पुट देने की आज्ञा देते हैं । एवं सर्पाक्षी का अर्थ सरफोंका करते है? शाङ्ख वृक्ष का अर्थ शङ्खपुष्पी आप ही का किया हुआ है। शायद मथुरा धाम में शङ्खपुष्पी का वृक्ष भी होता हो आज तक तो पौदा ही देखा और सुना गया है (अनु० )
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( १७९)
आर्द्रकस्य रसेनैव गुटिकां वल्लसंनिभाम् । मधुना चपलयैव क्षयश्वासनिबर्हणः ॥ कफरोगविनाशाय रस उन्मत्त भैरवः । अनुपानविशेषेण धातुपुष्टिकरः स्मृतः ॥
शुद्ध पारा, शुद्ध शिंगरफ और शुद्ध गन्धक समान भाग लेकर कजली करके उस में गज पीपल, शुद्ध मीठा तेलिया, सोंठ, धतूरे के बीज, जायफल, जावित्री, लौंग, काली मिर्च और आकर करे का चूर्ण समान भाग मिलाकर ३ दिन तक अद्रक के रस में घोटकर ३-३ रत्ती की गोलियां बनावें ।
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और त्रिकुटा समान भाग लेकर प्रथम पारा गन्धककी कजली बना त्रिकुटा चूर्ण मिलाकर १ दिन तक धतूरे के रस में खरल करके रक्खें ।
(१)
इसकी नस्य लेने से सन्निपात का नाश होता है। [५३०] उन्मादगजकेसरीरसः (र. सं. क. ४ उल्ला.) शुद्धं मृतं वचाक्वाथैस्त्रिदिनं मर्दयेत्ततः । शङ्खपुष्पीरसैस्तद्वद्भन्धकं मर्दितं क्षिपेत् || गोमूत्रमर्दितं गोलं कृत्वा मुष्यां निरोधयेत् । सप्तधाऽऽलेप्य मृद्वः पुटितं स्वाङ्गशीतलम् । चूर्णीकृतं चतुर्वलं समसर्षपचूर्णकम् । जीर्णाघृतानुपानं च नस्ये खेहं तु सार्षपम् ॥
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(१८०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
कारयेत्तेन चाभ्यङ्गं दिनानामेकविंशतिम्। [५३२] उन्मादगजाकुशः (भै. र. उन्मा.) उन्मादापस्मृति हन्ति ह्युन्मादगजकेसरी॥ | त्रिदिनं कनकद्रावैर्महाराष्ट्रीरसै पुनः। ___शुद्ध पारे को तीन दिन तक बच के काथ | विषमुष्टिद्रवैः सूतं समुत्थाप्याचक्रिकाम् ॥ में घोटें फिर उसमे शङ्ख पुष्पी के रस में ३ दिन तक कृत्वा तप्तां सगंधान्तां युक्तथा बन्धनमाचरेत् । घोटा हुआ गन्धक पारे को बराबर मिलाकर गोमूत्र | तत्समं कानकं बीजमभ्रक गन्धकं विषम् ।। में घोट कर गोला बनावें । इसे मूषा में बन्द करके | मर्दयेत्रिदिनं सर्व वल्ल मात्र प्रयोजयेत् । ऊपर ७ कपर मिट्टी कर दें और पुट लगा दें। दोषोन्मादं द्रुतं हन्ति भूतोन्मादं विशेषतः॥ जब स्वांग शीतल हो जाय तो निकाल कर चूर्ण पारे को तीन तीन दिन तक धतूरा, जल करके रक्खें।
पीपल और कुचले के रस में तिर्यपातन करें। __ इसमें से ४ बल्ल (८-१२ रत्ती) दवा | फिर उसमें समान भाग गन्धक मिलाकर समान भाग सरसों के चूर्ण में मिलाकर खाएं और उसकी टिकिया बनाकर धूप में सुखा लें पश्चात् ऊपर से पुराना घी पिवें । २१ दिन तक सरसों | उसे अग्नि में तप्त करें और फिर उसमें समान भाग के तेल की नस्य और अभ्यंग करते रहें। धतूरे के बीज, अभ्रक भस्म, शुद्ध गन्धक और शुद्ध इसके सेवन से उन्माद और अपस्मार का
मीठा तेलिया मिलाकर तीन दिन तक खरल करके नाश होता है।
रक्खें । (४ वल्ल मात्रा अधिक प्रतीत होती है) ____ इसके सेवन से दोषोन्माद और विशेषतः [५३१] उन्मादगजकेसरी रसः (२)
भूतोन्माद का अत्यन्त शीघ्र नाश होता है। मात्रा (र. रा. सुं. उन्मा.)
२-३ रत्ती। वृतं गंधं शिलातुल्यं स्वर्णबीजं विचूर्णयेत् ।
[५३३] उन्मादभञ्जनोरसः भावयेदुग्रगंधायाःक्वाथेन मुनिशःपृथक् ॥
. (र. सा. सं. उन्मा.) ब्राह्मीरसेन सप्तैत्र भावयित्वा विचूर्णयेत् ।।
| त्रिकटु त्रिफला चैव गजपिप्पलिका तथा । रसःसंजायते नून्मुन्मादगजकेसरी ॥
विडङ्गश्च देवदारु किरात कटुकी तथा ॥ अस्य मापःससर्पिष्को लीढो हन्ति हठाद्गदम् । कण्टकारा च यष्ठान्द्रय
कण्टकारी च यष्ठीन्द्रयवं चित्रकमेव च। उन्मादाख्यमपस्मारभूतोन्मादमपि ज्वरम् ॥
बला च पिप्पलीमूलं मूलश्च वीरणस्य च ॥ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध मनसिल और |
शोभाञ्जनस्य बीजानि त्रिवृता चन्द्रवारुणी। धतूरे के बीज समान भाग लेकर चूर्ण करके बच |
वंगं रूप्यमभ्रकश्च प्रवाल समभागिकम् ॥ के काथ और ब्राह्मी के रस की ७-७ भावना
सर्वचूर्णसमं लौहं सलिलेन विमईयेत् । देकर रक्वें ।
उन्मादमपि भूतोत्थमुन्मादं वानजन्तथा ॥ इसे घी के साथ १ माशे की मात्रानुसार | अपस्मारन्तथा कार्य रक्तपितं सुदारुणम् । चाटने से उन्माद, अपस्मार, भूतोन्माद और ज्वर । नाशयेदविकल्पेन रसथोन्मादमअनः॥ का नाश होता है।
त्रिकुटा, त्रिफला, गजपीपल, बायबिडंग,
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उकारादि-रस
(१८१)
देवदारु, चिरायता, कुटकी, कटेली, मुल्हैठी, इन्द्र जौ, । लिखता हूं जिस के साथ सेवन करने से तत्काल चिता, खरैटी, पीपला मूल, खस, सौंजने के बीज, फल मिले । आकाश बेल को हांडी में भरकर हांड़ी निसोत, इन्द्रायण, बंग भस्म , चांदी भस्म, अभ्रक | के ऊपर शराव रखकर मुद्रा कर दे । बाद प्रथम भस्म और मूंगा भस्म । सब चीजें समान भाग। | मन्दी मन्दी आंच देकर तेज अग्नि करता रहे । लोह भस्म सब के बराबर। सबका चूर्ण करके इस प्रकार दो प्रहर आंच लगाने से आकाश बेल पानी में घोटें।
की भस्म हो जायगी । काशी प्रान्त में "बावर" इसे सेवन करने से उन्माद, भूतोन्माद, अप- ब्रज मण्डल की तरफ़ अमर बेल कहते हैं। यह स्मार, कृशता और दारुण रक्तपित्त का नाश | पीले वर्ण की सुत सी सुतसी वृक्षों पर चढ़ी रहती होता है।
| है। इसमें फल फूल कुछ नहीं लगता । इसकी (५३४] उन्मादहरा योगाः (रसा. सा.) जड़ भी नहीं होती है, इसीलिए इसको निर्मूली भी नेपालं शोधितं शुल्वं शिलागन्धकमारितम् ।। कहते हैं इसी के विषय में यह भी कहावत है किद्विगुणं वर्णसिन्दाव ताम्रतुल्या मनःशिला॥
| "अमर बेल के जड़ नही कौन करे प्रतिपाल, कृष्णाधत्तरवीजानामद्धे द्वेधा विषं वचा। तुलसी रघुवर छोड़ के और बताऊं काय ?" मर्दिता भाविताः क्वाथे वचाजे वटिकीकृताः॥
____ यह सभी देशों में प्रायः सुलभ है । इस की द्वित्रिगुञ्जोन्मिता देया उच्यतेऽत्रानुपानकम् ॥ | भस्म में से एक तोला ले। और दो तोले बच, तीन येनाऽनुपानयोगेन न च्यवन्ते खकात्फलात् । तोले बारह वर्ष का गुड़, (बारह वर्ष का पुराना अन्तधूमहताऽऽकाश-वल्लीकर्षण मिश्रितः। गुड न मीले तो तीन वर्ष से अगाड़ी का जहां तक उग्राद्वादशवर्षस्थ-गुडजातः कषायकः॥ मिले उसीसे काम चलावे ) इन दोनों चीज़ों का चत्वारिंशतमन्दाश्च स्थापितेन घृतेन युक्। काथ करके एक तोला भस्म भी काथ में मिला नस्याऽर्हणाऽपि पीतोवोन्मादाऽपस्मृतिनाशकः दे । और इसी काथ में चालीस वर्षका पुराना धी नागकेसरधत्तूर-वचाद्योवल्लिसाधितः। भी अन्दाज़ छः माशे के डाल दे ( यदि चालीस सापेस्नेह उन्मादेऽपस्मृतौ नस्यतो हितः॥ वर्ष का घी न मिले तो कम से कम दस वर्ष का
शुद्ध मनशिल और गन्धक के योग से बनाई | हो । (पुराने दुकानदारों के यहां १०० वर्ष तक हुई शोधित नेपाली तांबे की भस्म एक तोला, | का घी संग्रहीत रहता है ) केवल इस घी की नस्य स्वर्ण सिन्दूर छः मासे, शुद्ध मैनशिल एक तोला, 1 (सूंघनी ) देने से भी उन्माद और मिरगी नष्ट काले धतूरे के बीज सवा तोला, ( काले धतूरे के | होजाती है। इस काथ के साथ उन्मादरोगहर की बीज नहीं हों तो किसी भी धतूरे के बीज ले सकते / मात्रा के सेवन करने से उन्माद और मिरगी दोनो हैं) सवा तोला शुद्ध वछनाभ विष, सबा तोला | रोग अवश्य नष्ट हो जाते हैं और एक ब्टांक बच । इन सब के चूर्ण को बछ के काथ में भावना नागकेसर, एक छटांक काले धतूरे के बीज, एक देकर दो रत्ती प्रमाण गोलियां बना ले। इसका | छटांक बच, इन तीनों को दो सेर गरम पानी में नाम उन्मादहर रस है। अब इस रस का अनुपान । डाल कर रात भर भिगो दे, प्रातःकाल इसका काथ
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(१८२)
भारत-पथ्य-रत्नाकर
%3
करे आधा सेर जल रह जाय तब कपड़े में छानकर, [५३६] उपदंशेभसिंहो रसः इस काथ में अमरबेल के एक शेर रस को मिला (वृ. यो. त. ११७ त.) कर आध सेर सरसों का तेल डाल कर पकावे ।। लवङ्गं पारदं शुद्धं मरिचं करहाटकम् । परन्तु यह स्मरण रहे कि प्रथम तेल को पूडी जन्तुघ्नं मस्तकी चैत्र प्रत्येकं कर्षसंमितम् ।। उतारने लायक पका कर काथ में डाले, नहीं तो चतुष्कर्षा जवानीच गुडं तद्वद्विनिक्षिपेत् । तेल उफन जायगा । जब सम्पूर्ण क्वाथ और रस भल्लातकानां च शुभां विंशति द्विगुणां बुधः। जलजाय और तेल में बबूला (बुद्बुद) उठने बन्द | चूर्णयित्वा तु तत्सर्व गुटिका कारयेद्भिषक् । हो जाय और कुछ क्वाथ की तराई रहे, तब तेलकर्षमात्रां ततः खादेदेकां प्रातर्हि मानवः ।। को पका समझ कर चूल्हे से कढ़ाई को उतार कर ताम्बूलं भक्षयेत्पश्चात्पथ्यं दुग्धोदन हितम् । ठंडी कर दे और तेल को कपड़े में छानकर शीशी | सप्ताहान्मुच्यते जन्तुः फिरंगाख्योपदंशतः॥ में रख छोड़े। इस तेल की मात्रा तीन मासे से छः संधिशोकास्थिशोफास्थिशूलसंधिरुजोऽपि । मासे तक रोगीको सीधा लिटा कर नाक में डाले | उपदंशेमसिंहाख्यो रसोऽसौ शंभुनेरितः॥ तो इस तेल की नस्य भी उन्माद और मिरगी के लौंग, शुद्ध पारद, काली मिर्च, आकरकरा, लिये बहुन उत्तम चीज़ है।
बायबिडंग और रूमीमस्तगी। प्रत्येक १०-११ [५३५] उपदंशकुठारः (वृ. नि. र. उपदं.) |
तोला । अजवायन और गुड़ ५-५ तोला । उत्तम कंजुष्टं अष्टकं चैव तोलैकं तु पृथक्पृथक् ।।
| भिलावे ४० नग। तोलाई तुत्यकं ग्रामं शृङ्गवेररसेनतु ॥
सबका चूर्ण करके विधिवत् ११-१। तोला पर्दयिस्वा वटीकार्या बदरास्थिमिता भिषक् । की गोलियां बनावें। शृङ्गवेररसेनैव सायं प्रातच भक्षयेत् ॥
। इन में से प्रति दिन प्रातःकाल १ गोली खाने मधुराम्लं मत्स्यदुग्धं कूष्मांडं च विवर्जयेत् ।
के पश्चात् पान खाना चाहिये । इस प्रकार ७ दिन, उपदंशकुठारोयं रसःसर्वत्र पूजितः ॥
तक सेवन करने से फिरंग (आतशक ) का नाश मुखा सिंग १ तोला, कूठ १ तोला, नीला
होता है। यह रस अस्थि और सन्धिगत सूजन थोथा ६ माशे । अदरक के रस में खरल कर के
तथा पीड़ा का नाश करता है। बेरकी गुठली के बराबर * गोलियां बनावें।
पथ्य---दूध, चावल *। __ इन्हें अदरक के रस के साथ सुबह शाम
[५३७] उमाप्रसादनो रसः खाने से उपदंश का नाश होता है। परहेज ---मधुर और अम्ल रस, तथा मछली और
(र. र. स. १२ अ.) दूध एवं पेठा न खाना चाहिये।
मे६.गन्धाश्मविषव्योषपटूनि च । * इसकी मात्रा अधिक प्रतीत होती है | जीरकद्वयमेतानि समभागानि कारयेत ॥ ret: मुरवाल और नीलाथोथा विवेले * वृहयोग तरगियोक्त "उपदेशेभकेसरी
सका भी यही प्रयोग हैं।
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उकारादि-रस
(१८३)
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सिंदुवाररसेनापि लशुनस्य रसेन च। । नीरेण बब्बूलनवप्रवालान्निषेव्य अपामार्गरसेनापि सप्तरात्रं विमर्दयेत् ॥
तैःशकॅरयासमन्वितैः ॥ तत्पकं वालुकायंत्रे गुञ्जामात्रं प्रयोजयेत् । सर्वप्रमेहान्विनिहंति दत्तो सनागवल्लीमरिच ततः शीताम्बु पाययेत् ।। दिनत्रय विंशतिवत्सरस्य । उमाप्रसादनो नाम रसः शीतज्वरापहः। अन्न ससपिःससितं प्रयोज्य चातुर्थिकं त्रिरात्रं वा नाशयेत्किमुताऽपरान् ।। दिनानि सप्त त्रिगुणानि चात्र ।।
अभ्रक भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, शुद्ध । वरामधुभ्यां सहितस्य यस्य मीठा तेलिया, त्रिकुटा, पांचों लवण, दोनों जीरे। पंचाधिका वत्सरविंशतिःस्यात् । सब चीज़े समान भाग लेकर संभाल, ल्हसन और हैयंगवीनेन गवां च पथ्यं । अपामार्ग के रस में ७-७ दिन घोट कर बालुका त्रिसप्तसंख्यानि दिनानी कार्यम् । यन्त्र में पकावें।
प्रस्विन्नगोधूमरसेन हंति इसे १ रत्ती की मात्रानुसार काली मिर्च के सत्रिंशदब्दस्य दिनत्रयेण ॥ चूर्ण और पान के साथ खाकर ऊपर से शीतल अन्नं ससपिः सगुडं हि देयं जल पीने से शीतज्वर, चौथिया और तिजारी का | मध्विक्षुखंडैत्रिदिन विधातुम् । नाश होता है।
अंगानि सम्यग्विनिदाघ[५३८] उमाशंभुरसः (र. र. स. १७ अ.) संघगतानि खानि स्फुटनं ददीतं ॥ रसाभ्रको तुत्थसमानभागी चिंचागुडाभ्यां युतमन्नमस्मिन्द्रा ___ जंबीरनीरैत्रिदिनं विमी।
क्षादिनीरेण विमिश्रितः सन् । कुर्वीत मूषाकुहरे निवेश्य
दिनत्रयं लंघनजं विशोषं ___ वह्नौ ततस्तस्य पुटानि सप्त ॥
विनाशयेद्गोस्तनिकासिताभ्याम् ।। बीजाह्वमुस्ताक्षयुगैश्वतस्रः
पथ्यं देयमुमाशंभी स्युर्भावनाद्वे ककुभात्रिवारम्।
वासुदेवेन निर्मिते । यष्टीसिताकेतकजीररंभा
पातुं जगति कृपया ___ खजूरिकाजातिदलैः प्रतिस्वम् ।। मेहध्वांतविवस्वति ॥ एवं हि सिद्धस्य रसस्य वल्लो
शुद्ध पारा और अभ्रक भस्म १-१ भाग, मधुप्रयुक्तःसहसा शिशूनाम् । नीलाथोथा २ भाग । सब को जंबीरी नीबू के रस संतापशोपौ बलहीनतां च में ३ दिन तक घोट कर मूषा में बन्द करके पुट
तृषां च वाससलिल प्रमेहान् ।। | दें। इसी प्रकार जंबीरी के रस की सात पुट दें। निवर्तयेद्वासरसप्तकेन
फिर बिजौरा, नागर मोथा, बहेड़ा और ऋद्धि की दुग्धौदनं स्पादिह भोजनाय। ४-४ भावना, अर्जुन के क्वाथ की २ और मुल्हठी,
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(१८४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
मिसरी, केतकी, जीरा, केला, खजुर और चमेली | साथ सेवन करने से २५ वर्ष का पुराना प्रमेह के पत्ते इनकी ३ भावना दें।
| नष्ट होता है । इसके ऊपर २१ दिन तक गाय के ___इसे ३ रत्ती की मात्रा में सेवन करना चाहिये।
नौनी धी (नवनीत) के साथ पथ्य भोजन करना मधु के साथ देने से बालकों के शोष, सन्ताप, |
चाहिये । गेहूं के काथ के साथ ३ दिन तक
| सेवन करने से ३० साल का प्रमेह नष्ट होता है। निर्बलता और तृषा का नाश होता हैं। वासे के |
इस प्रयोग में घृत और गुड़ युक्त आहार देना रस के साथ सेवन करने से ७ दिन में प्रमेह का
चाहिये । इस औषधि को ३ दिन तक शहद और नाश हो जाता है। इस प्रयोग में दूध भात खाना
ईख का रस तथा खांड के साथ सेवन करने से चाहिये । बबूल की नवीन कोंपलों के रस में चीनी ! देह का संताप और स्त्रोतों का स्फुटन नष्ट होता मिला कर उस के साथ सेवन करने से २० वर्ष है। इस के ऊपर इमली का रस और गुड़ युक्त का प्रमेह ३ दिन मे ही नष्ट हो जाता है । इसे अन्न खिलाना चाहिये । इसे ३ दिन तक मुनक्का सेवन करने पर २१ दिन तक घी और मिश्री युक्त और मिश्रीके साथ सेवन करने से लंघन जनित आहार करना चाहिये । त्रिकला और शहद के ' शोष नष्ट होता है।
अथ ऊकारादि कषाय-प्रकरणम् [५३९] ऊषकादिगणः (सु. सं. सू.अ.३८) ऊपर मिट्टी (रेह) सेंधानमक, शिलाजीत, दो ऊपकसैन्धवशिलाजतुकासीस
प्रकार का कसीस, हींग और नीलाथोथा । द्वयहिगुनि तुत्थकं घेति । यह ऊषकादि गण कफ नाशक, मेद शोषक, उपकादिः कर्फ हन्ति गणो मेदो विशोषणः। (चरबी को सुखाने वाला) पथरी, शर्करा, मूत्रकृच्छ्र, अश्मरीशर्करामूत्रकृच्छ्रशूल कगुल्मनुत् ॥ 'शूल एवं गुल्म नाशक है ।
अथ ऊकारादि चूर्ण-प्रकरणम् [५४०] ऊषणादि चूर्णम् (भै. र. परिशि.)। काली मिर्च, पीपलामूल, कूठ, गजपीपल, ऊषणं पिप्पलीमूलं कुष्ठं वारणपिप्पलीम् । नागरमोथा, मुल्हैठी, मूर्वा, भारंगी, मोचरस, सोया
(या बंसलोचन), इन्द्र जौ, अतीस, वांसा, गोखरू,
दोनों कटेली। यवश्वातिविषा वासा गोक्षुरं बृहतीद्वयम् ।
सब चीजें समान भाग लेकर कूट कर चूर्ण करें। संचूये समभागानि भाषमानेन योजयेत् ॥
___ इसे १ माथे की मात्रा से सेवन करने से ऊषणायमिदं चूर्ण विस्फोटं लोहितज्वरम् । | विस्फोटकञ्वर, लाल बुखार, रोमान्तिका, जीर्ण ज्वर रोमान्तिको ज्वरं जीर्ण हन्याचापि मसरिकाम् ॥ और मसूरिका का नाश होता है।
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एकारादि-कषाय
(१८५)
[५४१] ऋतुहरीतकी (च. पा.) | सेंधानमक के साथ शरदऋतु (आसौज, कातिक)में ग्रीष्मे तुल्यगुडां सुसैन्धवयुतां मेघावनखेऽम्बरे खांड के साथ, हेमन्तरतु (अधन, पौष) में सोंठ सार्द्ध शर्करया शरद्यमलया शुण्ठया तुषारागमे । के साथ, शिशिरऋतु (माध फाल्गुन) में पीपल के पिप्पल्या शिशिरे वसंतसमये सौदेण संयोजिताम | साथ और वसन्त ऋतु (चैत, वैसाख) में शहद के इत्थंप्राश्य हरीतकीमिव रुजो नश्यन्तु ते शत्रवः | साथ सेवन करना चाहिये ।
हैड़ को ग्रीष्मऋतु (जेठ अषाढ़) में समान इस प्रकार हरीतकी को सेवन करने से समस्त भाग गुड़ के साथ, वर्षाऋतु (सावन भादों) में | रोग नष्ट होते हैं।
अथ एकारादि कषाय-प्रकरणम् [५४२] एरण्डद्वादशकम्
तत्काथो यावशूकाढयः पाहत्कफशूलहा ॥ (वृ. यो. त. ९४ त.)
१० तोले एरण्डमूल को १ सेर पानी में एरण्डफलमूलानि बृहतीद्वयगोक्षुरम् ।
पकाकर चौथाई भाग शेष रहने पर छान कर उस पणिन्यः सहदेवी च सिंहपुच्छीक्षुबालिकाः॥
में यवक्षार डाल के पीने से पसली का दर्द, हृच्छल तुल्यैरेतैः शृतं तोयं यवक्षारयुतं पिबेत् ।।
और कफज शूल का नाश होता है।
| [५४४] एरण्डस्वरसः (वृ. नि.र. । काम.) पृथग्दोषभवं शूलं हन्ति चातित्रिदोषजम् ॥
वातरेश्च जटाद्रावं कर्षाद्ध दुग्धमिश्रीतं । ___ अरण्ड के बीज, अरण्डमूल, दोनों कटेली,
पाययेत्त प्रतिदिनमेवमेव दिनत्रये ॥ गोखरू, मुद्गपर्णी, शालपर्णी, पृश्निपर्णी, सहदेवी,
धृतं दुग्धोदनं पथ्यं कुर्याद्वै लवणं विना ।। सिंहपुच्छी और छोटी ईख (या तालमखाना)।
कामलां नाशयत्याशु वायुनानं हरेद्यथा ।। ___यह सब चीजें समान भाग लेकर क्वाथ
___एरण्डमूल का स्वरस ७॥ माषा, दूध में मिला बना कर उस में जवाखार का प्रक्षेप डाल कर पीने
कर तीन दिन तक पीने और घृत तथा दूध भात से पृथक् पृथक् दोषों से उत्पन्न हुआ तथा त्रिदोषज
का लवण रहित आहार करने से कामला का शूल नष्ट होता हैं।
अत्यन्त शीघ्र नाश होता है। [५४३] एरण्डमूलादि क्वाथ: [५४५] एरण्डादिः (१) (यो. र. वा. व्या.) (वृ. नि. र. शू.)
एरण्डबिल्वं बृहतीद्वयं च एरण्डमूलं द्विपलं जलेष्टगुणिते पचेत् ।
सौवर्चल व्योषसुरामुठं च ।
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(१८६)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
-
समातुलुङ्गीलवणोत्तमं च
और आंख की पीड़ा शान्त होती है। क्वाथो धनुर्वातहरः प्रशस्तः ॥ [५४९] एलादि क्वाथः (२) एरण्डमूल, बेल की छाल, दोनों प्रकार की (यो. र. अश्म; शा. ध. म. खं. अ. २.) कटेली, सौंचल (काला नमक), त्रिकुटा, हींग, | एलोपकुल्यामधुकाश्मभेदशरबती नीबू और सेंधा नमक । इन का क्वाथ कौतीश्चदंष्ट्रावृषको रुबूकः धनुर्वात का नाश करता है।
शृतं पिबेदश्मजतुप्रगाढं [५४६] एरण्डादिः (२) (भा. प्र.। वा. र.)
सशकरे साश्मरिमूत्रकृच्छ्रे ।। गन्धहस्तवृषगोक्षुरकामृताना
इलायची, पीपल, मुल्हैठी, पाषाण भेद, रेणुका, मूलं बलेक्षुरकयोश्च पचेत्तु धीमान् । गोखरू, वांसा और अरण्डमूल । इन के क्वाथ में वातासृगाशु विनिहन्ति चिरप्ररूढ• शिलाजीत पीने से शर्करा, पथरी तथा मूत्रकृच्छ का
माजानुगं स्फुटितमूद्धंगतन्तु धीमान् ॥ | नाश होता है।
एरण्ड, बासा, गोखरू, गिलोय, खरैटी और | [६५०] एलादिगणः (सु. सू. अ. ३८) ईख इन सब की जड़ लेकर क्वाथ करके पीने से,
एलातगरकुष्ठमांसीध्यामकत्वपत्रनाग. पुराना जानुओं तक फैला हुआ, स्फुटित (फटा
पुष्पप्रियङ्गुहरेणुकाव्याघनखशुक्तिचण्डा. हुआ) एवं ऊपर को चलने वाला वातरक्त नष्ट
स्थौणेयक श्रीवेष्टक चोचचोरकवालक होता है।
गुग्गुलसर्जरसतुरुष्क कुन्दुरुकाऽगुरुस्पृक्को [५४७] एयरुबीजादिः (भा. प्र. । मू. कृ.) एरुिबीज मधुकश्च दावों
शीरभद्रदारुकुङ्कुमानि पुनागकेशरश्चेति ॥ पैत्ते पिबेत्तण्डलधावनेन । एलादिको वातकफो निहन्याद्विषमेव च । खीरे के बीज, मुल्हैठी और दारुहल्दी को वर्णप्रसादनाकण्डूपिउकाकोठ नाशनः।। पीस कर चावलों के पानी के साथ पीने से पैत्तिक | छोटी इलायची, तगर, कूठ, जटामांसी, रोहिमूत्रकृच्छ्र का नाश होता है।
षतृण (गन्ध तृण), दालचीनी, तेजपात, नाग[५४८] एलादिक्वाथः (१)
| केसर, फूलप्रियंगु, रेणुका, व्याघ्र नख ( वृहन्नखी) ___ (वृ. नि. र. । शू.)
शुक्ति ( अल्प नख ), चंडा ( चोर पुष्पी), थुनेर एलाहिंगुयवक्षारसैंधवप्रतिवासितः।
( ग्रन्थि पर्णी ), श्रीवेष्ट, चोच (दालचीनीभेद ), पीत एरंडतेलेन कटिहद्भवमुद्धतम् ।।
चोरक ( ग्रन्थीपर्णी भेद ) सुगन्धवाला, गूगल, राल, जाठरं नाभिशलं च प्राकक्षिगत तथा। तुरुष्क (शिला रस), कुन्दरु, अगर, स्पृक्का, खस, शिरःकर्णाक्षिशूलं च नाशयत्यतिवेगतः ॥ देवदारु, केसर और कमलकेसर (या नागकेसर)।
इलायची, हींग, यवक्षार और सेंधानमक के यह एलादि गण वात, कफ, विष, खुजली, शीत कषाय में अरण्डी का तेल डाल कर पीने से | पिडिका ( फुसियां) और कोठ नाशक तथा वर्ण कमर, हृदय, जठर, नाभि, पीठ, कोख, शिर, कान प्रसादक (शरीर का रंग स्वच्छ करने वाला ) है।
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एकारादि-चूर्ण
(१८७)
अथ एकारादि चूर्णप्रकरणम् [९५१] एरण्डभस्मयोगः(वृ. नि. र. उदर.) | सेवन करनेसे कामला का नाश होता है। समूलपत्रमैरण्डं रुझा भांडे पुटे पचेत् । [५५५] एलादिचूर्णम् (२) (यो. २., क्षरा.) तत्कर्ष पलगोमूत्र पीतं प्लीहविनाशनम् ॥ एलापत्रं नागपुष्पं लवङ्गं । ____ एरंड को पत्र और मूल सहित लेकर बरतन ___ भागस्त्वेषां द्वौ च खजूरकस्य । बन्द कर के पुट में भस्म करें।
द्राक्षायष्टीशर्करापिप्पलीना इसे ११ तोला की मात्रा से ५ तोला गोमूत्र चत्वारस्तत्क्षौद्रयुक् क्षये स्याद।। के साथ पीने से तिल्ली रोग का नाश होता है। इलायची, तेजात, नागकेसर और लोग [५५२] एरण्डमूलादि चूर्णम्
| प्रत्येक १ भाग खजूर २ भाग । दाख. गुन्हेठो, ___ (वृ. नि. र. शूले.)
शर्करा (खांड) और पीपल प्रत्येक ४ : इनके एरण्डमूलं तुम्बुरुबिडलवणसुवर्चलाभया। चूर्णको शहद के साथ सेवन करनेसे क्षय रोगका हिंगुरेतैरम्बुना पीतैश्च याति शूलं च गुरुगुल्मम॥ नाश होता है । __ अरण्डमूल, तुम्बुरु, विडलवण, हुलहुल, हैड [९५६] एलादिचूर्णम् (३) और हींग । इनके चूर्ण को पानी के साथ पीने से | (यो. र., शा. ध. म. खं. अ. ६., ग. शूल और गुल्म नष्ट होता है।
नि. अ. १४ । छर्दि.) [५५३] एरण्डादिभस्मयोगः एलाल बङ्गगजकेशरकोलमआ. (यो. र., वृ. मा; ग. नि. २३)
लाजप्रियङ्गुधनचन्दनपिप्पलीना । एरण्डवह्निशम्बूकवर्षाभूगोक्षुरं समम् । चूर्ण सितामधुयुतं मनुजो विलिहाअन्तर्दग्ध्वा पिवेदद्भिरुष्णामिः शूलशान्तये ॥ छदि निहन्ति कफमारुतपित्तः ।। ___ अरण्ड मूल, चीता, शम्बूक (कोकले,क्षुद्रशंख) | इलायची, लौंग, लागकेसर, बेरकी गु. की पुनर्नवा (साठी) और गोखरू । समान भाग लेकर | गिरी, धान की खील, फूल प्रियंगु नागरमोधा, हाण्डी में बन्द करके भस्म करें । इसे गरम पानीके चन्दन और पीपल । इनके चूर्णको मिश्री और साथ पीनेसे शूल नष्ट होता है।
शहदके साथ चाटने से कफज, बाराज और पित [५५४] एलादिचूर्णम् (१) छर्दिका नाश होता है।
(कृ. नि. र. काम.) | [५५७] एलादिचूर्णम् (१) एलाजीरकभूधात्री सिता गव्येन भावयेत् । (च. पा., ग. नि. अ. २७; मू प्रातर्हि सेवनं कुर्यात् कामलानाशनं परम् ॥ मूत्रेण सुरया वाऽपि मादली स्वरसेन था।
इलायची, जीरा, भुई आमला और मिश्री। कफविनाशाय श्लक्ष्णं पिष्ट्वा पर्व इनके चूर्णको गोदुग्धकी भावना देकर प्रातः प्रातः छोटी इलायचीके महीन चूर्णको ना ५
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(१८८)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
केलेके रसके साथ सेवन करनेसे कफज मूत्रकृच्छ्रका । यह यौवन दाता, रुचि वर्द्धक, तिल्ली, बवानाश होता है।
सीर, श्वास, शूल और ज्वर नाशक तथा अग्नि [५५८] एलादिचूर्णम् (५) वर्द्धक, बल और वर्ण कारक, वात नाशक, नेत्रों के (वृ. नि. र. २० । मू. कृ.)
लिये हितकारी, हृद्य एवं कंठ और जिह्या शोधक है। एलाश्ममेदकशिलाजतुगोक्षुराणा- [५६०] एलादियोगः (७) मेर्वारुबीजलवणोत्तमकुंकुमानाम् ।
(यो. र. अश्म; धन्व; मू. कृ.) चूर्णानि तंदुलजले लुलीतांनि पीत्वा | एलाश्मभेदकशिलाजतुपिप्पलीना
प्रत्यक्षमृत्युरपि जीवति मूत्रकृच्छी॥ | चूर्णानि तण्डुलजलललितानि पीत्वा ।
इलायची, पत्थरचटा, शीलाजीत, गोखरू, । यद्वा गुडेन सहितन्यवलेह्य धीभा खोरके बीज, सेंधानमक और केसर । इनके चूर्णको | नासम्ममृत्युरपि जीवती मूत्रकृच्छ्री ॥ चावलों के पानी के साथ पीनेसे अत्यन्त दुःसाध्य । इलायची, पत्थरचटा, शिलाजीत और पीपल मूत्रकृच्छ्रका भी नाश होता है।
इनके चूर्णको चावलों के पानी के साथ पीने या [५५९] एलादिचूर्णम् (६) (यो. चि. चूर्ण.) | गुड़के साथ मिलाकर खानेसे मृत्युके निकट पहुंचे लक्ष्मैलाकेशरं गं पत्रं तालीसकं तुगा। हुवे मूत्रकृच्छ्रीको भी आराम हो जाता है। मृद्धीका दाडिम धान्यं जीरके द्वे द्विकर्षिका। | [५६१] एलादिचूर्णम् (८) पिप्पली पिप्पलीमूलं चध्यचित्रकनागरम् । (इ. नि. र. ( बा, रो.) मरिच दीप्यकं चैव वृक्षाम्लं चाम्लवेतसम् ॥ एलाना जलमुस्तानां चूर्ण पीतं समाक्षिकम् । आजमोदाश्वगन्धा च कपिकच्छेति कर्षिका। तृष्णां छर्दिमतीसारं शिशूनां सत्वरं हरेत् ॥ अत्यंतसुविशुद्धायाः शकंरायावतुः पलम् ॥ । इलायची और जल मोथे (अथवा सुगन्धवाला पूर्ण युवाप्रदं पुंसां परमं रुचिवर्द्धनम् । । और नागरमोथा) के चूर्ण को शहदके साथ पिलानेसे प्लीहकोशामया सि श्वासं शूलं च सज्वरम्। | बच्चों की वमन और तृषाका अत्यन्त शीघ्र नाश निहन्ति दीपयत्यनि बलवर्णकरं परम्। होता है। वात रोचनं इथं कण्ठजिहाविशोधनम् ॥ [५६२] एलादिचूर्णम् (९) __ छोटी इलायची, नागकेसर, दालचीनी, तेजपात, (यो. चि. चूर्णा.) सालीसपत्र, वंसलोचन, मुनक्का, अनारदाना, धनिया, | एलाकुंकुमचोचजातिदलयुक् श्रीपुष्पजातीफलम् दोनों जीरे प्रत्येक २॥-२॥ तोला । पीपल, पीप- मस्तक्या करहाटनागरयुतं फेनाहिकृष्णान्वितम् लामूल, चव्य, चीता, सोंठ, कालीमिर्च, अजवायन, एतेषां समभागशीतकरजः स्यादर्धकस्तूरिका वृक्षाम्ल, अमलबेत, अजमोद, आसगन्ध और | दद्यात् क्षौद्रयुतं दिनान्तसमये यामद्वयं स्तंभकद कौंच । प्रत्येक २॥ २॥ तोला । अत्यन्त स्वच्छ इलायची, केसर, चोच (दालचीनी) जावित्री, चीनी २० तोला लेकर यथा विधि चूर्ण बनावें। तेजपात, लौंग, जायफल, रुमि मस्तगी, अकरकरा,
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एंकारादि-गुटिका
सोंठ, अफीम और पीपल । सब समान भाग | कपूर सबके बराबर और कस्तूरी आधा भाग । इस चूर्ण को उचित मात्रानुसार शाम के वक्त शहद के साथ खानेसे २ पहर तक वीर्य स्तम्भन होता है ।
[५६३] एलादि चूर्णम् (१०) (र. र. यक्ष्मा.) एलात्वारिचं शुंठी पिप्पलीनागकेशरम् । यथोत्तरं भागवृद्धा चूर्णन्तु सितया समम् ॥ यक्ष्मार्शो ग्रहणीगुल्मरक्तपित्तक्षयापहम् । कण्ठरोगारुचिहरं प्लीहरोगहरं परम् ||
इलायची १ भाग, दारचीनी २ भाग, काली मिर्च ३ भाग, सोंठ ४ भाग, पीपल ५ भाग, नागकेसर ६ भाग और मिश्री सबके बराबर, मिलाकर चूर्ण बनावें । यह चूर्ण यक्ष्मा, बवासीर,
[५६५] एरण्डावि गुटी
(बृ. नि. र., वृ. यो. त. ९३ त., आ. वा. ) एरंडबीजम समविश्वशर्करासहिता । गुटीकता प्रभाते क्ता सामानिलं जयति ॥
एरण्ड के बीजों की गिरी, सोंठ और मिश्री समान भाग लेकर यथा विधि गोलियां बनावें । इन्हें सेवन करने से आमबात का नाश होता है।
(१८९ )
संग्रहणी, गुल्म, रक्तपित्त, क्षय, कंठरोग, अरुचि और तिल्ली नाशक है ।
अथ एकारादि गुटिकाप्रकरणम् ।
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[५६४ ] एलादिचूर्णम् (११) (यो र वृ. यो. त. त. १२२) एलातुगाचोच शिवाभयानां सग्रन्थिपाटीरदलालकानाम् । चूर्ण सितातुल्यमपाकरोति प्रौढाम्लपित्तं दिवसास्यमुक्तम् ॥ इलायची, बंसलोचन, चोच ( दालचीनी) हैड़, आमला, पीपलामूल, चन्दन, तेजपात और धनिया । सब चीजें समान भाग । मिश्री सबके बराबर । इस चूर्ण को प्रातः काल खाने से प्रबल अम्लपित्तका नाश होता है ।
शोथप्लीहावयवातांच स्वरमेदं क्षतक्षयम् । गुटिका तर्पणी वृष्या रक्तपितं च नाशयेत् ॥
इलायची, तेजपात और दारचीनी प्रत्येक ७|| भाषा, पीपल २|| तोला । मिश्री, मुल्हैठी, खजूर और मुनक्का ५-५ तोले इन सबों का चूर्ण कर शहद मिलाय गोलियां बनावें । १।- १1 तोलाकी गोली प्रतिदिन मनुष्य खावें । खांसी, श्वास, ज्वर, हिचकी, छर्दि, मूर्च्छा, मद, भ्रम, रक्त का थूकना, पसली का शूल, अरुचि, शोथ, तिल्लीरोग, आढयवात, स्वरभेद, क्षत और क्षयका नाश होता है। यह गुटिका तर्पणी, वृष्या और रक्तपित्त नाशिनी है
[५६६] एलाविगुटीका (च. द., र. पि.) एलापत्रस्वीsaar: पिप्पल्यर्द्धपलन्तथा । सितामधुकरखर्जूर मृद्वीका पलोन्मिताः ॥ सं मधुना युक्ता गुडिकाः कारयेद्भिषक् । regari aarai भक्षयेन्ना दिने दिने || कासं श्वासं ज्वरं हिक्का छर्दि मूर्च्छा मदं भ्रमम् रक्तनिष्ठीवनं सृष्णां पार्श्वशूलमरोचकम् ॥
[५६७ ] एलाद्योमोदकः (भै. र. मदा.)
।
एलां मधुकमविश्व रजन्यौ द्वे फलत्रयम् । रक्तशालिं कणां द्राक्षां स्वर्जूर तिलं यवम् ॥
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(१९०)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
विदारी गौक्षरं बीजं त्रिवृताश्च शतावरीम् । । हल्दी, हैड़, बहेड़ा, आमला, लाल चावल (साटी संचूर्ण्य मोदकं कुर्यात्सितया द्विप्रमाणया ॥ चावल) पीपल, दाख, खजूर, काले तिल, जौ, धारोष्णेनापि पयसा मुद्गयूषेण वा समम् ।
| विदारीकन्द, गोखरू, निशोत, शतावर प्रत्येक पिबेदक्षप्रमाणान्तु प्रातर्नत्वाम्बिकां गदी ॥
सम भाग, सम्पूर्णसे दुगनी मिश्री चूर्ण करके मोदक
बनावें। इन्हें धारोष्ण दूध या मूंगके वृषके साथ मद्यपानसमुत्थाना विकारा निखिला अपि।।
| प्रतिदिन प्रातःकाल १। तोला सेवन करनेसे मद्यसेवनादस्ये नश्यन्ति व्याधयोऽन्ये च दारुणाः॥ पानजनित समस्त विकार (शराब की खराबियां)
छोटी इलायची, मुन्हैठी, चीता, हल्दी, दारु एवं अन्य कितने ही दुस्साध्य रोग नष्ट होते हैं ।
अथ एकारादि गुग्गुलुप्रकरणम्। [५६८] एकविंशतिको गुग्गुलुः व्याधीन्कोष्ठगतांश्चान्याञ्जयेद्विष्णु रिखासुरान् (वृ. नि. र. त्वग्दो.)
चीता, त्रिफला, त्रिकुटा, जीरा, कलोंजी, चित्रकत्रिफलाव्योषमजाजीकारवीवचाः। बच, संधानमक, अतीस, कृठ, चव्य, इलायची, सैंधवातिविषाकुष्ठं चव्यैलायावशूकजम् । जवाखार, बायविडंग, अजमोद, नागरमोथा और विडंगान्यजमोदा च मुस्तान्यमरदारु च।। देवदारु । सब समान भाग । गूगल सब के बरायावंत्येतानि सर्वाणि तावन्मानं तु गुग्गुलुः॥ बर। सब चीजों का चूर्ण करके घी के साथ संकुख्य सर्पिषा साद्ध गुटिकां कारयेद्भिपक्। | कूटकर गोलियां बनावें। इन्हें प्रातःकाल या प्रातर्भोजनकाले वा भक्षयेत्तु यथा बलम् ॥ भोजन के समय बलानुसार सेवन करने से अठारह हत्यष्टादशकुष्ठानि कृमिददु व्रणानपि । प्रकार के कुष्ठ, कृमि, दाद, घाव, संग्रहणी, बवाग्रहण्यों विकारांश्च मुखामयगलग्रहान् ॥ सीर, मुखरोग, गलग्रह, गृध्रसी, भग्न और गुल्म गृधसीमथ भग्नं च गुल्मं चापि नियच्छति । तथा कोष्ठगत व्याधियों का शीघ्र नाश होता है।
अथ एकारादि पाकप्रकरणम् [५६९] एरण्ड (वातारि-शुक्ल)पाक । लोहं पुनर्नवा श्यामा उशीरं जातिपत्रकम् ।।
(वृ. नि. र. वा. व्या.) जातीफलमभ्रकं च सूक्ष्मचूर्ण तु कारयेत् । निस्तुपं बीजमेरंडं पयस्यष्टगुणे पचेत् ।। शीतीभूतेऽवलेहोयं तस्मिन् खंडसमोदयम् ।। तस्मिन् पयसि संशोष्य तद्बीज परिपेषयेत् ॥ वातारिपाकनामायं प्रातरुत्थाय भक्षयेत् । पश्चाद्धृतेन संयुक्तं संपचेन्मृदुवह्निना। अशीतिवातरोगांश्च चत्वारिंशच पैत्तिकान् ॥ फटुत्रिकं लवंगं च एलात्वक् पत्रकेसरम् ॥ उदराणि तथा चाष्टौ स्वयं रोगानिहंति च । अश्वगन्धा शिफा रास्ता पड्गन्धा रेणुका वरी। विंशति मेहजान् रोगान् पष्टिनाडीव्रणानि च।
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एकारादि-पाक
(१९१)
हत्यष्टादश कुष्ठानि क्षयरोगांश्च सप्त च । । घृतप्रस्थार्द्धयुक् पक्कं खंडप्रस्थद्वयं क्षिपेत् । पंचैव पांडुरोगांश्च पंच श्वासान् प्रणाशयेत् ॥ त्र्यूषणं सचतुर्जातं ग्रंथिकं वह्निचव्यकम् ।। चतुरो ग्रहणीरोगान् दृष्टिरोगं गलग्रहम् । । छत्रा मिशी शठी बिल्वदीप्यो जीरे निशायुगम्। अनेकवातरोगांश्च तान् सर्वाश्च विनाशयेत् ॥ अश्वगन्धा बला पाठा हपुषा वेल्लपुष्करम् ॥ शुक्लपाकमिदं ख्यातं सर्वरोगनिवारकम् ॥ श्वदंष्ट्र। रुग्वरा दारुबेल्लावालुकावरी ।
अण्डीके बीजोंकी गिरीको आठ गुने दूधमें एतानि पिचुमात्राणि चूर्णितानि विनिक्षिपेत॥ पकावें जब सब दूध खुश्क होजाय तो उन्हें वातव्याधि च शूलं च शोफ वृद्धि तथोदरम्। पीसकर घी मिलाकर मन्दाग्निपर पकायें और पाकके आनाहं बस्तिरुग्गुल्ममामवातं कटिग्रहम् ॥ अन्तमें उसमें त्रिकुटा, लौंग, इलायची, दारचीनी, | ऊरुग्रहं हनुस्तंभ नाशयेदपि योगतः ।। तेजपात, नागकेसर, असगन्ध, सोया, रास्ना,
अण्डी के पक्के बीजों की मांगी (गिरी) १ पीपला मूल, रेणुका, शतावर, लोह भस्म, साठी
सेर लेकर उसे ८ सेर दूध में मन्दाग्नि पर पकावें
और खोया हो जाने पर उसे ४० तोला घी में (विसखपरा) काली निसोत, खस, जावित्री, जायफल और अभ्रक भस्मका महीन चूर्ण और सबके
भून लें और फिर २ सेर खाण्ड की चाशनी में वजन के बराबर खांडकी चाशनी करके मिलावें।
मिला लें और उसमें त्रिकुटा, तेजपात, दालचीनी
नागकेसर, इलायची, पीपलामूल, चीता, चय, इसे प्रातःकाल सेवन करनेसे ८० प्रकारके
| सोया, सौंफ, कचूर, बेल, अजवायन, दोनों जीरे, वातरोग, ४० प्रकारके पित्तरोग, ८ प्रकारके
| हल्दी, दारु हल्दी, असगन्ध, खरैटी, पाठा, हाऊउदररोग, २० प्रकार के प्रमेह, ६० प्रकारके नाडी
बेर, वायबिडंग, पोखरमूल, गोखरु, कूठ, त्रिफला, व्रण, १८ प्रकारके कुष्ट, ७ प्रकार के क्षय, ५ |
देवदारु, काला विधारा, जलालु. (अवालुका-एक प्रकारके पांडु, ५ प्रकारके श्वास, ४ प्रकारके
तरह का कन्द शाक) और शतावर । प्रत्येक का ग्रहणी रोग, दृष्टि रोग, गलग्रह और अनेक प्रकारके
चूर्ण ११-११ तोला मिलाकर रक्खें । इस पाकको वातज रोगोंका नाश होता है।
यथोचित अनुपान के साथ सेवन करने से वात[५७०] एरण्डपाकः (यो. र. वा. व्या.) । व्याधि, शूल, सूजन, वृद्धि रोग, उदर रोग, वातारिबीजं प्रस्थं तु सुपक्कं निस्तुपीकृतम्। अफारा, बस्ति, शूल, गुल्म, आमवात, कटिशूल, क्षीरद्रोणार्द्धसंयुक्त भिषग्मंदाग्निना पचेत् ॥ उरुग्रह और हनुस्तम्भका नाश होता है।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकर।
____ अथ एकारादि लेहप्रकरणम् । [५७१] एलादिलेहः
क्षौद्र ततो मन्थहतं निदध्यात् । (र. र., बं. से; अम्लपि.) पलं पलं प्रातरतो लिहेच एलापटोलघनचन्दनधान्यधात्री
पश्चापिबेत्क्षीरमतन्द्रितश्च ।। वांशीवराङ्गदलनागकणाभयाभिः ।
एतद्धि मेध्यं परमं पवित्रं. लेहासिताज्यमधुभिःसितयाथ पित्तं
चक्षुष्यमायुष्यतमं तथैव । हत्यम्लपित्तमरुचिज्वरदाहशोषान् ॥
यक्ष्माणमाशु व्यपहन्ति शूलं छोटी इलायची, पटोलपत्र, नागरमोथा, चन्दन,
पाण्ड्वामयं चापि भगन्दरं च ॥ धनिया, आमला, बंसलोचन, दालचीनी, तेजपात,
न चात्र किश्चित्परिवर्जनीयं नागकेशर, पीपल और हैड़, सब समान भाग
रसायनं चैतदुपास्यमानम् ॥ लेकर चूर्ण करके मिश्री, घी और शहद के साथ मिलाकर अवलेह बनावें। इसे मिश्री के साथ ____ छोटी इलायची, अजमोद, आमला, हैड़, सेवन करने से पित्त, अम्लपित्त, अरुचि, ज्वर, बहेड़ा, खैरसार, नीम, असना (साल भेद) और दाह और शोष का नाश होता है। | साल, (इनके सार) बायबिडंग, भिलावा, चीता, [५७२] एलादिमथः
त्रिकुटा, नागरमोथा और गोपी चन्दन, (या फिट(च. द., बं. से; राजय., सु. चि. अ. ४१) कड़ी), इनके क्वाथ से यथा विधि १ सेर घृत एलाजमोदामलकामयाक्ष
सिद्ध करके ठंडा होने पर-मेश्री १५० तोले, गायत्रिनिम्बाशनशालसारान् । बंसलोचन ३० तोले और शहद २ सेर मिलाकर विडङ्गमल्लातकचित्रकांच
मथनी से मथें। इसे प्रतिदिन प्रातःकाल ५-५ कटुत्रिकाम्भोदसुराष्ट्रिकाश्च ।। तोले खाकर ऊपर से सावधानी पूर्वक (उचित पक्त्वा जले तेन पचेत्तु सर्पि- | मात्रानुसार) दूध पीना चाहिये । यह मन्थ अत्यन्त
स्तस्मिन्सुसिद्धे त्ववतारिते च। मेधावर्द्धक, आंखों के लिये हितकारी, आयुवर्द्धक, त्रिंशत्पलान्यत्र सितोपलाया
यक्ष्मा नाशक एवं शूल, पांडु और भगंदर नाशक दद्यात्तुगाक्षीरिपलानि षट् च ॥ । है। यह रसायन सेवन करने योग्य है एवं इसमें प्रस्थे घृतस्य द्विगुणं च दद्यात् किसी प्रकार के परहेज की भी आवश्यकता नहीं है।
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एकारादि-तैल
अथ एकारादि तैलप्रकरणम् ।
[ ५७५] एरण्डतैलयोगः (३) (वृ. नि. र. वा. व्या)
एरण्डतैलेन गुडूचिकायाः
[ ५७३] एरण्डतैलयोगः (१) (वृ. नि. र., ब. से., वा. व्या.) तैलमेरण्डजं प्रातर्गोमूत्रेण पिवेन्नरः । मासमेकं प्रयोगोऽयं गृध्रस्यूरुग्रहापहः ॥
एक मास तक गोमूत्र में अरण्ड का तेल डाल कर प्रातःकाल पीने से गृध्रसी और ऊरुग्रह का नाश होता है।
[ ५७४] एरण्डतैलयोगः (२) (बृ. नि. र. वा. व्या.)
वाजिगन्धा बला विश्वा दशमूलं विसाधितम् गृध्रस्य तैलमैरंडं बस्तौ पाने च शस्यते ॥
।
सी के लिये एरण्ड के तैल को असगंध, खरैटी, सोंठ और दशमूल के क्वाथ तथा कल्क से सिद्ध करके पीना चाहिये एवं इसी की बस्ती भी लेनी चाहिये ।
काथोऽथ वा वर्द्धितपिप्पली वा । गुडेन पथ्याखिलवातरक्तं विनाशयेत्पध्ययुतस्य पुंसः ॥
अण्डी के तेल के साथ गिलोय का क्वाथ या वर्द्धमान पिप्पली अथवा गुड़युक्त हैड़ सेवन करने और पथ्य पालन करने से सब प्रकार का वातरक्त नष्ट होता है ।
[५७६] एरण्डतैलयोगः (४)
(वृ. नि. र. अण्डवृ.) तैलमैरण्डजं पीत्वा बलासिद्धपयोन्वितम् । आध्मान शूलोपचितामन्त्र वृद्धिं जयेनरः ॥
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( १९३ )
खरैटीसे यथाविधि दूध पकाकर उसके साथ अण्डीका तैल पान करनेसे अफारा और शूलयुक्त अन्त्र वृद्धिका नाश होता है । [५७७] एरण्डतैलहरीतकी (१) (भा. प्र., ब. से; आ, वा) एरण्डतैलयुक्तां हरीतकीं भक्षयेन्नरो विधिवत् । आमानिलार्तियुक्तो गृध्रसीवृद्ध्यर्दितो नियतम् ॥
एरण्ड तैलके साथ यथा विधि हैड़ सेवन करनेसे आमवात, गृध्रसी और वृद्धि रोगका नाश होता है । [५७८] एरण्डतैल हरीतकी (२) (बृ. नि र. इली ) गंधर्वतैलभृष्टां हरीतकीं गोजलेन यः पिबति । श्लीपदबंधनमुक्तो भवत्यसौ सप्तरात्रेण ॥
अरण्ड तैलमें भूनी हुई हरड़ोंको ७ दिन तक गोमूत्र के साथ पीने से श्लीपद (हाथी पग ) का नाश होता है।
[५७९] एरण्डतैलादियोगः (१) (यो. . र. गुल्म.) पिवेदेरण्डतैलं वा वारुणीमण्डमिश्रितम् । तदेव तैलं पयसा वातगुल्मी पिवेन्नरः ॥
वारुणी नामक मद्य या दूध के साथ अरण्डका तैल पीनेसे वातज गुल्मका नाश होता है । [ ५८० ] एरण्डतैलादियोगः (२)
( यो. र. । कुरं. चि., ग, नि. । वृद्धय . ) एरण्डतैलसंमिश्र कासीस सैन्धवं पिबेत् । वस्त्रेण वृषणं बद्धं कुरण्डज्वरनाशनम् ॥
अण्ड वृद्धिसे उत्पन्न हुवे ज्वरकी शान्तिके लिये अरण्डके तेलमें कसीस और सेंधा नमक
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(१९४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
मिलाकर पीना चाहिये एवं अण्ड कोशोंको कपड़ेसे :- कालीयकं जलदकर्कटचन्दनश्रीबांध रखना चाहिए।
___ोत्याः फलं सविकस सह कुक्कमेन । [५८१] एरण्डादितैलम् (वृ. नि. र. । विस.) स्पृहातुरुष्कलघुलम्भतया विनीय एरण्डतुंवीकटुनिंबचक्रमोत्थ
तैलं बलाक्कथनदुग्धदधिप्रपक्वम् ।। बीजानि च सोमराजी।
मन्दानलेन हितमेतदुदाहरन्ति अङ्कोल्लवीजानि समानिकृत्वा
वातामयेषु बलवर्णहुताशकारी ॥ पातालयन्त्रेण सुतैलमेतत् ॥
इलायची, मुरामांसी, चीड़, भूरि छरीला, प्रगृह्य तेनाथ विमर्थयेच्च
देवदारु, रेणुका, चोरपुष्पी, कपूर कचरी, जटाविसर्पकादीन्विहन्ति सद्यः॥ मांसी, चम्पा, नागकेसर, प्रन्थिपणी, गन्ध रस
अरण्डके बीज, कडवी तोरीके बीज, निबौली, | (खून खराबा--दम्मुलअखवायन) खट्टासी (जुन्दपवाड़के बीज, बावची और अंकोल । सब चीजें | वेदस्तर), तेजपात, भिस, चन्दन, कुन्दर, नख, समान भाग लेकर पाताल यन्त्र द्वारा तैल निकाले। सुगन्धवाला, लौंग, कूठ, काला अगर, नागरमोथा,
इस तेलकी मालिशसे विसर्प आदि अत्यंत | ककोड़ा, श्वेत चन्दन, ऋद्धि, जायफल, मजीठ, शीघ्र नष्ट होते हैं।
| केसर, स्पृक्का (लजालु), शिलारस और पीली [५८२] एलादितैलयोगम् (यो. र. । वा. व्या.) | खस । इनके कल्क तथा खटीके क्वाथ, दूध और एलामुरासरलशैलजदारुकौन्ती | दहीके साथ मन्दाग्निपर तिल तैल सिद्ध करें ।*
चण्डाशटीनलदचम्पकहेमपुष्पम् । यह तैल वात व्याधि नाशक, एवं बल वर्ण स्थोणेयगन्धरसपूतिदलामृणाल
और अग्निकारक है। श्रीवासकुन्दुरुनखाम्बुलवङ्गकृष्ठम् ॥ * तेल पाक विधि पृष्ठ ६३ में देखिये।
अथ एकाराद्यरिष्टचूर्णप्रकरणम् [५८३] पलाधरिष्टः ( भै. र. । परि.) चातुर्जातं त्रिकटुकं चन्दनं रक्तचन्दनम् ।। पञ्चाशत्पलमेलाया वसायाः पलविंशतिम्। | मांसीं मुरां मुस्तकं च शैलेय शारिवाद्वयम् । मञ्जिष्ठां कुटजं दन्ती गुडूची रजनीद्वयम् ।।
पलप्रमाणतधात्र क्षिप्त्वा मासं निधापयेत् ।। रास्नामुशीरं मधुकं शिरीषं खदिरार्जुनौ। एलाधरिष्टो हन्त्येष विसपोश्च ममरिकाम् । भूनिम्वनिम्बवहींश्च कुष्ठं मधुरिका तथा ॥ | रोमान्तिकां शीतपित्तं विस्फोटं विषमज्वरम् ॥ गृहीत्वा दिपलोन्मित्या जलद्रोणाष्टके पचेत् । नाडीव्रणं वणं दुष्टं कासं श्वासं च दारुणम् । द्रोणशेपे कपाये च पूते शीते विनिक्षिपेत् ॥ भगन्दरोपदंशौ च प्रमेहपिडिकास्तथा ॥ धातक्याः पोडशपलं माक्षिकस्य तुलात्रयम् । इलायची २५० तोले, बांसा १०० तोले,
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एकारादि-रस
( १९५ )
।
1
मोथा, भूरिछरीला, दोनों प्रकार के शारिवे । प्रत्येक वस्तु ५ - ५ तोला ।
मजीठ, इन्द्रयव, दन्ती, गिलोय, हल्दी, दारूहल्दी, रास्ना, खस, मुल्हैठी, सिरस, खैर, अर्जुन, चिरायता, नीम, चीता, कूट और साफ़ । प्रत्येक वस्तु ५०-५० तोले लेकर सबको २५६ सेर जल में पकावें । जब ३२ सेर पानी शेष रह जाय तो छानकर उसमें नीचे लिखी चीजें मिलाकर यथा विधि सन्धान करके एक मास तक रक्खा रहने दें।
धायके फूल १ सेर, शहद ३७॥ सेर, दालचीनी, तेजपात, नागकेसर, इलायची, त्रिकुटा, चन्दन, लाल चन्दन, मुरामांसी, जटामांसी, नागर
[ ५८४ ] एलादिलेप: (च. सं । चि. ७ अ.) एला कुष्ठन्दार्वी शतपुष्पा चित्रकं विडङ्गश्च । कुष्ठे लेपनमिष्टश्च रसाञ्जनश्चाभया चैव ॥
अथ एकारादि लेपप्रकरणम्
एक मास पश्चात् निकालकर छानकर सुरक्षित रक्खें
1
[५८५] एकांगवीररसः
(वृ. नि. र. वा. व्या.) शुद्धगन्धं मृतं सूतं कतिं वंगं च नागकम् । ताम्रं चाभ्रं मृतं तीक्ष्णं नागरं मरिचं कणा ॥ सर्वमेकत्र संचूर्ण्य भावयेन्च पृथक् व्यहम् । वराण्योषक निर्गुण्डीवह्निशुद्धाद्रकस्य रसैस्तथा ॥ सांगवीरोऽसौ सिद्धो रसराड् भवेत् । पक्षघातं चार्दितं च धनुर्वातं तथैव च ॥ अर्द्धांगं गृधसीं वापि विश्वाचीमपबाहुकम् । सर्वान्वातामयान्हन्ति सत्यं सत्यं न संशयः ॥
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उसको सेवन करने से विसर्प, मसूरिका, रोमान्तिका, शीतपित्त, विस्फोटक (फोड़े), विषमज्वर, नाड़ी व्रण ( नासूर ) दुष्टव्रण, दारुण खांसी और श्वास, भगन्दर, उपदंश एवं प्रमेह पिडिका का नाश होता है।
अथ एकारादि रसप्रकरणम् ।
इलायची, कुठ, दारूहल्दी, सोया, चीता, बायबिडंग, रसौत और हैड़ । इनका लेप करनेसे का नाश होता है ।
शुद्ध गन्धक, रस सिन्दूर, कान्त लोह भस्म, बंग भस्म, सीसा भस्म, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म, सोंठ, मरिच, पीपल । सब समान भाग लेकर चूर्ण करके उसे त्रिफला, त्रिकुटा, संभालु, चीता, अद्रक, सैंजना, कूट, आमला, कुचला, आक, धतूरा और अद्रक के रसमें, यथा क्रम ३ - ३ भावना दें ।
इसके सेवन से पक्षाघात, अर्दित, धनुर्वात, अर्द्धांग, गृध्रसी, विश्वाची, अपवाहुक आदि समस्त वातज रोगों का नाश होता है ।
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(१९६)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
अथ ऐकारादि रसायनप्रकरणम् [५८६] ऐन्द्रीरसायनम् ___इन्द्रायण, मछेछी, ब्राह्मी, बच, ब्रह्मसुवर्चला
(च. सं. चि. १ अ.) (हुल हुल भेद) पीपल, सेंधालवण और शंख पुष्पी ऐन्द्रीमत्स्याक्षिको ब्राह्मी वचा ब्रह्मसुवर्चला।
| प्रत्येक ३/४-३/४ रत्ती, सोना १/२ रत्ती, मीठा पिप्पल्यो लवणं हेम शंखपुष्पी विषं घृतम् ।।
तेलिया १ तिलभर, धी ५ तोला । चूर्ण योग्य
चीजोंका चूर्ण करके सबको भले प्रकार मिलालें । एषान्त्रियवकान् भागान् हेमसर्पिविषैर्विना ।
इसे यथोचित मात्रामें सेवन करें और औषद्वौ यवौ तत्र हेम्नस्तु तिलन्दद्याद्विषस्य च ॥
धिके पच जाने पर बहुतसा घृत डालकर शहद सर्पिषश्च पलन्दद्यात्तदैकद्धयं प्रयोजयेत् ।
युक्त भोजन करें। धृतप्रभूतं सक्षौद्रञ्जीर्णे चामं प्रशस्यते ॥
यह जराव्याधि नाशक, अत्यन्त स्मृति और जराव्याधिप्रशमनं स्मृतिमेधाकरम्परम् ।
मेधाकारक, आयुष्यदाता, पौष्टिक, बल्य, स्वर और आयुष्यं पौष्टिकं बल्यं वरवर्णप्रसादनम् ॥
वर्ण संस्कारक एवं अत्यन्त ओजकारक सिद्ध परमोजस्करं चैतत् सिद्धमेतत् रसायनम् । रसायन है। इसके अभ्यासीको अलक्ष्मी, विष और नैनं प्रसहते कृत्या नालक्ष्मीने विषनरुक् ॥ रोगोंका भय नहीं रहता। इसके सेवनसे श्वित्र, श्वित्रं सकुष्ठं जठराणि गुल्माः कुष्ठ, उदररोग, गुल्म, तिल्ली, पुराना बुखार,
प्लीहा पुराणो विषमज्वरश्च ।। विषमज्वर तथा मेधा स्मृति और ज्ञानका नाश मेधास्मृतिज्ञानहराश्च रोगाः
करने वाले रोग नष्ट हो जाते हैं। यह अत्यन्त शाम्यन्त्यनेनातिवलाश्च वाताः ॥ । बलवान वायु का भी नाश कर देती है।
अथ ऐकारादि घृतप्रकरणम् [५८७] ऐलेय सर्पिः (र. र. स. २१ अ.), मिश्रीके कल्कसे घृत सिद्ध करें। ऐलेयकस्य स्वरसे घृतं क्षीरं समं पचेत् । ।
यह घृत सब प्रकारके पित्तविकार, वातपित्त चंदनं मधुकं द्राक्षा मधूकं च तुगा सिता॥
रोग, शिरोभ्रम और कम्पनका नाश करता है । ऐलेयकमिदं सर्पिः सर्वपित्तविकारजित् ।
____४ एलवालुकके नामसे बंगाल देशमें काले
| रंगका एक प्रकारका सुगन्धित काष्ठ मिलता वातपित्तविकारनं शिरोभ्रमणकम्पनम् ॥ है। इधर ऐलेयक (एलवालु) के नामसे 'पलवा'
ग्रहण करते हैं परन्तु एलवेका स्वरस नहीं एलवेका स्वरसx और उसके बराबर दूध हो सकता। हां उसे पानीमें घोलकर रस तथा चन्दन, मुल्हैठी, दाख, महुवा, बंसलोचन और | तैयार कर सकते हैं।
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ऐकारादि-तेल
(१९७)
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अथ ऐकारादि तैल प्रकरणम् [५८८] ऐलेयक तैलम् (र. र. स.२१अ.) | ऐलेएकमिदं तैलं प्रशस्तं पित्तरोगिणाम् ।। ऐलेयकस्य स्वरसमाढकं तु भिषग्वरः।
ऐलेयक का स्वरस ८ सेर, धीकुमार का कुमार्याः स्वरसं शुद्धं चतुष्प्रस्थं तु कारयेत ॥ | स्वच्छ रस ८ सेर, आमले का रस ४ सेर, शताआमलक्याः शतावर्या रसं प्रस्थद्वयं प्रथक । | वरी का रस ४ सेर, दूध ३२ सेर और तेल८सेर तैलाढकसमायुक्तं क्षीरद्रोणविमिश्रितम् ॥ कल्कद्रव्य-दालचीनी, सफेद चन्दन, सुगंचोचं मलयजं वारि सरलं कुमुदोत्पलम् । धवाला, धूपसरल, कुमुद, नीलोफर, मेदा, मुल्हैठी, द्वे मेदे मधुकं द्राक्षा तुगाक्षीरी मधूलिका ॥ | मुनक्का, बंसलोचन, सौंफ, काकोली, क्षीरकाकोली, काकोली क्षीरकाकोली जीवकर्षभकावुभौ। । जीवक, ऋषभक, कस्तूरी, बनतुलसी और कपूर । मृगनाभ्यजगंधा च शशांकश्च पृथक् पृथक् ।। हर एक का महीन चूर्ण २॥-२॥ तोला एतेषां चार्द्धपलिकं श्लक्ष्णं चूर्ण विनिक्षिपेत् । सबको मिलाकर मंदाग्नि पर तेलपाक सिद्ध एतत्सर्व समालोड्य मंद मंदाग्निना पचेत् ।।। करें। इसे शिरारोग और नेत्ररोगों में नस्य, सुमुहूर्ते सुनक्षत्रे नववस्त्रेण पीडयेत् । अभ्यंग, उद्वर्तन, आलेपन आदि द्वारा व्यवहार शिरोनेत्रविकारेषु नस्यं स्यात्कर्णयोजितम् ॥ करना चाहिये । एवं कानमें डालना चाहिये। इस अभ्यंगोद्वर्तनालेपैः शिरोभ्रमणकम्पनुत् ।। | तैलके व्यवहार से शिरोभ्रमण (चक्कर आना) अङ्गदाहं शिरोदाहं नेत्रदाहं च दारुणम् ।। कांपना, शरीर की दाह, शिरकी दाह और अत्यन्त विसर्पकविकारांश्च मूनि जातान्वहून्त्रणान् । नेत्रदाह, विसर्प, सिर के धाव (फोड़े फुसी), मुख आस्यशोपं भ्रमं चैव नाशयेन्नात्र संशयः॥ । शोष, भ्रम और पित्त रोगों का नाश होता है।
अथ ओकारादि लेपप्रकरणम् [२८९] ओष्ठश्वित्रनाशनो लेपः । मुखे लिम्पेदिनैकेन वर्णनाशो भविष्यति ॥ (रसे. चि. म. ९ अ.) -
गंधक, चीता, कसीस, हरताल और त्रिफला । मुखे श्वेते च सञ्जाते कुर्यादिमा प्रतिक्रियाम् । इनका लेप करनेसे मुख का श्वेतकुष्ठ एक ही गंधकं चित्रकासीसं हरितालं फलत्रयम् ॥ दिनमें नष्ट हो जाता है।
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(१९८)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
अथ औकारादि कषायप्रकरणम् [५९०] औदुम्बरादियोगः
गूलरका क्वाथ मिश्री मिलाकर पीनेसे दाह __ (वृ. नि. र. ज्व.)
शान्त होती है। एवं गिलोय का सत मिश्री औदुम्बरस्य निर्यासः सितया दाह नाशनः । छिन्नासारः सितायुक्तः पित्तज्वरनिषूदनः ॥ ।
मिलाकर सेवन करने से पित्तज्वर नष्ट होता है।
अथ अंकारादि कषायप्रकरणम् [५९१] अंगमर्दप्रशमनमहाकषायः । [१९२] अंजनादि गणः (च. सं. सू. ४ अ.)
(सु. सं. सू. ३८ अ.) विदारीगन्धापृश्निपर्णीवहतीकण्टकारिकैरण्ड- अंजनरसांजननागपुष्पप्रियंगुनीलोत्पलनलदकाकोलीचन्दनोशीरैलामधुकानीति नलिनकेशराणि मधुकं चेति । दशेमान्यङ्गमर्दप्रशमनानि भवन्ति ॥ अञ्जनादिर्गणो शेष रक्तपित्तनिबर्हणः । ___विदारीकन्द, पृश्निपणी, बड़ी कटेली, छोटी | विषोपशमनो दाहं निहन्त्याभ्यन्तरं भृशम् ॥ कटेली, अरण्ड, काकोली, चन्दन, खस, इलायची | सुरमा, रसौत, नागकेसर, फूलप्रियंगु, नीलो
और मुल्हैठी। इन दश चीजों का कषाय अङ्गमर्द | फर, खस, केसर और मुल्हैठी। यह अंजनादि गण (बदन टूटना) का नाश करता है। रक्तपित्त, विष और आभ्यन्तरिक दाह नाशक है।
___अथ अंकारादि तैल प्रकरणम् ५९३] अंगारक तेलम् (च. द. ज्वरे) । मूर्वा, लाख, हल्दी, दारुहल्दी, मजीठ, इन्द्रामर्वा लाक्षा हरिद्रे द्वे मंजिष्ठा सेंद्रवारुणी। यन, बड़ी कटेली, सेंधा लवण, कूट, रास्ना, जटाबृहती सैंधवं कुठं रास्ना मांसी शतावरी ॥ मांसी और शतावर। इनके कल्क और ८ सेर आरनालाढकेनैव तैल प्रस्थं विपाचयेत । | आरनाल के साथ २ सेर तेल सिद्ध करें। यह तैलमंगारकं नाम सर्वज्वरविमोक्षणम् ॥ तेल सब तरह के ज्वरों का नाश करता है।
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अंकारादि-लेप
अथ अंकारादि लेप प्रकरणम् [५९४] अंगरागलेपः (सु.सं. चि.अ.२५)। हैड़का चूर्ण, नीम के पत्ते, आम की छाल, हरीतकीपूर्णमरिष्टपत्रं
अनार के फूलों के डंठल और मल्लिका के पत्ते । चूतत्वचं दादिमपुष्पवृन्तम् । ____ यह अत्युत्तम राजाओ के योग्य अंगराग पत्रश्च दद्यान्मदयन्तिकाया लेपारागो नरदेवयोग्यः॥
अथ अंकारादि अञ्जन प्रकरणम् [५९५] अंजनवटीः (र. रा. सुं. ब्व.) । नाश होता है। पारदं टहमेकन्तु विटकं गन्धकं तथा । [५९६] अंजनभैरवः (रसे. चि. म.अ. ९) मरिचं नवटई स्याद सर्व वै कालीकृतं ॥ सूततीक्ष्णकणागन्धमेकांशं जयपालकम्। कारवेल्लिरसमधमेकविंशतिसंख्यकम्। सबैत्रिगुणित जम्भवारिपिष्टं दिनाष्टकम् ॥ ग्रामात्र वटी कुत्तिया इंजनमाचरेत् ॥ नेत्राञ्जनेन हन्त्याशु सर्वो पद्रवमुल्वणम् ॥ सर्वान् ज्वरान् निहन्त्याशु सत्यं शङ्करभाषिता पारा, तीक्ष्ण लोहभस्म, पीपल और गंधक
___ पारद ४ माषा, गंधक ८ माषा और काली | प्रत्येक १-१ भाग । जमाल गोटा सब से तिगुना । मिर्च १ तोला, सब की कजली करके करेलेके | सब का महीन चूर्ण करके आठ दिन तक जंबीरी रस की २१ भावना देकर १-१ रत्ती की गोलियां | नीबू के रस में घोटें।
इसका अंजन करने से सब उपद्रवों से युक्त इसका अंजन करनेसे सब प्रकारके ज्वरोंका । (सन्निपात) का भी अत्यन्त शीघ्र नाश हो जाता है।
बनावें।
अथ ककारादि कषाय प्रकरणम् [५९७] कटुकाविक्वाथः (च. पा. मुख.)। [५९८] कटुक्यादिक्वाथः (१) कटुकाति विषापाठादारु मुस्तकलिंगकाः।
(वृ. नि. र. ज्वरे) गोमूत्र कथिताःपीताः कंठरोग विनाशनाः ॥ कटुकी चित्रकं निम्ब हरिद्रातिविषं वचा ।
कुटकी, अतीस, देवदारु, पाटा, नागरमोथा | सप्तपर्ण्यमृतानिम्बस्नुह्यकै साधितं जलं ॥ और इन्द्रयव । इनको गोमूत्र में पका कर पीने से पेयं माक्षिकसंयुक्तं बलासज्वरशांतये॥ कण्ठ रोगों का नाश होता है।
कुटकी, चीता, नीम की छाल, हल्दी, अतीस,
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(२००)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
बच, सतौना, गिलोय, चिरायता, थोहर और आक | वात ज्वर, श्वास, खांसी, हिचकी, हनुग्रह, गलगण्ड, के क्वाथ में शहद डाल कर पीने से कफज ज्वर | गण्डमाला, कफज स्वर भेद, शिर का भारीपन, का नाश होता है।
बधिरता, कफमेद की वृद्धि, सन्निपात, अभिन्यास [५९९] कटुक्यादिक्वाथः (२)
और मूर्छा का नाश होता है। (वृ. नि. र. । ज्वरे)
[६०१] कटफलादिकषायः (२) कटुकारोहिणी मुस्ता पिप्पलीमूलमेव च।।
(च. चि. अ. २६) हरीतकी ततो तोयमामाशयगते ज्वरे ॥
मृत्रेताः कटफलशृंगवेर ___ कुटकी, नागरमोथा, पीपलामूल, और हैड़ का
पीतद्रपथ्यातिविषाः प्रदेयाः ॥ क्वाथ सेवन करने से आमाशयगत ज्वर का नाश
___ कायफल, अदरक, दारु हल्दी, हैड और
अतीस को गोमूत्र में पका कर सेवन करने से होता है। [६००) कट्फलादिक्वाथः (१)
(कफज हृद्रोग का नाश होता है) (वृ. नि. र. । ज्वरे.)
[६०२] कटफलादिः (३)
(र. र.; बं. से. कासा; यो. चि. म. अ. ४) कटफलाब्दवचापाठपुष्कराजाजिपर्पटैः। देवदार्वभयाश्रृंगीकणाभूनिंबनागरैः ॥
कट्फलं च तथा भार्गी मुस्तं धान्यं वचाभया।
| श्रृंगी पटकं शुण्ठी सुराहश्च जले भृतम् ॥ मार्गीकलिंगकटुकाशठीकतृणधान्यकैः । समांशैः साधितः क्कायो हिंग्वाकरसैयुतः॥
मधुहिगुयुतं पेयं कासे वातकफात्मके । कर्णमूलोद्भवं शोथं हंति मन्यागलाश्रयम् ।
कण्ठरोगे मुखे शूले श्वासहिक्काचरेषु च ॥
___कायफल, भारंगी, नागरमोथा, धनिया, बच, कफवातज्वरं श्वासं कासं हिक्कां हनुग्रहम् ॥ गलगण्डं गण्डमालां स्वरभेदं कफात्मकम् ।
हैड़, काकड़ासिंगी, पित्तपापड़ा, सोंठ और देवदारु,
इनका क्वाथ बना कर उस में शहद और हींग शिरो गुरुत्वं बाधियं वृद्धिं च कफमेदसोः ॥
मिलाकर पीने से वातकफज खांसी, कण्ट रोग, दशमूलज्वरान् (?) ह्येषः सन्निपातज्वरान् जयेत्
मुख रोग, शूल, श्वास, हिचकी और ज्वर का अभिन्यासमसंज्ञां च कफलादिनिहंति च ॥ |
नाश होता है। कायफल, नागरमोथा, बच, पाढल, पोखरमूल, |
मूल [६०३] कट्फलादिक्वाथः (४) जीरा, पित्तपापडा, देवदारु, हैड, काकड़ासिंगी,
(बृ. नि. र. । अति.) पीपल, चिरायता, सोंठ, भारंगी, इन्द्रजौ, कुटकी, |
कटफलातिविषांभोदवत्सकं नागरान्वितम् । कपूरकचरी, रोहिषतृण और धनिया। सब चीजें |
भृतं पित्तातिसारनं दातव्यं मधुसंयुतम् ॥ समान भाग लेकर यथा विधि क्वाथ बना कर ।
कायफल, अतीस, नागरमोथा, कुड़े की उस में हींग और अद्रक का रस डालकर पीने से ! कर्णमूल, मन्या नाड़ी और गले की सूजन, कफ- इन के क्वाथ में शहद मिला कर पीने से
() दशमूल्या ज्वरानिति साधीयान् । 'पित्तातिसार का नाश होता है ।
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ककारादि-क्वाथ
(२०१) [६०४] कट्फलादि पानीयजलम् (५) । तृष्णा और वमन का नाश होता है । (भा. प्र. ज्वरे)
[६०७] कणादिक्वाथः (२) कट्फलं त्रिफला दारु चन्दनं सपरूपकम् ।। | (वृ. नि. र. चरे) कटुका पद्मकोशी विपचेत्कर्षकं जले॥
| कणामधुकमृद्वीकाबलाचन्दनसारिवाः । त्रिदोषदाहतृष्णानं पानमात्रे प्रपूजितम् । निःक्वाथ्य पयसा पीताःक्षीणज्वरविनाशनाः।। दीर्घकालज्वरार्तानामेतत्स्यादमृतोपमम् ॥ पीपल, मुल्हैठी, मुनक्का, खरैटी, चन्दन और कर्ष कदफलाा शीरान्तानां समुदितानां । सारिवा । इन्हें दूध में पका कर पीने से मन्द ज्वर जले प्रस्थमिते विपचेदर्द्धशेष पिबेत् ।
(अथवा क्षीण पुरुष का ज्वर) नष्ट होता है। कट्फलादिपानं तृष्णाया दाहे च ।
[६०८] कणादिक्वाथः (३) ___ कायफल, त्रिफला, देवदारु, चन्दन, फालसा,
(वृ. नि. र. ज्वरे) कुटकी, पनाक और खस । सब चीजें मिलाकर कणारसोनामृतवल्लिविश्वानि११ तोला लेकर १ सेर पानी में पकावें जब आधा
दिग्धिकासिंदुकभूमिनिवैः । भाग शेष रह जाय तो उतार कर छान कर रक्खें ।
समुस्तकैराचरितः कषायो ____ यह जल थोड़ा २ पीने से त्रिदोषज दाह
हिताशिनां हंति गदानिमास्तु ॥ और तृष्णा का नाश होता है। यह जल पुराने
ज्वर मरुत्कोपसमुद्भवं तथा ज्वर में अमृत के समान गुणकारी है ।
बलासजं चानलमंदतां च । [६०५] कट्फलादिः [६]
कंठावरोधं हृदयावरोधं स्वेदं (वृ. यो. त. ५९ त.)
च हिक्कां च हिमत्वमोहान् ॥ कदफलेन्द्रयवारिष्ट तिक्तामुस्तैः शृतं जलम् ।।
___पीपल, ल्हसन, गिलोय, सोंठ, कटेली, संभाल, पाचनं दशमेहि स्यात्तीने पित्तज्वरे नृणाम् ।। चिरायता और नागरमोथा । इनका क्वाथ सेवन तीव पित्तवर में दसवें रोज, कायफल,
करने और पथ्य पालन करने से वातज ज्वर, कफ इन्द्रजौ, नीम, कुटकी और नागरमोथे का पाचन
ज्वर,अग्निमांद्य,कंठावरोध, हृदयावरोध, स्वेद, हिचकी, बना कर पिलाने से ज्वर शान्त होता है।
शैत्य और मोह का नाश होता है। ६०६] कणादिक्वाथः (१) .
| [६०९] कणादिक्वाथः (४)
(वृ. नि. र. ज्वरे) कणाकरेणुजलदक्काथो मधुसितायुतः।। पीतो ज्वरातिसारस्य तृष्णावम्योश्च नाशनः ॥
कणाविश्वामृतादारुकिरातैरंडमूलकः । पीपल, गजपीपल, और नागरमोथे के क्वाथ | निंब एषांकृतःक्वाथःपित्तश्लेष्मज्वरापहः ॥ में शहद और मिश्री मिला कर पीने से ज्वरातिसार,
पीपल, सोंठ, गिलोय, देवरारु, चिरायता, १ भा. प्र. मैं नागरमोथा के स्थान पर
| अरण्डमूल और नीमकी छाल। यह क्वाथ, पित्तखील है।
श्लेष्म ज्वरका नाश करता है।
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(२०२)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
[६१०] कण्टकपंचमूलम्
कटेली, गिलोय, देवदारु, यांसा और सोंठ (सु. सं. सु. ३८ अ.) के क्वाथ में पीपल का चूर्ण डाल कर पीने से करमर्दत्रिकण्टकसैरीयकशतावरी । कफवर का नाश होता है।
गृध्रनख्य इति कण्टकसंज्ञः ॥ [६१४] कण्टकार्यादिक्वाथः (४) करौंदा, गोखरु, पियाबांसा, शतावर और । (वृ. नि. र. ज्वरे) नखी । इन पांच द्रव्यों का नाम कण्टक पंचमूल है। बृहती पौष्कर भार्गी शठी शृङ्गी दुरालभा । [६११] कण्टकार्यादिक्वाथः (१) पक्त्वा पानं प्रशंसन्ति श्लेष्मा तेनोपशाम्यति ॥ (वृ. नि. र. कासे)
कटेली, पोखरमूल, भारंगी, कपुर कचरी, कण्टकारीयुगं द्राक्षावासाकचेरवालकैः। काकड़ासिंगी और धमासा । यह काथ कफ का नागरेण च पिप्पल्यांकथितं सलिलं पिबेत ॥ नाश करने के लिये अत्युत्तम है। शर्करामधुसंयुक्तं पित्तकासहरं परम् ॥ [६१५] कण्टकार्यादि क्वाथः (५) दोनों कटेली, मुनक्का, बासा,कचूर, सुगन्धबाला,
___ (वृ. नि. र. अम्ल.) सोंठ और पीपल । इन के क्वाथ में शहद और
कण्ट कार्यमृतावासाकषायं मधुसंयुतम् । मिश्री मिला कर पीने से पित्तज खांसी में अत्यधिक
| अम्लपित्तं जयेत्पीत्वा श्वास कासं वर्मि ज्वरम् ॥ लाभ पहुंचता है।
कटेली, गिलोय और बांसे का क्वाथ शहद
डालकर पीने से अम्लपित्त, श्वास, खांसी, वमन [६१२] कण्टकार्यादिक्वाधः (२) | और ज्वर का नाश होता है।
(भा. प्र. ज्वरे) । [६१६] कण्टकार्यादिपाचनम् (६) कण्टकार्यमृता भार्गी विश्वेन्द्रयववासकम् ।
(वृ. नि. र. ज्वरे.) भूनिम्बचन्दनं मुस्तं पटोलं कटुरोहिणी॥ कण्टकारिद्वयं शुंठी धान्यकं सुरदारु च । विपाच्य पाययेक्वाथं पीत श्लेष्मज्वरापहम् । एभिःशृतं पाचनं स्यात सर्वचरनिवारणम् ॥ दाहष्णारुचिच्छदिकासशूलनिवारणम् ॥ दोनों कटेली, सोंठ, धनिया और देवदारु । ___ कटेली, गिलोय, भारंगी, सोंठ, इन्द्रजौ, बासा, यह पाचन समस्त ज्वरों के लिये हितकारक है। चिरायता, चन्दन, नागरमोथा, पटोलपत्र और [६१७] कण्ठ्य महाकषायः(च. सू. अ. ४) कुटकी। इन का क्वाथ बना कर पीने से पित्तश्लेष्म सारिवे क्षुमूलमधुकपिप्पलीद्राक्षाविदारी ज्वर, दाह, तृष्णा, अरुचि, छर्दि, खांसी और शूल कैटर्यहंसपदीवृहतीकण्टकारिका इति का नाश होता है।
दशेमानि कण्ठयानि भवन्ति ॥ [६१३] कण्टकार्यादिक्वाथः (३) । ___ सारिवा, ईख की जड़, मुल्हैठी, पीपल, दाख,
(वृ. नि. र. ज्वरे) - विदारीकन्द, कायफल, हंसपादी, बड़ी कटेली और कण्टकार्यमृतादारुवृषविश्वासमाश्रितः । छोटी कटेली इन दश चीजों का नाम " कण्ठय क्वाथः कणारजोयुक्तः सद्यः श्लेष्मज्वरापहः॥ | महा कषाय " है।
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ककारादि-क्वाथ
(२०३)
महा कषाय" है।
[६१८] कण्डुन महाकषायः । मुहुर्मुहुरो भुक्त्वा छर्दि जयति दुस्तराम् ।। (च. सू. अ. ४)
___ करंजवे की गिरी को जरा भून कर (भुल चन्दननलदकृतमालनक्तमालनिम्बकुट- भुला कर) टुकड़े टुकड़े करके बार२ खानेसे दुस्सा जसर्षपमधुकदारुहरिद्रामुस्तानीति ध्य वमन का नाश होता है। दशेमानि कण्डुनानि भवन्ति ॥
| [६२२] करंजादिकषायः (च. द. अग्नि) ____ चन्दन, जटामांसी, अमलतास, करञ्जवा, । करंज निंबशिखरीगुडच्यर्जकवत्सकैः। नीम, कुड़ा, सरसों, मुल्हैठी, दारु हल्दी और नागर-पीतः कषायोवमनाद् घोरां हन्याद्विचिकाम् ।। मोथा । इन दस चीज़ोंके योग का नाम " कंडून ! करंजवा,, नींब, चिरचिटा, गिलोय, तुलसी
और कुड़ेका क्वाथ पीने से वमन होकर दुस्साध्य [६१९] कदलीयोगः
विसूचिका (हैज़े) का नाश होता है। (वृ. नि. र. । बं. से. स्त्री. रो; यो. र. सोम.)
[६२३] कर्णप्रक्षालनम्(वृ. नि. र. । कर्ण रो.) कदलीनां फलं पक्वं धात्रीफलरसं मधु।। कर्णप्रक्षालने शस्तं कवोष्णं सुरभीजलम्। शर्करासहित खादेत्सोमधारणमुत्तमम् ॥ | पथ्यामलकमंजिष्ठालोध्रतिदुकवास्तु वा ॥
केले के पक्के फलों में आमले का रस, शहद | कान धोने के लिये मन्दोष्ण गोमूत्र एवं हैड, और खांड मिला कर सेवन करने से सोम रोग नष्ट | आमला, मजीठ, लोध, कुचला और बथुवा, इन के होता है।
क्वाथ हित कर हैं। [६२०] कपिकच्छ्वादिक्वाथः [६२४] कलिङ्गयवषट्कम् (वृ. नि. र. । वा. व्या.)
(बृ. नि. र; ग. नि; अति. यो. त. । त. २१) कपिकच्छुबलैरंडमाषनागरसाधितम् । सहरीतकी प्रतिविषां रुचकं ससैंधवं पिबेत्क्वार्थ नासारंध्रेण मानवः ॥ सवचं सहिंगु सकलिङ्गयुतम् । पक्षाघातं निहत्याशु शिरोरोग हनुग्रहम् ।। इति तत्कलिंगयवषट्कमिदं अदित संधिवातं च मन्यास्तम्भं सुदारुणम् ।। रुधिरातिसारगदशूलहरम् ।। ___कैच के बीज, खरैटी, एरंड, उडद और । हैड, अतीस, कालानमक, वचा, हींग और सोंठ के क्वाथ में सेंधा नमक मिलाकर नासिका | इन्द्रयव इन छः चीजो का क्वाथ रक्तातिसार और द्वारा पीने से पक्षाघात, शिररोग, हनुग्रह, अर्दित, शूल का नाश करता है। सन्धिवात और दुस्साध्य मन्यास्तम्भ का शीघ्र | [६२५] कलिङ्गादि क्वाथः (१) नाश होता है।
(वृ. नि. र. । अति.) [६२१] करंजबीजादि योगः कलिङ्गातिविषा हिंगुपथ्या सौवर्चलं वचा ।
(वृ. नि. र. । छर्दि.) | शूलस्तंभ विबंधप्नं पेयं दीपनपाचनम् ।। ईषत् भृष्टं करंजस्य चीजं खण्डीकृतं पुनः । इन्द्रयव, अतीस, हींग, हैड़, कालानमक और
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(२०४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
वचका क्वाथ शूल, स्तम्भ, मलावरोध नाशक और कसेरू, सिरवाली (शैवाल), अदरक, पुंडरीक, दीपन पाचन है।
मुल्हैटी, कमलनाल, प्रन्थिपर्णी (या पीपलामूल) [६२६] कलिङ्गादि कषायः (२) | और घृत । इन चीजों को दूधमें पकाकर शहद
(वृ. नि. र. ज्वराति.) डालकर पीने से पित्तज हृद्रोग का नाश होता है। कलिङ्गातिविषाशुंठी किराताम्बुयवासकम् ।
[६३०] कसेर्वादि क्वाथ: ज्वरातिसारसन्तापं नाशयेदविकल्पतः॥
(व. नि. र; यो. र; तृष्णा.) इन्द्रयव, अतीस, सोंठ, चिरायता, सुगन्धवाला
कसेरुझंगाटकपद्मबीजबीसेक्षुसिद्धं ससित और जवासा । इनका क्वाथ पीने से ज्वरातिसार
च वारि। नष्ट होता है।
तृष्णां क्षतोत्थामपि पित्तजातां निहंति पीतं [६२७] कलिङ्गादिकषायः (३) ___ (वृ. नि. र. । ज्वरे)
शिशिरी कृतं च ॥ कलिङ्गकटुकीमुस्ताभूनिम्बो ग्रन्थिनागरम् ।
कसेरु, सिंघाड़ा, कमलगट्टा, कमलनाल और राजकन्यादेवदारुः पिबेत्क्वाथं सकृष्णकम् ॥
| ईख । इनके क्वाथको ठंडा करके मिश्री मिलाकर जीर्णज्वरगदे नित्यं सामे चैव निरामये।।
| पीनेसे क्षतज और पित्तज तृषा शान्त होती है। ज्वरांश्च विषमांश्चैव शीतं चातुर्थिक जयेत् ॥ [६३१] काकोदुम्बरिकास्वरसः
इन्द्रजौ, कुटकी, नागरमोथा, चिरायता, पीप- (वृ. नि. र; यो. र; वृ. मा. । स्त्री. रो.) ला मूल, सोंठ, केविका (पुष्प विशेष), देवदारु । क्षौद्रयुक्तं फलरसं काकोदुम्बरजं पिबेत ।
और पीपल । इनका क्वाथ जीर्णज्वर, सामज्वर, असृग्दरविनाशाय सशर्करपयोऽत्र भुक् ॥ निरामज्वर, नित्य (दैनिक) ज्वर, विषमञ्चर, शीत कठूमर (गुलर भेद) के फलोंके रसको मिश्री
और चातुर्थिक (चौथिया) चरका नाश करता है। युक्त दूध के साथ पीने से रक्तप्रदरका नाश होता है। [६२८] कलिङ्गादि क्वाथः (४) [६३२] काकोलीक्वाथः (१) (वृ.नि. र. ज्वरे)
(वृ. नि. र. । बा. रो.) कलिङ्ग कटफलं लोधं पाठा कटकरोहिणी। काकोलीगजकृष्णा च लोध्रमेषां समांशतः। पक्वं सशर्कर पीतं पाचन पैत्तिके ज्वरे ॥ क्वाथो मध्वन्वितःपीतो बालातीसारहुन्मतः ।
इन्द्रजौ, कायफल, लोध, पाठा और कुटकी, काकोली, गजपीपल और लोध समान भाग इनका चीनी युक्त क्वाथ पित्तज्वर-पाचक है। लेकर क्वाथ करके उसमें शहद डालकर पिलानेसे [६२९] कसेरुकादिक्वाथ:
| बालकोंका अतिसार नष्ट होता है। (ब. नि. र. । ह. रो.)
[६३३] काकोल्यादिकषायः (२) कसेरुकाशैवलशृङ्गवेरप्रपौंडरीक मधुकं विसं च। (वृ. नि. र. ज्वरे) प्रन्थिश्च सर्पिः पयसा पचेत्तैः क्षौद्रान्वितं काकोलीबृहतीमुस्ताकुष्ठं दारुवृषामृता ।
पित्तहदामयभम् ॥ शुंठी क्वाथः सितायुक्तो हन्ति वातज्वरं परम् ।।
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ककारादि-कषाय
(२०५)
नाश होता है।
__काकोली, बड़ी कटेली, नागरमोथा, कूठ, । [६३६] काश्चनारादिक्वाथः (१) देवदारु (अथवा दारु हल्दी) बांसा, गिलोय और (यो. र., र. र; भै. र. । मसू.) सोंठके क्वाथमें मिश्री डालकर पीनेसे वातज्वरका ! काश्चनारत्वचाक्वाथस्ताप्यचूर्णावचूर्णितः।
निर्गत्यान्तः प्रविष्टां तु मम्ररी बाह्यतो नयेत् ।। [६३४] काकोल्यादि कषायः (३) कांचनार (कचनार) की छालके क्वाथमें
(बृ. नि. र. . वा. र.) | सोनामक्खी का चूर्ण (भस्म) ालकर पिलानेसे *काकोल्याख्यामृताक्वार्थ छुपी हुई मसुरिका (वेचक) बाहर निकल आती है।
पिबेत्कोष्णं यथावलम्। [६३७] काञ्चनारक्वाथः (२) पथ्यभोजी त्रिसप्ताहा
(वृ. नि. र., यो. र. । सुखः । न्मुच्यते वातशोणितात् ॥ कांचनारत्वचा क्वाथः प्रातरास्ये धृत सुखः। काकोली और गिलोयके किञ्चितोष्ण क्वाथको कुर्यात्सखदिरो जिव्हादरणोन्मुलन मुहः ।। बलानुसार २१ दिन पीने और पथ्य पालन कर- यदि जिह्वा फट गयी हो तो कचनार और नेसे वातरक्तका नाश होता है।
खैरकी छालका क्वाथ प्रातःकाल मुखमें धारण [६३५] काकोल्यादि गणः करनेसे आराम होता है।
(प.सं. सू.३८ अ.) | [६३८] काञ्चनारादिक्वाथ: (३) काकोलीक्षीरकाकोलीजीवकर्षभकमुद्गपर्णीमा- (शा. ध. म. खं, अ. २; यो. र; गण्डमाला.) पपर्णीमेदामहामेदाच्छिन्नरुहाकवटभृङ्गीतुगा- कांचनारत्वचः काथः शुंठीचूर्णेन नाशयेत् । क्षीरीपद्मकप्रपौण्डरीकद्धिं वृद्धिमृद्वीकाजीवन्त्यो गण्डमालां तथा क्वाथः क्षौद्रेण वरुणत्वचः।। मधुकञ्च।
___कचनारकी छालके क्वाथमें सोंठका चूर्ण काकोल्यादिरयं पित्तशोणितानिलनाशनः। मिलाकर अथवा बरनेकी छालके क्वाथमें शहद जीवनो बृहणो वृष्य स्तन्य श्लेष्मकरस्तथा ॥ डालकर पीनेसे गण्डमालाका नाश होता है। ___ काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक, ऋषभक, ६३९] काश्मर्यादिः (१) (यो. र. ज्वरे) मुद्गपर्णी, माषपर्णी, मेदा, महामेदा, गिलोय, काक- काश्मरीसारिवाद्राक्षात्रायमाणामृतोद्भवः । डासींगी, बंसलोचन, पद्याक, पुण्डरीक, ऋद्धि, वृद्धि, कषायः सगुडः पीतो वातज्वरविनाशनः ।। मुनक्का, जीवन्ती और मुल्हैठी । इन औषधियोंके खम्भारी, सारिया, मुनक्का, त्रायमाणा (बनयोगका नाम “काकोल्यादि गण" है।
फशा) और गिलोयके क्वाथमें गुड़ मिलाकर पीनेसे काकोल्यादि गण रक्तपित्त और वायुनाशक वातज्वर नष्ट होता है। तथा जीवनीय, वृहणीय, वृष्य, स्तन्यजनक एवं | [६४०] काइमर्यादिः (२) (यो. र., तृ. पि.) कफकारक है।
काश्मर्यशर्करायुक्तं चन्दनोशीरपमकम् । *कोकिलाक्षेति पाठान्तरम् । द्राक्षामधुकसंयुक्तं पित्ततर्षे जलं पिबेत् ॥
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(२०६)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
___ पित्तज तृषाकी शांतिके लिये खम्भारी, चन्दन, । [६४४] किराततिक्ताविकाथः (१) खस, पधाक, दाख और मुल्हैठीसे पानी पकाकर । (च. सं. चि. ज्वरा.) उसमें खांड डालकर पीना चाहिये । किराततिक्तकं तिक्ता मुस्ता पर्पटकोऽमृता । [६४१] काश्मर्यादिक्वाथ: (३) मन्ति पीतानि चाभ्यासात्पुनरावर्तकं ज्वरम् ।। (वृ. यो. त. ९१ त.)
___ चिरायता, कुटकी, नागरमोथा, पित्तपापड़ा
और गिलोय । इनका क्वाथ बना कर सेवन कर
| नेसे पुनरावर्तक (लोट २ कर आने वाला) ज्वर पित्तोत्तरे तु काश्मर्यद्राक्षारग्वधचन्दनैः॥ । नष्ट होता है।
पित्त प्रधान वातरक्तकी शांतिके लिये थोड़ी [६४५] किराताविकाथः (२) (भा. प्र. ज्वरे) थोड़ी देरमें खम्भारी, दाख, अमलतास और चन्द- किरातविश्वामृतवल्लिसिंहिका नसे पका हुआ दूध पीना चाहिये ।
___ व्याघी कणामूलरसोनसिन्दुकैः । [६४२] कासहरमहाकषायः (च.सं.सू.अ.४)
कृतःकषायो विनिहन्ति सत्वरं द्राक्षामयामल कपिप्पलीदुरालभाशृङ्गीकण्ट
___ ज्वरं समीरात्सकफात्समुत्थितम् ॥ कारिकाधीरपुनर्नवातामलक्य इति दशेमानी जमा
चिरायता, सोंठ, गिलोय, बड़ी कटेली [या
बांसा], कटेली, पीपलामूल, लहसन और संभालु । कासहराणि भवन्ति ।
| इनका क्वाथ वातकफज्वरका अत्यन्त शीघ्र नाश ___ मुनक्का, हैड़, आमला, पीपल, धमासा, काक- | करता है। डासींगी, कटेली, वृश्चीर (पुनर्नवा भेद) पुनर्नवा, [६४६] किरातादि सप्तकः (३) (साटी–विसखपरा) और भूई आमला । इन दस (भा. प्र., ग. नि; बुं.मा, ज्वरे) औषधियों का नाम "कासहर–महाकषाय” है। किराततिक्तकं मुस्तं गुडूची विश्वभेषजम् । [६४३] किरमालादिक्वाथः (वृ.नि.र.ज्वरे) पाठोदीच्यं मृणालश्च भृतं पित्ताधिके पिबेत् ।। किरमालो वचा हिंगु बालकं धान्यकं निशा।
चिरायता, नागरमोथा, गिलोय, सोंठ, पाठा,
| सुगन्धबाला और कमलनाल । इनका कषाय पित्तमुस्तायष्टिस्तथा मार्गी पर्पटः समभागतः॥
प्रधान सन्निपातका नाश करता हैं। अष्टावशेषित काथो मधुना प्रतिपाकतः। ।
[६४७] किरातादिक्वाथः (४) श्लेष्म पित्तज्वरं हंति रोगिणः पथ्यभोजिनः॥
(भा. प्र. ज्वरे) अमलतासका गूदा, वच, हींग, सुगन्धवाला, | किरातकटुकाकणाकुटजकण्टकारीशठीधनिया, हल्दी, नागरमोथा, मुल्हैठी, भारंगी और | फलिद्रकिलिमाभयाकटुककदफलाम्भोधरैः। पित्तपापडा । सब चीजें समान भाग लेकर क्वाथ | विषामलकपुष्करानलकुलीरशृङ्गी षैबनावें । आठवां भाग शेष रहने पर छानकर उसमें महौषधसखैरयं जयति कण्ठकुन्जं गणः॥ शहद डालकर पीने और पथ्य पालन करनेसे कफ- । चिरायता, कुटकी, पीपल, इन्द्रजौ, कटली, पित्तज ज्वरका नाश होता है।
शठी [कपूर कचरी], बहेड़ा, देवदारु, हैड, काली
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ककारादि क्वाथ
मिर्च, कायफल, नागरमोथा, अतीस, आमला, पोखरमूल, चीता, काकडासिंगी और बासा इनका क्वाथ पीनेसे कंठकुब्ज सन्निपातका नाश होता है। [६४८] किरातादिक्वाथः (५) (च.द. ज्वरे) चिरज्वरे वातकफोल्वणे वा - त्रिदोषजे वा दशमूलमिश्रः । किराततिक्तादिगणः प्रयोज्यः शुद्धयर्थिनेवात्रिवृत्ताविमिश्रः ॥ पुराने बुखार, वातकफज्वर और सन्निपात ज्वर की शान्तिके लिये दशमूलयुक्त “किराततितादि गण" * का क्वाथ सेवन करना चाहिये । यदि शोधनकी इच्छा हो तो उसीमें निसोत मिला लेनी चाहिये ।
[ ६४९] किरातादिक्वाथः (६) (बृ. नि. र. ज्वरे) किरातान्दामृताविश्व चंदनोशीश्वत्सकैः । शोथातिसारशमनं विशेषाज्ज्वरनाशनम् ॥
चिरायता, नागरमोथा, गिलोय, सोंठ, चन्दन, खस और इंद्रजौ । इनका क्वाथ शोथ और अतिसार नाशक विशेषतः ज्वर नाशक है । [६५०] किरातादि कषाय: (७) (बृ. नि. र. ज्वरे ) किरातामृतधन्याक चन्दनोशीरपर्पटैः ।
॥
कैः कृतः काथो हन्ति पित्तभवं ज्वरम् दातृष्णाश्रमरुचित्क्लेशं वमथुं क्लमम् ॥
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( २०७ )
चिरायता, गिलोय, धनिया, चन्दन, खस,
इनका काथ पैत्तिक अरुचि, उबकाई और
पित्तपापड़ा और पद्माक । ज्वर, दाह, तृष्णा, श्रान्ति, वमनका नाश करता है । [६५१] किरातादिक्वाथः (८)
(भा. प्र., भैर; वृ. मा; ज्वरे) किराततिक्तममृता द्राक्षाचामलकं शठी । निष्काथ्य सगुडं क्वाथं वातपित्तज्वरे पिबेत् ॥
चिरायता, गिलोय, मुनक्का, आमला और कपूरकचरी, इनका काथ बना कर गुड़ मिलाकर पीने से वातपित्तज्वर शान्त होता है । [६५२ ] कुटजदाडिमक्वाथः (भा. प्र. अति.)
वत्सत्वग्दाडिमतरुशलादुफलसम्भवात्वक् च । त्वग्युगलं पलमानं विपचेदष्टांशसम्मितं तोये || अष्टमभागशेषं काथं मधुना पिबेत्पुरुषः । रक्तातिसारमुल्बणमतिशयितं नाशयेन्नियतम् ।।
कुड़े की छाल और अनार के कच्चे फलो का छिलका, दोनों चीजें २॥ - २॥ तोले ले कर आधा सेर पानी में पकावें, जब ५ तोले पानी शेष रह जाय तो उतार कर छान कर ठंडा कर के उस में शहद मिला कर पिलावें । इस से भयंकर रक्तातिसार भी नष्ट हो जाता है ।
[६५३ ] कुटजयोगः (वृ.नि. र., यो. र; |मू. कृ.) पिष्ट्वा गोपयसा श्लक्ष्णं कुटजस्य त्वच पिबेत् । तेनोपशाम्यति क्षिप्रं मूत्रकृच्छ्रं सुदारुणम् ॥
कुड़े की छाल को गाय के दूध में पीस कर
*
किराततिकादि गण ।
किराततिक्तको मुस्तं गुडूची विश्व मेषजम् । पीने से दारुण मूत्रकृच्छ्र का भी नाश हो जाता है। किरातादिगणो ह्येष चातुर्भद्रकमित्यपि ॥
चिरायता, नागरमोथा, गिलोय और सोंठ। इसका नाम किरातादि गण है । " चातुर्भद्रक" भी इसको कहते हैं ।
[६५४] कुटजक्षीरम् (भा. प्र. रक्ताति.) निःक्काथ्यमूलममलं गिरिमल्लिकायाः सम्यकूपले द्वितयमम्बु चतुःशरावे ।
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(२०८)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
तत्पादशेषसलिल खलु शोषणीयं । कुमारिमूलं कर्फकं पीत्वा कोष्णजलैर्वमेत् ॥
क्षीरे पलद्वयमिते कुशलैरजायाः॥ विषमं तु ज्वरं हंति वमनेन चिरंतनम् ॥ प्रक्षिप्य माषकानष्टौ मधुनस्तत्र शीतले। १। तोला धीकुमारी की जड़ को किंचित् रक्तातिसारी तत्पीत्वा नैरुज्यं क्षिप्रमवाप्नुयात्।। गर्म पानी के साथ पी कर वमन करने से पुराने ___ कुड़े की १० तोला स्वच्छ छाल को २० | विषमञ्चर का नाश होता है। सेर पानीमें पकावें, जब चौथा भाग रह जाय तो | [६५८] कुलकादिक्वाथः (वै. जि. प्र.वि.) उसे छान कर उसके साथ १० तोला बकरी का | किमु भ्रमयसि प्रिये कुवलयकराभ्यामिदं दूध पकावें । जब केवल दूध बाकी रह जाय तो | मदीय वचनं सुधारससमं समाकर्णय ।। उसे ठंडा कर के उस में ७॥ माशे (आधा कष) | पुराणविषमज्वरे कुलकनिंबसिंहींद्रजा. शहद डाल कर पियें । इस के सेवन करने से रक्ता- मृताधनकषायको मधुयुतो बरीवर्तते ।। तिसार अत्यन्त शीघ्र नष्ट होता है।
पटोल पत्र, नीम की छाल, कटेली, इन्द्रजौ, [६५५] कुटजादि स्वेदः
| गिलोय और नागरमोथे के काथ में शहद मिला (वृ. नि. र., ग. नि. ३३ शोथे) | कर पीने से पुराने विषमञ्चर का नाश होता है । कुटजार्कशिरीषाणां विदलै(?) रण्डनिम्बजैः। [६५९] कुलत्थक्वाथः (१) पत्रैर्युक्तं जलं तप्तं तत्स्वेदो दुष्टशोफहत् ।।
(वृ. नि. र. अश्म.) ___ कुड़े की छाल, आक, सिरस की छाल, अरण्ड | पलद्वयमिते कोष्णे कुलत्थस्य भृते त्वपः(१)। और नीम के पत्ते । इन्हें पानी में पका कर भपारा लवणं शरपुंखेन साधं माषद्वयोन्मितम् ॥ लेने से सूजन का नाश होता है। | क्षिप्त्वा पिवेत्पतेत्तस्य मत्रेण सममश्मरी । [६५६] कुटजाष्टक क्वाथः
शर्करा सिकता चापि दृष्टमेतदनेकधा ॥ (शा. ध. म. खं. अ २) ____ कुलथी के १० तोले किंचितोष्ण (कुछ गरम) कुटजातिविषापाठा धातकीलोध्रमुस्तकैः। क्वाथ में सरफोंके और सेंधा नमक का २ माशे हीबेर दाडिमयुतैः कृतः काथः समाक्षिकः।। । (१६ रत्ती) चूर्ण मिलाकर पीने से पथरी और पेयो मोचरसेनैव कुटजाष्टकसंज्ञकः। शर्करा (रंग) आदि मूत्र के साथ निकल जाती हैं । अतिसारान् जयेद्वातरक्तशूलायदुस्तरान् ॥ ६६०] कुलत्थादिक्वाथः (२) कुड़ा, अतीस, पाठा, धाय के फूल, लोध,
(वृ. नि. र; हिक्का .) नागरमोथा, सुगन्धबाला और अनार की बकली । कुलस्थनागरव्याघ्रीवासाभिः कथितं जलम् । इन के काथ में मोचरस का चूर्ण और शहद डाल | पीतं पुष्करसंयुक्तं हिकाश्वासनिवारणम् ॥ कर पीने से वातातिसार, रक्तातिसार तथा शूल और | . कुलथी, सोंठ, कटेली और बांसेके क्वाथ में आमयुक्त अतिसार का नाश होता है । पोखरमूल का चूर्ण मिलाकर पीनेसे हिचकी और [६५७] कुमारीमूलादिवमनम् | श्वास नष्ट होते हैं। (बृ. नि. र. ज्वरे.)
(?) "जले इति समुचितपाठ'
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कारादि क्वाथ
[६६१] कुलत्थादिक्वाथः (३) (बृ. नि. र. कासे) कुलत्थं कण्टकारी च तथा ब्राह्रायष्टिका । शुण्ठीसुरभिसंयुक्तः कासश्वासज्वरापहः ॥
कुलथी, कटेली, भारंगी, सोंठ और तुलसी । इनका क्वाथ खांसी, श्वास और ज्वर का नाश करता है । [६६२] कुलत्थादिक्वाथः ( ४ ) (वृ. नि. र; यो. र; हिक्का ) कुलत्थय वकोलाम्बुदशमूलबलाजलम् । पानार्थं कल्पयेत्कास हिक्काश्वासप्रशांतये ॥
खांसी, श्वास और हिंचकीकी शांति के लिये कुलथी, जौ, बेर, सुगन्धबाला, दशमूल और खरैटी का क्वाथ पिलाना चाहिये ।
|
[६६३] कुष्ठप्न महाकषायः (च. सं. सू. अ. ४) स्वदिराभयामलक हरिद्रारुष्कर सप्तपर्णारग्वधकरवीरविडंगजातिप्रवाला इति दशेमानि कुष्ठघ्नानि भवन्ति ।
खैर, हैड़, आमला, हल्दी, भिलावा, सतौना, अमलतास, करवीर (कनैर), बायबिडंग और चमेली के पत्ते । यह चीजें कुष्ट नाशक हैं। [६६४] कुष्ठादिक्वाथः (बृ. नि. र. ज्वरे ) कुष्ठमिन्द्रवयं मूर्वा पटोलेनापि साधितम् । पीवेन्मरीच संयुक्तं सक्षौद्रं कफजे ज्यरे ॥
1
कूठ, इन्द्रजौ, मूर्वा और पटोलपत्र । इनके क्वाथ में शहद और काली मिर्च का चूर्ण मिलाकर पिलानेसे कफज ज्वर का नाश होता है । [६६५] कूष्माण्डादियोगः
(वृ, नि. र; यो. र; व. से; अपस्मा . )
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( २०९ )
कुष्मांड कपीडोत्थेन रसेन परिपेषितम् । अपस्मारविनाशाय यष्टयाह्न स पिबेत्यहम् ||
कुम्हेड़े (पेट) के रस में मुल्हैटीको पीसकर तीन दिन तक पीने से अपस्मार का नाश होता है । [६६६] कृमिघ्न महाकषायः (च. सं. सु. अ. ४) अक्षी मरिचगण्डीरकेवूकविडङ्गनिर्गुडीकिfunी वदंष्ट्रा वृषपर्णिका खुपर्णिका ।
इति दशेमानिकृमिघ्नानि भवन्ति ॥ सौंजना, कालीमिर्च, गण्डीर ( मजीठ ), केवूक बायबिडंग, संभालु, चिरचिटा, गोखरू, वृषपर्णी और मूषापर्णी । यह दश चीजें कृमिघ्न हैं। [६६७] कृमिशत्रवादिक्वाथः (वृ. नि. र. अति.) कृमिशत्रु वचाबिल्वपेशीधान्याककट्फलम् । एषां कथं भिषग् दद्यादतीसारे बलासजे ||
बायबिडंग, बच, बेलगिरी, धनिया और कायफल | इनका काथ कफज अतिसारका नाश करता है । [६६८] केतकी मूलयोगः (२. २. । मेहे) त्रिनिष्कं केतकी मूलं घृष्ट्वा जलेन पाययेत् । जयन्त्या वा जयायुक्तं मेहं हन्ति समुत्कटम् ॥
१ तोला केतकी की जड़को जयन्ती या जया (अरणी ) के साथ पानीमें पीसकर सेवन करनेसे भयंकर प्रमेहका नाश होता है ।
[६६९] कोकिलाक्षादिः (यो. र. 1 वा. र. ) कोकिलाक्षामृताक्कार्थं पिबेत्कोष्णं यथा बलम् । पथ्यभोजी त्रिसप्ताहान्मुच्यते वातशोणितात् ॥
बलानुसार तीन सप्ताह तक तालमखाना और गिलोयका किंचितोष्ण काथ पीने और पथ्य पालन करनेसे वातरक्तका नाश होता है ।
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(२१०)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
अथ ककारादि चूर्ण प्रकरणम् [६७०] ककुभचूर्णम् (यो. र. कासे) । पिबेत् सचूर्ण ककुभत्वचोत्थम् । काकुभ पिष्टं कृत्वा वासारसभावितं बहून् वारान्॥ हृद्रोगजीर्णज्वररक्तपित्त मधुघृतसितोपलाभिलेह्य क्षयकासरक्तपित्तहरम् । जित्वा भवेयुश्चिरजीविनस्ते ॥
अर्जुनकी छालका चूर्ण करके बासाके रसकी घृतके साथ, दूधके साथ अथवा गुड़के पानी अनेक भावना देकर शहद, घी और चीनी के साथ
के साथ अर्जुन की छाल का चूर्ण पीने से हृद्रोग, मिलाकर चाटने से क्षय, खांसी, और रक्तपित्त का
जीर्णज्वर और रक्तपित्तका नाश होता है एवं नाश होता है।
दीर्घायु प्राप्त होती है। [६७१] ककुभादिचूर्णम् (भै. र. हृद्रोगे) [६७४] कटुकादिः (यो. र. हृदोगे) ककुभत्वग्वचा रास्ता बला नागवलाभया। पिष्ट्वा वा कटुका पेया सयष्टीका सुखाम्बुना। शटीपष्करमल पिप्पली विश्वभेषजम॥ जीर्णज्वरं रक्तपितं हृद्रोगं च व्यपोहति सर्वाण्येतानि संचूर्ण्य सर्पिषा शाणमात्रया। कुटकी और मुल्हैठीको पीसकर किंचितोष्ण भक्षयेत्प्रातरुत्थाय सर्वहृद्रोगशान्तये ॥
| पानीके साथ पीनेसे जीर्णज्वर, रक्तपित्त और हृद्रो
गका नाश होता है। अर्जुनकी छाल, बच, रास्ना, खरैटी, नागबला ( गंगेरन ) हैड, कपूरकचरी, पोखरमूल, पीपल और
[६७५] कटुकी चूर्णम् (१) सोंठ । सब चीजें समान भाग लेकर चूर्ण करें।
(वृ. नि. र. ज्वरे। यो. चि. म. अ. ७)
| सशर्करामक्षमात्रा कटुकी चोष्णवारिणा । इसे प्रातः काल ४ माशे की मात्रानुसार |
पीत्वा ज्वरं जयेजन्तुः पित्तश्लेष्मसमुद्भवम् ।। सेवन करनेसे सब प्रकारके हृद्रोग नष्ट होता है।
१। तोला प्रमाण कुटकीका चूर्ण खांड और [६७२] ककुभायं चूर्णम् (१)
गरम पानीके साथ सेवन करनेसे पितकफचर (वृ. नि. र. क्षय.)
| नष्ट होता है। ककुभत्वङ्नागबलाधात्रीवातारिबीजानाम् । [६७६] कटुकी चूर्णम् (२) चूर्ण मधुघृतयुक्तं सशिवं यक्ष्मादिकासहरम् ।। (वृ. नि. र । बालरोग.) ___ अर्जुन की छाल, नागबला (गंगेरन ), | चूर्णकटुकरोहिण्या मधुना सहयोजयेत् । आमला, अरण्ड के बीज और सुहागेकी खील । | हिक्कां प्रशमयेत्क्षिप्रं छर्दिश्चापि चिरोत्थिताम् ॥ सब समान भाग लेकर चूर्ण कर के रक्खें। कुटकी का चूर्ण शहद के साथ चाटने से
इसे शहद और धी के साथ सेवन करने से | पुरानी हिक्का (हिचकी ) और छर्दि (वमन) यक्ष्मा और खांसी आदिका नाश होता है। का नाश होता है। [६७३] ककुभायं चूर्णम् (२) [६७७] कटुत्रिकादि (वृ. नि. र. कासे) (यो. र. हृद्रोगे)
कटुत्रिकं च चूर्णित गुडेन सर्पिषा युतम् । घृतेन दुग्धे गुडाम्भसावा
निहन्ति कास दरं निषेवणं निरंतरम् ।।
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ककारादि-चूर्ण
(२११)
त्रिकुटे ( सोंठ, मिर्च पीपल ) का चूर्ण, गुड़ | आर्द्रकखरसक्षौद्रेलियात् कफविनाशनम् । धीमें मिलाकर निरन्तर सेवन करनेसे खांसी नष्ट | शूलानिलारुचिच्छर्दिकासश्वासक्षयापहम् ॥ होती है।
कायफल, पोखरमूल, काकडासींगी, नागर[६७८] कटुञयादिचूर्णम् (बृ. नि.र. कासे) | मोथा, त्रिकुटा और कपूरकचरी । इन सब का कटुत्रयं पावकदेवदारुराना
अथवा एक एक औषधिका महीन चूर्ण करके विडंगत्रिफलाऽमृतानाम् ।
अदरकके रस और शहदमें मिला कर चाटनेसे चूर्ण समाशं सितया समेतं
| कफ, शूल, वायु, अरुचि, वमन, खांसी, श्वास कासंजयेद्विष्णुगदेव दैत्यान् ॥ । | और क्षय का नाश होता है । त्रिकुटा, चीता, देवदारु, रास्ना, बायबिडंग, [६८२] कट्फलादिः (३) (भा. प्र. । अति.) त्रिफला और गिलोय। सब चीजें समान भाग | कट्फलं मधुकं लो| त्वग्दाडिमफलस्य च । लेकर चूर्ण करें।
सतण्डुलजलं चूर्ण वातश्लेष्मातिसारनुत् ॥ इसे मिश्रीमें मिलाकर सेवन करनेसे खांसीका ___कायफल, मुल्हैठी, लोध और अनारके फल के नाश होता है।
छिलके (नासपाल) इनका चूर्ण चावलों के पानी के [६७९] कट्फलादिचूर्णम् (१) | साथ सेवन करनेसे वातकफज अतिसार नष्ट
(शा. घ. म. खं अ. ६) होता है। कट्फलं मुस्तकं तिक्ता शुंठी *शृंगी च पौष्करम् [६८३] कणाधं चूर्णम् (१) चूर्णमेषां च मधुना शृंगबेररसेन वा ॥
(वृ. नि. र. अजी.) लिहेज्ज्वरहरं कंठयं कासश्वासारुचीर्जयेत् ।। कणासिंधुशिवावहिचूर्णमुष्णेन वारिणा। वायु छर्दि तथा शूलं क्षयं चैव व्यपोहति पीतं प्रातः क्षुधा कुर्यात् पावकस्यापि दीपनम ___कायफल, नागरमोथा, कुटकी, सोंठ, काक- पीपल, सेंधानमक, हैड और चीता। इनका डासींगी और पोखरमूल। इनके चूर्ण को शहद | चूर्ण गरम पानीके साथ सेवन करनेसे क्षुधा वृद्धि या अदरकके रसमें मिलाकर सेवन करनेसे ज्वर, | और अग्निदीप्ति होती है। खांसी, श्वास, अरुचि, वायु, वमन, शूल और [६८४] कणाचं चूर्णम् (२) क्षयका नाश होता है। यह चूर्ण कण्ठके लिये (यो. र. । दन्तरो.) भी हितकारी है।
कणासिंधूत्थजरणचूर्ण तूर्ण व्यपोहित । [६८० कट्फलादिचूर्णम् (२) घर्षणाद्दन्तचाश्चल्यव्यथाशोथास्त्रसंस्त्रवान् ॥
(शा. ध. म. ख अ. ६) ____ पीपल, सेंधानमक और जीरा । इनका चूर्ण कट्फलं पौष्करं शृङ्गी मुस्ता त्रिकटुक शठी। बना कर मंजन करनेसे दांतोंका हिलना, दर्द, समस्तान्येकशो वापि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ॥ मसूढ़ोंकी सूजन और उनसे रक्त जाना आदि रोग * शठीति पाठान्तरम् ।
नष्ट होते हैं।
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भारत - भैषज्य रत्नाकर |
( २१२ )
[ ६८५ ] कतकबीजयोगः (वृ. नि. र. ) कर्षप्रमाणं कतकस्य बीजं
तक्रेण पिष्ट्वा सहमाक्षिकेन । प्रमेहजालं विनिहति सद्यो
रामो यथा रावणमाजधान ॥ निर्मलीके बीज १। तोला लेकर छाछ (तक्र) में पीसकर शहद के साथ सेवन करनेसे समस्त प्रकार के प्रमेह अत्यन्त शीघ्र नष्ट होते हैं । [६८६] कपित्थादिकल्कम (बृ. नि. र. । स्त्रीरो.) कपित्थवेणुपत्रं च सममेकत्र पेपयेत् । मधुना सह पातव्यं तीव्रप्रदरनाशनम् ॥
कैथ और बांसके पत्ते एक साथ पीस कर शहद में मिलाकर पीने से दुस्साध्य प्रदर भी नष्ट हो जाता है।
[ ६८७] कपित्थादि चूर्णम्
(च. संचि. अ. १०) कपित्थमध्यं लीवा तु सव्योपक्षौद्रशर्करम् । कट्फलं मधुयुक्तं वा मुच्यते जठरामयात् ॥
कैथकी गिरी और त्रिकुटे के चूर्णको शहद और खांडमें मिलाकर चाटने से अथवा कायफलके चूर्ण को शहद में मिलाकर सेवन करने से उदर रोग शांत होते हैं ।
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यवानी पिप्पलीमूलचातुर्जातकनागरैः । मरिचाग्निजलाजाजीधान्य सौवर्चलैः समैः ॥ वृक्षाम्लघातकी कृष्णाचिल्वदाडिमतिन्दुकैः । त्रिगुणैः पद्गुणसितः कपित्थाष्टगुणैः कृतः ।। चूर्णोऽतिसारग्रहणीक्षयगुल्मगलामयान् । कासं श्वासारुचिं हिक्कां कपित्थाष्टमिदं जयेत् ॥
अजवायन, पीपलामूल, चातुर्जातक (दालचीनी, तेजपात, नागकेसर, इलायची), सोंठ, काली मिर्च, चीता, सुगन्धवाला, जीरा, धनिया, सौंचल नमक प्रत्येक १ - १ भाग । अमलवेत, धाय के फूल, पीपल, बेल की गिरी, दाड़िम और तेंदु | प्रत्येक ३ भाग । खांड ६ भाग और कैथ ८ भाग ।
यह (कपित्थाष्टक) चूर्ण अतिसार, ग्रहणी, क्षय, गुल्म, गलेके रोग, खांसी, श्वास, अरुचि और हिक्का ( हिचकी) नाशक है । [ ६९०] कम्पिलादि चूर्णम् (च. सं. चि. अ. १० ग. नि. ३० प्रमेह, वृ. म. ) कम्पिल्लसप्तच्छदशालजानि
वैभीतरौहीतककौटजानि । कपित्थपुष्पाणि च चूर्णितानि क्षौद्रेण लिह्यात्कफपित्तही ॥ कमीला, सतौना, साल, बहेड़ा, रुहेडा, कुड़ा और कैथ के फूल | सब चीज़े समान भाग लेकर चूर्ण करें । इसे शहदके साथ सेवन करने से कफपित्तज प्रमेह नष्ट होते हैं ।
[६८८] कपित्थादिपेयाः (च. सं. सू. अ. ३) कपित्थबिल्व चांगेरी तकदाडिमसाधिता । पाचनी ग्राहिणी पेया सवाते पाचमूलिकी ॥
[
६९१] करञ्जादिचूर्णम्
कैथ, बेल, चांगेरी, दाड़िम और तक (छाछ) से बनायी हुई पेया ग्राहिणी और पाचन होती है। वातदोष की प्रबलता हो तो पचमूल से सिद्ध पेया देनी चाहिये ।
[वृ. नि. र. अर्शे । भा. प्र. म. खं. २ ] चिरबिल्वानिसिंधूत्थना गरेन्द्रयवारलून् । क्रेण feast निपतत्यसृजासह || करंजवा, चीता, सेंधानमक, सोंठ, इन्द्रजौ
[६८९] कपित्थाष्टकं चूर्णम् (च. द । ग्रह.) और अर | इनका चूर्ण करके तक (छाछ) के
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ककारादि-चूर्ण
(२१३)
साथ पीनेसे खूनी बवासीरके मस्से गिर जाते हैं। पीतमुष्णांमसा चूर्ण मूत्ररोध निवारयेत् ॥ [६९२] करञ्जबीजादिः (यो. र. छर्दि.) ककड़ी के बीज, सेंधा नमक और त्रिफला। ईषद्धृष्ट करञ्जस्य बीजं खण्डीकृतं पुनः। सब चीज़े समान भाग लेकर चूर्ण करके गरम महर्मुहुरो भुक्त्वा छर्दि जयति दुस्तराम् ॥ पानी के साथ पीने से मूत्रावरोध (पेशाब बन्द होना)
करंजवे की गिरी को कुछ भून कर ट्रकड़े | नष्ट होता है। टुकड़े करके बार बार खाने से दुस्साध्य छर्दि भी | [६९६] कर्कोटकाद्युद्वर्तनम् नष्ट हो जाती है।
_ (वृ. नि. र. सन्नि.) [६९३] करजादिपुटपाकः
कर्कोटिकाकंदरजाकुलित्था(वृ. नि. र. गुल्मे.)
__कृष्णावचाकट्फलकृष्णजीरैः । करञ्जवटपत्राणि चव्यं वहिः कटुत्रयम् । किराततिक्तानिकटवलाबु इन्द्रवारुणिकामूलं पुटे पाच्यं ससैन्धवम् ॥ पथ्याभिरुद्वर्तनमत्र शस्तम् ॥ तद्पक्कं वारिणा पीतं पलार्द्ध मधुनापि वा । (शीतांग सन्निपात में) ककोड़े की जड़, हंति गुल्मोदरं पाण्डु द्वन्दजं श्वय) तथा ।। | कुलथी, पीपल, बच, कायफल, काला जीरा, चिरा
___ करंजवेके पत्ते, बड़के पत्ते, चव, चीता, | यता, चीता, कड़वी तोरी और हैड़ । इनका चर्ण त्रिकुटा, इन्द्रायन की जड़ और सेंधा नमक, इन्हें | करके शरीर पर मालिश करना चाहिये। पुट पाक करके चूर्ण बनावें ।
[६९७] कर्पूराद्यं चूर्णम् इस चूर्णको २॥ तोलेकी मात्रानुसार जल के (यो. र. । कासे; व. से । राजय.) साथ अथवा शहद के साथ पीने से गुल्म, उदर कपूरचोचककोलजातीफलदलाः समाः। रोग, पांडु और द्वंदज शोथ का नाश होता है। लवङ्गमांसीमरिचकृष्णाशुण्ठीविवद्धिताः। [६९४] करादि शीर्षरेचनम् चूर्ण सितासमं ग्राह्यं रोचनं क्षयकासजित् । (वृ. नि. र. । शिगे.)
वैस्वर्यश्वासगुल्मार्शच्छर्दिकण्ठामयापहम् ।। करञ्जशिशु बीजानि पत्रकं सर्षपत्वचः।। प्रयुक्तं चानपानेषु भिषजा रोगिणां हितम् ॥ सर्वेषां शीर्षरोगणामेतच्छीर्षविरेचनम् ॥ ___ कपूर, चोच, (दाल चीनी भेद) कंकोल, जाय___ करंजवे के बीज, सौंजने के बीज, तेजपात, | फल, पतरज प्रत्येक १-१ भाग । लौंग १ भाग, सरसों और दालचीनी, सब चीजें समान भाग जटामांसी २ भाग, काली मिर्च ३ भाग, पीपल ४ लेकर चर्ण करें।
भाग, सोंठ ५ भाग और खांड सब के बराबर । ___इसकी नसवार लेने (सूंघने) से शिरोविरेचन यथा विधि चूर्ण तैयार करें। होकर समस्त शिरोरोग नष्ट होते हैं ।
इसे सेवन करने और पथ्य पालन करने से [६९५] कर्कटीवीजादि चूर्णम् अरुचि, क्षय, खांसी, स्वरभंग, श्वास, गुल्म,
(बृ. नि. र. । मूत्रा.) बवासीर, वमन और कंठरोग नष्ट होते हैं। कर्कटीवीजसिंधूत्थत्रिफलासमभागिकम् । [६९८] कलिंगादि चूर्णम्(वृ. नि. र. । ज्वरे)
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भारत-भैषज्य रत्नाकर
कलिंगरोहिणीनिशाकटुत्रिकेभकेसरम् । [७०१] काकजङ्घादिः (वृ. नि. र. । स्त्री. रो.) विचूर्णित कफज्वरं निहंति कोष्णवारिणा।। काकजानुकमूलं वा मूलं कार्पासमेव च ।
इन्द्रजौ, कुटकी, हल्दी, त्रिकुटा और नाग- पांडुप्रदरशांत्यर्थ पिबेत्तंदुलवारिणा ॥ केसर । इन का चूर्ण बनाकर किञ्चितोष्ण (गुनगुने) । काकजंघा अथवा कपास की जड़ को पीस पानी के साथ सेवन करने से कफज ज्वर का | कर चावलों के पानी के साथ पीने से पांड्ड और नाश होता है।
प्रदर का नाश होता है। [६९९] कल्याणकं चूर्णम्(यो. र. । अपस्मा.) [७०२] कामदेववृणम् [नपुंसकामृत पञ्चकोलं समरिचं त्रिफला बिदसैन्धवम् । । पानी पिलं पिकला कृष्णाबिडङ्गपूतीकयवानीधान्यजीरकम् ॥
पलं नागबलाबीजं पलमेकं शतावरी ॥ पीतमुष्णाम्बुना चूर्ण वातश्लेष्मामयापहम् ।
विहारकंदचूर्णस्य पलद्वयमथापि वा । अपस्मारे तथोन्मादे दुर्नामग्रहणीगदे ॥
पलं त्रपुषबीजश्च वाजिगन्धा पलत्रयम् ॥ एतत्कल्याणकं चूर्ण नष्टस्याग्रेश्च दीपनम् ॥
वासा च तालमूली च गुडूची रक्तचन्दनम् । पंचकोल (पीपल, पीपलामूल, चव, चीता
त्रिसुगन्धी कणाधात्री लवंगं नागकेसरम् ॥ और सोंठ) कालि मिर्च, त्रिफला, बिड्लवण, सेंधा
एतानि कर्षमात्राणि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । नमक, पीपल, बायबिडंग, नाटाकरंजवा, अजवायन, धनिया और जीरा । सब चीजें समान भाग
बलाशाल्मलिमूलश्च भवेदेकैका विंशतिः॥ लेकर चूर्ण बनावें ।
कुशकाशशिफासप्त शर्करा सप्तयोजितम् । इसे गरम पानीके साथ पीनेसे वातज और
दुष्टशुक्रं वीर्यहानि मूत्रकृच्छ्राणी यानि च ॥ कफज रोग, मिरगी, उन्माद, बवासीर, संग्रहणी
मूत्राघातं मूत्रदोषाञ्जयेच्छुकविवर्द्धनम् । और अग्निमांद्यका नाश होता है।
दशकं गच्छति स्त्रीणां हयतुल्यपराक्रमः ।। [७००] कल्याणलवणम्(वृ. नि. र. संग्रह) कामदेवाभिधं चूर्ण धन्वन्तरिनिरूपितम् ॥ मल्लातकानि त्रिफलादन्तीचित्रकमेव च ।
गोखरू ५ तोला, कौंचके बीज १० तोला, समभागानि सर्वाणि सैंधवं द्विगुणं भवेत् ॥ |
नागबला (गंगेरन)के बीज और शतावर ५-५ तोला, कपालपुटसंपर्क मृदुना गोमयामिना।
विदारीकन्द का चूर्ण १० तोला, खीरे के बीज ५ कल्याण नामलवण श्रेष्ठमशोविकारिणाम् ॥ |
तोला, आसगन्ध १५ तोला । वासा, तालमूली भिलावे, त्रिफला, दन्ती, चीता प्रत्येक १-१
(मूसली) गिलोय, लाल चन्दन, त्रिसुगन्धी (दालभाग और सेंधा नमक २ भाग लेकर सब को
चीनी, इलायची, तेजपात) पीपल, आमला, लौंग, एकत्र कर शरावसंपुट करके कण्डों [उपलों की
नागकेशर, प्रत्येक ११-१। तोला खरैटी और मन्दाग्निमें भस्म करें।
सेंभल की मूसली ११-१। सेर, कुश और कांसकी __ यह (कल्याण लवण) बवासीर के लिये / जड़ तथा खांड ३५-३५ तोला लेकर चूर्ण बनावें। उत्तम गुणकारी है।
इसके सेवन से वीर्य के दोष, वीर्यपात,
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ककारादि-चूर्ण
(२१५)
3
मूत्रकृच्छ (पेशाव तकलीफ से आना, पेशाब बन्द । को शहद में मिलाकर योनि में रखनेसे पिच्छिला होना) और मूत्र विकारादि नष्ट होते तथा वीर्य | योनि शुद्ध होती है। वृद्धि होती है। यह अत्यन्त वाजीकर और | [७०६] कासीसादिचूर्णम् (२) बलवर्धक है।
(वृ. नि. र. मुख.) [७०३] कारव्यादिचर्णम्
कासीसलोध्रकृष्णा मनःशिला सप्रियंगु तेजोहा। ' (ग. नि. अरोचका. च. चि. अ. २६) एषां चूर्ण मधुयुक् शीतादे पूतिमांसहरम् । कारवी मरिचाजाजी द्राक्षा वृक्षाम्लदाडिमम् । तैलं घृतं वा वातघ्नं शीतादे संप्रशस्यते ।। सौवचलं गुडं क्षौद्रं सर्वारोचकनाशनम् ॥ | कसीस, लोध्र, पीपल, मनसिल, फूलप्रियंगु ____ काली जीरी, काली मिर्च, जीरा, दाख, | और बच इनके चूर्ण को शहदमें मिलाकर मसूढ़ों तितडीक, अनारदाना, सौंचल [काला नमक) पर लेप करने से शीताद नामक दन्त रोग से सड़ा गुड और शहद । सब चीजें समान भाग लेकर हुआ मांस दूर होता है । शीतादx में वायु नाशक चर्ण करके एकत्र मिलाकर सेवन करने से सब | तैल अथवा धृत इस्तेमाल करना चाहिये। प्रकार की अरुचि नष्ट होती है।
[७०७] किराततिक्ताद्यंचूर्णम् [७०४] कालकचूर्णम्
(च. सं. चि. अ. १९) (च. सं. चि. अ. २६) किराततिक्तं षड्ग्रन्था त्रायमाणा कटुत्रिकम् । गृहधूमो यवक्षारः पाठाव्योषरसाञ्जनम्। चन्दनं पनकोशीरं दात्विकटुरोहिणी॥ तेजोबा त्रिफला लोधं +चित्रकं चेति चूर्णिताम्।। कुटजत्वक् फलं मुस्तं यवानी देवदारु च । सक्षौद्रं धारयेदेतद् गलरोगविनाशनम् । पटोलनिम्बपत्रैलासौराष्ट्रातिविषात्वचः ॥ कालकन्नाम तच्चूर्ण दन्तास्यगलरोगनुत् ।। | मधुशियोश्च बीजानि मूर्वापर्यटकांस्तथा । __घर का धुआं, जवाखार, पाठा, त्रिकुटा, तच्चूर्ण मधुना लेह्य पेयं मद्यैर्जलेन वा ।। रसौत, वच, त्रिफला, लोध्र और चीता। सब चीजें | हृत्पाण्डुग्रहणीरोगगुल्मशूलारुचिज्वरान् । समान भाग लेकर चूर्ण करें।
कामलां सन्निपातं च मुखरोगांश्च नाशयेत् ।। ___ इसे शहद में मिलाकर मुह में रखने से गले
| चिरायता, बच, त्रायमाणा बनशा] त्रिकुटा, और दांतों के रोग नष्ट होते हैं।
चन्दन, पद्माक, खस, दारु हल्दी की छाल, कुटकी, [७०५] कासीसादिचूर्णम् (१) कुड़ेकी की छाल, इन्द्रजौ, नागरमोथा, अजवायन,
(च. सं. चि. अ. ३०) देवदारु, पटोल पत्र, नीम के पत्ते, इलायची, कासीसं त्रिफलाकाक्षी साम्रजम्ब्वास्थिधातकी। सौराष्ट्री मृत्तिका, अतीस, दालचीनी, मुल्हठी, सौजने पैच्छिल्ये क्षौद्रसंयुक्तश्चू! वैशयकारकः ॥ शीताद-मस्ता का रोग विशेष, जिसमें
कसीस, त्रिफला, गोपी चन्दन, आम और / यकायक कभी २ मसूदी से खून जाने लगता जामन की गुठली तथा धाय के फूल । इनके चूर्ण है मसूढे दुर्गन्धित, काले, चिपचिपे और
मुलायम हो जाते हैं। एवं मसूड़ों का मांस + लौहमिति पाठान्तरम् ।
सडकर गिरने लगता है।
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(२१६)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
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के बीज, मूर्वा और पित्त पापड़ा। सब समान । [७११] कुष्ठनाशकाः प्रयोगा: भाग लेकर चूर्ण करें।
(र. चि. म. ३स्तब्कः) ___ इसे शहद में मिलाकर चाटने या मद्य अथवा ; कुंकुमेंदीवरं मुस्ता चातुर्जातं फलत्रिकम् । पानी के साथ सेवन करने से हृद्रोग, पांड, ग्रहणी, | समं चूर्ण विरिच्याऽथ सर्वकुष्ठानि नाशयेत् ।। गुल्म, अरुचि, ज्वर, कामला, सन्निपात और मुख- एकस्मात्सप्तकावं गलत्कृष्ठं विशोषयेत् । रोगों का नाश होता है।
क्रिमिनलं घोररूपं दुनिरीक्ष्यं च यद्भवेत् ।। ७०८] किरातादिचूर्णम् (भा. प्र. ज्वरे) । व्रणेषु देयमेतद्धि चूर्ण संपिष्य वारिणा। किराततिक्तात्रिवृदम्बुपिप्पली
वेगतः सिद्धिमायाति दुःसाध्यमपि सत्वरम् ॥ विडंमविश्वाकटुरोहिणीरजः।
कुष्ठवणेषु वै देयं तच्चूर्ण जलपेशितम् । निहन्ति लीढं मधुनाऽतिसत्वरम्
शीघ्रमारोहमायाति म्रियते क्रिमयस्तथा । सुदुस्तरं दुजेलदोषजं ज्वरम्॥
न शक्यते प्रभावोऽस्य कल्पकोटिगतेन च । चिरायता, निसोत, सुगन्धबाला, पीपल, बाय- वक्तं ब्रह्मादिदेवैश्च प्रयत्नादपि निश्चितम् ।। बिडंग, सोंठ और कुटकी, इनके चूर्णको शहदमें
___ केसर, कमल, नागरमोथा, चातुर्जातक [दालमिलाकर चाटनेसे दूषित जलसे उत्पन्न हुवा दुस्साध्य स्वर अत्यन्त शीघ्र नष्ट होता है।
चीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर] और त्रिफला ।
| सब चीजें समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। इसे [७०९] कुटजचूर्णम् (वृ. नि. र. अति; वै. जी. वि. २)
पानी के साथ सेवन करने से सब प्रकारके कुष्ठ
नष्ट होते हैं। एक सप्ताह पश्चात् गलित क्रिमिइंद्रजमेघमदाकुसुमं श्रीलोध्रमहौषधमोचरसानाम् ।
युक्त दुस्साध्य और घृणित कुष्ठ भी सूखने लगता
है। कुष्ठ और घावोंके लिये यह चूर्ण अत्यन्त चूर्णमिदं गुडतक्रनिपीतं
| उपयोगी है। इससे घाव अत्यन्त शीघ्र भरते और हंत्यचिरादतिसारमुदारम् ।।
क्रिमि नष्ट होते हैं। इन्द्रजौ, नागरमोथा, धायके फूल, बेल, लोध्र, सोंठ और मोचरस । इनके चूर्ण को गुड़में मिलाकर [७१२] कुष्ठादिचूर्णम् (१) (भा.प्र.उदर.) तक्रके साथ पीनेसे अत्यन्त प्रबल अतिसार नष्ट | कुष्ठं दन्ती यवक्षारो व्योपं त्रिलवणं वचा। होता है।
अजाजी दीप्यकं हिंगुस्वर्जिका चव्यचित्रकम् । [७१०] कुटजादिचूर्णम् (वृ. नि. र.अति.) शुण्ठी चोष्णाम्भसा पीता वातोदररुजापहा ।। छुटजातिविषाचूर्ण मधुना सहलेहितम् । कूठ, दन्ती, जवाखार, त्रिकुटा, सेंधानमक, चिरोत्थितमतिसारं पक्कं पित्तास्त्रजं जयेत॥ कालानमक, विड् लवण, वच, जीरा, अजवायन,
कुड़ेकी छाल और अतीसके चूर्णको शहदके | हींग, सज्जीखार, चव्य, चीता और सोंठ । इनके साथ चाटनेसे पुराना पक्वातिसार और रक्तपित्त | चूर्ण को गरम पानीके साथ सेवन करनेसे वातज ना होता है।
उदर रोग नष्ट होते हैं।
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ककारादि चूर्ण
( २१७ )
अजमोद और पीपल | सब समान भाग लेकर
[ ७१३] कुष्ठादिचूर्णम् (२) (बो. र. मुख., बृ. मा; ब. से; यो. चि. म. अ. र) चूर्ण करें । इसे गरम पानी के साथ १ । तोले की मात्रानुसार पीने से तिल्ली, उदररोग और उदावर्तका नाश होता है ।
|
कुष्ठं दार्वी लोधमन्दं समङ्गा पाठातिक्ता तेजनी पीतिका च । चूर्ण शस्तं घर्षणे तदुद्विजानां रक्तस्रावं हन्ति कण्डूरुजश्च ॥ कूठ, दारूहल्दी, लोध, नागरमोथा, मजीठ, पाठा, कुटकी, मालकंगनी और हल्दी | इनका चूर्ण बनाकर मंजन करनेसे मसूड़ों से खून आना और उनमें खाज आना या पीड़ा होना आदि रोगोंका नाश होता है । [७१४]कुष्ठादिचूर्णम् (३) (बृ.नि.र. तृष्णा) कुठे काशोद्भवं मूलं मधुकं पिष्टमम्भसा । मक्षितं तं द्रुतं हन्ति पिपासां चिरकालजाम् कूठ, कासकी जड़ और मुल्हैठीका चूर्ण करके पानी के साथ सेवन करने से पुराने तृषा रोगका अत्यन्त शीघ्र नाश होता है । [ ७१५] कुप्रादिचूर्णम् (४) (बृ. नि. र । वा. व्या.) केंद्र वा पाठा पावकोऽतिविषा निशा । एतेषां चूर्णमुष्णां पीतं हृत्यनिलान्बहून् ॥
।
कूठ, इन्द्रजौ, पाठा, चीता, अतीस और हल्दी । इनके चूर्ण को गरम पानीके साथ पीने से अनेक प्रकार के वायुरोग नष्ट होते हैं । [ ७१६] कुष्टादिचूर्णम् (५)
(यो. र. उदर; वृ. यो. त. २०५ त) कुठे वा भृंगवेरं चित्रकं कौटजं फलम् । पाठा चैवाजमोदा च पिप्पल्यः समचूर्णिताः ॥ ततो विडालपदकं पिबेदुष्णेन वारिणा ।
दरमुदावर्त सर्वमेतेन शाम्यति ॥
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[७१७] कुंकुमादिचूर्णम् (यो.चि. चूर्णा ० ) कुंकुमं मदनी मुस्ता चातुर्जातं फलत्रिकम् । अभ्रम कल्लकं धान्यं दाडिमं मरिचं कणा || यत्रानी तिंतडीकं च हिंगुजं घनसारकम् । तुंबुरु तगरं तोयं लवङ्गं जातिपत्रिका ॥ समंगा पुष्करं श्यामा पद्मवीजं तुगा शठी । तालीसं चित्र मांसी जाती फलमुशीरके ॥ बला नागवला माक्षी कुष्ठग्रंथिक माक्षिकाः । यावत्येतानि सर्वाणि तावन्मोचरसं ददेत् ॥ सर्वतुल्या सितायोज्या कर्षमात्र तु भक्षयेत् । प्रभाते च निशादौ च भोजनांते विशेषतः ॥ सन्ध्याकाले तथा भोज्यं वाजीकरणमुत्तमम् । अजीर्ण जरयत्याशु नष्टाश्चाग्निदीपनम् || अशीतिवातजान् रोगान् चतुर्विंशतिपैत्तिकान् । विंशतिश्लेष्मजचैत्र हल्लासच्छर्दिरोचकम् ॥ पञ्चैव ग्रहणीदोषानतिसारं विशेषतः । क्षयमेकादशं श्वासं कासं पञ्चविधं तथा ॥ उदरव्याधिनाशं च मूत्रकृच्छ्रं गलग्रहम् । पुत्रं जनयते वन्ध्या सेव्यमाने तथौषधे || सन्निपातातुरं चैव विस्फोटक भगन्दरम् । नेत्ररोगं शिरोरोगं कर्णरोगं हनुग्रहम् ॥ हृद्रोगं कंठरोगं च जानुजंघागतं तथा । सर्वरोगविनाशाय चरकेण प्रभाषितम् ॥
केसर, कस्तूरी, नागरमोथा, चातुर्जातक [तेजपात, दालचीनी, इलायची और नागकेसर ] त्रिफला, आकरकरा, अभ्रक भस्म, धनिया, अना
कूठ, बच, अद्रक, चीता, इन्द्रजौ, पाठा, । रदाना, कालीमिर्च, पीपल, अजवायन, तितिडीक
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(२१८)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर।
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हींग, कपूर, कुस्तुम्बरु, तगर, सुगन्धवाला, लौङ्ग, पेठेकी जड़के चूर्णको किञ्चितोष्ण कुछगरम जावित्री, मजीठ, पोखरमूल, विधारा, कमलगट्टा, पानीके साथ पीनेसे दारुण श्वास और खांसीका बंसलोचन, कपूरकचरी, तालीसपत्र, चीता, जटा- | नाश होता है। मांसी, जायफल, खस, बला [खबैंटी] नागबला, [७२०] कुष्मांडक्षारम् (भा. प्र. । शूले ) सोनामक्खी भस्म, कूठ, पीपलामूल और रूपाम- कुष्मांडं तनु कृत्वा तु क्षिप्त्वा धर्मे विशोषयेत् । क्खी भस्म । सब चीजें समान भाग, मोचरस स्थाल्यां निःक्षिप्य तत्सर्व पिधानेन पिधाय च ॥ सबके समान । मिश्री मोचरससे २ गुनी । यथा | | चुल्लयां निवेश्य वनिश्च ज्वालयेत्कुशलो जनः । विधि चूर्ण बनावें।
यथातन भवेद्भस्म किन्त्वङ्गारो दृढो भवेत् ।। इसे ११ तोलाकी मात्रानुसार प्रातः और तदानिर्वापयेच्छीत सर्वथा चूर्णितन्तु तत् । सायंकाल और विशेषतः भोजनके अन्तमें सेवन | माषद्वयमित तावच्छुण्ठीचूर्णेन मिश्रितम् ॥ करनेसे अजीर्ण, अग्निमांद्य, ८० प्रकारके बातज जलेन भक्षयेन्नित्यं महाशूलाकुलो नरः । रोग, २४ प्रकारके पित्तरोग, २० प्रकारके कफज- असाध्यमपियच्छूलं तदप्येतेन शाम्यति ॥ रोग, उबकाई, वमन, अरुचि, ५ प्रकारके ग्रह- पेटेके बारीक बारीक टुकड़े करके धूपमें णीविकार, अतिसार, ११ प्रकारका क्षय, श्वास, सुखालें और उन्हें एक हाण्डीमें भरकर उसके ५ प्रकारकी खांसी, उदररोग, मूत्रकृच्छ्र, गलग्रह, ऊपर ढकना ढकदें। अब इसको चूल्हेपर चढ़ाकर वंध्यत्व, सन्निपात, विस्फोटक, भगन्दर, नेत्र रोग, | उसके नीचे अग्नि जलावें । जब पेठेके टुकड़े जलशिरोरोग, कर्णरोग, हनुग्रह, हृद्रोग, कंठरोग, जानु | कर अंगारके समान हो जाय [ किन्तु बिल्कुल
और जंधागत व्याधियां आदि अनेक रोग नष्ट | भस्म न हो जाय बल्कि कठिन रहें] तब उन्हें होते हैं । यह अत्यन्त वाजीकरण है। ठण्डा करके चूर्ण करें। [७१८] कुष्माण्डवीजयोगः
इसमेंसे २ माशे चूर्ण सोंठके चूर्णमें मिलाकर (वृ. नि. र । वा. व्या.) | जलके साथ सेवन करनेसे भयंकर और असाध्य कुष्माण्डस्य तु बीजानि बीजानि पुसस्य च। शूल भी नष्ट हो जाता है। पस्तौ संधारयेत्तेन प्रशाम्येन्मूत्रनिग्रहः॥ [७२१] कृमिघ्नंचूर्णम् (रसा. सा.)
पेठे और खीरेके बीजोंको पीसकर बस्तीके पालाशबीजं कुटजत्वचा च ऊपर लेप करनेसे मूत्रावरोध [मूत्र बन्द होना ! समे विडङ्ग भयोः समानम् । नष्ट होता है।
चूर्ण कृमिघ्नं पलपादमात्रं [७१९] कुष्मांडशिफाचूर्णम्
कदुष्णतोयेन निषेवणीयम् ॥ (वृ. नि. र. वा. का; ब. से., यो. र. जन्तुघ्नं केवलं यद्वा प्रातः सेवेत बुद्धिमान् । श्वा; . यो. त. त. ८०)
तप्तकोष्णेन तोयेन जन्तुरोगापनुत्तये ॥ कुष्मांडकशिफाचूर्ण पीतं कोणेन वारिणा। ढाकके बीज १ छटांक, कुड़ाकी छाल १ श्रीघ्रं शमयति श्वास कासं चापि सुदारुणम् ।। छटांक, बायबिडंग आधपाव, इन तीनों को कूट
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ककारादि-चूर्ण
(२१९)
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छानकर रख छोड़े। इसकी मात्रा १ तोले की है,[2] | कृष्णाग्निविश्वधनजीरककण्टकारीशौच क्रिया के बाद गरम जल के साथ सेवन | पाठानिशाकरिकणामगधाजटानाम् । करने से ४-५ दिन में ही उदर के सर्व कीड़े। चूर्णकवोष्णसलिलरवलोड्यपीतं नष्ट हो जाते हैं।
नातः परं वयथुरोगहरं नराणाम् ॥ [७२२] कृष्णादिचर्वणम्
पीपल, चीता, सोंठ, नागरमोथा, जीरा, (वृ. नि. र. । मुख; भा. प्र. म. खं. २; यो. र.) कटेली, पाठा, हल्दी, गजपीपल और पीपलामूल । कृष्णजीरककुष्ठेन्द्रयवचर्वणतस्वयहात् । इनके चर्णको कुछ गर्म पानीमें मिलाकर पीनेसे मुखपाकव्रणक्लेदं दौगंध्यमुपशाम्यति ॥ शोथका अत्यन्त शीघ्र नाश होता है । ___पीपल, जीरा, कूठ और इन्द्रयवको ३ दिन | [७२६] कृष्णादिचूर्णम् (४) तक चबानेसे मुखपाक, ब्रण, क्लेद [रतूबत] और (वृ. नि. र; वं. से. बा. रों.) मुखकी दुर्गधि नष्ट होती है।
कृष्णा दुरालभा द्राक्षा कर्कटाख्या गजाहया। [७२३] कृष्णाचूर्णम् (१) चूर्णिता मधुसर्पियो लीढा हंति शिशोर्गदान् । (वृ. नि..र. हिक्का. सु. सं. उ. तं. अ. ५०) ! कासं श्वासं च तमकं ज्वरं वापि विनक्ष्यति ॥ कृष्णामलकशुंठीनां चूर्ण मधुसितायुतम् ॥ पीपल, धमासा, दाख, काकडा सींगी और मुहुर्मुहुः प्रयोक्तव्यं हिकाश्चासनिवारणम् ॥ | गजपीपल इनके चूर्णको शहद और घी में मिला
पीपल, आमला और सोंठके चूर्णको शहद कर चाटनेसे बालकोंके तमक श्वास, खांसी और और मिश्री में मिलाकर बार बार चाटनेसे हिचकी | ज्वरका नाश होता है। और श्वासका नाश होता है। | [७२७] कृष्णादिचूर्णम् (५) [७२४] कृष्णादिचूर्णम् (२)
(वृ. नि. र. बा. रो.) (शा. ध. म. खं. अ. ६) कृष्णा महौषधं विल्वं नागरा सयवानिकः । कृष्णारुणामुस्तकङ्गिकाणां मधुसर्पियुतं लीढं बालानां ग्रहणी हरेत् ॥
तुल्येण चर्णेन समाक्षिकेण । पीपल, सोंठ, बेलगिरी, नागरमोथा और अजज्वरातिमारः प्रशमं प्रयाति वायन । इनके चूर्णको शहद और घी में मिलाकर
सश्वासकासः सवमिः शिशूनाम् ॥ | चटानेसे बालकोंकी संग्रहणीको आराम होता है। पीपल, अतीस, नागरमोथा और काकडासींगी | [७२८] केतकीक्षारयोगः (यो. र. गुल्मे.) समान भाग लेकर चूर्ण करें। इसे शहदके साथ | स्वर्जिकाकुष्ठसहितः क्षारः केतकीसंभवः । चटानेसे बच्चोंके ज्वरातिसार, श्वास, खांसी और | पीतस्तैलेन शमयेद्वातगुल्मं सुदारुणम् ॥ मन का नाश होता है।
सजीखार, कूट और केतकीका खार । इनके [७२५] कृष्णादिचूर्णम् (३) | चूर्णको (एरण्ड) तेलके साथ पीनेसे भयानक वात
(वृ. नि. र. शोथे.) गुल्म (वायगोले)का नाश होता है।
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(२२०)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[७२९] केशरञ्जकः (भै. र. । क्षुद्र.) [७३२] कोलास्थियोगः (वृ.नि. र.। अजी.) त्रिफलानीलिनीपत्रं लौहभृङ्गरजः समम्। | कोलास्थिमज्जकल्कस्तु पीतो वाप्युदकेन वै।
अविमूत्रेण संयुक्तं कृष्णीकरणमुत्तमम् ॥ । अचिराद्विनिहन्त्येनं प्रयोगो भस्मकं नृणाम् ।। ___ त्रिफला, नीलके पत्ते, लोहेका बुरादा और , वेरकी गुठलीकी मांगी (गिरी) को पानीमें भांगरा । सब समान भाग लेकर चर्ग करें। इसे | पीसकर पीनेसे भस्मक रोगका अत्यन्त शीव्र नाश भेड़के मूत्रमें मिलाकर लेप करनेसे बाल काले हो | हाता है । जाते हैं । यह उत्तम खिजाब है।'
| [७३३] कंचटादिचूर्णम् (च. पा. । अति.) [७३०] केशरयोगः (वृ. नि. र. । अश्म.)
| कंचटजम्बुशृङ्गाटकपत्रविल्वबर्हिष्टम् ।
जलधरनागरसहितं गङ्गामपुराणाज्येन संपिष्टं पीतं सम्यग्दिनत्रयम् ।
पिवेगवाहिनीं रुन्ध्यात् ।। कुंकुमं नाशयत्याशु देहिनां मेदशर्कराः॥
गजपीपल, जामनकी गुठली, सिंघाड़ेके पत्ते, केशरको पुराने धीमें पीसकर ३ दिन तक | बेलगिरी, सुगन्धबाला, नागरमोथा और सोंठ । पीनेसे मेदशर्करा (पेशाबकी रेग) नष्ट हो जाती है। इनका चर्ण प्रबल, वेगवान अतिसारको भी नष्ट [७३१] कोकम्बादिचूर्णम् (वृ.नि. र । संग्र.) कर देता है। समूलपत्रकोकम्बं पलद्वयमित शुभम् । [७३४] कंटकार्यादिचूर्णम् (१) मल्लातफलमज्जाया मरिचस्य पलं पलम् ॥
(च. पा.। बा. रो.) एतचूर्णीकृतं सूक्ष्म भक्षयेत्कर्षसमितम् । पीतं पीतं वमेद्यस्तु स्तन्यं तं मधुसर्पिषा । अशांकुराग्निईत्याशु सबाह्याभ्यंतरानपि ॥ द्विवार्ताकी फलरसं पञ्चकोलं च लेहयेत् ॥
___ मूल और पत्र सहित कोकंब १० तोला, । यदि बच्चा बार बार दूध पीकर उल्टी कर भिलावेकी गिरी और काली मिर्च ५-५ तोला । देता हो तो उसे कटेली के फल के रस में पंचकोल सबको महीन चूर्ण करके १। तोला प्रमाण मात्रा
। (पीपल, पीपलामूल, चव, चित्ता और सोंठ)का चूर्ण नुसार सेवन करनेसे बवासीरके बाहरी और अन्द
| एवं धी और शहद मिला कर चटाना चाहिये । रुनी मस्से नष्ट होते है।
[७३५] कंटकार्यादिचूर्णम् (२)
(वृ. नि. र. । कास.) १ लेप करने के बाद केले या अरण्डका कार्याः कणायाश्च चूर्ण समधु कासहत् ।। पत्ता बांध देना चाहिये और उसे.१२ घंटे बाद | खोल कर बालोंको तेल लगा कर धो डालमा
| कटेली और पीपल के चर्ण को शहद के साथ चाहिये।
| चाटने से खांसी का नाश होता है।
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ककारादि-गुटिका
(२२१)
अथ ककारादि गुटिकाप्रकरणम्
[७३६] कणादिवटी (१) वटीकनकवतीनाम अनुपानं च कथ्यते ॥
(रसे. चि. म. अ. १) भल्लातत्रिफलादन्तीवदिचूर्णसमं समम् | कणावचादारुपुनर्नवानां चूर्ण सैन्धवं सर्वतुल्यं स्याद्भर्जयेत्सपरे चिरम् ।।
___सविल्वं समवृद्धदारकम् । मृद्वग्निना भवेत्सिद्धं कर्ष तत्रं पोनरः ॥ संमद्य चैतस्य निहन्ति बल्लः
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध हरताल, सेंधा___सकांजिकः श्लीपदमुग्रवेगम् ॥ नमक, कलिहारी और तुम्बी का फल, प्रत्येक ५-५
पीपल, वच, देवदारु, पुनर्नवा, बेल, प्रत्येक तोला एवं लसहन २० तोला लेकर चर्ग करके १--१ भाग बिधारा सबके बराबर लेकर चूर्ण करके एक दिन तक करेले के रस में घोट कर १-१ १-१ वल्ल (२-३ रत्ती) की गोलियां बनावें । रत्ती की गोलियां बनावें । इन्हें कांजी के साथ सेवन करने से श्लीपद का इनको सेवन करनेसे बवासीर. वातरक्त, नाश होता है।
विशेषतः कफज बवासीर का नाश होता है। [७३७] कणादिवटी (२)
___ अनुपान----भिलावा, त्रिफला, दन्ती, चीता, (वृ. नि. र. । वा. व्या.) प्रत्येक का चर्ण समान भाग और सेंधानमक का कणामूलं कणा दारु घिडंगं वहिसैन्धवम् । चण सब के बराबर लेकर मिट्टी के ठीकरे में सपुष्पा ह्यजमोदा च मरिचं समचूर्णकम् ॥ मन्दाग्नि पर बहुत समय तक भूनें। उपरोक्त गुडाचितस्य तस्याथ गुटिका एकविंशतिः।। (कनकावतीवटी) खाने के बाद ११ तोला यह चर्ण भक्षितास्तास्त्रिसप्ताहं मारुतं नन्ति सर्वतः॥ । खाकर ऊपर से तक (छाश) पियें । ___ पीपलामूल, पीपल, देवदारु, बायबिडंग, चीता, ! [७३९] कफनीवटी (व. नि. र. । कास.) . सेंधानमक, सोया, अजमोद और कालीमिर्च, सब । कर्पूरमर्यकर्ष मृगमदमपि देवकुसुमयुगम् । चीजोंका चूर्ण समान भाग लेकर गुड़ में मिला कर | मरिचं कणाक्षकुलिंजनमेकैकं शुक्तिपरिमाणम् ।। २१ गोलियां बनावें । इन्हें २१ दिन तक सेवन । दाडिमफलवल्कलपलमखिलसमं करने से समस्त प्रकार के वात विकार नष्ट होते हैं।
खदिरसारमवचूर्ण्य । [७३८] कनकावती वटी (र. र. । अर्श.) वटिका मुद्गसमाना कृता धृतास्ये कफनी स्यात् ॥ शुद्धस्तं समं गन्धं तालसिन्धुत्थलागली। कपूर ७॥ माषा, कस्तूरी ७॥ माषा, लौंग पलं तुम्बीफलैकैकं लशुनञ्च चतुष्पलम् ॥ २॥ तोला, काली मिर्च, पीपल, बहेड़ा और कुलिंकारवेल्या द्रवैमा दिनकं वटकीकृतम् । । जन प्रत्येक २।।-२॥ तोला, अनार के फलकी गुंजामात्रं सदा खादेत्पायुजश्चापि नाशयेत् ॥ | बकली (नासपाल) ५ तोला, खैरसार सब चीजों रक्तवातकफोत्थानि हशासि नाशयेद्ध्वम् । के समान लेकर मूंगके बराबर गोलियां बनावें ।
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(२२२)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
इन्हें मुंह में रखने से कफका नाश होता है। । मन्दे च वह्नौ स्मरपुष्टि की [७४०] करञ्जबीजवर्ती
___ साऽऽफेनसेवाकुलमुक्तिदात्री ॥ (वृ. नि. र; ग. नि; बु. यो. त. ७१; वृ. मा.) कपूर, जायफल, जावित्री, धतूरेके बीज, पलाशपुष्पस्वरसैबहुश:परिभाविता । समन्दरसोख, अकरकरा, त्रिकुटा, बच और करंकरञ्जबीजं सवर्ति दृष्टेः पुष्पं विनाशयेत् ॥ जवा । सब चीजें समान भाग । शुद्ध भांग सबके ____ करंजवेके बीजोंको ढाकके फूलोंके रसकी
वजनसे आधी, पुरानी अफ़ीम भांगके बराबर और अनेक भावना देकर वर्ति बनावें । इसे नेत्रों में भांगसे आधा शुद्ध मीठातेलिया मिलाकर चर्ण करके आंजने से नेत्रपुष्प (फूला) नष्ट होता है।
भांगरेके रसमें घोटकर बेरकी गुठलीके बराबर
गोलियां बनावें। [७४१] कपूरवर्तिः (वृ. नि. र. । मूत्राघा.)
। इनके सेवनसे शीतवात, संग्रहणी, बवासीर, कर्पूररजसा युक्ता वस्त्रवर्तिः शनैः शनैः।
प्रवल अतिसार, अग्निमांद्य और अफ़ीमकी आदत मेटूमागान्तरे न्यस्ता मूत्राघातं व्यपोहति ॥
दूर होती है एवं काम शक्ति बढ़ती है। ____ कपूरके चूर्णके साथ कपड़ेकीx बत्ती बनाकर उसे धीरे २ मूत्रमार्ग में पहुंचानेसे मूत्राघात (पेशाब
[७४३] कलिंगाद्यगुटिका (धन्व.। ज्व.)
| कलिंगबिल्वजम्बाम्रकपित्थं सरसाञ्जनम्। बन्द होना) नष्ट होता है।
| लाक्षा हरिद्रे हीबेरं कदमलं शुकनासिकाम् ॥ [७४२] कपूरसुन्दरी षटिका लोधं मोचरसं शंखं धातकी वटशुङ्गकम् । (र. प्र.सु. अ. ८)
पिष्टा तण्डुलतोयेन वटकानक्षसम्मितान् ॥ कर्पूरजातीफलजातिपत्रिका
छायाशुष्कान् पिबेच्छीघ्रं वरातिसारशान्तये । धत्तूरवीजं जलराशिशोषणम् । रक्तप्रसादनाचैते शूलातिसारनाशनाः ॥ आकल्लकं व्योपमिदं समांशं
इन्द्रजौ, बेलगिरी, जामनकी गुठली, आमकी द्वीपान्तरोत्था च कुबेरकाक्षम् ।।
| गुठली, कैथ, रसौत, लाख, हल्दी, दारु हल्दी, सर्वोषधार्धा विजया प्रदिष्टा
सुगन्धवाला, कायफल, काकतुण्डी, लोध, मोचरस, जीर्णाहिफेनं च तथा समानम् । शंखकी भस्म, धायके फूल और वड़के अंकुर । तदर्धभागं खलु वत्सनामं
सब चीजें समान भाग लेकर चावलोंके सादेकतश्चात्र विधाय चूर्णम् ।। | पानीमें पीसकर ११-११ तोला वटक बनाकर छायामें तद्भावितं भृङ्गरसेन सम्यक् सुखावें । इन्हें सेवन करनेसे ज्वरातिसार और
कोलास्थिमात्रा गुटिका विधेया। शूलयुक्त अतिसारका शीघ्र नाश होता है। एवं सा शीतवाते ग्रहणीगदे च
| रक्त शुद्ध होता है। ____ अशोविकारे प्रवलातिसारे॥ | [७४४] कल्पलतावटी (भै. र. । ग्रह.)
x कपड़ेकी बत्तीके बजाए पूर्वाधासके साफ अमृतं हिंगुलं धूर्तबीजं द्वादशरक्तिकम् । उठलसे काम लेना उचित प्रतीत होता है। । प्रत्येकमहिफेनश्च पत्रिंशद्रक्तिकं नयेत् ।।
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ककारादि-गुटिका
(२२३)
पिष्ट्वा दुग्धेन गुञ्जका वटी दुग्धेन पाययेत् ।। परहेजके सेवन की जा सकती हैं । इनके सेवनसे दुग्धं पाने भोजने च देयं न लवणं जलम् ॥ कुष्ट, बवासीर, कामला, प्रमेह, गुल्म, उदररोग, ग्रहणी चिरकालीनां हन्ति शोथं सुदर्जयम्। | भगन्दर, संग्रहणी और पाण्डुका नाश होता तथा चिरज्वरं पांडुरोगं नाम्ना कल्पलता वटी॥ | पुंसत्व शक्ति बढ़ती है।
शुद्ध मीठा तेलिया, शुद्ध शंगरफ, धतरेके [७४६] कस्तुरिगुटिका (नपुंसकामृत) बीज, प्रत्येक १२-१२ रत्ती। अफ़ीम ३६ रत्ती। स्वणश्च मृगनाभिश्च रोप्यकाश्मीरीको तथा। सबको दूध में पीसकर १-१ रत्तीकी गोलियां बनावें। लध्वीमेलां जातिफलं तुगाक्ष. तथैव च ॥ ____ इन्हें धके साथ सेवन करने और आहार | जातिपत्रीं च संचूण्य भागवृद्धया प्रयोजयेत । पान आदिमें केवल दूध ही देनेसे और लवण तथा | अजादुग्धे च संपिश्य नागवल्लीरसे तथा ॥ जल वर्जित करनेसे पुरानी संग्रहणी, दुस्साध्य शोथ, | | दिनत्रयं विमर्याथ युग्मगुञ्जा समा वरी । पुराना ज्वर और पाण्डु नष्ट होता है। सन्तानिकायुतं भुकं रेतः क्षयनिवारणम् ।। [७४५] कल्याणगुटिका(च. सं. क. अ. ७) मधुना मेहनाशाय शैथिल्ये पर्ण संयुतम् । विडङ्गपिप्पलीमूलत्रिफलाधान्यचित्रकम् । गुटिकां भक्षयेद्धीमान् धातुसञ्जीवनी शुभाम् ॥ मरिचेन्द्रयवाजाजीपिप्पलीहस्तिपिप्पली ॥ सोना भस्म १ भाग, कस्तूरी २ भाग, चांदी लवणान्यजमोदा च चूर्णितं कार्षिक पृथक् । भस्म ३ भाग, केसर ४ भाग, छोटी इलायची ५ तिलतैलत्रिवृच्चूर्णभागी चाष्टपलोन्मितौ॥ । भाग, जायफल ६ भाग, बंसलोचन ७ भाग, धात्रीफलरसप्रस्थीस्त्रीन् गुहार्द्ध तुला तथा।
| जावित्री ८ भाग, लेकर ३-३ दिन तक बकरीके पक्त्वा मृद्वग्निना खादेद्वदरोदुम्बरोपमान् ॥
| दूध और पानके रसमें घोटकर २-२ रत्तीकी गुडान् कृत्वा न चास स्थाद्विहाराहारयन्त्रणा।
गोलियां बनावें। कुष्ठाशः कामलामेहगुल्मोदरभगन्दरम् ।।
इन्हें मलाईके साथ सेवन करनेसे शुक्रक्षय,
शहदके साथ सेवन करनेसे प्रमेह और पानमें रखग्रहणीपांडरोगांश्च हन्युःपुंसवनाश्च ते।। कल्याणका इतिख्याताः सर्वेष्वृतुषु यौगिकाः ।।
कर खानेसे शैथिल्य (सुस्ती ) नष्ट होती है। बायबिडंग,पीपलामूल, त्रिफला, धनिया, चीता,
[७४७] काकणप्रवटी (र. र. । कुष्ठे) काली मिर्च, इन्द्रजौ, जीरा, पीपल, गजपीपल, पांचों लोहभस्मविष वह्निकटुक त्रिकटुत्रयम् । नमक और अजमोद। प्रत्येकका चूर्ण ११-१॥ तुल्यांशं चूर्णित भाव्यं काथेनानेन तदिनम् ॥ तोला । तिलका तेल ४० तोला, निसोतका चूर्ग पथ्यानिंबविडंगानि खदिरं वासकामृता । ४० तोला, आमलेका रस ३ सेर और गुड़ जलेरष्टावशेषन्तु कषायं मावने हितम् ॥ २५० तोला लेकर आमलेके रसमें गुड़की चाशनी | माषमात्रं लिहेत्क्षौद्रेः काकणं हन्ति तद्वटी । बनाकर उसमें अन्य औषधियोंका चूर्ण मिलाकर इन्द्रवारुणिकामूल वागुचीत्रिफलाग्निकान् । बेर या गुलरके समान गोलियां बनावें। निम्बश्च वहिं शुण्ठीश्च मरिचं चूर्णयेत्समम् ।
यह प्रत्येक ऋतुमें बिना किसी प्रकारके | गौमूत्रैः पाययेन्कर्षमनुपानेन भक्षयेत् ।।
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(२२४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
लोह भस्म, शुद्ध मीठातेलिया, चीता, कुटकी, [ काकायनेन मुनिना वटका किलाय त्रिफला, त्रिमद (चीता, नागर मोथा और बायबिडंग) मुक्तः प्रजाहिततमेन गुदामयनः । और त्रिकुटे काचूर्ण समान भाग लेकर, हैड़, नीम, क्षाराग्निशस्त्रपतनेरपि ये न सिद्धाः । बायबिडंग, खैर, बांसा और गिलोय के अष्टावशेष सिध्यन्त्यनेन वटकेन गुदामयास्ते ॥ (इन सबको एकत्र करके आठगुने पानीमें पकाकर हैड़की बकली २५ तोला, काली मिर्च और आठवा भाग बचे हुवे ) कषायमें १ दिन तक | जीरा ५-५ तोला, पीपल ५ तोला, पीपलामूल घोटकर १-१ माशेकी गोलियां बनावें। १० तोला, चव १५ तोला, चीता २० तोला,
इन्हें शहदके साथ सेवन करनेसे काकण | सोंठ २५ तोला, शुद्ध भिलावे ४० तोला, जमी(कुष्ट भेद ) का नाश होता है।
कन्द १ सेर, यवक्षार १० तोला और गुड़ सबके इस औषधिको खानेके बाद इन्दरायनकी वजनसे २ गुना लेकर यथा विधि वटक बनावें । जड़, बाबची, त्रिफला, चीता, नीम, भिलावा, सोंठ इन्हें सेवन करनेसे क्षार, शस्त्र, अग्नि आदिसे
और काली मिर्च का चर्ण १ तोला खाकर ऊपरसे भी आराम न हो सकने वाली अन्यन्त दुस्साध्य गोमूत्र पीना चाहीये।
बवासीर भी नष्ट हो जाती है। [७४८] काकजंघादिवटी | [७५०] काङ्कायनगुटिका (२) (वृ. नि. र. । स्व. भे.)
(शा. ध. म. वं. अ. ७) काकजंघा बचाकुष्ठं पिप्पली मधुसंयुतम् ।।
यवानी जीरकं धान्यं मरीचं गिरीकर्णिका। सप्तरात्रं मुखे धार्य किन्नरेः सह गीयते ।।
अजमोदोपकुंची च चतुःशाणा पृथक्पृथक् ।। ___काकजंघा, बच, कूठ और पीपलके चणको हिंगु पदशाणिकं कार्य क्षारौ लवणपश्चकम् । शहदमें मिलाकर गोलियां बनावें । इन्हें मुंहमें | त्रिवृच्चाष्टमितेः शाणैः प्रत्येकं कल्पयेत् सुधीः। रखनेसे स्वर मधुर होता है।
दंती शठी पोष्करं च विडङ्गं दाडिमं शिवा । [७४९] काङ्कायनगुटिका (१) चित्राम्लवेतसः शुंठी शाणैः पोडशभिः पृथक् ।। (यो. र.। अर्श; ग. नि. गु. ४ । यो. चि. म. | बीजपूररसेनैपां गुटिकाः कारयेद्बुधः ।
___ अ. ३ । च. द.. बं. से.) घृतेन पयसा मयेरम्लेरुष्णोदकेन वा ।। पथ्यादलस्य पलपश्चकमेकमेव- पिबेत्कांकायनप्रोक्तां गुटिकां गुल्मनाशिनीम् ।
मेकं पलं तु मरिचादपि जीरकस्य । मद्येन वातिकं गुल्मं गोक्षीरेण च पैतिकम् ।। कृष्णातदुद्भवजटा चविकाग्निशुंठ्यः मण कफगुल्मं च दशमूलैत्रिदोषजम् ।
कृष्णादिपञ्चकमिदं पलतः प्रवृद्धम् ॥ उष्ट्रीदुग्धेन नारीणां रक्तगुल्मं निवारयेत् ।। पलाष्टभल्लातकसंप्रयुक्तं
| हृद्रोगं ग्रहणीं शूलं कृमीनांसि नाशयेत् । कन्दस्त्वरुष्करफलाद्विगुणः प्रकल्प्यः। __अजवायन, जीरा, धनिया, कालीमिर्च, श्वेत खाबावशूककुडवार्धमतः समस्तै- | अपराजिता (कोयल) अजमोद और कलौंजी प्रत्येक
र्योज्यो गुडो द्विगुणितो वटकीकृतश्च ॥ १६-१६ माषा, हींग २ तोला, यवक्षार, सुहागे
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ककारादि-गुटिका
(२२५)
की खील, पांचोलवण और निसोत प्रत्येक ३२- । अदरक, बच और निसोत प्रत्येक ५-५ तोला, ३२ माषा । दन्ती, कपूर कचरी, पोखरमूल, बाय-। हींग १५ तोला, जवाखार १० तोला, अम्लवेत विडंग, अनारदाना, हैड़, चीता, अमलबेत और / १० तोला, अजवायन, जीरा, कालीमिर्च और सोंठ प्रत्येक ६४-६४ माषा । सब चीज़ोंका चूर्ण | धनिया प्रत्येक १।-१। तोला । कलांजी और करके बिजौरे नीबूके रसमें घोटकर गोलियां बनावें। अजमोद २१-२॥ तोला। सबका चर्ण करके
इन्हें घृत, दूध, मद्य, कांजी या गरम पानीके | | बिजौरे नीबूके रसमें घोटकर गोलियां बनावें । साथ सेवन करनेसे गुल्मका नाश होता है । मद्यके । इनमेंसे १-२ या ३ गोली प्रतिदिन अल्प सेवन करने से वातज गुल्म, गो--दुग्धके साथ गरम पानी, कांजी, मद्य, यूष, घृत या दूधके साथ पित्तज, गोमूत्रके साथ कफज, दशमूलके काथके
| सेवन करनेसे गुल्म, बवासीर, हृद्रोग और क्रिमि साथ त्रिदोषज और ऊँटनीके दूधके साथ सेवन
नष्ट होते हैं। करनेसे स्त्रियोंका रक्तगुल्म नष्ट होता है। यह | गोलियां हृद्रोग, ग्रहणी, शूल, क्रिमि और बवासीर
__गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे पुराना कफज का भी नाश करती हैं।
गुल्म, दूधसे पित्तज गुल्म और मद्य तथा कांजीके
साथ सेवन करनेसे वातज गुल्म नष्ट होता है । [७५१] काङ्कायन गुटिका (३) (च. द. गुल्मे )
त्रिफलाके काथ या गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे शठी पुष्करमलं च दन्तीं चित्रकमाढकीम। | सन्निपात गुल्म और ऊँटनी के दूध के साथ सेवन शृङ्गवेरं वां चैव पलिकानि समाहरेत। करने से स्त्रियोंका रक्त गुल्म नष्ट होता है । त्रिवृतायाः पलं चैव कुर्यात् त्रीणि च हिंगुनः। [७५२] कामदेववटी यवक्षारपले द्वे च द्वे पले चाम्लवेतसात् ॥ (वृ. यो. त. १४७ त.) यमान्यजाजी मरिच धान्यकं चेति कार्पिकम् । कुष्ठं कद्फलं सैन्धव त्रिकटुकं मेथीयवानीद्वयम् उपकुश्चयजमोदाभ्यां तथा चाष्टमिकामपि ॥ वासामोचरसं विदारिमुसलीमातीफलं चित्रकम्।। मातुलुङ्गरसेनैव गुटिकाः कारयेद्भिषक् । । जीरं चापरजीरकं गजकणाद्राक्षाभयावानरी । तासामेकां पिबेद् द्वे च तिस्त्रोवापि सुखाम्बुना॥ तालीसं त्रिसुगन्धिकं त्रिलवणं वैभीतकंशृङ्गीका।। अम्लैश्च मद्यपेश्च घृतेन पयसाथवा। रम्भाकन्दशतावरीहयशटीयष्टीप्रियालामृता। एषा कांकायनेनोक्ता गुडिका गुल्मनाशिनी ॥ जातिपत्रलवङ्गकेसरजलं गोक्षुरकं शाल्मली ॥ अशोहद्रोगशमनो क्रिमिणां च विनाशिनी। धात्रीमाषपुनर्नवाश्च कनकं शृङ्गाटकं मस्तकी । गोमूत्रयुक्ता शमयेत्कफगुल्मं चिरोत्थितम् । मांसी चापी बलात्रयं च नलदं क्षीरेण पित्तगुल्मं च मद्यैरम्लैश्च वातिकम् ।
मार्गीभकर्णस्तिलाः। त्रिफलारसमूत्रैश्च नियच्छेत्सान्निपातिकम् ॥ कोलं करहाटकं च विजयः श्रीरुपगन्धा कुहू. रक्तगुल्मे च नारीणामुष्ट्रीक्षीरेणपाययेत् । मज्जा पनकबीजमेतदखिलं चूर्णीकृतं स्निग्धकम्
कपूरकचरी, पोखरमूल, दन्ती, चीता, अरहर, 'एतत्कर्षमितं पृथक्पृथगयो तुर्याशतुल्यां जयाम्
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(२२६)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
तस्या अर्धमितं मृताभ्रकमहो वङ्गं तदर्ध क्षिपेत्।। , सब के वज़न से चौथाई। अभ्रक भस्म भांग से लोहं मारितमेतदर्धममलं सूतं तदध मृतं । | आधी, अभ्रक भस्मसे आधी बंग भस्म, बंगसे आधी सर्वेभ्योद्विगुणासिताऽय
| लोहभस्म और लोहसे आधा रस सिंदूर एवं सब के मधनाचाऽऽज्येनसंमिश्रयेत ।। वजन से २ गुनी खांड । सब को शहद और धीमें कार्यास्तस्य पलार्धमानवटिकाः खादेद्यथाग्निप्रगे मिलाकर २॥-२॥ तोलेकी गोलियां(गोले) बनावें। नक्तं चापि जराविपत्तिशमनीमेकां
इन्हें यथाग्नि बलानुसार सुबह और रात को च दुग्धं पिबेत् ॥ | दूध के साथ सेवन करें, यह जरा नाशक, अत्यन्त एषा सौगतिसिंहनामभिपजा | वाजीकर, वीर्य, क्षुधा, तेज, कान्ति और स्थूलता
___ लोके प्रकाशीकृता। वर्द्धक तथा (चित्त विभ्रम आदि) मानसिक रोग हम्मीराय महीभुजे शतवधू
नाशक, मदमत्त तरुण कामिनियों का मदभंजन . संभोगभाजे भृशम् ॥ करनेवाली एवं मनोविनोदकारी है। यह औषधि एषा वीर्यकरी महाभयहरी
महाराज 'हम्मीर' के लिये बनवाइ गई थी।
क्षुद्रोधतेजस्करी। [७५३] कामसुन्दरो मोदकः कान्तिस्थौल्यमतिप्रकाशजननी
(. यो. त. १४७ त.) चित्तामयध्वंसिनी ॥
मेथी गुडूची मुषली शटी च तारुण्योद्धतकामिनी जनमहा
विदारिकन्दस्त्रिसुगन्धिसिन्धुः। दर्पद्विषानां महासिंही
धात्रीलवशैक्षुरगोक्षुराश्च सर्वमनोविनोदनवती श्रीकामदेवाभिधा । ___ शतावरी मोचरसश्च पर्यः ।। __ कूठ, कायफल, सेंधा, त्रिकुटा, मेथी, अज- | कृष्णाश्वगन्धाकदलीजकन्द वायन,अजमोद, वांसा, मोचरस,विदारीकन्द,मूसली, ___नागाह्वजातीफलजातिपत्रम् । जायफल, चीता, जीरा, कालाज़ीरा, गजपीपल,दाख, शृङ्गीधनीयाह्वयकट्फलं च हैड़, कौंच, तालीसपत्र, दालचीनी, इलायची, तेज- ___ चूर्णान्मृताभ्र द्विगुणं नियोज्यम् पात, सेंधानमक, काला नमक, बिडलवण, बहेड़ा, | सर्वतुर्याशविजया सर्वद्विगुणशर्करा । काकड़ा सींगी, केलेकी मूसली, शतावर, असगन्ध, | पिण्डि च मधुसपियों कपूरकचरी, मुल्हैठी, पियाल, गिलोय, जावित्री, | ___माषौ टण्कोऽथ वा मितिः॥ लौंग, केसर, सुगन्धवाला, गोखरू, सेंभल,आमला, मेथी, गिलोय, मूसली, कपूरकचरी, विदारीउड़द, विसखपरा (पुनर्नवा ) धतूरे के बीज, | कन्द, तेजपात, दालचीनी, इलायची, सेंधा,आमला, सिंघाड़ा, मस्तगी, जटामासी, बला, अतिबला,नाग- लौंग, तालमखाना, गोखरू, शतावर, मोचरस, बला, नलद, भारङ्गी, हस्तिकर्ण, तिल, कङ्कोल, शालपर्णी, पृष्टपर्णी, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, पीपल, आकरकरा, भांग, बेल, बच, काहू, कमलगट्टे । | आसगन्ध, केलेकी मूसली, नागकेसर, जायफल, प्रत्येक का महीन चूर्ण ११-१। तोला, शुद्ध भांग ' जावित्री, काकड़ासींगी, धनिया और कायफल ।।
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कर्षो रसो गन्धकमभ्रमं च द्विक्षारचित्र लवणानि पञ्च । शीवानीद्वयकी हारि
तालीशपत्राणि परं विषं च ॥
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सब चीज़ोंका चूर्ण समान भाग । अभ्रक भस्म सबसे २ गुनी । शुद्ध भांग सबसे चौथाई और इन सबसे २ गुनी खांड मिलाकर शहद और घीके साथ मोदक बनावें । मात्रा २ माशेसे ४ माशे तक। [७५४] कामाग्निसंदीपनो मोदकः ( यो. र. वाज़ी . )
ककारादि-गुटिका
कामानिसंदीपनमेनमाहुः | वृष्यं तथा परतरं सततं सदीप्य
जीरं चतुर्जातलवङ्गजाती..
फलं च कर्षत्रयमेवमन्यत् । सुवृद्धदारं कटुकत्रयं च तथा चतुष्कर्षमिदं निबोध | धान्याकयष्टीमधुकं कसेरु फलं पृथकपञ्चपलं विदारी दन्ती कणा चातिबलात्मगुप्ता
बीजं तथा गोक्षुरकस्य बीजम् ॥ सबीजपूरेन्द्ररजः समानं
समा सिता क्षौद्रयुतं च तुल्यम् । कर्षैकमिन्दोरथमोदकं च
मेनं निषेव्य मनुजः प्रमदासहस्रम् । गच्छेन्न लिंग शिथिलत्वमेव
नागाधिपं विजयते बलतः प्रमत्तः ॥ वातानशीतिमथ पित्तभवांश्च रोगान् श्लेष्मोत्थविंशतिरुजः परमाग्निमान्द्यम् । * वरी बिदारी। बलेभकर्णभबलात्मगुप्ताफलं तथेति पाठान्तरम् ।
* घृतश्चेति वा पाठाः ।
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( २२७ )
दुर्वारकामलभगंदरपाण्डुरोगान् मेहातिसार कृमिहृद्ग्रहणीविकारान् ॥ कासज्वरश्वसनयक्ष्मकफप्रतिश्याय शूलामवातसहिताश्च रुजः समस्ताः । हत्वा गदान्बहुविधांस्तदपत्यकारी सर्वत्रपथ्यमथ सर्वसुखप्रदायी ॥
बल्यं वलीपलितहारी रसायनं स्यान्मूलं तदेव कथितं परमं पवित्रम् ॥
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, जवाखार, सज्जीखार, चीता, पांचों नमक, कपूरकचरी, अजवायन, अजमोद, बायबिडंग, तालीसपत्र, शुद्ध मीठा तेलिया, जीरा, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, लौंग और जायफल प्रत्येक ११ - १। तोला । विधारा और त्रिकुटा ३ ||| - ३|| तोला, धनिया, मुल्हैठी और कसेरू प्रत्येक ५-५ तोला, विदारीकन्द, दन्ती, पीपल, गंगेरन, कौंच के बीज और गोखरू प्रत्येक २५ - २५ तोला, विजौरा और इन्द्रजौ का चूर्ण सबके बराबर । खांड और शहद प्रत्येक सब चूर्णके बराबर । कपूरका चूर्ण १। तोला लेकर यथाविधि मोदक बनावें ।
यह मोदक अत्यन्त कामवर्द्धक और वृष्य हैं। इसे अजवायन चूर्णके साथ सेवन करने से अत्यन्त संभोगशक्ति प्राप्त होती है ।
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यह ८० प्रकारके वातज रोग, पित्तजरोग, २० प्रकारके कफज रोग, अत्यन्त अग्निमांद्य, दुस्साध्य कामला, भगंदर, पांडु, प्रमेह, अतिसार, कृमि, हृद्रोग, ग्रहणी विकार, खांसी, ज्वर, श्वास, राजयक्ष्मा, कफज प्रतिश्याय [जुकाम) शूल और आमवात आदि अनेक रोगनाशक, सन्तानोत्पादक, सर्वत्र पथ्य, सुखदायी, बल्य, बली पलित नाशक एवं रसायन है ।
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कुष्ठाश्वगन्धामृता । मोचरस विदारिमुषली
गोक्षुरकरः ॥ रम्माकन्दशतावरीत्वजमोदा मांसीतिलाधान्यकम् ।
( २२८ )
[७५५] कामेश्वरो मोदकः (१) (भै.र.। ग्रह.) स सम्यङ्गमारितमभ्रकं कट्फलं
भारत- भैषज्य रत्नाकर
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अभ्यासेन निहन्ति मृत्युपलितं कामेश्वरो वत्सशत् । सर्वेषां हितकारणानि गदितः
श्री नित्यनाथेन सः ||
वृद्धानां मदनोदयोदयकरः प्रौढांगना संगमे ।
सिंहोऽयं समदृष्टिप्रत्ययकरो भूपैः सदासेव्यताम् ॥ (तत्रान्तरेऽस्य महाकामेश्वर संज्ञा )
टीनागवला कर्चरमदनं जातीफलं सैन्धवम् ॥ भार्गी कर्कटङ्गिकं त्रिकटुकं जीरद्वयं चित्रकम् । चातुर्जात पुनर्नवा गजकणा द्राक्षाशी बालकम् ॥ शाल्मल्यंघ्रिफलत्रिकं कपिभवं बीजं समं चूर्णयेत् । चूर्णांशाविजयासिताद्विगुणिता मध्वाज्ययोः पिण्डितम् ॥ कशागुडिकार्यकर्षमथवा
सेव्या तदा कामिभिः
सेव्यं क्षीरसितं सुवीर्यकरणं
स्तम्भेऽप्ययं कामिनाम् || वामावश्यकरः सुखातिसुखदो बह्वङ्गनाद्रावणः । ७॥ ७॥ माषेके मोदक बनावें । क्षीणेपुष्टिकरः क्षतक्षयरो
हन्याच्च सर्वामयान् ॥ कासश्वासमहातिसारशमनः कामाग्निसंदीपनो। दुर्नामग्रहणी प्रमेहनिवह श्लेष्मातिरेकप्रणुत् || नित्यानन्दकरो विशेष कविता arat विलासोद्भवाम् | सर्वगुणं महास्थिरमतिबलो नितान्तोत्सवः ॥
अभ्रककी उत्तम भस्म, कायफल, कूठ, असगन्ध, गिलोय, मेथी, मोचरस, विदारीकन्द, मूसली, गोखरू, तालमखाना, केलेकी मूसली, शतावर, अजमोद, जटामांसी, तिल, धनिया, कपूरकचरी, गंगेरन, कचूर मैनफल, जायफल, सेंधा, भारंगी, काकड़ा सींगी, त्रिकुटा, जीरा, कालाजीरा, चीता, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, पुनर्नवा (साठी) गजपीपल, दाख, कपूरकचरी, सुगन्धवाला,
भल की मूसली, त्रिफला और कौंच के बीज । सब चीजें समान भाग । शुद्ध भांग * सबके बराबर और खांड सबसे दुगुनी । खांडकी चाशनी करके उसमें सब चीजों का चूर्ण मिलायें और फिर ठंडा होनेपर शहद और घी मिलाकर ११ - १ | तोले या
यह कामी पुरुषों के सेवन करने योग्य, स्तम्भक, वशीकरण, अत्यन्त सुखदायक, कामिनी विद्रावक, पौष्टिक, क्षत और क्षयनाशक, खांसी, श्वास, घोर अतिसार नाशक, कामाग्नि सन्दीपक, बवासीर, संग्रहणी, प्रमेह और कफनाशक तथा वाग्वर्द्धक हैं । एवं इनके सेवन से अकाल मृत्यु और पलित आदि रोग नष्ट होते हैं। यह सब के लिये * भांगको भले प्रकार धो लेना चाहिये।
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ककारादि-गुटिका
हितकारी वृद्धों के लिये कामोत्तेजक और राजाओं के सेवन करने योग्य हैं। अन्य ग्रन्थों में इसीका नाम महाकामेश्वर लिखा है । अनुपान - दूध, मिश्री ।
[७५६] कामेश्वरो मोदकः (२) (भै.र. । ग्रह.) धात्री सैन्धवकुष्ठकट्फलकणा शुंठीयमानाद्वयम्
समरिचं पथ्याक्षमेभिः समम् ॥ चूर्णीकृत्यमनाक् स्वबीजसहितं भृष्ट्वा तु शक्राशनम् । सर्वेषां द्विगुणां सि
सुविमलां यत्नाद्भिषनिःक्षिपेत् । क्षौद्रञ्चापिघृतं प्रशस्तदिवसे कुर्य्याच्छुभान्मोदकान् ।
कर्पूरेश्वचूर्णितानपिहितान् दवातिलान् भर्जितान् ॥
artis क्षतिमण्डले
मितधियां पाषण्डिनामग्रतः ॥ आधिव्याधिहरस्तयाक्षयहरः कुष्ठापो बृंहणः ।
स्त्रीणां तोषकमुस्तद्युतिकरः शुक्राग्निवृद्धिप्रदः।। कासश्वासबलासरोगनिचयप्रध्वंसनः प्राणिनाम्। प्रोक्तो ब्रह्मसुतेन सर्वसुखदः कामेश्वरो मोदकः॥ ग्रहगणपरिहीनः सर्वशास्त्राप्रवीणः
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यष्टीजीरकयुग्मधान्यकशटी शृङ्गीव चाकेशरम् । यस्मात् काव्यकुतुहलं सुकविता
तालीशं त्रिधिकं
गमयति युवतीनां केलिकौतूहलेन । यदिकथमपिञ्चक्तो भोजनादावथान्ते
सुरतरभसमुच्चैर्नष्टकामं प्रकामम् ॥
यस्माभव्य बृहस्पतिस्तनुधिया यस्मात् सदाबीर्यवान् ।
यस्मादुन्मददाक्षिणात्ययुवती
(२२९)
सम्भोग कौतूहली ॥
संजायते लीलया ।
श्रीमद्भिः प्रतिवारं क्षितितले संसेव्यतां मोदकः ॥
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आमला, सेंधा, कूठ, कायफल, पीपल, सोंठ, अजवायन, अजमोद, मुल्हैठी, जीरा, काला जीरा, धनिया, कपूरकचरी, काकड़ा सींगी, बच, नागकेसर, तालीसपत्र, दालचीनी, इलायची, तेजपात, काली मिर्च, हैड़ और बहेड़ा । प्रत्येकका चूर्ण समान भाग । बीज सहित भुनी हुई भांगका चूर्ण सबके समान, चीनी सबसे दोगुनी । खांडकी वासनी करके उसमें सब चीजोंका चूर्ण और घी तथा शहद मिलाकर यथाविधि मोदक बनावें एवं उसके ऊपर कपूर तथा भुने हुवे तिलोंका चूर्ण लगावें ।
यह पाखण्डियों और अल्पबुद्धि वाले मनुष्यों से छिपाने योग्य, आधि व्याधि हर, क्षय नाशक, कुष्ठ नाशक, बृंहण, स्त्रियोंको सन्तुष्ट करने वाला, सौन्दर्य वर्द्धक, कामाग्नि दीपक, खांसी, श्वास और कफरोग नाशक है।
कलितविमलकीर्तिः प्राप्तकन्दर्पमूर्तिः ।
विगतसकल भीति गतवाद्याङ्गनीति
इसके सेवन से ग्रहदोष नष्ट होते हैं । एवं
र्भवति भ्रुवि स देवो येन भक्तः प्रयत्नात् ॥ मनुष्य सर्व शास्त्रों में प्रवीण, कीर्तिवान, काम देव
रहसि युवतिखेला सम्पुट । कर्षहर्षाद्
तुल्य सुन्दर, निडर, गीतवाद्यादिमें निपुण हो जाता है । सारांश यह कि यह मोदक अनेक रोगनाशक और अतीव काम वर्द्धक हैं।
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(२३०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
[७५७] कारव्यादि गुटिका (यो. र. । अरु.) [७६०] कासहरीवटी (व्या. यो. सं.) कारव्यजाजिमरिचं द्राक्षावृक्षाम्लदाडिमम् । पिप्पली पिप्पलीमूलं वासा द्राक्षा हरीतकी । सौवर्चलं गुणः क्षौद्रमेषां कार्या वटी शुभा ॥ मधुना वटिका चैषा पश्चकासनिवर्हिणी ।। बदरास्थिमिता साऽऽस्ये धार्याऽरोचकनाशिनी॥ पीपल, पीपलामूल, बासा, दाख और हैड़।
कलौंजी, जीरा, काली मिर्च, दाख, इमली, | सबका समान भाग चूर्ण लेकर शहदके साथ अनारदाना, साँचल (काला नमक) गुड़ और शहद | गोलियां बनावें । इनमेंसे चूर्ण योग्य औषधियोंका चूर्ण करके फिर इनके सेवनसे पांच प्रकारकी खांसी नष्ट सबको एकत्र मिला कर बेरकी गुठलीके बराबर
| होती है। गोलियां बनावें।
[७६१] कासादिहरीवटी (व्या. यो. सं.) ___ इन्हें मुंहमें रखनेसे अरुचि दूर होती है। । भारंगी शुण्ठयतिविषा पथ्यानां मधूना वटी। [७५८] कासिमबागुटी
खादेव सायं प्रभाते च कासश्वासविनुत्तये ।। (वृ. नि. र. । संग्रह., वै. र. अशो.) भारंगी, सोंठ, अतीस और है। प्रत्येकका कार्पासमजा लशुन खर्जिकाक्षारहिंगुकम् ।। | चूर्ण बराबर लेकर शहदमें मिलाकर गोलियां बनावें। घृतेन कोलमात्रा हि गुटिकाों विनाशिनी ।।
इन्हें सुबह और शाम खानेसे खांसी और श्वासका
नाश होता है। विनौलेकी गिरी, ल्हसन, सज्जीखार और हींग।
[७६२] कासीसादिगुटी (वृ. नि. र. । मुख.) सब समान भाग लेकर पीसकर घीके साथ बेरके
कासीसं हिंगु सौराष्ट्री देवदारु समं जलैः। बराबर गोलियां बनावें । इनके सेवनसे बवासीरका नाश होता है।
| गुटिको धारयेद्धतकृमिशूलहरां पराम् ॥ [७५९] कासकर्तरीगुटिका
कसीस, हींग, फिटकरी और देवदारु बराबर
बराबर लेकर पानीसे गोलियां बनावें । (वृ. यो. त.। ७८ त.)
इन्हें दातोंमें रखनेसे दांतोंके कृमि और शूल रंगं कृष्णाभयाक्षारं रूपमार्गी क्रमोत्तरा। तत्समं खादिरं सारं बब्बूलकाथभावितम् ॥
आदिका नाश होता है। एकविंशतिवारांश्च मधुनाऽक्षमितागुटी।।
[७६३] कुबेराक्षवटी (वृ. नि. र. । शूल.) कासं श्वासं क्षयं हिका हन्त्यत्येषा कासकर्तरी ॥
कर्षेकं च कुबेराक्षं कक्कं च महौषधम् । बंगभत्म १ भाग, पीपल २ भाग, हैड़ ३ |
" सौवर्चलं च कर्षाद्ध कांधे भृष्टहिंगुकम् ॥ भाग, यवक्षार ४ भाग, बांसा ५ भाग, भारंगी ६ | राष्ट्र मूलरसनव रसानस रसन वा । भाग और खैर सार २१ भाग। सबको बबूलके
पिष्ट्वा सर्व प्रयत्नेन खछांगारे विपाचयेत् ॥ काथकी २१ भावना देकर शहदके साथ ११-१॥ | भुक्त्वा विनाशयेचैव शूलमष्टविधं तथा ॥ तोलाकी गोलियां बनावें।
लताकरञ्ज और सोंठ १।-११ तोला, काला इनके सेवनसे खांसी, श्वास, यक्ष्मा और | नमक ७॥ माषा, और भुनी हुई हींग ७॥ माषा। हिचकीका नाश होता है।
सबको सहजने या ल्हसनके रसमें घोटकर
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ककारादिका
( २३१ )
स्वच्छ अङ्गारों पर पकाकर गोलियां बनावें । इनको । इन्द्रायनके रसमें घोटकर चनेके बराबर गोलियां
बनावें ।
सेवन करनेसे आठ प्रकारके शूल नष्ट होते हैं । [ ७६४] कुमारिकावर्त्तिः
पात नष्ट होता है ।
।
(भै. र. नेत्र, बं. से., वृ. मा; च. द.) अशीतिस्तिलपुष्पाणि षष्टिः पिप्पलितण्डुलाः । जाती पुष्पाणि पश्चाशन्मरिचानि च पोडशः ॥ एषा कुमारिका वर्तिर्गत चक्षुर्निवर्तयेत् ॥
तिलके फूल ८० नग, पीपलके चावल ६० नग, चमेलीके फूल ५० नग, कालीमिर्च १६ नग इनको पीसकर बत्ती बनाकर नेत्रोंमें आंजनेसे नेत्र रोग दूर होते हैं ।
[ ७६७] कुलिकादिवटिका ( भै. र. । विष.) कुलिकं सप्तपर्ण च कुष्ठं तोलकसम्मितम् । माषम नं तथा दारु मर्दयेदर्कवारिणा || सर्षपामां वटीं कृत्वा योजयेत्पयसा सह । अपि तक्षक दष्टश्च मृतकल्पं हतखरम् ॥ पुनः संजीवयेदाशु सर्वक्ष्वेडविनाशिनी । कुलिकादिवटी हन्ति ज्वरांश्च विषमांस्तथा ॥
कुलिक ( कण्टकपाली), सतौना और कूठ १ - १ तोला, देवदारु १ भाषा, सब को आक के रसमें घोट कर सरसों के बराबर गोलियां बनावें ।
[ ७६५ ] कुमारीवटी (भै. र. । परिशि.) कुमार्यद्धिमरौप्यं हरितालं च माक्षिकम् । शतशो भावयित्वाथो गुञ्जामात्रां वटीं चरेत् ॥ धात्र्यम्भसा वटीसेयं कुमारी योजिता हरेत् । निखिलान् खायुजान् रोगान् कुर्यात्तीक्ष्णं धनञ्जयम् ॥
इन्हें दूध के साथ देने से सांप के काटने से आसन्नमृत्यु और हतस्वर (जिसका स्वर नष्ट हो गया हो ) हुवा मनुष्य भी स्वस्थ हो जाता है । यह वटी सब प्रकार के विष और विषमज्वरों का नाश करती है ।
सोनेकी भस्म, चांदीकी भस्म, शुद्ध हरताल और सोना मक्खी भस्म, बराबर बराबर लेकर घीकुमार के रसकी सैंकड़ों भावना देकर १-१ रत्ती की गोलियां बनावें ।
जलमें पीसकर इसकी नस्य देनेसे घोर सन्नि -
[ ७६८] कुष्ठादिवर्तिः (च. स. चि. अ. ३०) कर्णिन्यां वर्तिका कुष्ठपिप्पल्याकयि सैंधवैः । बस्तमूत्रकृता धार्या सर्व च श्लेष्मनुद्धितम् ॥
कर्णिनी योनिमें कूठ, पीपल, आककी कोंपल और सैंधव का बकरे के मूत्र में पीस कर बत्ती बना कर रखने से योनि शुद्ध होती है।
इन्हें आमलेके रसके साथ सेवन करनेसे स्नायुरोग और अग्निमांद्य नष्ट होता है । [ ७६६ ] कुलवटी (र. रा. सुं. । सन्नि.) शुद्धं सूतं मृतं ताम्रं मृतनागं मनःशिला । तुत्थं च तुल्यतुल्यांश दिनमेकं विमर्दयेत् ॥ द्रवैश्वोत्तरवारुण्या चणकाभां वटीं कुरु । सन्निपातं निहंत्याशु नस्यमात्रे सुदारुणम् ।। एषा कुलवटीनाम जले पिष्ट्वा प्रयोजयेत् ॥
शुद्ध पारा, ताम्र भस्म, शीशा भस्म, मनसिल
और नीलाथोथा, समान भाग लेकर १ दिन तक | एकद्वित्रिचतुः तंच तिन्दोवजस्य षट् क्रमात् ॥
इसी प्रकार अन्य कफ नाशक औषधियां और पथ्य प्रयोग करना चाहिये । [ ७६९ ] कृमिघातिनी गुटिका ( र. ग. सु. । क्रिमि.) रसगंधाजमोदानां कृमिघ्नं ब्रह्मबीजयोः ।
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(२३२)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
संचूर्ण्य मधुना सर्व गुटिकां कमिघातिनीम् । कर पीनेसे क्रिमियोंका नाश होता है। खादन पिपासुस्तोय च मुस्तानां कृमिशान्तये॥ [७७०] कृष्णायो मोदकः (मै, र. । श्ली.) आखुपर्णीकषायं वा प्रपिबेत् शर्करान्वितम् ॥ कृष्णाचित्रकन्दतीनां कर्षमर्द्धपलं पलम् ।
शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, | विंशतिश्च हरीतक्या गुडस्य तु पलद्वयम् ॥ अजमोद ३ भाग, बायबिडंग ४ भाग और पलास मधुना मोदकं खादञ्छलीपदं हन्ति दुस्तरम् ॥ पापड़ा (ढाकके बीज) ५ भाग तथा शुद्ध कुचला पीपल ११ तोला, चीता २॥ तोला, दन्ती ५ ६ भाग लेकर चूर्ण करके शहदसे गोलियां बनावें। तोला, हैड १। सेर, गुड १० तोला। ___इन्हें सेवन करने और प्यास लगने पर नागर यथा विधि मधुसे मोदक बनावें । इनके सेवन मोथेका पानी या चूहाकन्नी का पानी चीनी डाल से इलीपद (हाथी पग) का नाश होता है।
अथ ककारादि गुग्गुल्लप्रकरणम्। [७७१] काश्चन गुटिका गुग्गुलुः । यावच्चूर्णमिदं सर्व तावत्मात्रस्तु गुग्गुलुः ।
(भै. र. गलगण्ड.) संकुटय सर्वमेकत्र पिंडं कृत्वा च धारयेत् ॥ त्रिफलायाखयोभागा व्योषाच द्विगुणोमतः। गुटिकाः शाणिका: कार्याः तस्माचद्विगुणं ज्ञेयं कांचनारस्य वल्कलम् ॥ प्राताह्या यथोचिताः। एकीकते तु चूर्णेऽस्मिन् समो देयोऽथगुग्गुलुः। गंडमालां जयत्युग्रामपचीमर्बुदानि च ।। क्षौद्रं दशगुणं दद्यात् त्रिफलाचूर्णतो भिषक् ॥ ग्रन्थीन्त्रणांस्त्र गुल्मांश्च कुष्ठानि च भगन्दरम् । सर्वासु गण्डमालासु गलगण्डे तथैव च। प्रदेयश्चानुपानार्थ क्कायो मुंडितिकाभवः॥ नाडीव्रणेषु गण्डेषु गुटिकेयं प्रशस्यते ॥ काथः खदिरसारस्य पथ्याक्वाथोष्णकं जलम् ॥
त्रिफला ३ भाग, त्रिकूटा ६ भाग, कच- कचनारकी छाल ५० तोला, त्रिफला ३० नारकी छाल १२ भाग, गूगल २१ भाग । शहद तोला, त्रिकुटा १५ तोला, बरनेकी छाल ५ तोला, ३० भाग । चूर्ण योग्य चीज़ोंका चूर्ण करके मिला | इलायची, दालचीनी, तेजपात प्रत्येक १०-१। कर कूटें। इसके सेवनसे गण्डमाला, गलगण्ड और तोला । सबको एकत्र करके चूर्ण करें और सब घावोंका नाश होता है।
चूर्णके बराबर गूगल मिलाकर कूटें और ४-४ [७७२] काश्चनार गुग्गुलुः (वृ.नि.र.गण्डमा.) मापेकी गोलियां बनावें । काञ्चनारत्वचो ग्राह्यं पलानां दशकं बुधैः। इन्हें मुंडी, खैरसार या हैड़के काथ या गरम त्रिफलाषद्पला कार्या त्रिकटुस्यात्पलत्रयम् ॥ जलके साथ प्रातः काल सेवन करनेसे भयंकर पलैकं वरुणं कुर्यादेलात्वपत्रकं तथा । । गंडमाला, अपचि, अर्बुद, ग्रन्थि, घाव, गुल्म, कुष्ठ एकं कर्षमात्रं स्यात् सर्वाण्येकत्र चूर्णयेत् ।। और भगन्दरका नाश होता है।
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ककारादि-गुग्गुल
(२३३)
[७७३] कैशोरगुग्गुलः
प्रत्येकं त्रिफला प्रस्थो जलमत्र षडाढकम् । (भै. र. । वा. र; बृ. यो. त, त. ९१) पाकायत्तं फलं पाके काथे पाकप्रधानता ॥ वरमहिषलोचनोदरसन्निभ
तस्मात्क्वाथविधौ नित्यंयतितव्यं चिकित्सकैः ।। वर्णस्य गुग्गुलोः प्रस्थम् । । (पोटलीमें बंधा हुआ) भैंसिया गूगल १ सेर, प्रक्षिप्य तोयराशौ त्रिफलाच हैड़, बहेड़ा, आमला १-१ सेर और गिलोय २
यथोक्तपरिमाणाम् ॥ सेर लेकर २४ सेर पानी में पकावें। आधा पानी द्वात्रिंशच्छिन्नरुहा पलानि देयानि यत्नेन। । जल जाने पर उतारकर छान लें और फिर दुबारा विपचेदप्रमत्तो दा सङ्घट्टयन मुहुर्यावत् ॥ | लोहेके पात्रमें पकायें एवं पकते समय करछी से अर्द्धक्षयितं तोयं जातं ज्वलनस्य सम्पर्कात् ।। चलाते रहें। जब पकते पकते गाढा हो जाय तो अवतार्य वसपूतं पुनरपि संसाधयेदयः पात्रे ॥ बिलकुल ठंडा होने पर उसमें त्रिफलेका चूर्ण २॥ सान्द्री भूते तस्मिन्नवतार्य हिमोपलमख्ये। तोला, त्रिकुटे का चूर्ण ७॥ तोला, बायबिडंगका त्रिफलाचूर्णा पलं त्रिकटोश्चूर्णषडक्षपरिमाणम्। चूर्ण २।। तोला, निसोत और दन्तीका चूर्ण १।-१॥ कृमिरिपुचूर्णाद्रपलं कर्षे कर्ष त्रिवृदन्त्योः । तोला, गिलोयका चूर्ण ४ तोला और घी ४० अमृताया पलमेकं सर्पिषश्च
तोला मिलावें। पलाष्टकं क्षिपेदमलम् ॥ इसे यूष, दूध या सुगन्धित जलके साथ सेवन उपयुज्य चानुपान यूपं क्षीरं सुगन्धिसलिलश्च। करनेसे एक दोषज, द्विदोषज और पुराना, शुष्क इच्छाहारविहारी भेषजमुपयुज्य सर्वकालमिदम्।। अथवा स्रावयुक्त, स्फुटित और जानुओं तक फैला तनुरोधिवातशोणितमेकजमथद्वन्द चिरोत्थंचा हुआ वातरक्त, घाव, खांसी, कोढ़, गुल्म, शोथ, जयति सूतं परिशुष्कं स्फुटितश्चाजानुजश्चापि ॥ उदररोग, पांड, प्रमेह, अग्निमांद्य, विबन्ध, प्रमेहवणकासकुष्ठगुल्मश्वयफदरपांगुमेहांश्च । पिड़िका आदिका नाश होता है। इसके निरन्तर मन्दाग्निश्च विवन्धं अमेहपिडि- अभ्याससे जरा और समस्त रोग नष्ट होकर किशो
काश्च नाशयत्याशु ॥ रावस्था प्राप्त होती है। यह हर समय सेवन किया सततं निषेव्यमाणः कालवशान्ति सर्वगदान्। जा सकता है एवं इसके सेवनमें किसी प्रकार के अभिभूय जरादोषं करोति कैशोरकं रूपम् ॥ | परहेज़की आवश्यकता नहीं है।
अथ ककारादि लेहप्रकरणम् [७७४] कंस हरीतकी (च. सं. चि.अ. १२) व्योपं त्रिसौगन्ध्यमुषां स्थिते च ॥ द्विपश्चमूलस्य पचेत् कषाये
प्रस्थार्द्धमात्रं मधुनः सुशीते कंसेऽभयानाञ्च शतं गुडस्य ।
किञ्चिच चूर्णादपि यावशूकात् ।। लेहे ससिद्ध च विनीय चूर्ण
एकाभयां प्राश्य ततश्च लेहा
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(२३४)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
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च्छुक्ति निहन्ति वयधुं प्रवृद्धम् ॥ च्चूर्णानि धीरो विधिवत्तदेषाम् ॥ श्वासज्वरारोचकमेहहिका
समझा धातकी पाठा विल्वं मुस्ताथ पिप्पली । प्लीहत्रिदोषोदरपांडुरोगान् । शक्राह्वातिविषाक्षारसौवर्चलरसाञ्जनम् ।। कार्यामवातानसृगम्लपितं
शाल्मलीवेष्टकश्चैव सर्व सिद्ध निधापयेत् । वैवर्ण्य मूत्रानिलशुक्रदोषान् ॥ शीते च मधुनश्चात्र कुडवार्द्ध विनिक्षिपेत् ॥
दशमूलके ८ सेर काथमें ६। सेर गड और अस्य मात्रां प्रयुञ्जीत यथाकालं प्रमाणतः। १०० नग हैड़ डालकर पकावें । जब लेह तैयार
सर्वातिसारं शमयेत्संग्रहग्रहणीं तथा ॥ हो जाय तो उसमें त्रिकुटे और त्रिसुगन्ध (दाल
अम्लपितकृतं दोषमुदरं सर्वरूपिणम् । चीनी,तेजपात और इलायची) के चूर्णका प्रक्षेप डाल
| विकारान् कोष्ठजान् हन्ति हन्याच्छूलमरोचकम्॥ कर रात भर रक्खा रहने दें। फिर सुबहको उसमें ।
___ कंचट (गजपीपल) और ताल मूली (काली १ सेर शहद और १। तोला जवाखार मिलायें।
मूसली) प्रत्येक १-१ सेर लेकर चतुर्थीशावशेष __इसमेंसे प्रति दिन १ हैड़ और २॥ तोला
(चौथा भाग शेष रहा हुआ) काथ तैयार करें । अवलेह खानेसे प्रवृद्ध शोथ (सूजन) श्वास, ज्वर,
फिर आधा सेर मिश्री मिलाकर पकावें और पाकके अरुचि, प्रमेह, हिचकी, तिल्ली, त्रिदोषज उदर रोग,
| अन्तमें मजीठ, धायके फूल, पाठा, बेलगिरी,नागर
मोथा, पीपल, इन्द्रयव, अतीस, जवाखार, साँचल पांड, कृशता, आमवात, अम्लपित्त, विवर्णता, वायु. विकार, मूत्रविकार और शुक्रदोषोंका नाश होता है।
रसौत और सेंभलकी जटाका चूर्ण १।-१। तोला
मिलावें । जब शीतल होजाय तो उसमें २०तोला [७७५] ककुभलेहः (वृ. नि. र. । कासे.)
शहद मिलावें। चूर्ण ककुभविषिष्टं वासकरस- ___. इसे यथोचित काल और मात्रानुसार सेवन
भावितं सुबहुवारान् । | करनेसे समस्त अतिसार, संग्रहणी और सब प्रकार मधुघृतसितोपलाभिला, के उदर रोगोंका नाश होता है। क्षयकासपित्तहरम् ॥
| [७७७] कटुकरोहिण्यावलेहः अर्जुनकी छालके चूर्ण को बासाके रसकी
(भा. प्र. । बा. रो.) अनेक भावना देकर शहद, धी और चीनीके साथ मिलाकर चाटनेसे क्षय, खांसी और पित्तका नाश
चूर्ण कटुकरोहिण्या मधुना सह योजयेत् । होता है।
हिक्कां प्रशमयेत् क्षिप्रं छदि
चापि चिरोत्थिताम् ॥ [७७६] कञ्चटावलेहः (भै. र., धन्व । ग्रह.)
____ कुटकीके चूर्ण को शहदके साथ चटानेसे प्रस्थे पचेत् कञ्चटतालमूल्योः पुरानी वमन और हिचकीका शीघ्र नाश होता है।
सितार्द्ध प्रस्थं शृतपादशेपे । [७७८] कटुत्रिकलेहः (वृ. नि. र. । हिक्का.) ततोऽक्षमात्राणि समानि दद्या- । कटुत्रिकयवासकट्फलसकारवीपौष्करैः ।
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ककारादि-लेह
शृङ्गिभिरद्भुितं मधुयुतोऽवहो जयेत् ॥ सहिमकसनं कफश्वसनमम्भसा सिन्धुजम् । प्रदत्तमपि नावनं झटितिसर्वहिक्काहरम् ||
त्रिकुटा, जवासा, कायफल, कालीज़ीरी, पोखरमूल और काकड़ा सींगीके चूर्ण को शहद में मिलाकर चटाने से खांसी, कफ और श्वासका अत्यन्त शीघ्र नाश होता है।
|
सेंधा नमकके पानीकी नसबार लेनेसे भी सब प्रकारकी हिचकियोंका अत्यन्त शीघ्र नाश होता है।
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(२३५)
चटाने से सब प्रकार के अतिसार और सब उपद्रव युक्त प्रवाहिका (पेचिश) का नाश होता है । इस अवलेहके समान संग्रहणी नाशक अन्य औषधि नहीं ।
[७८२] कण्टकार्यवह: (१)
(बं. से. । कासे. ग. नि. लेहा.) कण्टकार्यास्तुलां सम्यक् जलद्रोणे विपाचयेत् । पादावशेषिते तस्मिन् कल्कानेतान् प्रदापयेत् ।। दुरालभा छिन्नरुहाभाग कर्कटकाया । रास्ता मुस्तं शटी चव्यं चित्रकं त्र्यूषणं तथा ।।
वै. २.)
[७७९] कट्फलादिलेह: (च. द. ज्वरे; शा. ध. म, खं; वृ. मा, कट्फलं पौष्करं शृङ्गी कृष्णा च मधुना सह ।। पलांशानि पलान्यत्र शर्करायास्तु विंशतिः । कासश्वासज्वरहरः श्रेष्ठो लेहः कफान्तकृत् || | घृततैलपलान्यस्मिनष्टाष्टौ प्रदापयेत् ॥ कल्की कृत्य घृते शीते मधुनोऽष्टपलं क्षिपेत् । चतुःपलंपिप्पलीनां तुगाचीर्याश्चतुःपलम् । एष लेहः शमयति पश्च कासांश्चिरोत्थितान् ॥
कायफल, पोखरमूल, काकड़ासींगी और पीपलके चूर्ण को शहद में मिलाकर चटानेसे खांसी, श्वास और कफका नाश होता है। [ ७८०] कणाद्यलेह: (१) (बृ. नि. र. । ज्व.) कासे कणा कणामूलं कलिद्रुमफलं रजः । विश्वभेषजं लिह्यान्मधुना वा वृषारसम् ॥ पीपल, पीपलामूल, बहेड़ा और सोंठ का चूर्ण या बांसे का रस शहदके साथ चटानेसे खांसी
होती है।
६ | सेर कटेलीको ३२ सेर पानीमें पकाकर चौथा भाग शेष रहने पर छान लें और फिर उसमें धमासा, गिलोय, भार्गी, काकड़ासींगी, रास्ना, नागरमोथा, कपूरकचरी, चव्य, चीता, सोंठ, काली मिर्च और पीपल प्रत्येकका ५ -५ तोला कल्क तथा १ सेर खांड और १-१ सेर घी तथा तेल
[ ७८१] कणावलेहः (२) (रसे. चि. । अ. ९) डालकर पकायें एवं पाकके अन्तमें उसमें पीपल और बंसलोचनका २० - २० तोला चूर्ण और ठंडा होने पर १ सेर शहद मिलावें ।
कणानागरपाठाभिस्त्रिवर्गद्वितयेन च । बिल्वचन्दनीयेरै सर्वातीसारनुन्मतः ॥ सर्वोपद्रव संयुक्तामपि हन्ति प्रवाहीकाम् । नानेन सदृशो लेहो विद्यते ग्रहणीहरः ||
पीपल, सोंठ, पाठा, हैड़, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, चीता, बायबिड़ंग, वेल, चन्दन और सुगन्धवाला । इनके चूर्ण को शहद में मिला कर
यह अवलेह पांचों प्रकारकी पुरानी खांसीका नाश करता है 1
x ग. नि. में भारंगी, मुस्ता, शटी, चव्य के स्थानमें पीपलामूल है। तेलका अभाव है। मधु २० तोला है ।
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(२३६)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर।
[७८३] कण्टकार्यवलेहः (२) । मिला कर खाने से वमन और कफ का नाश (यो. र; व. से. वामे)
होता है। चित्रकं पिप्पलीमूलं व्यो मुस्तं दुरालमा। [७८६] कल्याणकावलेहः (यो. र. । ग्रह.) शटी पुष्करमूलं च श्रेयसी सुरसा वचा॥ पाठाधान्ययवान्यजाजिह
पुषाचव्यग्निसिन्धूद्भवैः। भार्गी छिन्नरुहा रास्ता कर्कटाख्या च कार्षिकान। .
"सश्रेयस्यजमोदकीटरिपुभिः कृष्णाजटासंयुतैः।। कल्कानिदिग्धिद्वितुला कषाये पलविंशतिः ॥
सव्योषैः सफलत्रिकैः मत्स्यण्डिकाया दत्वा तु सर्पिषः कुडवं पचेत् ।।
डव पचत् ।। सत्रुटिभिस्त्वपत्रकैरौषधै। सिद्धशीतेपृथक्क्षौद्रपिप्पलीकुडवान्वितम् ॥ | रित्यक्षामितः सतैलकुडवैः साधं त्रिवृन्मुष्टिभिः चतुष्पलं तुगाक्षीर्याश्चूर्ण तत्र प्रदापयेत् । । एतैरामलकीरसस्य तुलया साद्धं तुलाई गुडात् । लेहयेत्कासहद्रोगश्वासगुल्मनिवारणम् ॥ पत्तव्यं भिषजावलेहवदयं प्राग्भोजनाद्धक्षितः।। ____ कटेलीके २५ सेर कषायमें चित्ता, पीपलामूल
ये केचिद्ग्रहणीगदाः सगुदजाः त्रिकुटा, नागरमोथा, धमासा, कपूरकचरी, पोखर
कासाः सशेषामयाः। मूल, गजपीपल, तुलसी, बच, भार्गी, गिलोय,रास्ना
सश्वासाः श्वयथुस्वरोदररुजा और काकड़ासींगीका ११-१। तोला कल्क एवं
कल्याणकस्तां जयेत् ॥ श सेर मिश्री और ४० तोला घृत डालकर पकायें आमलेका रस १२॥ सेर, गुड़ २५० तोला, और पकनेके बाद ठंडा होने पर उसमें ४० तोला तेल ५० तोला; और पाठा, धनिया, अजवायन, शहद तथा पीपल और बंसलोचनका चूर्ण २०- जीरा, हाऊबेर, चव, चीता, सेंधानमक, गजपीपल, २० तोला मिलावें।
अजमोद, बायबिडंग, पीपलामूल, सोंठ, कालीमिर्च, ___ इसको मेवन करनेसे खांसी, हृद्रोग, श्वास पीपल, हैड़, बहेड़ा, आमला, छोटी इलायची, और गुल्मका नाश होता हैं।
दालचीनी और तेजपात प्रत्येक १०-११ तोला ६७८४ कण्टकार्यवलेहः (३) (भा.प्र.से.) तथा निसोत ५ तोला, इन चीज़ोंके कल्कके साथ व्याघ्री सुमनसंजातकेशरैरवलेहिका। लेह पाक सिद्ध करें। मधुना चिरसंजातां छिशोः कासान् व्यपोहति इसे भोजनके पहिले सेवन करनेसे संग्रहणी,
___ कटेलीके फूलको जीरा शहदमें मिलाकर चटा- बवासीर, खांसी, श्वास, सूजन, स्वरभंग और उदर नेसे बालकोंकी पुरानी खांसीको आराम होता है।
रोगोंका नाश होता है।
[७८७] कल्याणगुडः [७८५] करंजाधवलेह (वृ. नि. र. छर्दि.)
| (वं. से. पाण्ड; ग. नि .गुटिका; वृ. यो. त. त.६७) कोमलकरंजपत्रं सलवणमम्लेन संयुक्तम् ।। १. ग. नि. में चन्य, सोंठ, हाउबेर, गजयः खादति दीनवदनश्छदिकफौ तस्य कुत्रेह ।। पीपल, अजवायन, पाठा, तेजपात और इलारायीका अभाव है। करञ्जवेके कोमल पत्तों (कोंपलों) को सेंधा य
। २... यो. त. में सेंधेके स्थान पर पंचनमकके साथ पीसकर अनारका रस (या कांजी) लवण है।
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प्रस्थत्रयेणा लकीरस्य शुद्धस्यदत्वार्द्धतुलां गुडस्य | चूर्णीकृतैर्ग्रन्थिकजीरकस्
व्योषेभकृष्णाहपुषाजमोदैः ||
ककारादि - अवलेह
विडङ्गसिन्धुत्रिफलाय मानी पाठाग्निधान्यैश्च पलप्रमाणैः । दस्त्वात्रिवृचूर्णपलानि चाष्टावष्टौ
च तैलस्य पचेद्यथावत् ॥ तं भक्षयेदक्ष फलप्रमाणं
यथेष्टचेष्टं त्रिसुगन्धियुक्तम् । ear सर्वे ग्रहणीविकाराः सश्वासकास स्वरभेदशोथाः ॥ शाम्यन्ति चायं चिरमन्थराग्ने
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तस्य पुंस्त्वस्य च वृद्धिहेतुः । स्त्रीणां च वन्ध्यामयनाशनोऽयं
कल्याणको नाम गुडः प्रदिष्टः ॥ तैले मनाग्भर्जयन्ति त्रिवृद चिकित्सकाः । अत्रोक्तमानसाधर्म्यात् त्रिसुगन्धं पलं पृथक् ॥
आमलेका रस ६ सेर, शुद्ध गुड़ २५० तोला, तेल १ सेर और पीपलामूल, जीरा, कय, सोंठ, कालीमिर्च, पीपल, गजपीपल, हाऊबेर, अजमोद, बायबिडंग, सेंधानमक, हैड़, बहेड़ा, आमला, अजवायन, पाठा, चीता और धनिया प्रत्येकका चूर्ण ५-५ तोला तथा तेलमें भुना हुआ निसोत का चूर्ण ४० तोला मिलाकर पकायें। और फिर दालचीनी, तेजपात तथा इलायचीका चूर्ण ५-५ तोला मिलावें । इसे १। तोलाकी मात्रानुसार सेवन करने से संग्रहणी, श्वास, खांसी, स्वरभेद, शोध (सृजन) नपुंसकता और बंध्यत्व नाश होता है।
(बांझपन ) का
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( २३७ )
[ ७८८] कल्याणावलेह : (र. र.) सहरिद्रा वचा कुष्ठं पिप्पली विश्वभेषजम् । अजाजी चाजमोदा च यष्टीमधुकसैंधवम् ।। एतानि समभागानि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् । तच्चूर्ण सर्पिषा लोड्य प्रत्यहं भक्षययेन्नरः ॥ एकविंशतिरात्रेण भवेच्छ्रतिधरोनरः । मेघदुंदुभिनिर्घोषो मत्तको किलनिखनः ॥ जडगद्गदकत्वं लेः कल्याणको जयेत् ॥
हल्दी, बच, कूठ, पीपल, सोंठ, जीरा, अजमोद, मुल्हैठी और सैंधा नमक । सब चीजें बराबर बराबर लेकर महीन चूर्ण करके धीमें मिला कर २१ दिन तक सेवन करने से मनुष्य श्रुतिधर (किसी बातको एक बार सुनने से ही याद कर लेने वाला) मेघ के समान गर्जन और कोकिल के समान स्वर वाला हो जाता है। एवं इससे जड़ता, गद्गदपना ( हकलाना) और मूकत्व (गूङ्गापन) नष्ट होता है। [ ७८९ ] कासकण्डनोऽवखेहः (वृ. यो. त. ७८ त.) अजामूत्रं शतपलं मन्दाग्नौ गुडपाकवत् । पक्त्वा वैभीतक चूर्ण पलद्वयमितं क्षिपेत् ॥ पलं पिप्पलिचूर्ण च पलमात्रं मृतायसम् । कण्टकारीफलरजो दद्यादत्र पलद्वयम् ।। ततो माषद्वयं खादेदृङ्कं कर्षमथापि वा । क्षौद्रेणोष्णाम्बुना वाऽपि सर्वकासात्प्रमुच्यते ॥ असाध्याभिषजात्यक्ताश्विरजाः पथ्यवर्जिताः ।
ये कासास्तेऽप्यनेनाऽऽशुप्रणश्यन्ति न संशयः ॥ कासकण्डननामाऽयं योग आत्रेय भाषितः ।
बकरीके १२॥ सेर मूत्रको मंदाग्निपर पकाकर गुड़ पाकके समान गाढ़ा करके उसमें बहेड़े का चूर्ण १० तोला, पीपलका चूर्ण ५ तोला,
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(२३८)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
लोह भस्म ५ तोला और कटेलीके फलोंका चूर्ण शतं कुटजमूलस्य क्षुण्णं तोयानेणे पचेत् । १० तोला मिलावें।
का पादावशेषेऽस्मिल्लेहपूते पुनः पचेत् ॥ ___ इसे २ माशे, ४ माशे या १। तोलेकी सौवर्चलयवक्षारविडसैन्धवपिप्पली। मात्रानुसार शहद या गरम पानीके साथ सेवन धातकीन्द्रयवाजाजी चूर्ण दस्खा पलद्वयम्।। करनेसे असाध्य, वैद्योंसे त्यक्त, पुरानी तथा पथ्य | लिह्याद्वदरमात्रन्तु शीतं क्षौद्रेण संयुतम्। वर्जित (जिसमें बदपरहेज़ी की गई हो) खांसी भी ___पक्कापक्कमतीसारं नानावण सवेदनम् ॥ शीघ्र नष्ट हो जाती हैं।
दुर्वारं ग्रहणीरोगं जयेश्चैव पवाहिकाम् ।। [७९०] कुटजपुटपाकः (भै. र. । ग्रह.) चूर्ण मिलित्वा पलद्वयं ग्राह्यं घनीभूते प्रक्षेपः स्निग्धं धनं कुटजवल्कमजन्तुजग्ध- बदरमात्रमष्टमापकमानं मधुना ___ मादायतरक्षणमतीव च पोथयित्वा । खाद्यमितिगोपालदासभानुदासप्रभृतयः॥ जम्बुपलाशपुटे तण्डुलतोयसिक्तं
कुड़े की ६। सेर छालको कूटकर ३२ सेर बद्धं कुशेन च बहिर्घनपङ्कलिप्तम् ।। पानीमें पकाये । जब चौथा भाग बाकी रह जाय तो सुस्विनमेतदवपीडय रसं गृहीत्वा छानकर पुनः पकावें। एवं पाकके अन्तमें उसमें
क्षौद्रेण युक्तमतिसारवतेप्रदद्यात् । सौंचल (काला नमक) जवाखार, बिडनमक, सेंधाकृष्णात्रिपुत्रमतपूजित एष योगः। नमक, पीपल, धायके फूल, इन्द्रजौ और जीरा ।
सर्वातिसारहरणे खयमेव राजा ॥ इन सब का १० तोला चूर्ण मिलावें। खरस्य गुरुत्वेन पुटपाके पलं पिबेत् । इसे ८ माशेकी मात्रामें शहदमें मिलाकर
पुटपाकस्य पाकोऽयं बहिरारुणवर्णता ।। | सेवन करनेसे कच्चे पक्के, रंग बिरंगे और वेदना___ कुड़े की स्निग्ध (चिकनी) मोटी और जन्तु युक्त सब प्रकारके अतिसार, दुस्साध्य संग्रहणी और (कीड़े मकोड़ोंसे) रहित गीली छालको लेकर खूब प्रवाहिका (पेचिश)का नाश होता है । कटें और फिर उसमें चावलोंका पानी मिलाकर | ७९२] कुटजावलेहः (२) (वृ. नि. र.। अति) (गोलासा बनाकर) जामन या ढाकके पत्तोमें लपेट क्वाथो वत्सकजो नितांतविमल: कर उसे कुशासे बांध दें और उसके ऊपर मिट्टीका पादावशेषः स्थितः। गाढ़ा २ लेप करके अग्निमें दबा दें। जब वह मस्ताक्षीरविडंगवीजरुच सिंधद्धवं धातकी । गोला बाहरसे लाल हो जाय तो निकालकर अन्दरकी
कृष्णा चेति विचूर्णितं सममिदं लुगदीको निचोड़कर रस निकालें।
संपाचयेत् पावके। ___ यह रस ५ तोलेकी मात्रानुसार शहदमें यावत्तधनतां प्रयात्यतितरां शीते मधुक्षेपणम्॥ मिलाकर सेवन करनेसे सब प्रकारके अतिसार नष्ट कृत्वा वत्सकलेह एष शमयेत् कृच्छातिसारं रुज होते हैं।
दुर्नामग्रहणीभगंदरगदान् श्वासप्रमेहानपि । [७९१] कुटजलेहः (१) (भै. र. । ग्रह.) । कुड़े की छालका पादावशेष (पकाते पकाते
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ककारादि - अवलेह
चौथा भाग शेष रहा हुवा) अत्यन्त स्वच्छ कषाय लेकर उसमें नागरमोथा, दूध, बायबिडंग, काला नमक, सेंधा नमक, धायके फूल और पीपलका चूर्ण डालकर पकायें। जब गाढ़ा हो जाय तो उतार कर ठंडा करके उसमें शहद मिला लें। इसे सेवन करने से कष्टसाध्य अतिसार, बवासीर, संग्रहणी, भगन्दर, श्वास और खांसीका नाश होता है । [ ७९३] कुटजावलेह : (३) (बृ.नि.र. संग्रह ) कुटजस्य तुलां दत्वा चतुर्द्रोणांभसा पचेत् । द्रोणशेष रसे तस्मिन्पूते गुडतुलार्द्धकम् ॥ घृतं च टङ्कवत्रक्षिप्त्वा मृद्वग्निापचेत् । समंगा बिल्वकशिलाबिल्वार्ध च पुनर्नवा ॥ मुस्तामल्लातकं चापि धातकी गजपिप्पली । अंबष्ठावालकं चैव बृहत्यौ सचित्रकम् ॥ सद्भार्गीपिप्पलीमूलं विडंगानि हरीतकी । नागकेशरयष्टीकारकापत्रकं तथा ॥ विश्वाचेंद्र यवाः पाठसूक्ष्मैलाजीरकद्वयम् । जाति पत्रिजातिफलं लवङ्गं तगरं तथा ॥ तो द्विपलिकेर्भागैर्लेहोयं साधयेत्ततः । तणवसुत वा पथ्यं देयं विचक्षणैः ॥ अनेन ग्रहणी रोगानतिसारान्सुदारुणान् । . रोगानीकविघाताय कुटजो लेह उच्यते ॥
६ सेर कुड़े की छालको १२८ सेर पानी में पकावें जब ३२ सेर पानी शेष रह जाय तो उतार कर छान लें और उसमें २५० तोला गुड़ तथा ४ माशा धी; और मँजीठ, बेल, शिलाजीत प्रत्येक २|| २ || तोला तथा पुनर्नवा (बिसखपरा) नागरमोथा, भिलावा, धायके फूल, गजपीपल, पाठा, सुगन्धवाला, छोटी कटेली, चीता, भारंगी, पीपला - मूल, बायबिडंग, हैड, नागकेशर, मुल्हेठी, अरल,
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( २३९)
तेजपात, सोंठ, इन्द्रजौ, पाठा, छोटी इलायची, दोनों जीरे, जायफल, जावित्री, लौंग और तगर, प्रत्येकका चूर्ण १०-१० तोला मिलाकर मन्दाि पर पकावें ।
इसे छाछ (तक्र) के साथ सेवन कराने और पथ्यमें भी तक ही देनेसे कष्टसाध्य संग्रहणी और अतिसार नष्ट होते हैं ।
[ ७९४] कुटजाद्यवलेहः (४) (यो. र. । अतिसा) वत्सस्यामृताया द्वे पले प्रस्थमम्भसः ॥ पयित्वा रसे तस्मिन्पादशेषावतारिते || अष्टौ पलानि शक्रस्य यवावर्णीकृताश्च ते । युक्त्या पाकं विदित्वा तु यथावह्नि च खादयेत् ।। जयेत्सर्वातिसारांश्च सर्वांच ग्रहणीगदान् । नाशयेद्दीपयेच्चाग्नि कृष्णा श्रेयस्य शासनात् ॥
कुकी छाल और गिलोय १०-१० तोला लेकर २ सेर पानी में पकावें और चौथा भाग शेष रहने पर छानकर उसमें ४० तोला इन्द्रजौका चूर्ण मिलाकर अवलेह तैयार करें ।
इसे अग्निबलानुसार सेवन करनेसे सब प्रकार के अतिसार और समस्त ग्रहणी रोग नष्ट होते तथा अग्नि प्रदीप्त होती है ।
[ ७९५] कुटजावलेहः (५) (च. द. । अति.) कुटजत्वक्कृतः क्वाथो घनीभूतः सुशीतलः । लेहितोऽतिविषायुक्तः सर्वातीसारनुद्भवेत् ॥ वदन्त्यत्राष्टमांशेन क्वाथादतिविषारजः । प्रक्षेप्यत्वात्पादिकं तु लेहादिति च नो मतिः ॥
कुड़ेकी छालके काथको दुवारा पकाकर गाढ़ा करके उसमें आठवां या चौथा भाग अतीसका चूर्ण मिलाकर सेवन करनेसे त्रिदोषज अतिसार का नाश होता है।
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(२०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
[७९६] कुटजावलेहः (६)
५-५ तोला चूर्ण और १ सेर घी मिलावें । (शा. ध. म. खं. ८; व. से. अतिसा; व. से... जब ठंडा हो जाय तो उसमें १ सेर शहद अर्शो; वृ. मा. अर्शी; ग. नि. लेहा. ५; मिलाकर रक्खें ।
वृ. यो. त. त.६४; भै.र; धन्व. अर्श.) इसको सेवन करने और औषधियों के पच कुटजत्वक्तुलां द्रोणे जलस्य विपचेत्सुधीः। जाने पर पथ्य भोजन करनेसे बवासीर, अतिसार, कषायं पादशेषं च गृह्णीयाद्वस्त्रगालितम् ॥ अरुचि, संग्रहणी, पांडु, रक्तपित्त, शोष, कृशता त्रिंशत्पलं गुडस्यात्र दत्वा च विपचेत्पुनः।। और प्रवाहिका (पेचिश) का नाश होता है। सांद्रत्वमागतं ज्ञात्वा चूर्णानीमानि दापयेत् ॥ अनुपान-बकरीकी छाछ, दूध, दही या घी रसांजनं मोचरसं त्रिकटु त्रिफलां तथा। अथवा पानी । लालुं चित्रकं पाठां विल्वमिन्द्रयवं वचाम् ॥ भल्लातकं प्रतिविषां विडंगानि च वालकम् ।
[७९७] कुटजावलेहः (७) प्रत्येकं पलसमानं घृतस्य कुडवं तथा॥
(शा. ध. म. खं. ८) सिद्धशीते ततो दद्यान्मधुनः कुडवं तथा। कुटजत्वक्तुलामाद्रां द्रोणनीर विपाचयेत् । जयेदेषोऽवलेहस्तु सर्वाण्यर्शा स वेगतः॥ पादशेष शृतं नीत्वा चूर्णान्येतानि दापयेत् ॥ दर्नामप्रभवान्रोगानतीसारमरोचकम् । लजालुर्धातकी बिल्वं पाठा मोचरसस्तथा। ग्रहणी पांडुरोगं च रक्तपित्तं च कामलाम् ॥ | मुस्तं प्रतिविषा चैव प्रत्येकं स्यात्पलं पलम् ।। अम्लपित्तं तथा शोषं काश्यं चैव प्रवाहिकाम् । ततस्तु विपद्भ्यो यावद्दर्वीप्रलेपनम् । अनुपाने प्रयोक्तव्यमाजं तकं पयो दधि ॥ जलेन च्छादुग्धेन पीतो मंडेन वा जयेत् । घृतं जलं वाजीणे च पथ्यभोजी भवेन्नरः ॥ सर्वातिसाराधोरांस्तु नानावर्णान्सवेदनान् ।। __ कुड़ेकी ६। सेर छालको ३२ सेर पानीमें असृग्दरं समस्तं च सर्वशासि प्रवाहिकाम् ॥ पकावें जब चौथा भाग रह जाय तो कपड़ेमें छान कुड़ेकी गीली छाल ६। सेर लेकर ३२ सेर कर उसमें १ सेर १४ छटांक गुड मिलाकर दुबारा पानीमें पकावें । जब चौथा भाग शेष रह जाय तो पकावे और गाढ़ा होनेपर रसौत, मोचरस, सोंठ, छानकर उसमें लज्जावन्ती, धायके फूल, बेलगिरी, कालीमिर्च, पीपल, हैड़, बहेड़ा, आमला, लज्जावंती, पाठा, मोचरस, नागरमोथा और अतीसका ५--५ चीता, पाठा, बेलगिरी, इन्द्रजौ, बच, भिलावा, तोला चर्ण मिलाकर उस समय तक पकावें जब अतीस, बायबिडंग और सुगन्धबाला प्रत्येकका तक कि करछीको न लगने लगे।
१. वृ. मा; ग. नि. भै. र; में मोचरस, इसको पानी, बकरीके दूध या मांडके साथ लजालु और बालकका अभाव है। सेवन करनेसे कष्टसाध्य, वेदना युक्त और रंग बिरंगे
२. व. से. अर्शोधिकारोक्त में लज्जालु, अतिसार. रक्तप्रदर, बवासीर और प्रवाहिका(पचिश) पाठा, बालककी जगह मुस्ता, लोध, कैथ और घाय है।
का नाश होता है।
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ककारादि-अवलेह
(२४१)
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[७९८] कुटजरसक्रियाः
___ औषधि के पच जाने पर बकरी के दूधके (च. सं. चि. अ. ९; भै. र; ब. से, अर्शी; | साथ शाली चावलों का भात खाना चाहिये । ग. नि. लेहा. ५)
[७९९] कुटजाष्टकः कुटजशकलम्य साध्यं पलश
(च. द. अति; हा. सं. ३ स्था. ३ अ; ग.नि. तमार्द्रस्य मेघसलिलेन ।
लेहा. ५; वृ. यो. त. त ६४; भै. र. यावत् स्यात् गतरसं तद्रव्यं
____ अति; ब. से; वृ. मा; यो. र. अति.) पूतो रसस्ततो ग्राह्यः ॥ तुलामथाद्रां गिरिमल्लिकायाः मोचरसः समङ्गःफलिनी च समांशिकैस्त्रिभिस्तैश्च संक्षुद्य पक्त्वा रसमाददीत । वत्सकबीजं तुल्यं चूर्णितमत्र प्रदातव्यम् ॥ । तस्मिन्सुपूते पलसम्मितानि पूतः कथितः स रसोदीलेपस्ततः समवतार्य श्लक्ष्णानि पिष्टा सह शाल्मलेन ।। मात्राकालोपहिता रसक्रियैषा जयति रक्तम् ।। | पाठां समङ्गातिविषां समुस्तां छागलिपयसा पीता पेथा
बिल्वं च पुष्पाणि च धातकीनाम् ।। मण्डेन वा यथाग्निबलम् ।
प्रक्षिप्य भूयो विपचेत्तु तावजीर्णौषधश्च शालीन् पयसा छागेन भुञ्जीत ॥
द्दीप्रलेपः स्वरसस्तु यावत् ॥ रक्तास्थितिसारं रक्तं सासृगुजो निहन्यात्त । |
पीतस्त्वसौ कालविदा जलेन बलवञ्च रक्तपित्तं रसक्रियैषा जयत्युभयभागम् ।।
मण्डेन वाजापयसाऽथवाऽपि ॥ कुड़ेकी गीली छालके ६। सेर टुकड़ोंको
निहन्ति सर्व त्वतिसारमुग्रम् ३२ सेर आकाश जल (बारिसका वह पानी जो
कृष्णं सितं लोहितपीतकं वा ।। भूमि पर गिरने से पूर्व ही एकत्रित कर लिया गया
दोषं ग्रहण्या विविधं च रक्तम् हो) में पकावें जब उसका रस निकल आवे (चौथा
शूलं तथाशांसि सशोणितानि । भाग शेष रह जावे) तब उसको छानकर रसको फिर पकावें और गाढ़ा होने पर उसमें मोचरस,
असृग्दरं चैवमसाध्यरूपं बाराहक्रान्ता (या मजीठ) और फूलप्रियंगुका चर्ण
नित्यवश्यं कुटजाष्टकोऽयम् ॥ बराबर तथा इन तीनोंके बराबर इन्द्रजौका कुड़ेकी ६। सेर गीली छालको कूट कर ३२ चूर्ण मिलावें।
सेर जलमें पकावें । जब चौथा भाग शेष रह जाय ___इसे काल और अग्नि बलानुसार उचित मात्रा | तो उसे उतार कर छानकर उसमें मोचरस, पाठा, में बकरी के दूध या पेया अथवा मांडके साथ | बराहक्रान्ता (या मजीठ) अतीस, नागरमोथा, बेलसेवन करनेसे रक्तार्श (खूनी बवासीर) रक्तातिसार, गिरी और धाय के फूल, इनमें से प्रत्येकका ५-५ रक्तप्रदर और ऊर्ध्व गत तथा अधोगत रक्तपित्त का तोला बारीक चूर्ण मिलाकर इतना पकावें कि गाढ़ा नाश होता है।
होकर करछलीसे लगने लगे। १. पलांश. ग. नि.
इसे बलानुसार यथोचित मात्रा से जल, मण्ड
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(२४२)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
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या बकरीके दूधके साथ सेवन करने से सब प्रकारके । गलरोगोपशमनो विषमज्वरनाशनः । प्रबल अतिसार, काले सफेद, पीले और लाल आदि कुरण्टकादिनामाऽयं लेहो रोगाहितः सदा ॥ रंग बिरंगे दस्त, अनेक प्रकारके ग्रहणी रोग, रक्त- कुरण्ट (पिया वांसा) को मूल सहित लेकर स्राव, शूल, खूनी बवासीर और कष्टसाध्य रक्तप्रदर ! कुल्हाडेसे टुकड़े करके कूटकर १६ सेर पानीमें का नाश होता है।
पकावें । जब आठवां भाग शेष रह जाय तो छान[८००] कुनटयादिलेहः
कर फिर पकावें जब तीन भाग पानी जल जाय ___ (बं. से । कासे, र. का. धे. श्वासा) तो उसमें इलायची, लौंग, त्रिफला, चव, तेजपात, कुनटीसैन्धवव्योषविडङ्गामलहिङ्गुभिः॥
केसर (या नागकेसर) दोनों प्रकारकी (श्वेत और
नीले पुष्पकी) भारंगी, पीपलामूल, पाठा, पीपल, लेहस्साज्यमघुःकासश्वास हिक्वानिवारणः ।।
चीता, कूठ, बेर, सुरमा, अजमोद, हडजोड़ी,बायशुद्ध मनसिल, सेंधानमक, त्रिकुटा, बाय
बिडंग, दोनों जीरे, इन्द्रजौ, नागरमोथा,अजवायन, बिड़ङ्ग, बांसा (या आमला) ओर हींगके चूर्णको धी और शहद में मिलाकर चाटने से खांसी, स्वास
सेंधा नमक, कुटकी, अतीस, मूर्वा, करमवा, अरल्लू
और शुद्ध मीठा तेलिया । इन सबका महीन चूर्ण और हिचकी का नाश होता है।
मिलाकर यथाविधि अवलेह पाक सिद्ध करें। [८०१] कुरण्टकादिनामा लेहः (यो. र. ज्च)
इसे आमलेके बराबर मात्रामें गरम पानीके कुरण्टकं समूलं च कुठारच्छेदक्षुण्णकम् ।।
साथ २० दिन तक सेवन करनेसे पुराना बुखार, पानीयमष्टप्रस्थं वा क्वाथमष्टावशेषकम् ॥ । द्वन्द्वज ज्वर, अग्निमांद्य, अरुचि, त्वचा-गत, अस्थि शेषक्वार्थ भाण्डमध्ये पुनः काथ्याग्निना पचेत् । गत, रक्तगत और मांसगत ज्वर, सन्धि ज्वर,प्रबल काथे त्रिभागपचिते चूर्णद्रपाणि निक्षिपेत् ॥ रात्रि ज्वर, सन्निपात ज्वर, श्वास, खांसी, गलरोग एला लवङ्गं त्रिफला चव्यं पत्रककेसरम् ।। और विषमज्वरका नाश होता है। द्विर्भार्गी ग्रन्थिकं पाठा मागधी चित्रकुष्ठ कम् ॥ [८०२] कुलत्थगुडः कोलाञ्जनं चाजमोदा वज्रवल्ली विडङ्गकम् ।। (र. र. हिक्का. ब. से; कासा) जीरद्वयं चेन्द्रयवं मुस्तादीप्यकसैन्धवम् ॥ कुलत्थो दशमूलश्च तथैव द्विजयष्टिका । कदुकाऽतिविषा मूर्वा करञ्जस्त्वरलूग्रकम् ।। शतं शतश्च संगृह्य फलद्रोणे विपाचयेत् ।। एतद्रव्यं मूक्ष्मचूर्णं पूर्वकाथेन संयुतम् ।। पादावशेष तस्मिश्च गुडस्या तुलां क्षिपेत् । . लेहपाकं च विधिवद्धात्रीफलसमानकम् । शीतीभृते च पक्के च मधुनोऽष्टौ पलानि च ।। उष्णोदकानुपानेन सेवयेद्दिनविंशतिम् ।। षट्पलश्च तुगाक्षीर्याःपिप्पल्याश्च पलद्वयम् । द्वंद्रज्वरं पुराणं च त्वग्निमान्द्यमरोचकम् । । त्रिसुगन्धिसुगंधं तत्खादेदग्निवलं प्रति ।। स्वगतास्थितगतौ रक्तगतं मांसगतं ज्वरम ।। श्वासं कासं ज्वरं हिक्कां नाशयेत्तमकन्तथा।। संधिज्वरं च ह्यत्युग्रं रात्रिज्वरमथो हरेत । । कुलथी, दशमूल और भारंगी ६।-६। सेर त्रिदोषजं ज्वरं हन्ति श्वासकासज्वरापहः ॥ १ ब. से. मैं त्रिसुगन्धका अभाव है।
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ककारादि-अवलेह
(२४३)
लेकर प्रत्येकको ३२-३२ सेर पानीमें पृथक् पृथक् , पतरज, दालचीनी, इलायची, नागकेशर, बरना, पकाकर चौथा भाग शेष रहने पर छान लें और | गिलोय और फूल प्रियंगु; इनमेंमे प्रत्येकका ११-१॥ फिर सबको एकत्र करके ३ सेर आध पाव गुड़ | तोला चूर्ण मिलावें। मिलाकर पुनः पकाकर गाढ़ा करें। फिर ठण्डा | इसे सेवन करनेसे २० प्रकारके वातज, करके उसमें १ सेर शहद, ३० तोला बंसलोचन | पित्तज, कफज और सन्निपातज प्रमेह, मूत्राधात, पीपल, दालचीनी, तेजपात और इलायची प्रत्येकका | पथरी और प्रबल अरुचिका नाश होता है तथा चूर्ण १०-१० तोला मिलाकर रखे।
बल और पुष्टि की वृद्धि होती है। इसे अग्नि बलानुसार सेवन करनेसे श्वास, खांसी, ज्वर, हिचकी और तमक स्वासका नाश
[८०४] कूष्माण्डकावलेहः (१)
(वृ. नि. र. रक्तपि.) होता है। [८०३] कुशावलेहः (भै. र. प्रमे.) ।
पुराणं पीनमानीय कूष्मांडस्य फलं दृढम् ।
| तद्वीजाधारबीजत्वशिराशून्यं च कारयेत् ।। कुशःकासो वीरणश्च कृष्णेक्षुःखग्गडस्तथा। एषां दशपलान् भागाञ्जलद्रोणे विपाचयेत् ।।
ततोतिसूक्ष्मखंडानि कृत्वा तस्य तुलां पचेत् । अष्टभागावशेषन्तु कषायमवतारयेत् ।
गोदुग्धस्य तुलायुग्मे मंदाग्नौ चालयेन्छनैः ।। खण्डप्रस्थं समादाय लेहवत्साधुसाधयेत् ॥
शर्करायास्तुलाद्धं च गोघृतं प्रस्थमात्रकम् । अवतार्य ततःपश्चाच्चूर्णानीमानि दापयेत् ।
प्रस्थार्धमाक्षिकं चापि कुडवं नारिकेरतः ॥ मधुकं कर्कटीबीजं कर्कास्त्रपुषं तथा ।।
प्रियालफलमजानां द्विपलं त्रिखुरीपलम् ।
क्षिपेदेकत्र विपचेल्लेहयेत्साधुसाधयेत् ।। शुभामलकपत्राणि त्वगेलानागकेशरम् । वरुणोमृताप्रियंगुश्च प्रत्येकमक्षसम्मितम् ।।
| भिषभिषक्त्वमालोक्य ज्वलनादवतारयेत् । प्रमेहान् विंशति हन्ति मूत्राधातांस्तथाश्मरीः।
काष्ठौषध्यः क्षिपेदेषां चूर्ण तानि वदाम्यहम् ।। वातिकान् पैत्तिकांश्चापि,
एकोक्षः शतपुष्पाया अथ जीरो यवानिका श्लैष्मिकान् सान्निपातिकान् ॥
| गोक्षुरः क्षुरकः पथ्या कपिकच्छ्रफलानि च ॥
| सप्तमी त्वक्च मर्वेषामेषामक्षयुग पृथक् । हन्त्यरोचकमत्युग्रं बलपुष्टिकरं परम् ॥
कुशा, कांस, खस, काली ईखकी जड और धान्यक पिप्पलीमुस्तमश्वगंधा शतावरी ॥ खग्गड (ईख विशेष) की जड । सब चीजें बराबर | ताल
| तालमूली नागबला वालकं पत्रकं शटी। बराबर मिलाकर ४० तोला लेकर ३२ सेर पानी | जातीफलं लवंगं च सूक्ष्मैलाबृहदेलिकान् ॥ में पकावें और आठवां भाग शेष रहने पर छानलें. शृङ्गाटकं पर्पटकं सर्व पलमितं पृथक् । इसके पश्चात् उसमें १ सेर खांड मिलाकर पुनः / चंदनं नागरं धात्रीफलं चापि कसेरुकम् ॥ पकावें और जब लेहके समान हो जाय तो अग्नि | प्रत्येकं पंचकर्षाणि चोत्तायैतानि निःक्षिपेत् । से नीचे उतार कर उनमें मुल्हैठी, ककडीके बीज, पलद्वयमुशीरस्य पलान्यष्टोषणाणि (1) च ।। पेंठेके बीज, खीरेके बीज, बंसलोचन, आमला, | १ मरिचानि चेति साधीयान् ।
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(२४४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
कूष्मांडस्यावलेहोयं भक्षितः पलमात्रकः। धिक मात्रामें सेवन करनेसे रक्तपित्त, शीतपित्त, किंवा यथावद्विबलं भुजन् रोगान् विनाशयेत्।। अम्लपित्त, अरुचि, मन्दाग्नि, दाह, तृष्णा, प्रदर, रक्तपित्तं शीतपित्तमम्लपित्तमरोचकम् । खूनी बवासीर, पित्तज छर्दि, पांडु, कामला,उपदंश, वह्निमांद्यं सदाहं च तृष्णां प्रदरमेव च ॥ विसर्प, जीर्णज्वर और विषमज्वरका नाश होता है। रक्ताशे पित्तजिच्छदि पांडुरोगं च कामलाम्। यह अवलेह वृष्य, वृंहण एवं बलकारक है। उपदंशं विसर्प च जीणं च विषमज्वरम् ॥ इसे मिट्टीके बरतनमें रखना अधिक उत्तम है। लेहोयं परमो वृष्यो बृहणो बलवर्धनः। ८०५] कूष्माण्डकावलेहः (२) स्थापनीयो विशेषेण भाजने मृन्मये नवे ॥
(शा. ध. म. खं. अ. ८) मोटे दलवाले पुराने पेठेके छिले हुवे और | निष्कुलीकुष्माण्डखंडान्पलशतं पचेत् । बीजादिसे रहित बारीक बारीक टुकडे ६। सेर लेकर | निक्षिप्य द्वितुलं नीरमर्धशिष्टं च गृह्यते । उन्हें २४ सेर गोदूग्धमें मन्दाग्नि पर पकावें और | तानि कूष्मांडखंडानि पीडयेदृढवाससा। धीरे धीरे करछलीसे चलाते रहें; एवं (पेठेके उसीज आतपे शोषयेत्किश्चिच्छूलाग्रेबहुशो व्यधेत् ।। जाने पर) उसमें खांड ३ सेर आधपाव, गोघृत २ | शिया मासा तय। सेर, शहद* १ सेर, नारियलकी गिरी २० तोला, 2
| किञ्चिच भर्जयित्वा तु पूर्वोक्तं च जलं क्षिपेत्॥ पियालकी गिरी १० तोला और गोखरूका चूर्ण
खण्डं पलशतं दत्त्वा सर्वमेकत्र पाचयेत् । ४ तोला मिलाकर लेह सिद्ध करें। फिर अग्नि से
सुपक्व पिप्पलीशुण्ठीजीराणां द्विपलं पृथक् ॥ उतार कर उस में निम्न लिखित चीज़ोंका चूर्ण
पृथक् पलाई धन्याकं पत्रैला मरिच त्वचम् । मिलावें।
चूर्णीकृत्य क्षिपेत्तत्र घृताद्धं क्षौद्रमावपेत् ॥ ___सोया १ तोला, जीरा, अजवायन, गोखरू, !
| खादेदग्निबलं दृष्ट्रा रक्तपित्ती क्षयी ज्वरी। तालमखाना, हरीतकी (हैड) कौंच और दालचीनी
शोषतृष्णातमश्छर्दिकासश्वासक्षतातुरः । प्रत्येक २॥-२॥ तोला, धनिया, पीपल, नागर
कूष्मांडकावलेहोऽयं बालवृद्धेषु युज्यते । मोथा, असगन्ध, शतावर, तालमूली (मूसली), नागबला (गंगेरन), सुगन्धवाला, तेजपात, कपूर
| उरःसंधानकृद् वृष्यो ब्रहणो बलकृन्मतः ।। कचरी, जायफल, लौंग, छोटी इलायची, बडी इला
छिलके और बीजों आदि से रहित पेठे के यची, सिंघाडा और पित्तपापडा प्रत्येक ५-५
टुकड़ें ६। सेर लेकर २५ सेर पानी में पकावें, जब तोला । चन्दन, सोंठ, आमला और कसेरु प्रत्येक
आधा पानी जल जाय तो उसे अग्नि से उतार कर ६१-६। तोला। खस १० तोला, काली मिर्च
पेठे के टुकड़ों को कपड़े में बांधकर अच्छी तरह ०।। सेर।
निचोड़ें और उन्हे तकुवे या सुवे आदि से अच्छी इसे ५ तोला अथवा अग्नि बलानुसार न्यूना
तरह छेद कर थोड़ी देर धूप में सुखावें; इसके बाद ___ * इस प्रकार अवलेहों में मधुका पाक
उन्हें तांबे की कड़ाही में डाल कर १ सेर धी में करना शास्त्र विरुद्ध है।
भूनें। जब पेठा कुछ २ भुन जाए तो उस में पूर्वोक्त
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ककारादि - अवलेह
(२४५)
(जिसमें पेठा पकाया था वह ) जल और ६ | सेर त्वगेलापत्रमरिचधान्यकानां पलार्धकम् ।
खांड डाल कर पकावें । जब लेहके समान गाढ़ा हो जाय तो उसमें पीपल, शहद और जीरे का चूर्ण १०–१० तोला, धनिया, तेजपात, इलायची, काली मिर्च और दाल चीनी प्रत्येक का चूर्ण २||२|| तोला मिलावें एवं ठंडा होने पर ०|| सेर शहद मिलाकर रक्खें ।
तद्यथाग्निबलं खादेद्रक्तपित्ती क्षतक्षयी ॥ कासश्वासत मच्छर्दि तृष्णा ज्वरनिपीडितः । वृष्यं पुनर्नवकरं बलवर्णप्रसादनम् || |उरः सन्धानकरणं बृंहणं स्वरबोधनम् । अश्विभ्यां निर्मित श्रेष्ठ कूष्माण्डकरसायनम् ॥ खण्डामलकमानानुसारात्कुष्माण्डकद्रवात् । पात्रं पाकायदातव्यं यावान्वात्र रसो भवेत् ॥*
पेठे के छिले हुवे साफ़ और उबले हुवे ६ । सेर टुकड़ों को तांबे के पात्र में २ सेर घी में भूने। जब पकते २ शहद के समान हो जांय तो उन में ६। सेर खांड तथा पीपल, सोंठ और जीरे का चूर्ण १०-१० तोला तथा दालचीनी, इलायची, तेजपात, काली मिर्च और धनिये का २॥ - २॥ तोले चूर्ण मिला कर पकाने और करछी से चलाते रहें। जब गाढ़ा हो जाय तो उतार कर ठंडा होने पर उसमें १ सेर शहद डाल कर रक्खें ।
इसे अग्नि बलानुसार यथोचित मात्रा में सेवन करने से रक्तपित्त, क्षय, ज्वर, शोथ, तृष्णा, आंखों के आगे अंधेरा आना, वमन, खांसी, श्वास और क्षत का नाश होता है।
यह अवलेह बालक और वृद्धों के वास्ते हितकारी, उरसन्धान कारक, वृष्य, वृंहण और बलकारक है। [८०६] कूष्मांड खंडलेह : (३)
(शा. ध. म. खं. अ. ७) युक्तया कूष्मांड खंड च सरणं विपचेत्सुधीः । अर्शसां मूढवातानां मंदाग्नीनां च युज्यते ॥
पेठे और ज़िमिकन्द के टुकडों को यथा विधि पकाकर सेवन करनेसे बवासीर, मूढ़वात और मन्दाग्नि का नाश होता है ।
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इसे अग्नि बलानुसार यथोचित मात्रा में सेवन करने से रक्तपित्त, क्षत, क्षय, खांसी, श्वास, तम, छर्दि, तृष्णा और ज्वर का नाश होता है ।
यह अवलेह वृष्य, नवजीवन-दाता, बल वर्द्धक, वर्ण शोधक, उरः सन्धान कारक, वृंहण, स्वर को तीव्र करने वाला अत्युत्तम रसायन है 1 [८०८] कूष्मांडगुडः
च. द; वृ. मा;)
(वृ. नि. र. । संग्र; भै. र । ग्रह.)
कूष्माण्डकात्पलशतं सुस्विनं निष्कुलीकृतम् । कूष्मांडानां सुपक्कानां स्विन्नानां निष्कुलत्वच । पचेत्पात्रे घृतप्रस्थ शनैस्ताम्रमये दृढे ॥ सर्पिः प्रस्थे पलशतं ताम्रपात्रे शनैः पचेत् ॥ यदा मधुनिभःपाकस्तदा खण्डशतं न्यसेत् । पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रकं गजपिप्पली । पिप्पलीशृङ्गवेराभ्यां द्वेपले जीरकस्य च ॥ * नोट:- इस पाक में पेठे को पकानेले जो न्यसेच्चूर्णीकृतं तत्र दर्या संघट्टयेत्पुनः । रस निकलेगा वह सब अथवा उसमेंसे ४ तत्पक्कं स्थापयेद्भाण्डे दत्वा क्षौद्रं घृतार्द्धकम् ॥ सेर रस पाकर्मे डालना चाहिए।
[८०७] कूष्माण्डखण्ड : ( ४ ) (भैर; र. रा. सुं; रसे. सा. सं; वै. र; | र. पि; वा. भ.चि. अ. र; भा. प्र र. र; धन्व; व. से;
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(२४६)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
घान्यकानि विडंगा ने नागरं मरिचानि च ॥ अथवा अग्नि बलानुसार न्यूनाधिक मात्रा में सेवन त्रिफला चाजमोदा च कलिंग जातिसैंधवे। करने से संग्रहणी, कुष्ठ, बवासीर, भगन्दर, ज्वर, एकैकस्य पलं चैक त्रिवृतोष्टौ पलानि च ॥ अफारा, हृद्रोग, गुल्म, उदर रोग, हैजा, कामला तैलस्य च पलान्यष्टौ गुडात्पंचदशैव तु। पांडु, २१ प्रकार के प्रमेह, वात रक्त, विसर्प, दाद, आमलक्या रसं चात्र प्रस्थत्रयमुदीरितम् ॥ यक्ष्मा, हलीमक, वात, पित्त, कफ और सब प्रकार तावत्पाकं प्रकुर्वीत मृदुना वह्निना भिषक् । के कुष्ठ नष्ट होते हैं। यावद्दप्रिलेपःस्सात्तदैनमवतारयेत् ॥ । यह अवलेह रोगों से अथवा स्त्रीप्रसंग आदि औदुंबरं चामलक बदरं वा यथाबलं । से उत्पन्न हुई क्षीणता को नष्ट करता एवं वंध्या तावन्मात्रमिदं खादेद्भक्षयेद्वा यथाबलम् ।। | (बांझ) स्त्री को पुत्रोत्पादन की शक्ति प्रदान करता अनेनैव विधानेन प्रत्युक्तस्य दिने दिने। | है। यह बलकारक, वृष्य, वृंहण और वयः संस्थानिहंति ग्रहणीरोगान् कुष्ठमझे भगंदरम् ॥ | पक ( आयु को स्थिर रखने वाला) है। ज्वरमानाहहद्रोगगुल्मोदरविचिकाः। [८०९] केशरलेहः (वृ. नि. र. । रक्तपि.) कामलापांडुरोगं च प्रमेहांश्चैकविंशतिम् ॥ अतिनिःसृतरक्तो वा क्षौद्रेण रुधिरं पिबेत् । वातशोणितवीसर्पदद्रुयक्ष्महलीमकान् । रक्तका अत्यधिक स्त्राव होने की दशा में शहद वातपित्तकफान्सन्कुिष्ठान्समाहरेत् ॥ में केसर मिलाकर पीना चाहिए। व्याधिक्षीणा वयःक्षीणाःस्त्रीषु क्षीणाश्च ये नराः। [८१०] कोलमज्जा योगः तेभ्यो हितो गुडोऽयं स्याद्वध्यानामपि पुत्रदः ॥ (वृ. नि. र; यो. चि. म. अ. र; । छर्दि,) वृष्यो बल्यो वृंहणश्च वयःसंस्थापनःपरः॥ कोलमजाकणावर्हिपक्षभस्मसशर्करम् । ___ पके हुवे पेठ के बीज और छिलकों आदि से मधुना लेहयेच्छर्दिहिक्काकोपस्य शांतये ॥ रहित उबाले हुवे ६। सेर टुकड़ों को तांबे के बर्तन बेर की गुठली की गिरी, पीपल, मोर के पंख में २ सेर घी में धीरे धीरे भूनें फिर उसमें पीपल, की भस्म और चीनी को शहद में मिलाकर चाटने पीपलामूल, चिता, गजपीपल, धनिया, बायबिडंग, से छर्दि (वमन) और हिक्का (हिचकी) का नाश सोंठ, काली मिर्च, त्रिफला, अजमोद, इन्दयव, | होता है। जावित्री और सेंधा नमक का चर्ण ५-५ तोला,
[८११] कोलमज्जावलेहः निसोत ०॥ सेर, तेल १ सेर, गुड़ १५ छटांक | और आमले का रस ६ सेर मिला कर मन्दाग्नि
_(च. द; बृ. यो. त. त. १९ । हि. श्वा.) पर इतना पकावें कि गाढ़ा होकर करछी से लगने |
कोलमज्जांजनं लाजास्तिक्ता कांचनगरिकम् । लगे।
कृष्णा धात्री सिता शुंठी कासीसं दधिनाम च इसे प्रतिदिन गूलर, आमले या बेरके बराबर पाटल्याः सफलं पुष्पं कृष्णाखर्जूरमुस्तकम् । १. भै. र. में सोंठ की जगह मजवायन षडेते पादिका लेहा हिकाना मधुसंयुताः ।। और गुड ३ सेर माधपाय है।
बेर की गुठली की गिरी, सुरमा और धान
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ककारादि-अवलेह
(२४७)
की खील (२) कुटकी, नागरमोथा और गेरु । फिर उसमें जायफल, त्रिकुटा, त्रिगन्ध (दाल(३) पीपल, आमला, मिश्री और सोंठ। (४) चीनी, तेजपात, इलायची), लौंग, अकरकरा, शुद्ध कसीस और कैथ । (५) पाढल के फूल | जावित्री, काकोली, नागकेसर और पुनर्नवा प्रत्येक और फल । (६) पीपल, खजूर और नागरमोथा। १०-१० तोला, मूसली, अफीम, पारद (रस
इन छः प्रयोगों को मधु के साथ सेवन करने | सिन्दूर) लोहभस्म और अभ्रक भस्म प्रत्येक २॥से हिचकी का नाश होता है।
२॥ तोला, चन्दन, अगर, कस्तूरी और कपूर [८१२] कोलायवलेहः
प्रत्येक ४-४ माशा लेकर सब चीजों का चूर्ण ___ (वृ. नि. र; वृ. मा; व. से; यो. चि. म. | करके मिलावें। अ. २। छर्दि.)
इस अवलेह को २ तोला की मात्रानुसार कोलामलकमज्जानौ मक्षिकाविद सिता मध। सेवन करने से उत्तरोत्तर बलवीर्य की वृद्धि होती है। सकृष्णातंदुलो लेहश्छदिमाशु व्यपोहति ॥ [८१४] कुबेरपाकः (वृ. नि. र. । वा. व्या.) ___ बेर और आमले की गुठली की गिरी; मक्खी कुबेरं प्रस्थनीरे च क्षिप्त्वा रात्रौ चतुर्गुणम् । की विष्टा, मिश्री, शहद और पीपल को पीस कर क्षीरे प्रातः पचेत्सम्यग्घृतेन मृदुवन्हिना । चावल के पानी के साथ लेह बनाकर चाटने से शीतं कृत्वा सुनिष्पन्न मध्ये मधूनि योजयेत् । छर्दि का नाश होता है।
चातुर्जातं त्रिकटुकं जातिपत्रफलं तथा । [८१३] कपिकच्छूपाका(यो. र. । उ. .) देवपुष्पं विडंगं च मिशी जीरं धनं बला। निस्तुषं वानरीबीजं कृत्वा विंशत्पानि च। निशाद्वयं तथा लोहं शुल्वं वंगं पलाधकम् । त्रिंशत्पलां सितां दत्त्वा घृतं दत्त्वा पलाष्टकम् ॥ प्रत्येकं चूर्णितं क्षिप्त्वा भक्षयेच्च पलं बुधः । दुग्धाढकसमायुक्तं मृदुना वन्हिना पचेत् ।। सर्वान्वातमयान्हति चाग्निमांद्य बलक्षयम् ॥ याव:प्रलेपः स्यात्तन्मध्ये चूतं क्षिपेत् ॥ | प्रमेहं मूत्रकृच्छ्रे च चाश्मरीगुल्मपांडुनुत् । जातीफलं त्रिकटुकं त्रिगन्धं देवपुष्पकम् । पीनसं ग्रहणीदोषमतीसारमरोचकम् ॥ अकल्करं जातिपत्री कोकिला बीजकेसरम् ।। । मधुपक्कः कुबेरोयं भक्षयनितरां बुधः । पुनर्नवापले द्वे च मुसली साहिफेनकम् । । कामवृद्धिकरस्तस्य धातुवृद्धिश्च जायते ॥ पारदं लोहचूर्ण च त्वभ्रकं च पलार्धकम् ।। कांतिपुष्टिकरी बल्यः कुबेराख्यो रसोत्तमः॥ चन्दनागरुकस्तूरीकपूरं शाणमात्रकम् ।
लता करजंवों को रात्रि के समय २ सेर पलार्ध भक्षयेत्तत्तु क्रमाद्वीयवलपदम् ॥ पानी में भिगोदें और प्रातः काल (उनकी गिरी
कौंचके छिले हुवे बीज १। सेर, खांड निकालकर उसे) ४ गुने दूध तथा घी के साथ १ सेर १४ छटांक, घी १ सेर और दूध ८ सेर । मंदाग्नि पर पकावें और पाक सिद्ध हो जाने पर लेकर सब को एकत्र करके मन्दाग्नि पर इतना ठंडा करके उसमें शहद तथा चातुर्जात (दालचीनी, पकावें कि गाढ़ा होकर करछी को लगने लगे। । तेजपात, नागकेसर, इलायची) त्रिकुटा, जायफल,
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त-भैषज्य-र
( २४८ )
जावित्री, लौंग, बा विडंग, सौंफ, जीरा, नागरमोथा, खरैटी, दारूहल्दी, लोह भस्म, ताम्र भस्म और बंग मस्म, प्रत्येक का २॥-२॥ तोला चूर्ण मिलावें ।
भारत
इसे ५ तोला की मात्रानुसार सेवन करने से सब प्रकार की वातव्याधियां, अग्निमांद्य, बलक्षय, प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र, पथरी, गुल्म, पाण्डु, पीनस, ग्रहणीविकार, अतिसार और अरुचिका नाश होता है
यह कामशक्ति और धातुवर्द्धक तथा कांति, पुष्टि और बलकारक है । [८१५] कुबेराक्षपाकः (वृ. नि. र. । शूले) धान्यम्ले त्रिदिनं विलाप्य
।
- रत्नाकर
।
गोक्षुरं कर्कटीबीजं प्रत्येकं च पलं पलम् । चातुर्जातपलञ्चैव चित्रकश्च पलं तथा ॥ सर्वेषां सूक्ष्म चूर्णश्च कारयेद्बुद्धिमान् भिषक् । सिता पलं च विंशत्या गोघृतं च पलं (१) दश ।। तत्समं महिषीदुग्धं तत्समं मधुमिश्रितम् ।
विपचत्यग्नौ कुबेराक्षकम् । पादांशं पडु संविधाय च पचेद्भित्वा च संपूरयेत् सिन्धूत्थं त्रिकटूद्भवेन रजसा संसिन्य निम्बुद्रवैः शुष्कास्ते रुचिरा भवन्ति च
लोहपात्रे विनिक्षिप्य पाचयेन्मृदुवन्हिना ॥ चूर्ण निक्षिप्य यत्नेन दर्ग्या सम्यक् विचालयेत् यावद्वृतं प्रदृश्येत तावत्पाचनकं कुरु || कर्षमेकं लोहभस्म सुवर्ण तत्समं ततः । सिंदूरं कर्षमेकं तु दापयेद्भिषगुत्तमः ॥ कोलप्रमाणवकान् भक्षयेद्बुद्धिमान्नरः । जीर्णज्वरं क्षयं कासं श्वाससंतापशूलनुद् || अजीर्णमामवातघ्नं प्रदरं पञ्चनाशनम् । स्त्रीणां वंध्यत्वहरणं पुत्रं चैव प्रसूयते ॥ अंडवृद्धिहरं चैव स्त्रीणां रमयते शतम् । इदं गोप्यमिदं गोप्यमश्विनिदेवनिर्मितम् ॥
तथा निम्नन्ति शूलान् बहुन् । करंजवों को ३ दिन तक कांजी में भिगोये रक्खें और फिर उनमें चौथाई भाग नमक मिलाकर पकावें इसके बाद अन्दर की गिरी निकालकर उसमें सेंधा नमक और त्रिकुटेका चूर्ण भरकर निम्बू के रसमें भिगोदें । जब रस सूख जाए तो काम में लावें ।
घी कुमार की १ | सेर जड़ को ४ गुने गाय दूध में मंदाग्नि पर पकायें । जब दूध खुश्क हो जाय तो उसे सुखाकर चूर्ण करें और इसके साथ पीपल, काली मिर्च और सोंठ का चूर्ण ३ - ३ छटांक, जायफल, जावित्री, लौंग, गोखरू, ककड़ी के बीज, चातुर्जात (दालचीनी, तेजपात, यह रुचिवर्द्धक और अनेक प्रकार के शूल नागकेसर, इलायची) और चित्ता प्रत्येकका चूर्ण
नाशक हैं। [८१६] कुमारीपाकः (वृ. नि. र. । क्षय.) कुमारीकंद मादाय पलं विंशतिसंख्यया ।
चतुर्गुणं च गोदुग्धं पाचयेन्मंद वह्निना ॥ यावच्च जीर्यते दुग्धं तावत्पाचनकं कुरु । छायाशुष्कं च कुर्वीत चूर्णयेद्बुद्धिमान् भिषक् पिप्पली मरिचं शुंठी प्रत्येकं च पलत्रयम् । जातीफलं जातिपत्री लवंग पलमेव च ॥
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५ - ५ तोला तथा मिश्री १ । सेर, गाय का घी १ । सेर, भैंस का दूध १ | सेर और शहद १ | मिलाकर लोहे के बरतन में मंदाग्नि पर पकायें और करछी से चलाते रहें जब वह घृत छोड़ दें (घी अवलेह से पृथक होने लगे) तो उसमें लोह भस्म सुवर्ण भस्म, और रस सिन्दूर १ - १ | तोला मिलावें ।
इसे ८ माशे की मात्रानुसार सेवन करने से जीर्णज्वर, क्षय, खांसी, श्वास, संताप, शूल, अजीर्ण,
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ककारादि-अवलेह
(२४९)
-
आमवात, प्रदर, बंध्यत्व (वांझपना) और अण्डवृद्धि । त्रिकुटा, चातुर्जात (दालचीनी, तेजपात, का नाश होता है। *
नागकेसर, इलायची) त्रिफला, लौंग, पीपल, अगर, [८१७] केशरपाकः (यो. र.। उ.खं.) चन्दन, तालमखाना, आकरकरा, जायफल, कौंचके व्योष चतुर्जातफलत्रिकं च
बीज, मोचरस, खरैटी, आसगंध, गोखरू, मूसली, लवङ्गकृष्णागुरु चन्दनं च। बायबिडंग, समन्दर सोख, विषपञ्जर, चमेलीके फूल इस्खाज करहाटकं च
और कंकु बीज प्रत्येक १ भाग, केसर २० भाग, __ जातीफलं मर्कटिकाफलं च ॥
कस्तूरी १६ वां भाग, खांड ४ भाग । यथा विधि शाल्मलिनिर्यासपलाश्वगन्धा
पाक बनाकर उसमें रांग भस्म, अम्रक भस्म, पारद गोक्षुरवीजं मुसली कृमिघ्नम् । | (रससिन्दूर) कान्त लोह भस्म और ताम्रभस्म १२समुद्रशोषं विषपञ्जरं च
१२ भाग तथा २०० नग सोनेके वर्क और २०० पुष्पं सुजात्युद्भवकङ्कचीजम् ॥ चांदीके वर्क तथा ८ भाग शुद्ध भांग मिलावें। सर्वैः समं योज्यं सुकुङ्कुम च
इसमें से प्रति दिन प्रातःकाल जायफल के मुचूर्णितं विंशति भागयुक्तम् । | बराबर सेवन करनेसे वीर्य वृद्धि और समस्त व्याकस्तूरिका पोडशभागचूर्णम् धियों का नाश होता है। एवं अत्यन्त कामशक्ति
खण्डं चतुर्भागयुतं विपकम् ॥ बढ़ती है। यह समस्त वातव्याधि, प्रबल वातरक्त, वङ्ग रसेन्द्रं गगनं सुलोहं
अस्थिरोग, शिरोगेग और संधिरोग नाशक है। कान्तं हि तानं रविभागयुक्तम् । इसके सेवन से वृद्ध भी तरुण के समान हो जाता दलानि हेम्नो द्विशतानि दत्वा । है। एवं आयु, आरोग्य, बल और कान्तिकी वृद्धि
तथैव देयानि च राजतानि ॥ होती है। एकत्र सर्व विनिधाय वैद्यो
[८१०] कौंचपाकः (यो. चि. म. अ. १) जयाष्टभाग विदधीत लेहम् । पचेद्विप्रस्थं कपिकच्छुबीजं जातिफलप्रमाणेन भक्षयेत्प्रातरुत्थितः॥ उष्णोदके(१)यामचतुष्टयञ्च ।
वीर्यवृद्धिं करोत्येष सर्वव्याधिविनाशनः। तान्धर्षयेद्वस्त्रदृढ़े सुगाढ़ शतश्च रमते स्त्रीणां कामतुल्यो भवेन्नरः॥ यावद्भवेनिर्मलनिस्तुषं च ॥ सर्वान्वातामयान्हन्ति प्रवृद्धं वातशोणितम्। छायाविशुष्कं च तदेव चूर्ण अस्थिरोगं शिरोरोगं सन्धिरोगं च नाशयेत् ॥ क्षीरं क्षिप द्रोणसपादशेषम् । अस्य सेवनमात्रेण वृद्धोऽपि तरुणायते। दद्यात् घृतपस्थयुगश्च तस्मिन् धन्यं यशस्करं सम्यगायुरारोग्यवर्द्धनम् ॥ । विपाचयेन्मन्दहुताशने च ॥
काश्मीरकावलेहोऽयं बलकान्ति विवर्द्धनः ॥ आकलकं नागरदेवपुष्पं __ * इसकी पाक विधि शास्त्रोक्त पाक विधि |
___ गोक्षीरकं कुंकुमहंसपाकम् । विरुद्ध है । (अनु०)
सारं कुबेरं धन तुर्यजातं
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(२५०
भारत-भैषज्य-स्नाकर
चीणीकबाबाबलबीजयुक्तम् ॥ हो जाय । अब इन्हें सुखाकर चूर्ण करके ३२ सेर वंशोद्भवं वंगमृताभ्रकञ्च
| दूधमें पकावें और चौथा भाग शेष रहने पर उसमें द्राक्षासिता सर्वसमा प्रदेया। | ४ सेर घी डालकर पुनः मन्दाग्नि पर पकावें और पलार्द्धमानं तु सदैव भक्ष्य
पाकके अन्तमें अकरकरा, सोंठ, लौंग, गोखरू, मम्लं तदन्तः परिवर्जनीयम् ॥ केसर, शुद्ध शंगरफ, तुनका सार, धनया, कबाबये क्षीणशुक्राः प्रबलप्रमेहा
चीनी, बला-बीज, बंसलोचन, बंगभस्म, अभ्रक स्तेषामिदं वीर्यविवर्द्धनञ्च । भस्म, दाख और मिश्री मिलावें। पुष्टिं बलं बुद्धिबलश्च वृष्यं
इसे २॥ तोलेकी मात्रानुसार सेवन करने और निहंति सर्वानपि वातरोगान् ॥ खट्टी चीज़ोंसे परहेज़ रखनेसे वीर्यकी कमी और
२ सेर कौंचके बीजोंको चार पहर तक गरम प्रबल-प्रमेह दूर होकर वीर्य वृद्धि होती है। यह पानीमें पकावें फिर उन्हें किसी मजबूत कपड़े में । योटिक, बलकारक, बुद्धिवर्द्धक, वृष्य और वातरोग बांधकर खूब मसलें जिससे उनके छिलके अलग नाशक है।
अथ ककारादि घृतप्रकरणम्। [८१९] कटुकाध घृतम् (च.सं.चि. अ.२०)। [८२०] कणाद्यं घृतम् (वृ. नि. र. क्षय.) कटुकारोहिणीमुस्तं हरिद्रे वत्सकात् फलम् ।। कणापलं पञ्च गुडभिसश्च पटोले चन्दनं दूर्वा त्रायमाणा दुरालभा॥ सज्यं (१)घृतं वै विपचेत्समांशम (?)। कृष्णा पर्पटको निम्बो भूनिम्बो देवदारु च। पानेथवा भोजनके प्रशस्तं तैः कार्षिकैघृतप्रस्थः सिद्धःशीरचतुर्गणः॥ क्षये च राजक्षयनाशहेतु ॥ रक्तपितं ज्वरं दाहं श्वयधुं सभगन्दरम् ।।
पीपल २५ तोला, गुड़का पानी २५ तोला अास्यसृक्दरश्चैव हन्ति विस्फोटकांस्तथा ।।
| और घी २५ तोला लेकर घृत पाक सिद्ध करें ।
इसे पीने अथवा भोजनके साथ सेवन करनेसे क्षय कुटकी, नागरमोथा, हल्दी, दारुहल्दी,इन्द्रजौ, ! और राजयक्ष्माका नाश होता है । पटोलपत्र, चन्दन, दूर्वा (दूबड़ा), घास, त्रायमाणा
[८२१] कण्टकारी घृतम् (१) (बनफ़शा) धमासा, पीपल, पित्तपापड़ा, नीम,चिरा
(च. सं. चि. अ. २२; यो. र. कासे.) यता और देवदारु प्रत्येक ११-१। तोला लेकर
समूलफलपत्रायाः कण्टकार्या रसाढके ॥ इनके कल्क और २ सेर दूधके साथ २ सेर घीका घतप्रस्थं चला व्योपविडंगशटीचित्रकैः ।। पाक सिद्ध करें।
सौवर्चलयवक्षारपिप्पलीमूलपौकरैः । यह घृत रक्तपित्त, ज्वर, दाह, सूजन, भग- १ पिप्पलीमूलकी जगह विश्वामलक पाठ दर, बवासीर, प्रदर और विस्फोटक नाशक है। है-या. र. ।
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ककारादि-घृत
श्रीकहतीपथ्यायवानीदाडिमद्धिभिः॥ वरारोचकशूलनं कफनुद्वलवाहिकद ॥ द्राक्षापुनर्नवाचल्यदुरालभाम्लवेतसैः। कटेली, बडी कटेली, भारङ्गी और बांसेके शृङ्गीतामलकीभार्गीरास्त्रागोक्षुरकैः पचेत् ॥ स्वरस, बकरीके दूध और गजपीपल, पीपल, काली कल्कैःतत्पूर्वकासेषु हिक्कावासेपु शस्यते। | मिर्च, मुल्हैठी, बच, पीपलामूल, जटा मांसी, चव्य, कण्टकारीघ्रतं घेतकफव्याधिनिसदनम ॥ चीता, लाल चन्दन, नागरमोथा, गिलोय, मलिया___ मूल, फल और पत्र युक्त कटेलीके ४ सेर गिरी चन्दन, अजवायन, जीरा, बला, सोंठ, रस और बला. त्रिकुटा, बार विडंग, कपूरकचरी, | मुनक्का, दाडिम और देवदारुके कल्कसे यथाविधि चीता, सौंचल नमक, जवाखार, पीपलामूल, पोखर- ! घृतपाक सिद्ध करें। मूल सफेद पुनर्नवा, बड़ी कटेली, हैड़, अजवायन, ___यह घृत बालकोंके श्वास, खांसी, ज्वर, दाडिम, ऋद्धि, दारव, पुनर्नवा (विसखपरा), चय,
अरुचि, शूल और कफका नाश तथा बल और जवासा, अमलबेत, काकड़ासिंगी, भुई आमला,
अग्निकी वृद्धि करता है। भारंगी, रास्ना और गोखरूके कल्क से २ सेर
[८२४] कदल्याचं घृतम् । घी पकावें।
(भै. र. यो. रे. सोम. रो.) ___ इसके सेवनसे ग्वांसी, हिचकी, श्वास और कदलीकन्दनिया॑से तत्प्रसनतुला पवेत् । कफजरोगोंका नाश होता है।
चतुर्भागावशेषेऽस्मिन् धृतप्रस्थं विपापयेत् ॥ [८२२] कण्टकारीघृतम् (२) चन्दनं सरलं मांसी कदलीमूलकं तथा।
(च. सं. चि. अ. २२; वृ. मा; कासा.) एलालवङ्गत्रिफला कपिस्थफलमेष च ॥ कण्टकारीगुडूचीभ्यां पृथत्रिंशत्पलाद्रसे।। औदकानि च कन्दानि न्यग्रोधादियणस्तथा । प्रस्था सिद्धोघृताद्वातकासनुदह्निदीपनः॥ कल्केनानेन संसिद्ध सोमरोगनिवारणम् ।। ___ कटेली और गिलोय प्रत्येकके १ सेर १४ मूत्ररोगानशेषांश्च प्रभताञ्छुकपिच्छिलान् । छटांक क्वाथमें २ सेर धी पकावें।
प्रमेहान् विंशतिश्चव मूत्राघातांस्त्रयोदश ।। ___ यह वृत वातज खांसी नाशक और जठराग्नि
बहुमूत्र विशेषण मूत्रकृच्छ्रे तथाश्मरीम् ।
पीतं घृतं निहन्त्याशु विष्णुचक्रमिवासुरान् ॥ [८२३] कण्टकारीघृतम् (३)(भै. र. वा. रो.)
| कदल्यादिधृतं नाम विष्णुना परिकीर्तितम् ॥ कण्टकार्या बृहत्या भार्गीवासकयोरपि ।
___ केलेकी जडके ३२ सेर रसमें केलेके ६। सेर खरसेन तथा छागक्षीरेण विपचेद् घृतम् ॥
फूल पकावें । जब चौथा भाग शेष रह जाय तो करकाकरिकणाकृष्णा मरिचमधुकेन च।।
उतार कर छान लें। इस क्वाथ और मिनलिखित पचाग्रन्थिकमांसीभिश्चव्य चित्रकचन्दनैः॥ । कल्कके साथ २ सेर धी पकावें । मुस्तामृतामलयजैर्यमान्या जीरकेण च।।
__कल्क द्रव्य-चन्दन, सरल काष्ठ (चीड), बलाविश्वौषधाभ्याश्च द्राक्षादाडिमदारुभिः॥
। १ यो. र. में सरल त्रिफला और पीपल सिद्धमेतद् घृतं सघः शिशूनां वासकासहृत् । का अभाव है।
वर्द्धक है।
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(२५२)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर।
जटामांसी, केलेकी जड, इलायची, लौंग, त्रिफला, दाह, पाक और स्त्रावयुक्त उपदंशका नाश कैथका फल, जलमें उत्पन्न होनेवाले कन्द (यथा- करता है। सिंघाडा, कमलकन्द, कसेरू आदि) और न्यग्रोधादि [८२६] कल्याणक घृतम् (च.चि. अ.१४) गण । *
विशालात्रिफलाकौन्तीदेवदार्वेलवालुकम् । ___ यह घृत सोमरोग, सब प्रकारके मूत्ररोग, | स्थिरानन्तारजन्यौ द्वे शारिवे द्वे प्रियंगुकम् ।। शुक्रविकार, २० प्रकारके प्रभेह, १३ प्रकारके नीलोत्पलैलामञ्जिष्ठादन्तिदाडिमकेसरम् । मूत्राघात और विशेष कर बहुमूत्र, मूत्रकृच्छू और | तालीसपत्रं वृहतीमालत्याःकुसुमं नवम् ॥ पथरीको नष्ट करता है।
विडंगं पृश्निपर्णी च कुष्ठं चन्दनपत्रकम् । . इस कदल्यादि घृतका निर्माण विष्णुजीने कहा | कल्कैःकर्षसमैरेतैविंशत्याष्टाभिरेव च ॥ है यह टक्त रोगोंको, जैसे विष्णुका चक्र असुरोंको
चतुर्गुणे जले पक्त्वा घृतप्रस्थं प्रयोजयेत् । नष्ट करता है वैसे ही नाशकारक है।
अपस्मारे ज्वरे कासे श्वासे मन्देऽनलक्षये ॥ [८२५] करंजाच घृतम्
वातरोगे प्रतिश्याये तृतीयकचतुर्थके। ___(व.नि. रभा. प्र. म. खं. । उपदं.) छद्य र्शोमूत्रकृच्छ्रे च विसर्पोपहतेषु च ॥ फरञ्जबीमार्जुनशालजंबूवटा
कण्डूपाण्ड्वामयोन्मादविषमेहगरेषु च । दिभिःकल्ककषायसिद्धम् ।
भृतोपहतचित्तानां गद्गदानामरेतसाम् ।। सपिनिहन्यादुपदंशदोषं
शस्तं स्त्रीणाश्च वंध्यानां धन्यमायुबलप्रदम् । . सदाहपाकं श्रुतिरागयुक्तम् ।। अलक्ष्मींपापरक्षोप्नं सर्वग्रहविनाशनम् ।। करंजवेकी गिरी, अर्जुनकीछाल, साल, जामन
कल्याणकमिदं सर्पिः श्रेष्ठं पुंसवनेषु च ।। और पंचक्षीरी वृक्षों (बड, पीपल, पिलखन, गूलर इन्द्रायन, त्रिफला, रणुका, देवदारु, एलवा, और महुआ) के कषाय तथा कल्कसे सिद्ध घृत, शालपर्णी, अनन्तमूल, हल्दी, दारुहल्दी, दोप्रकार * न्यग्रोधादि गणः ( सु० सं० सू० अ० ३८)
की शारिवा, फूलप्रियंगु, नीलोफर, इलायची,मजीठ, न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थप्लक्षमधुककपीतन ।
दन्ती, अनार, नागकेसर, तालीसपत्र, बड़ी कटेली, ककुभाम्रकोशानचोरकपत्रजम्बुद्वयपियाल चमेलीके ताजे फूल, बायबिडंग, पृश्नपी(पिठवन) मधुकरोहिणीवजुलकदम्बबदरीतिन्दुको- कूठ, चन्दन, कमल । प्रत्येकका कल्क ११-१॥ सल्लकोरोध्रसावररोधभल्लासकपलाशानन्दीवृक्षश्चेति ।
| तोला और चार गुने पानीके साथ २ सेर धीका वड़, गूलर, पीपल, पिलखन, महुआ, पाक सिद्ध करें। अम्बाडा, आम, अर्जुन, कोशाम्र, चोरकपत्र | यह घी अपस्मार, ज्वर, खांसी, श्वास,मंदाग्नि, (लाक्षावृक्ष) बडीजामन, छोटीजामन (जमौवा)
| क्षय, वातव्याधि, जुकाम, तिजारी बुखार, चौथिया, पियाल (चिरोजी वृक्ष) कटुकी, बेत, कदम्ब, बेरी, तेंदु, सलकी, लोध, पठानीलोध,भिलावा,
वमन, बवासीर, मूत्रकृच्छ्र, विसर्प, खुजली, पाण्डु, डाक और नन्दोवृक्ष।
उन्माद, विष, प्रमेह, भूतबाधा, गद्गद् स्वर
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ककारादि-धृत
(२५३)
(हकलाना), वीर्य की कमी और बंध्यत्व (बांझपने) स्त्रीणाञ्चैवाप्रजातानां दुर्बलानाशदेहिनाम् । का नाश करता है एवं आयु बल वर्द्रक, अलक्ष्मी, क्लीवानामल्पशुक्राणां जीर्णानामल्परेतसाम् ॥ पाप, राक्षस और ग्रह नाशक है। यह कल्याणक श्रेष्ठं बलकरं धन्य हृद्यं वृष्यं रसायनम् । धृत श्रेष्ट वीर्य उत्पादक है।
ओजस्तेजस्करं खर्यमायुष्यं प्राणवर्द्धनम् ॥ [८२७] कसेरुकादि सर्पिः (यो.र;व.से; हृ.रो.) | संघृहयति शुष्काश्च पुरुषान्दुर्बलेन्द्रियान् ! कसेरुकाशैवलशृङ्गाबेरप्रपौण्डरीकं मधुकं बिसं च। सर्वरोगविनिर्मुक्तस्तोयसिक्तो यथा द्रुमः !! ग्रन्थिश्च सर्पिःपयसा पचेत्तैः
कामदेव इति ख्यातं सर्पिरुक्तं महा गुणम् ॥ क्षौद्रान्वितं पित्तहृदामयनम् ॥ ___क्वाथ्यद्रव्य--आरागंध ६। र, गोखरु ३
कशेरु, शैवाल (सिरवाल), अदरक, प्रपौण्ड- | सेर आधपाव, शतावर, विदारीकंद, शालपर्णी, बला, रीक (पुंडरिया कमल) मुल्हैठी, कमलनाल और
गिलोय, पीपल की कॉपल, कमलगट्टा, पुनर्नवा पीपलामूल के कल्क से दूध के साथ घृतपाक
(विसखपरा) खम्भारी के फल और उड़द । प्रत्येक सिद्ध करें।
चीज़ ४०-४० तोला । इसमें शहद मिलाकर सेवन करने से पित्तज हृद्रोग नष्ट होता है।
सबको १२८ सेर पानी में पकाकर चौथा [८२८] कामदेव घृतम् (बं. से; र. पि.)
भाग शेष रहने पर छान लें। अश्वगन्धा पलशतं तद गोक्षुरस्य च ।
कल्क द्रव्य -मुनक्का, पनाक, कूठ, पीपल, शतावरी विदारी च शालपर्णी बलामृता ।।
लाल चन्दन, तेजपात, नागकेसर, कौंच के बीज, अश्वत्थस्य च शुङ्गानि पद्मबीजं पुननेवा ।
नीलोफर, दो प्रकारकी शारिवा, जीवनीय * गण
प्रत्येक १२-१। तोला। काश्मर्याश्च फलश्चव माषबीजं तथैव च ॥
__ खांड १० तोला, पौण्डे का रस ८ सेर, पृथग्दशपलान्भागांश्चतुद्रोणेऽम्भसः पचेत् । द्रोणशेषे रसे तस्मिन् पूते शीते प्रदापयेत् ॥
ईखका रस ८ सेर, दूध ८ सेर । उपरोक्त सब
चीज़ोंसे यथाविधि २ सेर घृत सिद्ध करें। मृद्वीका पद्मकं कुष्ठं पिप्पली रक्तचन्दनम् ।
____ यह घृत रक्तपित्त, क्षत, क्षीणता, कामला, पत्रकं नागपुष्पश्च आत्मगुप्ताफलं तथा ॥ नीलोत्पलं शारिवे द्वे जीवनीयानशेषतः।
वातरक्त, हलीमक, पाण्डु, विवर्णता, स्वर क्षय पृथकर्षसमा भागाः शर्करायाः पलद्वयम् ॥
(गला बैठ जाना), मूत्रकृच्छ, हृदयकी दाह और रसः स्यात्पौण्ड्रकेक्षणामाढकाढकमाहरेत् ।
पसली शूलको नष्ट करता है। चतुर्गुणेन पयसा घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥
यह बहु स्त्रीगामी राजाओं को सेवन करना
चाहिये । रक्तपितं क्षतक्षीणं कामलां वातशोणितम् । हलीमकं पाण्डुरोगं वर्णभंगं स्वरक्षयम् ॥
__* जीवनीयगणः--मेदा, महामेदा, जोधक,
| ऋषभक, काकोली, क्षीरकाकोली, ऋद्धि,वृद्धि, मूत्रकृच्छ्रमुरोदाहं पार्श्वशूलश्च नाशयेत् ।
मुल्हैठी, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, जीवन्ती। च. एतद्राज्ञां प्रदातव्यं वहन्तापुरचारिणाम् ॥ । स.अ. ४।
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भारत-भैषज्य रत्नाकर
(२५४)
यह बंध्या (बांझ) स्त्रियों और दुर्बल, नपुंसक, अल्पवीर्य और वृद्ध पुरुषोंके लिये हितकारी, बलकारक, हृद्य, वृष्य, रसायन, ओज और तेजकारक, स्वर, आयु और प्राणवर्द्धक है। इसके सेवन से समस्त रोग नष्ट होकर सूखे हुए दुर्बलेन्द्रिय पुरुष भी मोटे ताज़े हो जाते हैं । [८२९] काशाद्यंधृतम् (च.सं. चि. अ. १५) तद्वत्काश विदारीक्षुकुशक्वाथ घृतं घृतम् ॥
कास, विदारीकन्द, ईख और कुश के काथ से सिद्ध घृत (अपस्मारका नाश करता है ।) [८३०] काश्मर्थ्यादि घृतम्
(च. सं. चि. अ. ३०) काश्मत्रिफला द्राक्षा कासमर्द परूपकैः । पुनर्नवाहरिद्राभ्यां काकनासासहाचरेः ॥ शतावर्यागुडूच्याच प्रस्थमक्षसमैर्धृतात् । साधितं योनिवातनं गर्भदं परमं पिबेत् ॥
खम्भारी, त्रिफला, मुनक्का, कसौंदी, फालसा, पुनर्नवा (बिसखपरा), हल्दी, दारुहल्दी, कव्वाडोढ़ी (काकनासा), पिया बांसा, शतावर और गिलोयके ११-१1 तोला कल्क के साथ २ सेर घृतका पाक सिद्ध करें।
इस घृत सेवनसे योनीगत वात नष्ट होती है और गर्भ धारण करने की शक्ति प्राप्त होती है। [८३१] कासमर्दादि घृतम्
(च. सं. चि. अ. २२; वा. भ. चि. अ. १३) कासमर्दाभयामुस्तपाठाकट्फलनागरैः । पिप्पल्याकटुरोहिण्याकाश्मयैः सुरसेन च ॥ अक्षमात्रै तपस्थं क्षीरद्राक्षारसाढके । पचेत् शोषज्वरप्लीहसर्वकासहरं शिवम् ।। कसौंदी, हैड़, नागरमोथा, कायफल, सोंठ, पीपल, कुटकी, खम्भारी और तुलसी प्रत्येक १/
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१ । तोला । इनके कल्क और ४ सेर दूध तथा ४ सेर दाखके रसके साथ २ सेर धी पकावें ।
यह घृत शोष, ज्वर, तिल्ली और सब प्रकार के कासरोग ( खांसी) का नाश करता है । [ ८३२] कासीसाद्यं घृतम्
(शा. ध. म. खं. अ. ९) काशीसं द्वे निशे मुस्तं हरितालं मनःशिलाम् । कपिलकं गंधकं च विडंगं गुग्गुलं तथा ॥ | सिक्थकं मरिचं कुष्ठं तुत्थकं गौरसर्षपान् ।
रसांजनं च सिंदूरं श्रीवासं रक्तचन्दनम् ॥ अरिमेदं निंबपत्रं करंजं सारिवां वचाम् । मंजिष्ठां मधुकं मांसीं शिरीषं लोधपद्मकम् ॥ हरीतकीं प्रपुनाटं चूर्णयेत्कार्षिकान् पृथक् । ततश्च चूर्णमालोड्य त्रिंशत्पलमिते घृते । स्थापयेत्ताम्रपात्रे च धर्मे सप्त दिनानि च । अस्याभ्यंगेन कुष्टानि दद्दूपामाविचर्चिकाः ॥ शूकदोषा विसर्पाश्चि विस्फोटा वातरक्तजाः । शिरःस्फोटोपदेशाच नाडीदुष्टत्रणानि च ॥ शोथो भगंदरश्चैव लूताः शाभ्यंति देहिनाम् । शोधनं रोपणं चैव सवर्णकरणं घृतम् ||
कसीस, हल्दी, दारूहल्दी, नागरमोथा, हरताल, मनसिल, कमीला, गन्धक, बायबिडंग, गूगल, मोम, काली मिर्च, कूठ, तूतिया, सफेद सरसों, रसौत (अथवा सुरमा), सिन्दूर, श्रीवास ( राल या तारपीन), लाल चन्दन, गन्ध खदिर (खैर), नीम के पत्ते, करंजवा, सारिवा, बच, मजीठ,, मुल्हैठी, जटामांसी, सिरस, लोध, पद्माक, हैड़ और पंवाड । प्रत्येकका ११ - ११ तोला चूर्ण लेकर उसे १ ||| सेर धीमें मिलाकर तांबे के बर्तन में भरकर ७ दिन तक धूपमें रक्खा रहने दें।
इसकी मालिशसे को, दाद, खुजली, विच
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ककारादि-घृत
(२५५)
र्चिका, शूकदोष, विसर्प, वातरक्त के विस्फोटक, । यह घृत सुखदायक, बल, वर्ण, पुष्टि और शिरके फोड़े, उपदंश, दुष्टघाव, नाडीव्रण (नासूर), | अग्निकारक है तथा ग्रहदोष, अलक्ष्मी (शोभा हीनता) सूजन, भगन्दर और मकड़ी के ज़हर का नाश कृमि, दन्तरोग और बालकोंके समस्त रोग विशेहोता है।
पतः दांत निकलने के समय की पीड़ा को नष्ट ___ यह धी शोधक, रोपण (धावको भरने वाला) करता है। और त्वचाके रंगको ठीक करनेवाला है। [८३५] कुमुदाद्यं धृता (वृ. नि. र.स्त्रिी.रो.) [८३३] कुटजाद्यं घृतम् (च.सं.चि. अ.१४) कुमुदं पनकोशीरं गोधूमा रक्तशालयः। कुटजफलवल्ककेशरनीलो
माषपर्णी यशस्था च शालिपर्णी सजीरकैः॥ त्पललोध्रधातकीकल्कैः। पलं पुषबीजानि प्रत्येकं कदलीफलम् । सिद्धं घृतं विधेयं शूले,
एकं तद्धीनभागो हि गव्यं क्षीरं चतुर्गुणम् ॥ रक्तार्शसां भिषजा॥ पानीयं द्विगुणं दत्वा घृतप्रस्थं विपाचयेत् । बुडेकी छाल, इन्द्रजौ, नागकेसर, नीलोफर, प्रदरं रक्तदोषं च पाण्डुरोगं हलीमकम्॥ लोध और धायके क-कसे यथा विधि घृत बनाकर बहरूपं च यत्पित्तं कामलां वातशोणितम् । सेवन करानेसे खूनी बवासीरकी पीडा नष्ट होती है। | अरोचकं ज्वरं जीप स्त्रीणां रोगं मदं भ्रमम् ।। [८३४] कुमारकल्याण घृतम् तरुणी चाल्पपुष्पा च या च गर्भ न विंदति। (भै. र; व. से; च. द.)
सा चाणि विंदते शेमं विंदते नात्रसंशयः॥ द्राक्षा सशकेरा शुण्ठी जीवन्ती जीरकं चला। कमल, पद्माक, खस, गेहूं, चावल, माषपर्णी, शठी दुरालभा बिल्वं दाडिमं सुरसास्थिरा। ऋद्धि (अथवा जीवन्ती), शालपर्णी, जीरा, खीरेके मुस्तं पुष्करमलश्च सूक्ष्मैला गजपिप्पली। बीज और केलेकी फली प्रत्येक ५-५ तोला, एषां कर्ष समै गेघृतप्रस्थं विपाचयेत् ।। गायका दूध ८ सेर, पानी ४ सेर, घृत २ सेर । कषाये कण्टकार्याश्च क्षीरे तस्मिश्चतुर्गुणे। ____ यथाविधि घृतपाक सिद्ध करें। इसके सेवनसे एतत् कुमारकल्याणं घृतरत्नं सुखप्रदम् ।। प्रदर, रक्तविकार, पाण्डु, हलीमक, अनेक प्रकारके बलवर्णकरं धन्यं पुष्ठयग्नेरतिवर्द्धनम् ।। पित्तविकार, काभला, वातरक्त, अरुचि, जीर्णज्वर, छायासर्वग्रहालक्ष्मीकृमिदन्तगदापहम् ॥
स्त्रीरोग (प्रदरादि), मद, भ्रम, मासिकका न आना सर्वबालामयं हन्ति दन्तोद्भेदं विशेषतः ॥
| और बन्ध्यत्व (बांझपने)का नाश होता है। ___दाख, खांड, सोंठ, जीवन्ती, जीरा, खरैटी, | [८३६] कुशायं घृतम् कपूरकचरी, धमासा, बेल, अनार, तुलसी, शाल- (भा. प्र.। अश्म. चि; सु. चि. अ. ६. अशों.) पर्णी, नागरमोथा, पोखरमूल, छोटी इलायची और कुशः काशः शरो गुन्द्र उत्कटो मोरटाश्मभित् गजपीपलके ११-१। तोला कल्क तथा कटेली के दर्भो विदारी वाराही शालिमूलं त्रिकण्टकः॥ क्वाथ और चार गुने दूधके साथ यथाविधि २ सेर । भलूकः पाटला पाठा पत्तूरोऽथ कुरुण्टकः । घृतका पाक सिद्ध करें।
१ बरी-सुक्षु.
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भारत-भैषज्य-रलाकर
पुनर्नवा शिरीषश्च कथितास्तेषु साधितम् ।। सशर्करं कुंकुममाज्यभृष्टं घृतं शिलाहमधुकै/जैरिन्दीवरस्य च ।
नस्यं विधेयं पवनासृगुत्थे। अपुर्वर्वारुकादीनां बीजैश्चावापितं शुभम् ।। भ्रूशङ्खकर्णाक्षिरोऽर्द्धशूले मिनत्ति पित्तसम्भूतामश्मरी क्षिप्रमेव च ॥ दिनाभिवृद्धिप्रभवे चरोगे। (बीजं बीजसारः सरोजबीजं वा ।।)
केशर और शर्करा (खांड)को धीमें मिलाकर ___ कुश, कांस, सरकंडा (शर), सरपता, उत्कट | गरम करके नस्य लेनेसे वातज और रक्तज भू, (सफेद चौंटली), ईखकी जड़, पत्थर चटा, दाब, शंख, कान, आंख और आधे शिरका दर्द तथा विदारीकन्द, बाराहीकन्द, धानकी जड़, गोखरू, । सूर्यावर्त (सूर्यके बढ़नेके साथ बढ़ने वाला शिरशूट) भिलावे, पाढल, पाठा, पतङ्ग, कटसरैया, पुनर्नवा | नष्ट होता है। (यहां केसर और खांड ४-४ माषा और सिरस।
तथा घी ४ तोला लेना चाहिये।) इनके क्वाथ के साथ घृत पकाकर उसमें [८४०] कुलत्थाधं घृतम् (१) (भै. र. अश्म.) शिलाजीत, मुल्हैठी, कमलगट्टे और खीरे ककड़ी
कुलत्थसिन्धूत्थविडंगसारं आदिके बीजोंका चूर्ण प्रक्षेप रूपसे मिलाकर सेवन सशर्करं शीतलियावशूकम्। करनेसे पित्तज अश्मरीका शीघ्र नाश होता है। बीजानि कूष्माण्डगोक्षुराभ्यां [८३७] कुशादिघृततैले
घृतं पचेत्तद्वरुणस्य तोये ॥ (वृ. यो. त. ८० त. धन्वं; वृ. मा;ग.गिःदाह)
दुःसाध्यसर्वाश्मरिमूत्रकृच्छ् कुशादिशालिपर्णीभिर्जीवकर्षभकाधितम् ।
मूत्राभिघातं च समूत्रबद्धम् । तैलं घृतं वा दाहघ्नं वातपित्तविनाशनम् ॥
एतानि सर्वाणि निहन्ति शीघ्रं
. प्ररूढवृक्षानिव वज्रपातः॥ तृणपञ्चमूल (कुश, कांस सरकंडा, दाभ,
शीतलियावशूकमिति यवक्षारः ईख) शालपर्णी, जीवक और ऋषभक से सिद्ध
___ स च स्फटिकसैन्धवसङ्काशः । किया हुआ तैल या घृत दाह और वातपित्तका
अन्ये तुशीतली खनानाश करता है।
माख्या च इति भानुः ।। [८३८] कुंकुमधृतम् (वृ. नि. र. । शि. रो.)
कुलथी, सेंधानमक, बायबिडंग, शर्करा(खांड) कुंकुमं घृतसंयुक्तं नस्यं चा शिरोव्यथाम् ।। यवक्षार, शीतल चीनी, पेठेके बीज और गोखरू । नाशयेत्तत्क्षणादेव हितमेतच्छिरोरुजि॥ इनके कल्क और बरनेके क्वाथके साथ घृत पकावें।
केसरको धीमें मिलाकर नस्य लेनेसे आधा- | इसके सेवनसे सब प्रकारकी दुस्साध्य पथरी, शीशी और अन्य प्रकारकी शिर पीड़ाएं तत्काल | मूत्रकृच्छ्र और मूत्राघातका नाश होता है। नष्ट होती हैं।
[८४१] कुलत्थाचं घृतम् (२) [८३९] कुंकुमाद्यं घृतम् (च. द.। शि. रो.) (बं. से. । ज्व. चि.) १ जीवकाचैश्च-(ग. नि.)
कुलत्यकोलत्रिफलादशमूलयवान् पवेद ।
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ककारादि-धृत
(२५७)
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द्विपलान् सलिलद्रोणे घृते पिष्ट्वाऽक्षकाक्षिपेत्।। कुलत्थरसयुक्तं वा पञ्चकोलशृतं घृतम् । पञ्चकोलसप्ताह्वा च वयस्थाहिंगुतुम्बुरु। पाययेत्कफजे कासे हिक्काश्वासे शस्यते ॥ शटी पुष्करमूलार्कमूलं प्रतिविषा वचा॥ ___ कुलथीके क्याथ और पंचकोल (पीपल, पीपकिराततिक्तं मुस्तं च कर्कटाख्यां दुरालभाम् । लामूल, चव, चीता, सोंठ) के कल्कसे सिद्ध घृत नक्तमालमुमे पाटे कटुका शिग्रु तेजनी॥ कफज खांसी और स्वासका नाश करता है। सामवल्क द्विरजनी कटुकी कण्टकारिका। [८४३] कूष्माण्डादि घृतम् (यो. र: अप.) पटोलनिम्बगोजिह्वा कम्बुका मदनो जटा॥
कूष्माण्डकरसे सपिरष्टादशगुणे पचेत् । लवणानि पलांशानि क्षारानचपलोन्मितान् ।
यष्टयाह्रकल्के तत्सिद्धमपस्मारहरं परम् ॥ प्रस्थं चाज्यस्य तत्सिद्धं दीपनं कफवातजित् ॥ हृतप्लीहग्रहणीगुल्मश्वासकासार्शसां हितम्।
मुल्हैठीके कल्क और कुम्हेडे (पेठे) के दस दीर्घज्वराभिभूतानां वरिणाममृतोपमम् ॥
| गुने रससे पका हुवा घृत सेवन करनेसे अपस्मार
का नाश होता है। __ कुलथी, बेर, त्रिफला, दशमूल और जौ १० -१० तोला लेकर ३२ सेर पानीमें पकावें। [८४४] कोलायं घृतम् (१) (यो. र.) . __इस क्वाथ और नीचे लिखे कल्कके साथ | कोललाक्षारसे तद्वत्क्षीराष्टगुणसाधितम् । २ सेर घी पकावें।
कल्कैः षडङ्गदात्विग्द्राक्षाक्षोटफलान्वितम् ॥ कल्क द्रव्य- पंचकोल (पीपल, पीपलामूल, घृतं खजूरमृद्वीकामधुकैः सपरूपकैः । चव, चीता, सोंठ) सतौना, ऋद्धि, हींग, तुंबुरू, | सपिप्पलीकं वैस्वर्यकासश्वासज्वरापहम् ॥ कपूरकचरी, पोखरमूल, आककी जड़, अतीस,बच, बेर और लाखके क्वाथ तथा आठ गुने दूध चिरायता, नागरमोथा, काकड़ासींगी, धमासा, करं- और गोखरू, दारुहल्दी, दालचीनी, दाख और जवा, दो प्रकारके पाठे, कुटकी, सौजना, माल अखरोट, खजूर, मुन्नका, मुल्हैठी, फालसा और कंगनी, बाबची, हल्दी, दारुहल्दी, कुटकी, कटेली, पीपलके कल्कसे सिद्ध घृत स्वरभंग, खांसी, श्वास पटोलपत्र, नीम, बनगोभी, शंख, मैनफल और | और ज्वरका नाश करता है। जटामांसी। प्रत्येक १।-१। तोला, पांचो लवण
[८४५] कोलाचं घृतम् (२) ५-५ तोला । यवक्षार, सज्जीखार और सुहागाकी खील २॥-२॥ तोला।
(वृ. नि. र. । ज्व.) यह घृत दीपन, कफवात नाशक, हृद्रोग, | कोलाग्निमंथत्रिफलाक्काथो दध्ना धृतैः पिबेत् । तिल्ली, ग्रहणी, श्वास, खांसी और बवासीर नाशक | तिल्वकावापमेतद्धि विषमज्वरनाशनम् ॥ है एवं पुराने बुखारमें अमृतके समान है। बेर, अरनी और त्रिफलाके क्वाथ, दही और [८४२] कुलस्थायं धृतम्
लोधके कल्कसे सिद्ध घृत विषम ज्वर का नाश (च. सं. चि. अ. १८; ब. से; श्वासा) करता है।
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भारत-भैषज्य --
- रत्नाकर 1
कल्क द्रव्य - मनसिल, हरताल, कसीस, गन्धक, सेंधा नमक, चोक (सत्यानासी) पत्थरचटा, सोंठ, कूठ, पीपल, कलिहारी, कनेर, पवांड, बायबिडंग, चीता, दन्ती, नीमके पत्ते । प्रत्येक १ - १ | तोला, आक और सेहुण्डका दूध १०-१० तोला ।
गोमूत्र ८ सेर । कडवा तेल ४ सेर । यथा विधि मंदाग्नि पर तैल सिद्ध करें ।
इसकी मालिशसे दुस्साध्य कच्छू, पामा, कंडू, त्वग्दोष और खूनकी खराबी आदि रोग हैं। [८४७] कटभीतैलम् (यो. र. अप.) कटभीनिम्बकद्वङ्गमधुशित्वचां रसे। सिद्धं मूत्रयुतं तैलं लेपाद्धन्यादपस्मृतिम् ॥
कटभी ( बकायन) नीम, सोना पाठा और मीठे सैंाजनेकी छालके क्वाथ और गोमूत्र से सिद्ध तैल मर्दन करनेसे अपस्मार नष्ट होता है। [८४८] कटुतुम्बीतैलम् (बृ. नि.र. | गलगं.)
अथ ककारादि तैलप्रकरणम् ।
[८४६] कच्छूराक्षसतैलम् (भा.प्र. कु. चि.) | विडंगारसिंधूग्रारास्नाग्निव्योषदारुभिः । मनःशिलाल कासीसं गन्धाश्म सिंधुजन्म च। कटुतुम्बीफलरसेकटुतैलं विपाचितम् ॥ स्वर्णक्षीरी शिलाभेदी शुंठी कुष्ठं च मागधी ॥ चिरोत्थमपिनस्येन गलगण्डं विनाशयेत् ॥ लांगली करवीरवदनः क्रिमिहानलः । दन्तीनिंगदलं चैभिः पृथक्कर्षमितैर्भिषक् ।। कल्कीकृत्य पचेत्तैलं कटुप्रस्थद्वयोन्मितम् । अर्कसे हुण्ड दुग्धेन पृथक्पलमितेन च ॥ गोमूत्रस्यादकेनापि शनैर्मृद्रग्निना पचेत । अभ्यङ्गेन हरेदेतत्कच्छ्रदुःसाध्यतामपि ॥ पामानश्च तथा कण्डूं त्वग्भ्याधिरुधिरामयान् । कच्छ्रराक्षसनामेदं तैलं हारितभाषितम् ।।
बायबिडंग, जवाखार, सेंधा नमक, बच, रास्ना, चीता, त्रिकुटा और देवदारुके कल्क तथा कडवी तोरी रसमें कड़वे तेलका पाक सिद्ध करें । इसकी नस्य लेनेसे पुराना गलगण्ड भी नष्ट हो जाता है।
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[८४९] कटुतुम्ण्यादि तैलम् (बृ.नि.र. गलगं.) तुम्बीरसेन कटुकेन चतुर्गुणेन कल्कीकृतैर्मगधजादिगणौषधैश्च । तैलं शृतं हरति देहिषु गंडमाला
मत्युल्वणामपि गले गलगण्डरोगान् ॥ कड़वी तोरीके ४ गुने रस और पिप्पल्यादि गण कसे सिद्ध तैलसे गण्डमाला और गलगंडका नाश होता है।
[ ८५० ] कणादि तैलम् (र. र. । प्रमे.) कणामधुक कुष्ठैला रेणुकारजनीद्वयैः । समंगाशारिवालोधधातकीभिर्विपाचितम् ||
*
पिप्पल्यादिगणःपिप्पलीपिप्पलीमूलचव्य चित्रकशृङ्गवेरमरिचहस्तिपिप्पली हरेणुकै लाजमो देन्द्रयव पाठाजीरक सर्पपमहानिम्बमदनफलहिंगु भार्गीमूर्वातिविषावचाविडङ्गानि कटुरोहिणी
चेति ।
(सु. सं. सु. अ. ३८) पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, कालीमिर्च, गजपीपल, रेणुका, इलायची, बजमोद, इन्द्रजौ, पाठा, जीरा, सरसों, बकायन, मैनफल, हींग, भारंगी, मूर्खा, अतीस, वय, बायबिडंग और कुटकी।
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ककारादि-तैलं
(२५९)
शोधनं रोपणं तैलं पिडकायां प्रशस्यते ॥ यह तेल नेत्रपीडा, शिरशूल, मांस रक्तज
पीपल, मुल्हैठी, कूठ, इलायची, रेणुका,हल्दी, | स्लीपद, आमवात, हृदयकी पीडा, अंडवृद्धि, गलदारुहल्दी, मजीठ, शारिवा, लोध और धायके | गंड, सूजन, बधिरता, उदररोग, खांसी और कफ फूल । इनके कल्क तथा चार गुने पानीसे सिद्ध | रोगोंका नाश करता है। परीक्षा–यदि इस तेलकी तैल फोड़े फुसियोंको शुद्ध करता और घाव को | बूंद दूर्बा घास पर डालते ही वह तत्काल सूख भरता है।
जाय तो तेल उत्तम समझना चाहिये । [८५१] कनकतैलम् (१) (भै. र.। शि. रो.) [८५२] कनकतैलम् (२) (मै. र. क्षुद्र.) कनकार्कबला दूर्वा वासको वैजयन्तिका। मधुकस्य कषायेण तैलस्य कुडवं पचेत् । निर्गुण्डी पूतिका भार्गी निकोठकपुनर्नवा ।। | कल्कैप्रियंगुमञ्जिष्ठा चन्दनोत्पलकेशरैः॥ बदरीविजयापत्रं श्रीफलं घृहती तथा।। कनकं नाम तत्तलं मुखकान्तिकरं परम् । चित्रकच स्नहीमलमग्निमन्थो विडङ्गकम ॥ आभीरुनीलिकाव्यङ्गशोधनं परमर्थितम् ॥ त्रिवृद्भण्डी गोमठी च पत्रमारग्वधस्य च । | मुल्हैठी के कषाय और फूल प्रियंगु, मजीठ, प्रत्येकं द्विपलं चैषां गृह्णीयात्ततक्षणादपि ॥ चन्दन, नीलोफर और केसरके कल्कसे सिद्ध तैल जलदोणे विपक्तव्यं यावत्पादावशेषितम। | मुखकी कान्ति वर्द्धक तथा नीलिका और व्यंग प्रस्थश्च कटुतैलस्य पाचयेत्तीववादिना ॥ (झांई) आदि नाशक है। द्रव्याण्येतानि सर्वाणि कल्कितानि प्रदापयेत् । [८५३] कनकक्षीर तैलम् चक्षुःशूलं शिरःशूलं श्लीपदं मांसरतजम्॥ । (च. सं. चि. अ. ७) आमवातच हृच्छलं वृद्धिं च गलगण्डकम् । | कनकक्षीरीशैलाभार्गीदन्तीफलानि मूलश। शोथं बाधिर्यमुदरं कासं हन्ति न संशयः॥ जातीफलानि प्रवालसर्षपलशुनविडङ्ग करञ्जत्वक् दुर्वायां पतिते बिन्दौ शुष्कतां याति तत्क्षणात सप्तच्छदापल्लवमूलत्वनिम्बचित्रस्फोताः । कनकाख्यमिदं सैलं कफरोगकुलान्तकम् ।। गुझेरण्डवहतीमूलकसुरसाजेकफलानि ॥
धतूरा, आक, बला (खरैटी), दूर्वा (दूबड़ा | कुष्ठं पाठा मुस्तं तुम्बुरु मूर्वा वचा सपग्रन्था। घास), बासा, अरनी, संभाल, करमवा, भारङ्गी, | एडगजकुटजशियूषण भल्लातकक्षवकाः॥ ढेरा वृक्ष, पुनर्नवा (साठी), बेर, भांगके पत्ते, | हरितालमवाक्पुष्पी तुत्थं कम्पिल्लकोऽमृतासंज्ञः बेलगिरी, बडी कटेली, चीता, सेहुंड की जड, सौराष्ट्री कासीसं दात्विक्सर्जिकालवणम् ॥ अरनी, बायबिडङ्ग, निसोत, मजीठ (या सिरस), कल्कोतस्तैलं करवीरकमलकपल्लवकषाये। गोमठी और अमलतासके पत्ते प्रत्येक १०-१० सार्षपमथवा तैलं गोमूत्रचतुर्गुणं साध्यम् ।। तोला । सबको ३२ सेर पानीमें पकावें जब चौथा
स्थाप्यं कटुकालावुनि तत्सिद्धं भाग शेष रह जाय तो उतार कर छान लें। इस
तेनास्यमण्डलान्याशु । क्वाथ और इन्ही चीज़ोंके कल्कके साथ २ सेर | भिन्द्याद्भिपगभ्यंगात् क्रिमीश्व तैल तीवाग्नि पर पकावें।
कण्डूं विनिहन्यात् कुष्ठम् ॥
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(२६०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
कल्क द्रव्य-स्वर्ण क्षीरी (सत्यानाशी), मन- । तुम्बुरु भृङ्गयष्टया कन्दुकं कटुरोहिणी। सिल, भारंगी, दन्तीकी जड और फल, जायफल, | शटी दार्वी त्रिवृत्पद्मग्रन्थिकागुरुपुष्करम् ॥ चमेली, सरसों, ल्हसन, बायबिडंग, करंजवे की | कपूर कटफलं मांसी मुरैलाटरुषाभया । छाल, नीम, चीता, आस्फोता (हाफरमालीति वंगे) | एतेषां कार्षिकैःकल्कैर्नाम्ना कन्दर्प उच्यते ॥ गुञ्जा, अरण्ड मूल, बडी कटेली, मूली, तुलसी,
अष्टादशविधं कुष्ठं ग्रन्थिमजगतं तथा। अर्जक (तुलसी भेद) के फल, कूठ, पाठा, नागर
हस्तपादांगुलीसन्धिगलितं सर्वसन्धिषु ।। मोथा, तुम्बुरु, मूर्वा, बच, पीपलामूल, पांड,
अधिकानि च मांसानि यस्य गात्रे भविष्यति । इन्द्रजौ, सैंजिना, त्रिकुटा, भिलावा, नकछीकनी,
नासाकर्णास्य वैकल्यं भेकाकारवपुस्त्वचम् ॥ हरताल,चिरचिटा, तूतिया, कमीला, गिलोय,सौराष्ट्री (फिटकरी या गोपीचन्दन), कसीस, दारुहल्दीकी
श्वेतं रक्तं तथा कुष्ठं नानावणं विपादिकम् । छाल, सज्जी और सेंधालवण।
पामादिस्फोटकानीलीकृमिवृद्धिं तथैव च ॥ इन चीज़ोंके कल्क और कनेरकी जड तथा कीटदद्रु मसूरी च किटिभं रक्तमण्डलम् । पत्तोंके क्वाथ एवं चार गुने गोमूत्रके साथ सरसों | कुष्ठमौदुम्बरं पचं महापद्मं तथैव च। का तेल पकाकर कडवी तूम्बीमें भरकर रख दें। | गलगण्डाबुदं हन्याद्गण्डमालां भगन्दरम् । इसकी मालिशसे मुखका मंडल कुष्ठ, क्रिमि, कंडु वात पित्तजञ्चैव श्लेष्म सानिपातिकम् ।। (खुजली) और कुष्ठ शीघ्र नष्ट होता है। एकोल्वणं द्वय ल्वणश्च कुष्ठं हन्यान संशयः। [८५४] कन्दर्पसारतलम् (भै. र. कुष्ठे) सतौना, काला निसोत, गिलोय, नीम, सिरस, सप्तपर्णस्तथा काली गुडूची पिचुमर्दकम् । महातिक्ता (बकायन वा यवतिक्ता), अरनी, कड़वी शिरीषश्च महातिक्ता जया तुम्बी मृगादनी। तोरी, इन्द्रायण और हल्दी । प्रत्येक वस्तु ५०-५० निशादशपलान् भागान जलद्रोणे विपाचयेत। तोला ३२ सेर जल में काथ बनावें । इस क्वाथ, तैलप्रस्थं समादाय गोमूत्रश्च चतुर्गुणम् ॥ । ८ सेर गो मूत्र और अमलतास, भांगरा, अरनी, आरग्वधो भृङ्गराजो जया धुस्तूररात्रयः। धतुरा, हल्दी, भंग, चीता, खजूर, गोबर, आक ऐन्द्राशनाग्निखजूंरं गोमयार्कस्नुहीच्छदम् ।। | और सेहुण्ड (सेंड) के पत्तोंके २-२ सेर स्वरस तैलतुल्यं प्रदातव्यं खरसश्च पृथक् पृथक् ।। एवं निम्न लिखित कल्कके साथ यथा विधि २ सेर महाकालवचाबाह्मीतुम्ब्यग्निगृहपुत्रिकाः।।। तैल पकावें। कुचेलाकुलकारात्रिर्मेघनामा च ग्रन्थिका । ___ कल्क द्रव्य-----इन्द्रायन, बच, ब्राह्मी, कड़वी शम्पाकमकक्षीरश्च कासुन्देश्वरमूलकम् ॥ | तुम्बी, चीता, घीकुमार, कुचला, मनसिल, हल्दी, आचुजिङ्गीमहातिक्ता विशालाच्छविपत्रकम् । नागरमोथा, पीपलामूल, अमलतास, आकका दूध, प्रतिकास्फोतमूर्वा च सप्तपर्णशिरीषकम् ॥ कसौंदी, ईश्वरमूल (शिवलिंगी), आचु, मजीठ, महाकुटजं पिचुमर्दश्च महानिम्बं तथैव च । नीम, इन्द्रायन, विछवा (विछातीतिबंगे) करंजवा, गुइची चन्द्ररेखा च सोमराट् चक्रमर्दकम् ॥ आस्फोतक, मूर्वा, सतौना, सिरस, इन्द्रजौ, नीम ,
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कामादि-तैल
(२६१)
गिलोय, बाबची, सोमराट् (बाबचीभेद्र) पवांड़, का दूध, चीता, भांगस, हल्दी, मीम तेलिया और कुस्तुम्बरु, भांगरा, मुल्हैठी, सुपारी, कुटकी, कपूर- गोमूत्रसे पका हुआ तैल विसर्प, विस्फोटक और कचरी, दारुहल्दी, निसोत, पभाक, पीपलामूल, | विचर्चिका का नाश करता है। अगर, पोखरमूल, कपूर, कायफल, जटामांसी, | [८५७] करवीरतैलम (१) मुरामांसी, इलायची, बांसा और हैड़। प्रत्येक (च. सं. चि. अ. ७) ११-१। तोला।
श्वेवकरवीरपल्लवसूलत्वग्वत्सविडंगः । यह तेल १८ प्रकारके कुष्ठ, प्रन्थि और |
कुष्ठार्कमूलसर्षपशिग्रुत्वमोहिणी कुटुका ।। मजागत कुष्ठ और जोड़ोंका गल जाना, मांसका |
| एतैस्तैलं साध्य कल्वैर्यादांशिकैगेवां मूत्रम् ।
दत्वा तैलचतुर्गुणमभ्यंगः कुष्ठकण्डूमः ।। बढ़ जाना, नाक, कान और मुखका विकृत हो जाना, त्वचाका मेंढककी त्वचाके समान हो जाना,
___ सफेद कनेर के पत्ते और उसकी जड़की
छाल, इन्द्रजौ, बायबिडंग, कूठ, आककी जड, सफेद कोढ़, लाल कोढ़, विपादिका, पामा, विस्फो
सरसों, सहजनेकी छाल और कुटकी । इन सब टक, नीली, कृमि, वृद्धि, दाद, मसूरी, किटिभ,
चीजों को समान मात्रा में मिलाकर तेलसे चौथाई लाल चकते और औदुम्बर, पद्मकुष्ठ, महापद्मकुष्ठ,
चौथाई लें । इस कल्क और चार गुने गो-मूत्रके गलगण्ड, अर्बुद, गण्डमाला, भगन्दर और वातज,
साथ पकाया हुआ तैल कोढ़ और खुजली का पित्तज, कफज, तथा द्वंदज और सन्निपातज आदि | नाश करता है। सब प्रकारके कुष्ठों का नाश करता है। [८५८] करवीरसेलम् (२) [८५५] करादि तैलम् (१)
(च. सं. चि. अ. ७; यो. र.) (शा. ध. । म. खं अ. ९)
श्वेत कस्वीरसो गोत्रं चित्रको गिन्य। करंजभित्रको जातीं करवीरश्च पाचितम्। कोष तैलयोगाः सिद्धोऽयं सम्मो मिपजाम् ॥ तैलमेभिद्रुतं हन्यादभ्यंगादिंद्रलप्तकम् ॥
___ सफेद कनेरका रस, गोमूत्र, चीता और वास
चमली । इनस | बिडंगसे यथा विधि तैल पकावें । पकाया हुआ तेल लगानेसे इन्द्र लुप्त (गञ्ज-बालों
यह तैल कुष्ठमें अत्युपयोगी है। का गिर जाना) नष्ट होता है। [८५६] करक्षादि तैलम् (२)
[८५९] करवीरतेलम् (३) (मै. र. कुष्ठे)
श्वेतकरवीरमूलं विषांशकं साधितं गोमूत्रे । ___(यो. र. । विस.)
चर्मदलसिध्मपामाविस्फोटकृमिकिटिमजिसम्।। करअसप्तच्छदलालीका
सफेद कनेरकी जड और मीठा तेलिना दोनों स्नुपर्कदुग्धानलभृङ्गराजैः। बराबर २ मिलाकर तेल से चौथाई भाग लें। इस तैलं निशाभूत्रविविपक्कं
कल्क और गोमूत्र के साथ पकाया हुआ तैल विसर्प विस्फोट विचचिंकानम् ॥ | चर्मदल, सिध्म, पामा, विस्फोटक, कृमि और किलिकरंजवा, सतौना, कलहारी, सेहुंड और आक । भका नाश करता है।
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(२६२)
भारत-वैषज्य-स्नाकर
[८६०] करवीराद्यं तैलम् (१) (र. र. । यो. व्या; व. से. स्त्री. रो. वृ. यो. (. र. । नासा.)
त. त. १३३) रक्तकरवीरपुष्पं जात्यास्तथाशनमल्लिकाश्च । करभल्लातकशंखचूर्ण क्षारो एतैः समस्तैस्तैलं नासाझे नाशनं पकम् ॥ - यवानां च मनः शिला च। ____ लाल कनेर के फूल, चमेली के फूल, असना तैलं विपकं हरितालमिश्रं
और मल्लिकासे पकाया हुआ तैल नासार्श (नाकके रोमाणि निर्मूलयति क्षणेन ॥ मस्सो) का नाश करता है।
___ कपूर, भिलावा, शंखका चूर्ण, जवाखार और [८६१] करवीराचं तेलम् (२)
मनसिल से पका हुआ तैल हरताल मिलाकर लगाने
से बाल गिर जाते हैं। (यो. र. । भग.)
[८६५] कलिंगाच तैलम् करवीरनिशादन्तीलाङ्गलीलपणाग्निभिः ।।
। (र. र. । नासा. रो; ग. नि. नासा. ४) मातुलंगार्कपयमा पचेत्तैलं भगन्दरे ।
कलिंगहिंगुमरिचलाक्षासुरसकट्फलैः । कनेर, हल्दी, दन्ती, कलिहारी, सेंधानमक, बिजौरा नीबू और आकके दूध से पकाया हुआ तैल,
कुष्ठोग्राशिग्रुजन्तुप्रैरवपीडः प्रशस्यते ।
| तैरेवमत्रसंयुक्तैःकटुतैलं विपाचयेत् । भगन्दरका नाश करता है।
अपीनसे पूतिनस्ये शमनं कीर्तित परम् । [८६२] कथूरतैलम्
इन्द्रजौ, हींग, कालीमिर्च, लाख, तुलसी, (भा. प्र. । नाडी ब्र.)
कायफल, कूठ, बच, सहजना और बायबिडंग के कर्पूरकरसे तैलं पुरसिन्दूरकल्कितम् ।। कल्क तथा गोमूत्रसे कड़वा तेल पकाकर उसकी पामा दुष्टत्रणं नाडी हन्यात्सर्वव्रणान्तकृत् ॥ नसवार लेनेसे पीनस और पूति नस्य (नाकसे बदबू ___ कपूरकचरीके कषाय (या स्वरस) और गूगल आना) नष्ट होता है। तथा सिन्दुर के कल्क से पकाया हुजा तैल, पामा, [८६६] काकमाचीतैलम् (र. र. क्षु. रो.) दुष्ट व्रण, नाडी व्रण (नासूर) और अन्य सब प्रकारके | काकमाचीरसे सिद्धं कटुतैलं चतुः पलम् । घावोंका नाश करता है।
मनःशिलासोमराजीबीजसिन्दूरगंधकैः ।। [८६३] कर्णामयनं तैलम्
शाणमात्रेतदभ्यंगाद्धंन्त्यवश्यमरुषिकाम् । (र. र.स. अ. २४)
पामां विचचिंकाश्चैव तथान्याञ्छिरसो व्रणान्॥ कुष्ठशुण्ठीवचाहिंगुशताबाशिग्रु सैन्धवैः। कल्क द्रव्य-मनसिल, बाबची, सिंदूर और पस्तमूत्रैः शृतं तैलं सर्वकर्णामयापहम् ।। । गन्धक । प्रत्येक ३०-३० रत्ती ।
कूठ, सोंठ, बच, हींग, सोया, सहजना, सेंधा इस कल्क और मकोय के रसके साथ आधा और बकरे के मूत्रसे पकाया हुआ तैल सब प्रकारके | सेर कड़वा तेल पकावें । इसकी मालिश करने से कर्ण रोगोंका नाश करता है।
अरुषिका, पामा, विचर्चिका और शिरके घावों का [८६४] कर्पूरादि तैलम्
| अवश्य नाश होता है।
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ककारादि-तैल
(२६३) [८६७] काश्मर्यादि तैलम् | सेर गोमूत्रके साथ २ सेर तेल पकावें। (वृ. नि. र.। क्षु. रो; व. से.)
इस तेलके लगानेसे बवासीरके मस्से इस काश्मयाँ मूलमादौ सहचर- प्रकार गिर जाते हैं मानो क्षारसे गिराए गए हैं। कुसुम केतकस्यापि मूल
[८६९] किरातादि तैलम् लौहं चूर्ण सगं त्रिफलजलयुतं
(धन्च० । ज्व. चि.) तैलमेभिः पचेद्यः।
| मूर्वा लाक्षा हरिद्रे द्वे मंजिष्ठा सेन्द्रवारुणी। कृत्वा लोहस्य भांडे क्षितितलनिहितं
हीबेरं पुष्करं रास्ना कपिवल्ली कटुत्रयम् ॥ स्थापयेन्मासमेकंकेशाः काशप्रकाशा
पाठा चेन्द्रयवश्चैव लवणत्रयसंयुतम् । अपिमधुपनिमा अस्य योगाद्भवति ॥
वासकाकेश्यामा दारु महाकालफलं तथा । खम्भारी की जड़, पियाबांसे के फूल, केतकी की जड़, लोहे का बुरादा, भांगरा और त्रिफले का
दधिमन्यारनालेन किरातेन च संपवेत् । काथ । इनसे तेल पकाकर लोहे के बरतन में भर
प्रस्थं प्रस्थं समादाय तैलपस्थं विपाचयेत् ॥ कर जमीन में दबा दें और एक मास तक वहीं
पित्तयुक्तज्वरं चैव सन्ततं सततं तथा। दबा रहने दें।
धातुस्थमस्थिमजास्थं ज्वरं सर्व व्यपोहतिम् ॥ इस तेलसे कांस के समान सफेद बाल भी | कामलां ग्रहणीं चैव अतिसारं हलीमकम् । भौं रेके समान काले हो जाते हैं।
प्लीहपाण्डुश्वयधुंश्च नाशयेन्नात्र संशयः॥ ८६८] कासीसादितैलम शा.ध.म.ख.९) | नास्ति तैलं वरं चास्मात् ज्वरदपेकुलान्तकृत कासीसं लांगली कण्ठं शण्ठी कृष्णा च सैन्धवस मूर्वा, लाख, हल्दी, दारुहल्दी, मजीठ, इन्द्रामनःशिलाश्चमारश्च विडंग चित्रको पुषः ॥ यन, सुगन्धवाला, पोखरमूल, रास्ना, गजपीपल, दन्ती कोशातकीबीज हेमाहू हरितालकम। | त्रिकुटा, पाठा, इन्द्रजौ, सेंधानमक, काला नमक, कल्कैः कर्षमितेरेतैस्तैलप्रस्थं विपाचयेत ॥ बिडनमक, बासा, आक, काली निसोत, देवदार स्नुपर्कपयसी दद्यात्पृथक् द्विपल संमिते।
| और इन्द्रायनका फल। इनके कल्क तथा दधिचतुर्गुणं गवां मत्रं दत्वा सम्यक् प्रसाधयेत ॥ मंथ (दहीका तोड़), आरनाल (कांजी) और चिराकथितं खरनादेन तैलमोंविनाशनम् ।
| यतेके २-२ सेर काथके साथ २ सेर तेल पकावें। क्षारवत्पातयत्येतदीस्यभ्यंगतो भृशम् ॥ यह तैल पित्तयुक्त ज्वर, संतत ज्वर, सतत
कसीस, कलिहारी, कूठ, सोंठ, पीपल, सेंधा- | ज्वर तथा धातुगत और अस्थिगत ज्वर आदि सब नमक, मनसिल, कनेर, बायबिडंग, चीता, बांसा, प्रकारके ज्वरों और कामला, संग्रहणी, अतिसार, दन्ती, कड़वी तोरीके बीज, धतूरा और हरताल हलीमक, तिल्ली, पांडु और सूजनका नाश करता प्रत्येक १।-१। तोला । सेहुंड (सेंड) और आक है। ज्वरोंका नाश करनेके लिये इससे उत्तम कोई का दूध २०-२० तोला। इनके कल्क तथा ८ । और तैल नहीं है।
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(२६४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
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[८७०] कुहमाचे तैलम् (१) ।[८७१] कुमादि तैलम् (२) (यो. र. । क्षु. रो.)
___ (च. द; भै. र.। क्षुद्र.) कुंकुमं चन्दनं लोधं पतङ्ग रक्तचन्दनम् ।
कुडुमं चन्दनं लाक्षा मञ्जिष्ठा मधुयष्टिका । कालीयकमुशीरं च मजिष्ठा मधुयष्टिका ॥
कालीयकमुशीरं च पद्मकं नीलमुत्पलम् ।। पत्रकं पदकं पमं कुष्ठं गोरोचनं निशा ।
न्यग्रोधपादाः प्लक्षस्य शुङ्गाः पाकेशरम् ।
द्विपश्चमूलसहितैः कषायैः पलिकैः पृथक् ॥ लाक्षा दारुहरिद्रा च गैरिक नागकेशरम् ।।
जलादिकं विपक्तव्यं पादशेषमथोद्धरेत् । पालाशकुसुमं चापि प्रियंगुश्च वटाकुराः ।
मंजिष्ठा मधूकं लाक्षा पतङ्ग मधुयष्टिका ॥ मालती च मधुच्छिष्टं सर्षपाः सुरभिर्वचा ॥
कर्षप्रमाणैरेतैस्तु तैलस्य कुडवं तथा । चतुर्गुणपयापिष्टरेतैरक्षमितैः पृथक् ।
अजाक्षीरं तद्विगुणं शनैर्मृग्निना पचेत् ॥ पचेन्मन्दाविना वैद्यस्तैलं प्रस्थद्वयोन्मितम् ॥ | सम्यक्पक्कं परं ह्ये तन्मुखवर्णप्रसादनम् ॥ वदनाभ्यञ्जनादेतद् व्यङ्गं नीलिकया सह । नीलिकापिडकाव्यङ्गानभ्यङ्गादेव नाशयेत् ॥ तिलक माषकं न्यच्छ नाशयेन्मुखदूषिकाम् ॥ सप्तरात्रप्रयोगेण भवेत्काञ्चनसनिभम् । पधिनीकण्टकं वापि हरेज्जतुमणि तथा। कुङ्कुमाद्यमिदं तैलमश्विभ्यां निर्मितं पुरा॥ विदध्याद्वदनं पूर्णचन्द्रमण्डलसुन्दरम् ॥ केसर, चन्दन, लाख, मजीठ, मुल्हैठी,काली__ केसर, चन्दन, लोध, पतंग, लाल चन्दन, | यक (अगर) खस, पनाक, नीलोफर, बड़की दाढ़ी, अगर, खस, मजीठ, मुल्हैठी, तेजपात, पभाक, | पिलखनकी कोंपल, कमलकेसर और दशमूल प्रत्येक कमल, कूठ, गोरोचन, हल्दी, लाख, दारुहल्दी, चीज़ १०-१० तोला लेकर ८सेर पानीमें पकावें जब गेल, मागकेसर, ढाकके फूल, फूलप्रियंगु, बड़की चौथा भाग शेष रहे तो उतारकर छान लें। इस कोपल, चमेलीके फूल, मोम, सरसों, तुलसी और । क्वाथ और १ सेर बकरीके दूध तथा नीचे लिखे बध । प्रत्येक ११-१। तोला । इनको ४ गुने दूध
| कल्कके साथ मन्दाग्निपर ०॥ सेर तेल पकावें। के साथ पीसकर उससे मन्दाग्नि पर ४ सेर तेल कल्क द्रव्य–मजीठ, महुवा, लाख, पतंग पकावें।
और मुल्हैठी प्रत्येक ११-११ तोला। में मामला नीलिक इसे लगानेसे चेहरेकी नीलिका, फुसियां और तिल. माष (मस्सा). महासे. पगिनि कंटक और झांई आदि नष्ट होकर चेहरा खूबसूरत हो जाता है। जतुर्मणि आदिका नाश होकर मुख चन्द्रमाके समान इसे सात दिन तक लगानेसे मुख कांचनके उज्ज्वल हो जाता है।
समान दीप्तिमान हो जाता है। __x किन्ही किन्ही का मत है कि इसमें
[८७२] कुड़माचं तैलम् (३) तेलसे ४ गुना दूध और उतना ही पानी
(च. द; भै. र. । क्षु०रो.) डालना चाहिए।
हामं किंशुकं लाक्षा मनिष्ठा रक्तचन्दनम् ।
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ककारादि-तैल
(२६५)
कालीयकं पद्मकं च मातुलुङ्गस्यकेशरम् ॥ ६। सेर गन्ध प्रसारणी (खीप) को कुचलकर कुसुम्भं मधुयष्टिकं फलिनी मदयन्तिका । । ३२ सेर पानीमें पकायें और चौथा भाग शेष निशे द्वे रोचना पद्ममुत्पलं च मनःशिलाः ॥ रहने पर छान लें। फिर इस क्वाथ और दही काकोल्यादिसमायुक्तरेतैरक्षसमैभिषक् । १२॥ सेर, कांजी १२॥ सेर, दूध २५ सेर तथा लाक्षारसपयोभ्यां च तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ । निम्नलिखित कल्कके साथ मन्दाग्नि पर १२॥ सेर कुंकुमाद्यमिदं तैलं चाभ्यङ्गाकाश्चनोपमम् । तेल पकावें । करोति वदनं सद्यः पुष्टिलावण्यकान्तिदम् ॥ कल्क द्रव्य-चीता, पीपलामूल, मुल्हैठी,सेंधासौभाग्यलक्ष्मीजननं वशीकरणमुत्तमम् । नमक, खरैटी, सोया, देवदारु, रास्ना, गजपीपल,
कल्क द्रव्य --केसर, केसू (ढाकके ल), गन्धप्रसारणीकी जड़, जटामांसी और मिलावा । लाख, मजीठ, लाल चन्दन, अगर, पनाक, बिजौर । प्रत्येक १०-१० तोला। की केसर, कुसुम्भा, मुल्हैठी, मालकंगनी, मोगरेके
___यह तेल वातज और कफजरोग नाशक है फूल, हल्दी, दारुहल्दी, गोरोचन, कमल, नीलोफर,
एवं ८० प्रकारके वायुरोग, कुबडापन, तिमिर, मनसिल और काकोल्यादिगण* | प्रत्येक ११-१॥
लूलापन, गृध्रसी, खुडक, अर्दित, हनुपृष्ठ शिर और तोला। लाखका रस ४ सेर, दूध ४ सेर, तेल २ सेर
ग्रीवास्तम्भ (जकड़ जाना) आदि रोगों का नाश यथाविधि तेल पाक करें।
करता है। इस तेलके व्यवहारसे चेहरा अत्यन्त शीघ्र [८७४] कुमारीतैलम् (भा. प्र.। शि. रो.) कांचनके समान दीप्तिमान् और सुन्दर हो जाता है। कुमार्याः स्वरसप्रस्थे धत्तुरस्य रसे तथा। [८७३] कुब्जप्रसारिणी तैलम् | भृङ्गराजस्य च रसे प्रस्थद्वयसमायुते ।। (भै. र. । वा. व्या.)
चतुः प्रस्थमिते क्षीरे तैलप्रस्थं विपाचयेत् । प्रसारिणीशतं क्षुण्णं पचेत्तोयामणे शुभे। कल्कैर्मधुकहीबेरमंजिष्ठाभद्रमुस्तकैः ॥ पादशेषे समं तैलं दधिदद्यात्सकाञ्जिकम् ॥ ! नखकर्पूरभृङ्गलाजीवन्तीपकुष्ठकैः । द्विगुणश्च पयो दत्त्वा कल्कान् द्विपलिकांस्तथा। मार्कवासकतालीसस निर्यासपत्रकैः ।। चित्रकं पिप्पलीमूलं मधुकं सैंधवं बलाम् ॥ विडङ्गशतपुष्पाश्वगन्धागंधर्वहस्तकैः । शतपुष्पां देवदारु रानां वारणपिप्पलीम् । शोकहमालिकेलाभ्यां कर्षमानैर्विपाचिते ।। प्रसारण्याश्च मूलानि मांसी भल्लातकानि च ॥ उत्तार्य वस्त्रपूतं तु शुभे भांडे सुधूपिते । पचेन्मृद्वग्निना तैलं वातश्लेष्मामयाञ्जयेत् । त्रिरात्रमथ गुप्तश्च धारयेद्विधिवद्भिषक् ॥ अशीति नरनारीस्थान् वातरोगान् व्यपोहति ॥ ततस्तु तैलमभ्यंगे मुनि क्षेपे नियोजयेत् । कुन्जस्तिमिरपङ्गुत्वं गृध्रसीखुडकादितम् । शमयेदर्दितं गाढमन्यास्तम्भशिरोगदान् ॥ . हनुपृष्ठशिरोग्रीवास्तम्भं चाशु नियच्छति ॥ तालुनासाक्षिपातन्तु शोषमूर्छाहलीमकम् ।
* काकोल्यादिगण देखो पृष्ठ २०५ हनुग्रहगदाति वा बाधियं कर्णवेदनम् ॥
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(२६६)
भारत-भेषग्य-रत्नाकर
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धीकुमारी का स्वरस २ सेर, धतूरे का स्वरस : अभ्यंग (मर्दन) बस्ति और उत्तरबस्ति द्वारा प्रयोग २ सेर, भांगरे का स्वरस , सेर, दूध ८ सेर, तेल करने से शर्करा, पथरी, भयंकर मूत्रकृच्छ्र, प्रदर, २ सेर ।
योनिशूल, शुक्रदोष, और बन्ध्यत्व (वांझपने) का __ कल्क द्रव्य-मुल्हैठी, सुगन्धबाला, मजीठ,
नाश होता है। नागरमोथा, नखी, कपूर, भांगरा, इलायची, जीवन्ती,
[८७६] कुष्ठकालानलतैलम् (भै.र. कुठे) पनाक, कूठ, काला भांगरा, बासा, तालीस पत्र,
सूतं गन्धं शिलातालं काञ्जिकर्मईयेद्दिनम् । राल, तेजपात, बायबिडंग, सोया, असगन्ध,
तल्लिप्तवस्त्रवति तां तैलाक्तां ज्वालयेदधः ॥ अरण्ड, अशोककी छाल और नारयल प्रत्येक
स्थिते पात्रे पतेतैलं गृहीत्वा लेपये ततः । ११-१। तोला । यथाविधि तेल पका कर छानकर उत्तम
कुष्ठस्थानं विशेषेण सर्वकुष्ठं हरत्यलम् ।। धूपित बर्तन में भरकर सुरक्षित रक्खें फिर तीन
इदं कालानलं तैलं वातकुष्ठे महौषधम् ॥ दिन पश्चात् निकाल कर सेवन करावें ।
एषां समं काञ्जिकं, सर्वेषां द्विगुणं तिलतलम्, इस तेल की मालिश करने और शिरमें |
कल्कं वस्त्रे संलिप्य संशोग्य वर्ति कुर्यात्, तां डालने से अर्दित, मन्यास्तम्भ, शिरोरोग, ताल,
तैलाक्तां संदशिकायां ज्वालयित्वा उपरि तेलं मासा और अक्षिपात, शोष, मूर्छा, हलीमक,
दत्वा पतितं तैलमधः पात्रे गृह्णीयात् । कुष्ठहनुग्रह, बधिरता और कानों की वेदना नष्ट
स्थाने दद्यात्सिद्धफलः प्रयोगः होती है।
पारा, गन्धक, मनसिल और हरताल को १ [८७५] कुशाचं तैलम् (भा. प्र. । अश्म.)
दिन कांजी में घोटकर कपड़े पर लपेट कर बत्ती
बनार्वे फिर उस बत्ती को तेलमें भिगोकर (उलटा कुशामिमन्यशैरेयनलदर्भक्षुगोक्षुराः।
लटका कर) जलावें और उसके नीचेबरतन रख दें। कापोतपावसुकवशीरेन्दीवरीशराः
इस प्रकार बत्ती के जलने से बरतन में जो तेल घातक्यरलुबन्दाकाः कर्णपूराश्मभेदकाः।
गिरे उसे शीशी में भरकर रक्खें । एषां करककषायाभ्यां सिद्ध तेल प्रयोजयेत् ॥ इसकी मालिश से कुष्ठ का नाश होता है। पानाभ्यञ्जनयोगेन बस्तिनोत्तरबस्तिना। यह वातज कुष्ठ के लिये महौषध है। शर्कराश्मरीरोगेषु मूत्रकृछ्रे च दारुणे ॥ इस प्रयोग में कांजी सब चीजों के बराबर प्रदरे योनिशूले च शुक्रदोषे तथैव च। लेनी चाहिये । बत्ती को सुखाकर दो गुने तिलके बंध्यागमेप्रदं प्रोक्तं तैलमेतत्कुशादिकम् ॥ तैल में भिगोना चाहिए। बत्ती भीगने के बाद
कुश, अरनी, पियाबांसा, नल, दाब, ईख, जो तेल बचा रहे उसे जलती हुई बत्ती के ऊपर गोखरू, ग्रामी, लाल आक, हुलहुल, शतावर, शर, डालते रहना चाहिए । धायके फूल, अरल, बन्दा, कदम्ब (या अशोक) [८७७] कुष्ठतैलम् (भा. प्र. । कर्णरो; वृ. मा.) और पत्थरचटा।
| कुष्ठहिंगुवचादारुशतालाविश्वसैंधवैः । इनके कवाय और कल्क से सिद्ध तैल पान, पूतिकर्णाषहं तैलं परत मूत्रेण साधितम् ॥
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ककारादि-तैल
(२६७)
__ कूठ, हींग, बच, देवदारु, सोया, सोंठ और पाके सत्यवतार्य कल्कसहित सेंधानमकके कल्क तथा बकरे के मूत्रमें पकाया | धान्ये द्विपक्षं क्षिपेत् ॥ हुआ तैल पूतिकर्णका नाश करता है। | तत्क्षीरान्नाशिना पीतं लिप्तं कुष्ठकुलान्तकम् । [८७८] कुष्ठराक्षस तैलम् (भै. र. कुष्ठे) | सुप्तं दाहजमश्वेतं रूपमूलश्च लुम्पति ॥ सूतकं गन्धकं कुष्ठं सप्तपर्णश्च चित्रकम् । २ सेर बाबचीको ३२ .सेर पानीमें पकायें सिंदूरश्च रसोनश्च हरितालमवल्गुजम् ॥ | जब चौथा भाग बाकी रहे तो उतार कर उसमें आरग्वधस्य बीजानि जीर्णतान मनःशिला। १० तोला गन्धक और २५-२५ माश पारद प्रत्येकं कर्षमेतेषां कटुतैलं पलाष्टकम् ॥
तथा कान्तिसार लोहकी पानके रसमें घोटी हुई साधयेत्सूर्यतापेन सर्वकुष्ठविनाशनम् ।
कजली और २ सेर तिलका तैल मिलाकर पकावें। श्वित्रमौदुंबरं कच्छू मांसद्धिं भगन्दरम् ॥
जब पानी जल जाय तो तेलको उपरोक्त कल्क के विचर्चिकाञ्च पामानं वातरक्त सुदारुणम् ।
साथ ही किसी बरतन में भरकर अनाज के ढेर में गम्भीरश्च तथोत्तानं नाशयेघस्सम्रक्षणात् ।।
| दवा दें और १ मास बाद निकालकर काममें लावें। कुष्ठराक्षसनामेदं सावर्ण्यकरणं परम् ।
___इसे पीने और मालिश करने से काला सुप्त अश्विभ्यां निर्मितं घेतल्लोकानुग्रहहेतवे ॥
| (सुन्न बहरी) कोढ़ और दाह से उत्पन्न हुवा कोढ़ पारा, गन्धक, कूठ, सतौना, चीता, सिंदूर, |
नष्ट होता है।
| पथ्य-दूध भात । ल्हसन, हरताल, बाबची, अमलतासके बीज, पुराना
| [८८०] अष्टादितैलम् १) ताम्बा और मनसिल । प्रत्येक १४-१। तोला ।
__ (वृ. यो.त. । ९३त.) _इनके ककसे सूर्य ताप द्वारा १ सेर कड़वा
कुष्ठं श्रीवेष्टकोदीच्यं सरलं दारुकेशरम् । तैल सिद्ध करें । (तेलमें चार गुना पानी और यह
अश्वगन्धाजगन्धे च तैलं तैः सार्वषं पवेत् ॥ सब चीजें मिलाकर धूपमें रख दें जब पानी खुश्क |
सक्षौद्रं मात्रया तस्मादूरुस्तम्भादितः पिबेत् ॥ हो जाय तो तेलको सिद्ध समझें)।
कूठ, श्रीवेष्ठक (धूप सरल) सुगन्ध बाला, ___ यह तेल सफ़ेद कोढ़, औदुम्बर, कच्छू, मांस- | सरल काष्ठ, देवदारु, केसर, असगन्ध और बनवृद्धि, भगन्दर, विचर्चिका, पामा और गम्भीर तथा तुलसी के साथ सरसों का तेल पकावें । उत्तान भयंकर वातरक्त का नाश करता है तथा | इसे यथोचित मात्रानुसार शहद मिलाकर त्वचाके रंगको स्वभाविक कर देता है । | पीने से उरुस्तम्भ का नाश होता है। [८७९] कुष्ठविद्रावणतैलम् (र.र.स.अ.२०) [८८१] कुष्ठादि तैलम् (२) द्वात्रिंशत्पलबाकुचीशृतजलद्रोणांनिशेषे चतु- (कृ. नि. र. । बा. रो) विंशत्या दनुजस्य कांतरसयो. तैलमभ्यंजने कार्य कुष्ठे सर्जरसे तथा।
निष्कैः पृथपंचभिः। | पलं कषायं नलदे तथा गौरकदंबके ॥ तांबूलीरसमर्दितैस्तिलभवप्रस्थं शृतं चिक्कणे ___ मालिशके लिए कूठ, राल, जटामांसी और
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(२६८)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
सफेद कदम्ब के कल्क से सिद्ध तैल काम में कूठ, आक, तूतियां, कायफल, मूलीके बीज, लाना चाहिए।
| कुटकी, इन्द्रजौ, नीलोफर, नागरमोथा, बडी कटेली, ___ यह प्रयोग रेवती-ग्रह-ग्रस्त बालकों के | कनेर, कसीस, पंवाड़, नीम, पाठा, धमासा, बाय
बिडंग, कड़वी तोरीके बीज, कमीला, आक, सरसों, [८८२] कुष्ठादितैलम् (३) बच और दारु हल्दी ।
(वृ. नि. र. । गुल्मरो.) ____ इनसे सिद्ध तैल कोढ़ का नाश करता है। श्वेतकुष्ठ तथा हिंगु प्रतिनिष्कद्वयं द्वयम् । कुष्ठमें इन्हीं औषधियों का लेप, मर्दन, घर्षण और क्षारं तत्रिफला चूर्ण दशमागं सुचूर्णितम् ॥ | अवचूर्णन करना चाहिए। कल्कं गोक्षीरतः पिष्ट्वा पूर्व तैलं स्नुहिप्लुतम् । ८८४] कुसुम्भतैलम् (यो. र.) । पचेतैलावशेषं तु पिबेनिष्कद्वयं द्वयम् ॥ कुसुम्भतैलं विष्टम्भि पाके च कटुकं गुरु । विरेकांते तु तक्रेण शाल्पन्नं भोजयेल्लघु।
विदाहि च विशेषेण सर्वदोषप्रकोपणम् ।। चतुर्दिनांते दातव्यमिदं तैलं न नित्यशः॥ कुसुम्भ (कैड़) का तेल विष्टम्भि, पाकमें कटु, गुल्मं जलोदरं प्लीहां शुलश्च वयथुप्रणुत् ॥ । गुरु, विदाही और सर्व दोषकोपकारक है । सफेद कूठ और हींग १०-१० माशे
[८८५] कृमिकर्णारितैलम् जवाखार और त्रिफले का चूर्ण ५०-५० माशे
(र. र. स.। अ. २४) लेकर पहिले गो दुग्ध में पीसें और फिर उसमें सेहुंड (सेंड) का दूध मिलावें। इस कल्क से तेल
अब्धिफेनो वचा शुण्ठी सैंधवं च समं समम् । सिद्ध करके रक्खें ।
समतैलार्द्रकद्रावैः पक्के तस्मिन्पलद्वये ॥ इसे ४-४ दिन के अन्तर से १०-१० । पूर्वोक्तचूर्ण कपाशं क्षिप्त्वोत्तार्य सुशीतलम् । माशे की मात्रानुसार सेवन करने से गुल्म, जलोदर, तत्तल प्रक्षिपेत्कणे ध्रुवं गोमक्षिका व्रजेत् ॥ तिल्ली, शूल और सूजन नष्ट होती है। ___ समन्दर झाग, बच, सोंठ और सेंधा नमक ___इसके सेवन से विरेचन होने के बाद तक | समान मात्रा में मिले हुवे ११ तोला । अदकका रस (छाछ) के साथ भात खाना चाहिए। १। सेर, तेल १। सेर । यथा विधि तेल पाक करें। [८८३] कुष्ठादितैलम् (४) ____इसे ठंडा करके कानमें डालने से मक्खी आदि
___(च. सं. । चि. अ. ७) कीट पतंग कानसे बाहर निकल आते हैं। कुष्ठार्कतुत्थकटुफलमूलकबीजानि रोहिणीकटुका [८८६] कृष्णाचं तैलम् (यो. र. । नेत्र.) कुटजफलोत्पलमुस्तं बृहतीकरवीरकाशीशम् ॥ कृष्णाविडङ्गमधुयष्टिकसिन्धुजन्म एडगजनिम्बपाठादुरालभाचित्रको विडंगच। विश्वौषधैः पयसि सिद्धमिदं छगल्याः । तिक्तेक्ष्वाकुबीजं कम्पिल्यर्कसर्षपवचादा: ॥ तैलं वणं तिमिरशुक्रशिरोक्षिवर्म एतैस्तैलं सिद्धं कुष्ठनं योग एष वा लेपः। पाकात्ययाञ्जयति नस्यविधौ प्रयुक्तम् ।। तन्मर्दनं घर्षणमवचूर्णनमेष एवेष्टः । पीपल, बायबिडंग, मुल्हठी, सेंधा नमक और
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ककारादि-आसवारिष्ट
(२६९)
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सोंठ के कल्क तथा बकरी के दूधसे सिद्ध तैलकी । यद्वहुलेन रसेन विपक्कम् । नस्य लेनेसे आंखके घाव, तिमिर, शुक्र (फूला) शिर | तैलमतल्पतुषोदकसिद्ध और पलकों का पकना आदि रोग नष्ट होते हैं।
मारुतमस्थिगतं विनिहंति ॥ [८८७] केतकादि तैलम्
केतकी, नागबला और अतिबलाके बहुतसे (वृ. नि. र; ग. नि; वृ.मा; वा. व्या.) क्वाथ और बहुतसी कांजी से सिद्ध किया हुआ केतकनागबलातिवलानां
तेल अस्थिगत वायुका नाश करता है ।
अथ ककाराद्यासवारिष्ट प्रकरणम् [८८८] कनकारिष्टः (१)
अासि ग्रहणीदोषमानाहमुदरं ज्वरम् । ___(च. सं. । चि. अ. १४). । हृत्पाण्डुरोगश्वयथुगुल्मवोंनिलग्रहान् ॥ नवस्यामलकस्यैकां कुर्याज्जर्जरितां तुलाम् । कासान्कफामयांश्चोग्रान्सर्वानेवापकर्षति । कुडवांश विडङ्गानि पिप्पली मरिचानि च ॥ वलीपलितखालित्यं दोषजं तु व्यपोहति ।। पायमल विपल्याः क्रम चयचित्रको कुटे हुवे नवीन आमले ६। सेर, बायमञ्जिष्ठैल्वालुकं रोधं पलिकान्युपकल्पयेत् ॥
बिडंग, पीपल और कालीमिर्च २०-२० तोले,
| पाठा, पिप्पलीमूल, सुपारी, चव, चीता, मजीठ, कुष्ठं दारुहरिद्रां च सुराहूं सारिवाद्वयम् ।। इन्द्राहूं भद्रमुस्तञ्च कुर्याद्दर्धपलोन्मितान् ।। ।
| एलबालु (एलवा) और लोध प्रत्येक ५-५ तोला ।
| कूठ, दारु हल्दी, देवदारु, दो प्रकारकी सारिया, चत्वारि नागपुष्पस्य पलान्यभिनवस्य च ।।
इन्द्रयव और नागरमोथा प्रत्येक २॥ २॥ तोला द्रोणाभ्यामम्भसो द्वाभ्यां साधयित्वाऽवतारयेत् |
और नवीन नागकेसर २० तोला लेकर सबको पादावशेषे पूते च शीते तस्मिन्समावपेत् ॥
|६४ सेर पानीमें पकावें। जब चौथा भाग शेष मृद्वीकाद्वयाढकरसं शीत नियूहसमितम् ॥ रह जाय तो छान कर ठंडा होने पर उसमें मुनक्का शकरायाश्च शुद्धाया दद्याद्विगुणितां तुलाम् । का क्वाथ १६ सेर, उत्तम खांड १२॥ सेर, कुसुमस्वरस्यैकमर्धप्रस्थं नवस्य च ॥
नवीन शहद १ सेर, दालचीनी, इलायची, नागरस्वगेलाप्लवपत्राम्बुसेव्यक्रमुककेसरान् ।
मोथा, पतरज (तेजपात) सुगन्धबाला, खस, चूर्णयित्वा तु मतिमान्कार्षिकानत्र दापयेत् ॥ सुपारी और नागकेसर । प्रत्येकका १०-१। तोला तत्सर्व स्थापयेत्पक्ष शुचौ च घृतभाजने।। | चूर्ण मिलाकर पवित्र, घृतसे चिकने और खांड प्रलिप्ते सर्पिषा किंचिच्छर्करागुरुधुपिते ॥ तथा अगरसे धूपित बरतनमें संधान करके १५ पक्षार्ध्वमरिष्टोऽयं कनको नाम विश्रुतः। दिन तक रक्खा रहने दें। पेयः स्वादुरसो हृद्यः प्रयोगाद्भक्तरोचनः । इसके पश्चात् निकालकर छान लें और
१ केतकिमूलं बलातिबलानां-(ग. नि) । सुरक्षित रखें ।
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(२७०)
भारत-मैक्ग्य-रत्नाकर
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यह (कनकारिष्ट) रसमें मधुर, प्रयोग करनेसे । संगृह्य धातकी प्रस्थं द्राक्षायाः पलविंशतिम् । हृद्य, रुचिकर बवासीर, ग्रहणीदोष, अफारा, | जलं द्रोणद्वयं दत्वा शकेरायास्तुलां तथा ।। उदर रोग, ज्वर, हृद्रोग, पांडु, सूजन, गुल्म, मल | क्षौद्रस्यार्धतुलां चापि सर्व संमिश्रय यत्नतः। और वायुका रुकना, खांसी, उग्र कफजरोग और | भाण्डे निक्षिप्य चावृत्य निदध्यान्मासमात्रकम् बली पलित तथा खालित्य (गंज) नाशक है। | निहन्ति निखलाञ्छ्वासान् कासं यक्ष्माणमेव च [८८९] कनकारिष्ट (२) (ग. नि. अ. ६) | क्षतक्षीणं ज्वरं जीर्ण रक्तपित्तमुरक्षितम् ॥ खदिरकषायद्रोणं कुम्मे घृतभाविते समावाप्य। शाखा, मूल, पत्र और फल सहित कुटा हुआ पलिका मात्रा क्षेप्यां कृत्वा तामेव सूक्ष्मचूर्णन्तु ॥ धतूरा और बांसेकी जड़की छाल २०-२० तोला, त्रिफलात्रिकटुकरजनीकत्वग्बाकुचीगुडूच्याश्च । मुल्हैठी, पीपल, कटेली, नागकेसर, सोंठ, भारंगी सविडङ्गमत्र मधुपलशतद्वयं प्रक्षिपेत्सर्वम् ॥ | और तालीसपत्र । प्रत्येक का चूर्ण १०-१० तोला। धातकीपलान्यष्टौ काथे चास्मिन्प्रदेयानि । | धायके फूल १ सेर, मुनक्का १। सेर, पानी ६४ प्रातः प्रातस्तु पिबेन्नाशयति चिरोत्थितं कुष्ठम् ।। सेर, चीनी (खांड) ६। सेर और शहद ३)- सेर मासेन सर्वरोगान्निहन्ति च शोफमेहांश्च । | लेकर सबको एकत्र करके यथा विधि सन्धान निर्जितकासश्वासो गुदकीलभगन्दरैर्विनिर्मुक्तः। करके एक मास तक रक्खा रहने दें। कनकारिष्टं प्रपिबन्भवति पुमान्कनककान्तिश्च॥ इसके सेवनसे सब प्रकारके श्वास, खांसी,
खैरका क्वाथ ३२ सेर, त्रिफला, त्रिकुटा, | यक्ष्मा, क्षत, क्षीणता, जीर्णज्वर, रक्तपित्त और हल्दी, निर्मली, दालचीनी, बावची, गिलोय और | उरःक्षतका नाश होता है। बायबिडंग का चूर्ण ५-५ तोला तथा शहद २५ [८९१] कर्पुरासवः (भै. र. परिशि.) सेर और धायके फूलोका चूर्ण ०॥ सेर लेकर तुलां प्रसन्नां परिगृह्य शुद्धां सबको घृतसे चिकने किये हुवे मिट्टीके घड़े में पलाष्टकं चोडपतेः क्षिपेञ्च । भरकर संधान करके रक्खें ।
एला च सूक्ष्मा घनशृङ्गवेरे इस अरिष्टको प्रातः काल सेवन करनेसे यमानिका वेल्लजमत्र सर्वम् । पुराना कुष्ठ नष्ट होता है। इसे १ मास तक सेवन पलप्रमाणं पिहिते च भांडे करने से सूजन, प्रमेह, खांसी, श्वास, मस्से और
___मासं निदध्याद् भिषगत्रयत्नात् । भगन्दर आदि समस्त रोग नष्ट होकर शरीर कुन्दन | विचिकायाःपरमौषधं तके समान हो जाता है।
निहन्ति चान्यान् विविधान् विकारान् ॥ [८९०] कनकासवः (भै. र. । हिक्का.) __ प्रसन्ना सुरा १२॥ सेर, कपूर ०॥ सेर, छोटी संक्षुष कनकं शाखामूलपत्रफलैः सह । | इलायची, नागरमोथा, सोंठ, अजवायन और बायततश्चतुष्पलं ग्राह्यं वृषमूलत्वचस्तथा ॥ बिडंग ५-५ तोला लेकर चूर्ण करके सबको मिट्टी मधुकं मागधी व्याघ्री केशरं विश्व मेषजम् । | के बरतनमें सन्धान करके एक मास तक रक्खा भार्गीतालीशपत्रश्च संचूयैषां पलद्वयम् ॥ । रहने दें।
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ककारादि-आसवारिष्ट
(२७१)
यह विसूचिकाकी परमौषध है एवं इसके। कुब्जक (श्वेत गुलाब) की जड़ ६। सेर, सेवनसे कितने ही अन्य रोग भी नष्ट होते हैं। मुनक्का ३ सेर २ छटांक, महुवे के फूल और [८९२] कुटजारिष्टः (भै. र. । अति.) खम्भारी ५०-५० तोले लेकर सबको १२८ सेर तुला कुटजमूलस्य मृद्वीकार्धतुला तथा। । जलमें पकावें जब ३२ सेर पानी बाकी रह जाय मधूकपुष्पकाश्मर्यो गान् दशपलोन्मितान् ॥ तो उसे छानकर ठंडा होने पर उसमें धाय के फुल चतद्रोणेऽम्भसः पक्वा द्रोणं चैवावशेषितम।। १। सेर, गुड़ १८॥, धतूरा ०॥ सेर, त्रिकुटा, धातक्या विंशतिपलं गुडस्य च तुलां क्षिपेत्॥ कंकोल, इलायची, दालचीनी, पतरज, जावित्री मासमात्र स्थितो भांडे कुटजारिष्टसंज्ञितः। और लौंगका चूर्ण ५.५ तोला मिलाकर यथा ज्वरान प्रशमयेत सर्वान कुर्यात्तीक्ष्णं धनञ्जयम विधि सन्धान करके १ मास तक रक्खा रहने दें। दुर्वारा ग्रहणी हन्ति रक्तातीसारमुल्बणम् ॥ इसके सेवन से सब प्रकार के सन्निपातज्वर
कुड़की जड़की छाल ६। सेर, मुनक्का ३ सेर २ | नष्ट होत है। छटांक, महुवे के फुल और खम्भारी ५०-५० तोला [८९४] कुमार्यासवः (१) (ग. नि. अ. ६) सेर लेकर सबको १२८ सेर जलमें पकावें । जब ३२ द्रोणमानं कुमार्यास्तु रसं भाण्डे निधापयेत् । पानी बाकी रहे तो उतारकर छानलें और उस क्वाथ | तुलाध दशमूलं तु तदर्ध पौष्करी जटा ॥ में धाय के फूल १। सेर और गुड़ ६। सेर तत्समं घन्वयासं च चित्राधं च परिक्षिपेत् । मिलाकर यथाविधि मिट्टी के बरतन में सन्धान करके | प्रस्थार्धममृता ज्ञेया तदधेममया तथा।। १ मास तक रक्खा रहने दें।
लोध्रकामलकं पथ्यं मजिष्ठा च कलिद्रुमः। इसके सेवनसे सब प्रकार के ज्वर, रक्तातिसार चव्यं च कुष्ठमधुकं कपित्थं सुरदारुकम् ॥ और दुस्साध्य संग्रहणी का नाश होता है तथा | कृमिशत्रुर्मागधिका भार्गी स्यादष्टवर्गकम् । अग्निं प्रदीप्त होती है।
जीरकं क्रमुको रास्ना शठी रेणुकमेव च ॥ [८९३] कुब्जासवः (ग. नि. अ. ६) शृङ्गी निशाप्रियङ्गुश्च मांसी मुस्ता च सारिवा। शतं कुब्जकमूलस्य मृद्वीकायार्द्ध शतं तथा। बासा वरी शक्रबीजं नागकेसरमेव च ॥ मधूकपुष्प काश्मय भागान् दशपलोन्मितान् ॥ पुनर्नवा समांशानि षड्भिद्रोणैर्जलस्य तु । चतुोणेऽम्भसः पक्त्वा शीते पादावशेषिते । | क्वाथयेदनया रीत्या चतुर्थाशं जलं नयेत ॥ धातक्या विंशतिपलं गुडस्य च शतत्रयम् ॥ त्रिंशत्पला च मृद्वीका दन्तसंख्यापलं मधु । कनकस्य तु चत्वारि व्योपं ककोलमेव च। गुडस्तुला चतुष्कं च तदर्धा धातकी भवेत् । एलात्वक्पनजातीनां लवङ्गस्य तथैव च ॥ पलद्वयं लवंगानि ककोलं मलयोद्भवम् । भागाः पलप्रमाणाश्च सूक्ष्मचूर्णन्तु कारयेत् । | चातुर्जातं तथा कृष्णा मरिचं जातिपत्रकम् ।। कोजमुलासवो ह्येष मासमात्रं विधारितः॥ आकल्लकं जातिफलं कपिकच्छुश्च दीप्यकम् । शमयेत्सन्निपातोत्थान् ज्वरान् सर्वान् न संशयः वचा खदिरसारश्च दहनं जीरकं तथा ॥ .
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(२७२)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
यवानी वालकं विश्वा मुस्ता धान्यं हरीतकी। को चिकने पुगने और गन्ध औषधियों से धूपित हपुषा तितिडीकं च चूर्णमेषां प्रयोजयेत् ॥ पात्रमें यथा विधि संधान करके भूमि में गाढ़ दें भाण्डे पुराणे सुस्निग्धे धूपिते गन्धमेषः । और १ मास पश्चात् निकाल कर छान लें । कोष्ठसारे तथा तप्ते भूमौ मासं विनि क्षिपेत् ॥ इसे ५ तोलेकी मात्रानुसार प्रातःकाल सेवन यो रोगी प्रातरुत्थाय पलमेकं तु भक्षयेत् ।
करने से धातुक्षय, खांसी, पांच प्रकार के श्वास, धातुक्षयं जयेत्कासं श्वासं पञ्चविधं तथा ॥
बवासीर, वातव्याधि, संग्रहणी, पांडु, कामला, हलीअासि वातरोगांश्च ग्रहणीपाण्डुकामलाः।
मक, उदावर्त, पांच प्रकार के गुल्म, अफारा, कुक्षिहलीमकमुदावतै गुल्मं पश्चविधं जयेत् ।।
शूल, प्रत्याध्मान, गुदग्रह, अष्ठीला और हृद्रोग का आध्मानं कुक्षिशूलं च प्रत्याध्मानं गुदग्रहम् ।
| नाश होता है। अष्ठीलिकां च हृद्रोगानेतान व्याधिविनिर्जयेत [८९५] कुमार्यासवः (२) (ग. नि. अ. ६) कुमार्यासव इत्येष कथितः शूलपाणिना॥ रसस्तुलाध कौमारस्तदर्धगुड मिश्रितः। ___ दशमूल ३ सेर २ छटांक, पोखरमूल १ सेर
चातुर्जातलवंगानां सैंधवस्य निशाद्वयोः ॥ ९ छटांक, चीता ६२॥ तोला, गिलोय ०॥ सेर, |
कुबेरकृष्णा मरिचधातकीनां पलं पलम् । हैड ०। सेर, लोध, आमला, चौलाई की जड़,
पथ्याचूर्ण पलयुगं पलं चाकल्लकस्य तु ॥ मजीठ, बहेड़ा, चव्य, कूठ, मुल्हैठी, कैथ, देवदारु,
उग्रगंधाजातिपत्रीविडंगानां पलं पलम् । बायविडंग, पीपल, भार्गी, अष्ट वर्ग (जीवक, ऋष
एकीकृत शुचौ भांडे पक्षमेकं निधापयेत् ॥ भक, मेदा, महामेदा, ऋद्धि, वृद्धि, काकोली, क्षीर
पलाई भक्षयेन्नित्यं गुल्मोदावर्तनाशनः । काकोली) जीरा, सुपारी, रास्ना, कपूरकचरी, रेणुका,
आध्मानं पार्श्वशूलञ्च जठराति कर्फ हरेत् ॥ काकड़ासिंगी, हल्दी, फूल प्रियंगु, जटामांसी, मन्दाग्नि शमयेच्छ्वासं कासं हिक्कां क्षयं तथा। नागरमोथा, सारिवा, बासा, शतावरी, इन्द्रजौ, | यकृत्प्लीहं तथा शोफ नाशयत्येष सेवितः ।। नागकेसर और पुनर्नवा प्रत्येक ४-४ सेर लेकर घीकुमार का रस ६। सेर, गुड़ १ सेर ९ सबको १९२ सेर जलमें पकावें जब चौथा भाग | छटांक, तेजपात, दालचीनी, इलायची, नागकेसर, शेष रह जाय तो छानकर उसमें घीकुमार का रस | लौंग, सेंधानमक, हल्दी, दारुहल्दी, करंजवा, पीपल, ३२ सेर, मुनक्का १ सेर १४ छटांक, शहद ४ | कालीमिर्च, धायके फूल, अकरकरा, बच, जावित्री सेर, गुड़ २५ सेर, धाय के फुल १२॥ सेर, लौंग, | और बायबिडंग प्रत्येक का चूर्ण ५-५ तोला और कंकोल, श्वेतचन्दन, चातुर्जात (दालचीनी, तेजपात, | हैड १० तोला लेकर यथा विधि सन्धान करके इलायची, नागकेसर) पीपल, कालीमिर्च, जावित्री, | १५ दिन तक रक्खा रहने दें। तेजपात, आकरकरा, जायफल, कौंच, अजमोद, इसे प्रतिदिन २।। तोलेकी मात्रानुसार सेवन बच, खैरसार, चीता, जीरा, सुगन्धबाला, सोंठ, | करने से गुल्म, उदावर्त, अफारा, पसली का शूल, नागरमोथा, धनिया, हैड़, हाऊबेर और तिन्तड़ीक, उदरव्याधि, कफ, मंदाग्नि, खांसी, स्वास, हिक्का, प्रत्येक का १०-१० तोला चूर्ण मिलाकर सब क्षय, जिगर, तिल्ली और सृजन का नाश होता है।
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ककारादि-आसवारिष्ट
(२७३)
८९६] कुमार्यासवः (३) (यो. र. गुल्म.) | क्षय, आठ प्रकार के उदररोग, छः प्रकार की कुमार्याश्च रसद्रोणे गुडं पलशतं तथा। बवासीर, वातव्याधि और अपस्मार आदि अनेक तुलांघिसंख्यां विजयां क्वाथयेत्तज्जलार्मणे ॥ | दारुण रोगों का नाश होता है । चतुर्थीशावशेषे तु पूते तस्मिन्निधापयेत् । इसे १५ दिन तक सेवन करने से मन्दाग्नि, मधुनश्चाऽऽढकं दत्त्वा धातक्या द्विपलाष्टकम् ॥ उदरशूल, आठ प्रकारके गुल्म और नष्टपुष्प (स्त्रियों स्निग्धभाण्डे विनिक्षिप्य कल्कं चैव प्रदापयेत् । को मासिक स्राव न होना) नष्ट होते हैं । जातीफलं लवङ्गं च ककोलं च कबावकम् ॥ ८९७] कूष्माण्डासवः (ग. नि. अ. ६) जटिलाचव्यचित्रं च जातीपत्रो सककेटम् । कमांडं जर्जरीकृत्य रसमादाय यत्नतः। अक्षं पुष्करमूलश्च प्रत्येकं च पलं पलम् ॥ोडा दातव्यं वर्णमेषां विनिक्षिपेत ॥ मृत शुल्व तथा लोहं शुक्तिमात्र प्रदापयेत् । । कटत्रिक लवच चातर्जातं तथैव च । भम्यां वा धान्यराशौ वा स्थापयेद्दिनविंशतिम् ॥ कडोलकं जातीफलं जातीपत्री प्रियङ्गुकम् ॥ तमुद्धृत्य पिबेन्मात्रां यथा चाग्निबलाबलम्। कपित्थं वत्सकं चैव बीजं गोक्षुरकस्य च । पञ्चकासं तथा श्वासं क्षयरोगं च दारुणम् ॥ सत्वं गुडुच्या मार्गी च बलाबीजं तथैव च ॥ उदराणि तथाऽष्टौ च षडांसि च नाशयेत् ।
| इपुषा क्रमुकं चैव देवदारु मदावहम् । वातव्याधिमपस्मारमन्यानरोगान्सुदारुणान् ॥
| गायत्रीसारजलदं चित्रकं च फलत्रिकम् ॥ जाठरं कुरुते दीप्तं कोष्ठशूलं च नाशयेत् ।
| रास्ना यष्ट्याहकं चापि तुम्बरु नागकेशरम् । गुल्माष्टकं नष्टपुष्पं नाशयेदेकपक्षतः॥
| ग्रन्थिकं चाजमोदा च कारवी दीप्यकस्तथा । कुमारिकासवोह्येष बृहस्पतिविनिर्मितः॥
कन्फलं च तुगाक्षीरी आकल्लकमुटिंगणम् ॥ १ सेर ९ छटांक भांगको ३२ सेर जल में
कलिङ्गकाश्च काकोली शठीमोचरसं धनम् । पकावें जब चौथा भाग शेष रहे तो उतार कर | कोकिलाक्षस्य बीजानि कसेरुः सहदेविका ॥ छान लें । फिर घीकुमार का रस ३२ सेर, गुड़ | भूनिवं चविका स्पृक्का पनकं च निशाद्वयम् । ६। सेर, शहद ८ सेर, धाय के, फूल १ सेर, धान्यकं सुरदाली च क्षीरकन्दं तथैव च ॥ जायफल, लौंग, कंकोल, कबाबचीनी, जटामांसी, एतानि चाक्षमात्राणि लोहचूर्ण पलाष्टकम् । चव, चीता, जावित्री, काकड़ासींगी, बहेड़ा, पोखर- धातक्याः शोडषपलं घृतभाण्डे निघापयेत् ॥ मूल प्रत्येक ५-५ तोला । लोह भस्म और तांबा
मासाधं च तथा भूमौ निक्षिपेदतियत्नतः । भस्म प्रत्येक २॥२॥ तोला लेकर यथा विधि
अनेन विधिना सिद्ध आसव परिकीर्तितः ।। सन्धान करके भूमिमें अथवा अनाज के ढेरमें दबा | पीत्वास्य पलमेकं तु प्रातरुत्थाय नित्यशः। दें। फिर २० दिन पश्चात् निकाल कर छान कर
धातुक्षयं च मन्दामिं प्रमेहं पाण्डुमेव च ॥ अग्निबलानुसार सेवन करावें ।
असि ग्रहणीदोषान् प्लीहोदरभगन्दरान् । इसके सेवन से ५ प्रकार की खांसी, श्वास, · आमवातं रक्तपित्तं श्लेष्मरक्तं तथैव च ॥
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(२७४ )
भारत-भैषज्य रत्नाकर
निहन्ति वातजान् रोगान् मेदः स्थौल्यापहासवः । यता, चव, स्पृक्का, पद्माक, हल्दी, दारूहल्दी, पैठेको कूटकर उसका रस निकालें। यह रस | धनिया, देवदारु और विदारीकन्द | प्रत्येक १1१। तोला | लोहका बुरादा ० ॥ सेर । धायके फूल १ सेर ।
३२ सेर, गुड़ ८ सेर, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, लौंग, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, कँकोल, जायफल, जावित्री, फूलप्रियंगु, कैथ, इन्द्रजौ, गोखरू, गिलोयका सत, भारंगी, खरैटीके बीज, हाऊबेर, सुपारी, देवदारु, कस्तूरी, खैरसार, नागरमोथा, चीता, त्रिफला, रास्ना, मुल्हैठी, तुम्बरु नागकेसर, पीपलामूल, अजमोद, कलौंजी, अजवायन, कायफल, बंसलोचन, अकरकरा, उटङ्गन के बीज, कैथका छिलका, सोया, गजपीपल, हिसोड़ा (सपिस्ता) इन्द्रजौ, काकोली, कपूरकचरी, मोचरस, नागरमोथा, तालमा, नाखकसेरु, सहदेवी, चिरा
[८९८] कटुतुम्ब्यादिलेपः
(बृ. नि. र; अर्श; र. र. स. अ १५; ग. नि . ) आरनालेन संपिष्ट्वा सबीजकटुतु म्बिका । सगुडा हन्ति लेपेन अशसि मूलतो ध्रुवम् ॥
कड़वी तोरीको बीजों सहित कांजी में पीसकर गुड़ में मिलाकर लेप करनेसे बवासीरका समूल नाश होता है । [८९९] कण्टकार्यादिलेपः
(बृ. नि. र. । क्षु. रो.) इन्द्रलुप्ता हो लेपो मधुना बृहतीरसः । गुञ्जामूलं फलं वापि भल्लातकर सोपि वा ॥
कटेलीके रसको शहद में मिलाकर लेप करनेसे या गुञ्जा (चाटली) की जड़ या फल का अथवा भिलावेके रसका लेप करनेसे गंज (बालोंका नष्ट हो जाना) नष्ट होता है।
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सबको यथाविधि चिकने बरतन में सन्धान करके १५ दिन तक भूमिमें गढ़ा रहने दें। फिर छान कर सुरक्षित रक्खें ।
अथ ककारादि लेप प्रकरणम्
इसे प्रतिदिन प्रातःकाल ५ तोलेकी मात्रा - नुसार सेवन करनेसे धातुक्षय, मन्दाग्नि, प्रमेह, पांडु बवासीर, ग्रहणीदोष, तिल्ली, उदररोग, भगन्दर, आमवात, रक्तपित्त, श्लेष्मरक्त, वातव्याधि और मेदवृद्धिका नाश होता है ।
[९००] कनकाविलेप: (बृ. नि. र; विस.) कनकभुजगवल्ली मालतीपत्रमूर्वा रसगद कुनटीभिर्मर्दितस्तैलयोगात् । अपहरति रसेन्द्रः कुष्ठकण्डूविसर्प
स्फुटितचरणरंधं श्यामलत्वं त्वचायाः॥ कूठ, मनसिल और पारदको खूब घोट कर तेलमें धतूरा, पान, चमेली के पत्ते, मूर्वा, रसौत, मिलाकर लेप करनेसे कोद, खुजली, विसर्प, बिवाई और त्वचाकी श्यामता नष्ट होती है । [९०१] कमलादिलेप: (बृ. नि. र; शि. रो.) कमलं सुरसामूलं लिप्त हंति शिरोरुजम् ॥
कमल और तुलसीकी जड़ को पीस कर लेप करनेसे शिरकी पीड़ा शान्त होती है। [ ९०२ ] करवीरादिलेपः
(वृ. नि. र. । त्वग्दो; वा.भ.चि. अ. १६; कुष्ठा.) श्वेतकरवीरमूलं कुटजकरंजत्वचादापः ।
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ककारादि-लेप
(२७५)
सुमनप्रवालयुक्तो लेपः कुष्ठापहः सिद्धः॥ को तक्रमें पिसकर मंगलके रोज़ लेप करनेसे सिष्म
सफेद कनेरकी जड़, कुड़ा, करञ्जवेकी छाल, । (सीप)का नाश होता है। दारुहल्दी और चमेलीके पत्तोंको पीसकर लेप करने [९०६] कांचनीलेपः से कुष्ठका नाश होता है।
(वृ. नि. र. । अर्श.) [९०३] करंजादिलेपः
कांचनी कुसुमं चुणे शंखचूर्ण मनाशिला। (वृ. नि. र.। क्षु. रो; व. से.) गजपिप्पलिसंतोयैलेंपो ह्यर्थी कुठारकः॥ करञ्जबीजं रजनी कासीसं पत्रकं मधु। हल्दी, लौंग, शङ्खका चूर्ण, नसिल और गजरोचना हरितालं च लेपोयमलसे हितः॥ पीपलको पानीमें पीसकर लेप करनेसे बवासीरके ___ करंजवेकी गिरी, हल्दी, कसीस, पनाक,शहद,
| मस्से नष्ट होते हैं। गोरोचन और हरताल का लेप करनेसे अलस
[९०७] कासमविलेपः (खाखों)का नाश होता है।
(वृ. नि. र., वृ. मा.। त्वग्दो.) [९०४] कसेर्वादिलेपः (वृ. नि.र.। विस.) |
| कासमर्दकबीजानि मूलकानां तथैव च ।
गंधपाषाणमिश्राणि सिध्मानां परमौषधम् ॥ कशेरुपृङ्गाटकपमगुञ्जा
___कसौन्दीके बीज, मूलीके बीज और गंधकका सशैवला:सोत्पलपयकश्च।
लेप सिध्मके लिए अत्यन्त उपयोगी है। वस्त्रान्तराःपित्तकृते विसर्प लेपो विधेयः सघृतः सुशीतः॥
| [९०८] कासीसादिलेपः (वृ.नि.र.। भु-रो.) कसेरु, सिंघाड़ा, कमल, गुञ्जा (चौंटली), |
कासीसरोचनातुत्थहरितालरसाजनैः। शैवाल, नीलोफर और पनाकको पीसकर धीमें मिला
अम्लपिष्टैःप्रलेपोयं मुश्ककण्डाहितनैः ॥
कसीस, गोरोचन, तृतिया, हरताल और कर लेप करें, परन्तु लेप के नीचे कपड़ा लगा
रसौतको कांजीमें पीसकर लेप करनेसे अण्डकोषों लेना चाहिये । इससे पित्त विसर्प नष्ट होता है।
| की खाज और अहिपूतनाका नाश होता है। एवं ठंडक पडती है। *
[९०९] कुमार्यादिलेपः [९०५] कार्पासादिलेपः
(शा. ध. उ. खै. अ. १३) (वृ. नि. र.। त्वग्दो. ग., नि. कुष्ठा.) | कुमारिकाग्निपत्रैर्वा दाडिमीपल्लवैरपि । कार्यासिकापत्रविमिश्रकाक
| वचाहरिद्राविश्वैर्वा तथा नागरगैरिकैः॥ जंघाकृतो मूलकबीजयुक्तः। घीकुमार और चीतेके पत्तोंको अथवा अनार सक्रेण लेपः क्षितिपुत्रवारे,
के पत्तों या बच, हल्दी और सोंठको किंवा सोंठ सिध्मानि सद्यो नयति प्रणाशम् ॥ | और गेरूको पानी में पीसकर लेप करनेसे आंखोंके कपासके पत्ते, काकजंघा और मूलीके बीजों | समस्त रोग नष्ट होते हैं। + * श्री चौबे दसरामजीके मतानुसार लेप + माखों की सुखी और सड़क आदिक करके उसके ऊपर कपडा बांध देना चाहिये। | लिए यह लेप उत्तम प्रतीत होता है। (भनु०)
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(२७१)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
[९१०] कुष्ठादिलेपः (१) (वृ.नि.र.शिरो.रो.) [९१४] कुष्ठाविलेपः (५) कुष्ठमेरण्डमूलं च नागरं तक्रपेषितम्।
(वृ. नि. र. । भगन्द. नि.) कवोष्णं च शिरपीडो मात्रालेपनतो हरेत् ॥ कुष्ठं त्रिवृत्तिलादन्ती मागधी सैंधवं मधु । ____ कूठ, अरण्डमूल और सोंठको तक (छाछ) में | रजनी त्रिफलातुत्थं हितं स्याद्वणलेपनम् ।। पीसकर किञ्चित गरम करके लेप करनेसे शिरपीड़ा कूठ, निसोत, तिल, दन्ती, पीपल, सेंधानमक, शान्त होती है।
शहद, हल्दी, त्रिफला और तृतिया का लेप घावों [९११] कुष्ठादिलेपः (२) (वृ.नि.र.। शि. रो.) के लिए लाभदायक है। कुष्ठमेरण्डमूलं च लेपःकांजिकपेषितः। [९१५] कृष्णादिलेपः (१) . शिरोति वातजां हन्यात्पुष्पं वा मुचकुंदजम् ॥ (कृ. नि. र; ग. नि. | व्रणशो.)
कूठ और अरण्डमूलको अथवा मुचकुन्दके | कृष्णापुराणपिण्याकशिशु त्वसिक्ताशिवा । फूलोंको कांजीमें पीसकर लेप करनेसे वातज शिर- मूत्रपिष्टःसुखोष्णोयं लेपश्च श्लेष्मशोथजित् ।। पीडा शान्त होती है।
पीपल, पुरानी खल, सोहजने की छाल, रेत [९१२] कुष्ठादिलेपः (३)
और हैड़ को गोमूत्र में पीसकर किञ्चित गरम (वृ. नि. र. । शिरो. रो.)
करके लेप करने से कफज सूजन का नाश होता है। कुष्ठमेरण्डमूलं वा चक्रमर्दकमूलकम् ।
[९१६] कृष्णादिलपः (२)
(वृ. नि. र; ग. नि.। शि. रो.) आरनालेन पिष्टं तल्लेपो हन्ति शिरोरुजम् ॥ कूठ, अरण्डमूल ओर पवांड़ की जड़को कांजी
कृष्णाम्बुशुंठीमधुकं शताह्रोत्पलवालकैः। में पीस कर लेप करने से शिरः शूल शान्त होता है।
जलपिष्टैः शिरोलेपः सद्यः शूलनिवारणः ॥
___पीपल, सुगन्धबाला, सोंठ, मुल्हैठी, सोया, [९१३] कुष्ठादिलेपः (४)
नीलोफर और खस को पानी में पीसकर लेप करने (च. द.। अग्निमां;ग. नि. अजीणे; यो. र. विसूचि.) से शिरपीडा अत्यन्त शीघ्र शान्त होती है। कुष्ठसैंधवयोः कल्कं चुक्रतैलसमन्वितम् ।।
। [९१७] केसरषष्ठयोगः विधूच्या मदन काष्ण खल्लाशूलानवारणम् ।। (वृ. यो. त.। १२० त; यो. र. शि. रो; च. द. ।) कूठ और सेंधानमक को पानी में पीसकर |
कुष्ठं मूलकबीजं प्रियंगवः सर्षपा दुरालम्मा। चूके (चौपतिया) के तेल में मिलाकर कुछ गरम करके मालिश करने से खल्ली, शूल (हाथ पैरों का |
एतत्केसरषष्ठं निहन्ति चिरकालजं सिम्मम् ॥
कूठ, मूली के बीज, फूलप्रियंगु, सरसों, ऐंठना) नष्ट होता है।
धमासा और केसर का लेप करने से पुराना सिम * दृष्टफलोऽयं योगः।
नष्ट होता है।
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ककारादि-अंजन
(२७७)
__अथ ककारादि धूपप्रकरणम् [९१८] कर्पूरधूपः (वृ. नि. र. । अर्श.) गृध्रोलूकपुरीषाणि यवानिमिश्रितं घृते ॥ रक्तौधशांतये देयं गुदे कर्पूरधूपनम् । संध्योरुभयोः कार्यमेतद्धृपनं शिशोः ॥ ___ यदि बवासीर से अधिक रक्त निकलता हो । निर्मली के फलों को प्रातः और सायंकाल तो गुदा में कपूर की धूनी देनी चाहिए। कुलथी, शंख का चूरा, गन्धक, गीध और उल्लू [९१९] कुलत्यादि धूपः (वृ. नि. र.। बाल.) | की विष्टा और अजवायन को धीमें मिला कर कुलत्थाः शङ्खचूर्णे च प्रदेयः पूर्वगन्धिकः। । धूनी देना हितकारक है।
अथ ककारादि अंजनप्रकरणम् [९२०] कणाद्यंजनम् (१) । की गिरी, हल्दी, आमला, हैड़, बहेड़ा, सरसों,
___ (वृ. नि. र. । नेत्र.) हींग और सोंठ को बकरे के मूत्र में पीसकर कणाछागशकुन्मध्ये पक्त्वा तद्रसपेषिता। । गोलियां बनावें। अचिराद्धंति नक्तांध्यं तद्वत्सलौद्रमूषणम् ॥ इन्हें आंखों में आंजने से बेहोशी, चित्तभ्रम,
पीपल को बकरी की मांगनियों के बीच में अपस्मार, भूतदोष, शिर और आंखोंके रोग तथा रखकर पकायें और फिर उन्हें बकरी की मींगनियों भ्रम का नाश होता है। के रसमें ही खरल करें। इस चूर्ण का अंजन [९२२] कतकफलादिः (१) (यो. र.। नेत्र.) करने से रतौंधे का नाश होता है। कतकस्य फलं घृष्ट्रां मधुना नेत्रमञ्जयेत् । ___ कालीमिर्च को शहद में मिला कर अंजन | ईषत्कर्पूरसहितं तत्स्यानेत्रप्रसादनम् ॥ करने से भी रतौंधा नष्ट होता है।
निर्मली के फलों को घिसकर उसमें जरासा [९२१] कणाद्यंजनम् (२) (पृ. नि.र. सन्नि.) | कपूर मिला कर शहद के साथ आंखोमें आंजने कणोषणोग्रालवणोत्तमानि | से नेत्र स्वच्छ होते हैं।
करञ्जबीजक्षणदामलानि । | [९२३] कतकफलादिः (२) । पथ्याक्षसिद्धार्थकहिंगुशुंठि
(यो. र. । नेत्र.) युतानि वस्ताम्बुविमिश्रितानि ॥ कतकस्य फलं शङ्ख सैन्धवं त्र्यूषणं सिता । पिष्ट्वा गुटीयं नयने विधेया | फेनो रसाञ्जनं क्षौद्रं विडंगानि मनःशिला ॥
प्रचेतनेति प्रथितान्वितार्था । सर्वमेतत्समं कृत्वा नारीक्षीरेण पेषयेत् । चित्तश्रमापस्मृतिभूतदोष
तिमिरं पटलं काचमर्मशुक्रं व्यपोहति ।। शिरोक्षिरोगभ्रमनाशहेतुः॥ निर्मली के फल, शंख, सेंधानमक, त्रिकुटा, पीपल, कालीमिर्च, बच, सेंधानमक, करंजवे मिश्री, समुद्रफेन, रसौत, शहद, बायबिडंग और
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भारत- - भैषज्य -
(२७८ )
मनसिल | सब चीज़े समान भाग लेकर स्त्री के दूध में पीसें ।
इसका अंजन करने से तिमिर, पटल, काच (मोतियाबिन्द), अर्म, शुक्र (फूला), खुजली, क्लेद (रतूबत) और अर्बुदादि नेत्र रोगों का नाश होता है । [ ९२४] करंजाद्यंजनम् (वृ. नि. र. नेत्र; वा. भ . ) करंजपद्मकिञ्जलकचन्दनोत्पलगैरिकैः । गोशकद्रससंपिष्टैर्न कान्ध्ये हितमंजनम् || करंजवा, कमल, कमलकेसर ( या कूठ ) चन्दन, नीलोफर और गेरू को गोबर के रसमें पीसकर अंजन करने से रतौंध का नाश होता है। [ ९२५] कस्तूरीकाथंजनम्
(बृ. नि. र. । सन्नि यो. र. ज्वरा . ) कस्तूरीमरिचं वाजिलाला च मधुनांजनम् । तंद्रां निवारयत्याशु व्योषं क्षिप्तं यथा नसि ॥
कस्तूरी और कालीमिर्च को घोड़े की लार में पीसकर शहद में मिलाकर अंजन करने या त्रिकुटे के चूर्ण की नस्य लेने से तन्द्रा का अत्यन्त शीघ्र
अथ ककारादि
[ ९२९] कणादि नस्यम् (बृ. नि. र. ज्व . ) कृष्णामल कसरामठदाववचाराजसर्षपरसोनैः । छागमूत्रपिष्टेनस्यश्चकादिरम् ॥
पीपल, आमला, हींग, दारु हल्दी, बच, सफ़ेद सरसों और ल्हसन को बकरी के मूत्र में पीसकर नस्य लेने से दैनिक आदि ज्वर नष्ट होते हैं। [९३०] करञ्जादि नस्यम् (वृ.नि. र. । र. का. घे. अप; यो. त. त. ३९; यो. र. ) करंजदारुसिद्धार्थकभी रामठं वचा ।
- रत्नाकर
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नाश होता है । [९२६] काश्मर्याद्यञ्जनम् (वृ. नि. र. । नेत्र यो. र. ) काश्मरी पुष्पमधुकदार्वीलोधरसांजनैः । सक्षौद्रमंजनं कुर्यात्पित्तव्याधिप्रशांतये ॥
खम्भारी के फूल, मुल्हैठी, दारूहल्दी, लोध्र और रसौत को पीसकर शहद में मिलाकर अंजन करने से पिज नेत्र रोगों का नाश होता है। [ ९२७] कृष्णांजनम् (भा. प्र. । उन्मादे) कृष्णामरिच सिन्धूत्थ मधुगोरोचनाकृतम् । अंजनं सर्वदेवादिकृतोन्मादहरं परम् ॥
पीपल, कालीमिर्च, सेंधानमक और गोरोचन को पीस कर शहद में मिलाकर अंजन करने से देवादिकों के कोप से उत्पन्न हुवा उन्माद नष्ट होता है।
[ ९२८] कृष्णांद्यजनम् (बृ. नि. र. । सन्नि. ) कृष्णामनः शिलाताल मंजनमेव तंद्रिके त्विष्टम् ।
पीपल, मनसिल और हरताल को पीसकर अंजन करनेसे तन्द्रिक सन्निपात का नाश होता है।
नस्यप्रकरणम्
समंगा त्रिफला व्योषः प्रियंगुश्च समशकः ॥ बस्तमूत्रेण संपिष्ट्वा नस्यपानांजनादिषु । योज्यो योगोयमुन्मादेऽपस्मारे भूतरोगिषु ||
करंजवा, देवदारु, सरसों, मालकंगनी, हींग, बच, मजीठ, त्रिफला, त्रिकुटा और फूलप्रियंगु, बराबर २ लेकर बकरे के मूत्र में पीसकर नस्य, पान और अंजन आदि द्वारा प्रयोग करने से उन्माद, अपस्मार और भूतव्याधि का नाश होता है।
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ककारादि-रस
(२७९)
[९३१] कर्कोटक्यादि नस्यम् मिर्च, पीपल और बच को बकरे के मूत्र में पीसकर
___ (वृ. नि. र. । विष.) नस्य देने से तन्द्रिक सन्निपात का नाश होता है । वंध्याकर्कोटकीमूलं छागमूत्रेण भावितम् ।। [९३४] कृष्णादिनस्यम् (बृ. नि. र. सन्नि.) नस्य कांजिकसंपिष्टं विषोपहतचेतसः ॥ अपनयति कंठकुब्ज कृष्णापामार्गयुड्नस्यम् ।
बांझककोड़े की जड़ को बकरी के मूत्र की | अथ हंति सलिलसहितं भावना देकर रक्खें । इसे कांजी में पीसकर नस्य | त्रिकटुककतुंबिनीनस्यम्॥ देने से विषका प्रभाव नष्ट होता है। ___ पीपल और चिरचिटे के चूर्ण की अथवा पानी [९३२] कुमारीकंदनस्यम् (वृ.नि.र. । काम.) में पिसे हुवे त्रिकुटे और कड़वी तोरी के बीजों किंवा तोयेन सा पिष्टः कुमारीकंदनस्यतः। | की नस्य देनेसे कंठकुब्ज सन्निपात का नाश जायते[१] कामलोपेता पित्तनेत्रांतकामला(१)। होता है।
घीकुमार की जड़ को पानी में पीसकर नस्य | [९३५] कलिंगादि अवपीडनम् देने से कामला और कामला से उत्पन्न हुआ नेत्रों
(वृ. नि. र.। नासा.) का पीलापन नष्ट होता है।
कलिंगहिंगुमरिचं लाक्षाखरसकट्फलैः । [९३३] कुष्ठादिनस्यम् (पृ. नि. र.। सन्नि.) | कुष्ठोग्राशिनु जंतृप्नैरवपीडः प्रशस्यते ।। कुष्ठगवाक्षीनागरनिशाद्वयमरीचकणावचायुक्तम्। इन्द्रजौ, हींग, कालीमिर्च, लाख का स्वरस, बस्तसलिलेन पिष्टं तंद्रिकहिस्रं भवेनस्यम् ॥ कायफल, कूठ, बच, सहंजना और बायबिडंग से कूट, इन्द्रायन, सौंठ, हल्दी, दारुहल्दी, काली- | अवपीड़न करने से नासा रोगों का नाश होता है।
__ अथ ककारादि रसप्रकरणम् [९३६] कजली (१) (र. रा. सु. । ज्व.) । अनुपान भेदसे समस्त रोगों का नाश करनेवाली है। शुद्धस्तं तथा गन्धं खल्वे तावद्विमईयेत् । [९३७] कजल्याः प्रकारान्तरम् (२) सूतं न दृश्यते यावत्किन्तु कालबद्भवेत् ।।
(र. रा. सुं. । ज्व.) एषा कालिकाख्याता बृंहणी वीर्यवर्द्धनी।। कंटकारी सिन्धुवारस्तथा पूतिकरञ्जकम् । नानानुपानयोगेन सर्वव्याधिविनाशिनी ॥ । एतेषां रसमादाय कृत्वा खर्परखण्डके ।। एतत्कजलिका विधानं रसपदीपे प्रोक्तम् ॥ प्रक्षेप्यं गन्धकं तत्र तां च मृद्वग्निना दहेत् । ___शुद्ध पारद और शुद्ध आमलासार गन्धक | गन्धके स्नेहतापन्ने तत्समं पारदं क्षिपेत् ॥ को खरल में डालकर इतना घोटें कि पारद अदृश्य | मिश्रीकृत्य ततो द्वाभ्यां द्रुतं तमवतारयेत् । हो जाय और दोनों चीजें मिलकर कज्जल के आमदयेत्तथा तत्तु यथा स्यात्कजलप्रभम् ॥ समान हो जाय । इसका नाम "कज्जली" है। १ औषधियोंका कल्क बनाकर उसका रस
यह (कज्जली) बृंहणी, वीर्य वर्द्धनी और नाक में निचोड़नेको नाम “अवपीडन' है।
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(२८०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर।
ततस्तु रक्तिकाम त्य माषकं जीरकस्य च। शुद्ध पारे और शुद्ध गन्धक की कज्जली को मापैकं लवणस्यापि पर्णे कृत्वा निधापयेत् ॥ गोमूत्र और अरण्ड के तेल के साथ पीनेसे ज्वरे त्रिदोषजे घोरे जलमुष्णं पिबेदनु। | अण्डवृद्धि का अत्यन्त शीघ्र नाश होता है। छया शर्करया दद्यात्सामे दद्यात्तथा गुडम् ॥ [९३९] कटुकाचं लौहम् (र. र. । शोथ.) क्षये छागभवं क्षीरं प्रदद्यानुपानकम् । कटुका त्र्यूषणं दन्ती विडंगं त्रिफला तथा। रक्तातिसारे कुटजमूलवल्कलजं रसम् ॥ चित्रको देवदारुश्च त्रिवृद्दारुणपिप्पली ॥ रक्तवान्तो तथा दद्यादुदुम्बरभवं जलं। चूर्णान्येतानि तुल्यानि द्विगुणं स्यादयोरजः। सर्वव्याधिहरश्चायं गन्धकः कजलीकृतः॥ क्षीरेण तुल्यमेतच्च श्रेष्ठं इवयथुनाशनम् ॥ आयुर्वद्धिकरश्चैव मृतं चापि प्रबोधयेत् ॥ । कुटकी, त्रिकुटा, दन्ती, बायबिडंग, त्रिफला, ___कटेली, संभालू और नाटाकरंजवे के रसको चीता, देवदारु, निसोत और गजपीपल । प्रत्येक एक ठीकरे में डालकर उसमें गन्धक का चूर्ण | का चूर्ण १-१ भाग और लोह चूर्ण सबसे दोगुना डालकर मंदाग्नि पर रक्खें । जब गन्धक पिंगल | लेकर एकत्र मिलाकर दूध के साथ सेवन करने जाय तो उसमें समान भाग पारद डाल कर उसे | से शोथ (सुजन) रोग नष्ट होता है। जल्दीसे मिलाकर नीचे उतार लें और (खरलमें
| [९४०] कनककन्दर्प रसः (र. र. । वाजी.) डालकर) खूब घोटें; यहां तक कि घुटते २ कज्जल
| पूर्वसिद्धे रसे क्षिप्त्वा रसपादेन काश्चनम् । के समान स्याह हो जाय। सेवन विधि-सन्निपात ज्वर में-१ रत्ती
विमर्यापि विधानेन सुपिष्टश्च विनिक्षिपेत् ।।
कान्तवैक्रान्तयोरेवं क्षिप्ते तत्र विधानतः। यह कज्जली और १ माशा जीरे का चूर्ण तथा १ माशा सेंधानमक मिलाकर पान में रखकर खिलावें
मधुरत्रयसंयुक्तं माषमात्र दिने दिने । और ऊपर से गरम पानी पिलावें । वमन में
लीड्ढ्वानुपानं पातव्यं मन्दतप्तं गवां पयः । चीनी (खांड) के साथ, आमदोष में गुड़ के
त्रिसप्तदिवसैःक्षीणो भवेदक्षीणधातुकः॥
उर्द्धलिंगःसदातिष्ठेद्रावयेद्वनिताशतम् ॥ साथ, क्षय में बकरी के दूध के साथ, रक्तातिसार
___ पूर्वोक्त (हेमांग सुंदर) रसमें यदि पारे का में कुड़े की जड़ की छाल के रसके साथ और खून की उल्टी में गूलर के रस के साथ देना
१ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, सोनेका भस्म
और लोहभस्म बराबर २ लेकर तांबेके खरचाहिये।
लमें कज्जली बनावें फिर उसे सरा और यह कज्जली सर्व व्याधिनाशक, आयुवर्द्धक
| काले धतूरे के स्वरसमें ३-३ दिन तक स्वरल और आसन्नमृत्यु मनुष्य को भी जीवनदान देने करें। इसके पश्चात् ३ दिन तक सरसों के तेल वाली है।
| में घोटकर धूपमें सुखावें फिर उसे यथा विधि [९३८] कजली (३)(वृ. नि. र. । अण्डवृद्धि) बालुका यन्त्र में उस समय तक पकावे जब
तक कि बालु गरम न हो जाय । इसके पश्चात् गोमूत्रैरण्डतैलाभ्यां रसगंधककजली।
| उसे स्वांगशीतल हो जाने पर निकाल कर पीत्वा निहति सहसा पदि वृषणसंभवाम् ॥ रोग और रोगी को शारीरिक अवस्थानुसार
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ककारादि-रस
चौथा भाग स्वर्ण भस्म तथा कान्त लोह और वैक्रान्त भस्म मिलाली जाय तो उसका नाम "कनक कन्दर्प रस" हो जाता है ।
इसे १ माशे की मात्रानुसार मिश्री, शहद और घीमें मिलाकर अल्प गरम गोदुग्ध के साथ २१ दिन तक सेवन करने से धातुक्षीणता दूर होकर अत्यन्त काम वृद्धि होती है ! व्यवहारिक मात्रा १ रत्ती ।
[९४१] कनकसंकोचरस : (र. र । कुष्ठे ) मृतस्वर्णाभ्रकं शुण्ठीं शुद्धभूतं त्रिभिः समम् । अम्लैर्मर्यन्तु तद्गोलं पिष्ट्वा तुल्यं च गन्धकम्। कटुतैलयुतं पाच्यं लौहे च मृदुनाग्निना । द्रवैजीर्ण विचूथ वह्निमूलकटुत्रिकैः ॥ स्वग्विडङ्गविषैस्तुल्यैः त्रिगुणं त्रिफलाविषात । अजामृत्रे दिनं पिष्ट्रा गुञ्जकां भक्षयेद्वटीम || निष्कैकं बाकुचीतैलं पिवेद्विस्फोटकुष्ठजित् । रसः कनकसंकोचोद्विगुंजं योजयेत्क्रमात् ॥
1
सोनेकी भस्म, अभ्रकभस्म और सोंठ प्रत्येक १–१ भाग, शुद्ध पारा ३ भाग एवं शुद्ध गन्धक ६ भाग लेकर कांजीमें घोटकर गोला बनावें और फिर उसे कड़वे तेलमें लोहे के पात्र में मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश बिलकुल सूख जाय तो उस का चूर्ण करके उसमें चीतेकी जड़, त्रिकुटा, दालचीनी, बायबिडंग और शुद्ध मीठा तेलिया १-१ भाग और त्रिफला ३ भाग, इनका चूर्ण मिलाकर १ दिन तक बकरीके मूत्रमें घोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां बनावें ।
१ रत्ती, आधा माशा या १ माशे की मात्रा में सेवन करावें । इसका नाम "हेमांग सुंदर
रस" है ।
(२८१)
इसे १ रत्तीकी मात्रानुसार १ निष्क ( २ - ३ रत्ती) बावचीके तेलके साथ सेवन करनेसे विस्फोटक और कुष्ठका नाश होता है ।
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इसकी मात्रा क्रमशः बढ़ा कर २ रत्ती तक की जा सकती है।
[ ९४२] कनकसिंदूररसः
(वृ. नि. र. । क्षय.)
रसः कनकभाङ्गिकः (?) कनकमाक्षिकस्तालकः शिलारसकगंधका रससमाः सतुत्था इमे । विमर्ध पयसा रवेः सकल मे तदस्योपरि द्रवैः प्रतिदिनं पृथक् तदिति भावयेद् बुद्धिमान् जयामुनिकलिप्रियादहनभृङ्गयासोद्भवैविभाव्य च रसस्ततः सुदृढगोलकं स्वेदयेत् । मृगांकवदयार्द्रकद्रवभरेण तं सप्तधा विमर्थ च कटुत्रयांबुभिरयं क्षयस्यांतकृत् ॥ रसः कनकसिंदूरी भवतिसन्निपातेप्ययं सदार्द्रकरसैस्तथा पवनगुल्मशूलादिहत् । सविश्वघृत योजितः सकलमत्र पथ्यं मृगांकवदथापरं किमपि नैव योज्यं क्वचित् ॥
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शुद्ध पारा, स्वर्ण भस्म, सोनामक्खी भस्म, शुद्ध हरताल, शुद्ध मनसिल, खपरिया भस्म, गन्धक और शुद्ध नीला थोथा : बराबर २ लेकर कज्जली करके आकके दूध, अरनी, अगस्ति, बहेडा, चीता, भांगरा और बांके रसकी एक एक भावना दें। फिर उसका गोला बनाकर “मृगांक रस" की विधिसे पकायें फिर अदरक और सोंठ, कालीमिर्च और पीपल के रसकी ७-७ भावना दें। यह रस क्षयका नाश करता है । इसे अद्रक रसके साथ देनेसे सन्निपात सोंठके चूर्ण तथा घृतके साथ देनेसे वातज गुल्म और शूलादि नष्ट होते हैं। इसके सेवनमें
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(२८२)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
समस्त आहार विहारादि "मृगांक रस" में कथित | तोला, शुद्ध गन्धक ३॥ तोला, ताम्र भस्म ६० आहार विहारके समान करने चाहिये। रत्ती, अभ्रक भस्म १। तोला, सोनामक्खी भस्म [९४३] कनकसुन्दरो रसः (१)
६० रत्ती, बंग भस्म ६० रत्ती, सुरमा ९० रत्ती, (रसे. सा. सं.। ज्वराति.)
लोह भस्म २॥ तोला, शुद्ध मीठातेलिया ९० रत्ती हिंगुलं मरिचं गन्धं टङ्कणं पिप्पली विषम् ।
| और कलिहारी ५ तोला। कनकस्य च बीजानि समांशं विजयादवैः॥ । सबको १ दिन नींबूके रसमें घोटकर लघुपुट मईयेद्याममात्रन्तु चणमात्रा वटी कृता। .
| देकर चूर्ण करें। भक्षणाद्ग्रहणी हन्ति रसः कनकसुन्दरः॥ इसे १ मासेकी मात्रानुसार अद्रक या ल्हसन अग्निमान्ा ज्वरं तीव्रमतिसारश्च नाशयेत् ।। के रस के साथ सेवन कराने से घोर सन्निपात, ___ शुद्ध शिंगरफ़, काली मिर्च, शुद्ध गन्धक, | किलास, सब प्रकारके कुष्ठ, विसर्प, भगन्दर,ज्वर, सुहागेकी खील, पीपल, शुद्ध मीठा तेलिया और | विषदोष और अजीर्ण आदि रोगोंका नाश होता है धतूरेके बीज, बराबर २ लेकर चूर्ण करके १ | | व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती। पहर तक भांगके रसमें घोटकर चने के बराबर | [९४५] कनकसुन्दरो रसः (३) गोलियां बनावें।
(रसे. सा. सं. । यक्ष्मा .) ___ इसको सेवन करनेसे संग्रहणी, अग्निमांद्य,ज्वर | रसस्य तुर्यभागेन हेमभस्म प्रयोजयेत् । और प्रबल अतिसारका नाश होता है । मनःशिला गन्धकञ्च तुत्थं माक्षिकतालकम् ॥ [९४४] कनकसुन्दरो रसः (२) विष टङ्कणकं सर्व रसतुल्यं प्रदापयेत् ।
(वृ. नि. र.। ज्वरे) मईयेत्सर्वमेकत्र खल्लपात्रे च निर्मले ॥ कनकस्याष्टशाणा स्युःसूतो द्वादशभिर्मतः। | जयन्तीगराजोत्थैः पाठाया वासकस्य च । गन्धोपि द्वादशप्रोक्तस्ताम्रशाणद्वयोन्मितम् ॥ अगस्तिलांगलाग्नीनां खरसैश्च पृथक् पृथक् । अभ्रकस्य चतुःशाण माक्षिकं च द्विशाणकम् ।। भावयित्वा विशोप्याथ पुनश्चाकवारिणा । वङ्गो द्विशाण सौवीरं त्रिशाणं लोहमष्टकम् ।। सप्तधा भावयित्वा च रसः कनकसुन्दरः॥ विषं त्रिशाणिकं कुर्याल्लांगलीपलसंमिता। | गुञ्जाद्वयं त्रयं वास्य राजयक्ष्मप्रशान्तये । मर्दयेदिनमेकं च रसैम्लफलोद्भवैः॥ मधुना पिप्पलीभिर्वा मरिचैर्वा घृतान्वितम् ॥ दद्यान्मृदुपुटे वह्नौ ततःसूक्ष्मं विचूर्णयेत् । सन्निपाते प्रदातव्यमा कस्य रसेन वै । माषमात्रो रसो देयःसन्निपाते सुदारुणे ॥ जयपालरजोभिर्वा गुल्मिने शूलरोगिणे॥ आईकस्वरसेनैव रसोनस्य रसेन वा । | अम्लवज्यं चरेत्पथ्यं बल्यं हृद्यं रसायनम् । किलासं सर्वकुष्ठानि विसपं च भगंदरम् ॥ वर्जयेल्लवणं हिंगु तक्रं दधि विदाहि यत् ।। ज्वरं गरमजीणे च जयेद्रोगहरो रसः।। सोना भस्म १ भाग, शुद्ध पाग, शुद्ध मन
धतूरेके बीज २॥ तोला, शुद्ध पारा ३॥ ! सिल, शुद्ध गन्धक, तृतिया, सोनामक्खी मस्म,शुद्ध
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ककारादि-रसप्रकरणम्
(२८३)
हरताल, शुद्ध मीठा तेलिया और सुहागेकी खील । तक्रेण श्लेष्मवातोत्थे वातपित्त घृतान्वितम् । ४-४ भाग लेकर चूर्ण करके स्वच्छ खरल में | श्लेष्मपित्ते चाकेण निर्गुण्ड्या सान्निपातिके॥ जयन्ती, भांगरा, पाठा, बांसा, अगस्ति, कलिहारी | फलत्रयेण शूलेषु विषमेषु ज्वरेष्वपि । और चीतेके रसकी १-१ भावना दें। फिर सुखा- | आर्द्रकेणाथ वा दद्याद्वह्निमांद्ये विशेषतः ।। कर अद्रकके रसकी ७ भावना देकर रक्खें। | अभिष्यंदे शिरःशूले गायत्री बोल संयुतम् ।
इसे २-३ रत्तीकी मात्रानुसार शहद और | एकांगे च धनुर्वाते क्षीरयुक्तं च पीनसे ॥ पीपल या कालीमिर्च तथा घीके साथ सेवन कराने | पांडुरोगे क्षये कासे मरिचाज्यश्च कामले । से राजयक्ष्माका नाश होता है।
अजमोदाविडंगैश्च नाभिशूलेऽग्निमांद्यके । ___ सन्निपातमें अद्रकके रसके साथ और गुल्म | रूक्षज्वरेऽरुची देयाकदलीफल संयुतः । अथवा शूल रोगमें जमाल गोटे के चूर्णके साथ | बोलेनाऽर्धकटीशूले भाषितं नागबोधिना ॥x सेवन करना चाहिये।
शुद्ध पारा, रूपामक्खी भस्म, कांतिसारलोह पथ्य-बल्य, हृद्य और रसायन पदार्थ ।
भस्म, अभ्रकभस्म, सीसाभस्म, स्वर्णभस्म और परहेज़-खटाई, नमक, हींग, छाछ और |
पृथ्वीभट प्रत्येक वस्तु समान भाग तथा शुद्ग विदाही पदार्थ ।
गन्धक सबके बराबर । सबको घोटकर विद्याधर [९४६] कनकसुन्दरो रसः (४)
यन्त्र द्वारा अरने उपलों में पुट दें, फिर स्वांग शीतल (र. र. स. । अ. १५; र. प्र. सु; अ. ८) होने पर निकाल कर उसमें समान भाग त्रिकुटेका स्याद्रसं धौतमाक्षीकं कांतानं नागहाटकम् । | चूर्ण मिलावें। पृथ्वीभटेन संतुल्यं सर्वतुल्यं च गंधकम् ॥
| यह बवासीर, कमर की पीड़ा, नेत्र पीड़ा, दत्वा विद्याधरे यंत्रे पुटेदारण्यकोत्पलैः। खाङ्गशीतलमुद्धृत्य त्र्यूषणेन विमिश्रयेत् ॥
सन्निपात, क्षय, खांसी, श्वास, मन्दाग्नि, ज्वर, अर्शोव्याधौ कटीशूले चक्षुःशूले च दारुणे।
कर्णशूल, शिरशूल, दन्तपीड़ा, पीनस, तिल्ली, हृदय
की पीड़ा, प्रन्थिवात, एकांगवात (अधरंग) धनुसत्रिपाते क्षये कासे श्वासे मंदानले ज्वरे॥ कर्णशूले शिरःशूले दंतशूले प्रयोजयेत् ।।
ति, कंपवात, मूर्छा, सब प्रकारके विषम ज्वर पीनसे प्लीह्नि हृच्छ्ले ग्रंथिवाते च दारुणे॥
तथा अन्य अनेक रोगों का नाश करता है। एकांगे वा धनुर्वाते कंपवाते च मूर्छिते। इसे १ रत्ती की मात्रानुसार यथोचित अनुज्वरांश्च विषमान्सर्वान्हंति रोगाननेकधा॥ | पान के साथ सेवन कराना चाहिए एवं पथ्य सेवितः पथ्ययोगेन रसः कनकसुंदरः।। पालन कराना चाहिये। गुञ्जामानं ददीतास्य यथा युक्तानुपानतः॥
___x स्वर्णभस्म ८ माशा, सूत १२ निष्क. घृतेन संयुतो वाते मधुना पैत्तिके ज्वरे।
।
।
| लोहभस्म ८ निष्क, नागभस्म २ तोला, विष पिप्पल्या श्लैष्मिके देयं पित्तोद्भूते च चंदनम् ॥ तथा गन्धकका अभाव है-र. प्र. सू.
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(२८४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
इस रस को वातज्वर में घृत के साथ, । गोला बनाकर पुटपाक करे । फिर उसमें त्रिकुटा, पित्तज्वर में शहद या चन्दन के साथ, कफ ज्वर चीता, बायबिडंग और शुद्ध मीठे तेलिये का चूर्ण में पीपल के चूर्णके साथ, कफवात ज्वर में छाछ । आधा आधा भाग और नवीन काकड़ा सींगी तथा के साथ, वातपित ज्वर में घृत के साथ, कफ पित्त । देवदारु उपरोक्त रस के बराबर मिलाकर बकरी के ज्वर में अदरक के रसके साथ, सन्निपात में संभालु मूत्र में घोटकर १-१ रत्ती की गोलियां बनावें । के रस के साथ, शूल और विषमज्वर में त्रिफला के इनके सेवन से कफ के कोप से उत्पन्न हुआ साथ, मन्दाग्नि में अदरक के रस के साथ, अभि- भयंकर कुष्ठ, वातज तथा कफज त्वग्विकार, गुदप्यन्द (आंखों का दुखने आना) और शिर शूल रोग (बबासीर आदि) और अग्निमांद्य का नाश में खैरसार और बोल (मुरमुकी) के साथ, एकांग, | होता है। (पक्षाघात) धनुर्वात और पीनस में दूध के साथ, [९४८ कन्दर्परसः (भै. र, । औप. मे.) पांडु, क्षय, खांसी और कामला में कालीमिर्च के | रसं गन्धं प्रवालच काञ्चनं गिरिमृत्तिका । चूर्ण और घी के साथ, नाभिशूल और अग्निमांद्य | वैक्रान्तं रजतं शई मौक्तिकच समं समम ॥ में अजमोद तथा बायबिडंग के चूर्ण के साथ, न्यग्रोधस्य कषायेण भावयित्वा च सप्तथा । रूक्ष ज्वर और अरुचि में केले की फली के साथ | वल्वोन्माना वटीं कृत्वा त्रिफलाकाथवारिणा॥ तथा कमर के आधे भाग में शूल हो तो बोल के | सुरप्रियस्यार्जुनस्य काथेनाभाम्भसापि वा। साथ सेवन कराना चाहिए।
औपसर्गिकमेहस्य शान्त्यर्थ विनियोजयेत् ॥ [९४७] कनकसुंदरो रसः (५) ____ शुद्ध पारा,शुद्ध गन्धक, मूंगाभस्म, सोनाभस्म, (र. र. स. । अ. र.)
गेरू, वैक्रान्तभस्म, चांदी भस्म, शंख भस्म और मोती समतुलकनकोत्थव्योमसवोत्थपिष्टीं । भस्म बराबर बराबर लेकर बड़ (बरगद) के क्वाथ द्विगुणवलिसमेत गोलमध्ये विपाच्य ॥ की सात भावना देकर १-१ बल्ल (२-३ रत्ती) त्रिकटुदहनवेल्लैर्वत्सनाभभागार्धभागैः ।
की गोलियां बनावें। रससमनवशृंगीदारुयुक्तः समस्तैः ॥
इन्हे औपसर्गिकमेह (सूजाक) की शांति के अजसलिलविपिष्टैगुंजया तुल्यगोलः ।
| लिए त्रिफला, देवदारु, अर्जुन या कीकर के क्वाथ कुपितकफसमुत्थं हंति कुष्ठं गरिष्ठम् ।।
| के साथ सेवन कराना चाहिए। तदपरमथ वात श्लेष्मजत्वग्विकारम् । [९४९] कन्दर्पसुंदरो रसः । गुदगदमपि सर्व वह्निमांद्य सुनिंद्यम् ।।
(र. रा. सु. रसा. र. प्र. सु.) तुष्टेन शंभुना दिष्टः रसोऽयं कनकसुंदरः। सूतां वज्रमहिमुक्ता तारं हेमसिताभ्रकम् । त्वग्विकारविनाशाय कुबेराय महात्मने ॥ | रसैकासकानेतान् मर्दयेदरिमेदजैः ॥
सोने की भस्म और अभ्रक सत्व १-१ भाग | प्रवालं चूर्णगन्धस्य द्विद्वि कर्षो विमिश्रयेत । तथा शुद्ध गन्धक ४ भाग लेकर खरल करके | प्रवालं चूर्णगन्धस्य विमर्य मृगशृंगके ॥
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ककारादि-रसप्रकरणम्
(२८५)
क्षिप्त्वा मृदुपुटे पक्त्वा भावयेद्धातकीरसैः। इसे ४ माशे की मात्रानुसार रात्री के समय काकोलीमधूकं मांसी बलात्रयविषगुदम् ॥ ! मिश्री, आमला और विदारीकन्द के १। तोला द्राक्षा पिप्पलि बंदाकं वरी पर्णीचतुष्टयम् ।। चूर्ण तथा १। तोला घी में मिलाकर खाकर ऊपर परूषकं कसेरुश्च मधुकं वानरी तथा ॥ से १० तोला दूध पिया जाय तो अत्यधिक कामभावयित्वा रसैरेषां शोषयित्वा विचर्णयेत। | वृद्धि होती है एवं अत्यन्त सम्भोग से भी कुछ एलात्वक् पत्रकं मांसी लवंगागरु केशरम् ॥ हानि नहीं होती। मुस्तं मृगमदं कृष्णा जलं चन्द्रश्च मिश्रयेत् । [९५०]कपर्वको रसः (र. र. । र. पि.) एतच्चूर्णेःशाणमितैःरसं कन्दर्पसुन्दरम् ॥ मृतं वा मूर्छितं सूतं कार्पासपुष्पजैवैः। खादेच्छाणमितं रात्रौ सिताधात्रीविदारिका । मर्दयेद्दिनमेकन्तु तेन पूर्या वराटिका ॥ एतेषां कर्षचूर्णेन सस्पिष्कर्षेण सम्मितम ॥ | निरुध्य चान्धमृषायां भाण्डे रुदुवा पुटे पचेत । तस्यानु द्विपलं क्षीरं पिबेत्सुखितमानसः। उद्धृत्य चूर्णयेच्छलक्ष्णं मरिचेर्द्विगुणैः सह ।। रमणीरमयेद्वहीन हानि कापि गच्छति ॥ | गुञ्जकैकं घृतैर्लेय रक्तपित्वं नियच्छति । ___ शुद्ध पारा, हीरकी भस्म, सीसेकी भस्म, कपर्दकरसोनामासाध्यं च साधयत्यलम् ।। मोती भस्म, चांदी भस्म, सोने की भस्म, मिश्री उदुम्बरफलं पक्कं घृतैःपाच्यं सितायतम । और अभ्रक भस्म । सब समान भाग लेकर कपास भक्षयेन्मरिचयुक्तमनुस्याद्रक्तपित्तनुत । और बिट् खदिर (खैर भेद) के रस में घोटे । फिर ___रस सिंदूर को १ दिन पर्यंत कपास के इसमें मूंगा और शुद्ध गन्धक का चूर्ण २॥ २॥ फूलों के रस में घोटकर कौड़ियों के अन्दर भर दें तोला मिलाकर खरल करके हरिन के सींग में भर और अन्धमूषा में बन्द करके उस मूषा को किसी कर उसका मुंह बन्द करके लघु पुट में फूंकें, फिर बरतन के अन्दर बन्द करके पुट लगादें । फिर उसे निकाल कर धायके फूल, काकोली, महुआ, स्वांग शीतल होने पर निकाल कर दो गुनी काली जटामांसी, खरैटी, कंधी, गंगेरन, शुद्ध मीठातेलिया, मिर्चों के साथ मिलाकर खूब महीन खरल करें। इंगुदी (हिंगोट), दाख, पीपल, बन्दा, शतावर, इसमें से १ रत्ती दवा धी के साथ खाकर शालपर्णी, पृष्टपर्णी, मुद्गपर्णी, माषपणां, फालसा, उसके ऊपर गूलर के पक्के फलों को काली मिर्च कसेरू, मुल्हैठी और कौंच के बीजों के रस या और मिश्री के साथ घी में पकाकर खाने से काथ की भावना देकर सुखाकर चूर्ण करें । दुस्साध्य रक्तपित्त का नाश होता है। इसके पश्चाद् इसमें निम्न लिखित औषधियों का | [९५१] कफकुंजरो रसः चूर्ण मिलावें।
(यो. चि. म. । अ. ३) इलायची, दालचीनी, तेजपात, जटामांसी, | नागं पारदसंयुतं समरिच सवत्सनागं शुभम् । लौंग, अगर, केसर, नागरमोथा, कस्तूरी, पीपल, | देवालीरसभावना मुनिमिता कच्चरिकाकल्लयोः।। सुगन्ध बाला और कपूर प्रत्येक का चूर्ण ४-४ माशे।। देयं वल्लमितं महौषधरसैः सनागवल्लीदलैः।
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(२८६)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
श्लेष्मवातविकारजाठर परेस्यात्सन्निपाते ज्वरे।।। इसे १ रत्ती की मात्रानुसार बकरी के मूत्र के ___ सीसे की भस्म, शुद्ध पारा, कालीमिर्च और | साथ सेवन कराने से कफज कुष्ठ का नाश शुद्ध मीठा तेलिया समान भाग लेकर खरल | होता है । करके, देवदाली, कौंच और अकरकरेके रस की T
[९५४] कफकेतुः (भै. र. । ज्व.)
om ७-७ भावना दें।
दग्धशङ्ख त्रिकटुकं टङ्कन समभागिकम् । ___ इसे १ बल्ल (२-३ रत्ती) की मात्रानुसार
विषश्च पश्चभिस्तुल्यमार्द्रतोयेन मर्दयेत् । अदरक के रस और पानके रसके साथ सेवन कराने से, कफज और वात रोग, उदर विकार तथा
वारत्रयं रक्तिकाञ्च वटीं कुर्याद्विचक्षणः ।
प्रातःसायञ्च वटिकाद्वयमाद्रकवारिणा ॥ सन्निपातका नाश होता है।
| कफकेतुःकण्ठरोगं शिरोरोगञ्च नाशयेत् । [९५२] कफकुठाररसः
पीनसं कफसङ्घातं सन्निपातं सुदारुणम् ॥ ___ (र. रा. सुं । ज्व.)
___शंखकी भस्म, सोंठ, कालीमिर्च, पीपल और पारदं गन्धकं व्योषं मृततानं मृतायसम् ।
सुहागेकी खील १-१ भाग और शुद्ध मीठा तेलिया कंटकारीफलद्रावैर्भाव्यं तद्यामयुग्मकम् ॥
५ भाग लेकर खरल करके अदरक के रस की रोहिण्यास्तु रसेनैव धत्तूरस्वरसेन च ।
| भावना देकर १-१ रत्ती की गोलियां बनावें। गुंजाद्वयं पर्णखण्डैदेयं श्लेष्मज्वरापहम् ।।
___प्रातः और सायंकाल २-२ गोली अदरक ___शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, त्रिकुटा, ताम्र भस्म
के रस के साथ सेवन करने से कंठरोग, शिरोरोग, और लोह भस्म, बराबर २ लेकर कटेली के |
पीनस, कफ और सन्निपातका नाश होता है। फल के रस, कुटकी के रस तथा धतूरे के स्वरस | में २-३ पहर तक घोटें।
____ + एक गुजराती विद्वान निम्न प्रकार इसे २ रत्ती की मात्रानुसार पान के साथ | अर्थ करते है:-सोना भस्म १ तोला, अभ्रक खिलाने से कफज ज्वर का नाश होता है।
भस्म १ तोला, पारद १ तोला लेकर तीनों
को खूब घोटें जब पारद मिल जाए तो एक [९५३] कफकुष्ठहरो रसः कढाही में तेल चुपडकर उसमें ६ तोला गन्धक (र. र. स. । अ. २०)
डालें और अग्नि पर चढादें। जब गन्धक कनकाभ्रकसंकोचस्तैलगंधकपाचितः।
पिघल जाए तो उसमें उपरोक्त चीजों का
चूर्ण और जरासा तेल डालकर थोड़ी देर विषव्योषाब्दवेल्लत्वक्तुल्यस्त्रिगुणचित्रकः॥ पकायें फिर यथाविधि पर्पटी बनाकर बारीक गुंजामानोजमूत्रेण पिण्डितः श्लेष्मकुष्ठनुत् ॥ चूर्ण करें और उसमें वछनाग, त्रिकुटा, नाग
सोना भस्म, अभ्रक भस्म, केसर (या फिट- | रमोथा, बायबिडंग और दालचीनी सब बराकरी), शुद्ध गन्धक, शुद्ध मीठातेलिया,त्रिकुटा, नागर |
बर २ लेकर चूर्ण करके पर्पटी के बराबर
मिलावें तथा चीतामूल का चूर्ण २७ तोला मोथा, बायबिडंग और दारचीनी प्रत्येक १ भाग,
मिलाकर बकरी के मूत्र में घोटकर १-१ चीता ३ भाग । सब का चूर्ण करके तेल में पकावें। रती की गोलियां बनावें ।
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ककारादि-रसप्रकरणम्
(२८७)
[९५५] कफकेतुरसः (१)
कफगदकुलकेतुः स्याद्रसो माषमात्रः । (र. रा. सुं। कास.) समधुरिति निहन्ति प्रोत्कटं श्लेष्मरोग । आकल्लकं च सविषं समुद्रफलसंयुतम्। अनुभवति कषायौनिम्बजः पेयमस्मिन् (?) प्रत्येकं समभागं च द्विगुणं मरिचं ततः॥ | पवनशमनमात्रं (?) पथ्यमुष्णाम्बुसेव्यम् । आर्द्रकस्य रसेनैव मर्दयित्वा प्रयत्नतः।
___ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्रभस्म, शुद्ध गुञ्जामात्रामिमां चैव वटी कुय्योद्विचक्षणः॥ | हरताल, पोखरमूल, हींग, सेंधानमक और कुटकी भुक्तेयं नाशयत्याशु कफरोगं न संशयः॥ | के चूर्ण को एकत्र करके चौलाई, देवदाली, कड़वी
___ अकरकरा, शुद्ध मीठा तेलिया और समन्द- तोरी और नीले फूलवाले संभालू के रसकी भावना रफल १-१ भाग और कालीमिर्च २ भाग लेकर । देकर उड़द के बराबर गोलियां बनावें । अदरकके रसमें घोटकर १-१ रत्ती की गोलियां
इसे शहद के साथ खाकर ऊपर से नीमका बनावें। इन्हें सेवन करनेसे कफरोगोंका नाश
क्वाथ पीनेसे प्रबल कफ का नाश होता है। होता है।
पथ्य-वायु न करने वाले पदार्थ और [९५६] कफकेतुरसः (२)
ऊष्ण जल। (र. रा. सुं। कासे)
[९५८] कफकेतुरसः (४) भर्जितं टंकणं क्षारं पिप्पलीमरिचं तथा ।
(र. रा. सुं। कर्ण.) आकल्लकं विषं शुद्धं वराटीभस्म एव च ।।
| व्योषमिजलबीजं च शंखभस्मविषान्वितम् । सर्वाणि समभागानि सूक्ष्मचूर्ण विधाय च। द्विगुञ्जमात्रकं दद्यात् कफकेतुरयं रसः॥ |
| मरिचसदृशं खादेत् कफकेतुमहारसम् ॥ कासश्वासौ शीतवातं नाशयेन्नात्र संशयः॥
त्रिकुटा, समुद्रफल, शंख भस्म और शुद्ध सुहागे की खील, पीपल, कालीमिर्च, अकर.
। मीठा तेलिया, बराबर २ लेकर काली मिर्च के करा, शुद्ध मीठा तेलिया और कौड़ी की भस्म, |
समान गोलियां बनावें। बराबर २ लेकर महीन चूर्ण करें। ___ इसके सेवन से कफज रोगों का नाश होता है । ___ इसे. २ रत्ती मात्रानुसार देने से खांसी, श्वास | [९५९] कफकेतु रसः (५) और शीतवायु का नाश होता है।
(रसे. सा. सं. । कफरो.) [९५७] कफकेतुरसः (३) टंकणं मागधी शङ्ख वत्सनाभं समं समम् ।
(र. रा. मुं. । कासे; र. का. छर्दि.) आर्द्रकस्य रसेनापि भावयेदिवसत्रयम् । रसवलिरवितालान् पौष्करं हिंगुसिन्धूद्भवम् । गुजामात्रं प्रदातव्यमार्द्रकस्य रसेन वै । कटुकीरजस्तत् सर्वमेकत्र पिष्टम् ॥ पीनसं श्वासकासश्च गलरोगं गलग्रहम् ।। घनरवसुरदालीतिक्तकोशातकीभिः। दन्तरोगं कर्णरोग नेत्ररोग सुदारुणम् । तदनु च ननु भाव्या (१) कृष्णनिर्गुण्डिनीरैः।। सन्निपातं निहन्त्याशु कफकेतुरसोत्तमः ।।
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(२८८)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
सुहागे की खील, पीपल, शंख भस्म और | गोप्यागोप्यतः सुखेन सुलभः शुद्ध मीठा तेलिया बराबर २ लेकर ३ दिन
सर्वत्र सिद्धोऽस्त्ययम् । तक अदरक के रसमें घोटें।
| वैद्यानां कमलाविलासकरसोऽत्यंत यशस्कारकः।। __ इसे १ रत्ती की मात्रानुसार अदरक के रस
| लोह भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध गन्धक, शुद्ध के साथ देनेसे पीनस, श्वास, खांसी, गलरोग,
, श्वास, खासा, गलराग, | पारद, सोने की भस्म और हीरे की भस्म समान गलग्रह, दन्तरोग, कर्णरोग, नेत्ररोग और सन्निपात
भाग लेकर घीकुमार के रसमें घोटकर गोला बनावें, का नाश होता है।
फिर उसके ऊपर अरण्ड का पक्का पत्ता लपेट कर [९६०] कफचिन्तामणि रसः
डोरे से मजबूत बांध दें और अनाज के ढेरमें (रसे. सा. सं. । कफरो.)
दबा दें। फिर तीन दिन पश्चात् निकाल कर हिंगुलेन्द्रयवं टंकं त्रैलोक्यबीजमेव च। महीन चूर्ण करलें। मरिचञ्च समं सर्व विभाग रससिन्दुरम् ॥
___इसे यथोचित मात्रानुसार शहद और त्रिफले आर्द्रकस्य रसेनैव मईयेद्याममात्रकम् ।
के काथ के साथ सेवन करनेसे जरा (बुढ़ापा) और चणकाभा वटी कार्या सर्ववातपशान्तये ॥ ।
व्याधि का नाश होकर सुख प्राप्त होता है। कफरोग निहन्त्याशु मास्करस्तिमिरं यथा ॥ शुद्ध शिंगरफ, इन्द्रजौ, सुहागेकी खील, भांग
___यह सब प्रकार के प्रमेह, पांच प्रकार की के बीज और कालीमिर्च, १-१ भाग, तथा रस
खांसी, पांडु, हिचकी, घाव, कफ, वायु, हलीमक, सिन्दूर ३ भाग लेकर १ पहर तक अद्रक के | अग्निमांद्य, खुजली, कोढ़, विसर्प, विद्रधि, मुखरोग, रसमें घोटकर चनेके बराबर गोलियां बनावें।
अपस्मार (मिरगी) आदि अनेक रोगों का नाश इनके सेवन से समस्त वात रोग और कफ रोगों का नाश होता है।
यह वैद्यों के लिए अत्यन्त यशकर और हर
| स्थान में आसानी से तैयार हो सकने वाला अत्यन्त [९६१] कमलाविलास रसः (र. र. स. । अ. २६)
गोपनीय रस है। लोहाघौ बलिस्तहाटकपविस्तुल्यं कुमारीरसे । [९६२] कम्पवातारि रसः पक्कैरण्डदलैर्निवध्य सुदृढं सद्धान्यराशौ व्यहम् ॥ (र. रा. सुं. । वा. व्या.) क्षिप्त्वोद्धृत्यविचूर्णितंमधुवरोयुक्तंयथासात्म्यतः मृतंसूतं मृतं तानं मर्दयेत्कटुकीद्रवैः । कृष्णात्रेयविनिर्मितं गदजराविध्वंसि सौख्यप्रदम् एकविंशतिवारं तच्छोष्यं पेष्यं पुनः पुनः ।। आझासिद्धमिदं रसायनवरं सर्वपमेहप्रणुद । । चणमात्रां वटीं खादेत्सर्वागकंपवातहत् ॥ कासं पञ्चविधं तथैव तनुगं पाण्डु च हिकांबणम्। रस सिन्दूर और ताम्र भस्म, बराबर २ लेप्माणं पवनं हलीमकगई हन्याच मन्दानलम् लेकर उन्हें कुटकी के रसकी २१ भावना देकर कण्डकुष्ठविसर्पविद्रधिमुखापस्मारकाचाजयेत् ।। चने के बराबर गोलियां बनावें ।
करता है।
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ककारादि-रस
(२८९)
इनके सेवन से सौगगत कंपवायु (शरीर का गंधक की कजली करें फिर अन्य सब चीजें मिला कांपना) नष्ट होता है।
कर ल्हसन, अदरक, सहजना, अरनी की जड़ और [९६३] कम्पवातहरो रसः केलेके रसकी पृथक् ७-७ भावना देकर
(र. रा. सुं; । वा. व्या.) खूब घोटें। तकस्य पलान् पंच पलैकं ताम्रचूर्णकम् । । इसे १ वल्ल (२--३) रत्ती) की मात्रानुसार जंबीराणां द्रवैःपिष्टं सूततुल्यं च गंधकम् ॥ सेवन करने से कर्णरोगों का नाश होता है। नागवल्लीद्रवैःपिष्टं ताम्रपिष्टं प्रलेपयेत् ।
[९६५] कर्पूर रसः (भै. र. । अति.) रुद्ध्वागजपुटे पाच्यंभूधरे यामपंचकम् ॥
हिंगुलमहिफेनश्च मुस्तकेन्द्रयवं तथा । आदाय चूर्णयेत्तुल्यैस्त्र्यूषणैःसममिश्रितम् ।
जातिफलश्च कर्परं सर्व संमर्य यत्नतः ॥ अर्दोगकंपवाताों भक्षयेत्तत् द्विगुंजकम् ॥
| जलेन वटिका कार्या द्विगुञ्जा परिमाणतः। शुद्ध पारा २५ तोला, तांबे की भस्म ५
| ज्वरातिसारिणे चैत्र तथातिसाररोगिणे ॥ तोला और शुद्ध गन्धक २५ तोला लेकर कजली
| ग्रहणीषझकारे च रक्तातिमार उल्षणे । करके जंबीरी नीबू और पान के रसमें घोट कर । उसे तांबे के पत्रों पर लेप करदें फिर शरावसंपुट
| अत्र केचिट्टंकणप्येकभागमिच्छति ॥ करके गजपुट में भस्म करें। इसके पश्चात् उसे
शुद्ध शिंगरफ, अफीम, नागरमोथा, इन्द्रजौ, पांच पहर तक भूघरयन्त्र में पकावें फिर चूर्ण
जायफल और कपूर समान भाग लेकर खरल करके
पानी के द्वारा २-२ रत्ती की गोलियां बनावें । करके उसके बराबर त्रिकुटे का चूर्ण मिलावें।। ____ इसे २ रत्ती की मात्रानुसार सेवन करने से
इनके सेवन से ज्वरातिसार, अतिसार, छ: अग वात (अधरंग) और कम्पवात का नाश
| प्रकार की संग्रहणी और रक्तातिसारका नाश होता है। होता है ,
नोट- इसमें कोई कोई १ भाग सुहागा भी [९६४] कर्णरोगहरो रसः
डालते हैं। (र. र. स. । अ. २३) [९६६] कर्पूराद्यो रसः वज्रवैक्रांतविमलतुत्थनागविषान्वितैः ।
(र. रा. सु. । प्रमे.) तुल्यपारदगंधाश्ममाक्षिकैः कज्जलीकृतः ॥ कर्पूरगीउन्मत्तबीजं जातीफलं तथा। लशुनाकशिग्रूणामरण्या मूलकस्य च । मृतानं मृतलोहश्च पुनागरसं तथा ॥ पृथग्रसैः कदल्याश्च सप्तधा परिभावयेत् ॥ एलापुन्नागधान्याकं विषं व्योषलवंगकम् । एवं सुपिष्ट्वा बल्लेन सेवितः कर्णरोगनुत् ॥ । तालीसपत्रं पत्रं च जयाबीजं त्वचं तथा ।।
हीरे की भस्म, वैक्रान्त भस्म, विमल (रूपा अकर्करं नागवला तुल्यांशेन समन्वितम् । मक्खी) भस्म, शुद्ध नीलाथोथा, सीसा भस्म, शुद्ध | चूर्ण कृत्वा सितातुल्यं दत्वा सेवेद्यथा बलम्॥ मीठातेलिया, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और सोना- इवासं प्रमेहं च सरक्तपित्तमक्खी भस्म बराबर २ लेकर प्रथम पारे और। प्रस्वेदवातंबहुसन्निपातम् ॥
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(२९०)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
खरक्षयश्चाशु जयेद्विचित्रम् । आईकेण सममेष भक्षितो कर्पूरसंज्ञः कथितो रसोऽयम् ॥
हन्ति वातकफसम्भवं ज्वरम् । (उन्मत्तबीजसंभूतं तैलं वात्रापि पूजितः) | श्वासकासमुखप्रसेकशीतताकपूर, अतीस, धतूरे के बीज, जायफल,
वह्निमान्यविषुचींश्च नाशयेत् ॥ अभ्रक भस्म, लोह भस्म, रांगभस्म, सीसा भस्म,*
नस्येन स्वेन हरति शिरोति कफवातजाम् । इलायची, नागकेसर, धनिया, शुद्ध मीठा तेलिया, | मोहं महान्तमपि च प्रलापं वयधुग्रहम् ।। त्रिकुटा, लौंग, तालीस पत्र, तेजपात, भांग के बीज, शुद्ध पारद १। तोला, शुद्ध गन्धक १। तोला, दालचीनी, अकरकरा और नागबला (गंगेरन) सब
शुद्ध मीठातेलिया १। तोला, मनसिल १। तोला, चीजें समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । फिर इसमें
विमल (रूपा मक्खी) भस्म १। तोला, सुहागे की इसके बराबर मिश्री मिलाकर रक्खें ।
खील १। तोला, सोंठ २।। तोला, पीपल २॥ तोला,
कालीमिर्च १२।। तोला। इसे बलानुसार यथोचित मात्रा में सेवन
प्रथम पारद और गन्धक के सिवाय सब चीजों करने से श्वास, प्रमेह, रक्तपित्त, पसीना, वायु, । को सिलपर पीसकर कपड़े से छान लें फिर खरल में सन्निपात और स्वरक्षय का नाश होता है।
यह चूर्ण और पारद तथा गन्धक डालकर २ नोट-इस प्रयोग में धतूरे के बीजों का तैल | पहर तक घोटें। भी डाला जा सकता है।
यह वात और कफ के रोगों का नाश करता [९६७] कल्पतरु रसः
है इसे अदरक के रसके साथ सेवन करने से वात(भा. प्र.। ज्व; र. रा. सुं.) कफजज्वर, श्वास, खांसी, मुंहसे रतूबत आना, शुद्धं शङ्करशुक्रमक्षतुलितं मारारिनारीरज | | शीत, अग्निमांद्य और हैजे का नाश होता है । स्तद्वत्तावदुमापतिस्फुटगलालङ्कारवस्तु स्मृतम्। इसकी नस्य से कफवातज, शिरपीड़ा, अत्यन्त तावत्येव मनःशिला च विमला तावत्तथा टङ्कणं | मोह, प्रलाप और लीक बन्द होना दूर होता है। शुण्ठी द्वयक्षमिता कणा च
[९६८] कल्पतरु रसः (२) ___ मरिचं दिक्पालसंख्याक्षकम्
__ (र. रा.। सु. कासे) विषादिवस्तूनि शिलोपरिष्टा
निष्कमात्रं विषं दद्यान्मरिचं चाष्टनिष्ककम् । द्विचूर्णये द्वाससि शोधयेच्च । पलाई करहाचूर्ण निष्कपटककुलिञ्जनम् ।। ततस्तु खल्वे रसगन्धको च
जातीफलं पलार्द्रश्च जातीकेशरकं तथा। चूर्णश्च तद्यामयुगं विमर्यम् ।। शोषणं कर्षमात्रन्तु चूर्णयेत्सर्वयत्नतः ॥ कल्पतरुनामधेयो यथार्थनामा रसः श्रेष्ठः । क्षौद्रेण च भक्तं स्यादिमं गुंजाचतुष्टयम् । समीरणश्लेष्मगदान्हरते मावास्य स्मृता गजैका। कासं श्वासं क्षयं कुष्ठं ग्रहणीवह्निमान्यनुत् ।। _* रस शब्द से काई नागरस" (सीसा) पुष्टिवीयबलोत्साहं भजते कामिनीशतम् । ओर कोई रससिन्दू लेते है। वातश्लेष्मभवान् रोगान् प्रमेहाचैक विंशतिः॥
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ककारादि-रस
(२९१)
R
अनुपानविशेषेण निहन्ति विविधान् गदान ।। मेध्यं रसायनवरं सकलामयानां रसःकल्पतरुर्नामा शंकरेण विनिर्मितः ।।
नाशाय यक्ष्मनिवहे कथितं हरेण ॥ ____ शुद्ध मीठा तेलिया ३ माशा, कालीमिर्च २ वज्राभ्रक की उत्तम भस्म ५ तोले लेकर उसे तोला, आकरकरा २॥ तोला, कुलिंजन १॥ तोला, | आमला, नागरमोथा, बड़ी कटेली, शतावर, ईख, जायफल २॥ तोला, जावित्री २॥ तोला और | बेल, अरनी, सुगन्धवाला, बासा, कटेली, सोनापाठा, पीपल ११ तोला लेकर विधिवत खरल करें। पाढल और बला (खैरटी) के ५-५ तोला रस में
इसे शहद के साथ ४ रत्ती की मात्रानुसार | पृथक् २ घोटकर १-१ रत्ती की गोलियां बनावें । सेवन करने से खांसी, श्वास, क्षय, कुष्ठ, संग्रहणी, इसके सेवन से यक्ष्मा, क्षय, सब प्रकार के अग्निमांद्य, वातकफज रोग और बीस प्रकार के शोष रोग, कफ, पित्त, अरुचि, बदन टूटना, शोथ, प्रमेहों का नाश होता है तथा पुष्टि, वल, वीर्य, स्वरक्षय, अजीर्ण, उदर्द, शूल, प्रमेह, ज्वर, विषउत्साह और कामशक्ति की वृद्धि होती है । यह | विकार, उरोग्रह, पांडु, हिचकी, कृशता (दुबलापन), अनुपान भेदसे अनेक रोगों का नाश करता है।। कृमि, अम्लपित्त, तिल्ली, हलीमक, रक्तगुल्म, तृष्णा, [९६९] कल्याणसुन्दरानम् आमवात, दुष्ट संग्रहणी, विस्फोटक, कुष्ठ, आंखो के (भै. र. । रा. य.)
रोग, मुख रोग और शिरोरोग, मूर्छा, वमि और वज्राश्रमेकपलिकं पुटनैःसुजीर्ण
विरसता (जायका खराब होना) आदि रोगों का धात्रीपयोदयहतीशतमूलकेक्षु ।
| नाश होता है। यह रस बलकारक, मेधावर्द्धक, बिल्वामिमन्थजलवासककण्टकारी
वीर्यवर्द्धक और अत्युत्तम रसायन है । श्योनाकपाटलिबलाचरसैरमीषाम् ।। [९७०] कल्याणसुन्दरो रसः सम्मर्दितं पलमितैः पृथगेकशश्च
(भै. र. हृदोगे.) गुञ्जासमं सुबलितं वटिकाकृतश्च । | सिन्दूरमभ्रं तारश्च तानं हेमं च हिगुलम् । यक्ष्मक्षयौ सकलशोषबलासपित्तं सर्व खल्लतले क्षिप्त्वा मर्दयेद् वन्हिवारिणा ॥
श्वासं समीरमरुचिं सकलाङ्गसादम् ॥ हस्तिशुण्डयम्भसा पश्चाद्भापयित्वा च सप्तधा। शोथं स्वरक्षयमजीर्णमुदईशूलं
गुञ्जामात्र वटीं कृत्वा कोणतोयेन दापयेत् । मेहं ज्वरं विषमुरोग्रहपाण्डुहिक्काः। | उरस्तोयश्च हृद्रोगं वक्षोयातमुरोऽस्रकम् । कार्य कृमि बलविनाशनमम्लपित्तं फौप्फुसान् हन्तिरोगाश्च रसाकल्याणसुन्दरः॥
प्लीहामयं सहहलीमकमस्रगुल्मम् ॥ | रस सिन्दूर, अभ्रक भस्म, चांदी भस्म, ताम्र तृष्णामवातनिचयं ग्रहणीं प्रदुष्टां भस्म, सोना भस्म और शुद्ध शिंगरफ। सब चीजें
विस्फोटकुष्ठनयनास्यशिरोगदांश्च । समान भाग लेकर चीते के क्वाथ में घोटें फिर मूछी वमि विरसतां विनिहन्ति सद्यः । हाथीसुंडीके रस की सात भावना देकर १-१
कल्याणसुन्दरमिदं सुवृष्यम् ॥ रती की गोलियां बनावें ।
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(२९२)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
इन्हें गरम पानी के साथ सेवन करनेसे ; भस्म, कस्तूरी और शुद्ध मनसिल ११-१। तोला उदरस्तोय (लूरिसी-फुफ्फुसावरणमें पानी भर जाना) | लेकर खरल करके पानी से २.२ रत्ती की गोलियां हृद्रोग, छातीके वातज रोग, छाती से खून आना | बनावें ।
और फुस्फुस (फेफड़े) के रोगों का नाश होता है। | । इन्हें दोषानुसार यथोचित अनुपान के साथ [९७१] कस्तूरीभैरवो रसः । सेवन करने से अनेक उपद्रवयुक्त क्षय, खांसी, कफ,
(र. सा. सं. । ज्व.) पित्त, बीस प्रकार के प्रमेह और अस्सी प्रकार के हिंगुलश्च विपं टंक जातीकोषफलन्तथा। वातज रोगों का अत्यन्त शीघ्र नाश होता है, तथा मरिच पिप्पली चैव कस्तूरी च समं समम् ॥ बलवीर्य की वृद्धि होती और मेटू दृढ़ होता है। रक्तिद्वयं ततः खादेत्सन्निपाते सुदारुणे ॥ इसके सेवन से कांचन के समान कान्ति और
शुद्ध शिंगरफ, शुद्ध मीठातेलिया, सुहागे की | कामदेव के समान कमनीय शरीर होता है। यह खील, जावित्री, जायफल, कालीमिर्च, पीपल | अत्यन्त वाजीकरण है। इसे प्रातः काल सेवन और कस्तूरी बराबर २ लेकर २-२ रत्ती की करना चाहिए। गोलियां बनावें। ___इनको सेवन करनेसे दारुण सन्निपात का |
[९७३] काश्चायनरसः नाश होता है।
(र. र. । र. खं. । २ उप.) [९७२] काश्चनाभ्ररसः (र. र. । राजय.)
मृतस्तसमं गन्धं काकमाच्या द्रवैदिनम् । काञ्चनं रससिन्दूरं मौक्तिकं लौहमभ्रकम् ।
मर्दितं चान्धितं पच्यात्करीपाग्नौ दिवानिशम्।। विद्रुममभयातारं कस्तूरी च मनःशिला ।।
दिव्यौषधदलद्रावर्दिनं मद्य तमन्धयेत् । प्रत्येकं बिन्दुमात्रं च सर्व मद्य प्रयत्नतः ।
ध्मातं तस्मात्समुद्धृत्य तत्तुल्यं हाटकं मृतम् ।। वारिणा वाटिका कार्या द्विगुंजाफलमानतः ।।
एकीकृत्य घृतेर्लेचं मापैकं वत्सरावधि । अनुपानं प्रयोक्तव्यं यथादोषानुसारतः।
जरी मृत्यु निहन्त्याशु सत्यं काञ्चायनो रसः॥ नानारोगप्रशमनं सर्वोपद्रवसंयुतम् ॥ काकमाचीद्रवैर्भाव्यं चूर्ण धात्रीफलोद्भवम् । क्षयं हंति तथा कासं श्लेष्मपित्तहरं तथा । मधुना भक्षयेत्कर्षमनुस्यात्क्रामक परम् ।। प्रमेहाविंशतिं चैव दोषत्रयसमुत्थितान ॥ रससिन्दूर और शुद्ध गन्धक बराबर बराबर अशीति वातजारोगानाशयेत्सद्य एव हि। लेकर १ दिन मकोय के रस में घोटकर अन्धबलवृद्धिं वीर्यवृद्धि लिंगजाडयं करोति च ॥ मूषा में बन्द करके १ दिनरात जंगली उपलों की रसोऽयं सुश्रुतप्रोक्तो वाजीकरणमुत्तमम्। | अग्नि में पकावें फिर उसे निकाल कर १ दिन काश्चनस्य समा कान्तिर्मदनस्य समं वपुः॥ | दिव्यौषधि (सोमलता) के पत्तों के रसमें घोटकर भक्षयेत्प्रातरुत्थाय रसोऽयं कांचनाभ्रकम् ॥ सुखाकर अन्धमूषा में बन्द करके पुनः पकावे ।
सोनेकी भस्म, रससिन्दूर, मोती भस्म, लोह- इसके पश्चात् उसमे समान भाग सोनेकी भस्म भस्म, अभ्रक भस्म, मूंगा भस्म, हरीतकी, चांदी | मिलाकर खरल करें।
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ककारादि-रस
(२९३)
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इसे १ माशे की मात्रानुसार घीके साथ १ । रेतितं कान्तचूर्णस्य मणैकं सूक्ष्मचूर्णितम् । वर्ष पर्यन्त सेवन करने से जरा (बुढ़ापा) और त्रिफलामूत्रसंक्षुण्णं शरावेषु परिक्षिपेत् ॥ (अकाल) मृत्यु का नाश होता है।
गर्ता हस्तप्रमाणस्य वनश्छाणकैभृता । (व्यवहारिक मात्रा १-२ रत्ती) तत्र गर्भपुटं दत्त्वा ह्यग्निं प्रज्वालयेत्ततः ।।
दवा खाने के पश्चात् मकोय के रसमें घोटा खांगशीतलता प्रासं चूर्ण संपेषयेत्पुनः । हुवा १ तोला आमले का चूर्ण शहद में मिलाकर क्षुण्णं तेनैव मूत्रेण शरावे च क्षिपेत्पुटेत् ॥ चाटना चाहिये।
एकविंशतिवारांश्च देयो युक्त्यानया पुटः । [९७४] कान्तरसायनम्
सूक्ष्मं चूर्ण मुहुः कार्य मूत्रे क्षुण्णं पुटे पुटे । (र. र. स. । अ. २६) वस्त्रमृत्तिकयोपेतं गर्तागर्ने क्षिपेन्मुहुः। कातं तुल्याभ्रसत्वं चरणपरिमित हेम तत्तुल्यमकं चूर्ण कान्तायसं जातं सिन्दूरानं पयस्तरम् ।। वैकातं ताप्यरूपं कृमिहरकटुकैस्तुल्यभागैःसमेतम् गद्याणैकोऽस्य चूर्णस्य देयः सर्वेषु रोगिषु । लीढं देवद्रुतैलैविरचयति नृणां देहसिद्धिं समृद्धा उचितं यश्च रोगाणामनुपानं च दीयते ।। पथ्यं कल्पोक्तमुक्तं हरति च
अष्टवल्लात्मकं सत्वं गुडूच्यास्तावती सिता । सकलान् रोगपुंजाञ्जवेन ॥ शीतोदकेन वै देयो गद्याणः पाण्डुरोगिषु ॥ तदेतत्सर्वरोगनं रम्यं कांतरसायनम् । बलक्षीणेषु मेहेषु रक्तदोषे वरेषु च । सेव्वं वृष्यं सुपुत्रीय मांगल्यं दीपनं परम् ॥ | नाशयत्येव रोगांश्च कान्तलोहरसायनम् ॥
कान्तिसार लोह भस्म १ भाग, अभ्रक सत्व १ मन त्रिफला को १ घड़ा गोमूत्र में धीरे १ भाग, सोना भस्म, ताम्र भस्म, वैक्रान्त भस्म | धीर सात दिन तक घोटें फिर उसमें १ मन
और सोनामक्खी भस्म प्रत्येक चौथाई भाग बाय- कान्तिसार लोहे का बारीक बुरादा मिलाकर शराव बिडंग और कुटकी प्रत्येक १ भाग लेकर चूर्ण बनावें। संपुट करें । अब १ हाथ गहरे गढ़े में जंगली
इसे देवदार के तेलके साथ देनेसे देहसिद्धि | उपले भरकर मध्यमें शराव संपुट रखकर अग्नि और समृद्धि प्राप्त होती है एवं अनेक रोगों का | लगा दें। फिर स्वांग शीतल होने पर निकाल कर अत्यन्त शीव नाश हो जाता है।
उसी प्रकार गोमूत्र में घोटे हुवे त्रिफला के चूर्ण यह "कान्त रसायन" सर्वरोग नाशक अत्यु- | के साथ पुट दें। इसी प्रकार २१ पुट दें। हर बार त्तम, सेवन करने योग्य, वृष्य, पुत्रोत्पादन की | शराव संपुट पर कपड़ मिट्टी कर लेनी चाहिए। शक्ति देने वाली, मंगलकारक और अग्निदीपक है। इस प्रकार २१ पुट देने से लोह चूर्ण सिन्दूर [९७५] कान्तलोहरसायनम् | के समान लाल और दूध पर तैरने योग्य हो जायगा।
(र. चि. म. । ८ स्तब्कः) ___इसे १ गद्याण (६ माशे) की मात्रानुसार गोमूत्रभृतकुम्भेन पेषयेत् त्रिफलामणम् । यथोचित अनुपान के साथ समस्त रोगों में देन एकसप्ताहपर्यन्तं मर्दयेत्सुन्दरं शनैः ॥ चाहिए । पाण्डु में ३ माशा गिलोय के सत और
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(२९४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
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३ माशा मिश्री के साथ मिलाकर ठंडे पानी के सात दिन तक घोटे, फिर बांसे के रस या मुण्डी के साथ देना चाहिए।
रस, तालमूली के या दशमूल के रस में एवं जिन ___ यह रसायन कमज़ोरी, प्रमेह, रक्तविकार | रोगों में प्रयोग करना हो उन रोग को नाश करने और ज्वरादि का नाश करता है। (व्यवहारिक | वाली औषधियों के रसमें सात सात दिन तक घोटे । मात्रा १-२ रत्ती)
__ प्रथम पश्च कर्म के द्वारा देह की शुद्धि करके [९७६] कान्ताभ्रकम् (१) | यह रसायन त्रिफला के चूर्ण तथा शहद और घीके
(र. र. स. । अ. २६) साथ सेवन करने से पांडु, सूजन, उदररोग, अफारा, कान्ताभ्रकशिलाधातुविषस्तकमाक्षिकम् ।। संग्रहणी, शोष, खांसी, संततज्वर, पुराना बुखार, शीलितं मधुसर्पिभ्यां व्याधिवाक्यमृत्युजित्॥ विषमज्वर, सब प्रकारके कुष्ठ और बीस प्रकार के
कांतिसार लोह भस्म, अभ्रक भस्म, शिला- प्रमेहों का नाश होता है। जीत, शुद्ध मीठा तेलिया, शुद्ध पारा और सोना-[९७८] कामदीपकरसः मक्खी भस्म बराबर २ लेकर चूर्ण करके शहद
|
(र. र. । वाजी.) और घीके साथ सेवन करने से व्याधि, बुढ़ापा | गंधकस्य त तोलैकं कृत्वा वै तण्डुलाकृतिम् । और (अकाल) मृत्यु का नाश होता है ।
दत्वा गद्रवं रौद्रे भावयेदिनसप्तकम् ॥ [९७७] कान्ताधकम् (२)
तच्चूर्ण प्रक्षिपेत्तत्र प्रत्येकं माषकद्वयम् । (र. र. स.। अ. २६)
जातीफलस्य कोषस्य तथा चंद्रलवंगयोः ॥ सिद्धमभ्रं समं कान्तं मर्दयेदावारिणा ।
तत:सगुडक कृत्वा तस्य गुंजाचतुष्टयम् । कलांशं हेमचूर्णस्य बीजपूररसे पुनः॥
अभ्यर्च्य भास्करं प्रातर्भक्षयेत्प्रत्यहं ततः ॥ मर्दयेत्खल्वमध्यस्थं यावत्सप्तदिनावधि । आर्दक सैन्धवोपेतं मरिचस्य च सप्तकम् । आटरूपरसेनैव तथा मुण्डीरसेन वा ॥
| सचानुचर्वणं कृत्वा पिबेत्क्षीरपलद्वयम् ॥ तालमूलीरसेनैव दशमूलीरसेन वा।
अनेनैव प्रयोगेण स्थविरोऽपि युवायते ॥ तत्तद्रोगहरैः काथैर्भावयेत्सप्तधा भिषक् ।।
१ तोला गन्धक के बारीक २ चावल त्रिफलाव्योषचूर्ण च मध्वाज्याभ्यां प्रयोजयेत् । जैसे टकड़े करके उन्हें सात दिन तक धूपमें भांगरे पश्वकर्मविशुद्धेन सेव्यमेतद्रसायनम् ॥ । के रसकी भावना दे। पाण्डुशोफोदरानाहग्रहणीशोषकासजित् । । फिर उसमें जायफल, जावित्री, कपूर और सततं सततं चैव पुराणां विषम ज्वरम् ॥ लौंग का २-२ माशे चूर्ण मिलाकर गुड़में मिला निहन्यात्सर्वकुष्ठानि प्रमेहान्विशति जयेत् । कर ४--४ रत्ती की गोलियां बनावें । कान्ताभ्रकमिदं प्रोक्तं रसायनमनुत्तमम् ॥ प्रतिदिन प्रातः काल सूर्य की वन्दना के
अभ्रक भस्म और कान्त लोह भस्म १-१ पश्चात् १ गोली खाकर थोड़ासा अदरक और भाग लेकर अदरक के रसमें घोटें फिर उसमें १६. | सेंधानमक तथा ७ काली मिर्च चबाकर १० तोला मां भाग सोना मिलाकर विमरे नींबू के रसमें । दूध पियें ।
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ककारादि-रस
(२९५)
इस प्रयोग से वृद्ध भी युवा के समान हो | खट्टे पदार्थो से परहेज़ करें और रोज़ दूध के साथ जाता है।
सेंभलकी मूसली तथा खांड, आमला और कौंच के [९७९] कामदूतरसः
बीजों का सेवन करें। ___ (र. र. । वाजी. 1 धन्व.) ___इसके सेवन से वीर्य, बुद्धि और पुष्टि तथा सूतं गंध कान्तभस्मापि तुल्यं
कामशक्ति प्राप्त होती है। याम नीरैशाल्मलीसम्भवोत्थैः। [२८०] कामदेवरसः (१) गोलं कृत्वा वेष्टयित्यन्धमू
(र. चिं. म. । ७ स्तष्कः) राढयपक्त्वा काचकुप्यां निधाय ॥
कामदेवमथो वक्ष्ये कामिनां कामदं परम् । तोयं भूकूष्मांड नागवल्ली च
यस्य प्रभावतो रम्या रमन्ते रमणैः स्त्रियः॥ पिष्टवा दद्याद्रात्रिमेकान्तयत्नात् ।।
पारदं पलमेकं स्याद् द्विपलं शुद्धगंधकम् । सिद्धःसूतःकामदेवस्य वल्लं__ मध्वाज्याभ्यां योजयेत्तत्रिसप्तम् ।।
बटुफल्याच तोयेन विमर्च काचकूप्यके ।। खण्डं दुग्धं चानुपाने च दद्या
निक्षिप्य टङ्कणं दत्त्वा मुखं तस्य निरुध्यते । द्रात्रौ दुग्धं शक्यमाने च देयम् ।
वालुकायन्त्रमध्ये तं कूपकं कुरुते दृढम् ॥ पेयं तिक्तं रूक्षं वर्जयित्वाति
वेदयामावधि वह्नि शनैः कुर्यान्न चाधिकम् । चाम्लनित्यं शाल्मली क्षीरयुक्तम् ॥
शीतमादाय तत्रस्थं रसं समुद्धरेत्ततः॥ खण्ड धात्रीवानरीमूलदुग्धं
दरदेन समं रक्तं सोज्ज्वलं भस्म जायते । पुष्टिं वीर्य जायते तत्प्रभृतम् ।
भव्यं तच नयेच्छ्रीमघृतेन मधुना समम् ॥ कुर्यानित्यं रम्यकान्ताविनोदं
पश्चाद् दुग्धं शुभं भुक्तं कृष्णेक्षुश्चापि शर्करा। ___कृत्वा दिव्यं कामदेवं रसेन्द्रम् ॥
द्राक्षाखर्जूरमधुकं प्रातः प्रातश्च भक्षयेत् ॥ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और कान्तिसार लोह
मनोभिरामरामाभी रमतेऽक्षीणसदलः । की भस्म बराबर२ लेकर (कजली करके) १ पहर
निगुंडिकारसेनायं वातोत्थामतिवेदनाम् ।। तक सेंभल के रसमें घोटें । फ़िर उसका गोला बना
वेगेन शमयत्येव नूतनं च वपुर्भवेत् । कर उसे अन्धम्षा में बन्द करके पुट लगावें। फिर
अर्द्धशेषेण दुग्धेन भक्षितोऽयं महारसः ॥ उसे निकाल कर कांचकी शीशी में भरकर उसमें
वंध्यानामपि जायंते पुत्रकाश्चिरजीविनः । विदारीकन्द और पान का रस डालकर एक रात
उद्यानचारी च भवेचन्द्रं चन्द्रमुखीं भजेत् ॥ रहने दें।
दिव्यकायो भवेदेव मानवश्चास्य सेवनात ॥ इसे ३ रत्ती की मात्रानुसार शहद और धीमें | शुद्ध पारद ५ तोला, शुद्ध गन्धक १० तोला मिलाकर २१ दिन तक सेवन करें और दवा खाने | लेकर कजली करके सोना पाठा (या नागर मोथा) के बाद खांड युक्त दूध पियें तथा रात्री को भी | के रसमें घोट फिर उसे आतशीशीशीमें भर कर यथाशक्ति दूध पिएं एवं तिक्त, रूक्ष और अधिक | ऊपरसे सुहागा भर कर उसका मुंह बन्द कर दें
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(२९६)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर।
फिर उसे बालकायन्त्र मे ४ पहर तक मंदाग्नि पर। इसे सूर्योदय के समय से प्रारम्भ करके १-१ पकावें (अग्नितेज न होने पावे ) जव स्वांग शीतल | पहरके अन्तर से १-१ रत्ती के हिसाब से दिन हो जाय तो शीशी में से औषधि को निकाल कर में ४ मात्रा पान के साथ सेवन करें। सुरक्षित रक्खे। इस का रंग शिंगरफ के समान पथ्य-दिन को लवण रहित दूध भात लाल होगा।
। खावें और रात को इच्छानुसार दूध पियें । इसे धी और शहद में मिलाकर दूध के साथ ||९८२] कामदेवरसः (३) सेवन करना चाहिये एवं प्रातःकाल काली ईख, । (र. र. स. । अ. २७) खांड, दाख, खजूर और मुल्हठी खानी चाहिये। हेमपादयुतः सूतो मर्दितः शाल्मलीरसैः ।
इस के सेवन से अत्यन्त काम-वृद्धि होती | कदलीकंदनिर्यासे क्षीरेक्षरसगोघृते ॥ है। संभालू के रस के साथ सेवन करने से वातज | माक्षिके चासकृत्स्विनः शाल्मलीक्षीरगोक्षुरैः । पीडा अत्यन्त शीघ्र शान्त होती है एवं शरीर नवीन शर्करामलकद्राक्षामुशलीमाषमाक्षिकैः ।। हो जाता है। इसे अर्द्धशेष ( पकाते पकाते आधा |
युक्तो रंभाफलं दत्त्वा कामदेव इति स्मृतः। शेष रहा हुवा ) दूध के साथ सेवन करने से वंध्या | मेवनालिका
| सेवनार्ध्वलिङ्गः स्याद् द्रावयेद्वनिताशतम् ।। स्त्री को भी चिरञ्जीव पुत्रोत्पादन की शक्ति प्राप्त
सोनेकी भस्म ( या वर्क) १ भाग, पारद होती है।
(रससिंदुर) ४ भाग। दोनों को सेंभल के रस में इस के सेवन काल में उपवन, चन्द्रमा की
घोटकर ( गोला बना कर दोलायन्त्र विधि से ) चांदनी और कामनियों का उपभोग करना चाहिए।
| निम्न लिखित रसों में पृथक् पृथक् स्वेदन करें:[९८१] कामदेवः (२)
(१) केली की जड़ का रस, (२) दूध, (र. रा. सुं. । वाजी. क.)
ईख का रस और गाय का घी तीनों समान मात्रामें सूतो माषमितःखदोषरहितस्तत्तूर्यभागो बलि- मिले हवे (३) शहद (४) सेंमल का रस, दूध स्तन्मानन्तु भुजङ्गफेनमुदित क्षुद्राफलस्खाम्बुना। और गोखरू का क्वाथ तीनों समान मात्रा में एतद्रगोलकमाकलय्य विपचेत्क्षुद्राफले हेमगे। मिले हवे । लावैरष्टमितभवेदितिरसः श्रीकामदेवाभिधः॥ उपरोक्त द्रव्यों में स्वेदन करने के पश्चात् मात्रासर्योदये चैका गुञ्जा यामचतुष्टये। पीस कर सुरक्षित रखें। गुञ्जाचतुष्टयं देयं नागवल्लीदलान्वितम् ॥ | इसे खांड, आमला, दाख, मूसली और उड़द दुग्धौदनमलवणां रात्रौ क्षीरं यथेच्छया ॥ के चूण तथा शहद के साथ खाकर ऊपर से केले
__शुद्ध पारद १ माषा, शुद्ध गन्धक चौथाई की फली खाने से अत्यन्त कामशक्ति प्राप्त होती है। माषा और अफीम चौथाई माषा लेकर (कन्जली ||९८३] कामधेनुरसः (१) करके) कटेलीके फलोके रसमें घोटकर गोली बनाकर
(भै. र. । शुक्र, मे.) कटेली के फल में तथा धतूरे के फल में रखकर ८ | सिन्दुरमभ्रं नागश्च कर्पूरहेममाक्षिकम् । कुक्कुट पुट दें।
खपेरें रजतश्चापि मर्दयेत्कमलाम्भसा ॥
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ककारादि-रस
(२९७)
ततो गुजामिताः कृत्वा वटयश्छायाप्रशोषिताः।। इसके सेवनसे रक्तविकार और मण्डल कुष्ठका एकैको दापयेदासां कसेरुखरसेन च ॥ नाश होता है। प्रमेहान विंशति हन्ति शुक्रमेहं विशेषतः।। अनुपान-गूगल, त्रिफला और गन्धकका चूर्ण ज्वरं जीर्णश्च यक्ष्माणं कामधेन्वभिधो रसः॥ | तथा इन सबके बराबर अरण्डका तेल लेकर सब
रस सिंदूर, अभ्रक भस्म, सीसा भस्म, कपूर, को मिलाकर ८ माशे लें। सोनामक्खी भस्म, खपरिया भस्म और चांदी भस्म ९८५] कामकलाख्यो रसः बराबर २ लेकर कमल के रस में खरल करके (र. र. । वाजी; र. र; रसा.) १-१ रत्ती की गोलियां बनाकर छाया में सुखावें । मतमताभ्रक स्वर्ण वाजिगन्धामृतारसैः।
इसमेंसे प्रति दिन १-१ गोली कसेरु के मुशलीकदलीकन्दद्वैस्तं मईयेद्दिनम् ।। स्वरस के साथ सेवन करने से वीस प्रकार के प्रमेह | रुदा लध्वग्निना पायंमद्ये पूर्वोक्तद्रवेः। और विशेषतः शुक्रमेह, जीर्णज्वर और राजयक्ष्मा
पुटन्देयं पुनर्मद्यमेवमष्टपुटैः पचेत् ॥ का नाश होता है।
शाल्मलीजातनिर्यासैश्चतुषिश्च भक्षयेत् । [९८४] कामधेनुरसः (२) गोक्षी मर्कटीषीजं पलाद्धं पाययेदनु ।। (र. रा. सुं. । कण्ठे)
रसःकामकलाख्योऽयं रमते स्त्रीसहस्रधा। शुद्धं सूतं द्विधा गन्धं लोहपात्रे क्षणं पचेत् । सर्वाङ्गोद्वर्तनं कुर्यात्सयवैः शाल्मलीरसैः ।। शीतलं चूर्णयेत्खल्ले बद्ध्वा वस्त्रे चतुर्गुणे ॥ ____रससिंदूर, अभ्रक भस्म और सोने की भस्म, आरनाले घटातस्थं दोलायन्त्रे चतुर्गुणे। समान भाग लेकर असगन्ध, गिलोय, मूसली और पाचयेच्छोषयेत्पश्चादशांशं वत्सनागकम् ॥ केलेकी जड़ के रसमें १-१ दिन घोटकर लघुपुटमें क्षिप्त्वा सर्व व्यहं भाव्यं तैले वाकुचिसंभवे । | पकावें । फिर निकाल कर उपरोक्त चीज़ोंके रसमें कामधेनुरिति ख्यातो रसोयं मण्डलापहः ॥ | घोटकर उसी प्रकार पुट दें। इस तरह ८ पुट दें। गुग्गुलत्रिफला गन्धं सममेरण्डतैलकम् । । | इसे ४ माशे मोचरसमें मिला कर कौंच के द्विनिष्कमनुपानं स्याद्रक्तमण्डलकुष्ठजित् ॥ | बीजों के चूर्ण और २॥ तोला गायके दूधके साथ
प्रथम शुद्ध गन्धक में उससे आधा शुद्ध | सेवन करनेसे अत्यन्त कामशक्ति बढ़ती है। पारद मिलाकर लोहे के पात्रमें गरम करें जब । इस प्रयोग के साथ सेंभल के रस में जौ का गन्धक पिघल जाय तो उसे जरा देर पकावें फिर | चूर्ण मिलाकर समस्त शरीर पर उसकी मालिश ठंडा होने पर खरल में घोटकर कजली करें एवं | करनी चाहिये। उसे चार तह किए हुवे कपड़े में बांध कर चार [९८६] कामाग्निसन्दीपन: गुनी कांजी में दोला यन्त्र की विधि से पका ।फिर
(म. र. । ध्व. मं.) सुखाकर उसमें दसवां भाग शुद्ध मीठे तेलिये का | पलपरिमितशुद्धं सूतकं गन्धतुल्यं चूर्ण मिलाकर ३ दिन तक बाबची के तेलमें घोटें।। दरदकुनटितुल्यं मावितं शृङ्गवेरैः।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकर
तदनुकनकबीजैर्भावितं सप्तवारं गतायुश्च भवेद्देवि ! बलीपलितनाशनः ।
तदनुसितजयन्त्या भृङ्गराजैश्च सर्वम् ।। तेजस्वीवलसम्पन्नो वेगेन तुरगोपमः ॥ पुटितमुपरिशुष्कं काचकूप्यान्तु क्षिप्तं | सततं भक्षयेद्यस्तु तस्य मृत्युनंजायते ।।
परहमुपरिपाच्यं बालुकायत्रकैश्च ॥ संभलकी छालका महीन चूर्ण और शुद्ध एला जातीचन्द्रमृगमदससितैः
गन्धक बराबर २ लेकर सेंभलके रसमें घोटें। सोषणैः साश्वगन्धै
___ इसे १ माशेकी मात्रानुसार सेवन करनेसे स्तुल्यैर्वल्लप्रमाणं प्रतिदिन
मनुष्य कामदेव तुल्य खरूपवान् , वली--पलितमशितं प्रातरुत्थाय शुद्धः। रहित, तेजस्वी, बलवान और घोड़ेके समान वेगओजः पुष्टिविवर्द्धनो
वाला हो जाता है एवं इसके सेवन से कामकी ऽतिबलकत्सर्वेन्द्रियानन्दनः अत्यन्त वृद्धि होती है। सर्वातकहरो रसायनवरः
| [९८८] कामिनीमदभञ्जनो रसः कामाग्निसन्दीपनः॥
___ (र. रा. सु. । रसा.) शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध शिंगरफ़ और
| शुद्धं सूतं समं गन्धं व्यहं कल्हारकद्रवैः। शुद्ध मनसिल ५-५ तोला लेकर अदरक, धतुरेके बीज, सफेद जयन्ती और भांगरे के रस की सात
मर्दितं बालुकायत्रे यामं संपुटके पचेत् ॥ सात भावना दें। फिर सुखाकर कांचकी शीशीमें
रक्तांगस्य द्रवैर्भाव्यं दिनैकन्तु सितायुतम् । भरकर छः दिनतक बालुका यन्त्रमें पकावें । इसके
| यथेष्टं भक्षयेचानु कामयेत्कामिनीशतम् ।। पश्चात् उसमें निम्नलिखित चीजोंका समान भाग
___शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक बराबर २ चूर्ण मिलावें।
| लेकर ३ दिन तक कमलके रसमें घोटें फिर सम्पुट इलायची, जावित्री, कपूर, कस्तुरी, मिश्री, | में बन्द करके १ पहर तक बालुका यन्त्र में कालीमिर्च और असगन्ध ।
पकावें । इसके पश्चात् १ दिन लाल चन्दन के ___ इसे प्रतिदिन प्रातःकाल ३-३ रत्ती की मात्रा काथमें घोटे । में सेवन करने से ओज, पुष्टि, बल और कामकी । इसे मिश्रीके साथ सेवन करके यथेच्छ आहार वृद्धि होती है। यह अत्युत्तम रसायन और | विहार करें। इसके सेवन से अत्यन्त काम वृद्धि समस्त इन्द्रियों को आनन्द देनेवाला है। | होती है। [९८७] कामिनीदर्पघरसः [[९८९] कामिनीमदविधूननो रसः (र. रा. सुं. । रसा.)
___ (भै. र. । ध्व. भं.) शाल्मल्यास्त्वचमादाय श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् कजलीकृत्सुगन्धकशम्भोशुद्धगंधकचूर्णानि तद्रसेनैव भावयेत् ॥ । स्तुल्य मेव कनकस्य हि यीजम् । माषमात्रप्रयोगेण शृणु वक्ष्यामि ये गुणाः।। मईयेत्कनकतैलयुतं स्यात् मकरध्वजरूपोऽपि स्त्रीशतानन्दवर्द्धनः ।। कामिनीमदविधूनन एषः॥
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ककारादि-रसप्रकरणम्
(२९९)
अस्य वल्लकमथो सितयाक्तं
गुटिका बदराकारा कारयेद्भक्षयेत्सदा। सेवितं हरति मेहगदोधान्। शोफपांडुहरः सोयं रसः कामेश्वरो ह्ययम् ।। वीर्य्यदाढयकरणे कमनीयं
शुद्ध पारा ५ तोला, शुद्ध गन्धक ५ तोला, द्रावणं निधुवने वनितानाम् ॥ चीता १५ तोला, हैड़ १५ तोला, नागरमोथा, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और धतूरेके बीज | इलायची और तेजपात २॥-२॥ तोला, त्रिकुटा, समान भाग लेकर काली करके धतूरेके तेलमें घोटें। पीपलामूल और शुद्ध मीठा तेलिया ५-५ तोला,
इसे ३ रत्ती की मात्रानुसार मिश्रीके साथ | नागकेसर १। तोला और रेणुका २॥ तोला लेकर मिलाकर सेवन करनेसे प्रमेह नष्ट और वीर्य पुष्ट पूर्ण करके २५० तोला पुराने गुड़में मिलाकर होता है। यह कमनीय और कामिनी-विद्रावक है। पकावें (या गुड़की चाशनी में इन सब का चूर्ण [९९०] कामिनीविद्रावणो रस मिलावें) फिर इसे अदरकके रस और धीमें १-१ (भै. र. । वीर्यस्त.)
पहर घोटकर बेरके बराबर गोलियां बनावें।। आकारकरभः शुण्ठी लवङ्ग कुंकुम कणा। इसके सेवन से सूजन और पांडु का नाश जातीफलश्च तत्कोपं चन्दनं कार्षिकं पृथक् ॥ होता है। हिङ्गुलं गन्धकं शाणं फणिफेनं पलोन्मितम् । |
[९९२] कारुण्यसागरो रसः गुञ्जात्रयमिता कुर्यात्संमद्य वटिकां भिषक् ॥
___ (रसे. सा. सं.। ज्वराति.) पयसा परिपीतोऽयं शुक्रस्तम्भकरो रसः।
| भस्मसूताद् द्विधा गन्धं तथा द्विस्वं मृताभ्रकम्
। विद्रावणःकामिनीनां वशीकरण एव च ॥
दिनं सार्षपतैलेन पिष्ट्वा यामं विपाचयेत् ।। अकरकरा, सोंठ, लौंग, केसर, पीपल, जाय- |
| रसैमार्कवमूलोत्थैः पिष्ट्वा यामं विपाचयेत् । फल, जावित्री और चन्दन प्रत्येक ११-१। तोला । |
त्रिक्षारपञ्चलवणविषव्योषाग्निजीरकैः ॥ शुद्ध शिंगरफ और शुद्ध गन्धक ३.-३ माशा और अफीम ५ तोला लेकर खरल करके ३-३ रत्तीकी | सविडङ्गैस्तुल्यभागैरय कारुण्यसागरः। गोलियां बनावें।
माषमात्रं ददीतास्य भिषक् सर्बातिसारके ।। इन्हे दूधके साथ सेवन करनेसे शुक्रस्तम्भ सज्वरे विज्वरे वापि सशूले शोणितोद्भवे । होता है। यह कामिनीविद्रावक और वशीकरण है। | निरामे शोथयुक्ते वा ग्रहण्यां सामिपातिके ॥ [९९१] कामेश्वरो रसः (वृ. नि. र.। पाण्डु) अनुपानं विनाप्येष कार्यसिद्धिं करिष्यति ॥ पलं सूतं पलं गन्धं वह्निः पथ्या त्रयं त्रयम् । रस सिन्दूर १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग मुस्तैलापत्रकानां च मितं चापलं पलम् । और अभ्रक भस्म ४ भाग, लेकर १ दिन पर्यन्त त्र्यूषणं पिप्पलीमूलं विषं चैव पलं पलम् । सरसों के तेलमें घोटकर सरसों के तेल में १ पहर नागकेसरकर्षेक रेणुकापलं तथा ॥ पकावें । फिर इसी प्रकार १ दिन भांगरे की जड़के पुरातनगुडेनैव तुलार्धन प्रपाचयेत् । रस में खरल करके १ पहर तक पकावें । इसके मर्दयेचाकद्रावैर्यामैकं तद् घृतेन च । । पश्चात् उसमें १-१ भाग सजीखार, सुहागे की खील,
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(३००)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
जवाखार, पांचों लवण, शुद्ध मीठा तेलिया, त्रिकुटा, भावयेदिनमेकन्तु रसोयं कालकण्टकः । चीता, जीरा और बायबिडंग का चूर्ण मिला। दातव्यः सर्वरोगेषु सन्निपाते विशेषतः॥ ____ इसे १ माशे की मात्रानुसार ज्वर सहित, द्विगुञ्जामाकद्रावैतर्वा वातरोगिणाम् । ज्वर रहित, शूल, रक्त और शोथ युक्त अतिसार, निर्गुण्डीमूलचूर्ण तु माहिषाख्यं च गुग्गुलुम् । निरामातिसार, संग्रहणी और सन्निपातातिसार आदि समांशं मर्दयेदाज्ये तद्वटी कर्षसंमिता। समस्त अतिसारों में प्रयोग करना चाहिए। इससे | अनुयोज्या घृतैनित्यं स्निग्धमुष्णं च भोजनम् ।। अनुपानके बिना भी सफलता प्राप्त हो सकती हैं। मंडलानाशयेत्सर्वान्वातरोगान संशयः। [९९३] कार्यहरलौहम्
सन्निपाते पिबेच्चानु रविमूलकषायकम् ॥ (र. रा. मुं., रसे. सा. सं. । रसा.) हीरे की भस्म १ भाग, रससिन्दूर २ भाग, श्वेता पुनर्नवा दन्ती वाजीगन्धा त्रिकत्रयः। अभ्रक भस्म ३ भाग, सोने की भस्म ४ भाग, शतमूलीपलायुक्तैरेभिर्लोहं प्रसाधितम् ॥ तांबे की भस्म ५ भाग, तीक्ष्ण लोह भस्म ६ भाग निहन्ति नियतं कार्यमपि ,गरसैःसह । और मुंड लोह भस्म ७ भाग, लेकर सब को ३ नास्त्यनेन समं लोहं सर्वरोगान्तकं मतम् ॥ | दिन तक अम्लवर्ग के रसों में घोटें । फिर उसमें दीपनं बलवर्णाग्ने र्घष्यदं चोत्तमोत्तमम् ॥ सञ्जीखार, सुहागे की खील और जवाखार तथा
श्वेत पुनर्नबा, दन्ती, असगन्ध, त्रिफला, पांचोंनमकोंका चूर्ण १-१ भाग मिलाकर ३ दिन त्रिकुटा, त्रिमद (बायबिडंग, चीता और नागरमोथा) | संभालू के रस में घोटें। इसके पश्चात् सुखाकर शतावर और खरैटी के साथ लोह भस्म सिद्ध करें। उसमें इस समस्त चुण का आठवां भाग शुद्ध (लोह भस्म में इनका समान भाग चूर्ण मिलावें । ) | मीठा तेलिया और इतनी ही सुहागे की खील
इसे भांगरेके रसके साथ सेवन करने से कृशता | मिलाकर १ दिन जम्बीरी नींबू के रस में घोटें। अवश्य नष्ट होती है । इसके समान समस्त रोगों यह रस साधारणतः समस्त रोगों में और विशेका नाश करने वाला दूसरा लोह नहीं है। यह । षतः सन्निपात में अद्रक के रसके साथ प्रयोग दीपन, बल, वर्ण और अग्नि वर्द्धक तथा अत्युत्तम | करना चाहिए । वातज रोगों में २-२ रत्ती की मात्रा
नुसार घी के साथ सेवन कराना चाहिए। एवं [९९४] कालकंटको रसः
दवा खानेके पश्चात् संभाल की जड़का चर्ण और (. नि. र. । वा. व्या.) भैंसिया गूगल बराबर लेकर धीमें घोटकर ११ वज्रसूताहेमार्कतीक्ष्णमुंडं क्रमोत्तरम् । तोले की वटी बनाकर उसे धी के साथ खिलावें। मारितं मर्दयेदम्लवगैण दिवसत्रयम् ॥ इसे सन्निपात में आककी जड़ के कषाय के साथ त्रिक्षारं पश्चलवणं मर्दितस्य समं समम् । देना चाहिए। दवा निगुण्डिकाद्रावैमर्दयेदिवसत्रयम् ॥ | यह रस मंडल कुष्ठ और समस्त वातज शुष्कमेतद्विचूाथ विपं चास्याष्टमांशतः।
। रोगों का अवश्य नाश करता है। टणं विषतुल्यांशं दया जम्बीरज वैः ।। । * देखो पृ. १५१ टिप्पणि
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ककारादि-रसप्रकरणम्
(३०१)
पथ्य ---स्निग्ध (चिकने) और गरम पदार्थ । । आक के पत्तों के रस में घोटकर शरावसम्पुट कर [९९५] कालवज्रायनी रसः
के पुट लगावे । इसके पश्चात् 'चूर्ण करके उसमें (व. नि. र. । विष.)
समान भाग काली मिर्च का चूर्ण और उस सबसे पारदं गन्धाहूं तुत्थं ढङ्कणं रजनी समम् ।
चौगुना शुद्ध गन्धक मिलाकर खरल करें। देवदाल्या द्रवर्मा दिनं शुष्कं तु भक्षयेत् ।।
इसे ५ माशे की मात्रानुसार २१ दिन तक कालच त्राशनि म रसः सर्वविषापहः।
घी के साथ सेवन करने से असाध्य (कष्ट साध्य) नरमृत्रं पिबेचानु कालदष्टोऽपि जीवति ॥ | राजयक्ष्माका भी अवश्य नाश हो जाता है।
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध तूतिया, सु- (व्यवहारिक मात्रा २.-४ रत्ती) हांगे की खील और हल्दी बराबर बराबर लेकर १ [९९७] कालविध्वंसनो रसः दिन तक देवदाली के रसमें घोट कर सुखा कर | (र. र. स. | अ. १९) रक्व । यह रस समस्त प्रकारके विषों का नाश कर- शुद्धसूतं हेमतारं तानं तुल्यं च मर्दयेत् । ता है। इसे आदमी के मूत्र के साथ खिलाने से जंबीरनीरसंयुक्तमातपे मर्दयेद्दिनम् । काले सर्प के काटे हुवे को भी आराम हो जाता है। सर्वतुल्यं पुनः सूतं क्षिप्त्वा पिष्टं प्रकल्पयेत् । [९९६] कालवञ्चको रसः
धत्तूरफलमध्ये तु दोलायन्त्रे व्यहं पचेत् ।। (र. रा. सु. । यक्ष्मा.)
धत्तरोत्थद्वैरेव यन्त्रं पूर्य पुनः पुनः। । मृत सूतं मृतं नागं गन्धकं तुत्थरङ्कणम् ।।
आदाय बंधयेसद्वस्त्रे इष्टिकायन्त्रगं पचेत् ॥ प्रत्येकमर्द्ध निष्कं स्यान्मृतशुल्बे द्विनिष्ककम् ।। जंबीरगंधकं पिष्ट्वा अधश्चोर्धव च दापयेत । शख निष्कद्वयं चूर्ण नवनिष्कवराटकम् । तुल्यं पुनः पुनर्देयं रुध्या लघुपटे पचेत् ॥ पूरयेत्पूर्ववच्चूण पुटयेल्लोकनाथवत् ॥ षड्गुणे गन्धके जीर्णो तत्तुल्यं मृतलोहकम् । ततस्त्वकदलद्रावैध रुध्या पुटे पचेत् ।। दत्वा मद्य दिनैकं च कण्टकार्या द्रवैदृढम् । आदाय चूर्णयेत् श्लक्ष्णं तुल्यांशमरियुतम् ।। रुध्वाथ करिषाग्निस्थकपोताख्यपुटे पयेत् । चूर्णाचतुर्गुणं गन्धनकीकृत्य विचूर्णयेत् ।। पुनर्मद्य पुनर्भाव्यं त्रिवारं पूर्वजैवैः ॥ पञ्चमापैघृतेर्लेझमसाध्यं राजयक्ष्मकम् । बृहत्युत्थद्रवैस्तद्वत् त्रिधा मर्थे पुटेत्रिधा । त्रिसप्ताहान्न सन्देहो रसोयं कालवश्चकः ॥ | वलयकेनक्तमालानां पृथग्द्रावैर्द्विधा द्विधा।
रस सिन्दूर, सीसा भस्म, शुद्ध गन्धक शुद्ध | मद्य रुध्वा पुटे तद्वद्दशांश वत्सनामकम् । तूतिया और सुहाग की खील २-२ माशे तथा | दत्वा तस्मिन्विचूाथ गुञ्जामात्र प्रयोजयेत् तांवे और शंखकी भस्म ८-८ माशा लेकर चर्ण | कालविध्वंसनो नाम रसः पाण्ड्वामयापहः । करके उसे ३६ माशा कौड़ियों में भर कर उनका | अभयाऽथ गवां मूत्रैः पिष्ट्वा चानु प्रदापयेत्।। मुख सुहागे से बन्द कर के शरावसम्पुट करके शुद्ध पारद, सोना भस्म, चांदी भस्म और पुट लगा दें। फिर स्वांग शीतल होने पर निकालकर तांबा भस्म, बराबर बराबर लेकर १ दिन पर्यन्त
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भारत-भैषज्य-रत्नाकर
जम्बीरी नींबू के रस में धूपमें घोटें। फिर सबके । ब्रह्मभागश्च जैपालं नेत्रमागं हलाहलम् । बराबर शुद्ध पारा मिलाकर खरल करें और उसे माक्षिकं चाग्निभागश्च लौहवङ्गश्च भागकम् ।। धतूरे के फलमें भरकर दोलायन्त्र विधि से धतूरे के | सर्वान्खल्लोदरे क्षिप्त्वा क्षीरेणार्कस्य मंदयेत् । रसमें ३ दिन पकावें । ज्यों २ रस सूखाय त्यों२ | दशमूलकषायेण मयेद् याममात्रकम् ।। और डालते रहना चाहिए।
पञ्चमूलकषायेण तथैव च विमदयेत् । इसके पश्चात् धतूरे के फल समेत समस्त
चणमात्रां वटीं कृत्वा बलं ज्ञात्वा प्रयोजयेत् ॥ औषधि को कपड़े में बांधकर " इष्टिका" यन्त्र
सर्व त्रिदोषजं हन्ति सन्निपातं सुदारुणम् । में पुट दें।
पूर्ववदापयेत्पथ्यं जलयोगश्च कारयेत् ॥
पथ्यं शाल्योदनं ज्ञेयं दधिभक्तसमन्वितम् । शुद्ध गन्धक समान भाग लेकर उपरोक्त औषधि के
कालाग्निभैरवो नाम रसोऽयं भूमिपूजितः॥ ऊपर नीचे रखकर शराव सम्पुट करें और लघु पुट में फूंक दें। इसी प्रकार समान भाग गन्धक
१ भाग शुद्ध पारद और २ भाग शुद्ध गन्धक के साथ छः पुट लगावें । फिर समान भाग लोह :
" की कजली करके गोखरू के रसकी भावना दें भस्म मिलाकर १ दिन कटेली के रस में अच्छी फिर सुखाकर अत्यन्त महीन चूर्ण करें और उसमें तरह खरल करें और सम्पुट करके अरने उपलों की | ताम्र भस्म सब चूर्ण के बराबर तथा शुद्ध मीठा अग्नि में कपोत पुट लगावें । इसी प्रकार ३ पुट | तेलिया आठवां भाग, शुद्ध शिंगरफ १ भाग, (या कटेली के रस में ३ वृहती (कटेले) के रस में और | ६ भाग) धतूरा दो भाग, गोदन्ती हरताल की भस्म दो दो पुट चीता, आक तथा करंजवे के रस में | ५ भाग, शुद मनसिल ५ भाग, सुहागे की खील घोट कर लगावें तदन्तर दशवां भाग शुद्ध मीठे | २ भाग, शुद्ध खपरिया ६. भाग, शुद्ध जमालगोटा तेलिये का चूर्ण मिलाकर खरल करें। १ भाग, हलाहल विष २ भाग, सोना मक्खी भस्म
इसे १ रत्ती की मात्रानुसार खिलाकर ऊपरसे | ३ भाग और लोह भस्म तथा बङ्ग भस्म १-१ गोमूत्र में पिसी हुई हैड गोमूत्र के साथ खिलाने से | भाग लेकर १-१ पहर तक आक के दूध, दशमूल पांडु का नाश होता है।
के कषाय तथा पञ्चमूल के कषाय में घोटकर चने [९९८] कालाग्निभैरवो रसः
के बराबर गोलियां बनावें । (भै. र. । ज्व.)
___इसे बलानुसार सेवन करने से घोर सन्निपात शुद्धसूतं द्विधा गन्धं मर्दयेद् गोक्षरद्रवैः। | का नाश होता है । भावितश्च विशोष्याथ चूर्णयेदतिचिक्कणम ॥ | पथ्य---शाली चावलों का भात और दही। चूर्णतुल्यं मृतं तानं ताम्रादष्टांशिकं विषम् । । [९९९] कालाग्नि रसः हिलं रसभागश्च द्वौभागौ कनकस्य च ॥
(र. र. । भगं.) घाणभागोऽत्र गोदन्तः बाणभागा मनःशिला | शुद्ध सूनं समं गन्धं मृतनाग सतुत्थकम् । टङ्गानं नेत्रभागच ऋतुभागश्च खर्परम् ॥ 'जीरकं सैन्धवं तुल्यं तिक्ता कोषातकीद्वैः॥
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ककारादि-रसप्रकरणम्
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पिष्टं तल्लेपनाद्धन्ति भक्षणाञ्च भगन्दरम् ।। शोषितं सूक्ष्मचुर्णन्तु पादांशं टकणं तथा। रसःकालाग्निनामोऽयं द्विगुजं मृत्युजिद्भवेत् ॥ टङ्कणं सवत्सनागं चूर्ण कृत्वा विमिश्रतम् ।
शुद्र पारा, शुद्ध गन्धक, सीसा भस्म, तूतिया | त्रिकटुत्रिफलावन्हिचातुर्जातकसैन्धवम् ॥ भस्म, जीरा और सेंधा नमक बराबर २ लेकर | सौवर्चलं धूमसारं चूर्णमेतत् समं समम् । कड़वी तोरी के रस में घोटें ।
कृत्वा समं सुभागैकं तत्सर्व चाकद्रवैः ।। इसे खाने और लेप करने से भगन्दरका नाश | शिग्रुजैर्मातुलुङ्गोत्थैलोलयित्वा वटीकृतम्। होता है । मात्रा २ रत्ती।
रसः कालाग्निरुद्रोयं त्रिगुजं खादयेत्सदा ।। [१०००] कालाग्निरुद्रो रसः (१)
अग्निदीप्तिकरं हिक्कावासं सर्वकृतान्तकः । (रसे. चि. म. । अ. ६) | स्थूलानां कुरुते काश्य कृशानां स्थौल्यकारकम्।। सूताम्रकान्तलौहानां भस्मगन्धकमाक्षिकम् । | अनुपानविशेषैस्तु ततोरोगेषु योजयेत । वन्यकर्कोटिकाद्रावस्तुल्यं मद्ये दिनावधि ॥ साध्यासाध्यं जयत्याशु मण्डलामात्रसंशयः॥ वन्यकर्कोटिकाकन्दे क्षिप्त्वा लिप्त्वा मृदा बहिः हीरे की भस्म १ भाग, रस सिन्दूर २ भाग, भूधराख्ये पुटे पश्चादिनकं तद्विपाचयेत् ॥ तांबे की भस्म ३ भाग, सोने की भस्म ४ भाग, रसः कालाग्निरुद्रोऽयं दशाहेन विसर्पनुत् । लोह भस्म ५ भाग, चांदी भस्म ६ भाग और पिप्पलीमधुसंयुक्तमनुपानं प्रकल्पयेत् ॥ । तीक्ष्ण लोह भस्म ७ भाग लेकर चीता, बिजौरा
रस सिन्दूर, अभ्रक भस्म, कान्त लोह भस्म, | नींबू, जम्वीरी नीबू, सहजने की जड़ और घीकुमार शुद्ध गन्धक और सोनामक्खी भस्म बराबर २ / के रस में ३-३ दिन घोटें । फिर सात दिन तक लेकर १ दिन पर्यन्त बनककोड़े के रसमें घोटें | अदरक के रसमें घोटें और सुखाकर महीन चूर्ण
और उसे उसी की (बन ककोड़े की) जड़ के भीतर करें। इसके बाद उसमें सुहागे की खील और शुद्ध भर कर ऊपर से मिट्टी का लेप करके १ दिन | मीठे तेलिये का चूर्ण प्रत्येक उससे चौथाई भाग "भूधरयन्त्र" में पकावें ।
और समान मात्रा में मिला हुवा त्रिकुटा, त्रिफला, इस रस को दश दिन तक सेवन करने से | चीता, चातुर्जात (दालचीनी, तेजपात, इलायची, विसर्प का नाश होता है।
नागकेसर) सेंधा नमक, सौंचल नमक और घरका ___अनुपान-पीपल का चूर्ण और शहद। | धुवां १-१ भाग मिलाकर अदरक, सहंजना और [१००१] कालाग्निरुद्रो रसः (२)
बिजौरे नीबू के रस में घोटकर ३-३ रत्ती की (र. रा. सुं. । श्वा.)
गोलियां बनावें।
यह अग्नि प्रदीप्त करने वाला हिचकी और वज्रसूतार्कस्वर्णायस्तारतीक्ष्णमयं क्रमात् ।
| श्वास नाशक स्थूल और कृश शरीर को समाभागवृद्धथा मृतं सर्व महसा चित्रकद्रवैः ॥
वस्था पर लाने वाला ओर अनुपान भेद से रोगों मर्दयेन्मातुलुङ्गाम्लैजबीरस्य दिनत्रयम्।
| का नाश करने वाला है। शिजले क्वाथैः कन्याक्वार्थदिनत्रयम् ॥ । इसके सेवनसे मण्डल (कुष्ठ भेद)का अवश्य आर्द्रकस्य दिनःसप्त दिवसे भावितं ततः॥ नाश होता है।
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(३०४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
[१००२] कालान्तको रसः (१) रुद्रयन्त्र में पकावें । इसी प्रकार जब आठगुनी ___ (र. र. । कासे)
गन्धक जीर्ण हो जाय तो ३२ पुट देने के बाद) हिगुलं मरिचं व्योष टङ्कणं गन्धकं समम् । | चूर्ण करके रक्वें । जम्बीररससंयुक्तं मईयेद्याममात्रकम् ।। इसे मृगाङ्क रसोक्त अनुपान के साथ ५ रत्ती कासं श्वासमतीसारं ग्रहणीसानिपातिकम्। | की मात्रानुसार सेवन करने से राजयक्ष्मा का नाश अपस्मारामयं मेहमजीणं चाग्निमान्यताम् ॥ | होता है। (व्यवहारिक मात्रा १-२ रत्ती ।) गुञ्जामात्रप्रदानेन सर्व नाशयति क्षणात ॥ [१००४] कालारि रसः
शुद्ध शिंगरफ, कालीमिर्च, त्रिकुटा, सुहागेकी । (यो. चि. म. । मिश्राधि.) खील और शुद्ध गन्धक बरावर २ लेकर १ पहर तक | त्रिशाणं पारदं चैव गन्धकं शाणपश्चकम् । जम्बीरी नीबू के रसमें घोटें।
त्रिशाणं वत्सनाभश्च पिप्पली दशशाणिका ॥ इसे १ रत्ती की मात्रानुसार सेवन करने से | लवङ्गं च चतुःशाणं त्रिशाणं कनकाहयम् । खांसी, श्वास, अतिसार, संग्रहणी, त्रिदोषज अप- टङ्कणं वन्हिशाणं च पञ्च जातीफलं क्षिपेत ।। स्मार, प्रमेह, अजीर्ण और अग्निमांद्य का नाश | मरिच पश्च शाणं स्यादकलं च त्रिशाणकम् । होता है।
करीराकनिम्बुकैमर्दयेच दिनत्रयम् ॥ [१००३] कालान्तको रसः (२) कालारिरसनामाऽयं वातव्याधिनाशनः । (बृ. नि. र. । क्षय.)
मर्दने भक्षणे नस्ये द्विगुजं सन्निपातजित् ॥ कुर्याश्लोहमयीं मूषामुन्नता द्वादशाङ्गुलाम् ।
। शुद्ध पारद ९ माशा, शुद्ध गन्धक १। मर्दितं स्वर्णवाराहिगृहकन्यारसैः रसम् ।। | तोला, शुद्ध मीठा तेलिया ९ माशा, पीपल ३।।। लशुनैर्याममात्रं च पिण्डीकृत्वा निवेशयेत् । | तोला, लौंग १ तोला, धतूरा ९ माशा, मुहागेकी कृत्वा पूर्वोक्तमूषायां सूतपादं च गन्धकम् ॥ | खील ९ माशा, जायफल, कालीमिर्च १। तोला निर्गुण्डीरससंपिष्टं तन्मूषायां विनिक्षिपेत् । । और अकरकरा ९ माशा लेकर ३-३ दिन करीर, आच्छाद्य लोहचक्रेण रुद्रयन्त्रेण जारयेत् ॥ | अद्रक और नीबूके रस में घोटें। एवमष्टगुणे जीर्ण समुद्धृत्य विचूणयेत् । इसे मर्दन, भक्षण और नस्य द्वारा प्रयोग पञ्चगुआमितं खादेदनुपानं मृगावत् ॥ करने से वातव्याधि और सन्निपात का नाश होता अयं कालान्तको नाम रसोयं राजयक्ष्मजित् ॥ है। मात्रा २ रत्ती । ____ पारे को धतूरे, बाराहीकन्द, घीकुमार और [१००५] कालेश्वरो रसः ल्हसन के रस में १-१ पहर तक घोटकर गोला | (र. रा. । सुं. । श्वा.) बनावें । फिर उसके नीचे ऊपर संभाल के रस में वङ्गं लोहं तथा ताम्रमभ्रकं पारदं मतम् । घुटा हुवा पारे से चौथाई भाग गन्धक भरकर १२ गन्ध ताप्यदरदौ दिव्यं जातीफलं तथा। अगुल ऊंची (गहरी) लोहे की मूषा में रखकर सूक्ष्मैला दालचिनी च केशरं विषकं स्मृतम् । उसके मुंह को लोहे के ढकने से ढक दें। और 'धूर्तबीजं च जैपालं टङ्कणं च समम् ॥
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ककारादि-रसप्रकरणम्
(३०५)
* भिषक्।
दारुणम्।।
सर्वेभ्यस्त्रिगुणं श्यामं क्षिप्त्वा चूर्णीकृतं । हिगुलं मरिचं गन्धं सव्योषं टङ्कणं
तथा। वृषापामार्गनिर्गण्डीभगाभङगरसेन द्विगुञ्जमाईकद्रावैः सन्निपातं सदारुणम्।।
च।। कासं नानाविधं हन्ति शिरोरोगं मर्दयेहिनमेकैकं रसः कालेश्वरो भवेत्।
विनाशयेत्।। एकगुज़ द्विगुकं या बलं ज्ञात्वा
प्रयोजयेत्।।।
__शंगरफ, मरिच, गन्धक, त्रिकुटा और सुहागा
| बराबर बराबर लेकर चर्ण करें। कासं श्वासं निहन्त्याशु कफरोगं च
___इसे २ रत्ती की मात्रानुसार अदरक के रस के साथ सेवन कराने से दारुण सन्निपात, अनेक प्रकार की
खांसी और शिर के रोगों का नाश होता है। वङ्ग भस्म, लोह भस्म, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म, पारद, गन्धक, सोनामक्खी भस्म, शंगरफ, कान्त | (१००८) कासकेसरी लोह भस्म, जायफल, छोटी इलायची, दाल चीनी, !
(वृ०नि० र०। कासे) केसर, मीठा तेलिया, धतूरे के बीज, जमालगोटा और सुहागा समान भाग तथा सब के वजन से ३ गुना मिर्च दरदं मरिचं मुस्तं टङ्कणं च विषं समम्। का चूर्ण लेकर १-१ दिन बासा, चिरचिटा, संभाल,
जम्बीराद्भिश्च संमई कुर्यान्मुद्गनिभा । भांग और भांगरे के रस में घोटें।
वटीम्।। इसे रोगी के बलानसार १-२ रत्ती की मात्रानसार
आर्द्रकस्वरसेनैव कासं श्वासं व्यपोहति।। सेवन कराने से खांसी, श्वास और दारुण कफ रोगों का नाश होता है।
शंगरफ, मरिच, मोथा, सुहागा और मीठा तेलिया (१००६) कासकर्तरी रसः
समान भाग लेकर जम्बीरी नीबू के रस में घोटकर मूंग
के बराबर गोलियां बनावें। (र० रा० सुं। कास०)
इन्हे अदरक के रस के साथ सेवन कराने से खांसी रसगन्धकपिप्पल्यो हरीतक्यक्षवासकम्।। और श्वास का नाश होता है। यथोत्तरं गुणं चूर्ण बब्बूलक्वाथभावितम्।। एकविंशतिवारेण शोषयित्वा विचूर्णयेत्। । (१००९) कासनाशनो रसः भक्षयेन्मधुना हन्ति कासं वै कासकर्तरी।। (र० र० स०। अ० १३)
पारा १ भाग, गन्धक २ भाग, पीपल ३ भाग, हैड़ | साकतीक्ष्णाभ्रको Sगस्त्यकासमर्दवरारसैः। ४ भाग, बहेड़ा ५ भाग और बासा ६ भाग लेकर चूर्ण | मर्दितो वेतसाम्लेन पिण्डितः करके उसे कीकर के रस की २१ भावना दें।
कासनाशनः।। इसे शहद मे साथ सेवन करने से खांसी का नाश होता है।
ताम्र भस्म, तीक्ष्णलोह भस्म और अभ्रक भस्म को
अगस्ति, कसौंदी, त्रिफला और अम्लबेत के रस की (१००७) कासकुठारः
भावना देकर गोलियां बनावें। (र० रा० सुं। कासे)
इनके सेवन से खांसी का नाश होता है।
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(१०६)
(१०१०) कासश्वासविधूननो रसः ( वृ० नि० २० । कास० )
भारत-मेव- रत्नाकर
(१०११) काससंहारभैरवः
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रसभागो भवेदेको गन्धकाद्द्द्वौ तथैव च । यवक्षारस्त्रिभागः स्याब्रुचकं च चतुर्गुणम् ।। मरीचं पञ्चभागं स्याच्छुद्धं रसविमर्दितम् । कासं पञ्चविधं हन्याच्छ्वासं पञ्चविधं
तथा ।।
शुद्ध पारद १ भाग, गन्धक २ भाग, जवाखार ३ भाग, सौंचल (काला) नमक ४ भाग और मरिच ५ भाग लेकर चूर्ण करें।
यह पांच प्रकार की खांसी और पांच प्रकार के श्वासों का नाश करता है।
(र० सा० सं०। कास० )
रसगन्धकताम्राभ्रशङ्खटङ्कणलौहकम्। मरिचं कुष्ठतालीशजातीफललवङ्गकम्।। कार्षिकं चूर्णामादाय दण्डेनामर्द्ध भावयेत् । भेकपर्णी केशराजनिर्गुण्डी काकमाचिका । । द्रोणपुष्पी शालपर्णी ग्रीष्मसुन्दरकं तथा । भाग हरीतकी बासा कार्षिकैः पत्रजै
रसैः ।। afai कारयेद्वैद्यः पञ्चगुञ्जाप्रमाणतः । वातजं पैत्तिकं कासं श्लैष्मिकं चिरजन्तथा । । श्रीमद्गहननाथेन काससंहार भैरवः । रसोयं निर्मितो यत्नाल्लोकरक्षणहेतवे ।। वासा शुण्ठी कण्टकारी क्वाथेन
पाययेद्बुधः । कासं नानाविधं हन्ति श्वासमुग्रमरोचकम्।। बलवर्णकरः श्रीदः पुष्टिदः कान्तिवर्द्धनः । ।
पारा, गन्धक, ताम्र भस्म, शङ्ख भस्म, सुहागा, लोह भस्म, मरिच, कूठ, तालीशपत्र, जायफल और लौंग प्रत्येक का १ - १ कर्ष चूर्ण लेकर खरल करके उसे मण्डूकपर्णी (ब्राह्मी भेद) भांगरा, संभालु, मकोय,
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गूमा, शालपर्णी, ग्रीष्मसुन्दर (गीमा) भारंगी, हरड़ और बांसे के पत्तों के १-१ कर्ष रस में घोटकर ५-५ रत्ती की गोलियां बनावें ।
इसे बांसा, सोंठ और कटेली के रस के साथ सेवन कराने से वातज, पित्तज, कफज और पुरानी खांसी, प्रबल श्वास और अरुचि का नाश होता तथा बल, वर्ण, सौन्दर्य, पुष्टि और कान्ति की वृद्धि होती है।
(१०१२) कासहरो रसः (र०र० स० अ० १३ )
तारे पिष्टशिलां क्षिप्त्या हरितालाच्चतुर्गुणाम् । वासागोक्षुरसाराभ्यां मर्वितः प्रहरद्वयम् ।। प्रस्विन्नो बालुकायन्त्रे गुञ्जाद्वितयसंमितः । ari त्रिकटुनिर्गुण्डीमूलचूर्णयुतो हरेत् । ।
चांदी भस्म १ भाग, मनसिल ४ भाग और हरताल १ भाग लेकर २-२ पहर बांसे और गोखरू के स्वरस में खरल करें फिर (शराव संपुट करके) बालुका यन्त्र में स्वेदन करके २-२ रत्ती की गोलियां बनावें ।
इन्हें त्रिकटे और संभालू की जड़ के चूर्ण के साथ सेवन करने से खांसी का नाश होता है।
(१०१३) कासान्तको रसः (र० रा० सं०। कासे)
सूतं गन्धं विषं चैव शालपर्णी च धान्यकम् । यावन्त्येतानि चूर्णानि तावन्मात्रं मरीचकम् ।। गुञ्जा चतुष्टयं खादेन्मधुना कास शान्तये ।।
पारा, गन्धक, मीठा तेलिया, शालपर्णी और धनिया १-१ भाग, तथा इन सब के बराबर मरिच का चूर्ण लेकर खरल करें।
इसे खांसी की शान्ति के लिए ४ रत्ती की
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ककारादि-रसप्रकरणम्
(३०७)
मात्रानुसार शहद में मिलाकर सेवन करना चाहिए। | सेवन करने से किलास कुष्ठ और विशेषतः दाद का
नाश होता है। (१०१४) कासारि रसः (र० रा० सुं०। कासे)
(१०१६) किरातादिमण्डूरम् अभ्रक शम्भबीजञ्च तीक्ष्णं शुल्बसमन्वितम्।
(वृ० नि० र०। पाण्डु) कासमर्दवरागस्तिवेतसाम्लैर्विमर्दयेत्।। चतुर्गजावटी हन्ति कासं पञ्चविधं किराततिक्तं सुरदारुदा- मुस्तागुडूची तथा।।
कटुकापटोलम्।
दुरालमापर्पटकं सनिम्बं कटुत्रिकं वह्निअभ्रक भस्म, रस सिन्दूर, तीक्ष्ण लोह भस्म और
फलत्रिकं च।। ताम्र भस्म बराबर बराबर लेकर कसौंदी, त्रिफला, अर्गास्त और अम्लवेत के रस में घोटकर ४-४ रत्ती की फलं विडङ्गस्यसमांशकानि सर्वैः समं गोलियां बनावें।
चूर्णमथायसं च। इन के सेवन से पांचों प्रकार की खांसी नष्ट होती है। व्यवहारिक मात्रा १-२ रत्ती।
सर्पिर्मधुम्यां वटिकाविधेया तत्रानुपानाद्भिषजा
प्रयोज्या।। (१०१५) कासीसबद्धो रसः
निहन्ति पाण्डं च हलीमकं च शोथं प्रमेहं (र० र० स०। अ० २०) |
ग्रहणीरुजं च।
श्वासं च कासं च सरक्तपित्तमस्यियोर्वोपलं रसं हि कासीसैर्युतं पञ्च गुणैः सह।
ग्रहमामवातम्।। मर्दयेद्यामपर्यन्तमर्जनस्य त्वचो रसैः।।
व्रणांश्च गुल्मान् कफविद्रधींश्च श्वित्रं च शरावसंपुटे रुध्या पुटेत्क्रोडपुटेन हि।
कुष्ठं सततप्रयोगात्।। रसः कासीसबद्धोऽयं मधुना वल्ल
तुल्यकः।।
शाणबाकुचिकायुक्तः सेवितो हन्ति
चिरायता, देवदारु, दारुहल्दी, मोथा, गिलोय, निश्चितम्।
कुटकी, पटोलपत्र, धमासा, पित्तपापड़ा, नीम की
छाल, त्रिकुटा, चीता, त्रिफला और बायबिडंग का चूर्ण त्रिभिर्मासैः किलासं हि दद्रूण्यपि
१-१ भाग तथा लोह चूर्ण सबके बराबर मिलाकर धी विशेषतः।। और शहद के साथ गोलियां बनावें।
इन्हें यथोचित अनुपान के साथ निरन्तर सेवन
करने से पाण्डु, हलीमक, सूजन, प्रमेह, ग्रहणी, श्वास, १ पल पारद और ५ पल कसीसको १ पहर तक खांसी, रक्तपित्त, बवासीर, उरुग्रह, आमवात, घाव, अर्जुन की छाल के रस में घोटकर शराब-संपुट में बन्द गुल्म, कफजविद्रधि और सफेद कोढ़ का नाश होता है। करके बराह पुट में फूकें।
इसे १ वल्ल (२-३ रत्ती) की मात्रानुसार १ शाण | (१०१७) किलासनाशनो रसः बाबची के चूर्ण के साथ शहद में मिलाकर ३ मास तक
(र० र० स०। अ० २०)
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( ३०८ )
भारत-भैषज्य रत्नाकर
रसद्विगुणगन्धकं त्रिगणताम्रलिप्तं पचेद् भृङ्गराजरसे मर्च स्नुहयर्कस्वरसैस्तथा। गृहीतमनकवली खदिरबाकचीनिम्बजैः। रसैः पुटविपाचितं समलयाकषायं पिबे- गुञ्जाद्वयं भक्षयेच्च हृच्छूलं पार्श्वभूलकम्।। त्किलासमरुणं सितं जयति शुद्धतकाशिनः।।
आमवाताढयवातादीन् कटीशूलञ्च
नाशयेत्। १ भाग पारद और २ भाग गन्धक की कज्जली करके (नींबू के रस में घोटकर) उसे ३ भाग ताब क
अग्निञ्च कुरुते दीप्तं स्थौल्यं बारीक पत्रों पर लेप करके शरावसंपट करके पट दें
चाप्यपकर्षति।। फिर उसे खैर, बाबची और नीम के रस में घोट कर (जब तक ताम्र भस्म न हो जाय तब तक) पट देते रहें।
| रसःकुब्बविनोदोऽयं गहनानन्दभाषितः।। इसे बाबची के क्वाथ के साथ पीने और आहार में केवल शुद्ध छाछ पीने से लाल और सफेद कोढ़ का नाश हो जाता है।
पारा, गन्धक, हैड़, हरताल, मीठा तेलिया,
कुटकी, त्रिकटा, बोल (मरमकी) और जमालगोटा (१०१८) कीटमर्दो रसः
बराबर बराबर लेकर चर्ण करके भांगरे थोहर (सेंड) (र० र० स०। अ० २०) और आक के स्वरम में घोटें।
इमे - रती की मात्रानमार मेवन करन से हृदय की शुद्धसूतं शुद्धगन्धमजमोदा विडङ्गकम्। पीड़ा. पनली का दर्द, आमवात, आढ्यवात, कमर का विषमुष्टिब्रह्मबीजं यथाक्रमगुणोत्तरम्।।
दर्द और स्थौल्य (चरबी बढ़ जाना) नाट होता तथा चर्णयेन्मधना लेह्यं निष्कैकं कमिजिभवेत। | अग्नि प्रदीप्त होती है। कीटमर्दो रसो नाम मुस्तातोयं पिबेदनु।।
(१०२०) कुमारकल्याणो रसः पारा १ भाग, गन्धक २ भाग, अजमोद ३ भाग,
(भै० र०। बा.) रो) बायबिडंग ४ भाग, कचला ५ भाग और पलास पापड़ा, (ढाक के बीज) ६ भाग लेकर चूर्ण करें।
| सिन्दूरं मौक्तिकं हेम व्योमायो ___इसे एक निष्क (चार माशे) की मात्रानसार शहद में मिला कर मोथे के क्वाथ के साथ सेवन करने से कृमि
हेममाक्षिकम्। नष्ट होते हैं।
कन्यातोयेन संमर्थ कर्यान्मद्गमिता वटीः।। वटिकां वटिकार्द्ध वा वयोऽवस्थां
विविच्य च। (१०१९) कब्जविनोदरसः (र० रा० सं०। वा० व्या०)
क्षीरेण सितया साई बालेष
विनियोजयेत्।। रसगन्धौ समौ शुद्धौ चाभयातालकं तथा। | कमाराणां ज्वरं श्वासं वमनं विषं कटकिव्योषञ्च बोलबैपालको समौ।।
पारिगर्भिकम्।
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ककारादि-रसप्रकरणम्
( ३०१)
ग्रहदोषांश्च निखिलान् स्तन्यस्या- । और ठंडा होने पर उसमें मिश्री और शहद मिलावें।
ग्रहणं तथा।। कामलामतिसारञ्च कृशतां वह्निवकृतम्। (१०२२) कुमुदेश्वरो रसः रसःकुमारकल्याणो नाशयेन्नात्र संशयः।।
(यो० र०। रा० य०) रस सिन्दर, मोती भस्म, स्वर्ण भस्म, अभ्रक |
पारदं शोधितं गन्धमभकं च समं समम्। भस्म, लोह भस्म और सोनामक्खी भस्म बराबर
| तदध दरदं विद्यात्तदर्धा च मनः शिलाम।। बराबर लेकर घीकमार के रस में घोट कर मंग के सर्वाधं मृतलोहं च खल्वमध्ये विनिक्षिपेत्। समान गोलियां बनावें।
द्विःसप्तभावना देयाः शतावर्या रसेन च।। __ इन्हें बालक की अवस्थानुसार १ या आधी गोली| ततः सिद्धो भवत्येष कमदेश्वरसंज्ञकः। की मात्रा में मिश्री युक्त दूध के साथ सेवन कराने से | सितया मरिचेनाथ गजाद्वित्रिप्रमाणतः।। ज्वर, श्वास, वमन, पारिगर्भिक, ग्रह दोष, स्तन्य भक्षयेत्प्रातरुत्थाय पूजयित्वेष्टदेवताम्। ग्रहण न करना (दूध न पीना), कामला, अतिसार, यक्ष्माणमग्रं हन्त्येव वातपित्तकफामयान्।। दुबलापन और पाचन विकार आदि रोग नष्ट होते हैं।
ज्वरादीनखिलान्रोगान्यथा दैत्याञ्जनार्दनः।
सतताभ्यासयोगेन वलीपलितनाशनः।। (१०२१) कुमुदेश्वरो रसः (र० सा० सं०। तृष्णा०)
पारा, गन्धक और अभ्रक भस्म १-१ भाग,
शंगरफ इन सब से आधा, मनसिल शंगरफ से आधी मृतताम्रस्य भागौ द्वौ भागैकं
और इन सब से आधी लोह भस्म लेकर सब को एकत्र
वङ्गभस्मकम। यष्टिमधुरसैर्भाव्यं शुष्कं माषार्द्धकं
इसे प्रातः काल इष्टदेव की पूजा करके मिश्री और
'शुभम्।। | मरिच के चर्ण के साथ २-३ रत्ती की मात्रानसार सेवन सेव्यञ्चैवानुपानेन वक्ष्यमाणेन बुद्धिमान्।
करने से यक्ष्मा और ज्वरादि वातज, पित्तज, तथा चन्दनं शारिवा मुस्तं क्षुद्रलानागकेशरम्।।
कफज रोग, नष्ट होते हैं। एवं इन के निरन्तर अभ्यास सर्वतल्या तथा लाजा पचेत्षोडशिकैलैः।
से वली पलित का नाश होता है। अर्द्धशेषं हरेत्क्वाथं सिताक्षौद्रयुतन्तु तत्।। १०२३) कमदेश्वरो रसः छर्दैि तृष्णां निहन्त्याशु रसोऽयं
(र० रा० सुं०। क्षय०) कुमुदेश्वरः।।
हेमभस्मरसभस्मगन्धकं मौक्तिकन्त ताम्र भस्म २ भाग और वंग भस्म १ भाग लेकर
रसटङ्कणं तथा मुलैठी के रस की भावना देकर सुखावें।
तारकं गरुडसर्वतुल्यकं काचिकेन परिमर्च इसे आधे माशे की मात्रानुसार नीचे लिखे अनुपान के साथ सेवन करने से छर्दि और तृष्णा का अत्यन्त
गोलकम्।। शीघ्र नाश होता है।
मृत्स्नया च परिवेष्ट्य शोषितं भाण्डके अनपान-चन्दन, शारिवा (उष्बा) मोथा, छोटी
लवणगे थ पाचयेत्। इलायची, और नागकेसर समान भाग तथा सबके बराबर धान की खील लेकर १६ गुने पानी में पकावें।। यहां शंगरफ आधा भाग और मनसिल पूर्वोक्त सबसे जब आधा पानी शेष रह जाए तो उतार कर छान लें। पहले भी ले सकते हैं।
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(३१०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
एकरात्र मृदुसंपुटेन वा सिद्धिमेति कुमुदेश्वरो | ..
रसः।।
| (१०२५) कुष्ठकुठारो रसः वल्लमस्य मरिचैघृतान्वितै राजयक्ष्म
(र० र० स०। अ० २०) परिशान्तये पिबेत्। सूतभस्मसमं गन्धं मृतायस्तामगुग्गुलुः।
त्रिफला विषमुष्टी च चित्रकश्च शिलाजतु।। (१०२३ अ) कुलवधू
इत्येवं चूर्णितं कुर्यात्प्रत्येकं निष्कषोडशम्। (र० सा० सं०। सन्नि०)
चतुःषष्टि करंजस्य बीजचूर्ण प्रकल्पयेत्।। शद्धसतं मतं तानं मतं नागं मनः शिला। चतुःषष्टि मृतं तामं मध्वाज्याभ्यां तुत्थकं तस्य तुल्यांशं दिनमेकं विमर्दयेत्।। ।
विलोडयेत्। द्रवैश्चोत्तरवारुण्या चणमात्रा वटीकृता। स्निग्धभाण्डगतं खादेद्विनिष्कं सन्निपातं निहन्त्याशु नस्यमात्रेण दारुणम्।।
___ सर्वकुष्ठजित्।। एषा कुलवधूर्नाम जले घृष्ट्वा प्रयोजयेत्।। | रसः कुष्ठकुठारोऽयं गलत्कुष्ठनिकृन्तनः। सोना भस्म, रस सिन्दूर, गन्धक, मोती भस्म,
पथ्यं त्रिमधुरं देयं तदभावे गुडौदनम्।। पारा, सुहागा, चांदी भस्म और सोना मक्खी भस्म
पातालगरुडीमूलं मधुपुष्पी च धान्यकम्। बराबर बराबर ले कर खरल करके कांजी में घोट कर
|सितया भक्षयेत्कर्षमतितापप्रणुत्तये।। गोला बनावें और उस पर कपर मिट्टी करके सुखाकर
लियानागबलामूलं मध्वाज्यैवातितापनुत्।। लवणयन्त्र में एक रात पकावें अथवा लघु पुट लगादें। इसे २-३ रत्ती की मात्रानुसार मरिच के चूर्ण और
__ रस सिन्दूर, गन्धक, लोह भस्म, ताम्र भस्म, घृत के साथ सेवन करने से राजयक्ष्मा का नाश होता है। | गूगल, त्रिफला, कुचला, चीता और शिलाजीत, इनमें
से प्रत्येक वस्तु का चूर्ण १-१पल, करंजवेकी गिरी का (१०२४) कुष्ठकालानलो रसः
चूर्ण ४ पल और ताम्र भस्म ४ पल लेकर सबको शहद (रसे० चि० म०। अ० ९). | और घी में मिलाकर चिकने बर्तन में भरकर रखदें।
- इसे २ निष्क* (८ माशे) की मात्रानुसार सेवन करने गन्धं रस टङ्कणताम्रलौह भस्मीकृतं
| से गलत्कुष्ठ और अन्य सब प्रकार के कुष्ठों का नाश
मागधिकासमेतम्। | होता है। पञ्चाङ्गनिम्बेन फलत्रिकेन विभावितं | पथ्य-घी, शहद और मिश्री एवं इसके अभाव में
राजतरोस्तथैव।। | गुडयुक्त भात।
__यदि इसके सेवन से अत्यधिक ताप हो तो पाताल नियोजयेद्वल्लयुग्ममानकं कुष्ठेषु सर्वेषु
गरुड़ी (कड़वी तोरी का भेद) की जड़, चोर होली और च रोगसंघे।।
धनिये का चूर्ण १ कर्ष परिमाण लेकर मिश्री मिलाकर
खिलावें। अथवा अत्यन्त ताप की शान्ति के लिये गन्धक, पारा, सुहागा, ताम्र भस्म और लोह भस्म
नागबला की जड़ का चूर्ण शहद और घी में मिलाकर तथा मरिच का चूर्ण बराबर बराबर लेकर नीम के
चटावें। पंचाङ्ग, त्रिफला और अमलतास के रसकी भावना दें।
इसे सब प्रकार के कुष्ठों में २ वल्ल (४-६ रत्ती) की मात्रानुसार सेवन कराना चाहिये।
तु मधुरमिति पाठान्तरम् *मात्रा अधिक प्रतीत होती है। (अनु०)
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( ३११)
(१०२६) कुष्ठकुठारो रसः
रसगन्धकताप्याशिला(र० र० स०। अ० २०)
जत्वम्लवेतसम्।
अष्टमांशगुडं साज्यमाक्षिकं रसस्य कर्ष कर्षों द्वौ गंधकात्कज्जलं तयोः।
स्याच्छतारुषि।। तिलपर्ण्यलिमण्डीनां स्वरसैः कृतभावनम्।। कर्ष कर्ष वचाधात्रीकणातीक्ष्णकृमिच्छिदाम्। पारा, गन्धक, सोना मक्खी भस्म, ताम्र भस्म, शाणं विषस्य कर्षाधं जीरकस्य सितस्य च।। शिलाजीत और अमलवेत १-१ भाग तथा गड़ सबका पलार्ध मृतताग्रस्य तथा शुण्ठयाश्च मर्दितम्। आठवां भाग लेकर सबको एकत्र मिलावें। भृङ्गाम्भसि घटे स्निग्धे पचेच्चणक
इसको घी और शहद में मिलाकर सेवन करने से संमिताः।।
शतारुषि (कुष्ठ भेद) का नाश होता है। वटिकाः कुष्ठविश्वाग्नित्रिफलासैंध- (१०२८) कुष्ठनिकृन्तनो रसः
वान्विताः।
(र० र०। कुष्ठ०) कुर्यात्कुष्ठकुठाराख्यो रसोऽयं सर्वकुष्ठजित्।। । शुद्धसूतं विषं गन्धं तुल्यं ताप्यं शिलाजत्।
'शुद्धतीक्ष्णं मृतं लौहं सर्वं मधु दिनत्रयम्।। एक कर्ष पारद और २ कर्ष गन्धक की कज्जली
| काकमाचीदेवदाल्योः कर्कोटेश्च द्रवैर्दृढम्। करके तिलपी (लाल चन्दन) और मण्डी के स्वरस की
मईयेद्भूधरे पाच्यं त्रिदिनन्तु तुषाग्निना।। भावना देकर उसमें बच, आमला, पीपल, तीक्ष्ण लोह
निष्काई लेहयेत्क्षौद्रैः रसः कुष्ठनिकृन्तनः। भस्म, और बायबिडंग का वर्ण १-१ कर्ष, मीठातेलिया
भल्लातवाकुची पथ्या विडङ्ग चित्रकं तथा।। ४ माशे, सफेद जीरा आधा कर्ष और ताम्र भस्म तथा
| जीरकं बदरीमूलं कटतैलेङ्गदेन तु। सोंठका चूर्ण आधा आधा पल मिलाकर घोटें। फिर उसे | भक्षयेदनुपानोऽयं हन्ति कुष्ठं विचर्चिकाम्।। चिकने घड़े में भांगरे के रस में पकावें। जब पकाते पकाते गोली बनाने योग्य हो जाय तो उसमें कूठ, सोंठ, पारा, मीठातेलिया, गंधक, सोनामक्खी भस्म, चीता, त्रिफला, और सेंधा नमक का प्रक्षेप। डाल कर | शिलाजीत और तीक्ष्ण लोह भस्म, समान भाग लेकर ३ चने के बराबर गोलियां बनावें। इस के सेवन से सब | दिन तक मकोय. देवदाली और ककोडे के रस में घोटें। प्रकार के कुष्ठ नष्ट होते हैं। व्यवहारिक मात्रा १ से ४ फिर ३ दिन तक भूधरयन्त्र द्वारा तुषाग्नि में पकावें। गोली तक।
इसे शहद में मिलाकर आधा निष्क की मात्रानुसार
निम्नलिखित अनुपान के साथ सेवन करने से कष्ठ और (१०२६ अ) कुष्ठजितरसः
विचर्चिका का नाश होता है। (र० र० म० अ० २०)
___ अनुपान-भिलावा, बाबची, हैड, बायबिडंग, देखो "कृष्णमाणिक्य रस"
चीता, जीरा, बेरीकी जड़की छाल, कड़वातेल और हिंगोटकातेल। चूर्ण योग्य चीजों का चूर्ण करके तेल में
मिलावें। (१०२७) कुष्ठनाशनो रसः (र० र० स०। अ० २०)
(१०२९) कुष्ठरुद्रेश्वरो रसः *किन्हीं किन्हीं के मत में कट, मोंठ, चीता, त्रिफला
(र० चि० म०। ३ स्वबकः) और सेंधा प्रक्षेप नहीं प्रत्युत् अनुपान है।
पारदं गन्धकं घृष्ट्वा पलद्वयमितं पृथक्।
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( ३१२)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
शुद्धं नागं तथा वङ्ग ग्रहणीयं च शुल्बकम्।।। इसे १ माशे से २ माशे तक या न्यूनाधिक शुद्धं पित्तलमप्येवं शद्धं कान्तं पलं पलम। मात्रानुसार नीचे लिखे अनुपान के साथ सेवन करावें। चूर्णितं शुद्धलोहं च तारं ताप्यं पलं पलम्।। | एवं पथ्य पालन करावें। एकीकृत्य च तत्सर्वं खल्वे मृष्ट्वाऽथ भाव्यते। ___ अनुपान-खैर, असन और रोहितक (रुहेड़ा) की विषस्यापि पलं देयं भाव्यते त्रिफलाम्भसा।।
छाल को बकरी के मूत्र में पकाकर क्वाथ तैयार करें। पुनश्च भृङ्गराजस्य राजवृक्षस्य भावना।
इस के साथ उपरोक्त रस सेवन करावें और धूप में बीजकस्य रसैः पश्चात्खदिरक्वाथमर्दनम्।।
बैठाकर मरिचाद्य तेल की मालिश करावें। महानिम्बस्य निम्बस्य क्याथैरेतद्विभाव्यते।
___इसके सेवन से इधर उधर जाने वाले पीप, समस्त
शरीर की सूजन, साध्य, असाध्य, शास्त्रज्ञ वैद्यों से अर्कसेहण्डदग्धस्य भावना पञ्च पञ्च च।।
| त्यक्त और पर्व कर्मों के दोष से उत्पन्न कष्ठ भी शीघ्र ही दातव्याः शोषयेन्मषे क्षिप्त्वाऽप्यन्धे पुटो
| नष्ट हो जाता है।
महान्। इसके सेवन से पथ्य पालन करना चाहिए और देयः पश्चाद्ग्रहीतव्यं तच्च रूपेण सुप्रभम्।।
सदैव योगियों और गुरुजनों की पूजा तथा तर्पण करना
चाहिये। दीयन्ते माषमेकं तन्न्यूनं वापि विचार्य च। पुनर्माषद्वयं दद्यादनुपानेन संयुतम्।। खदिरासनरोहीतक्वाथं कर्यात्सपाचितम्।
(१०३०) कुष्ठशैलेन्द्रो रसः छागमूत्रेण संपक्वमनुपानं शुभावहम्।।
(लोहः) (र० र०। कष्ठ०) मण्डलानां प्रणाशाय पूर्वोक्तं लिप्यते तथा।
तालकं मरिचं कुष्ठं काचटङ्कनिशा वचा। मरिचाद्यं दिनं धर्मे स्थातव्यं तैलसेवनम्।।
निर्गण्डी निम्बकरलाबीजं वा दलमेव वा।। तथ्ये पथ्येपि वर्तेत शिवभक्तिपरायणः।
प्रत्येकं तोलकं चूर्णं चूर्णतुल्यन्तु गुग्गलः। उत्पथं गतपूयस्य भवेदुच्चाटनं ध्रुवम्।।
बाकुच्या पलिकं ग्राह्यं पलं सूतं च गन्धकम्।। 'श्वयथः सर्वदेहस्य शीघ्रमेव विनश्यति।
लोहस्य द्विपलं चात्र त्रिफलाजलशोधितम्। सप्तधातुगतं वापि साध्यासाध्यं तथैव च।। षण्मासा वटिका कार्या गोमूत्रेण निषेविता।। वैद्यवन्दैः परित्यक्तं त्यक्तं शास्त्रपरैरपि।
कुष्ठशैलेन्द्रवज्राख्यो लोहोऽयममृतोपमः। तत्कुष्ठं पूर्वकर्मोत्थं शीघ्रमेतद्विनाशयेत्।।
अष्टादशानि कुष्ठानि कण्डूदद्रुसकुष्ठकम्।। परं पथ्यविधि कुर्याद्यथाप्रोक्तं तथा सदा।
विद्रधि गण्डमालाञ्च गर्दभामुपगर्दभाम्। योगिनां सततं पूजां कुर्यात्तेषां च तर्पणम्।। | प्लीहगुल्मोदरान्हन्ति कासं श्वासं गुरुतां महतां पूजां कुर्याच्च कामिताशनम्।
हलीमकम्।। कुष्ठरुद्रेश्वरो नाम रसोऽयं भुवि दुर्लभः।।
कामलापाण्डुरोगांश्च श्वयधुश्चामवातजम्।
चन्द्रनाथमुखाच् छ्रुत्वा गहनानन्दभाषितः।। प्रथम २-२ पल पारा और गन्धक लेकर कज्जली
एष लोहरसो दिव्यो मेधायुर्बलदायकः। करें फिर उसमें सीसा, भस्म, बंग भस्म, तांबा भस्म, पीतल भस्म, कान्त लोह भस्म, लोह भस्म, चांदी
| कालदेशवयोवनीन्दृष्ट्वा वा त्रुटिवर्द्धनम्।। भस्म, सोनामक्खी भस्म और मीठा तेलिया १-१ पल
अनुपानं प्रकर्त्तव्यं वातिके विश्वकुण्डली। मिलाकर घोटें फिर उसे त्रिफला भांगरा, अमलतास,
पटोलमुद्गैःपित्ते च पर्पटेनापि वारिणा।। बिजौरा, खैर, महानीम और नीम के रस तथा आक |
अङ्कोठदलनीरेण चक्रमईरसैःकफे। और सेंड के दूध की पृथक् पृथक् ५-५ भावना देकर केवले वातिके पैते गोमूत्रं परिवर्जयेत्।। सुखाकर अन्ध मूषा में बन्द करके महापुट दें।
मूत्रस्थाने प्रकर्तव्यं छागीदग्धं न संशयः।।
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ककारादि-रस
|
शुद्ध हरताल, कालीमिर्च, कूठ, कांच (या कांच लवण), सुहागोकी खील, हल्दी, वच, सम्भालं, नीम और करेले के बीज या पत्ते प्रत्येक १ -१ | तोला | गूगल १० तोले, बाबची ५ तोला, शुद्ध पारा ५ तोला शुद्ध गन्धक ५ तोला और त्रिफले के जल में शुद्ध किया हुवा लोह चूर्ण १० तोला लेकर प्रथम पारे और गन्धक की कज्जली करें फिर अन्य सब चीजों का चूर्ण मिलाकर ६-६ माशे की गोलियां बनावें ।
इन्हें गोमूत्र के साथ सेवन करने से १८ प्रकार के कुष्ठ, खुजली, दाद, विद्रधि, गण्डमाला, गर्दभिका, तिल्ली, गुल्म, उदररोग, खांसी, श्वास, हलीमक, कामला, पाण्डु और आमवातज शोथ का नाश होता है एवं मेधा, आयु और बल की वृद्ध होती है ।
काल, देश, आयु और अग्नि बल का विचार करके इसकी मात्रा घटाई बढ़ाई भी जा सकती है ।
के
वायुकी प्रधानता में सोंठ और गिलोय के तथा पित्त की प्रधानता में पटोलपत्र और मूंग यूष अथवा पित्तपापड़े के काथ के साथ देना चाहिए, और कफ की प्रधानतामें अंकोट के पत्तों के रस और पंबाड़ के रस के साथ देना चाहिए । केवल वातिक या पैत्तिक रोगों में गोमूत्र न देकर बकरी का दूध देना चाहिए । [१०३१] कुष्ठहरितालेश्वरो रसः
(२० सा० सं० । कुष्ठ० ) हरितालं भवेद्भागा द्वादशत्र विशुद्धितम् ॥ गन्धकोपि तथा ग्राह्यो रसः सप्तोत्र दीयते । कृष्णाभ्रकमपि श्लक्ष्णं खल्ले कृत्वा विमर्द्दयेत् । अङ्कोटमूलनीरेण से हुण्डी पयसाथवा ॥ अर्कदुग्धेन संपिष्य करवीरजलेन च ।
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( ३१३ )
काठोदुम्बरनीरेण पेषणीयो रसो भृशम् ॥ शुद्धताम्रकोटरे च क्षेपणीयो रसेश्वरः । पञ्चगुञ्जाप्रमाणेन काठोदुम्बरवारिणा ।। कुष्ठाष्टादशसंख्येषु देय एष भिषग्वरैः । अचिरेणैव कालेन विनाशं यान्ति निश्चयः । पथ्यसेवा विधातव्या प्रणतिः सूर्यपादयोः । साधकेन तथा सेव्यो रसो रोगौघनाशनः ॥ पिप्पलीभिः समं दद्यात्कुष्ठरोगे रसेश्वरम् ॥
शुद्ध हरताल १२ भाग, शुद्ध गन्धक १२ भाग और शुद्ध पारा ७ भाग लेकर कजली करके अङ्कोट की जड़ के रस, आक और सेहुंड के दूध और कनेरके तथा कटुमर ( गूलरभेद) के रस की भावना देकर खूब घोटें । फिर उसे शुद्ध तांबे के मूषामें बन्द करके पुटपाक विधि से ६ पहर पकावें । इसे ५ रत्ती की मात्रानुसार कठूमर के पीपल के चूर्ण के साथ सेवन करने से १८ प्रकार
1
कुष्टों का अत्यन्त शीघ्र नाश होता है । औषधि सेवन काल में पथ्य अवश्य पालन करना चाहिए तथा सूर्य की बन्दना करनी चाहिए ।
[१०३२] कुष्ठान्तको रसः (र. र. । कुष्ठ) शुद्धभूतं द्विधा गन्धं निर्गुण्डीबा कुचीरसैः । दिनैकं मर्द्दयेत्पाच्यं यामं लवणयन्त्र के || उद्धृत्य चूर्णयेत्तुल्यैत्रिफलाबाकुचीफलैः । तुल्यांश] भृङ्गचूर्णश्च सर्वमेकत्रपाचयेत् ॥ पलाशखदिरक्काथं गोमूत्रैर्लोहभाजने । दिनेकान्ते वटीं कुर्यानिष्कैकं भक्षयेत्सदा ॥ कुष्ठं विस्फोटकं हन्ति नाम्ना कुष्ठान्तको रसः । मर्द्दनं भानुतैलेन आतपे कारयेत्सदा ॥
शुद्ध पारा १ भाग और शुद्ध गन्धक २ भाग लेकर १-१ दिन संभाल और बाबची के रस में
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(३१४)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर।
घोटें फिर यथा विधि १ पहर तक लवणयन्त्र में | [१०३४] कुष्टेभकेसरी रसः (रसा. सा.) पकावें । इसके पश्चात् स्वांग शीतल होने पर | अविमत्रेण संस्वेद्य निरालम्वं च तालकम । निकालकर चूर्ण करें और समान भाग त्रिफला, अतिचूर्ण प्रकर्तव्यं मृदलं च भवेद्यथा ॥ बाबची तथा भांगरे का चूर्ण मिलाकर धोटें फिर | पश्चान्महति खल्वे तक्षिप्त्वा मयं सुवर्णजे । १ दिन तक ढाक और खैरके क्वाथ तथा गोमूत्र | रसेकष्माण्ड जेनापि गोजिह्वारसमर्दितम ॥ में लोहे के बर्तन में पकाकर गोलियां बनावें । | दिनदयं द्वयं साहं प्रत्येकेन विमर्दयेत् ।
___ इसे २-३ रत्ती की मात्रानुसार सेवन करने | अर्कदग्धेन तसालं यजीदग्धेन मर्यते ॥ से कुष्ठ और विस्फोटक का नाश होता है।
बाकुच्यागुजिकायाश्च भल्लातानां तथैव च । ___ कुष्ठी को धूप में बैठकर भानु तैल की मालिश एषां तैलेन कर्तव्यं मर्दनं तालके भशम ॥ करनी चाहिए।
दिनपश्चावधिवित्तैस्तैलैरेव मर्दयेत् । [१०३३] कुष्ठान्तकपर्पटी रसः | आरोप्य काचकुम्भेऽमुं वह्निः स्थात्पञ्चयामकम् ।।
(र. र. स. । अ. २०) उत्तार्य च पुनः सकिं तेन तैलेन मद्यते । पलैक शुद्धसूतस्य कर्फे शुद्धगन्धकम् । | बङ्गस्य खोटिकाकारं तले तस्य भविष्यति । गन्धतुल्यं मृतं तानं सूतांशं मईयेद्विषम् ॥ कृप्याश्च दृश्यते रूपं रूप्यस्येव न संशयः। सर्वतुल्यं पुनर्गन्धं दत्वा किश्चिद्विघट्टयेत्। । अधस्तात्ताल सवं रमभस्मसमं च यत् ।। घृताम्यक्त लोहपात्रे पचेद्यावद्द्वीभवेत् ॥ | ग्राह्यं देयं द्विगुञ्जाभं गलत्कुष्ठनिवृत्तये । रम्भापत्रे पटे वाथ पातयेत्पर्पटीं तदा। । | काकोदुम्बरिकामूलवारि चित्रेऽनुपाययेत् ।। मापैकं चूर्णितं खादेद्गजचर्म नियच्छति ॥ "केवलं तालजं सच ताने चाष्टादशांशिके । निष्कैकं बाकुचीचूर्ण लेहयेदनुपानकम् ॥ भागमेकमिदं दद्यात्तानं तारं भविष्यति" ॥ ___ शुद्ध पारा ५ तोला, शुद्ध गन्धक १॥तोला, | वनस्य विटपाकारे दृश्यते वनदण्डिकम् । ताम्र भस्म १। तोला और शुद्ध मीठातेलिया ५ | वनदण्डिसमैः पत्रैः किश्चिदीर्घ च तद्भवेत ।। तोला लेकर मर्दन करें फिर उसमें सबके बराबर ! ग्राह्यं तन्मूलकं चूर्ण वटिकाः कोलसंमिताः । शुद्ध गन्धक मिलाकर घी चुपड़ी हुई लोहे की कड़ा- | प्रत्यहं दीयते चैका क्षणं स्थित्वा विरिच्यते ।। ही में डालकर (मन्दाग्नि पर) पकावें । जब वह अतीव रेचयत्येषा कुष्टनाशे महौषधम् । पिघल जाय तो उसे केले के पत्ते या कपड़े पर | एकस्मात्सप्तकादूर्घ गलत्कुष्ठं विशोषयेत् ॥ ढालकर पर्पटी बनावें।
क्रमिलं घोररूपं च दुर्निरीक्ष्यं च यद्भवेत् । इसे १ माशे की मात्रानुसार सेवन करने से | अष्टादशसु कुष्ठेषु यदसाध्यं भिषग्वरैः ॥ गज चर्म का नाश होता है।
| योगोऽयं नाशयत्येव रसः कुष्ठेभकेसरीः । अनुपान-दवा खाने के बाद ५ माशा हरताल को दोलायन्त्र द्वारा भेड के मूत्रमें बाबची का चूर्ण चाटें।
स्वेदन करके अत्यन्त महीन चूर्ण करें फिर उसे
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ककारादि-रस
(३१५)
बड़े खरल में डालकर धतूरे, पेठे और गोभी के । कर्षाऽर्द्धमात्रः क्रिमिपीडिताय ॥ रस तथा आक और सेंडके दूधमें २-२ दिन खूब हिंगुलोत्थपारद एक तोला, शोधित आमलाघोटें । फिर उसे वावची, गुञ्जा (चौटली) और सार गन्धक दो तोले, अभ्रक भस्म तीन तोले, लोह भिलावे के तेल में ५-५ दिन तक घोटे । इसके , भस्म चार तोले शुद्ध किया हुआ बच्छनागविष एक पश्चात् उसे शीशी में भरकर (बालुका यन्त्र द्वारा) तोला, बायबिडंग पांच तोले, कुड़े की छाल ढाई पांच पहर की अग्नि दें। फिर निकालकर उपरोक्त | तोले । इन चीज़ों में से प्रथम पारद गन्धक की तेलों में घोटें । (और उसी प्रकार पका) जब शीशी कजली करने के बाद अभ्रक भस्म और लोह भस्म के तल भाग में वङ्ग की खोटिका के समान सफ़ेद को भी डाल कर खूब घोटे । बादमें सब चीज़ों को वर्ण दीखने लगे तो (स्वांग शीतल होने पर) शीशी कूट कपरछन करके इसे कजली में डाल कर मर्दन के नीचे लगे हुवे पारे की भस्म के समान हरताल करे । जब सब चीजें मिल जाय तब शीशी में भर के सत्व को निकाल लें।
कर रख छोड़े, यह क्रिमि रोग के नाश करने के इसे २ रत्ती की मात्रानुसार सेवन कराने से लिये कालकरके समान है। इसकी मात्रा छः माझे गलकुष्ट का नाश होता है।
तक की है शहद के साथ या गरम पानी के __"इसे श्वेत कुष्ठ में कठूमरकी जड़ के रस के
साथ दे सकते हैं। साथ देना चाहिए। १ भाग हरताल सत्वके योग से १८ भाग तांबा चांदी होजाता है"।
[१०३६] कृमिकालानलो रसः बन में “वनदण्डि" नामक एक वृक्ष होता है,
(र. रा. मुं.। कृमि.) उसके पत्ते सोना पाठा के समान उससे कुछ बड़े
| विडङ्ग द्विपलञ्चव विषचूर्ण तदर्धकम् । होते हैं । उसकी जड़ का चूर्ण करके ७॥-७॥
लोह चूर्ण तदर्धश्च तदधं शुद्धपारदम् ।। माशे की गोलियां बनावें । इनमें से प्रति दिन एक
| रस तुल्यं शुद्धगन्धं छागीदुग्धेन पेषयेत् । गोली खिलावें । इससे अत्यन्त विरेचन होकर १
| छायाशुष्का वटीं कृत्वा खादेत् पोडशरक्तिकाम्।। सप्ताह के बाद गलत्कुष्ठ सूखने लगता है और
| धान्यजीरानुपानेन नाम्ना कालानलो रसः । कृमियुक्त घोररूप, घृणित तथा वैद्यों से असाध्य | उदरस्थं कृमीन हन्याद् ग्रहण्यशः समन्वितम् ॥ अठारह प्रकार के कुष्ट नष्ट हो जाते हैं । अग्निदः शोथशमनो गुल्मप्लीहोदरान जयेत् । [१०३५] कृमिकालकूटो रसः | गहनानन्दनाथेन भाषितो विश्वसंपदे ॥
(र. चि. म.। ३ स्तब्कः ; रसा. सा.) ___बायबिडंग १० तोला, शुद्ध मीठा तेलिया सूतेन्द्रगन्धाऽभ्रकलोहभस्म
५ तोला, लोह भस्म २॥ तोला, शुद्ध पारा १॥ वर्धिष्णुमात्रं प्रथमाद्वितीयं
तोला और शुद्ध गन्धक १। तोला लेकर बकरी विष रसेन्द्रेण सम विडङ्गं
के दूध में घोट कर गोलियां बनाकर छाया में समस्ततुल्यं कूटजत्वगर्धा।
सुखावें। संमर्दितोऽयं क्रिमिकालकूटः
इन्हें धनिये और जीर के चूर्ण के अनुपान
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(३१६)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
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के साथ १६ रत्ती की मात्रानुसार सेवन करने से । कपूर ८ भाग, इन्द्रजौ, त्रायमाणा, अजमोद, उदरस्थ कृमि, संग्रहणी, बवासीर, शोथ, गुल्म, | बायबिडंग, शुद्ध शिंगरफ़, शुद्ध मीठातेलिया और तिल्ली और उदर रोगों का नाश होता तथा अग्नि | केशर १-१ भाग लेकर चूर्ण करके १ दिन भांगरे प्रदीप्त होती है।
के रस में अच्छी तरह घोटें फिर ढाकके बीज (१ [१०३७ कृमिकाष्ठानलो रसः। भाग) मिलाकर मूसाकन्नी और ब्राह्मी के रस में
(र. सा. सं. । कृमि.) | घोटकर ३-३ रत्ती की गोलियां बनावें । विशुद्ध पारदं गन्धं वङ्गं तालं वराटकम्। इन्हें धतरे के साथ सेवन कराने से ७ प्रकार मनःशिला कृष्णकाचं सोमराजी विडङ्गकम् ॥ के कृमि नष्ट होते हैं। दन्तीबीजश्च जैपालं शिला टङ्कण चित्रकम् ।
| [१०३९] कृमिकुठारः (२) (यो. र. कृमि.) कर्षमात्रन्तु प्रत्येकं वज्रीक्षीरेण मईयेत् ॥
| विश्वं रामठसेन्धवाग्निमरिचं पथ्यावचागुग्गुलुकलायसहशीं कृत्वा वटिकां भक्षयेत्ततः। कृमिकाष्ठानलो नाम रसोयं परिनिर्मितः।
झेलं रात्रिविडङ्गकुष्ठलशुनं गन्धः कुबेराक्षकः ।
इन्द्रोद्भूतपलाशबीजखदिराजाजीकणादीप्यकं श्लैष्मिके श्लेष्मपित्ते च श्लेष्मवाते च शस्यते॥
सौवर्च मधुना गुटी कृमिकुठाराहा रुजाजन्तुनुद शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, वङ्ग भस्म, हरताल
सोंठ, हींग, सेंधा, चीता, कालीमिर्च, हैड़, भस्म, कौंडी भस्म, शुद्ध मनसिल, काले रंग का कांच (भस्म), बाबची, बायबिडंग दन्ती के बीज,
बच, गूगल, बीजाबोल (मुरमुकी) हल्दी, बायबिडंग, जमालगोटा, शुद्ध शिलाजीत, सुहागे की खील
कूठ, ल्हसन, शुद्ध गन्धक, करजवा, इन्द्रजौ, ढाकके और चीता ११-१। तोला लेकर थोहर के दूध में
बीज, खैर, जीरा, पीपल, अजवायन और सौंचल घोट कर मटरके समान गोलियां बनावें ।
(काला) नमक बराबर २ लेकर चूर्ण करके शहद इसके सेवन से कफज, कफपित्तज और कफ के साथ गोलियां बनावें । वातज क्रिमियों का नाश होता है । ___इनके सेवन से कृमि नष्ट होते हैं । [१०३८] कृमिकुठारो रसः (१) [१०४०] कृमिघ्न रसः ___(र. रा. सुं. । कृमि.)
(र. र. स. । अ. २०) करं चाष्टभागं च कुटजश्चैक भागकः। | रसस्य निष्कमादाय गन्धकं तत्समं कुरु। तत्समानं त्रायमाणमजमोदाविडङ्गकम् ।। | तानं देहि तदर्ध च पश्चाङ्गशाकवारिणा ।। हिङ्गलं विषभागं च तत्समानं च केशरम् । । मर्यादेकदिन रात्रौ क्षिपेत्तत्रैव यत्नतः। सर्व दृढं च संमद्ये भृङ्गाराजरसैर्दिनम् ॥ क्षीरिणीवाथमादाय तथा कुरु दिनान्तरे ॥ पालशबीजसंमिश्रमुन्दरीरसभावितम् । दत्वा लघुपुटं पश्च जयपालान्विमर्दयेत् । ब्राझीरसं ततो दत्वा सिद्धत् कृमिकुठारकः॥ देहि गुंजाद्वयं चास्य साज्यं शूलच्छिदे तथा ।। यल्लमात्रा वटीं कृत्वा दद्याद्धेमसमन्विताम् । शुद्ध पारा ५ माशा, शुद्ध गन्धक ५ माशा कुर्यास्कृमिविनाशं च एवं सप्तविध दृढम् ॥ । और ताम्र भस्म २।। माशा लेकर १ दिन शाक
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ककारादि-रस
(३१७)
वृक्ष (शागोन) के पंचांग के रस में घोटकर रात । भस्म १-१ भाग तथा हैडका चूण ४ भाग लेकर भर उसीमें भीगा रहने दें । फिर दूसरे दिन सत्या- | दण्डयन्त्र से कूटकर पटोलपत्र के स्वरसकी भावना नासी (रुस) के रसमें घोटकर रातभर उसीमें भीगा | देकर कपास के बीज (बिनौले ) के बराबर रहने दें। इसके पश्चात् यथा विधि लघुपुट दें, फिर | गोलियां बनावें। उसमें पांच दाने शुद्ध जमालगोटे के मिलाकर घोटें। इन्हें केवल पैत्तिक कृमिरोग में और कभी २
इसे दो रत्ती प्रमाण घी के साथ देने से कृमि | वातपित्तज कृमि रोग में ठंडे पानी के साथ ३ रोग और शूल नष्ट होता है।
| गोली की मात्रा से प्रयोग करना चाहिये । [१०४१] कृमिदावानलो रसः [१०४३] कृमिमुद्रो रसः (र. रा. सुं । कृमि.)
(र. रा. मुं. । कृमि) हिलः कर्षमानं स्यादन्ती बीजं तदर्धकम् । क्रमेण वृद्धं रसगन्धकाजअकक्षीरेण संमद्य दापयेद्भावना दश ।
मोदाविडङ्गं विषमुष्टिका च। माषमानं प्रदातव्यमर्कमूलरसं पुनः। पलाशबीजश्च विचूर्णमस्य प्रपिबेद्धिङ्गसंयुक्तं कृमिजालनिपातनम् ।। निष्कप्रमाणं मधुनावलीढम् ॥ कृमिदावानलो नाम नाशयेत्कृमि सत्वरम् ।। पिबेत्कषायं धनजं तदूर्व
शुद्ध शिंगरफ़ १। तोला और दन्ती के बीज रसोऽयमुक्तः कृमिमुद्राख्यः । ७॥ माशा लेकर आक के दूध की १० भावना दें। कमीनिहन्ति कृमिजांश्च रोगान्
इसे एक माशे * की मात्रानुसार सेवन कराने | संदीपयत्याग्निमयंत्रिरात्रात् ।। से कृमि अत्यन्त शीघ्र नष्ट होजाते हैं । अनुपान- शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, दवा खाने के बाद आककी जड़ के रस मे हींग का अजमोद ३ भाग, बायबिडंग ४ भाग, शुद्ध कुचला चूर्ण डाल कर पिये।
५ भाग, और ढाकके बीज ६ भाग, लेकर चूर्ण करे। [१०४२] कृमिधूलिजलप्लवो रसः ___इसे ३ रत्ती की मात्रानुसार शहद में मिला (र. रा. सु.। कृमि.)
कर चाटें और ऊपर से नागरमोथे का क्वाथ पियें। पारदं गन्धकं शुद्धं वङ्ग शङ्ख समं समम्।। इसे ३ दिन तक सेवन करने से कृमि और उनसे चतुणी योजयेत्तुल्यं पथ्याचूर्ण भिषग्वरः ॥ उत्पन्न होने वाले रोग नष्ट होते तथा अग्नि प्रदीप्त दण्डयन्त्रेण निर्मथ्य पटोलस्वरसं क्षिपेत् । होती है। कार्पासवीजसदृशीं वटिकां कुरुयत्नतः॥ [१०४४] कृमिरोगारि रसः त्रिवटी भक्षयेत्मातः शीततोयं पिबेदनु।। (र. रा. सुं.। कृमि, रसे. सा. सं, धन्व.) केवलं पैत्तिके योज्याकदाचिवातपैत्तिकै ॥ सूतं गन्धं मृतं लोहं मरिचं विषमेव च । श्रीमद्गहननाथोक्ताकृमिधूलिजलप्लवः ॥ धातकी त्रिफला शुण्ठी मस्तकी सरसाञ्जनम् ।।
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, वङ्ग भस्म और शंख त्रिकटुं मुस्तकं पाठा बालकं विल्वमेव च । * मात्रा अधिक प्रतीत होती है। मनु० । भावयेत्सर्वमेकत्र खरसैर्भूगजैस्ततः।
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(३१८)
भारत-भैषज्य रत्नाकर बराटिका प्रमाणेन भक्षणीयो विशेषतः। | द्विगुणं हरवीर्य च दशमांशं च सक्तकम् ॥ कृमिरोगविनाशाय रसोऽयं कृमिनाशनः॥ मंजिष्ठादिकषायेण बालुकायन्त्रपाचितम् ।
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म, काली- कृष्णमाणिक्यसंकाशमिदं भस्मैव कृष्ठजित् ।। मिर्च, शुद्ध मीठातेलिया, धायके फूल, त्रिफला, सोंठ, | सोना मक्खी भस्म, शुद्ध गन्धक, तीक्ष्णलोह मस्तगी, रसौत, त्रिकुटा, नागरमोथा, पाठा, सुगन्ध- भस्म, कांतलोह भस्म, और अभ्रक भस्म, १-१ बाला और बेल सब चीजें समान भाग लेकर | भाग शुद्ध पारा २ भाग तथा सक्तुक (विषभेद) भांगरे के रसमें घोटें।
दशवां भाग लेकर यथाविधि बालुकायन्त्र इसे ३ रत्ती प्रमाणमें सेवन करने से कृमि | में पकावें । रोग नष्ट होता है ।
इसे मजिष्ठादि क्वाथ के साथ सेवन करने [१०४५] कृमिविनाशनो रसः से कुष्ठ का नाश होता है।
(र. रा. सु. । कृमि.) | [१०४८] कृष्णाचं लौहम् कृमिन किंशुकारिष्टबीजं सरसभस्मकम् । | (र. र; यो. र. शूले) वल्लद्वयं चाखुपीरसैः कृमिविनाशनः ॥ कृष्णाभयालोहचूर्ण लेहयेन्मधुसर्पिषा ।
बायबिड़ल, ढाक के बीज, नीम के बीज परिणामोद्भवं शूलं सद्यो हन्ति त्रिदोषजम् ।। (निबौली) और रससिन्दूर बराबर बराबर मिलाकर पीपल, हैड़, और लोहे के चूर्ण को शहद ३ रत्ती की मात्रानुसार मूसाकर्णी (चूहाकन्नी) के | और घी में मिलाकर चटाने से त्रिदोषज परिणामरसके साथ सेवन करने से कृमि रोग नष्ट होता है। शूल अत्यन्त शीघ्र नष्ट होता है। [१०४६] कृमिहरो रसः ।। [१०४९] कोलादिमण्डूरम्
(र० सा० सं० । कृमि० ) ( भै. र; वृ. मा: ग. नि. च. द; व. से; शू०) शुद्धसूतमिन्द्रयवमजमोदा मनःशिला। कोलाग्रन्थिकशृङ्गवेरचपलाक्षारैः समं चूर्णितम् फ्लाशवीजं गन्धश्च देवदाल्या द्रवैदिनम् ॥ मण्डूरं सुरभीजलेऽष्टगुणिते पक्त्वाथ सान्द्री समर्थ भक्षयेमित्यं शालपर्णीरसैः सह ।
कृतम् ॥ सितायुक्तं पिबेचानु क्रिमिपातो भवन्त्यलम् ॥ तत्वादेदशनादिमध्यविस्तौपायेण दुग्धानभुम्।
शुद्ध पारा, इन्द्रजौ, अजमोद, शुद्ध मनसिल, जेतुं वातकफामयानपरिणतौशूलश्च शुलानिच॥ ढाक के बीज ओर शुद्ध गन्धक, बराबर बराबर चव्य, पीपलामूल, सोंठ, पीपल और जवाखार लेकर १ दिन देवदाली के रस में घोटें। १-१ भाग तथा मण्डूर का चूर्ण सबके बराबर
इसे मिश्रीयुक्त शालपर्णी के रस के साथ लेकर आठगुने गोमूत्र में पकाकर गाढ़ा करके रक्खें। सेवन करने से कृमि रोग नष्ट होता है। इसे भोजन के आदि मध्य और अन्तमें सेवन [१०४७] कृष्णमाणिक्यरसः करने तथा प्रायः दुग्धान्न का आहार करने से (र. र. स. अ. २०; र. रा. सुं; र. का. धे.) | वातकफज रोग, परिणाम शूल और अन्य प्रकार हेममाक्षिकगन्धाधमतीक्ष्णकान्तानकं समम् । । के शलों का नाश होता है ।
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कारादि-स
(३१९)
-
[१०५०) कांस्यपिष्टिका रसः । ___ भस्मविधि---कांसी के पत्रों पर आक के दूध
(र. रा. सु. पाण्डु.) और काजी (या नींबू के रस) में घुटे हुवे समान कांस्येन पिष्टिकां कृत्वा देवदालीरसप्लुताम् । | भाग गन्धक का लेप करके मूसा में बन्द करके तीक्ष्णगन्धरजोयुक्ता युक्त्या हन्यात् हलीमकम्॥ गजपुट देने से २ पुट में कांसी की भस्म होजाती ___ कांसी भस्म को देवदाली के रस में पीस | है। पीतलकी भस्म बनानेकी भी यही विधि है। कर उस में तीक्ष्णलोह की भस्म और शुद्ध १०५२] क्रव्याद रसः गन्धक बराबर बराबर मिलाकर पीसकर यथो । (र. रा. सुंर. र. स. अ. १९, यो. र. अजी. चित विधि से सेवन किया जाए तो हलीमक
र. च.; रसे. चि. म. ९ स्तब्कः ) रोग नष्ट होता है।
पलं रसस्य द्विपलं वले स्या[१०५१] कांस्यभस्म
__छुल्वायसी चार्द्धपलप्रमाणे । (आ. वे. प्र. । अ. १२)
संचूर्ण्य सर्व द्रुतमग्नियोगाशोधनम्पत्तलीकृत पत्राणि कास्यरीत्योः प्रतापयेत् । ।
देरण्डपत्रेऽथ निवेशनीयम् ॥ निपिश्चेत्तप्ततप्तानि तैले तक्रे च कालिके ।
कृत्वाथ तो पर्पटिकां विदध्यागोमूत्रे च कुलत्थानां कषाये च त्रिधा विधा।
लोहस्य पात्रे त्ववपूतमस्मिन् । एवं कांस्यस्य रीतेश्च विशुद्धिः संप्रजायते ॥
जम्बीरज पक्करसं पलानां
शतं नियोज्याग्निमथाल्पमल्पम् ॥ विशेष शोधनम् -
जीर्णे रसे भावितमेतदेतैः गोमूत्रेण पचेद्यामं कांस्यपत्राणि बुद्धिमान् । | दृढाग्निना विशुध्यन्ति पक्वान्यम्लद्रवेऽपि वा ।।
___ सुपञ्चकोलोद्भववारिपूरैः।
सवेतसाम्लैः शतमत्र योज्यं मारणम्-- अर्कक्षीरेण संपिष्टो गन्धकस्तेन लेपयेत् ।
समं रजष्टङ्गणजं सुभृष्टम् ॥ समेन कांस्यपत्राणि शुद्धान्यलद्रवैर्मुहुः॥
विडं तदद्ध मरिचं समक्ष ततो मूषा पुटे धृत्वा पुटेद्गजपुटेन च।
तत्सप्तवारं चणकाम्लकेन । एवं पुटद्वयाद् कांस्यं रीतिश्च म्रियते ध्रुवम् ॥
क्रव्यादनामा भवति प्रसिद्धो ___साधारण शुद्धि-खांसी और पीतलके बारीक
रसस्तु मन्थानकभैरवोक्तः ॥ पत्रोंको अग्निमें तपा तपा कर तेल, तक्र, काञ्जी
माषद्वयं सैन्धवतकपीतगोमूत्र और कुलथी के क्वाथ में ३-३ बार बुझा
__मेतत्सुधन्यं खलु भोजनान्ते । नेसे कांसी और पीतल शुद्ध होजाती है। मात्रातिरिक्तान्यपि सेवितानि
विशेष शुद्धिः---कांसी के पत्रों को गोमूत्र । यामद्वयाजारयति प्रसिद्धः ।। और काजी में तेज आग पर १-१ पहर तक कार्यस्थौल्यनिबर्हणोगरहरः सामात्तिनिर्णाशनो पकाने से वह शुद्ध होजाते हैं।
गुल्मप्लीहनिसदनो ग्रहणिकाविध्वंसमः सना।
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(३२०)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
वात श्लेष्मनिबर्हणः श्रमहरः शूलातिशूलापहो। सुहागे से आधा और काली मिर्च सुहागे के (या वातग्रन्थिमहोदरापहरणः क्रव्यादनामा रसः ॥ सब के) बराबर मिलाकर चणकाम्ल की सात
शुद्ध पारा ५ तोला, शुद्ध गन्धक १० तोला | भावना दें। एवं तांबा और लोह भस्म २॥२॥ तोला लेकर इसे २ माशे की मात्रानुसार सेंधानमक युक्त पीसकर कज्जली करें फिर अग्नि पर पिघला कर अर- | तक के साथ भोजन के बाद सेवन करना चाहिये। ण्ड के पत्रपर ढाल कर यथा विधि पर्पटी बनावें । । इसके सेवन से मात्रा से अधिक किया हुवा फिर इसे लोहे के बरतन में पक्के जम्बीरी नींबू के | भोजन भी २ पहर में पच जाता है। ६। सेर रस में मन्दाग्नि पर पकावें।
यह कृशता, स्थूलता, विषदोष, आम, गुल्म, __ जब रस सूख जाय तो उसे पंचकोल, बिजौरा तिल्ली, संग्रहणी, वायु, कफ, थकान, शूल, वातऔर अमलवेतके ६। सेर रसकी भावना देकर उस | प्रन्थि और उदर रोग नाशक तथा स्रसन (मलको में सुहागे की खील सब के बराबर, बिडलवण पकाकर नीचे की और प्रवृत्त करने वाला) है।
अथ खकारादि कषायप्रकरणम् [१०५३] खदिरविधानम्
खदिरसारतुलामुदकद्रोणे विपाच्य षोड़शांशा(सु. सं. । चि. अ. १०) वशिष्टमवतार्यानुगुप्तं निदध्यात्, तमामलअतःखदिरविधानमुपदेक्ष्यामः । प्रशस्तदेशजात- करसमधुसपिभिःसंसृज्योपयुञ्जीत । एप एव मनुपहतं मध्यमवयसं खदिरं परितःखानयिवा सर्ववृक्षसारेषु कल्पः । खदिरसारचूर्णतुला मध्यममूलं छिच्चाऽयोमयं कुम्भं तस्मिन्नन्तरे खदिरसारकाथमात्रां वा प्रातः प्रातरुपसेवेत निदध्यायथा रसग्रहणसमर्थो भवति, ततस्तं | खदिरसारकाथसिद्धमाविकं वा सपिः । गोमयमृदावलिप्तमवकीर्यन्धनैगोमयमित्रैरा- जो उत्तम देश में उत्पन्न हुवा हो, कीड़े दीपयेत्, यथास्य दह्यमानस्य रसः स्रवत्यधस्ता- | मकौड़ों आदि की कृपा से सुरक्षित हो, न वृद्ध हो घदा जानीयात् पूर्ण भाजनमित्यथैवमुद्धृत्य | और न बालक ऐसे मध्यम वयस्क (जवान ) परिस्राव्य रसमन्यस्मिन् पात्रे निधायानुगुप्तं | खैर के वृक्षके चारों ओर की मिट्टी हटाकर उसकी निदध्यात्ततोयथायोग मात्रामामलकरसमधु | जड़के भीतर एक गढ़ा करके उसमें लोहे का घड़ा सपिभिःसंसृज्योपयुञ्जीत, जीर्णेभल्लातक वि- रख दें कि जिससे वृक्ष का रस (कटे हुवे स्थान धानवदाहारः परिहारश्च, प्रस्थे चोपयुक्ते शतं | से ) टपक टपक कर घड़े में जमा होता रहे । फिर वर्षाणामायुपोभिवृद्धिर्भवति।
उस वृक्ष के उपर (जड़ के चारों ओर) गोबर
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खकारादि-क्वाथ
(३२१)
मिली हुई मिट्टी का लेप करें और उसके चारों ओर | पशुमूत्रयुतं पिब सप्त दिनं गोबर युक्त ईंधन डालकर अग्नि लगा दें। इस क्रिया कृमिकोटिशतान्यपि हन्यत्यचिरात् ॥ से वृक्ष का रस निकल कर घड़े में जमा होगा। खैर, इन्द्र जौ, नीम, बच, त्रिकटा, त्रिकुटा, जब घड़ा भर जाय तो उस रस को छान कर | त्रिफला और निसोत को गोमूत्र में पकाकर सात किसी दूसरे बरतन में भर कर गुप्त (सुरक्षित) रक्खें। दिन तक पीने से अत्यन्त प्रवृद्ध क्रिमि भी शीघ्र ही
इसे यथोचित मात्रानुसार आमले का रस, | नष्ट हो जाते हैं। शहद और घी मिलाकर सेवन करना चाहिये और [१०५६] खदिराष्टकम् औषधि पच जाने पर भल्लातकविधान के समान | (वृ. यो. त. । १२६ त; ग. नि. विसर्प;
यो. चि. म. अ. ४) आहार परिहार ( परहेज़) आदि करना चाहिए। ___ यह रस १ सेर सेवन किया जाए तो १०० खादरात्रफलारिष्टपटालामृतवासका ।। वर्षकी आयु प्राप्त होती है।
क्वाथोऽष्टकाङ्गो जयति रोमान्तिकमसरिकाः । उपरोक्त विधान के अभाव में ६। सेर खैर- |
कुष्ठविस्फोटवीसर्पकण्डादीनपि पानतः॥ सार को ३२ सेर पानी में पकावें । जब सोलहवां
खैर, त्रिफला, नीम, पटोलपत्र, गिलोय और भाग शेष रह जाय तो उतार कर छानकर गुप्त |
वांसे का क्वाथ रोमान्तिका, मसूरिका, कुष्ठ, विस्फोरक्खें और आमले का रस तथा शहद और धी
टक, वीसर्प, खुजली आदिका नाश करता है। मिलाकर सेवन करें। समस्त वृक्षसारों के कल्प |
| [१०५७] खदिरोदकम्
___ (यो. र. । कुष्ठे. वृ. यो. त. १२० त.) की यही विधि है। ६। सेर पर्यन्त खैरसार का
प्रलेपोद्वर्तनस्नानपानभोजनकर्मसु । चूर्ण या खैर का क्वाथ यथोचित मात्रानुसार प्रातः
शीलित खादिरं वारि सर्वत्वग्दोषनाशनम् ॥ काल सेवन करना चाहिये अथवा खैर सार के
| खैरके पानी (क्वाथ) का प्रयोग करनेसे समस्त क्वाथ से भेड़ का घी सिद्ध करके सेवन करना
प्रकारके त्वग्दोष (चमड़ी के रोग) नष्ट हो जाते हैं। चाहिए । इससे समस्त कुष्ठ नष्ट होते हैं।
[१०५८] खघुरादिकषायः(ग. नि. । प्रमे.) [१०५४] खदिररादिकषायः
.... ... .... .... सक्षौद्रो रक्तप्रमेहजित् । (ग. नि. । प्रमेह)
क्वाथः स्वर्जूरकाश्मर्यतिन्दुकास्थ्यमृताकृताः ।। खदिर कदरपूगक्वार्थ क्षौद्राह्वये पिबेत् । खजूर, खम्भारी और तेंद के बीजों का काथ
क्षौद्र प्रमेह (मधुमेह) में खैर, सफेद खैर | शहद डालकर पीने से रक्तप्रमेह का नाश होता है। (या कीकर) और सुपारी का क्वाथ पीना चाहिए। [१०५९] खजूरादिक्वाथा(ग. नि. । ज्व.) [१०५५] खदिरादिक्वाथः खर्जरोशीरमृद्वीकापमकं पद्मकेसरम् ।
(वृ. नि. र. ग. णि;। श्रमि.) धात्री परूषकं व्याघ्री बला मधुकचन्दनम् ॥ खदिरः कुटजः पिचुमन्दवचा- मधूकपुष्पं काश्मय शीतपाकी घनं तथा ।
त्रिकत्रिफलात्रियतासहितम् । । पक्त्वा पर्युषितं रात्रौ स्थितं मुद्राजने नवे ॥
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त-भैषज्य -
(३२२)
खांड और शहद का प्रक्षेप डालकर पीने से पिपासा,
नष्ट होता है। [१०६०] खर्जूरादिमन्धः
लाजाचूर्ण प्रतीवापं शर्करामधुसंयुतम् । जातीपुष्पाधिवासं तु पिबेत्तृट्छर्दिमूर्च्छितः ॥ छर्दि, मूर्छा, दाह, भ्रम, मद और वातपित्त ज्वर दाहश्रममदाविष्टो वातपित्तज्वरातुरः । पीत्वा निवृत्तिमाप्नोति दीप्तं गृहमिवाम्बुभिः । खजूर, खस, मुनक्का, पद्माक, कमलकेसर, आमला, फालसा, कटेली, खरैटी, मुल्हैठी, चन्दन, महुवेके फूल, खम्भारी, काकोली और नागरमोथे का क्वाथ बनाकर रात को मिट्टी के नवीन बरतन में भरकर रख दें फिर प्रातः काल उसे चमेली के फूलों से सुगन्धित करके उसमें खीलों के चूर्ण तथा
(शा. ध. । म. खु. अ. ३; यो. र; पाना.) खर्जूरदाडिमं द्राक्षा तिन्तिडीकाम्लिका मलैः।। सपरूपैः कृतो मन्थः सर्वमद्यविकारनुत् ||
खजूर, अनार, दाख, तितिड़ीक, इमली, आमला और फालसे का मन्थ बनाकर पीने से समस्त भद्यविकार रुष्ट होते है ।
।
भारत
- रत्नाकर
अथ खकारादि चूर्णप्रकरणम्
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कर चाटें या शहद में वटक बनाकर सेवन करें ।
।
|
[१०६१] खण्डसमं चूर्णम् (ग.नि. । चूर्णा.) त्रिफलान्योषविवादपिप्पलीमूलचित्रकैः । स्वगेलापत्र चविका तिन्तिडीकाम्लवेतसैः ॥ समांशं धातुमाक्षीकं सर्वैस्तुल्या सिता भवेत् भक्षयित्वा यथा सम्यगनुपानं प्रयोजयेत् । चूर्णितं मधुना लेह्यं वटकान् वा समाक्षिकान् । नाशयेत्कुष्ठमालस्यं प्रमेोदरकामलाम् ॥ पाण्डत्वं ग्रहणीदोष हलीमकशिरोरुजम् । प्रसेकमरुचि मूर्छा हल्लासं मन्दवहिताम् || रक्तपित्तं परीसर्प श्वयथुं चाङ्गतापताम् जनयेत्प्राणमुत्साहं बलवर्णस्थिराङ्गताम् || चूर्णं खण्डसमं नाम समस्तान्नाशयेद् गदान् ।
इसके सेवन से कुष्ठ, आलस्य, प्रमेह, उदररोग, कामला, पाण्ड, ग्रहणीविकार, हलीमक, शिरपीड़ा, प्रसेक (मुंह से पानी आना) अरुचि, मूर्च्छा, जी मचलाना, अग्निमांद्य, रक्तपित्त, विसर्प, सूजन और संताप का नाश होता तथा उत्साह, बल, वर्ण और स्थिराङ्गता ( अङ्गो की दृढ़ता ) प्राप्त होती है + [१०६२] खदिरादिपुष्पयोगः
(ग. नि. । र. पि. )
त्रिफला, त्रिकुटा, बेल, नागरमोथा, पीपलामूल, चीता, दारचीनी, इलायची, तेजपात, चन्य, तितिडीक और अम्लवेत १-१ भाग, सोनामक्खी भस्म सब के बराबर और इस सब के बराबर खांड लेकर चूर्ण करें ।
इसे यथोचित अनुपान के साथ शहद मिला
खदिरस्य प्रियङ्गूनां कोविदारस्य शाल्मलेः । पुष्पचूर्णानि मधुना लिह्याद्वा रक्तपित्तनुत् ॥
खैर, फूलप्रियंगु, कचनार और सेंभल के + यदि इसमें सोनामक्खी तक सब चीजों के बराबर लोह भस्म और फिर उस सब के बराबर मिश्री मिलाई जाए तो गदनिग्रह के 'पाण्डवाधिकार' में कथित 'खण्ड समकम्" चूर्ण होजायगा । उसके गुण भी इसी के समान हैं ।
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खकारादि-गुटिका
(३२३)
फूलों का चूर्ण शहद में मिलाकर चाटने से रक्तपित्त | की दाह, शर्करा (रंग) अश्मरी (पथरी) मूत्ररोग का नाश होता है।
और वीर्य सम्बन्धी रोगों का नाश होता तथा बल [१०६३] खदिरादियोगः
और वीर्य की वृद्धि होती है। (ग. नि. । र. प्रमे.) [१०६५] खाडवं चूर्णम् खदिरं शकेरा दारुहरिद्रा मुस्तमेव च ।
[वृ. यो. त. । ८२ त.) पाठा च गुडमिश्रोऽयं हरेद्रोग प्रमेहजम् ॥ |
तुल्यं तालीसचव्योषणलवण
गजद्विःकणाग्रन्थ्यजाजीखैर, खांड, दारुहल्दी, नागरमोथा और पाठा
वृक्षाम्लामित्वचं त्रिर्धनषदरधसमान भाग लेकर चूर्ण करके गुड़ में मिलाकर
नैलाजमोदाम्लविश्वम् । सेवन करने से प्रमेह विकार नष्ट होते हैं।
सार्धश्वेताग्निसारोऽतिसृति [१०६४] खजूरादिचूर्णम् (यो. र. । दाह.)
कृमिवमौ खाडवोऽरुच्यजीणे। खजूरामलजीजानि पिप्पली च शिलाजतु ।
गुल्माध्माल्पानलाख्योदरएलामधुकपाषाणचन्दनैर्वा रुबीजकम् ॥
___ गलगद्ग्र हवासकासे ।। धान्याकं शर्करायुक्तं पातव्यं ज्येष्ठवारिणा ।
तालीसपत्र, चव्य, कालीमिर्च, सेंधानमक, अङ्गादाहं लिङ्गदाहं गुदवङ्क्षणशुक्रजम् ॥ नागकेसर, गजपीपल, पीपल, पीपलामूल, जीरा, शर्कराश्मरिशूलप्नं वृष्यं बलकरं परम् ॥ तितिडीक, चीता, दारचीनी, तीन प्रकार का मोथा, नाशयेन्मूत्ररोगांश्च तथा शुक्रभवानपि ॥ | | बेर, धनिया, इलायची, अजमोद, अम्लवेत, सोंठ, ___खजूर, आमले की गिरी, पीपल, शुद्ध शिला- बसलोचन (अथवा खांड या श्वेत अपराजिताजीत, इलायची, मुल्हैठी, पाषाणभेदी (पत्थर चटा) कोयल) और रसौत का चूर्ण बनाकर सेवन करने से चन्दन, खीरे के बीज और धनिये के चूर्ण में खांड | अतिसार, कृमि, वमन, अरुचि, अजीर्ण, गुल्म, मिलाकर ज्येष्ठाम्बु (चावलों के पानी) के साथ | अफारा, अग्निमांद्य, उदररोग, गले के रोग, हृद्रोग, सेवन करने से अङ्गदाह, लिङ्गदाह, गुद और वंक्षण | हृद्ग्रह, श्वास और खांसी का नाश होता है।
अथ खकारादि गुटिकाप्रकरणम् [१०६६] खदिरादि गुटिका (१) १-१ भाग तथा खैरसार (कथा) इन सबके बरा
(यो. र. । मु. रो.) बर मिलाकर गोलियां बनावें । यं खदिरसारस्य त्वेषां चूर्ण विनिक्षिपेत् ।
| इन्हें हर समय मुंह में रखने से मुख रोग
नष्ट होते हैं। जातीककोलकपरक्रमुकानां (णां) विचक्षणः॥ गुटिकास्तु प्रकर्तव्या मुखे स्थाप्याः सदैव हि ॥
[१०६७] खदिरादि गुटिका (२)
(यो. र. । कास) नायफल, ककोल, कपूर और सुपारी का चूर्ण | खादिरं पौष्करं शृङ्गी कद्फलं विजयष्टिका ।
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(३२४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
हरीतकी लवङ्गं च व्योपं चातिविषं तथा ॥ । इन्हें सुह में रखने से जिव्हा, होठ, दांत, मुंह, कारवी यासममृता बृहतीद्वयमक्षकम् । गले और तालुके समस्त रोग नष्ट होते हैं । पृथक्कर्षद्वयं ग्राह्य सूक्ष्मचूर्ण तु कारयेत् ॥ [१०६९] खदिरादिगुटिका (४) सर्वैः समं खादिरं च मेकयित्वा विभावयेत् ।
(ग. नि. । गुटि.) दाडिमत्वक्तथा क्षुद्राखदिराम्भोभिरार्द्रकैः ।। पद्माह्ववक्रागुरुकुङ्कुमैश्च बब्बूलत्वग्दलक्वाथैराटरूपजलैस्तथा।
तुल्यांशकै श्लक्ष्णशिलाविपिष्टैः । सप्तधा भावयेदबध्वा गुटिका खादिरी मता ॥ सर्वैः समः स्यात्खदिरस्य सार: कासश्वासौ निहत्त्याशु दुस्तरौ चिरजावपि ॥ सारङ्गदर्पस्फटिकाधिवासिताः ॥ खरसार, पोखरमूल, काकड़ासिंगी, कायफल, 1
वल्लप्रमाणा गुटिका विधेयाभारंगी, हरड़, लौंग, त्रिकुटा, अतीस, कलौंजी,
स्वाः सेविता नन्ति कफप्रमेहम् । धमासा, गिलोय, कटेली, कटेला, और बहेड़ा प्रत्येक
हिकाग्निसादारुचिपीनसांश्च वस्तु २॥-२॥ तोला लेकर महीन चूर्ण करें फिर रोगानशेषान् खलु चास्य जातान् ।। उसमें इस सब चूर्ण के बराबर कत्था मिलाकर उसे सूताभ्रहेमसहिता पूर्वोक्तां भक्षयेत्प्रातः अनार की छाल, कटेली, खैर, अदरक, कीकर की
नाम्ना खादिरवटिका कथितेयं सिंहगुप्तेन।। छाल, कीकर के पत्ते और अडूसे के क्याथ की ___ पद्माक, ककड़ासिंगी, अगर और केसर (या सात भावना देकर गोलियां बनावें।
नागकेसर ) बराबर बराबर लेकर सिलपर महीन इनके सेवन से पुरानी कष्टसाध्य खांसी और
पीसें और उसमें सबके बराबर खैरसार और १-१ श्वास का अत्यन्त शीध्र नाश होता है। भाग रससिन्दुर, अभ्रकभस्म और सोना भस्म १०६८] खदिरादिगुटिका (३) मिलाकर कस्तूरी और कपूर से सुगन्धित करके ३
(वृ. यो. त.। १२८ त; ग. नि.) रत्ती की गोलियां बनावें। खदिरस्य तुला तोयद्रोणे पक्त्वाऽष्टशेषिते ।
। इनके सेवन से कफप्रमेह, हिचकी, अग्निमांद्य, जातीकोशेन्दुपूगा च चातुर्जातमृगाण्डजैः॥ । अरुचि और पीनस तथा इनसे उत्पन्न हुवे अन्य पृथक्कर्षमितैः पिष्टमलयित्वा चणोपमाम।। रोगोंका नाश होता है। गुटीं कृत्वा मुखे धृत्वा तां निहन्त्यखिलान्गदान [१०७०] खदिरादिगुटिका (५) जिह्वोष्ठदन्तवदनगलतालुसमुद्भवान् ॥
__ (ग. नि. । गुटि.) ६। सेर खैरसार को ३२ सेर पानी में पकावें | जातीफलैलादलकुङ्कुमानि जव आठवां भाग शेष रह जाय तो उसे छान कर
लवङ्गकङ्कोलकपुष्कराणि । फिर पकावें और गाढ़ा होने पर उसमें जावीत्री, ।
वराङ्गकरयुतान्यमूनि कपूर, सुपारी, चातुर्चात (तेजपात, दालचीनी, नाग- समानि भागानि निशाकरस्य ।। केसर, इलायची) और कस्तूरीका चूर्ण १।--१॥ भागद्वयं स्यान्मृगनाभिजायाः तोल मिलकर चनेके बराबर गोलियां बनावें । सप्रतिकायाः खल तर्यभागः।
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खकारादि-गुटिका
पष्ठिर्विभागाः खदिरस्य सारात्
। अध्यर्धाटकशेषं तु पुनरमावधिश्रयेत् । भागत्रयं तत्र वरस्य दद्यात् ॥ | घूर्णीकृतान्यथेमानि मेषजान्यत्र दापयेत् ॥ एकीकृतं घृष्टसुचन्दनेन
भल्लातकानि त्रिफलां विडङ्गानि वा तथा। सुकामिनीहस्ततलैः प्रमर्य। चित्रकावल्गुजौ चैव भागान् दशपलांशकान् ॥ सुवासितं पुष्पचयैः सुगन्धै
दद्याद्वायसिमूलाच्च पलानां पञ्चविंशतिः। वटी कृता स्यान्मुखरोगहन्त्री ।। घनीभूतं तु तं ज्ञात्वा गुटिको कारयेद्विषक ॥ स्त्रीणां प्रमोदं विपुलं ददाति
तो भक्षयेन्तु कुष्ठातः पथ्यभोजी जितेन्द्रियः। मुखं सुगन्धविशदं करोति ।
कुष्ठानि नाशयत्येषा छिन्नामाणिव मारुतः ।। युवातिरेताः सुभगो जनानां
खर, बिजयसार, नीम, कुड़ा और साल वृक्ष प्राणप्रियः स्यादतिकामिनीनाम्॥ का सार प्रत्येक ३ सेर आदपाव लेकर उन्हें कण्ठं विपश्चीनिनादेन तुल्यं
८८ सेर गोमूत्र और ३२ सेर पानीमें डालकर दसे करोत्यसौ खादिरसंज्ञका वटी ॥
दिन तक बन्द करके रक्खें । इसके पश्चात् उसे जायफल, इलायची, तेजपात, केसर, लौंग,
पकाकर ६ शेर जल शेष रक्खें अब इसे छानकर कंकोल, पोखरमूल, दालचीनी और कचूर १-१ |
इसमें भिलावा, त्रिफला, बायबिडंग, वच, चीता भाग, २ भाग कस्तुरी और खट्टाशी चौथाभाग,
और बाबचीका चूर्ण ५०-५० तोला तथा मकोय खैरसार ६० भाग और दालचीनी ३ भाग लेकर | की जड़ का चूर्ण १ सेर ९ छटांक मिलाकर दुबारा सब को एकत्र करके चन्दन के डंडे से घोटें फिर | पकावें । जब गाढ़ा हो जाय तो गोलियां बनाकर उसे कामिनी से हाथों से मर्दन करावें और सुगन्धित | रक्खें। पुष्पों के योग से सुगन्धित करके गोलियां बनावें। इन्हें सेवन करने और पथ्य पालन करने तथा
इनके सेवन से समस्त मुख रोगों का नाश संयम से रहने से कुष्ठों का अत्यन्त शीघ्र नाश होकर मुख सुगन्धित और स्वच्छ हो जाता है। होता है। एवं स्त्री प्रसंग में अत्यन्त आनन्द प्राप्त होता है। [१०७२] खदिरादिगुटिका (७) यह गोलियां मनुष्य को अत्यन्त वीर्यवान्, सुंदर (च. सं. । चि. अ. २६; वा. भ. )
और कामनियोंका प्रिय बनाती और स्वरको सुधा- | तुला खदिरसारस्य द्विगुणां त्वरिमेदतः । रती हैं।
प्रक्षाल्य जर्जरीकृत्य चतुर्दोणेऽम्भसः पचेत् ॥ [१०७१] खदिरादिगुटिका (६) द्रोणशेष कषायं तु पूत्वा भूयः पवेच्छनैः ।
(ग. नि. । गुटि.) ततस्तस्मिन्घनीभूते चूर्ण कृत्वाऽक्षभागिकम् ।। खदिराद्वीजकाभिम्बात्कुटजाच्छालसारतः।। | चन्दनं पनकोशीरं मजिष्ठाघातकीपनम् । पञ्चाशत्पलिकान् भागान् गोमूत्रस्याटकद्वयम् ।। प्रपौण्डरीकयष्टघाइत्वगेलापत्रकेसरम् ॥ जलद्रोणद्वये चापि सुगुप्तं दिवसान् दश ।। लाक्षा रसाञ्जनं मांसीत्रिफलारोधवालकम् । क्यरात्रस्थितं तत्तु कषायमनुसापयेत् ॥ रजन्यौ फलिनीमेला समझा कहलं पधार॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकर
यवासागरुपत्तङ्गगरिकाञ्जनमावपेत् । शौषिर्य, कृमि, जड़ता दुर्गन्धि, मुखका कड़वापन, लवङ्गजातीककोलजातीकोशान् पलोनितान् ॥ रतृबत आना, पकना, गलशोष, दाह, गला पड़ करकुडवं चापि पुनः शीतेऽवतारयेत् । जाना और दांत, मुंह तथा गले का पकना आदि ततस्तु गुटिकाः कार्याः
रोगों का नाश होता है। शुष्कास्त्वास्ये निधापयेत् ॥ [१०७३] खदिरादिगुटिका (८) तैलमेतेन कल्केन कषायेण समावपेत् ।
(ग. नि. । गुटि.) शूलप्रबलविभ्रंशशौषिर्यकृमिदन्तनुत् ।। कुडमलवङ्गपत्रत्वत्रुटिशङ्खाम्बुजानि तुल्यानि। जाड्यदौर्गन्ध्यतिक्तत्वमुखप्रक्लेदपाकजित् ।। कङ्कोलजातिमृगमदभागैत्रिगुणीकृतैः सम्यक् ॥ गलशोषपरीदाहसादसंदोहलेपहृत् ॥ | पश्चाशत्खदिरस्य भागाः सप्तैव शशधरस्यापि । दन्तास्यगलपाकेषु सर्वेष्वेतत्परायणम् । सहकारतैलयुक्ताः खदिरगुटिकाश्च रोगघ्न्यः॥
६। सेर खैरसार और १२॥ सेर अरिमेद | केसर, लौंग, तेजपात, दालचीनी, छोटी इला(दुर्गन्धित खैर) का सार लेकर उसे पानीसे धोकर | यची, शंख भस्म और कमल १-१ भाग तथा कूटकर ६४ सेर पानी में पकावें, जब १६ सेर कंकोल, जायफल और कस्तूरी ३-३ भाग, पानी बाकी रह जाय तो उसे छानकर पुनः पकावें | खैरसार ५० भाग औद कपूर ७ भाग लेकर चूर्ण
और गाढ़ा होने पर उसमें चन्दन, पनाक, खस, करके आम के तेल में घोटकर गोलियां बनावें । मजीठ, धाय के फूल, नागर मोथा, पुंडरिया, इनके सेवन से मुखरोग नष्ट होते हैं। ( प्रपौण्डरीक ) मुल्हैठी, दालचीनी, इलायची, १०७४] खजूरादि गुटिका तेजपात, नागकेसर, लाख, रसौत, जटामांसी, त्रिफला, लोध, सुगन्धबाला, हल्दी, दारु
(वृ. नि. र. । तृष्णा .) हल्दी, फूलप्रियंगु, इलायची, मजीठ (या लजालु)
खजूरमृद्वीकमधुसखण्डं कायफल, बच, जवासा, अगर, पतङ्ग, गेरु और पृथक् पलं मागधिकात्रिगन्धे । सुरमा; इनमें से प्रत्येक का चूर्ण १।-१। चर्ण तथा तथाधबिल्वे मधुना गुटीयं लैंग, जावित्री, कंकोल और जायफल का चूर्ण तृण्मोहपित्तास्त्रजयेति शस्ता ॥ १-१ छटांक मिलावें और ठंडा होने पर १। खजूर, मुनक्का, मुल्हैठी और खांड, ५-५ तोला सेर कपूर का चूर्ण मिलाकर गोलियां बनाकर तथा पीपल और त्रिसुगन्ध ( दालचीनी, इलायची, सुखाकर रक्खें।
तेजपात) २-२॥ तोला लेकर चूर्ण करके इन्हें मुंह में रखने से या इन्ही वस्तुओं के | शहद के साथ गोलियां बनावें । कल्क और कषाय से तेल सिद्ध करके उसका इनके सेवनसे पिपासा, मोह और रक्तपित्तका प्रयोग करने से दांतों का प्रबल शूल, विभ्रंश, नाश होता है।
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खकारादि-लेह
(३२७)
अथ खकारादि लेह प्रकरणम् [१०७५] खण्डकूष्माण्डः (१) धात्रीतुल्या सिता योज्या गव्यमाज्यं पलद्वयम्
(बृ. यो. त. । ७५ त.) मन्दाग्निना पचेत्सवे यावद्भवति पिण्डितम् ॥ खण्डकामलकाद् ग्राह्यो रसः प्रस्थद्वयोन्मितः। पलाधं पलमेकं वा प्रत्यहं भक्षयेदिदम् । खण्डकूष्माण्डके कंसः स्वित्रकूष्माण्डकद्रवात् । खण्डकूष्माण्डकं ख्यातमम्लपित्तापहं परम् ॥ अन्यत्र खण्डकूष्माण्डे संमतः सकलो रसः। पेठेका रस १२॥ सेर, गायका दूध १२॥ सेर पश्चाशच पलं स्विनं कूष्माण्डात्प्रस्थमाज्यतः।आमलेका चूर्ण ०॥ सेर, मिश्री ०॥ सैर और गाय का पक्कं पलशतं खण्डं वासाक्वाथाढके पचेत् । पी ०॥ सेर लेकर यथा विधि मंदाग्नि पर पाक शिवा धात्री धनं भार्गी त्रिसुगन्धैश्च कार्षिकैः।। सिद्ध करें। तालीसविश्वधान्याकमरिचैश्च पलांशकैः ।
___ इसमें से ५ तोला या २॥ तोला प्रति दिन पिप्पलीकुडवं चैव मधुमानी प्रदापयेत् ॥
। खाने से अम्लपित्त का नाश होता है। कासंश्वास ज्वरं हिको रक्तपित्तं हलीमकम् । हृद्रोगमम्लपित्तं च पीनसं च व्यपोहति ॥ । [१०७७] खण्डकूष्माण्डकावलेहः (३) __ उसीजे हुवे पेठे के ३ सेर आध पाव टुकडों
(ग. नि. । ५ लेहाधि.) को २ सेर घी में भूनें फिर ४ सेर आमलेका स्वरस प्रस्थेनाज्यस्य भृष्टं पलशतमऔर पेठे को उसेने (पकाने) के बाद उससे जो रस
लघुच्छिन्नकूष्माण्डकस्य निकला हो वह सब या उसमे से ४ सेर रस, ६। सेर पक्तव्यं खण्डतुल्यं मधु शिशिखाण्ड और ४ सेर बांसे का क्याथ एकत्र मिलाकर रतरे तत्र दद्याद् घृतार्धम् । पकावें और गाढ़ा हो जानेपर उसमें हैड़, आमला,
व्योषं धान्यं सजीरं प्रसूतिकालीमिर्च, भारंगी और त्रिसुगन्ध (तेजपात,दालचीनी
मितमथ स्याचातुर्जातकंच इलायची) का चूर्ण १।- १॥ तोला, तालीस पत्र,
प्रक्षेप्यं रक्तपित्तं हरति बलकरः सोंठ, धनिया और कालीमिर्च ५-५ तोला, तथा पीपल
__खण्डकूष्माण्डकोऽयम् ।। पाव सेर और शहद १ सेर मिलाकर रखें। ___इसके सेवन से खांसी, श्वास, ज्वर, हिचकी,
पेठेके बारीक बारीक ६। सेर टुकडोंको २ सेर रक्तपित्त, हलीमक, हृद्रोग, अम्लपित्त और पीनसका धीमें भूनें फिर उसमें ६। सेर खांड मिलाकर विधिनाश होता है।
वत् अवलेह बनावें और पाक सिद्ध होनेपर उसमें [१०७६] खण्डकूष्माण्डकावलेहः (२) । त्रिकुटा, धनिया, जीरा और चातुर्जात का चूर्ण
(वृ. यो. त. । १२२ त.) १०-१० तोला तथा (बिल्कुल ठंडा होजाने पर) कूष्माण्डस्य रसो ग्राह्यः पलानां शतमात्रकम।। १ सेर शहद मिलावें । यह अवलेह रक्तपित्तनाशक रसतुल्यं गवां क्षीरं धात्रीचूर्ण पलाष्टकम् ॥ । और बलकारक है।
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(३२८)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[१०७८] खण्डखाद्यं रसायनम् शतावरी छिमरुहा सिंहास्यो मुण्डिका बला। (र. र. स. । अ. २८)
तालमूली च गायत्री त्रिफलायास्त्वचस्तथा ॥ पासामाङ्गर्य मृताभीरुखचाखदिरपुष्करैः।। | मार्गी पुष्करमूलं च पृथक्पश्च पलानि च । मुसलीभिक्षुकोरण्टैः सूपै चापां च मुष्टिकः ॥ | जलद्रोणे विपक्तव्यमष्टमागावशेषितम् ।। पक्वेष्टशिष्ट ताम्रस्थे प्रस्थाशे खण्डसर्पिषी। वस्त्रपूतं च तं क्वाथं गृहीत्वा तत्र निक्षिपेत् । ताप्येन रुक्मलोहस्य हतस्याप्यञ्जलित्रयम् ॥ दिव्यौषधिहतस्यापि माक्षिकेण हतस्य वा।। पक्कस्मिल्लेहता याते कुस्तुंवुरु शिलाजतु । | पलद्वादशकं देयं रुक्मलोहस्य चूर्णितम् । शृङ्गीविडंगत्रिफलाजातीफलकटुत्रिकम् ॥ खण्डतुल्यं घृतं देयं पलषोडशकं बुधैः। चातुर्जातं च शुक्त्यंश प्रस्थाधं च मधुक्षिपेत् । पवेत्ताम्रमये पाने गुडपाको मतो यथा। खण्डखाद्यमिदं लीढं कर्षमात्रं रसायनम् ॥ प्रस्थार्ध मधुनो देयं शुभाश्मजतकं त्वचम् ॥ क्षीरानुपस्य क्षपयेत्क्षयकासारुचिक्लमान् । शृङ्गी विडङ्ग कृष्णा च शुण्ठपजाजी पलं पलम् शीतपिताम्लपित्तास्रवातपितास्त्रकामलाः॥ त्रिफला धान्यकं पत्रं द्वयक्षं मरिचकेसरम् ॥ कुष्ठमेहप्लिहानाहकार्य शूलं च पक्तिजम् ॥ चूर्ण दत्त्वा सुमथितं स्निग्धे भाण्डे निधापयेत् । ___ बासा, भारंगी, गिलोय, शतावर, वच, खैर | यथाकालं प्रयुञ्जीत विडालपदकं ततः॥ पोखरमूल, म्सली, मुण्डी (या गोखरू) और पिया रक्तपित्तं क्षयं कासं पक्तिशूलं विशेषतः। वांसा ५-५ तोला लेकर ६४ सेर पानी में पकावें। | वातरक्तं प्रमेहं च शीतपित्तं वर्मि क्लमम् ॥ जब आठवां भाग शेष रह जाय तो उतार कर इवय) पाण्डुरोगं च कुष्ठं प्लीहोदरं तथा । छानलें और उसमें १ सेर खांड और २ सेर घी | आनाहं रक्तसंस्रावमम्लपित्तं नियच्छति ॥ एवं सोनामक्खी के योग से भस्म किया हुवा रुक्म | चक्षुष्यं वृंहणं वृष्यं माङ्गल्यं प्रीतिवर्धनम् । लोह ०॥ सेर डालकर तांबेकी कढ़ाई में पकावें। | आरोग्यपुत्रदं श्रेष्ठं कायाग्निबलवर्धनम् ॥ जब अवलेह तैयार हो जाय तो उसमें कुस्तुम्बुरु, श्रीकर लाघवकरं खण्डखायं प्रकीर्तितम् । शिलाजीत, काकड़ासिंगी, बायबिडंग, त्रिफला, जाय-नारिकेलपयःपानं सुनिषण्णकवास्तुकम् ॥ फल, त्रिकुटा और चातुर्जात का चूर्ण २॥२॥ शूष्कमूलकजीवाख्यं पटोलं बृहतीफलम् । तोला तथा शहद १ सेर मिलावें। फलं वार्ताकपक्कानं खर्जुरं खादुदाडिमम् ॥
इसे ११ तोला को दूधके साथ सेवन करने से ककारपूर्वकं यच्च मांसं चानूपसंभवम् । क्षय, खांसी, अरुचि, क्लान्ति, शीतपित्त, अम्लपित्त, वर्जनीयं विशेषेण खण्डखाचं प्रकुर्वता ॥ वातरक्त, रक्तपित्त, कामला, कोढ़, प्रमेह, तिल्ली, । शतावर, गिलोय, बांसा, मुण्डी, खरैटी,तालअफारा, कृशता और पक्तिशूलका नाश होता है। मूली (काली मूसली), खैर, त्रिफला, भारङ्गी और [१०७९] खण्डखायो लेहः पोखरमूल, प्रत्येक २५-२५ तोला ३२ सेर पानीमें
(बृ. यो. त.। ७५ त.) | पकायें जब आठवां भाग बाकी रहे तो कपड़े से
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खकारादि-लेह
(३२९)
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छानकर उसमें मनसिल या सोना मक्खीके योगसे । शुण्ठीद्विजीरपथ्यान्दमांसीधात्रीत्रिजातकम् ।। की हुई रुक्म लोह की भस्म ०॥ सेर, खांड १ ! पृथक् द्वादशमापं हि षण्माष नागकेसरम् । सेर और धी २ सेर डालकर तांबेकी कढ़ाईमें पका- | खदिरं मरिचं शीते क्षिपेत्क्षौद्रपलत्रयम् ।। कर गुड़पाक के समान गाढ़ा करें। फिर उसमें शूलाम्लपित्तवान्त्यग्निमान्द्यजित्खण्डपिप्पली॥ शहद १ सेर, बंशलोचन, शिलाजीत, दालचीनी, | । पीपलका चूर्ण ०। सेर, धी ०॥ सेर, शताकाकड़ासींगी, बायबिडंग, पीपल, सोंठ और ज़ीरा वरीकास्वरस १ सेर, दूध ४ सेर और खांड १ सेर ५-५ तोला, त्रिफला, धनिया, तेजपात, काली .
लेकर यथाविधि पाक बनावें, फिर उसमें धनिया, मिर्च और केसर (या नागकेसर)का चूर्ण १।-१। सोंठ, दोनों जीरे, नागरमोथा, जटामांसी, आमला तोला मिलाकर चिकने बरतनमें भरकर रक्खें ।।
और त्रिजातकका चूर्ण १-१ तोला तथा इसे यथोचित काल में १। तोला की मात्रा
नागकेसर, खैरसार और कालीमिर्चका चूर्ण ६-६ नुसार सेवन करनेसे रक्तपित्त, क्षय, खांसी और
माशे मिलावें एवं ठंडा हो जाने पर ३० तोला विशेषतः पक्तिशूल तथा वातरक्त, प्रमेह, शीतपित्त
शहद मिलाकर रक्खें। वमन, क्लान्ति, सूजन, पाण्डु, कोद, तिल्ली, उदररोग, अफारा, रक्तस्राव और अम्लपित्त का
यह अवलेह शूल, अम्लपित्त, वमन और
अग्निमांद्य नाशक है। नाश होता है।
यह अवलेह नेत्रोंके लिए हितकारी, वृंहण, [१०८१] ग्वण्डपिप्पल्यवलेहः (२) वृष्य, मंगलकारक, प्रीतिवर्द्धक, आरोग्यदाता, पुत्र- (वृ. यो. त.। १२२ त.) दाता, श्रेष्ठ, शारीरिक शक्ति और जठराग्नि वईक, पिप्पल्याः कुडवं चूर्ण घृतस्य कुडवद्वयम् । सौन्दर्यवर्द्धक तथा शरीरको हल्का करनेवाला है। पलषोडशकं खण्डाच्छतावर्याः पलाष्टकम् ॥
पध्य-नारियलका पानी, सुनिषण्णक (चौप- शिवायाः स्वरसस्यापि पलषोडशकं मतम् । तिया-चका भेद) शाक, बथुआ, सूखीमूली,जीवाख्य क्षीरप्रस्थद्वये साध्ये लेहीभूतेऽत्र निक्षिपेत॥ (शाक विशेष) पटोल, कटेलीके फल, बैंगन, पकान्न, त्रिजातकामयाजाजीधान्यमुस्तशिवातुगाः। खजूर और मीठा अनार ।
एतेषां कार्षिक चूर्ण कर्षाधे कृष्णजीरकम् ।। अपथ्य (परहेज) जिन के नाम के आदि में नागरं नागकं जातीफलं समरिचं हिमम् । ककार हो ऐसे जीवोंका मांस और आनृपदेशीय दत्त्वा पलत्रयं क्षौद्रं स्निग्धभाण्डे निक्षिपेत् ॥ जीवोंका मांस ।
| प्रातयथावलं लिह्यादम्लपित्तप्रशान्तये । [१०८०] खण्डपिप्पली (१) | हल्लासारोचकच्छर्दिपिपासादाहनाशनम् ॥ ___ (र. र.। अम्ल. पि.)
शूलहृद्रोगशमनं हृद्यं चेदं रसायनम् ॥ कणाचूर्णस्य कुडवं षट्पलं हविषस्तथा। पीपलका चूर्ण ०। सेर, घी १ सेर, खांड १ वरीरसात्पलान्यष्टौ क्षीरप्रस्थद्वयन्तथा ॥ सेर, शतावरीका स्वरस १ सेर, आमलेका स्वरस खण्डप्रस्थं पचेत्तत्र सिद्ध संचूर्ण्य धान्यकम् ।। २ सेर और ४ सेर दूध लेकर यथाविधि अवलेह
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(३३०)
भारत-मैषज्य रत्नाकर।
बनावें फिर उसमें त्रिजातक, हैड़, जीरा, धनिया, | पाकके अन्तमें उसमें लौंग, चातुर्जात, सोंठ,मरिचादि नागरमोथा, आमला और वंशलोचनका चूर्ण १।- औषधियां, पीपलामूल, सफेद चन्दन, मुल्हेठी, १। तोला तथा कालाजीरा, सोंठ, नागकेसर,जाय- | अलसी, सुगन्धबाला और जायफलका चूर्ण १।फल, कालीमिर्च और पनाक का चर्ण ७॥-७॥ १। तोला तथा ठंडा होने पर ०॥ सेर शहद माशा एवं ३० तोला शहद मिलाकर चिकने बर
मिलावें। इसके सेवनसे मन्दाग्नि और कृशता का तनमें भरकर रखें।
नाश होता है। यह बच्चों, स्त्रियों और बूढ़ों के ___इसे प्रातःकाल बलानुसार रचित मात्रा में सेवन |
| लिये वृष्य अत्यन्त बलकारक, दीपन, पाचन,खांसी करनेसे अम्लपित्त, हल्लास (जी मिचलाना), अरुचि,
श्वास, प्रमेह, अत्यन्त प्रवृद्ध तृषा, कामला, पाण्डु,
खाज, तिल्ली, अजीर्ण, ज्वर, वायु कफके विकार छर्दि (वमन), पिपासा, दाह, शूल और हृद्रोगोंका
और रक्तपित्त नाशक है। नाश होता है। यह अवलेह रसायन और हृद्य (हृदयके लिए हितकारी) है।
[१०८३] खण्डशुण्ठी (र. र. । अम्लपि.) [१०८२] खण्डपिप्पल्यवलेहः (३)
शुण्ठीचूर्णस्य कुडवं खण्डप्रस्थं समावपेत् । (यो. र. । क्षय.)
दत्वा द्विकुडवं सर्पिःक्षीरप्रस्थत्रये पचेत् ॥ कृष्णाप्रस्थं पचेच्चाऽऽकपयसि
पाकसिद्धे क्षिपेच्चूर्ण कणाधात्रीनिजातकम् । घृतस्याञ्जलिं खण्डपात्रं
वांशीद्विजीरकं पथ्याऽन्दधान्यं त्रिशाणिकम् ॥ दवा लेहोऽयमस्मिन्सुर
पृथक् षण्माषमरिचं नागं शीते तु त्रिपलं मधु। कुसुमचतुर्जातविश्वोषणादीन् ।
शूलाम्लपित्तहृद्रोगवांत्यामानिलनाशनम् ॥ प्रन्थिश्रीखण्डयष्टीमधुम
बलवणेदमायुष्य खण्डशुण्ठीरसायनम् ॥ सणजलं जातिकोशं च कर्ष
___ । सेर सोंठ का चूर्ण, १ सेर खांड, १ सेर
घी और ६ सेर दूध लेकर यथा विधि अवलेह प्रत्येकं चूर्णयित्वा मधुकुड
बनावें । फिर उसमें पीपल, आमला, त्रिजातक, वयुतः स्याच्च कृष्णाघलेहः॥
बंसलोचन, दोनों जीरे, हैड, नागरमोथा और धनिया; आदौ मन्दाग्निकार्य हरति
इनमें से प्रत्येक का चर्ण १-१ तोला और मरिच स च शिशुस्वीजरन्मानुषेषु
तथा नागकेसर का चूर्ण ६-६ माशे मिलावें एवं पायो वृष्यः क्षयादौ विपुल
ठंडा होने पर ३० तोला शहद मिलाकर रक्खें । बलकरो दीपनः पाचनश्च ।
यह शूल, अम्लपित्त, हृद्रोग, वमन और कासश्वासांश्च मेहक्षयरुगति
आमवात नाशक तथा बल, वर्ण और आयुवर्दक तृषाकामलापाण्डकण्डू
रसायन है। प्लीहाजीर्णज्वरांश्चानिल
[१०८४] खण्डसूरणावलेहः कफविकृति रक्तपित्तं च हन्यात् ॥
(ग. नि. । ५. लेहाधि.) १ सेर पीपलको ८ सेर दूधमें पकावें । फिर उसमें कूष्माण्डक विधानेन शस्यते सूरणं सदा। । सेर घी और ४ सेर खांड मिलाकर लेह बनावें।। अशंसां मूढवाताना मन्दाग्नीनां विशेषतः॥
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खकारादि-लेह
(३३१)
___बवासीर, मूढवात और विशेषतः अग्निमांद्य । [१०८६] खण्डामलकं च खण्डहरीतकी की शांति के लिये पेठे के समान ज़िमीकन्द का । (वृ. यो. त; ७६ त.) अवलेह बनाकर सेवन करना लाभदायक है। | (आमले और हैड़ का मुरब्बा) [१०८५] खण्डामलकीयं रसायनम् । कार्पासीदलसंस्तरे ससलिले भाण्डे शिवां वाऽ(ग. नि. । शुल.)
भयाः संस्वेद्याथ परत्र वारिणि पुनस्तोयान्तरे स्विन्नपीडितकूष्माण्डतुलाधं भृष्टमाज्यके ।
ताः प्लुताः। प्रस्थाधै खण्डतुल्यं तु पचेदामलकीरसात् ॥ विद्ध्वा वंशशलाकयाऽथ विजलाः खण्डस्य प्रस्थे तु स्विन्नकूष्माण्डरसप्रस्थे च घट्टयन् । पाके शनैः पक्त्वा मिष्टशिवानि दधतेऽसक्दीलेपं गते तस्मिन् चूर्णीकृत्य विनिक्षिपेत् ॥
पित्तरोगे नृणाम् ।। द्वे द्वे पले कणाजाज्योः शुण्ठीनां मरिचस्य च। आमलों अथवा हैंड़ों को कपास के पत्तों के पलं तालीसधान्याकचातुर्जातकमुस्तकम् ।।। ऊपर रखकर + पानी में पकावें । जव यह उसीज कर्षप्रमाणं प्रत्येकं प्रस्थाध माक्षिकस्य च। जायें तो उन्हें दूसरे पानी में भिगोकर बांस की सींक पक्तिशुलं निहन्त्येतद्दोषत्रयकृतं च यत् ॥ में छेद कर धोकर ज़रा सुखालें, जब पानी सुख छधम्लपित्तमूर्छाश्च श्वासकासावरोचकम् । जाए तो खांड की चाशनी में डालकर मन्दाग्नि हृच्छूलं रक्तपित्तं च पृष्ठशूलं प्रणाशयेत् ॥ पर पकायें । रसायनमिदं श्रेष्ठ खण्डामलकसंज्ञकम् ॥ इनके सेवन से रक्तपित्त का नाश होता है।
प्रथम उसीजे और निचोड़े हुवे पेंट के ३ सेर (१०८७) ग्वण्डाकावलेहः आधपाव टुकड़ों को १ सेर घी में भूनें फिर उसमें (ग. नि. । ५ अवलेहा.) ३ सेर आधपाव खांड २ सेर आमले का रस और |
सुस्विन्नाच्छृङ्गवेरपलशतमनवं निस्तुषं संवि२ सेर उसीजे हुवे पेरे का रस * मिलाकर पकायें।
| धाय, प्रस्थे चाज्यस्य पक्त्वा पलशतसहितं जब गाढ़ा होकर करछी को लगने लगे तो उसमें
शुद्धमत्स्यण्डिकायाः। पीपल, जीरा और सोंटका चूर्ण १० --१० तोला
कौरङ्गी देवपुष्पं मधुदलकणानागरिजल्कभृङ्गं मरिच का चूर्ण ५ तोला तथा तालीसपत्र, धनिया
शुक्लाजाजी सघनमरिचतुगा साधकर्षद्वयाः स्युः॥ चातुर्जात और नागरमोथका चूर्ण १।-१। तोला
तस्मिन्नीरं विदित्वा ज्वलनमुखगतं पात्रमुत्तार्य मिलावें, एवं टंडा होनेपर १ सेर शहद मिलाकर रखें।
यत्नात्, कृत्वा चेषन्मदशशिसुरभितं चूर्णिते___ इसके सेवन से त्रिदोषज पक्तिशूल, वमन,
नावचूर्ण्य । अम्लपित्त, मूर्छा, स्वास, खांसी, अरुचि, हृच्छ्ल, प्रातः शीतेऽतिमात्रं मधुकुडवयुगंसार्धमावाप्य रक्तपित्त और कमर का दर्द नष्ट होता है।
+ बांसकी खपचों या सीखों आदिकी ___* इसमें २५ सेर पानी भी डालना टट्टीसी बनाकर उस पर कपासके पत्तों बिछा चाहिए । अनु०
कर उनपर हैड या आमले रक्खें । अनु०
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(३३२)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
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सान्द्रं, तल्लीढं हन्ति जीर्णज्वरमथ कसनं राज- | लेकर पीसकर शहद और घी में मिलाकर चाटने से
यक्ष्माणमेव ॥ हिचकी और श्वास का नाश होता है । प्रथम पुराने अदरक के उबले और छिले हुवे | [१०८९] खजूरादि लेहः [२] ६। सेर टुकड़ों को २ सेर घी में पका फिर उसमें । (च. सं. । चि. अ. २२) ६। सेर खांड और कस्तूरी, लौंग, मुल्हैठी, तेजपात, खरं पिप्पलीद्राक्षाश्वदंष्ट्राचेति पश्चते । पीपल, नागकेसर, दालचीनी, सफेद जीरा, मोथा, | घृतक्षौद्रयुता लेहाः श्लोकार्द्धः पित्तकासिनाम् ।। मरिच और बंसलोचन का चूर्ण २॥ २॥ कर्ष खजूर, पीपल, मुनक्का और गोखरू को पीस मिलाकर पकावें । + जब पाक सिद्ध हो जाय तो | कर घी और शहद में मिलाकर सेवन करने से उतार कर उसमें थोडीसी कस्तूरी और कपूर का चूर्ण | पित्तज खांसी नष्ट होती है। मिलावें । फिर दूसरे दिन प्रातः काल जब वह १०९०] खर्जरादिलेहः (३) बिल्कुल ठंडा होजाय तो उसमें १। सेर शहद मिलावें।
(ग. नि. । कासा.) इसके सेवनसे जीर्ण ज्वर खांसी और यक्ष्मा खर्जूरपिप्पलीद्राक्षासितालाजाः समांशकाः। का नाश होता है।
मधुसर्पियुतो लेहः पित्तकासहरः परः ॥ [१०८८] खजूरादिलेहः (१)
खजूर, पीपल, मुनक्का, मिश्री और धान की __ (ग. नि. । ११ हि. श्वा.) खील बराबर २ लेकर पीसकर शहद और धी खरं पिप्पली द्राक्षा शर्करा चेति तत्समम् । । में मिलाकर चाटने से पित्तज खांसी नष्ट होती है। मधुसर्पियुतो लेहो हिक्काश्वासनिवारणः ॥
| + इसके पाकमें ३२ सेर पानी (जिसमें खजुर, पीपल, मुनक्का और खांड बराबर २ अद्रक उबाला गया था वह भी डालना चाहिए।)
अथ खकारादि घृतप्रकरणम् [१०९१] खदिरादिपञ्चतिक्तकं घृतम् । रोगानन्यांश्च विविधान्वृक्षमिद्राशनियथा । (र. र. । कु. चि.)
खैर, अमलतास, त्रिकुटा, निसोत, चीता, खदिरारग्वधव्योषत्रिवृच्चित्रकदन्तिका ।
दन्ती, पटोलपत्र, त्रिफला, नीम, हल्दी, बावची, पटोलत्रिफलारिष्टहरिद्राचाकुचीफलम् ॥ कुटकी, अतीस, पाठा, त्रायमाणा ( बनफ़सा) कटुक्कातिविषापाठात्रायन्तिधन्वयासकम् । धमासा, कूठ, करंजवे की गिरी, दो प्रकार की कुष्ठं करञ्जबीजानि शारिवे द्वे सवत्सकैः॥ शारिवा, इन्द्रजौ, भिलावा, वायबिडंग और गूगल भल्लातकं विडङ्गानि गुग्गुलुश्चेति कलिकतैः। के कल्क तथा पंचतिक्त (नीम की जड़ की छाल, पश्चतिक्तकषायेण सर्पिः सिद्धं पिबेन्नरः ।। | पटोलपत्र, कटेली, वासे की छाल और गिलोय) के हन्त्यष्टकुष्ठानि ग्रन्थि गलगण्डं तथैव च।। कषाय के साथ यथा विधि घी पकावें। . विषविस्फोटवीसर्पकण्डूदुष्टवणानपि ॥ ___ इसके सेवन से ८ प्रकार के कुष्ठ, प्रन्थि,
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खकासाद-तल
(३३३)
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गलगण्ड, विषविकार, विस्फोट, विसर्प, खुजली, दुष्ट । खजूर, मुनक्का, मुल्हैठी और फालसे के व्रण (घाय) और अन्य कितने ही रोगों का नाश | कल्क तथा पीपल के प्रक्षेप से सिद्ध किया हुवा घी होता है।
| वैस्वर्य (गला बैठ जाना) खांसी, श्वास और ज्वर [१०९२] खदिराचं घृतम् ।
का नाश करता है। (वं. से. । बा. रो.) | [१०९४] खजूरादियोगः खदिरार्जुनतालीस कुष्ठस्यन्दनजे रसे। | (ग. नि. । शिरो. रो.) सक्षीरं साधितं सर्पिः श्वयथुश्च नियच्छति ॥ खरयष्टीमधुकाकजङ्घा
खर, अर्जुन, तालीसपत्र, कूठ और तेंद के द्राक्षान्वितं खण्डमुशीरकं च। कषाय तथा दूध के साथ सिद्ध किया हुवा घृत मूजन | पिबेत्सुपकं नवनीतमेभिका नाश करता है।
मध्वन्वितं प्रान्तशिरोव्यथावान् ॥ [१०९३] खजूरादिघृतम्
खजूर, मुन्हैठी, काकजंघा, मुनक्का, खांड (ग. नि. । राजय.) | और खस से नवनीत (नवनी धी) को पकाकर घृतं खजूरमृद्वीकामधूकैः सपरूषकैः। शहद डालकर पीने से कनपटियों (शिर के प्रान्त सपिप्पलीकं वैस्वर्यकासश्वासज्वरापहम् ॥ ' भागों) का दर्द नष्ट होता है ।
अथ खकारादि तैलप्रकरणम् [१०९५] खुड्डाकपातैलम् । पद्माक, खस, मुल्हैठी और हल्दीके क्वाथ तथा
__(च. सं. चि. अ. २९) राल, मजीठ, काकोली, क्षीरकाकोली और चन्दन के पनकोशीरयष्टयाहरजनीक्वाथसाधितम्।
कल्क से सिद्ध किया हुवा तेल रुग्दाह-सन्निपात स्थापिष्टैःसर्जमजिष्ठावीराकाकोलिचन्दनैः।।
| को शान्त करता है। खुड्डाकपपकमिदं तैल्लं रुग्दाहनाशनम् ॥ ।
अथ खकारादि आसवारिष्टप्रकरणम् [१०९६] खदिरारिष्टः | धातक्या विंशतिपलं माक्षिकस्य शतद्वयम् । (ग. नि. । आसव.)
| शर्करायास्तुलामेका चूर्णानीमानि दापयेत् ॥ खदिरस्य तुलाधं तु तत्तुल्यं देवदापि ।
ककोलकं लवणं च एला जातीफलं त्वचम् ।
केसरं मरिचं पत्रं पलिकान्युपकल्पयेत् ।। वराया * विंशतिर्दााः पलाना पश्चविंशतिः।।
पिप्पलीनां तु कुडवं स्थापयेद् घृतमाजने । वाकुच्या द्वादशपलान्यष्टद्रोणेऽम्भसः पचेत् ।
मासाध्वं पिबेन्मात्रामपेक्ष्याग्निबलाबलम् ।। द्रोणशेषे कषाये तु पूते शीते विनिक्षिपेत् ॥ सर्वकुष्ठहरो ह्येष पांडुहद्रोगकासनुत् ।
* “वचाया.” इति पाठान्तरम् । । कृमिग्रन्ध्यर्बुदप्रन्थिगुल्मप्लीहोदरान्तकृत ॥
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(३३४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
एष वै खदिरारिष्टः कृष्णात्रेयेण पूजितः॥ । शहद और त्रिकुटा, त्रिफला, पिण्डखजूर, नागकेसर,
खैरसार ३ सेर आधपाव, देवदारु ३ सेर आध- दालचीनी, बाबची, गिलोय, बायबिडंग, पलाश पाब, त्रिफला १। सेर, दारुहल्दी १ सेर ९ छटांक ! और धाय के फूलों का · कपड़छन चूर्ण १ सेर
और बाबची ३ सेर लेकर सबको २५६ सेर पानी | मिलाकर रक्खें और १६ दिन तक रोज़ भच्छी में पकावें । जब ३२ सेर पानी बाकी रहे तो छान तरह मिला दिया करें फिर १६ वें दिन उसमें १२।। कर ठंडा हो जाने पर उसमें धाय के फूलों का
सेर शहद डालकर सन्धान करके १ मास तक चूर्ण १। सेर, शहद २५ सेर, खांड ६। सेर तथा ।
रक्खा रहने दें। इसके पश्चात् निकाल कर उसमें कंकोल, लौंग, इलायची, जायफल, दालचीनी, केसर, । १ मामा
बा १ माशा कस्तूरी और २ माशे कपूर कपड़े में कालीमिर्च और तेजपात का चूर्ण ५-५ तोला एवं
बांधकर डाल दें। पीपल का चर्ण १। सेर मिलाकर घृत से चिकने । इसके सेवन से महाकुष्ठ का नाश होता है। बरतन में सन्धान करके रक्खें। फिर एक मास
[१०९८] खजूरासवः (१)(यो. र. । क्षय.) पश्चात् निकाल कर छान लें।
| पश्चपस्थं समादाय खजूरस्य विचक्षणः । इसे अग्नि बलानुसार यथोचित मात्रा से सेवन | द्रोणाम्भसि पचेत्सम्यगुत्तार्य गालयेत्ततः ।। करने से सब प्रकार के कुष्ठ, पाण्ड, हृद्रोग, खांसी, | कुम्भी सुधूपितां कृत्वा प्रक्षिपेतं रसं शुभम् । कृमि, ग्रन्थि, अर्बुद, गुल्म, तिल्ली और उदरविकारों | हपुषां ताम्रपुष्पी च कषायं तत्र निक्षिपेत !! का नाश होता है।
द्वारं निरुध्य सुदृढं निक्षिपेद्वसुधातले ।
सप्तकद्वययोगेन सिद्धोऽयं त्वासवोरसः ।। [१०९७] खदिरासवः
रोगराजं तथा शोर्फ प्रमेहं पाण्डुकामलाम् । (ग. नि. । ६ आसवा.)
ग्रहणीं पञ्च गुल्माझे नाशयत्यतिवेगतः ॥ स्वदिरस्य तुलाम्भसिविपचेचतुर्दोणसंमिते शेषम्
५ सेर खजूर को ३२ सेर पानी में पकाकर पादं विगृह्य शीते दद्यान्मधुनस्तुला साधाम् ।। छानकर उसमें हाऊबेर और धाय के फूलों का चूर्ण वस्त्रविपूते चूर्ण व्योपत्रिफलापिण्डखर्जूरी।
पता मिलाकर उत्तम धूपित घड़े में भर कर उसका मुख वर्णत्वग्वाकुचिकामृताविडङ्गपलाशानाम् ।।
| अच्छी तरह बन्द करके उसे जमीन में दबा दें। धातकिपलषोडशकं दत्त्वा प्रविलोडित नित्यम् | दो सप्ताह पश्चात् आसव तैयार हो जायगा । यावलोडशदिवसाः षोडशके मधुतुलां दद्यात् ।। इसके सेवन से राजयक्ष्मा, सूजन, प्रमेह, पाण्डु, मासात्परतः पेया दत्त्वा मृगनाभिमाषकं पटे कामला, ग्रहणी, पांच प्रकार के गुल्म और बवा
बद्धम् । सीर का अत्यन्त शीघ्र नाश होता है। कर्पूरमाषद्वयमेष खदिरासवो महाकुष्ठे ॥ १०९९] खजुरासवः (२)
६। सेर खैरसार को १२८ सेर पानी में (ग. नि.। ६ आसवा.) पकावें जब ३२ सेर पानी वाकी रहे तो उतार कर खर्जुरमुस्तामलकीनिकुम्भा । छान लें और ठंडा होने पर उस में १८। सेर | द्राक्षाभयापूगफलानि पाठा।
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खकारादि-आसवारिष्ट
(३३५)
भागीशठीकुष्ठजलाजमोद | खार्जूरसंज्ञः खलु आसवोऽयं पलक्षापिप्पलीमूलकानि॥
विचिकायमभयं निहन्ति ॥ पुनर्नवा कायफलं प्रियङ्गुः
हृद्रोगकासविषमज्वरशोफतर्ष ____कर्चुरकं कृष्णअजाजिविस्र ।
श्वासप्रमेहबलसंक्षयपाण्डुरोगान् । त्रिवृच्छिवाच्छलिधमासकं च
हिमाश्च शीर्षगतरोगवियोगकारी लालरोहीतकलिञ्जमूलम् ॥
रुच्यग्निवर्धनबलादवृष्य एषः । अमूनि सर्वाणि महौषधानि
खजूर, नागरमोथा,आमला, कायफल, मुनक्का, । चत्वारि चत्वारि पलोन्मितानि । हैड़, सुपारी के फूल, पाठा, भारंगी, कपूर कचरी, मांसीचतुर्जातकणालवङ्गं
कूठ, सुगन्धबाला, अजमोद, गूगल, पीपलामूल, जातिफलं चन्दनलोहचूर्णम् ॥
पुनर्नवा (बिसखपरा) कायफल, फूलप्रियंगु, कचूर, प्रमाणतो द्विद्विपलान्यमूनि
कालीमिर्च, जीरा, चणकमूली (मूलीभेद) निसोत, सुधातकीपुष्पमणानि सप्त।
हैड़की बकली, धमासा, लज्जाल, रुहेडे की छाल, गुडस्य सप्त त्रिगुणानि दद्यान्
कुड़े की जड़ और सोंठ १।-११ सेर । जटामांसी, मणानि संचूर्ण्य ततः समस्तम् ॥
चातुर्जात (दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर) घृतस्य भाण्डे विपुले निवेश्य
पीपल, लौंग, जायफल, चन्दन और लोहे का बुरादा दशोत्तरं शेरशतं जलस्य।
१०-१० तोला तथा धायके फूल ७ मन और क्षिप्त्वा क्षिपेत्पश्च दिनानी भूमी
गुड़ २१ मन लें । सवका चर्ण करके ११० सेर निष्पन्नकलकं हृदये विचार्य ।
पानीमें मिलाकर अच्छे बडे चिकने बरतनमें संधान षष्ठे दिने तच नियोजनीयं
| करके भूमि में गाढ़ दें, फिर छठे दिन उसमें ३०० ताम्रस्य यन्त्रद्वयमध्यभागे।
नग पान और २००० नग कमल डालकर तांबे शतत्रयं नागलतादलानां सहस्रयुग्म शतपत्रकानाम् ।
के भबकेसे अर्क खींचे । प्रक्षाल्य देयं विधिनाथ सन्धि
इसे ५ तोला या रोगी के बलाबल के अनुसार विमुन्ध चुल्ल्यां विनिवेश्य यन्त्रम्। न्यूनाधिक मात्रा में सेवन कराने से विषूचिका (हैजा) निष्काशयेदकर्मतो यथावद्
राजयक्ष्मा, हृद्रोग, खांसी, विषमज्वर, सूजन, तृषा, दवा जलं चोपरि यन्त्रकस्य ॥ श्वास, प्रमेह, कमज़ोरी, पाण्डु, हिक्का तथा शिरके बलावलं रोगनिपीडिताना
| रोगों का नाश होता है, एवं अग्नि, बल, वीर्य और विमृश्य देयः पलिकाप्रमाणः। । रुचि की वृद्धि होती है।
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(३३६)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
अथ खकारादि लेपप्रकरणम् [११००] खदिरादि लेपः (१) । [११०२] खरमञ्जर्यादि लेपः (वृ. नि. र. । क्षु. रो.)
(वे. म. । १३ पट.) खदिरारिष्टजम्बूनां त्वग्भिर्वा मूत्रसंयुतैः। पिष्टा लिप्ते योनौ मले खरमञ्जरीपुनर्नवयोः। कुटजत्वक् सैन्धवं वा लेपाद्धन्यादरुषिकाम् ॥ | नवस्तायाः शूलं योनिगतं सकलमपनयतः॥
खैर, नीम और जामन की छाल या कुड़े की चिरचिटे और पुनर्नवा (साटी) की जड़ को छाल और सेंधा नमक को गोमूत्र में पीसकर लेप पीसकर योनि में लेप करने से नवप्रसूता (जच्चा) करने से अरुषिका का नाश होता है। का योनिशूल नष्ट होता है। [११०१] खदिरादि लेपः (२)
[११०३] खजूराद्यो लेपः (वृ. नि. र. । मसू.)
(ग. नि. । २१ । आ. वा.) खदिरारिष्टपत्रैश्च शिरीषोदुम्बरन्वचाम् । | फलं खजूरिसंभूतं तथा वल्मीकमृत्तिका । कुर्याल्लेपाकफोत्थायां मसूर्या भिषगुत्तमः॥ | उरुस्तम्मे प्रलेपोऽयं मधुना सर्षपान्वितः॥
खैर, नीम के पत्ते, सिरस की छाल और गूलर खजूर के फल, बांबी की मिट्टी और सरसों की छाल का लेप कफज मसूरिका के लिए को पीसकर शहद में मिलाकर लेप करने से उरुहितकारी है।
स्तम्भ का नाश होता है।
अथ खकारादि रसप्रकरणम् [११०४] खपरमारणम् (रसे. सा. सं.) । घोटकर मनुष्य के मूत्र, गोमूत्र और जौ की कांजी शोधनम्
में सेंधा नमक के साथ सात दिन या ३ दिन तक (रसे. चि. म. अ. ७; आ. वे. प्र. अ. १) | भावना देने से वह शुद्ध हो जाता है । पुष्पाणां रक्तपीतानारसैः पिष्ट्वा च भावयेत खपरिया को खूब तपा तपा कर सात बार नरमत्रैश्च गोमूत्रैर्यवाम्लैश्च ससैन्धवैः । बिजौरे नीबू के रस में बुझाने से वह शुद्ध हो सप्ताहं त्रिदिनं वापि पश्चाच्छुध्यति खर्परः ॥ जाता है। खपरः परिसन्तप्तः सप्तवाराभिमजितः।
खपरिया और पारदको एकत्र १ दिन तक जम्बीरज रसस्यान्तनिर्मलत्वमवाप्नुयात् ।। खरल करके यथा विधि बालुका यन्त्र में पकाने से मारणम् ---
| खपरिया की भस्म हो जाती है। ' (र. चं; आ. वे. प्र. अ. ९] [११०५] खर्परसायनम् । खर्परं पारदेनैव वालुकायन्त्रगं पचेत् ।
(र. र. स. । अ. २) चूर्णयित्वा दिनं यावच्छोभनं भस्म जायते ॥ तद् भस्म मृतकान्तेन समेन सह योजयेत् ।
खपरियाको लाल और पीले फूलों के रस में | गुञ्जामितं चूर्ण त्रिफलाक्काथसंयुतम् ।।
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खकारादि-रस
(३३७)
कान्तपात्रस्थितं रात्रौ तिलजप्रतिवापकम् । । पहिले खपरिया को कुलथी और वटांकुरों के निषेवितं निहन्त्याशु मधुमेहमपि ध्रुवम् ॥ क्वाथ में पृथक् पृथक् (दोला यन्त्र विधि से) स्वेदन पिचं क्षयं च पाण्डं च श्वयधु गुल्मेव च।। करे; इसके बाद उसमें पान (अथवा ढाक के पत्ते) रक्तगुल्मं च नारीणां प्रदरं सोमरोगकम् ॥ । गुड़ और सुहागे का चूर्ण मिलाकर त्रिफला के क्वाथ योनिरोगानशेषांश्च विषमाख्याज्वरानपि। में घोटें । इसके पश्चात् उसे मिट्टी के मूषा में भरकर रजाशूलं च नारीणां कासं श्वासश्च हिमिकाम्।। अग्नि में रखकर अच्छी तरह तपावें जब सफेद धुवां
खपरिया भस्म और कान्तिसार लोह भस्म | निकलने लगे तो मूषा को अग्नि से बाहर निकाल बराबर बराबर लेकर चर्ण करें।
कर बार बार जमीन पर उल्टा करें तो उसमें से यह चर्ण ८ गुंजा प्रमाण लेकर रात को शीशे के समान खपरिया का सत्व निकल आयेगा। लोहे के बरतन में त्रिफले के काथ में भिगोदें फिर [११०७] खोटाभिधरसः प्रातः काल उसमें तिल तेल का प्रक्षेप देकर पियें। (र. चि. म.। ४ स्तबकः) इसके सेवन से मधुमेह, पित्त, क्षय, पाण्डु,
खपरे पारदं कृत्वा चुल्लिकोपरिखपरम् । सूजन, गुल्म, रक्तगुल्म, प्रदर, सोमरोग, सब प्रकार
घृष्टं दृढतरं कुर्याद्वहिं प्रज्वालयेदधः ।। के योनिरोग, विषमज्वर, स्त्रियों का रजःशूल (मासिक
| गन्धकं चूर्णितं सूक्ष्म स्वल्पं स्वल्पं च निक्षिपेत् । स्राव के समय शूल होना) खांसी, श्वास और
| द्विगुणे जारिते गन्धे रसः खोटो भविष्यति ।। हिचकी का नाश होता है।
कृष्णोज्वलप्रभः सम्यग्धटिकाद्वयमानतः । [११०६] खर्परसत्वम्
खोटः कार्येषु योक्तव्यः सर्वरोगेष्वसंशयम् ॥ (र. चि. म. । ५ स्तबकः)
___एक ठीकरे में पारद और खपरिया को डाल खपरं स्विद्यते पूर्व कौलत्थेन जलेन च ।
कर उसे चूल्हे के ऊपर रखकर नीचे अग्नि जलावें वटारोहजलेनाऽपि पर्णचूर्णेन संयुतम् ॥ और उसमें थोड़ा थोड़ा गन्धक का महीन चूर्ण गुडटंकणसंमिश्रं त्रिफलाक्काथमर्दितम्। । डालकर घोटते रहें । जब दो गुनी गन्धक जल मृन्मये कूपके धृत्वा धाम्यमानं भृशं च तत् ॥ जाय तो उतार लें । (दो गुना गन्धक २ घड़ी में श्वेतधूमोद्गमे जाते तत्पश्चाबहिरानयेत् ॥ जल जायगा) इसका रंग स्याह और चमकदार कूप्यकं च तथा भूमौ नामयेच्च पुनः पुनः।। होगा। यह समस्त रोगों में प्रयोग किया जा सत्त्वं खर्परकस्यापि नागरूपं पतत्यधः ॥ | सकता है ।
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(३३८)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
JIN
-: प्रथमावृत्ति का उपसंहार :यस्यालौकिकपाणिकौशलकलामालोक्य लोकोऽतुलां शास्त्रे चाद्भुतवैदुषीं कलयते मुग्धः परां तर्कणाम् । जातो भारतमेतदामयमयं विज्ञाय भूयोऽप्ययं श्रीधन्वन्तरिरित्यसौ विजयते योगीन्द्रसेनो भिषक् ॥ १ ॥ शिष्यस्तस्य नितान्तशान्तहृदयः कान्तो गुणैरदद्भुतै
वा॑न्तं शिष्यचयस्य यः शमयते द्रागातुरान्संस्पृशन् । सद्यो नीरुजमातनोति च सुधापाणित्वमुद्भावयन् श्रीमान् सर्वनुतो निवारणयुतश्चन्द्रश्वकास्ति क्षितौ ॥२॥ तत्पादाब्जपरागसेवनसलज्ज्ञानः सतामाश्रवो गोपीनाथ इतीरितो विवृतवांल्लोकोपकृत्यै भिषक् । सद्वैधेन नगीनदासमहता संगृह्य नीतं मुदा प्राकाश्यं खल भारतादि सहितं भैषज्यरत्नाकरम् ॥ ३ ॥ श्रीमन्तः सदया मुहुः सहृदयाः ! याचेऽत्रबद्धाञ्जलिः ये दोषा विलसन्ति शोधयत तान् कृत्वानुकम्पां पराम् । यो वा कोऽपि गुणाऽऽलवोऽपि भविता नो तत्कृते प्रार्थये यत्सन्तः स्वयमेव हंसचरिताः ख्याता जगन्मण्डले ॥ ४ ॥ वाणाब्धिवस्विन्दुमिते शकाब्दे शस्ये तपस्ये बहुले दलेऽसौ । चन्द्रे मनोभवतिथौ चरमत्वमाप्ता व्याख्या गुरोः करुणया, सुधियांमुदेस्तात् ॥५॥*
AL
ULIL
um
इति श्रीगुर्जरप्रान्तान्तर्गत-ऊंझानिवासिना श्री नगीनदास-छगनलाल-शाह-रसवैधेन संगृहीते
श्रीकाशीनागरीप्रचारिणी सभाप्रभृतितो लब्धपदकेन स्वास्थ्य-पुस्तक-माला-सम्पादक बिजनौरमण्डलान्तर्गत हल्दौर वास्तव्येन
श्रीगोपीनाथगुप्तभिषग्रत्नेन कृतया भावप्रकाशिकाख्यव्याख्यया समलंकृते
भारत-भैषज्य-रत्नाकरे प्रथमो भाग ___* १८७५ शकाब्द ।
फाल्गुन कृष्ण १३ सोमवार (शिवरात्री)
पा
IAL
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4888885%
श्री धन्वन्तरये नमः
परिशिष्टम
LEVEL-TEEX:SEBKEXE3%83%83%
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अथायुर्वेदीय परिभाषा
******3*103% 183883% 18658
88%
प्रथमप्रकरणम्
मान - परिभाषा
औषध निर्माणके लिए मान (तोल) का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है क्याकि प्रयोग औषधियोंका परिमाण ठीक न होनेसे पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं हो सकता ।
प्राचीन कालमें अनेक प्रकारके मान प्रचलित थे परन्तु सम्प्रति शास्त्र में दो हो प्रकारके मानोंका अधिक व्यवहार पाया जाता है. १ मागध मान ( चरकोत मान) और २ कालिङ्ग ( सुश्रुतोक्त ) ।
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यों तो औषध निर्माण में चाहे जिस मानका व्यवहार क्यों न किया जाय औषधके गुणोंमें कोई अन्तर नहीं आ सकता परन्तु चरकके प्रयोगोंमें चरकीय मान का और सुश्रुत के प्रयोगों में सुश्रुतके मानका व्यवहार करना अधिक उत्तम है । अन्य ग्रन्थोंके प्रयोगों में write मानका व्यवहार विशेष सुविधा जनक प्रतीत होता है ।
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( ३४० )
६ वंशी ६ मरीचि
चरकसंहितायां दृढबलेनोक्तम्
(क. स्था. अ. १२)
" जालान्तर्गते भानुकरे वंशी विलोक्यते । पडवंश्यस्तु मरीचिः स्यात् पण्मरीच्यस्तु सर्षपः । अष्टौ ते सर्षपा रक्तास्तण्डुलश्चापि तद्द्वयम् । धान्यमाषो भवेदेको धान्यमाषद्वयं यवः ॥ अण्डिकास्ते तु चत्वारस्ताश्चतस्रस्तु माषकः । हेमश्च धानकश्वोक्तो भवेच्छाणस्तु ते त्रयः ॥ शाणौ द्वो द्वंक्षणं विद्यात् कोलं बदरमेव च । विद्याद् द्वौ - क्षणौ कर्षे सुवर्णश्चाक्षमेव च ॥ विडालपदकञ्चैव पितुं पाणितलं तथा । स एव तिन्दुको ज्ञेयः स एव कवडग्रहः ॥ द्वौ सुवणै पलाई स्याच्छुक्तिरष्टमिका तथा । द्वे पलार्द्ध पलं मुष्टिः प्रकुञ्चोऽथ चतुर्थिका ॥ विल्वं षोडशिकञ्चानं द्वे पले प्रसृतं विदुः । अष्टमानञ्च विज्ञेयं कुडवौ द्वौ च मानिका ॥ पलं चतुर्गुणं विद्यादञ्जलिं कुडवन्तथा । चत्वारः कुडवाः प्रस्थश्चतुः प्रस्थं तदाढकम् ॥ घटश्वोक्तः स एव स्यात् कीर्तितोऽशरावकः । पात्री पात्रं तथा कंसश्चत्वारो द्रोण आढकाः ॥ स एव कलसः ख्याता घट उन्मानमर्मणम् । द्रोणस्तु द्विगुणः सूर्पो विज्ञेयः कुम्भ एव च ।, गोणीं सूर्पद्वयं विद्यात् खारीं भारं तथैव च । द्वात्रिंशचैव जानीयाद्वाहं सूर्पाणि बुद्धिमान् ॥ तुलां शतपलं विद्यात् परिमाण विशारदः । शुष्कद्रव्येविदं मानमेवमादि प्रकीर्तितम् | द्विगुणं तदद्रवेष्विष्टं सद्यश्चैवोद्धृतेषु च । यत्र मान तुला प्रोक्ता पलं वा, तत्प्रयोजयेत् ॥ त्रिंशत्पलानि तु प्रस्थो विज्ञेयो द्विपलाधिकः । चमने च विरेके च तथा शोणितमोक्षणे ॥ अर्द्धत्रयोदशपलं प्रस्थमाहुर्मनीषिणः ॥” इति.
=
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चरकोक्त मान
जालीके भीतर सूर्य की किरणों में 'वंशी' (सूक्ष्म रजकण) दिखलाई देती है; वही
B
भैषज्य
१ मरीचि
१ सर्वप
भारत-भ
य-रत्नाकर
८ लाल सर्वप
२
तण्डुल
२
धान्यमाष
४
यव
४
अण्डिका
३
माषक
२
शाण
२ द्रक्षण
२ कर्ष २ पलाई
२ पळ
४
पल
२ कुडव
४
93
४ प्रस्थ
४ आढक
२ द्रोण २ सूर्प
=
=
=
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=
=
=
=
=
=
=
१ आढक, घट, अनुशराव, पात्री, पात्र, कंस
१ द्रोण, कलस, घट,
उन्मान, अर्मण १ सूर्प, कुम्भ
१ गोणी, खारी, भार ।
३२ १,
१ वाह
१०० पल
१ तुला
उपरोक्त मान शुष्क द्रव्योंके लिये बतलाया गया है । द्रव (तरल - पतले) और आई ( तुरन्तके उखाडे हुवे गीले) पदार्थोंका मान इससे दो गुना होता है ।
= १ प्रस्थ
=
=
=
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१ तण्डुल
१ धान्यमाष
१ यव
१ अण्डिका
१ माषक, हेम, धानक ।
=
१ शाण
१ क्षण, कोल, बदर ।
१ कर्ष सुवर्ण, अक्ष, बिडालपदक, पिचु, पाणितल । १ पलाई, शुक्ति, अष्टमिका । १ पल, मुष्टि, प्रकुश्च चतुथिंका, विल्व, षोडशिका, आम्र ।
१ प्रसृत, अष्टमान
१ कुडव, अञ्जलि १ मानिका
जिस स्थानमें "तुला" अथवा "पल" शब्द लिखा हो वहां आद्र और द्रव पदार्थोंका मान भी द्विगुण नहीं होता ।
साधारणतः ३२ पलका प्रस्थ + होता है
+ यह द्रव पदार्थ के प्रस्थके सम्बन्धमे कहा गया है क्योकि शुष्क द्रव्यों के मानमें १ प्रस्थ = ४ कुष १६ पलका होता है ।
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परिभाषाप्रकरण
(३४१)
परन्तु वमन विरेचन . और शोणित मोक्षण यह मान शुष्क द्रव्योंके लिए है। आर्द्र (फस्त) में १३॥ पलका प्रस्थ माना जाता है। और द्रव पदार्थोंके लिए इससे द्विगुण मान सुश्रुते चोक्तम् (चि. स्था. अ.३१) समझना चाहिए।
चरक और सुश्रुतके मानकी परस्पर तुलना “पल कुडवादीनामतो मानन्तु व्याख्यास्यामः ।
। चरकोक्त मान में २ द्रंक्षण= ४ शाण=१२ तत्र द्वादश धान्यमाषा मध्यमाः सुवर्णमाषक: ते षोडश सुवर्णः । अथ मध्यम निष्पावा वा,
माषक या (१२४३२=) ३८४ धान्यमाषकका कर्ष एकोनविंशतिर्धरणम्. तान्यर्द्धतृतीयानिः कर्षः;
माना गया है और सुश्रुतोक्त कर्ष में १६
सुवर्ण माषक-(१६४१२=) १९२ धान्य माषक ततश्चोर्द्ध चतुर्गुणमभिवर्द्धयन्तः पल-कुडव- |
| होते हैं. इससे सिद्ध होता है कि चरकोक्त प्रस्थाढक-द्रोणा इत्यभिनिष्पधन्ते । तुला पलशतं ता विंशतिर्भारः । शुष्कानामिदं मानमार्द्र
मान सुश्रुतोक्त मानसे दो गुना है। द्रवाणाञ्च द्विगुणमिति ।" सुश्रुतोक्त मान
मानसारम् अब पल कुडवादि नामसे मानकी व्याख्या
शाणः कोलश्च कर्षश्च शुक्तिश्च पलमेव च ।
प्रसृतं कुडवश्चापि शरावः प्रस्थ एव च ॥ करते हैं:
अ ढकश्चाढकोऽर्द्धद्रोणश्च द्रोण एव च । १२ मध्यम धान्यमाष = १ सुवर्ण माषक
सूर्पो गोणी च खारीच द्विगुणञ्चोत्तरोत्तरम् ॥ १६ सुवर्ण माषक = १ सुवर्ण
शाण, कोल, कर्ष, शुक्ति, पल, प्रसृत, अथवा
कुडव, शराव, प्रस्थ अ ढक, आढक, अर्द्ध१२ मध्यम निष्पाषा). सव मालक | द्रोण, द्रोण, सूर्प, गोणी ओर खारीका मान
उत्तरोत्तर द्विगुण होता है यथा, शाणसे कोल १९ सुवर्णमाषक = १ धरण
दो गुना, कोलसे कर्ष दो गुना और कर्षसे धरण (१६ माषक)="१ कर्ष
शुक्ति दो गुनी इत्यादि । = १ पल
माषशाणकर्षपलकुडवप्रस्थाढकाः । ४ पल = १ कुडव
द्रोणो गोणी भवन्त्येते पूर्वपूर्वाश्चतुर्गुणाः ॥ = १ प्रस्थ
माष, शाण, कर्ष, पल, कुडव, प्रस्थ, ४ प्रस्थ = १ आढक
आढक, द्रोण और गोणी का मान उत्तरोत्तर ४ आढक = १ द्रोण १०० पल
चार गुना होता है। = १ तुला
शुष्काद्रव्यभेदेन मानम् २० तुला = १ भार
शुष्कद्रव्ये तु या मात्रा चास्य द्विगुणा हि सा । ____ + तानि धरणानि अतृतीयानि अद्धोशं तृतीयांश- शुष्कस्य गुरुतीक्ष्णत्वात्तस्मादर्द्ध प्रकीर्तितम् ॥ म्चेति स्वतः एकोनविंशतिषिकस्यामद्धोनदश तृतीयांशश्च क्यों कि शुष्क द्रव्य, गीले द्रव्योंकी अपेक्षा द्वितृतीयांशोन सप्त मिलित्वा षडांशोन षोडशेति । अधिक गुरु एवं तीक्ष्ण होते हैं अत एव आर्द्र धरण अर्थात १० माषकका अईतृतीय (भाधा और (गीले) द्रव्योंका मान शुष्ककी अपेक्षा द्विगुण तीसरा भाग)९३+६=१५१ होता है जर्थात १६ माषक | ग्रहण करना चाहिए अर्थात् शुष्क द्रव्योंके में कुछ कम होता है इसे पूरे १६ माषक मान लेने में | स्थानमें गीले द्रव्य काममें लाए जायं तो कोई विशेष अन्तर महीं भा सकता ।
लिखित परिमाणसे दो गुने लेने चाहिएं ।
(लोबिया)
= १ सुवर्ण माषक
४ कर्ष
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(३४२)
कितने ही विद्वानोंका मत है कि यदि ओषधिका परिमाण कुडवसे कम हो तो गीले द्रव्य द्विगुणमात्रामें नहीं लेने चाहिएं परन्तु
=
(३ रती +१० रत्ती =
३ माषक =
(४ भाषा =
२ शाण = २ क्षण ४ कर्ष
४ पल
४ कुडव
४ प्रस्थ
चरकीय मान.
१ वल्ल ) ...
१ भाषा...
ક
२ द्रोण
२
सूर्प
25
३२ १०० पल
=
४ यव ६ रत्ती
४ माषा
=
=
आढक =
T 11 11 13 #
=
=
=
शार्ङ्गधरोक्त मागधमान ८ सरसों
=
=
=
=
=
१ शाण... १ निष्क )
-
वर्तमान तोल तथा प्राचीन तोलकी परस्पर तुलना.
( अ )
क्षण...
१
१ कर्ष
१ पल
१ कुडव... १ प्रस्थ
१ आढक
१ द्रोण १ सूर्प
१ भार
१ वाह
१ तुला
१ यव...
१ रत्ती
१ माषक
१ शाण
१ कोल
१ कर्ष १ शुक्ति
१ पल...
...
१ प्रसृत
१ कुडव
408
...
***
...
30.
...
1
***
...
...
...
भारत-भय-रत्नाकर
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वर्तमान मान.
१ रती
रती
१ तोला २ तोला ४ तोला
८
...
३ माषा
६ माषे (तो.)
33
39
विद्वद्वर्य श्री कविराज गङ्गाधरजी कविरत्नके मतानुसार यह मत अनार्ष एवं युक्तिविरुद्ध तथा अमान्य है ।
३रती
१। भाषा
2011
$5
५ माषा
(ब)
116
39
१५
५
४ छटांक १ सेर
ક
१६
""
३२ सेर
53
तोले
""
१०२४ ६। सेर
""
"
日
=
39
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→
=
२ शाण
२ कोल २ कर्ष
२ शुक्ति
२ पल
२ प्रसृत
* १ सेर = ८० तोला.
...१६ + यद्यपि चरक और सुश्रुत में रसीका जिक्र नहीं है परन्तु सभी विद्वान इस विषयमें चरको भाषा १० हत्ती का भाषा है एवं विद्वद्वर्य चक्रपाणीने लिखा है कि तोलने पर वरको रती के बराबर सिद्ध होता है.
=
=
=
1
वर्तमान मान.
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१० रती
३० रती- पांच आनेभर
शार्ङ्गधरोक्त मान
दस आनेभर
१ तोला
१ छटांक
१ पावसेर ( ८० तोले )
२ कुडव = १ शराव
२ शराव = १ प्रस्थ
( २५ मन २४ सेर )
४ प्रस्थ = १ आढक
४ आढक = १ द्रोण २ द्रोण = १ सूर्प
= १ द्रोणी
= १ खारी
२ सूर्प ४ द्रोणी २००० पल = १ भार. १०० = १ तुला
वर्तमान मान.
३२ तोला
६४
""
३सेर १६ तोला
35
१२ सेर६४ तोला* २५ सेर ४८ ५१ सेर १६, २०४सेर ६४
१०० सेर
५ सेर
सहमत हैं कि भाषा १०
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परिभाषाप्रकरण
वर्तमान आपेक्षिक मान १ धान = १ चावल =(a grain of paddy)| १६ छटांक = १ सेर-८० तोला 32 02(approx.) ४ धान = १ रत्ती = (13 grains) १ कांच छटांक=4 FL.drams , ६ रति = १ आना = 111 grains १ छटांक = सेर = 2 FL. ozs , ८ रति = १ माषा = 15 grains=lgram १ पाव = १ सेर = 8 FL. ozs , १६ आना = १ तोला = 180 grains । १ सेर = २ पैाँड =32 FL. Ozs , १ रुपया = १ तोला
१ मन = 82 पैड 2 ozs ५ तोला = १ छटांक =2 ounces (approx.) १ टन - २७ मन
द्वीतीय प्रकरणम्. अथ द्रव्य ग्रहणविधिः
स्थान मेदेन गुणमेदः निर्देशः शृयते तन्त्रे द्रव्याणां यत्र यादृशः। आग्नेया विध्यशैलाद्या सौम्या हिमगिरिर्मतः। तादृशः संविधातव्यः शास्त्राभावे प्रसिद्धितः॥ ततस्तान्यौषधानि स्यु प्रशस्तानि क्रियाविधौ ॥ शास्त्र में किसी द्रव्यके ग्रहण करने में जैसी
विन्ध्याचल आदि पर्वत आग्नेय गुण वाले आहा हो उसीके अनुसार ग्रहण करना चा
और हिमालयादि सौम्य गुणवाले हैं अतएव हिए और जहां शास्त्रने मौन धारण किया इन में उत्पन्न होनेवाली ओषधियां भी यथा हो वहां परिभाषा अनुसार कार्य करना
क्रम आग्नेय और सौम्य गुणवाली होती हैं। चाहिए।
चिकित्सा के समय यह वात अवश्य ध्यान
में रखना चाहिए। साधारण विधिः
- कालभेदे द्रव्यग्रहणम् धम्वसाधारणे देशे मृदावुत्तरतः शुचौ।।
शरद्यखिलकर्मार्थ ग्राह्यं सरसमौषधम् । अवैकृतं अनाकान्तं सवीर्य ग्राह्यमौषधम् ॥
विरेकवमनार्थञ्च वसन्तान्ते समाहरेत् ॥ __ साधारणतः धन्व (मरु भूमि और जाङ्गल
समस्त कार्यों के लिये रसयुक्त ओषधियां देशके लक्षणोंसे युक्त) देशमें उत्पन्न हुई वि.
शरद् में ग्रहण करनी चाहिएं परन्तु वमन कार रहित, कीटादि रहित, वीर्ययुक्त औषधि
और विरेचनकी ओषधियां वसन्त ऋतुके उत्तर दिशा एवं पवित्र स्थानसे ग्रहण क- अन्तमें ग्रहण करनी चाहिएं। रनी चाहिए।
मूलानि शिशिरे ग्रीष्मे पत्रं वर्णवसन्तयोः। निषिद्धोषधिः त्वकन्दौ शरदि क्षीरं यथर्तु कुसुमं फलम् ॥ देवतालयवल्मीककूपरथ्याश्मशानजाः। हेमन्ते सारमोषध्या गृहणीयात् कुशलो भिषक् ॥ अकालतरुमूलोत्था न्यूनाधिकचिरन्तनाः ॥ चतुरवैद्य का कर्तव्य है कि ओषधियों के जलाग्निकृमिसंक्षुण्णा ओषध्यस्तु न सिद्धिदाः॥ मूल शिशिर ऋतुमें, पत्र ग्रीष्म ऋतुमें, छाल
देवतालय, बमी, कुएं के पास, रास्ते | वर्षामें, कन्द वसन्तमें द्ध शरद् ऋतुमें, और श्मशान में उत्पन्न हुई तथा असमय सार हेमन्त ऋतुमें और फल एवं फल जिस (बेमौसम) और तरुमूलमें उत्पन्न हुई, उचित | ऋतुमें उत्पन्न हो उसीमें ग्रहण करें। परिमाणसे हस्व अथवा अधिक दीर्घ और | आद्राण्येव प्रशस्तानि पुरानी तथा जल, अग्नि और कीड़ोंसे विकृत वासानिम्बपटोलकेतकिबलाकुष्माण्डकेन्दीवरीऔषधि फलदायक नहीं होती।
। वर्षाभूकुटजाश्वगन्धसहितास्ताः पूतिमन्धामृताः।
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(३४४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
मांस नागबलासहाचरपुरौ हिड्ग्वाईके नित्यशः | तालीशादेश्च पत्राणि फलं स्यात् त्रिफलादितः ॥ ग्राह्यास्तत्क्षणमेव न द्विगुणिताये चेक्षुजाताधनाः॥ अतिस्थूलजटायाश्च तासां ग्राह्यास्त्वचो धवम् । ___निम्न लिखित द्रव्य सदैव आर्द्रावस्थामें गृह्णीयात् सूक्ष्ममूलानि सकलान्यपि बुद्धिमान् ॥ (गीले-ताज़े) ही लेने चाहिएं एवं इनका बड़ आदि वृक्षोंकी त्वचा, विजयसार परिमाण द्विगुण न करना चाहिए:
आदिका सार, तालीशादिके पत्र और त्रिफवासा, नीम, पटोल, केतकि, खरेटी, पेठा, लादि के फल ग्रहण करने चाहिए। शतावर, पुनर्नवा, कुड़ेकी छाल, असगन्ध,
जिन वृक्षोंकी जड़ अधिक मोटी हो उनकी पूतिगन्धा (गन्धप्रसारिणी) नागवला, पिया
छाल और जिनकी जड़ बारीक हो उनके बांसा, गूगल, हींग, अद्रक और ईखसे बने हुए कठिन पदार्थ (राब, मिश्री इत्यादि)।
समस्त अङ्ग काममें लाने चाहिएं पुरातनान्येव प्रशस्तानि
पुनरुक्तौ द्रव्यग्रहणम् द्रव्याण्यभिनवान्येव प्रशस्तानि क्रियाविधौ। । एकमप्यौषधं योगे यस्मिन्यत्पुनरुच्यते । ऋते घृतगुडक्षौद्रधान्यकृष्णाविडङ्गतः ॥ मानतो द्विगुण प्रोक्तं तद द्रव्यं तत्त्वदर्शिभिः ।
चिकित्सा कार्यमें घी, गुड़, शहद, धान्य, | यदि किसी योगमें एकही ओषधि दो पीपल और बायबिडङ्गके अतिरिक्त समस्त वार लिखी हो तो उसे द्विगुण परिमाणमें द्रव्य नवीन ही ग्रहण करने चाहिएं । लेनी चाहिए। द्रव्याङ्गग्रहणम्
व्याधेरयुक्तं यद्रव्यं गणोक्तमपि तत् त्यजेत् । सारः स्यात् खदिरादीनां निम्बादीनाञ्च वस्कलम् । अनुक्तमपि युक्तं यद्योजयेत्तत्र तबुधैः ॥ फलन्तु दाडिमादीनां पटोलादेश्छदस्तथा ॥ ___यदि किसी प्रयोगमें कोई औषधि रोगी ___ खदिरादिवृक्षोंका सार, निम्बादिकी छाल, के लिए हानिकारक हो तो उसे निकाल डादाडिम आदिके फल और पटोल आदि के | लना चाहिए । इसि प्रकार यदि कोई औषधि पत्र काममें लाने चाहिएं।
रोगीके लिये हितकारी हो तो वह योगमें न न्यग्रोधादेस्त्वचो ग्राह्याः सारः स्याद्वीजकादितः। होनेपर भी डाली जा सकती है।
तृतीय प्रकरणम् अथ सामान्योक्तौ द्रव्यग्रहणम्
सफेद सरसों, लवणसे सेंधानमक और मूत्र, पात्रोक्तौ चापि मृत्पात्रमुत्पले नीलमुत्पलम् ।
| दूध तथा घीसे गोमूत्र, गोदुग्ध और गोघृत शकृद्रसे गोमयरसश्चन्दने रक्तचन्दनम् ॥
समझना चाहिए । सिद्धार्थः सर्षपे ग्राह्यो लवणे सैन्धवं मतम् ।
दूध मूत्र और पुरीप (गोवर) पशुका आमूत्रे गोमूत्रमादेयं विशेषो यत्र नेरितः ॥
| हार पचजाने पर ग्रहण करना चाहिए।
| चूर्णस्नेहाऽऽसवालेहाः प्रायशश्चन्दनान्विताः । पयः सर्पिः प्रयोगेषु गव्यमेव प्रशस्यते ।
| कषायलेपयोः प्रायो युज्यते रक्तचन्दनम् ॥ क्षीरभुत्रपुरीषाणि जीर्णाहारे तु संहरेत् ॥ ___ यदि स्पष्ट वर्णन न हो तो पात्रका अर्थ
चूर्ण, स्नेह, आसव और अवलेहमें प्रायः मिट्टीका पात्र, उत्पलका नीलोत्पल और शकृद्र
सफेद चन्दन, और कषाय तथा लेपमें प्रायः सका अर्थ गायके गोबरका रस समझना |
| लाल चन्दनका व्यवहार किया जाता है। चाहिए । एवं चन्दनसे लाल चन्दन, सर्षपसे ।
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परिभाषा प्रकरण
(३४५)
अनुक्तप्रकाशिकाः परिभाषाः काल, ओषधिका अङ्ग न कहा हो तो मूल, कालेऽनुक्ते प्रभातं स्यादङ्गेऽनुक्ते जटा भवेत
भाग न बतलाया होतो समान भाग,पात्र न कहा
गया हो तो मिट्टीका पात्र और द्रव पदार्थ भागेऽनुक्तेतु साम्यं स्यात् पात्रेऽनुक्तेतु मृन्मयम् ॥
का नाम न बतलाया गया हो तो जल तथा द्रवेऽनुक्ते जलं ग्राह्य तैलेऽनुक्ते तिलोद्भवम् ॥
| तैलका नाम न कहा हो तो तिलका तैल ग्रहण यदि समय न बतलाया गया हो तो प्रातः । करना चाहिए ।
चतुर्थ प्रकरणम् अथाभावे द्रव्यग्रहणम्। । कुङ्कमस्याण्यभावेऽपि निशाग्राह्या भिषग्वरैः । कदाचिद् द्रव्यमेक वा योगे यत्र न लभ्यते। मुक्ताभावे शुक्तिचूंण वजाभावे वराटिका ॥ तत्तद्गुणयुतं द्रव्यं परिवर्तन गृह्यते ॥ ककटङ्गिकाभावे मायाम्बुचेष्यते वुधैः ॥ ___ यदि किसी योगम कोई ओषधि प्राप्त न हो धान्यकाभावतो दद्यात् शतपुष्पां भिषग्वरः ॥ सके तो उसके समान गुणोंवाली अन्य ओ.! वाराहीकन्दकाभावे चर्मकारालुकोमतः । पधि डालनी चाहिए।
| मूर्वाभावे त्वचोग्राह्या जिङ्गिन्या वते सदा ॥ मधु यत्र न विद्यत तत्र जीर्णो गुडोमतः । | सुवर्णमथवा रौप्यं योगे यत्र न लभ्यते । पुरातनगुडाभावे रौद्रे यामचतुष्टयम् ॥ तत्र लोहेन कर्माणि भिषककुर्याद्विचक्षणः ॥ संशुप्य नूतनं ग्राह्यं पुगतनगुडैपिणा। अभावात् पौष्करे मूले कुप्ठं सर्वत्र गृह्यते । क्षीराभावे भवेन्मौद्गो रसो मासूर एव वा ॥ सामुद्रं सैन्धवाभावे विटं वा गृह्यते बुधैः । सिताभावे च खण्डः स्यात् शाल्यभावे च पष्ठिकः। कुस्तुम्बुरु न विद्येत यत्र तत्र च धान्यकम् । असम्भवे च द्राक्षाया गाम्भारीफलमिष्यते॥ पुष्पामावे फलश्चाम विडोदे विल्वतः फलम् ॥ न भवेद् दाडिमो यत्र वृक्षाम्ल तत्र दापयेत् । भल्लातकासहत्वेऽपि रक्तचन्दनमिप्यते ! सौराष्ट्रमृदभावे च ग्राह्या पङ्कस्य पर्पटी ॥ मद्याभावे च शिण्डाकी शुक्ताभावे च काञ्जिकम् ॥ नतं तगरमूलं स्यादभावे शीहलीजटा। यध्याह्वाभावतो विद्याञ्चन्यं तम्याग्न्यभावतः । प्रयोगे यत्र लोहः स्यादभावे तन्मलः विदुः॥ मूलं मौपलिकं देयमभावे कुटजस्य च ॥ सर्षपः शुक्लवर्णों यः स हि सिद्धार्थ उच्यते ।। रानाभावे च वन्दाकं जीराभावे च धान्यकम् । तत्र सिद्धार्थकाभावे सामान्यः सर्पपो मतः ॥ ! तुम्बरुणामभावेऽपि शालिधान्यं प्रकीर्तितम् ॥ चविकागजपिपल्योः पिप्पलीमूलमेव च । । रसाञ्जनस्य चाप्राप्तौ दार्वीकाथं प्रयोजयेत् । अभावे पिप्पलीमूलं हस्तिपिप्पलीचव्ययोः॥ कर्पूरस्याप्यभावेऽपि सुगन्धं मुस्तमिप्यते ॥ अभावे पृश्निपाश्च सिंहपुच्छी विधीयते । कस्तूरीणामभावे तु ग्राह्या गन्धशठी बुधैः । नित्यं मुअतिकाभावे तालमस्तकमिप्यते ॥ अभावे कोकिलाक्षस्य गोक्षुरवीजमिष्यते ॥
अप्राप्त द्रव्य
मधु पुराना गुड़
प्रतिनिधि
अप्राप्त द्रव्य पुरानागुड़
शालि चावल नए गुड़को चार पहर दाख
धूपमें सुखाकर लें दाडिम मूंग या मसूरका यूष सौराष्ट्र मृत्तिका मिश्री
तगर
प्रतिनिधि साठी चावल खम्भारीके फल वृक्षाम्ल पङ्कपर्पटी शीहलीजटा
खा
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(३४६)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
-
-
कस्तूरी
कुमुदनी
अप्राप्त द्रव्य प्रतिनिधि | अप्राप्त द्रव्य प्रतिनिधि लोह मण्डूर
कर्पूर
सुगा धत मोथा सिद्धार्थ (सफेद साधारण सरसों
गन्धशठी सरसों)
कोकिलाक्ष गोखरूके बीज चय पिप्पलीमूल
चीता
दन्ती या चिरचिटेका गजपीपल पीपलामूल
खार पृश्निपर्णी शालपर्णी
धमासा
जवासा मुञ्जतिका तालमस्तक
तगर केसर हल्दी मौलसिरी
लाल या नीला कमल मोती सीप
अहिंस्रा
मानकन्द हीरा कौड़ी
लक्ष्मणा
मोरशिखा काकड़ासिंगी मायाम्बु
नीलकमल धनिया सोया
बाबची
पवारके बीज वाराहीकन्द चर्मकारालु
अतीस
नागरमोथा मूर्वा जिङ्गिनीकी छाल
मेदा, महामेदा शतावर सोना लोह
जीवक
विवारीकन्द चांदी
ऋद्धि
वाराहीकन्द काकोली
असगन्ध सामुद्र या विड लवण
सोना धनिया
सोनामक्खी कुस्तुम्बुरु
अदरक कच्चेफल पुष्प
सोंठ भिलावाअसहा होतो लाल चन्दन
अनन्तमुल
उवा स्त्रीका दृध शिण्डाकी मद्य
गधीका दुध हीरा काजी शुक्त
पोखराज चव्य
यत्र यद् द्रव्यमप्राप्तं मेषजे परपूर्वतः । चव्य तालमूली
ग्राह्यं तम् गुणसाम्यात् तु न तत्र कापि दूषणम् ॥ कुडा
____ यदि किसी योगमें कोई ओषधि प्राप्त न रास्ना वन्दाक
हो तो उसी योग में कही हुई ओषधियोमें जीरा धनिया
से अप्राप्त ओषधिसे पहिले या पीछे कही तुम्बुरु शालि धान्य
हुई उसीके समान गुणवाली ओषधि ग्रहण रसोत
दारुहल्दीका क्वाथ करनी चाहिए ।
पोखरमूल सेंधानमक
मुल्हैठी
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विविधपरिभाषाः पुटपाकविधिः
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परिभाषा प्रकरण
पश्चम प्रकरणम्
पुढे पक्कस्य द्रव्यस्य स्वरसो गृह्यते यतः । अतोऽयं पुटपाकः स्याद्विधानं तस्य कथ्यते ॥
कभी कभी पुटपाक विधिद्वारा द्रव्योंका स्वरस निकाला जाता है अतएव यहां पुट पाककी विधि लिखी जाती है ।
द्रव्यमपोथितं जम्बूवटपत्रादिसम्पुटे । वेयित्वा ततो बद्ध्वा दृढं रज्वादिना तथा ॥ लेने चाहियें । मृपं द्वयले कुर्यादथवाङ्गुलिमात्रकम् । दहेत्पुटान्तरादग्नौ यावलेपस्य रक्तता ॥
ओषधिको कूटकर जामन या बड़के पत्तों में लपेटकर उसे रस्सी आदिसे कसकर मज़बूत बांध और उसके ऊपर दो अङ्गुल या एक अकुल मोटा मिट्टीका लेप करके ( सुखाक) अग्निमें era | ब ऊपर वाली मिट्टी का रंग लाल हो जाय तो पुटपाक सिद्ध समझें।
षडङ्गपरिभाषा
यद भृतशीतासु षडङ्गादि प्रयुज्यते । कर्षमात्रं ततो द्रव्यं साधयेत्प्रास्थिकेऽम्भसि ॥ अर्द्धतं प्रयोक्तव्यं पाने पेयादिसंविधौ ||
श्रुतशीतादि पेय जल बनाने के लिए पडङ्ग परिभाषाका प्रयोग किया जाता है । वह इस प्रकार है कि - १ तोला ओषधियोंको १ सेर पानी में पकाकर आधा शेष रक्खें । यह जल प्रायः पीने और पेयादि बनानेके लिए व्यवहृत होता है ।
क्षीरपाकविधिः
द्रव्यादष्टगुणं क्षीरं क्षीरात्तोयं चतुर्गुणम् । क्षीरावशेषः कर्तव्यः क्षीरपाके त्वयं विधिः ॥
ओषधिसे ८ गुना दूध और दूधसे चार गुना पानी मिलाकर इतना पकाना चाहिए कि दूध बाकी रद्दजाय ।
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कल्ककथा निर्देशे
| कल्कक्काथावनिर्देशे गणात्तस्मात्प्रयोजयेत् । यदि शास्त्रमें कल्क या क्वाथ न बतलाया हो अर्थात् केवल यह लिखा हो कि अमुक ओषधियोंसे घृत या तेल आदि सिद्ध कर लिया जाय और यह न लिखा हो कि इन arraat sea डाला जाय या क्वाथ, तो वहां इन ओषधियोंका कल्क और क्वाथ दोनों
( ३४७ )
आसवारिष्ट विधानम् अनुक्तमानारिप्रेषु द्रवद्रोणे तुला गुडम् । क्षौद्रं क्षिपेद् गुडादर्द्ध प्रक्षेपं दशमांशकम् ॥
यदि अरिष्ट के पदार्थोंका परिमाण न बतलाया गया हो तो ३२ सेर द्रव ( जलादि) पदार्थ में ६ सेर गुड़, गुड़से आधा शहद और गुड़का दसवां भाग प्रक्षेप द्रव्योंका चूर्ण डालना चाहिए |
तण्डुलोदक (ज्येष्ठाम्बु)
तण्डलं कणशः कृत्वा पलं ग्राह्यं हि तण्डुलात् । चतुर्गुणं जलं देयं तण्डुलोदककर्मणि ॥
कूटकर बारीक किए हुवे चावल ५ तोला लेकर चारगुने पानी में भिगोदें (जय चावल नरम हो जाय तो पानी नितार लें) यह पानी rogates कहलाता है ।
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उष्णोदक (सुखोदक अमेनांशशेषेण चतुर्थेनार्द्धकेन वा । अथवा कथनेनैव सिद्धमुष्णोदकं वदेत् ॥
पानीको पकाकर आठवां, चौथा अथवा आधा भाग शेष रक्खें या केवल उबाल लें तो उसका नाम 'उष्णोदक' होगा ।
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(३४८)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
-
लाक्षारस
तुषाम्बु षड्गुणेनाम्भसा लाक्षा दोलायन्त्रे ह्यपुस्थिता। भृष्टान् मापनुपान् सिद्धान् यवचूर्ण समन्वितान् । त्रिसप्तधा परिस्राव्य लाक्षारसमिदं विदुः ॥ आसुतानम्भसा तद्वज्जातं तच्च तुषोदकम् ॥
लाखको कपड़ेमें बांधकर दोलायन्त्रकी उड़दके छिलकोंको भूनकर उनमें जौका. विधिसे छः गुने पानी में पकाकर २१ बार चूर्ण मिलाकर यथोचित परिमाण पानी में छान लिया जाय तो उस पानीका नाम “लाक्षा- भिगोकर आसवकी तरह सन्धान करके रक्खें। रस" होगा।
जब पानी खट्टा हो जाय तो निकाल लें ।
इसका नाम "तुषोदक" है । क्षारोदक गुल्म आदि रोगों में जो पीनेके लिए क्षारजल बनाया जाता है उसकी विधि यह है आशुधान्यं क्षोदितञ्च वालमूलन्तु खण्डशः । कि क्षारको छःगुने (किन्ही किन्ही के मतानुः कृतं प्रस्थमितं पात्रे जलं तत्राढकं क्षिपेत् ॥ सार चार गुने) पानीमें घोलकर उसे २१
तावद् सन्धीय संरक्षेद् यावदम्लत्वमागतम् । बार चुवाल ।
काञ्जिकं तत्तु विज्ञेयमेतत् सर्वत्र पूजितम् ॥
___ कुटे हुवे धान और मूलीके टुकड़े आधा कट्वर
आधा सेर ले कर सबको ४ सेर पानी में दनः ससारकस्यात्र तक कटवरमिष्यते । आसवकी तरह सन्धान करके रक्खें । जब ___ दहीके सार (घृत) युक्त तक्रका नाम
खट्टा हो जाय तो निकाल लें। इसका नाम "काजी" है।
काञ्जी
'कटवर' है।
HTTPS
शुक्त
चुक्रम् कन्दमूलफलादीनि सनेहलवणानि च ।
यन्मस्त्वादि शुचौ भाण्डे सगुड़लौद्र कालिकम् ।
यथर्नु धान्यराशिस्थं सुक्तं चुकं तदुच्यते ॥ यत्र द्रव्येऽभिषूयन्ते तच्छुक्तमभिधीयते ॥ कन्द, मूल, फलादि तथा तेल और नमकको
मस्तु, गुड़, शहद और काजीको उत्तम द्रव पदार्थ (काजी आदि) में डालकर आस.
| स्वच्छ वर्तनमें भरकर सन्धान करके ऋतु वकी तरह सन्धान करके रक्खें। इस क्रियासे! अनुसार समय तक (ग्राम और शरद् ऋतु में जो पदार्थ तैयार होता है उसको 'शुक्त'कहतेहैं।
३ दिन तक, वर्षामें ४ दिन, वसन्तमें ६ दिन और शीतकाल में ८ दिन तक) अनाज के
ढेरमें दबाकर रक्खें । मस्तु
इस प्रकार जो अम्ल द्रव तैयार होता है उक्तं दधि द्विगुणवारियुतन्तु मस्तु।
उसका नाम "चुक" है। दही में दोगुना पानी डालकर बनाए हुवे चुक्रमें-गुड़ १ भाग, शहद २ भाग, काजी तक्रका नाम मस्तु है।
४ भाग और मस्तु ८ भाग होना चाहिए।
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परिभाषा प्रकरणम्
(३४९)
आरनाल
भावना विधि आरनालस्तु गोधूमैरामैः स्थानिस्तुपीकृतैः। भाव्य द्रव्य समं क्वाथ्यं क्वाथ्यादष्टगुणं जलम् । पक्वैर्वा सन्धितैस्तत् तु सौवीरसदृशं गुणैः।। । अष्टांशशेषितः क्वाथो भाव्यानां तेन भावना । ___ कञ्चे या पक्के तुप रहित गेहुंओं को स. | द्रवेण यावताद्रव्यमेकी भूयार्द्रतां व्रजेत् । न्धान करनेसे जो पदार्थ तैयार होता है उसका | तावत् प्रमाणं कर्तव्यं भिषभिर्भावनाविधौ ॥ नाम "आरनाल" है । इसके गुण "सौवीर" भाव्य द्रव्य (जिस द्रव्यको भावना देनी नामक सुरा के समान हैं।
हो उस) के बराबर क्वाथ्य द्रव्य (जिन
चीजोंकी भावना देनी हो वह चीजें) लेकर पाचनानां द्रव्यपरिमाणम् आठगुने पानी में पकावें जब आठवां भाग दशरक्तिकमानेन गृहीत्वा तोलकद्वये । बाकी रहे तो उतारकर छान लें। दत्त्वाम्भः षोडशगुणं ग्राह्यं पादावशेषितुम् ॥ जिस चीज़में भावना देनी हो उसमें यह इमां मात्रां प्रकुर्वन्ति भिषजः पाचनेषु च ॥ क्वाथ इतना डालना चाहिए कि दोनों चीजें
पाचन तैयार करने के लिए १० रत्ती वाले मिलकर पतली हो जायं। माषे के हिसाबसे २ तोला (२॥ तोला) औषधिको १६ गुने (आधासेर) पानी में पकाकर
मन्थः चौथाई (१० तोला) वाकी रखना चाहिए । शक्तषः सर्पिषा युक्ता शीतवारिपरिप्लुताः।
नात्यच्छा नाति सांद्राश्च मन्थ इत्यभिधीयते ॥ अन्नादि साधनम्
सत्तमें घी और ठंडा पानी डालकर मथें । क्वाथ्यद्रव्याञ्जलिं क्षुण्णं श्रपयित्वा जलाढके। | पानी इतना होना चाहिए कि सत्त न बहुत पादावशेषे तेनाथ यवाग्वाद्युपकल्पयेत् ॥ . पतला हो जाय और न बहुत गाढा रहे। जिन औषधियोंके क्वाथसे यवागु आदि
तर्पणः बनानी हो उन सबको १ अञ्जली (२० तोले)
ज्वरापहैः फलरसैर्युक्तं समधुशर्करम् । लेकर कूटकर ४ सेर पानी में पकावें, जब एक
द्रवेणालोडितास्ते स्युस्तर्पणं लाजशक्तवः॥ सेर पानी बाकी रहे तो उतारकर छान ले.
___ धानकी खीलोंके सत्तमें ज्वरनाशक फलों इस पानीसे यवागु आदि बनानी चाहिए ।।
| के रस, शहद और खांड मिलाकर उसे द्रव बनाने की विधि नीचे लिखी जाती है।
पदार्थ में मिलावें । इसका नाम "तर्पण" है । अन्नं पञ्चगुणे साध्यं विलेपी च चतुर्गुणे । मण्डश्चतुर्दशगुणे यवागूः पढगुणेऽम्भसि ॥ ____ अन्न पांच गुने पानी (दवाओंके क्याथ में),
दधि कूचिका विलेपी चार गुने में और मण्ड १४ गने में ! दध्नासह पयः पक्वं सा भवेदधिकृर्चिका। तथा यवागु छः गुने पानी में पकानी चाहिए, दही के साथ पकाए हुबे दूधका नाम सिक्थकै रहितो मण्डः पेया सिक्थ समन्विता।। “दधि कूचिका" है। यवागूहु सिकथा स्याद्विलेपी विरलद्रवा ॥ ___ मण्डमें कण बिलकुल नहीं रहता, पेयामें
तक कूर्चिका कुछ कण रहता है, यवागूमें कण बहुत अधिक तक्रेण पक्वं यतक्षीरं सा भवेत् तक्रकूर्चिका । होता है और विलेपीमें पानी बहुत कम तक के साथ पकाए हुवे दुधका माम होता है।
| "तक कृचिका" है।
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(३५०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
सुरादीना लक्षणानि "वक्कस" और सुराबीजका नाम 'किण्य' है। सुरामण्डः प्रसन्ना स्यात्ततः कादम्बरी धना ।
| ताल और खजूरके रसले बनी हुई सुराको तदधो जगलो 'ज्ञेयो मेदको जगलाद् घनः ॥
"वारुणी" कहते हैं। षकसो हरसारः स्यात्सुराबीजञ्च किण्वकम् । यत्तालखजूररसैरावृता सैव वारुणी ॥
तक्रम् सुरके सबसे ऊपर वाले स्वच्छ भागका तक युवश्चिन्मथितं पादाम्लोम्बुनिर्जलम् । नाम 'प्रसन्ना' है। उससे नीचे के कुछ गाढ़े। यदि वही में चौथाई भाग पानी डालकर भागका "कादम्बरी" कहते हैं।
मथा जाय तो "तक" आधा पानी डालकर कादम्बरीसे गाढ़े भागको 'जगल' और मथा जाय तो 'उदश्चित्' और बिना पानी उससे गाढ़े भाग को 'मेदक' कहते हैं। डालेही दहीको मथ लिया जाय तो 'मथित'
सुराके सारहीन भाग (फोक) का नाम 'तैयार होता है।
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भारत भैषज्य रत्नाकर प्रथम भागकी
चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
अग्निमांद्याजीर्णाधिकार
संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण कषाय
९८ अग्नितुण्डी वटी अग्नि वर्दक ६२२ करादि घोर विधूचिका
९९ ,, दीपनी ,, ,
१०५ अजीर्णहरी ,, अग्निमांद्य, शूलादि अनेक रोग चूर्ण
११८ अमृतकल्प ,, शूल, मन्दाग्नि, अजीर्ण ४४ अग्निकर अग्निदीपक, अतिसारहर ११९ अमृतपमा ,, अजीर्ण, अग्निवर्द्धक ४५ अग्निमुख गुल्म, अरुचि, अग्निमांद्य,शूल । १२० अमृत वटी अजीर्ण,कफ,वायु,दीपन,रोचक तिल्ली, उदररोग, वायु, अजीर्ण,
१२१ ,, , कफ, पित्त, अग्निमांद्य उदावर्त, विष आदि ७५७ कारख्यादि गुटिका अरुचि नाशक ४७ अग्निमुख लवण तिल्ली, जिगर, उदररोग,अग्नि० ५६ अतिविषादिचूर्ण अग्निवर्द्धक, कोष्ट-वायु-नाशक
१४८ अमृत हरीतकी अजीर्ण, मन्दाग्नि, उदररोग, ७२ अम्लकादि खांसी, श्वास, अरुचि,
शूल, ग्रहणी, अर्श,आमवात ६८३ कणादि अजीर्ण-नाशकऔर अग्निवर्द्धक
घृत ६८७ कपित्थादि उदर व्याधि ७०३ कारव्यादि सब प्रकार की अरुचि
१५६ अग्निघृत (१) अग्निमांद्य, अर्श, गुल्म, ७३२ कोलास्थियोग भस्मक रोग
__ भगन्दर, ग्रहणी, शोथ आदि
| १५७ ,, ,, (२) अग्निमांद्य, अर्श, प्लीहा, गुटिका
जलोदर, कुष्ठ, प्रमेह, सूजन ९७ अग्निजननी वटी अग्नि वर्द्धक
आदि अनेक रोग
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
३५४
अतिसाराधिकार
-
-
रामना
अतिसाराधिकार कषाय-प्रकरण
गुटिका-प्रकरण संख्या प्रयोग नाम . प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण ३६६ आमलेकीआलबाल प्रबल अतिसार ९४ अकोटवटक सर्व अतिसार ३७० आम्रादि योग पित्तज संग्रहणी, वरातिसार, १०९ अभयादिचतुस्समवटी आमातिसार,अफारा, शूल, रक्तस्राव
विषूचिका, कामला ३७३ आम्रास्थ्यादि अतिसार, वमन ३९४ आमनाशनीवटिका आमनाशक वर्ति(शाफ़ा) ६०३ कट्फलादि पित्तज अतिसार ७५५ कामेश्वर प्रोदक (१) ग्रहणी आदि अनेक ६२४ कलिङ्गयवषद्कम् रक्तातिसार, शूल
रोगनाशक, वाजीकरण, रसायन ६२५ कलिङ्गादि शूल, विबन्ध, दीपन, पाचन ७५६ , , (२),, , , ६४९ किरातादि शोथ, अतिसार, ज्वर
लेह-प्रकरण ६५२ कुटजदाडिम रक्तातिसार
४१०आर्द्रककुटजावलेह सर्वातिसार, रक्तप्रदर,बवा. ६५४ कुटजक्षीर ,
७९० कुटज पुटपाक सर्वातिसार ६५६ कुटजाष्टक रक्तातिसार,शूल,आम,वाताति०
७९५ कुटजावलेह (५) , ६६७ कृमिशब्यादि कफज अतिसार
७९७ , (७) वेदनायुक्त अतिसार, रक्तप्रदर, चूर्ण-प्रकरण
___ बवासीर, पेचिश ४९ अजमोदादि प्रवलातिसार
७९९ कुटजाष्टक रङ्ग बिरङ्गे दस्त, ग्रहणी, शूल, ६२ अभयादि कफज अतिसार
___ अरिष्टासव ६५ अभयाविरेचन प्रवाहिका(पेचिश)में अनुभृत ,
२०० अहिफेनासव प्रवल अतिसार, हैजा ९३ अहिफेनयोग पक्कातिसार-नाशक
८९२ कुटजारिष्ट रक्तातिसार, संग्रहणी, वर ६८२ कट्फलादि वातश्लेष्मातिसार ७०७ किराततिक्तादि ग्रहणी, पाण्डु, हृद्रोग,
कामला, सन्निपात २८२ अतिसारभसिंह अतिसार ७०९ कुटज चूर्ण अतिसार
२८३ अतिसारवारण सर्व अतिसार ७१० कुटजादि पक्कातिसार, रक्तपित्त २८४ अतिसार-हर अतिसार ७३३ कञ्चटादि प्रवलातिसार
२८५ अतिसारान्तक अतिसार, प्रवाहिका १०६५ खाण्डव चूर्ण अतिसार, कृमि,वमन,उदर- | २९२ अभयनृसिंह रस सब प्रकार के .. रोग, हृद्रोग, स्वास, खांसी ।
अतिसार, संग्रहणी, ज्वर
रस
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनि
३५५
अपस्माराधिकार
अपस्माराधिकार संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण । सख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण कषाय
८२९ काशादि घृत अपस्मार ६६५ कुष्माण्डकादि योग मिरगी
८४३ कूष्माण्डादि,, , __ चूर्ण ६९९ कल्याणक चूर्ण अपस्मार, उन्माद,वायु, कफ, बवासीर
८४७ कटभी तैल अपस्मार गुटिका
नस्य ४५९ इन्द्रब्रम वटी अपस्मार घृत
| २२७ अपस्मार हर (१) अपस्मार १६१ अमृत घृत बिष, अपस्मार, क्षय,उन्माद, | २२८ ,, (२) ."
पांडु, कृमि, गुल्म आदि । ९३० करजादि अपस्मार, उन्माद, भूतरोग
अर्बुदाधिकार
लेप ५०५ उपोदिकाद्यभ्यंग अर्बुद । ३३५ अर्बुदहर अर्बुद
कषाय
लेह
__ ५ अम्लपित्ताधिकार
मूर्छा, दाह आदि अनेक रोग ६१५ कण्टकार्यादि अम्लपित्त, श्वास, खांसी,
वमन, ज्वर | १४२ अभयादि लेह अम्लपित्त, कण्ठ, हृदयकी चूर्ण
दाह, मूर्छा ८३ अविपत्तिकर अम्लपित्त, शूल, अर्श, प्रमेह, १५१ अम्लपित्तहर पाक अम्लपित्त, मूत्रकृच्छ्र, मूत्ररोग
ज्वर, अरुचि आदि ५६४ एलादि अम्लपित्त
५७१ एलादिलेह अम्लपित्त, अरुचि, ज्वर, दाह,शोथ गुटिका
१०७६ खण्डकुष्माण्ड , १२६ अम्लपित्तान्तक मोदक अम्लपित्त, वमन, १०८० खण्ड पिप्पली (१) ,, शूल, वमन, अग्निमांद्य
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनि
३५६
अरोचकाधिकार
संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण १०८१ खण्डपिप्पली (२) , , ,, दाह, अरुचि ३१९ अमृत रस अम्लपित्त, अग्निमांद्य, १०८३ खण्ड शुण्ठी , , हृद्रोग, आम- |
परिणामशूल, पांडु वात, रसायन | ३२७ अम्लपित्तान्तक अम्लपित्त
रस २६८ अग्निमुख ताम्र अम्लपित्त, क्षय, शूल
६ अरोचकाधिकार कषाय
गुटिका २३ अम्लिका पानक अरुचि, पित्त
११९ अमृतप्रभा वटी अरुचि, अजीर्ण, मंदाग्नि ७५७ कारव्यादि गुटिका अरुचि
चूर्ण
७२ अम्लकादि चूर्ण अरुचि, अजीर्ण, श्वास | ४०८ आर्द्रकमातुलजावलेह अरुचि, क्षय,कामला, ५५९ एलादि , ,, तिल्ली, उदररोग, श्वास,
पांडु, खांसी, श्वास, उदरविकार
रस शूल, ज्वर, अर्श
| २४९ अग्निकुमार (१७) अरुचि, परिणामशूल, ७०३ कारव्यादि अरुचि
कफ, श्वास, खांसी, सूर्यावर्त ७ अर्शोधिकार कषाय
गुटिका ३१ अर्शोन्न महाकषाय बवासीर नाशक | १०० अगस्ति मोदक बवासीर, सूजन, ग्रहणी, ३५ अर्श में तक बवासीर में अकसीर
__ उदावर्त, खांसी ३६ अर्शनाशक योग बवासीर नाशक
१०४ अजाज्यादि सब प्रकार की बवासीर चूर्ण
११४ अभ्रक हरीतकी त्रिदोषज बवासीर
१२९ अर्शोघ्न वटक बवासीर नाशक, दीपक ६० अपामार्ग यीजादि बवासीर नाशक ७३८ कनकावती वटी सब प्रकार की बवासीर ६१ अपामार्गादि कल्क खूनी बवासीर
७४९ काङ्कायन गुटिका (१) बवासीर में प्रसिद्ध ७८ अर्कक्षार वातज अर्श ।
७५८ कार्पास मज्जा गुटी , नाशक ६९१ करजादि खूनी बवासीर ७०० फल्याण लवण बवासीर
७८७ कल्याण गुड ग्रहणी, श्वास, खांसी, शोथ, ७३१ कोकम्बादि बवासीर के मस्से
मन्दाग्नि, वंध्यत्व
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
३५७
अश्मयधिकार
रस
संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोष-नाम प्रधान गुण ७९६ कुटजावलेह (६) अर्श, अतिसार, संग्रहणी, २०९ अर्शोहर मस्से
___ रक्तपित्त, प्रवाहिका आदि ८९८ कटुतुम्ब्यादि अर्श ७९८ कुटज-रस-क्रिया रक्तार्श, रक्तातिसार,
रक्तप्रदर,
| ९०६ काञ्चनीलेप , ८०६ कुष्माण्ड खण्ड रक्तार्श, मूढवात, मन्दाग्नि
धूप १०८४ खण्डशूरणावलेह अर्श, मूढवात
| २१२ अश्वगन्धादि बवासीर घृत
९१८ कर्परधूप , १७० अवाक्पुष्प्यादि अर्श, अतिसार, रक्तस्राव,
गुदभ्रंश, शोथादि ८३३ कुटजादि रक्तार्श शूल
|२६३ अग्निकुमार (३१) अर्श, अग्निमांद्य, श्वासादि ८६८ कासीसादि मस्से नष्ट होते हैं
| २७३ अग्निमुखलोह मन्दाग्नि, पांडु, कुष्ठ,
उदररोगादि आसवारिष्ट
३१२ अभ्रक हरीतकी त्रिदोषज बवासीर १९२ अभयारिष्ट (२) अर्श, उदररोग, मन्दाग्नि,
___ मलावरोध
३२१ अमृताङ्कुर लोह बवासीर, कुष्ठ, पांड, १९३ , (३) ग्रहणी, अर्श, तिल्ली, पांड,
वायु, प्रमेह ज्वर, खांसी ३३६ अथाऽर्शकुठार रस बवासीर १९४ अभयारिष्ट(४) अर्श, कुष्ठ, प्रमेह, तिल्ली, | ३३७ अर्शकुठार रस (१) , ८८८ कनकारिष्ट रोचक, अर्श, ग्रहणी, श्वास ३३८ , (२) ,
ज्वर, शोथ, गुल्म २३९ अर्शोरि मडूर ,, कृशता, बलकारक, ८९४ कुमार्यासव अर्श, कास, श्वास, पांड,
उत्साहवर्धक गुल्म, उदररोग ३५२ अष्टांग रस सब प्रकारको बवासीर
९४६ कनकसुंदर (४) अर्श, कटिशूल, क्षय, २०७ अर्कादि मस्से
श्वास, ज्वरादि रोग पुख
लेप
८ अश्मयधिकार कषाय
३५७ आकल्लकादि पथरी, रेग, अत्यन्त पीडा
५५९ कुलत्यादि मूत्र के साथ पथरी निकल पथरी, मूत्रकृच्छ्र
जाती है
५४९ एलादि
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
३५८
आमवाताधिकार
तैल
___ चूर्ण
संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण चूर्ण
८४० कुलत्थादि दुस्साध्य पथरी, मूत्र७७ अर्कपुष्पी कल्क दाह युक्त पथरी
कृच्छू, मूत्राघात ३८७ आनन्द योग पथरी, शर्करा ५६. एलादि योग दुस्साध्य पथरी ५०० उशीराध मूत्रकृच्छु, अश्मरी, ७३० केशर योग शर्करा (रंग) ८७५ कुशादि शर्करा, पथरी मूत्रकृच्छू, गुटिका
' प्रदर, योनिशूल ३९३ आनन्दभैरवी वटी पथरी
३४१ अश्मरीकण्डन दारुण अश्मरी, शर्करा घृत
! ३४२ अश्मरीभिद्रस पथरी ८३६ कुशा पित्तज पथरी ३४३ अश्मरीमेदक , ९ आमवाताधिकार
आमवात, भेदक, पा५२ अजमोदादि चूर्ण सूजन, आमवात (गठिया)
वक, तिल्ली वातव्याधि
३९९ आमवातारि वटिका आमवात ६९ अमृतादि आमवात
५६५ एरण्डादि गुटी , " ८० अलम्बुषादि (१),, आमवात, गांठोंकी सूजन ८१ , (२),, सूजनयुक्त गठिया, वातरक्त ४२९ आमवातहर आमवात
त्रिक जानु उरु सन्धिगत | ११०३ खर्जूरादि उरुस्तम्भ
वायु, ज्वर, अरुचि ८२ अलम्बुषादि चूर्ण (३) प्रवृद्ध आमवात
४४४ आमवात- आमवात, वातव्याधि ५७८ एरण्ड-तैल-हरीतकी आमवात
विध्वंसन हनुस्तम्भ, अपस्मार, गुटिका
उन्माद, सर्वांग पीडा
४४५ आमवातारि आमवात १०२ अजमोदादि षटक आमवात
४४६ आमवातेश्वर आमवात, गुल्म,शोथ,ग्रहणी, १०८ अभयादि गुटी ,
अश, उदररोग, पांडु ३९५ आमवात गजसिंह- , शूल, रक्त- ५११ उदय भास्कर (१) आमवात . मोदक अम्लपित्त,
५१२ ॥ ॥ (२), ३९७ आमवावारिपटिका आमवात वातव्याधि ५१५ , , (२) आमवात, कम्पवात, ३९८ " गुल्म,शूल, उदररोग, |
संधिवात, उदररोगादि
रस
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
३५९
उन्मादाधिकार
-
चूर्ण
१० उदररोगाधिकार संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण ।
गुटिका ४७ अमिमुख लवण उदररोग, तिल्ली, जिगर, | ९६ अग्निगर्भा वटी तिल्ली, जिगर, गुल्म शूल, गुल्म,शूल,आदि अनेक रोग
आदि अनेक रोग ५५१ एरण्डभस्म योग तिल्ली नाशक ६८७ कपित्थादि उदर रोग
११० अभयादि मोदक तिल्ली, बवासीर, गुल्म, ७१२ कुष्ठादि वातोदर
____पाण्डु आदि ७१६ , तिल्ली, उदावर्त | ११३ अभया वटी उदररोग, तिल्ली, जिगर,रक्तपित्त
५२१ उदरन रस समस्त उदर रोग १७६ अग्निमन्थादि क्षार उदररोग वातज़हृदयग्रह
५२२ उदरध्वान्त सूर्य अष्टोदर विशेषतः जलो
दर, गुल्म, शूल, अफारा
५२३ उदरामयकुंभकेसरी यकृत, कृमि, प्लीहा, ४४९ आरोग्य सागर पाण्डु, अरुचि, उदावर्त
जलोदरादि ज्वर, मन्दाग्नि आदि ५२४ उदरारि रस (१) स्त्रियोंका जलोदर, दकोदर ५१९ उदय मार्तण्ड उदर शोथ, भगन्दर । ५२५ , , (२) सर्व उदर
रस
११ उदाधिकार कषाय १७७ उदर्द प्रशमन महा उदर्दनाशक
१२ उन्मादाधिकार गुटिका
अरिष्ट ४९३ उन्मादभञ्जनी उन्माद,अपस्मार हर अंजन
| १९८ अश्वगन्धारिष्ट उन्माद, मिरगी, मूर्छा, घृत
__ वातव्याधि, अर्श ४९५ उन्माद-नाशक उन्माद ८२६ कल्याणक घृत अपस्मार, उन्माद, ज्वर, ।
अञ्जन कास, वातरोग, क्षय आदि २१८ अञ्जन नं.४ उन्माद
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
उपदंशाधिकार
संख्या प्रयोग-नाम प्रधानगुण । संख्या प्रयोग-नाम प्रधानगुण ९२७ कृष्णाजन उन्माद
५३२ उन्मादगजाश विशेषतः भूतोन्माद,
दोषोन्माद ५३० उन्मादगजकेसरी (१) उन्माद, अपस्मार ५३३ उन्मादभञ्जन उन्माद, अपस्मार, कृ(२) उन्माद, अपस्मार,
शता, रक्तपित्त, भूतोन्माद ज्वर ५३४ उन्माद हर योग उन्माद, अपस्मार
१३ उपदंशाधिकार कषाय
लेप ३७ अश्वत्थादिप्रक्षालन आतशक के घाव और ५०२ उपदंशलिंगलेप धाव सूजन
५०३ उपदंशस्फोटेऽवलेप व्रणशोधक, रोपक ३६७ आम्रत्वचाका स्वरस आतशक के घाव ५०४ उपदंशहर लेप उपदंश के घाव
घत ८२५ करञ्जाय घृत उपदंश के घाव, दाह,पाक | ५०९ उपदंशहर धूप आतशक (उपदंश) घाव से स्राव होना, लाली
रस
| ५३५ उपदंशकुठार उपदंश १७६ आगार धूमादि उपदंश, खुजली, सूजन, | ५३६ उपदेशेभसिंह उपदंश, सन्धि और वणणशोधन, रोपण
अस्थिशोथ __१४ कर्णरोगाधिकार
| ८६३ कर्णामयध्न तैल समस्त कर्ण रोग २९ अर्काङ्कुरादि स्वरस कान का दर्द ८७७ कुष्ठ तैल पूतिकर्ण ३० अर्कपत्र , ,
८८५ कृमिकर्णारि कान से कीट पतंगादि ६२३ कर्ण प्रक्षालन कर्णरोग
वाहर निकलता है वटिका
लेप ४५८ इन्दु वटी कर्णनादादि वातजरोग, प्रमेह २०६ अर्कलेप कर्णमूल
रस १८१ अपामार्ग थार कर्णनाद, बधिरता । ९६४ कर्णरोग हर कर्णरोग
कषाय
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चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी
संख्या प्रयोग नाम
कषाय
११ अमृतादि क्वाथ
६०२ कट्फलादि,,
प्रधान गुण
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१५ कासाधिकार
६११ कण्टकार्यादि ६४२ कासदर महाकषाय खांसी ६६१ कुलत्थादि क्वाथ खांसी, श्वास, ज्वर
चूर्ण
"
खांसी, श्वास वातकफज खांसी, ज्वर, हिचकी, श्वास पित्तज - खांसी
६७० ककुभ चूर्ण क्षय, खांसी, रक्तपित्त
६७७ कटुत्रिकादि, खांसी
३६१
६७८ कटुत्रयादि"
खांसी
ज्वर,
६७९ कट्फलादि" खांसी, श्वास, अरुचि, वमन, क्षय
६८० कट्फलादि
कफ, खांसी, श्वास,
शूल, छर्दि, क्षय, अरुचि क्षय, खांसी, स्वरभेद, छर्दि,
६९७ कर्पूरादि चूर्ण ७१९ कुष्माण्ड शिफा दारुण श्वास, खांसी ७३५ कण्टकार्यादि खांसी
गुटिका
७३९ कफी टी
कफ नाशक
७५९ कासकर्तरी गुटिका खांसी, श्वास, क्षय, हिक्का ७६० कासहरी वटी पांच प्रकार की खांसी ७६१ कासादिहरी वटी खांसी, श्वास १०६७ खदिरादि गुटिका पुरानी और दुस्साध्य
खांसी, श्वास
लेह
१४१ अपराजित लेह वातज खांसी ४०७ आर्द्रक पाक श्वास, खांसी, स्वरभंग,
संख्या प्रयोग-नाम
४६२ इक्ष्वादि लेह ७८० कणादिलेह
७८२ कण्टकारी
७८३ कण्टकारी लेह ७८९ कासकण्डन लेह ८०० कुनट्यावलेह १०७५ खण्डकुष्माण्ड
१०८९ खर्जूरादि १०९० 11
विस्मृति
४०९ आर्द्र कावलेह खांसी, अर्श,
८२२
"
८३१ कासमर्दादि,, ८४२ कुलत्थादि ४४४ कोलादि
कासाधिकार
२१४ अर्कमूलादि
"
"
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घृत
८२१ कण्टकारी घृत कास, श्वास, हिक्का, कफरोग
वातकासहर, अग्निदीपक शोष, ज्वरप्लीहा, सर्वकास
कफज खांसी, श्वास
कास, श्वास, ज्वर,स्वरभंग
79
प्रधान गुण
ज्वर,
पीनस, शोथ, गुल्म, क्षय
क्षतजकास
खांसी
"3
सव तरह की खांसी खांसी, श्वास, हृद्रोग, गुल्म कष्टसाध्य सर्व खांसी खांसी, श्वास, हिचकी खांसी, श्वास, ज्वर, हिचकी, रक्तपित्त, अम्लपित्त पित्तज खांसी
17
धूम्र
५ प्रकारकी खांसी रस
| २३० अगन्धखर्पर पपटी खांसी, योगवाही २७४ अग्नि रस
खांसी
२७५
क्षय
"
"3
३१७ अमृतमञ्जरी रस सन्निपात, अग्निमांद्य, कास श्वास, जीर्णज्वर, क्षय
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनि
कुष्ठाधिकार
संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण ५२८ उन्मत्चभैरव क्षय, श्वास, कफरोग,
ग्रहणी पौष्टिक
१००६ कासकर्तरी खांसी ९५५ कफकेतु रस कफरोग
१००७ कास कुठार सर्वकास, सन्निपात, ९५६ खांसी, श्वास, शीत, वायु
___ शिरोरोग कफरोग | १००८ कासकेसरी खांसी, श्वास
१००९ कासनाशन खांसी ९५९ , पीनस, श्वास, फास,
| १०१० कासश्वाशविधूनन कास, श्वास सन्निपातादि ९६० कफ चिन्तामणिरस कफरोग, वातरोग
१०११ कास संहार भैरव सर्वकास,श्वास,अरुचि ९६८ कल्पतरू खांसी, श्वास, कफरोग, | १०१२ कासहरी खांसी ग्रहणी, कुष्ठ
१०१३ कासान्तक , १००२ कालान्तक कास, श्वास, अतिसार, १०१४ कासारि सर्वकास
९५७ ९५८
१६ कुष्ठाधिकार कषाय
वात, भगन्दर, प्रतिश्याय पीनस, ६६३ कुष्ठन महाकषाय कुष्ठ
१३५ अमृतादि कुष्ठ, वातरक्त, अर्श, ब्रण, १०५६ खदिराष्टक , विस्फोटक, विसर्प, |
मन्दाग्नि, प्रमेह, शोथ, आमवात ___ खुजली, मसुरिका १३६ , कुष्ट, वातरक्त, अर्श, व्रण, मन्दाचूर्ण
ग्नि, प्रमेह, भगन्दर, आमवात ७११ कुष्ठनाशक प्रयोग अनेक प्रकार के कुष्ठ ५६८ एकविंशतिको कुष्ट, कृमि, दाह भग्न आदि गुटिका
अनेक रोग ७४५ कल्याण गुटिका कुष्ठ, भगन्दर, पाण्डु,अर्श,
कामला, ग्रहणा, प्रमह | १४५ अमृत भल्लातकी सर्वकुष्ठ, अनेक रोग ७४७ काकणन वटी काकण कुष्ठ । ४४८ आरोग्य वर्द्धनी सर्वकुष्ठ, ज्वर, भेद,
घृत मन्दाग्नि, शोधक ४२२ आवर्तकी घृत गलकुष्ठ, स्रावयुक्त व्रण १०७१ खदिरादि सर्वकुष्ठ ८३२ कासीसादि कुष्ठ, दाद, पामा, त्वग्दोष,वण,
१०९१ खदिरादिपंच- ८ प्रकार के कुष्ठ, प्रन्थि, १३४ अमृतादि सर्वकुष्ठ, वातरक्त, कामला आम- । तिक्त घृत गलगण्ड, ब्रण, विसर्प
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संख्या
चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनी
प्रयोग नाम
८५७ करवीर तैल कुष्ठ, खुजली
८५८ "
८५९
"
तैल
४२५ आरग्वधादि श्वेतकुष्ठ
विपादिका
४९८ उन्मत्त तैल ८५३ कनकक्षीर कुष्ठ, ८५४ कन्दर्पसार
खुजली, सफेद कोढ़, कृमि सर्वकुष्ठ, त्वग्दोष, रक्तदोष, गण्डमाला, भगन्दरादि
प्रधान गुण
कषाय
६६६ कृमिन महाकषाय १०५५ खदिरादि क्वाथ
चूर्ण
५८ अतिविषादि ७२१ कमिन
८७६ कुष्ठकालानल विशेषतः वातकुष्ठ
""
सिध्म, पामा, विस्फोटक, चर्मदल, कृमि
99
37
कृमिरोग
""
11
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कृमिरोग
गुटिका
७६९ कृमिघातिनी गुटिका कृमिरोग
रस
२६५ अग्नितुण्ड रम कृमिरोग
१०१८ कीटमर्द, १०३५ क्रमिकालकूट
३६३
१०९७
१७ कृमिरोगाधिकार
संख्या
प्रयोग - नाम
प्रधान गुण
८७८ कुष्ठराक्षस श्वित्र, कच्छु, मांसवृद्धि, पामा
वातरक्त
८७९ कुष्ठविद्रावण सुप्तिकुष्ठ, कृष्णकुष्ठ ८८३ कुष्ठादि तैल कुष्ठ
आसव
४२८ आवर्तक्यासव कमरका दाद ८८९ कनकारिष्ट १०९६ खदिरासव
25
१०३८,,
19 "
१०३९ १०४० कृमिघ्न
कृमिरोगाधिकार
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१०३६ कृमिकालानल उदरस्थ कृमि, ग्रहणी,
रस अर्श, शोथ, उदररोग १०३७, काष्ठानल कफवातज और कफपित्तज
कृमि
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पुराना कुष्ठ, शोथ, प्रमेह, स्वास सर्वकुष्ठ, पाण्डु, खांसी, हृद्रोग कृमि, अर्बुद, गुल्म
महाकुष्ठ
१" कुठार
कृमिरोग
" शूल १०४१ कृमिदावानल कृमिरोग १०४२, धूलिजलप्लव पित्तज कृमि १०४३,, मुद्गर कृमिरोग, अग्निमांथ १०४४ कृमि रोगारि कृमिरोग १०४५, विनाशन १०४६, हर
99
"}
सात प्रकार के कृमि
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
३६४
गुल्मरोगाधिकार
-
-
-
काथ
१८ गण्डमालाधिकार संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण सख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण
८४९ कटुतुम्बी तैल गण्डमाला, गलगण्ड ६३८ काश्शनारादि गण्डमाला
| ७७१ काश्चन गुटिका गलगण्ड, गण्डमाला नासूर १७७ अजमोदादि गण्डमाला
७७२ काशनारगुग्गुलु गण्डमाला,अपची, अर्बुद, १८३ अमृतादि तैल गलगण्ड
कुष्ठ, भगन्दर, ग्रन्थि १८४, " ,
नस्य ८४८ कटुतुम्मी , पुराना गलगण्ड ४३२ आरग्वधादिनस्य गण्डमाला
१९ गुल्मरोगाधिकार
। ८८२ कुष्ठादिल गुल्म, जलोदर,प्लीहा, शूल,शोथ ६३ अभयादि योग त्रिदोषज गुल्म
आसव ७६ अर्कपत्रादि गुल्म, तिल्ली, उदररोग ६९३ करनादि पुटपाक गुल्म, पांडु, उदररोग, | ८९५ कुमार्यासव गुल्म, उदावर्त, अफारा, श्वास, सूजन
कास, उदररोगादि ७२८ केतकीक्षारयोग वातज गुल्म
कास, श्वास, गुल्म, क्षय, गुटिका
उदररोग, अर्श, स्त्रीरोगादि ७५० काढायन गुटिका गुल्म, ग्रहणी,शूलबवासीर ७५१ "
" " " " घृत
२४४ अग्निकुमार वात गुल्म ४२१ आमलक्यादि घृत पित्तगुल्म २७२ अग्निमुख गुल्म, शूल
५१० उहामर पित्त गुल्म ५७९ एरण्ड तैल योग वात गुल्म | ५२६ उद्दामाख्य , ,
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनि
३६५
ज्वराधिकार
२० छधिकार संख्या प्रयोग नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण कषाय
१५५६ एलादि बमन, कफ, वातपित्त ४१ अश्वत्थवल्कलादि वमनमें अत्यन्त उपयोगी | ६९२ करञ्जबीजादि वमन-नाशक ४७२ उपगन्धादि योग वमन नाशक
लेह ४७८ उदीच्यादि " " ६२१ करजवीजादि , ,
७८५ करजादि वमन नाशक
| ८१० कोलमज्जा योग ,, हिचको ३९१ आम्रादि चूर्ण वमन नाशक ८१२ कोलाधवलेह , ,
२१ जलोदराधिकार रस
| ५२३ उदरामय कुंभकेसरी जलोदर, मन्दाग्नि,गु२३१ अगस्ति रस जलोदर
रस ल्म, जिगर, कृमि, आमरोग ५२४ उदरारि रस स्त्रियों का जलोदर ।
अम्लपित्त, व्रण, अग्रमांस २२ ज्वराधिकार कषाय-प्रकरण
३६९ आम्रादि हिम ज्वर, तृष्णा, वमन अ
तिसार, मूर्छा ६ अभयादि क्वाथ सन्निपात,तृषा, दाह, श्वास
खांसी, प्रलाप, तन्द्रा आदि २७४ आरग्वधादि काथ विष्टम्भ, कब्ज ८ , , कफज्वर,दीपन,पाचन,भेदक ३७५ , , वातपित्त-ज्वर १५ अमृतादि , वातज्वर | ३७१ , , कक, वातज्वर, आम, १६ , हिम पित्तज्वर, खांसी, रक्तपित्त
शूल, दीपन, पाचन । १८ , काय पित्तज्वर | ३७७ " , बालकों का ज्वर आम, २० अमृताष्ट पित्तकफज्वर, अरुचि,
शूल, दाह, वमन वमन, दाह, तृषा | ३७८ आरग्वधादि गण कफ, विष, वमन, कोढ़, ३६२ आमलस्यादि सन्तत ज्वर
खाज, ज्वर ३६४ आमलक्यादि गण सर्व ज्वर,कफ,अरुचि, । ३७९ आरोग्य पश्चक कफ, वायु, दीपन, पाचन दीपन
३८० , आमज्वर, जीर्णज्वर
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
ज्वराधिकार
-
संख्या प्रयोग-नाम प्रधानगुण । संख्या प्रयोग-नाम प्रधानगुण ३८१ आरोग्याम्बु ज्वर, कफ, खांसी श्वास, | ६३९ काश्मर्यादि। पाचन
६४३ किरमालादि कफ-पित्त-ज्वर ३८३ आर्द्रकादि कल्क नाना देशों के पानी से ६४५ किरातादि वात-कफ-ज्वर
उत्पन्न हुवा ज्वर ६४८ , , जीर्णज्वर सन्निपात, वात३८४ , कवल कफ, बदन टूटना, मूर्छा, |
कफ ज्वर नींद, मतली ६५० , पित्तज्वर,दाह,वमन,अरुचि ४८० उदुम्बरादि काथ पित्त-ज्वर ६५१ , , वात-पित्त-ज्वर ४८४ उशीरादि , तिजारी ज्वर, तृष्णा, दाह | ६५७ कुमारिमूलादि वमन विषम-ज्वर ४८५ , , बात-ज्वर | ६५८ कुलकादि काथ पुराना विषम-ज्वर ४८७ उशीरादि परङ्ग दाह, तृष्णा, ज्वर ६६४ कुष्ठादि , कफ ज्वर ५९० औदुम्बरादि दाह, ज्वर १०५९ खजूरादि ,, वात-पित्त-ज्वर ५९८ कटुक्यादि कफ-ज्वर
चूर्ण-प्रकरण ५९९ , आमाशयगत ज्वर ६०० कफलादि कण्ठमूल-शोथ, कफवात-ज्वर ५९ अनन्तादि सर्वज्वर, अग्निदीपक ६०४ , दाह, तृषा, पुराना ज्वर ७१ अमृताष्टक पित्त-कफ-ज्वर,वमन,प्यास सन्निपात
दाह, उबकाइ, अरुचि, पित्त-ज्वर,पाचक ७५ अरिष्टादि रोजाना, तिजारी,चौथिया ६०७ कणादि क्षीणज्वर, (मन्दज्वर)
__ बुखार वात-कफ-ज्वर शीत, | ३९० आमलक्यादि सर्वज्वर, कफ, दीपन, पसीना मोह, हिचकी
पाचन, भेदक, रोचक पित्त-कफ-ज्वर ५४० ऊषणादि लालबुखार, रोमान्तिका, ६१२ कण्टकार्यादि पित्त-कफ-ज्वर, दाह, शूल,
मसूरिका,जीर्णज्वर,विस्फोटक
६७५ कटुकी चूर्ण पित्त-कफ-ज्वर ६१३ कण्टकार्यादि काथ कफ ज्वर ६७९ कफलादि कंठरोग, खांसी, श्वास,
शूल, वमन, वायु, क्षय ६१६ , सर्व ज्वर
६८८ कपित्यादि पेया पाचन, ग्राही, वायु ६२७ कलिङ्गादि जीर्णज्वर, चौथिया, सर्वज्वर ६९८ कलिङ्गादि चूर्ण कफ-ज्वर ६२८ कलिङ्गादि पित्त-ज्वर, पाचन | ७०८ किरातादि , बुरे पानीसे उत्पन्न हुवा ६३३ काकोल्यादि बात-घर
खांसी
६१४
"
ज्चर
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
३६७
ज्वराधिकार
cor
प्रमेह
संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण । संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण लेह-प्रकरण
अञ्जन-प्रकरण १५४ अष्टाङ्गावलेह दुर्जय सन्निपात, श्वास, |२१७ चातुर्थिकारि चौथिया, ज्वर,मिरगी,उन्माद
खांसी, तन्द्रा, हिचकी | ३३२ अर्द्धनारीनटेश्वर ज्वर नाशक ४०३ आमलकाधवलेह ज्वर,मूर्छा,खांसी,श्वास,
५९५ अञ्जन वटी सर्व ज्वर ७७९ कदफलादि खांसी,श्वास, ज्वर, कफ
नस्य-प्रकरण ७८० कणादि ज्वर, खांसी ८०१ कुरण्टकादि जीर्णज्वर,अग्निमाध,श्वास. २२६ अगस्तिपत्र चौथिया ज्वर
कास,धातुगत अनेक ज्वर ९२९ कणादि रोजाना, तिजारी आदि घृत-प्रकरण
रस-प्रकरण १६२ अमृतपद्पल रोजाना, तिजारी आदि | २७७ अचिन्त्यशक्ति सर्व ज्वर ज्वर,बवासीर,श्वास,कृशता
२९१ अपूर्वमालिनीवसंत जीर्ण-ज्वर, विषम ज्वर, १६४ अमृतादि विषम ज्वर,क्षय, अरुचि, कामला,
३१४ अमृतकलानिधि पित्त-कफ-ज्वर, अग्निमांथ ८४१ कुलत्यादि कफ,वायु, हृद्रोग, तिल्ली, | ३३२ अर्द्धनारीनटेश्वर ज्वर-नाशक प्रसिद्ध अंजन
जीर्णज्वर, ग्रहणी, गुल्म, ३४० अल्प ज्वरांकुश सर्व ज्वर
श्वास, कास ३५१ अष्ट मूर्ति भौतिकञ्चर, तिजारी, चौथिया ८४५ कोलादि विषम ज्वर
आदि तैल-प्रकरण
४४७ आरोग्यरागी नवीन ज्वर, सन्निपात १८९ अश्वगन्धादि सर्वज्वर, क्षय, धातुवर्द्धक ५३७ उमाप्रसादन शीत, ज्वर, चौथिया, तिजारी ५९३ कङ्गारक सर्वज्वरों में प्रसिद्ध । ९३६ कजली वृष्य, वृंहण, योगवाही ४२७ आरनाल तैल ज्वर, दाह ।
| ९३७ ,, सन्निपात, रक्तातिसार, खूनी के, ८६९ किरातादि पित्तञ्चर,विषमज्वर,धातु
योगवाही गतज्वर, पांड, शोथ
| ९४४ कनकसुन्दर सन्निपात, विष, रक्तविकार, आसवारिष्ट-प्रकरण
भगन्दर १९५ अमृतारिष्ट सर्वज्वर नाशक प्रसिद्ध | ९५२ कफकुठार कफ-ज्वर ५८३ एलाधरिष्ट मसूरिका, विसर्प, विषम- ९५४ कफकेतु सन्निपात, कफ, पीनस, शिरोज्व, खांसी, भगन्दर
रोग, कंठरोठ धूप-प्रकरण
| ९६७ कल्पतरु वात-कफ-ज्वर, श्वास, मोह, २११ अगुर्वादि रुग्दाह सन्निपात
शीत, हैजा, छींक आना
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
स्वारोगाधिकार
२३ ज्वरातिसाराधिकार संख्या प्रयोग नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण कषाय प्रकरण
चूर्ण-प्रकरण
४८८ उत्पलादि वरातिसार ३२ अरल्वादि सर्व ज्वर, सब अतिसार
गुटिका-प्रकरण ४७४ उत्पलषष्ठक दस्त, बुखार
| ७४३ कलिङ्गादि गुटिका ज्वरातिसार, शूल, ४८२ उशीरादि अनेक प्रकारके अतिसार, शूल,
रक्तदोष ६०६ कणादि ज्वरातिसार, तृष्णा, वमन .
रस-प्रकरण ६२६ कलिङ्गादि वरातिसार
| ९४३ कनक सुन्दर ज्वर, अतिसार, ग्रहणी,मंदाग्नि ६४४ किराततिक्तादि लौट लौट कर आनेवाला ज्वर| ९९२ कारुण्यसागर सर्वातिसार, ज्वर, शोथ
२४ तृष्णाधिकार कषाय
गुटिका ५ अभयादि काथ कृमिरोग
३९६ आमलक्यादि तृषा ३६८ आम्रादि कषाय तृष्णा ६३० कसेर्वादि काथ ,
१०७४ खजूरादि , मोह, रक्तपित्त ६४० काश्मर्यादि ,
रस चूर्ण
१०२१ कुमुदेश्वर तृषा ७१४ कुष्ठादि चूर्ण तृषा
२५ त्वररोगाधिकार
५९४ अङ्गराग लेप . सौन्दर्य वर्द्धक ६१८ कण्डून महाकषाय खुजली
खुजली १०५७ खदिरोदक त्वचाके समस्त रोग । ४२६ आदित्य पाक
| १८६ अर्कपत्र रस पामा, कच्छु - चूर्ण
त्वग्दोष । २०४ अयोरजादि त्वग्रोग ५०८"
शरीर की दुर्गन्धि २१० अवल्गुजादि खुजली
कषाय
५०७ उपटना
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चिकित्सा--पथ-प्रदर्शिनी
३६६
नासारोगाधिकार
-
२६ दाहाधिकार संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण कषाय
घृत तेल ४७६ उत्पलादि गण दाह, रक्तपित्त, तृषा, छर्दि, | ८३७ कुशादि घृत-तैल दाह, वातपित्त मूर्छा
लेप ५९२ अञ्जनादि गण रक्तपित्त, विष, भीतरी दाह ५९४ अङ्गराग लेप दाह
चूर्ण १०६४ खजूरादि चूर्ण दाह । २११ गुर्वादि धूप दाह
२७ नासारोगाधिकार
६८१ कट्फलादि पीनस, स्वरभेद, श्वास,
नामी कफ, सन्निपात नस्य
| ८६५ कलिंगादि पीनस, पूतिनस्य ९३५ कलिंगादि अवपीडन नासारोग
२८ नेत्र रोगाधिकार गुटिका
अञ्जन ७४० करञ्जवीज वर्ति नेत्र फूला
२१९ नेत्रशुक्र नाशक आंख का फूला ७६४ कुमारिका ,, नेत्र रोग
२२० अञ्जनशलाका नेत्ररोग घृत
२२२ अमृताञ्जन तिमिर १६८ अमृतादि गुग्गुलु- अर्बुद, काच, फूला,
९२० कणादि रतौंधा घृत रोहे, खुजली
९२२ कतफलादि नेत्र प्रसादक
९२३ , तिमिर, काच, शुक्र १७८ अजित तैल तिमिर,नेत्र स्वच्छ करता है
९२४ करंजादि रतौंधा ८८६. कृष्णाध वण, शुक्र, तिमिर,पलकों ___आदि का पकना
९२६ काश्मर्यादि पित्तज नेत्ररोग
नस्य ९०९ कुमार्यादि नेत्र दुखना आदि । २२९ अश्वगन्धादि नेत्ररोग ।
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संख्या
चिकित्सा -- पथ-प्रदर्शिनी
प्रयोग नाम
कषाय
४५२ इन्द्रवारुण्यादि पांडु, ज्वर, श्वास दाह,
गुल्म
५४४ एरण्ड स्वरस कामला
चूर्ण
७३ अयोरजादि चूर्ण कामला
योग
१८७ अर्कादि
८९१ कर्पूर सव
२९ पाण्डु कामला हलीमकाधिकार
प्रधान गुण
७४
""
५५४ एलादि चूर्ण
१०६१ खण्डसम चूर्ण कामला, पांडु, हलीमक,
कुष्ठ, रक्तपित्त, मूर्च्छा,
सन्ताप, शोथ, ग्रहणी
आसव
""
गुटिका
११२ अभया मोदक पांडु रोग
१३१ अष्टादशाङ्ग गुटिका पांडु, शोथ, प्रमेह,
ग्रहणी, खांसी आदि
२३१ अगस्ति रस
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39
विषूचिका
अञ्जन
२२३ अपमार्गाद्यञ्जन हैज़ा
लेप
९१३ कुष्ठादि लेप हैजा, खल्लीशूल
रस
३७०
तैल
खल्लीशूल, विषूचिका, पक्षाघात २५४
जलोदर, उदररोगादि
२३७
संख्या प्रयोग-नाम
प्रधान गुण
२३४ अग्निकुमार रस ज्वर, पीनस, अग्निमांद्य
खांसी आदि अनेक रोग
विसूचिका, शूल,
मंदाग्नि,
वायु
अजीर्ण विसूचिका
अग्निदीपक
अग्निमांद्य
२३८
२३९
२४०
२४१
२४२
२४३
२४५
२४६
२५६
२५७
२५८
२५९
२६०
२६१
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पाण्डु कामला हलीमकाधिकार
17
**
19
93
13
"
19
२४८
19
२५० अग्निकुमार
२५२
"
"
"
19
"
99
19
34
"
ܕܝ
"
21
19
17
36
34
"
11
"
"
""
77
"
"
39
"9
19
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"
अग्निमांद्य
""
19
दीपन, ग्रहणी, अदि
ज्वर, क्षय
अग्निमांद्य, क्षय, वायु,
कफ, शूल आदि अनेकरोग अजीर्ण, संग्रहणी, शूल, हैजा
अजीर्ण, ग्रहणी, मन्दाग्नि अरुचि, मंदाग्नि, शूल,
श्वासादि
अग्निमांद्य, सन्निपात, पाण्डु, वातरोग, श्वास
.मंदाग्नि, आम, ग्रहणी
वातज, अजीर्ण, हैजा,
कफरोग
77
अनेक रोग मंदाग्नि, संग्रहणी, शूल, हैजा
,, शूल, प्लीहा, आम
शोथ, पाण्डु, अर्श,
संग्रहणी
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
३७१
प्रमेहाधिकार
-
-
संख्या प्रयोग-नाम प्रधानगुण संख्या प्रयोग नाम प्रधानगुण २६२ ,, ,, ग्रहणी, कृशता, ज्वर, | २७८ अजीर्ण कण्टक अग्निमांद्य, कफ
शूल
२७९ , अजीर्ण, हैजा, वायु २६६ अग्निदीपन रस अग्निदीपक २८० अजीर्णबलकालानल पुराना अग्निमांद्य, २६७ अग्निप्रद , मंदाग्नि, आम, सन्नि
प्रसूति-रोग, गुल्म, शूपात, वायु
लादि रोगपुञ्ज २७१ अग्निमुख , अजीर्ण, शूल, विषूचिका, २८१ अजीर्णारि दीपन, पाचन, रेचन,
गुल्म, हिचकी, उदरोग | ४३६ आदित्य रस अजीर्ण, दीपन २७६ अग्निसन्दीपन रस अजीर्ण, मंदाग्नि, १०५२ ऋव्याद रस अत्यन्तअग्निवर्द्धक,गुल्म गुल्म, शूल,
तिल्ली,ग्रहणी,शूल, उदररोग ३० प्रमेहाधिकार कषाय
घृत ४८१ उशीरादि पित्तज प्रमेह
८२४ कदल्यादि सोमरोग, बहुमूत्र, प्रमेह, ६६८ केतकीमूलयोग प्रमेह
शुक्रदोष, पथरी, मूत्राघात १०५४ खदिरादि मधुमेह १०५८ खजूरादि रक्तमेह
८५० कणादि तैल प्रमेह, पिडिका, शोधक, चूर्ण
रोपण ९२ असनादि योग प्रमेह, दुस्साध्य मधुमेह
रस ६८५ कतक बीज योग सर्व प्रमेह
| ४३७ आनन्दभैरव' पुराना प्रमेह ६९. कम्पिल्लादि कफ पित्त प्रमेह
| ५१४ उदयभास्कर(४)प्रमेह, २०, पि०, शूल, १०६३ खदिरादि योग प्रमेह
___अतिसार, खांसी,अग्निमांद्य गुटिका
५३८ उमाशंभु रस बालकों के रोग, प्रमेह, ४६० इन्द्रवटी मधुमेह
नवयौवन-दाता १०६९ खदिर गुटिका कफ, प्रमेह,हिचकी,षीनस ९४८ कन्दर्प रस औपसर्गिक मेह
| ९६१ कमला विलास प्रमेह, खांसी,पांड,हिक्का.
कुष्ठ, मन्दाग्नि १५२ अश्वगन्धा पाक प्रमेह,जीर्णज्वर,गुल्म,वा० ९६६ कर्पूरादि रस प्रमेह, श्वास, रक्तपित्त, ८०३ कुशावलेह प्रमेह, मूत्राघात,अश्मरी,
स्वेद, सन्निपान अरुचि, पौष्टिक ९८३ कामधेनु रस शुक्रमेह, ज्वर, क्षय
____ मुखरोग
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संख्या
चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनि
प्रयोग नाम
४ अनुवासनोपग
कषाय
कषाय
५७ अतिविषादि ५५६ एलादि
६७६ कटुकी
७२४ कृष्णादि (२)
अनुवासन
३७७ आरग्वधादि
६ ३२ काकोली काथ अतिसार
चूर्ण
७२६ " ७२७ ७३४ कण्टकार्यादि
91
३७२
३१ वस्ति प्रकरण
प्रधान गुण संख्या
आमशूल, वमन और
दाहयुक्त ज्वर, रक्तपित्त
वमन
खासी,
(8)
(५) संग्रहणी
खांसी, ज्वर, वमन
तृष्णा, वमन, अतिसार
हिक्का, पुरानी छर्दि
ज्वरातिसार, श्वास, खांसी,
लेह
बस्तिमें
३२ बालरोगाधिकार
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श्वास, ज्वर
दूध डालना
७७७कटुकरोहिण्यावलेह हिका, छर्दि ७८४ कण्टकार्यवह बच्चों की खांसी
घृत
१७३ अश्वगन्धा घृत पौष्टिक, बलवर्द्धक
प्रयोग-नाम
१७४ अष्टमङ्गल
उपयोगी
३८६ आस्थापनोपग आस्थपन वस्ति में उप०
८२३ कण्टकारी
८८१ कुष्ठादि
बालरोगाधिकार
१९६ अरविन्दासव
९१९ कुलत्थादि
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८३४ कुमार कल्याण बल, वर्ण, पुष्टि, अग्नि
वर्द्धक, विशेषतः दन्तो
भेद में हितावह
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मेधा, स्मृति, बुद्धिवर्द्धक,
रक्षक
तैल
प्रधान गुण
कास, श्वास, ज्वर, अरुचि, शूलादि
आसव
रेवतीग्रह
धूप
बालकों के सब रोग,
पौष्टिक
बाल रक्षक
रस
१०२०कुमार कल्याणरस ज्वर, श्वास, वमन, दूध न पीना, अतिसार, कृशतादि
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
३७३
३३ भगन्दराधिकार संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण लेप
रत ८६१ करवीरादि भगन्दर
९९९ कालाग्नि रस भगन्दर ९१४ कुष्ठादि भगन्दरका घाव
३४ भग्नाधिकार
गुग्गुल्ल ३८८ आभादि चूर्ण टूटी अस्थि जोड़ता है। ४०२ आभागुग्गुलु टूटी हड्डी जोड़ता है।
३५ मदात्ययाधिकार
चूर्ण
चूर्ण
९१ अष्टाङ्गलवण कफज मदात्यय, अग्नि
दीपक
३६ मसूरिकाधिकार गुटिका
६३६ काञ्चनादि छुपी हुई मसूरिका को ५६७ एलायो मोदकः मद्यविकार
बाहर निकालता है १०५६ खदिराष्टक मसूरिका, रोमान्तिका,
कुष्ट, खुजली १०६० खजूरादि मन्थ मद्यविकार कषाय
४५७ इन्दुकला वरिका मसूरिका, लालबुखार, १० अमृतादि (२) मसूरिका, विसर्प, कुष्ठ,
विस्फोटक, व्रण खुजली, शीतपित्त
लेप ४३ अरसीका स्वरस कफज और करिन मसरिका
११०१ खदिरादि (२) कफज मसूरिका
गुटिका
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
३७४
मिश्राधिकार
३७ मिश्राधिकार
संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण सख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण
(क) योगवाही प्रयोग (ङ) धातु, उपधातु, रसोपरस २३० अगन्धखर्परपर्पटी अनुपान भेद से अनेकरोग २९३ अभ्रकशोधन २३४ अग्निकुमार रस(२) , , , २६७ ,, भस्म २५८ , ,(२६), " " | ३०३ ,, , के गुण ३१३ अमरसुन्दर, , , , ३०४ ,, निश्चन्द्रीकरण ३४४ अश्वकंचुकी,, , , , ३०५ ,, की नित्योपयोगी भस्म ३४५ , , रसानुपान
३०६ मृतोत्थापनाभ्रक भस्म ३४६ " , "
३०७ सत्व प्रधान अभ्रक भस्म ३४८ अश्विनीकुमाररस अनुपान भेद से अनेकरोग ३०८ अभ्रक के अनुपान ४४६ आरोग्यसागर रस , , ३११ अभ्रक विकार शान्ति ५१८ उदय भास्कर , , , ३४९ अष्टधातु निरूपण ५३८ उमाशम्भु रस ,
३५० अष्ट महारस ७१७ कुंकुमादि चूर्ण ,
३५३ अष्टादश रस संस्कार ९७४ कान्तरसायन :
३५६ अष्टावुपरस ९७५ कान्तलोह , , , १०५१ कांस्य भस्म ११०७ खोटाभिध रस , , ११०४ खर्पर मारण (ख) कल्प
११०६ , सत्व ६७ अमलतास के कल्प
(च) विविध ४५६ इक्ष्वाकुके ,
६६ अमलतासरखने ३०६ अभ्रक कल्प
की विधि (ग) स्वेद रोधक ५४१ ऋतुहरीतकी प्रत्येक ऋतुमें हरीतकी
सेवनविधि ५२७ उद्धृलन रस अधिक पसीना आना ।
| ५९१ अङ्गमर्द प्रशमन } बन्द करता है
बदन टूटना
महाकषाय ) (घ) वायु शोधक
६१० कण्टक पश्चमूल २१३ अष्टगन्ध धूप
८८४ कुसुम्भ तैल सर्वदोष प्रकोपकारक
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनि
३७५
मुखरोगाधिकार
-
३८ मुखरोगाधिकार संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण कषाय
गुटिका ५६७ कटुकादि कण्ठ रोग नाशक ६१७ कण्ठ्य महाकषाय ,
७६२ कासीसादि गुटी दांतों के कृमि ६३७ काश्चनार काथ जीभ फटना
१०६६ खदिरादि ,, मुखरोग चूर्ण
१०६८ ,, ,, जिह्वा, दांत, गला, मुख, ६८४ कणाद्य दांतो का हिलना, पीड़ा,
होंट और तालु के रोग सूजन, खूनजाना १०७० खदिर , सुख को सुगन्धित और ७०४ कालक दांत, गले और मुख के
स्वर को उत्तम करती है
मुखरोग नाशक,वाजीकरण ७०६ कासीसादि शीताद (दन्तरोग विशेष) १०७२ , , दन्तशूल, शौषिर्य, ७१३ कुष्ठादि दांतोंका शूल, खुजली,
दन्तकृमि दुर्गन्धि, मुखरक्तस्राव
पाक, दाह, मुंह का ७२२ कृष्णादि चर्वणम् मुंहका पकना, घाव,
१०७३ , ,, मुखरोग
कड़वापन
दुर्गन्धि
__३९ मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघाताधिकार कषाय
| ६९५ कर्कटीबीजादि पेशाब बन्द होना १३ अमृतादि क्वाथ(५)मूत्र कृच्छ्, वायु, शूल ७१८ कुष्माण्डवीज योग ,, ,, ,, ३६३ आमलक्यादि ,, दाह, रक्तपित्त,शूल, ३६५ , योग पेशाब बन्द होना
५०० उशीरादि मूत्राघात, मूत्रकृच्छ्र, ५४७ एरिबीजादि पैतिक मूत्रकृच्छू
पथरी, वातपित्त ६५३ कुटजयोग मूत्रकृच्छ्र
शर्करा, पथरी, मूत्रकृच्छु
८७५ कुशादि चर्ण
प्रदर, योनीशूल ५५७ एलादि (४) कफज मूत्रकृच्छ्र ५५८ , (५) दुस्साध्य , ५६० , (७) , " ७४१ कर्पूरवति पेशाब बन्द होना
गुटिका
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
३७६
रक्तपित्ताधिकार
-
चर्ण
४० मूर्छाधिकार संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण अअन
२१६ मूच्छान्तक (२) बेहोशी २१५ मूर्छान्तक (१) बेहोशी २२५ षोधक अञ्जन बेहोशी
४१ मेदोरोगाधिकार
कषाय | ५०६ उपटना (१) मेद, जंघाकषाय २६ अर्कादिगण कफ, मेद, विष, व्रण, ५०७ , (२) , त्वग्दोष, स्वेद
कुष्ट, कृमि ५०८ , (३) , शरीरकी दुर्गन्धि ५३६ अपकादि गण मेद, कफ, पथरी, शूल,
गुग्गुल मूत्रकृच्छू
१३३ अमृतादि गुग्गुल मेद, भगन्दर, पीडिका ____४२ यकृत् प्लीहाधिकार
११११ अभया मोदक(१)तिल्ली, अर्श, गुल्म, ६४ अभया सपण तिल्ली, जिगर, गुल्म,
पाण्डु, मन्दाग्नि अफारा आदि में प्रसिद्ध
रस ७६ अर्कपत्रादि योग तिल्ली
२५३ अग्निकुमाररस(२१)तिल्ली, पाण्डु, अपस्मार शुटिका
शूलादि ६६ अग्निगर्भा गुटिका-तिल्ली, जिगर, गुल्म, २६४ ., लौह तिल्ली, जिगर, गुल्म, शूल, पाण्डु
हलीमक ४३ रक्तपित्ताधिकार कषाय
३५६ आषादि क्वाथ रक्तपित्त, खांसी, क्षय, ५६२ अञ्जनादि गण रक्तपित्त, भीतरीदाह, विष | ३७२ आम्रादि हिम रक्तपित्त ३ अतस्यादि काथ ,
४५३ इक्ष्वादि क्वाथ , १६ अमृतादि , ,
४७६ उदुम्बरादि , नकसीर । ४८३ उशीरादि , रक्तपित्त
चर्ण
ज्वर
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
रसायन-वाजीकरणाधिकार संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण ६३५ काकोल्यादि गण , वायु, स्तन्य,गुल्म, १०७९ खण्डखाप लेह , क्षय, खांसी, जीवनीय, कफकारक
प्रमेह, पाण्डु,तिल्ली आदि चर्ण
| १०८६ हैड़ आमलेका मुरम्मा पाण्डु, तिल्ली ४८९ उशीरादि चूर्ण रक्तकी वमन, सन्ताप | ८२८ कामदेवघृत रक्तपित्त, क्षत, क्षय, ४९० , , रक्तपित्त, तमक श्वास,
कामला, बातरक्त, पांड, तृष्णा
मूत्ररोग, बाजीकरण १०६२ खदिरादि पुष्पयोग रक्तपित्त
आसव गुटिका ५६६ एलादि गुटिका खांसी, श्वास, ज्वर,क्षय, ५०१ उशीरासष रक्तपित्त, पांड, प्रमेह, छर्दि, रक्तपित्तादि
कुष्ठ, अर्श
नस्य ४९४ उदुम्बरादि लेह रक्तपित्त ८०४ कुष्माण्डकावलेह(१), शीतपित्त, अम्ल
| ४३४ आर्द्रकादि मस्य नकसीर
४३५ आग्रादि , , ८०५ , (२) रक्तपित्त, क्षय, ज्वर,
शोष, खांसी,छर्दि,पौष्टिक ८०७ कुष्माण्डखण्ड , " , "
३३० अर्केश्वर रस भयङ्कर रक्तपित्त ८०९ केशर लेह अत्यन्त रक्तस्राव । | ४४३ आमलपयादि लोह रक्तपित्त, अम्लपित्त,
बल्य, वृष्य, दीपक १०७७ खण्डकुष्माण्ड रक्तपित्त, निर्यलता ! ९५० कपर्दक रस दुस्साध्य रक्तपित्त
४४ रसायन-बाजीकरणाधिकार कषाय
८८ अश्वगंधादि चूर्ण (५) , अत्यन्त वाजीकरण १०५३ खदिर विधान आयुर्वर्द्धक ५५९ एलादि रसायन, रोचक, तिल्ली,अर्श
श्वास, शूल, ज्वर, आदि
स्तम्भक ८४ अश्वगन्धादि (१) बाजीकरण, रसायन ५६२ , ८५ अश्वगन्धादि चूर्ण(२)रसायन, सन्धिवात- ५८६ ऐंद्री रसायन अनेक रोग नाशक,समस्त नाशक
धातुवर्धक
पित्तादि
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चिकित्सा-पथ--प्रदर्शिनी
३७८
रसायन-बाजीकरणाधिकार
संख्या प्रयोग-नाम प्रधानगुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधानगुण ७०२ कामदेव चूर्ण वीर्यविकार,मूत्रदोष, रसायन
क्षय, अम्लपित्त नाशक ७१७ कुङ्कुमादि अनेकरोग
४११ आमलकी रसायन आयुवर्द्धक, जरा, व्याधि
नाशक गुटिका
४१२ ,, ,, आयुवईक, जग,व्याधिनाशक १०६ अनङ्गमेखला गुटिका स्तम्भक, कामवर्द्धक
| ४१३ , ,, आयुवक, जग,व्याधिनाशक १०७ ,, ,, मोदक .. ,, और
४१४ आमलकी ,, ,, यौवनदाता स्मृतिवर्द्धक अनेक रोग नाशक
४१५ आमलक रसायन आयु, बुद्धि, बलादि ११६ अभ्रवाटिका खांसी, क्षय, स्वास, वात,
वर्द्धक, रसायन कफ आदि अनेक रोग, | ४१६ आमलकायस ,, आयु, बुद्धि, बलादि वाजीकरण, रसायन
वर्द्धक, रसायन १२२ अमृत वर्तिका रोगमूह नाशक | ४१७ आयुर्वर्द्धक प्रयोग अर्श, ति,स्मृति,मेधा १२३ अमृतसागर गुटिका , ,
आयुवक १२७ अर्जकादि वटिका स्तम्भक, वृप्य ४१८ , आयुवर्द्धक, आश्चर्यकारक ७४६ कस्तूरी गुटिका प्रमेह, शिथिलता, ८१३ कपिकच्छू पाक बलवीर्य-वर्द्धक
वीर्यविकार ८१७ केसर पाक बलवीर्य कामवर्द्धक । वात७५२ कामदेव वटी महाराज हम्भीर के लिए
व्याधि, वातरक्तादि नाशक बनाई गई थी,वाजीकर,रसायन ८१८ काँच , बल, वीर्य, पुष्टि, बुद्धि ७५३ कामसुन्दर मोदक बाजीकर, रसायन
बर्द्धक, वातव्याधि, प्रमेह ७५४ कामाग्निसन्दीपन मो० अनेक रोग
आदि नाशक ___ अवलेह
१०७८ खण्डखाद्य रसायन क्षय, खांसी, अरचि
शीतपित्त, अम्लपित्त,वात१४३ अभयामलकी रसायन ग्रहणी आदि रोग
रक्त,रक्तपित्त,कुष्ठादिनाशक नाशक, आयु, तेज, बल.पुष्टि,
घृत मेधा, रमृति आदि वर्द्धक
| १७२ अश्वगन्धादि शुक्रदोष, गर्भदोप, वातव्याधि १५२ अश्वगन्धा पाक ज्वर, शोष, गुल्म, पित्त,
नाशक, रसायन, वाजीकरण वायु, रसायन
४२० आमलक घृत वन्ध्यत्व, जरा नाशक, १५३ , , खांसी, श्वास, वातरक्त
आयुवर्द्धक ग्रहणी
रस १५५ अहिफेन ,, अत्यन्त वाजीकरण २८८ अनङ्गनिगड रस अत्यन्त वाजीकरण, ४०५ आम्रपाक वाजीकरण, पौष्टिक,ग्रहणी,
रसायन, रोगपुंज नाशक
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
३७६
राजयक्ष्माधिकार
-
संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण २८९ अनङ्गसुन्दर ,, अत्यन्त वाजीकरण रसायन
कुष्ठ, रसायन २९० ,, सुन्दर पौष्टिक
| ९७८ कामदीपक रस यौवन प्रदाता ३१० अभ्रक रसायन श्वास, खांसी क्षय, ज्वर, ९७९ कामदूत रस वीर्य, पुष्टि, कामवर्द्धक
अतिसार आदि नाशक | ९८० कामदेव रस वाजीकरण, रसायन,वातरोग ३१३ अमर सुन्दर सर्वरोग
नाशक पुत्रदाता ३२० अमृताख्य लोह रक्तपित्त, अम्लपित्त,क्षय, | ९८१ कामदेव रसायन, वाजीकरण
ज्वर, कुष्ठ, मूत्रकृच्छ,प्रमेह, ९८२ कामदेव रस अत्यन्त , रसायन
९८५ कामकलाख्य " " ३२२ अमृतार्णव जरा मृत्यु नाशक ९८६ कामाग्निसंदीपन रसायन, ,, ओज,पुष्टि, ३५५ अष्टावक्र रस वलि पलितहर,पौष्टिक,मेधा,
बलवर्द्धक कांति, शुक्र वर्द्धक | ९८७ कामिनिदर्पन्न ,,, ९४० कनककन्दर्प धातु वर्द्धक, वाजीकरण | ९८८ ,, मद भंजन ९४९ कन्दर्प सुन्दर अत्यन्त वाजीकरण ९८९ ,, मद विधूनन प्रमेह, वनिताद्रावक, ९७४ कान्त रसायन वृष्य, रसायन, सर्वरोगन,
वीर्यदाढर्यकारक पुत्रदाता
९९० ,, विद्रावण स्तम्भक, विद्रावक,वशीकरण ९७५ ,, लोह ,, निर्बलता, मेह,रक्तदोष, ज्वर ९९३ कार्यहर लोह कृशता, दीपन, बलवर्णवर्द्धक
पांडु, प्रमेह, कुष्ठ, रसायन | ९७३ काञ्चायन रस जरा, मृत्यु नाशक ९७६ कान्ताभ्रक(१) व्याधि, बुढ़ापा ११०५ खर्पररसायन मधुमेह, पित्त, क्षय, पांडु, ९७७ कान्ताभ्रक(२) पांडु, शोथ, उदर, ग्रहणी,
रक्तगुल्म, प्रदर, सोमरोग, शोष, कास, ज्वर, प्रमेह,
शोथ, स्त्रीरोग
४६ राजयक्ष्माधिकार कषाय
। ५५५ एलादि , " ३५८ आषपादिक्वाथ क्षयरोग ५६३ , , ,, अर्श,संग्रहणी, गुल्म चूर्ण
| ६७२ ककुभादि ,, ,, यक्ष्मा, खांसी इत्यादि ८६ अश्वगन्धादि चूर्ण (३)क्षय, प्रमेह मेद,
गुटिका उदररोग ४६१ इक्ष्वादि मोदक क्षय, ग्रहणी, वाजीकरण ८७ (४),
वन्ध्यत्व, अपस्मार,क्षीणता
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वातव्याध्याधिकार
-
-
लेह
संख्या प्रयोग नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण
१०९८ खजूरासव राजयक्ष्मा, शोथ, ग्रहणी, १३९ अगस्त्थहरीतकीलेह क्षय, खांसी, ज्वर
अर्श श्वास, हिचकी, ग्रहणी १०९९ , हैजा, हृद्रोग, खांसी, आदि नाशक, रसायन
तृषा, हिचकी, प्रमेह, १४४ अमृतप्राश्यावलेह रक्तपित्त,क्षय, तृष्णा,
विषमज्वर, पाण्डु छर्दी, ज्वर, मूत्रकृछ,
२७५ अग्नि रस क्षय, खांसी ५७२ एलादि मंथ यक्ष्मा, शूल, पांड,भगन्दर ३२६ अमृतेश्वर राजयदमा ७७५ ककुभ लेह क्षय, खांसी,
३४७ अश्वत्थवल्कलादिलोह ,, ८१६ कुमारी पाक जीर्णज्वर, क्षय, ताप, | श्वास, खांसी, प्रदरादि ९४२ कनकसिन्दूर रस क्षय, सन्निपात, वात
गुल्म, शूल १०८२ खण्डपिप्पली क्षय, कास, तृष्णा,
९४५ कनकसुन्दर रस राजयक्ष्मा, शूल, गुल्म, पाण्डु, रक्तपित्त, कफ
सन्निपात घृत
९६९ कल्याणसुन्दराभ्र यक्ष्मा, क्षय,शोष,श्वास, १५९ अजापश्चक घृत क्षय, श्वास, खांसी
शोथ, कृशता आदि ८२० फणादि धृत राजयक्ष्मा
९७२ फाञ्चनाभक्षय, खांसी, कफपित्त, १०९३ खजूरादि घृत स्वर मंग, खांसी, श्वास,
प्रमेह
९९६ कालवञ्चक राज यक्ष्मा आसव
१००३ कालान्तक रस , ८९७ कुष्माण्डासव धातुक्षय, मंदाग्नि, प्रमेह, । १०२२ कुसुदेश्वर यक्ष्मा, ज्वरादि पांडु
१०२३ , ४६ वातव्याध्याधिकार कषाय
चूर्ण १२ अमृतादि काथ समस्त बात-रोग ५३ अजमोदादि हृदय, कोग्य, कण्ठ और ३८ अश्वगन्धादि गण वायु नाशक
उदरस्थवायु ५४५ एरण्डादि काथ धनुर्वात
६८ अमृत प्राश कम्प, शिर घूमना, दाह, ६२० कपिकच्छादि पक्षाघात, शिरोरोग,अर्दित
रक्तपित्त
राजयक्ष्मा
ED
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनि
३८१
घातल्याण्याधिकार
-
-
-
अपस्मार
संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुणसंख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण ३८९ आभादि चूर्ण गृध्रसी, हनुग्रह, सर्व | ५८७ ऐलेय सर्पि वात, पित्त, कफ, शिर वातरोग
घूमना ४५४ इन्द्रवारुणी,, सन्धिवात ७१५ कुष्ठादि , अनेक प्रकारके वातरोग | १७९ अणु तैल वातव्याधि
गुटिका | १८२ अमृतादि तैल यातव्याधि, अपस्मार, १०३ अजमोदादि समस्त वात रोग
उन्माद, अरति, क्षीणता ११७ अमरसुन्दरी वटी , घातरोग विशेषतः | १८८ अश्वगन्धा तैल रक्तपित्त, प्रदर, नपुंस
कता, वीर्यदोष, योनिदोष १२५ अमृतानाम गुटि वात-व्याधि, कुष्ठ,प्रमेह, | | १९० अष्टकदर तैल गृध्रसी, उरुग्रह
अपस्मार क्षय, श्वास, | ५७३ एरण्ड तैल योग , , शोथ, पांडु
५७४, " " " ७३६ कणादि वटी समस्त शरीरस्थ वायु ५८२ एलादि तैल योग वातव्याधिहर, बल वर्ण लेह
अग्निकारक ५६९ एरण्ड पाक वात रोग, कुष्ठ,पित्तरोग, | ८७२ कुजप्रसारणा सब वातव्याधि, कुब्ज,
वात कफ-रोग उदररोग, प्रमेह, नासुर
८८० कुष्ठादि तैल उरुस्तम्भ ५७० , , वातव्याधि, शोथ, शूल,
८८७ केतकादि तैल अस्थिगत वायु उरुग्रह, कटिशूल, आम
वात, वृद्धि ७८८ कल्याणावलेह जडता, गद्गद्पना,
२८७ अनिलारि रस वातव्याधि गूंगापन, स्मरण-शक्ति
३१५ अमृतसुन्दर रस वात-कफज समस्तरोग
३३१ अर्केश्वर रस सुप्तिवात ८१४ कुबेर पाक सर्व वातरोग, मन्दाग्नि,
३३४ अर्धाङ्ग वातारि अधरङ्ग, कम्पवात निर्बलता, मूत्रदोष
५८५ एकाङ्गवीर रस पक्षाघात, अर्दित,अर्धाङ्ग
९६२ कम्पवातारि सर्वाङ्गवायु, कम्पवात गुग्गुल
९६३ कम्पपातहर अर्धाङ्ग, कम्पवात १३७ अमृतादि क्रोष्टु शीर्ष
९९४ कालकण्टक वातव्याधि,सन्निपात,कुष्ठ ४०१ आदित्य पाक सन्धि अस्थि मज्जागतवायु १००४ कालारि
१०१९ कुजविनोद हृदयपीड़ा, पसलीशूल, ४१९ आनन्द भैरव त्वम्गत वायु
आमवात, मेद,मान्यबाद
वर्द्धक
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
३८२
वातरक्ताधिकार
-
प्रमेह
४७ वातरक्ताधिकार संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण सख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण कषाय
विसर्प, खुजली ५४६ एरण्डादि क्वाथ ऊर्ध्वगत वातरक्त
१४७ अमृतभल्लातक वातरक्त, कुष्ठ, अनेक रोग ६३४ काकोल्यादि,
१५० अमृताधवलेह कफ युक्त वातरक्त ६४१ काश्मर्यादि , पित्तज वातरक्त ६६९कोकिलाक्षादि ,, वातरक्त
१६३ अमृतादि (१) वातरक्त, क्रोष्टुशीर्ष,ज्वर, चूर्ण
उदावर्त ७० अमृतादि कफज वातरक्त
१६५ ,, (३) वातरक्त, आमवात, कुष्ठ,
अर्श आदि गुरगुल
(४) वातरक्त, कुष्ठ, पांडु, १३५ अमृतादि गुग्गुलु वातरक्त, कुष्ट, व्रण, गुद रोग, आमवात, शोथ,
(५) ज्वर, कास
| १६७ , वातरक्त, कुठादि १३६ ,, आमवात, अम्लपित्त ७७३ कैशोर , सर्ववातरक्त, घाव, कोढ़, १८५ अमृताख्य वातरक्त, क्षत, क्षीण, गुल्म, पांडु, शोथादि
योनिदोष, उन्माद, अवलेह १४६ अमृत भल्लातक वातरक्त, कुष्ठ, अर्श, । ५७५ एरण्ड तैल योग वातरक्त
४८ विरेचनाधिकार गुटिका
४६४ इच्छाभेदी रस गुल्म, उदावर्त, अर्श,
__ भगन्दर आदि ११० अभयादि मोदक विषम ज्वर, पांडु,मंदाग्नि ४६५ , , गुल्म
गुल्मादि बहुत रोग हुत राग
।
४६६ , , रेचक ११३ , वटी ज्वर, पांडु,प्लीहा,अष्ठीला, ४६७ , , शूल, पित्तज कुष्ट,भगन्दर अम्लपित्त, अजीर्ण
,, गुटिका रेचक
,, रम इच्छानुसार दस्त लाता है ४६३ इच्छामेदी रस करकोष्ठ के लिए जुलाब | ४७० , रस उदररोग
वातव्याधि
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
३८३
वणाधिकार
-
४९ विषाधिकार संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण चूर्ण
नस्य ५५ अजित अगद स्थावर विष, जङ्गम विष वटी
९३१ कर्कोठक्यादि विषकी मूर्छा ७६७ कुलिकादि वटी सर्पदंश, विष, विषमज्वर
रस घृत १६० अजेय घृत्त सब प्रकारके विष । ९९५ काल वज्राशनी सर्पदंश
५० विसर्पाधिकार तेल
बिवाई, त्वचाकी श्यामता ५८१ एरण्डादि तैल विसर्प
९०४ कसेवोदि लेप पित्तंज विसर्प ८५६ करादि तैल , विस्फोटक,विचर्चिका
रस
१००० कालाग्निरुद्र विसर्प ९०० कनकादि लेप कुष्ट, विसर्प, खाज, ।
५१ वृद्धयाधिकार कपाय
वृद्धि ४५० इन्द्रवारुणीमूलयोग अण्डवृद्धि ५८०एरण्डतैलादि योग अण्डवृद्धि, ज्वर ४५१ इन्द्राणी ,
तैल ५७६ एरण्डतेल योग आध्मान, शल, अन्त्र । ९३८ कजली अण्डवृद्धि ५२ व्रणाधिकार
विष, वायु, कम्प २६ अकादिकाथ व्रण, कुष्ठ, कृमि, कफ,
गुटिका विष ५५० एलादि गण घाव, फुसी, खुजली,कुष्ठ, | ४००आरग्वधादि वर्ति व्रणशोधक, नासूर
कषाय
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संख्या
चिकित्सा - पथ-प्रदर्शिनि
प्रयोग नाम
गुग्गुलु
१३८अमृतादि वटिका घाव, वातरक्त, शोथ,
गुल्म, पांडु
८३८ कुङ्कुम
८३९
11
१०९४ खर्जूरादि
१८० अणु तैल
गुटिका
१२८ अर्द्ध नारीश्वर कफज शिरोरोग में नस्य
१४ अमृतादि
प्रधान गुण
घृत
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३८४
तैल
कषाय
आधा शीशी
वातरक्तजशिरशूल, आधाशीशी, सूर्यावर्त,
कान, आंखकी पीड़ा कनपटियों का शूल
शीतपित्त
संख्या
५३ शिरोरोगाधिकार
चूर्ण
आधाशीशी, शिरकांपना।
६९४ करञ्जादिशीर्षरेचन शिर के समस्त रोगों ५८७ ऐलेयक तैल शिरोभ्रम, कम्प, यातपित्त रोग
में नस्य
८५१ कनक तैल
प्रयोग-नाम
९१५ कृष्णादिलेप
८६२ कर्पूर तैल
९०१ कमलादि
९१० कुष्ठादि
९११
"
शिरोरोग, मन्यास्तम्भ, ९१२ शिरशूल, अदित, पीनस | ९१६ कृष्णादि
५४ शीतपित्ताधिकार
८७४ कुमारी"
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लेप
11
शीतरोगाधिकार
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तैल
धावका कफज शोध
प्रधान गुण
नासूर, सर्वत्रण
लेप
आंख और शिरकाशूल,
श्लीपद, गलगण्ड, वृद्धि,
आमवात,
शोथ
अर्दित,
मन्यास्तम्भ,
शिर के रोग, वातरोग
शिरपीड़ा
"
वातज शिर पीड़ा
""
19
लेह
४०६ आर्द्रक खण्ड शीतपित्त, उदर्द, यक्ष्मा, मन्दामि आदि
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शूलाधिकार
-
५५ शुलाधिकार संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण । संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण कषाय
लेह १ अजमोदादि अनेक प्रकार के शूल | ८१५ कुबेराक्ष पाक अनेक प्रकार के शूल ३९ अश्वीपुरीष रस उदर शूल | २८५ खण्डामलकी रसा- त्रिदोषज पक्तिशूल, ५४२ एरण्ड द्वादशक सन्निपातज और एक- यन छर्दि, अम्लपित्त, मूर्छा, दोषज शूल
श्वास, खांसी ५४३ एरण्ड मूलादि पसली, हृदय और
रस कफज शूल २३६ अग्निकुमार (३) त्रिदोषज शूल ५४८ एलादि क्वाथ उदरशूल, कमरशूलादि | २३७ अग्निकुमार (४) शूल, हैज़ा अजीर्ण, अनेक शूल
| २५३ , , मन्दाग्नि उदररोग, चूर्ण
सन्निपात, अपस्मार,
संग्रहणी, पांड, तिल्ली, ५० अजमोदादि सब प्रकारके शूल
जिगर, क्षय, वातव्याधि शूल, अजीर्ण
२७० अग्निमुख रस प्रबल शूल ४५५ इन्द्र वारुणि दुस्सह शूल
३१६ अमृत गर्भ वातशूल, पसलीशूल, ४९१ उशीरादि हृच्छुल.
परिणाम शूल, वात ४९२ , वातज शूल
कफरोग, ज्वर ५५२ एरण्ड मूलादि शूल, गुल्म ५५३ एरण्डादि भस्म शूल
३१८ अमृत मण्डूर वातजपित्तज, सन्निपातज ७२० कुष्माण्डक्षार
और पक्तिशूल कष्ठ साध्य शूल
| ५१३ उदय भास्कर(३)वातशूल गुटिका
५१८ , (८) सर्व शूल १०१ अगस्ति वटी शूल, गुल्म, कृमि, १०४८ कृष्णादि लौह परिणामशूल, त्रिदोषज
तिल्ली, आमवात ३९२ आदित्य गुटिका शूल, वायु, अग्निमांद्य । १०४९ कोलादि मण्डूर वातकफजरोग, परिणाम ७६३ कुबेराक्ष वटी ८ प्रकारके शूल
शूल
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३८६
सन्निपाताधिकार
-
-
लेप
५६ शोथाधिकार संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण काथ
अरिष्ट २७ अर्कादि काथ सूजन
१९९ अष्टशतोऽरिष्टः कफवातज शोथ, विय३८२ आर्द्रकस्वरस सर्व शोथ
न्ध, मन्दाग्नि ३८५ आर्द्रक स्वरस त्रिदोषज शोथ ६५५ कुटजादि स्वेद सूजन
२०१ अजगन्धादि कफज शोथ चूर्ण
९१५ कृष्णादि कफज सूजन ७२५ कृष्णादि सूजन मोदक
२६९ अग्निमुख मण्डूर कष्टसाध्य शोथ, पुराना १०० अगस्ति मोदक शोथ घृत
२८६ अनिल रस सूजन, पाण्ड १०९२ खदिरादि सूजन
९३९ कटुकाय लौह सृजन ५७ श्लीपदाधिकार गुटिका
७८० कृष्णाद्य मोदक स्लीपद ७३६ कणादि वटी स्लीपद (हाथीपग) ५७८ एरण्ड तैल हरीतकी ,,
___५८ सन्निपाताधिकार कषायप्रकरण | ३३ अष्टादशाङ्ग सन्निपात, खांसी, हिचकी ७ अभयादि
श्वास, पसलीशूल, वमन, रुग्दाह-सन्निपात ६ अमृतादि तन्द्रिक सन्निपात
तन्द्रा, प्रलाप, खांसी, २२ अर्कादि सन्निपात, प्रसूतरोग,
दाह, श्वास श्वास, धनुर्वात, वातव्याधि ३६० आषादि सन्निपात, श्वास, खांसी, २५ ॥ सन्निपात, तन्द्रा, सूति
अतिसार, शूल कारोग, अपस्मार ४७३ स्यादि सन्निपात
हृद्रोग
१७ ,
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३८७
संग्रहणी-रोगाधिकार
संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण ६४६ किरातादि पित्तप्रधान सन्निपात ६४७ , कण्ठकुब्ज ।
चूर्णप्रकरण ६९६ कर्कोटक्यायुदर्तन शीतांग सन्निपात
गुटिकाप्रकरण ७६६ कुलवटी सन्निपात
आसवप्रकरण ८९३ कुम्जासव सन्निपात
अञ्जनप्रकरण २२४ असुरादि सन्निपात, तन्द्रा २२५ अञ्जन नं. १० , बेहोशी ५९६ अञ्जनभैरव , ३३३ अर्द्धनारीनटेश्वर , तन्द्रा, निद्रा,
प्रलाप, खांसी, श्वास ९२१ कणादि भूतदोष, अपस्मार ९२५ कस्तूरिकादि सन्निपात, तन्द्रा ९२८ कृष्णादि अञ्जन तन्द्रिक-सन्निपात
। सख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण
नस्यप्रकरण ४३३ आर्द्रकादि सन्निपात ९३३ कुष्ठादि तन्द्रिक सन्निपात ९३४ कृष्णादि कण्ठकुब्ज सन्निपात
रसप्रकरण २३५ अग्नि कुमार (३) सन्निपात, तन्द्रा,
मन्दाग्नि, संग्रहणी, गुल्म,
खांसी २५५ ,,, सन्निपात, सर्वरोग | ३२९ अर्केश्वर
५२९ उन्मत्ताख्य । ९५१ कफकुञ्जर ___ कफ, वात, सन्निपात,
उदररोग | ९७१ कस्तूरी भैरव दारुण-सन्निपात | १००४ कालारि सन्निपात, वात-व्याधि
१०२३ (अ) कुलवधु क्षय, सन्निपात
५९ संग्रहणी-रोगाधिकार कषाय
६८९ कपित्थाष्टक संग्रहणी, अतिसार, क्षय, २ अतिविषादि ग्रहणी, ज्वर, अरुचि,
गुल्म, हिचकी, अरुचि, मन्दाग्नि
खांसी ३७१ आम्रादि यवागु पित्तज, संग्रहणी
गुटिका ६८८ कपित्थादि पेया वातज , ९५ अग्निकुमार मोदक संग्रहणी, अग्निमांद्य,ज्वर, चूर्ण
खांसी, श्वास, उदररोग ५४ अजाज्यादि अनेक प्रकारकी संग्रहणी, | ११५ अभ्रकादि वटी सर्व प्रकारकी संग्रहणी
ज्यरालिसार, हैजा । ७४२कपुरसुन्दरी घटिकाग्रहणी, शीतवात,अफीम
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चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
३८६
स्त्री-रोगाधिकार
-
-
तिसार
ज्वर
विष
संख्या प्रयोग-नाम प्रधानगुण । संख्या प्रयोग-नाम प्रधानगुण
की आदत, प्रबलातिसार, अर्श
७९३ , कष्टसाध्य संग्रहणी,भग० ७४४ कल्पलतावटी पुरानी ग्रहणी, शोथ, ७९४ कुटजाधवलेह संग्रहणी, अतिसार, जीर्णज्वर, पांडु
मन्दाग्नि लेह
८०८ कुष्माण्ड गुड संग्रहणी, कुष्ठ, अर्श,
___ ज्वर, अफारा, पांडु,क्षय १४. अपराजितलेह संग्रहणी, अतिसार ७७६ कश्चटावलेह
अम्लपित्त,
अरिष्ट उदररोग
| १९१ अभयारिष्ट ग्रहणी, पांडु, अर्श,कुष्ठ, ७८१ कणाद्यवलेह संग्रहणी, अम्लपित्त, प्रवाहिका
घृत ७८६ कल्याणकावलेह सर्व प्रकारकी संग्रहणी, | १५८ अग्नि घृत ग्रहणी, गुल्म, पांडु,कृमि,
अर्श, खांसी, श्वास,
शोथ, स्वरभंग ७८७ कल्याण गुड़ संग्रहणी, श्वास, खांसी, २३२ अगस्तिमुतराज संग्रहणी
__ शोथ, वन्ध्यत्व २४७ अग्निकुमार (१५), ७९१ कुटजलेह प्रबल संग्रहणी,प्रवाहिका २५०, (१८) , मन्दाग्नि, अजीर्ण
रक्तातिसार । २५६ ,, (२४) , , आमाति० ७९२ कुटजावलेह कष्टसाध्य संग्रहणी, अ- ! ३८ अर्क लोकेश्वर सर्व प्रकार की संग्रहणी
६० स्त्री-रोगाधिकार कषाय
चूर्ण २८ अर्कपुष्पयोग मासिक धर्म न होना ८९ अश्वगन्धा योग गर्भ धारक ४२ अशोक क्वाथ रक्तप्रदर
६८६ कपित्थादि कल्क प्रबल प्रदर ३६१ आमलक योग श्वेतप्रदर
७०१ काक जंघादि प्रदर, पांडु ४७५ उत्पलादि गर्भरक्षक
७०५ कासीसादि योनि पैच्छिन्य ४८६ उशीरादि , ६१९ कदली योग सोम रोग
गुटिका ६३? काकोदुम्बरिकास्वरस रक्तप्रदर ७६८ कुष्ठादिवर्ति कणिनि योनि
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संख्या
चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
प्रयोग नाम
१७१ अशोक घृत
घृत
99 29
11
प्रधान गुण
सब
योनिशूलादि
८३० काश्मर्यादि वातजयोनिरोग, गर्भधार
णकी शक्ति
८३५ कुमुदादि
प्रदर, रक्तदोष, पांड, वातरक्त, ज्वर, गर्भ न ठहरना
तैल
"
चूर्ण
प्रकारका प्रदर,
चूर्ण
४८ अजमोदादि चूर्ण त्रिदोषज स्वरभंग
(गला बैठना)
"3
कषाय
६६० कुलत्थादि क्वाथ हिचकी, श्वास
६६२
""
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३८६
""
७२३ कृष्णादि चूर्ण हिचकी, श्वास
अवलेह
रत
४९६ उदुम्बरादि तैल पिच्छिला, विवृतादि योनिदोष ४७१ इन्दु शेखर गर्भिणी का ज्वर, खांसी,
श्वास,
अतिसार
४९७ "
६१ स्वरभेदाधिकार
७७८ कटुत्रिकह ७८५ करंजाद्यवलेह छर्दि, कफ
८०२ कुलत्थगुरु
संख्या
८६४ कर्पूरादि
खांसी
प्रयोग-नाम
६२ हिक्काश्वासाधिकार
हिक्का, श्वास, खांसी,कफ
हिकारवााधिकार
अरिष्ट
१९७ अशोकारिष्ट रक्तप्रदर, ज्वर,
शोथादि
लोभ नाशक
लेप
११०२ खरमञ्जर्बादि प्रसूता का सोनि शत्र
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प्रधान गुण
८९० कनकासव
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गुटिका
७४८ काकजंघावटी स्वर सुधारती है।
घृत ८४४ कोलादि घृत स्वर भंग
८११ कोलम आवलेह हिचकी
१०८८ खर्जूरादि
"
""
अर्श,
आसव
३२४ अमृतार्णव ३४४ अश्वक चुकी
श्वास, खांसी, ज्वर, हिचकी ४४० आनन्द भैरब खांसी, श्वास, क्षय, गुल्म
श्वास, कास, यवमा, ज्वार
रक्तपित्त, उरःक्षत
रस
श्वास, खांसी अनेक रोग
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३६०
-
चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी
क्षुद्ररोगाधिकार संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण संख्या प्रयोग-नाम प्रधान गुण . ग्रहणी, सन्निपात
कृशता, मण्डल १००१ कालाग्निरुद्र हिक्का, श्वास, स्थूलता, १००५ कालेश्वर कास, श्वास, कफरोग
६३ हृद्रोगाधिकार कषाय
घृत ७९ अर्जुनादि क्षीर पित्तज हृद्रोग १६९ अर्जुनघृत सर्व द्रोग ६०१ कट्फलादि हृदोगनाशक ८२७ कसेरुकादिसपि पित्तज हृद्रोग ६२९ कसेरुकादि पित्तज दोग
अरिष्ट ८८८ कनकारिष्ट दोग, अरुचि, ग्रहणी,अर्श
खांसी, कफरोग, ज्वर, ६७१ ककुभादि सर्व हृद्रोग
उदर रोग, अफारा, ६७३ ककुभादि हृद्रोग, जीर्णज्वर, रक्तपित्त । ६७४ कटुकादि , , , , . ७९० कल्याण मन्दर द्रोग, प्लरसी, फुस्फुसरोग
६४ क्षुद्ररोगाधिकार चूर्ण
८६६ काकमाची अरुंपिका, पामा, विचर्चिका ७२९ केशरञ्जक खिजाब
८६७ काशमर्यादि खिजाब . गुटिका
८७० कुक्कुमादि व्यंग, नीलिका, झाई, आदि
८७१ , , , , सुन्दरता १२४ अमृताकुर वटी जीर्णज्वर, प्रमेह, खांसी, !'
८७२ , मुख सौन्दर्य, कांति, पुष्टिवर्धक ___ क्षुद्ररोग
२०२ अजाज्यादि अध्न (वद) १८६ अर्क पत्र रस तैल पामा, कच्छु,विचर्चिका । २०३ अयादि लेय पलित (बालपकना) ५२६ आदित्यपाक पामा ।
२०८ अर्जुन त्वगादि व्यंग, साई ४२४ आरग्वधादि बालनाशक
४३० आम्रवीजादि दारुण ४९९ उपोदिका पाददारी
८९९ कण कार्यादि इन्दलस ८५२ कनक नीलिका, व्यंग, झांई, कांति ९०३ करजादि खारवे ८५५ करजादि तैल इन्द्रलुम
९०८ कासीसादि अण्डकोष की खाज ८६४ कर्पूरादि लोम नाशक ! ११०० खदिरादि अरुषिका
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MMIT
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
7744
परिशिष्ट
SERDay
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३६२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[अकारादि
-
अथाकारादिकषायप्रकरणम् (८७७८) अग्निमन्थकषायः
(८७८१) अकोटादिकाथः (ग. नि. । प्रमेहा. ३०)
(व. से. । ग्रहण्य. बालगे.) भग्निमन्थकषायं तु वसामेहे प्रयोजयेत् ॥
अङ्कोटमूलं धातक्यो बिल्वपेशी महौषधम् ।
क्वयितं शीतलं पेयं कुक्षिरोगहरं परम् ॥ अरनीका क्वाथ बसामेहको नष्ट करता है।
__अंकोटकी जड, धायके फूल, बेलगिरी और (८७७९) अङ्कोटमूलयोगः (१) सोंट समान भाग लेकर क्वाथ बनाकर ठंडा करके ___(व. से. । विषा.)
पीनेसे पेटके विकार ( अतिसार, ग्रहणी आदि)
नष्ट होते हैं। अङ्कोटोत्तरमूलोत्थं कषायस्य पलद्वयम् ।
(८७८२) अजगन्धादियोगः सर्पिपश्च पलं पीतमळविषनाशनम् ॥
(यो. चि. म. | अ. ७)। ___ अंकोटको जड़की छालके १० तोले क्वाथमें |
पलार्द्धमजगन्धाया अष्टयामोषितं जले । ५ तोले घी मिलाकर पीनेसे पागल कुत्तेका विष | वर्तयित्वा पिबेत्मावईन्ति दाहं सवातकम् ।। नष्ट होता है।
___ २॥ तोले अजमोदको पानीमें भिगोदे और (८७८०) अङ्कोटमूलयोगः (२) आठ पहर (२४ घंटे) बाद छानकर पीलें । यह (व. से. । विषा.)
पानी दाह और वायुको नष्ट करता है । अङ्कोटमूलं नि:क्वाथ्य सफाणितघृतं लिहेत । (८७८३-८४) अतिबलादिकाथः तैलाक्तः स्विन्नसर्वाङ्गो गरदोषविषापहम् ।।
(व. से. । मूत्रकृच्छ्रा .) ___ शरीर पर तेलकी मालिश करके स्वेदित कर
कषायोऽतिबलामूलसाधितोऽशेषकच्छूजित् ।
पीतश्च त्रपुसीबोज सतिलाज्यं पयोन्वितम् ।। नेके पश्चात् अंकोटकी जड़के क्वाथमें फाणित
____ अतिबला (खरैटी) की जड़ का क्वाथ हर (राब) और घी मिलाकर चाटनेसे गर विष नष्ट हो
तरहके मूत्रकृच्छूको नष्ट करता है।
___खी रके बीज और तिलोंको पीसकर उसमें क्वाथको पुनः पकाकर चाटने योग्य गाढ़ा घी और दूध मिलाकर पीनेसे भी मूत्रकृच्छू नष्ट कर लेना चाहिये।
' होता है।
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कषायप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
३६३
-
जलम् ।
(८७८५) अपामार्गरसयोगः गिलोय, कदम्ब वृक्षकी छाल, नीमकी छाल (व. से. ; धन्व. । वणा.: रा. मा. । ब्रणा. २५) और अर्जुन वृक्षकी छाल समान भाग लेकर क्वाथ अपामार्गस्य संसिक्तं पत्रोत्थेन रसेन वा। बनावें । सद्योत्रणेषु रक्तन्तु प्रवृत्तं परितिष्ठति ॥ __इसमें सेंधा नमक मिलाकर मन्दोष्ण करके
अपामार्ग (चिरचिटे )के पत्तोंका रस भरनेसे पीनेसे विषूचिका, अजीर्ण और विषका नाश सद्योग ( शस्त्राधातादि ) का रक्त बन्द हो जाता है।
___ (८७८९) अमृतादिकाथः (१) . (८७८६) अपामार्गादिक्काथः
(यो. त. । त. ७५ ; यो. र. । सूतिका. ; ग. (वै. म. र. । पटल १३)
नि. । सूतिका. ; वृ. यो. त. । त. १४२) शादी सोपस्याटिपाययेन। अमृतानागरसहचरभद्रोत्कटपश्चमूलजलदमयूरमूलपथ्याभ्यां सिद्धमम्बु दिनत्रयम् ।। _यदि प्रसूता स्त्रीकी पीठ और कमर आदिमें
मृतशीतं मधुसहितं हरति परं मूतिकाशूलम् ॥ शोथ हो तो उसे चिरचिटेकी जड़ और हर्रका
__गिलोय, सोंठ, पियाचांसा, गंधप्रसारिणी, क्वाथ ३ दिन तक पिलाना चाहिये।
| पंचमूल ( वृहत ), नागरमोथा और सुगन्धबाला
समान भाग लेकर स्वाथ बनावें । इसे ठंडा करके (८७८७) अभयादिकाथः
शहद मिलाकर पीनेसे सूतिका रोग नष्ट होता है। (व. मे. । अम्लपित्ता.)
(८७९०) अमृतादिकाथः (२) । अभयापिप्पलीद्राक्षासिताधन्वयवासकम् । ( भा. प्र.। म. खं. २ ; वृ. मा. । वातरक्ता.; मधुना कण्ठदाहन्नमम्लपित्तहरं परम् ॥
व. से. ! वातरक्ता.) ___ हर्र, पीपल, मुनक्का और धमासा समान अमृतानागरधान्यककर्षत्रितयेन पाचनं सिद्धम। भाग लेकर क्वाथ बनावें।
जयति सरक्तं वातं सामं कुष्ठान्यशेषाणि ॥ ___ इसमें मिसरी और शहद मिलाकर पीनेसे गिलोय, सोंठ और धनिया १-१ कर्ष लेकर कण्ठकी दाह और अम्लपित्तका नाश होता है। । क्वाथ बनावें। (८७८८) अमृतादिकषायः । यह क्वाथ वातरक्त, आम और कुष्ठको नष्ट
(ग. नि. । अजीर्णा.) | करता है। पिवेद्विपक्वं त्वमृताकषायं
(८७९१) अमृतादिकाथः (३) कदम्बा नम्बार्जुनक्षकाणाम् ।
(व. से. । अम्लपित्ता.) क्वार्थ सुखोष्णं लवणप्रगाढं
अमृतानागरमुस्तकिरातसमभागसाधितं तोयम् । . विचिकाजीर्णविषापमर्दम् ॥ दारुणं तदम्लपित्तं जयत्यवश्यं नृणां सद्यः॥
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भारत-भैषम्य-रत्नाकरः
[अकारादि
-
-
गिलोय, सोंठ, नागरमोथा और चिरायता के पत्ते लपेटकर उसके ऊपर मिट्टीका १ अंगुल समान भाग लेकर क्वाथ बनावें ।
मोटा लेप करदें एवं उसे कन्डोंकी अग्निमें दबा दें। यह क्वाथ प्रबल अम्लपित्तको भी शीघ्रही| जब मिट्टीका रंग लाल हो जाय तो गोलेको बाहर नष्ट कर देता है।
निकाल कर मिट्टी आदि दूर करके उसका रस (८७९२) अमृतादिकाथः (४)
निकालें। (वै. र. । ज्वरा.)
___इसमें शहद मिलाकर पीनेसे अतिसारका
नाश होता है। अमृतारिष्टकुचन्दनपकधान्योद्भवः क्वायः। ब्बरहल्लासच्छदितृष्णादाहारुचीहन्यात् ॥
(मात्रा-१ से २ तोला ।) गिलोय, नीमकी छाल, लाल चन्दन, पनाक
(८७९५) अरलुपुटपाका और धनिया समान भाग लेकर क्वाथ बनावें।
(शा. सं. । खं. २ अ. १) यह क्वाथ ज्वर, हल्लास, छर्दि, तृषा, दाह अरलुत्वकृतश्चैव पुटपाकोऽमिदीपनः । मौर अरुचिको नष्ट करता है।
मधुमोचरसाभ्यां च युक्तः सर्वातिसारजित् ॥ (८७९३) अमृतादिकाय: (५) ___अरलुको छालको पुटपाक विधिसे पकाकर (शा. सं. । खं. २ अ. २)
रस निकालें। इसमें शहद और मोचरसका चूर्ण
मिलाकर सेवन करनेसे समस्त प्रकारके अतिसार अमृतैरण्डवासानां क्वाथ एरण्डतैलयुक् ।। पीतः सर्वागसञ्चारि वातरक्तं जयेद् ध्रुवम् ॥
| नष्ट होते हैं। ____ गिलोय, अरण्डमूल और बासा (अडूसा)के
___ अकोदिगणः क्वाथमें अरण्डीको तेल मिलाकर पीनेसे सर्व शरीर (सु. सं. । सू. अ. ३८) गत वातरक्त अवश्य नष्ट हो जाता है।
प्र. सं. २६ अर्कादि क्वाथ देखिये। (८७९४) अरलुत्वक्पुटपाकः (८७९६) अलम्बुषास्थरसः
(ग. नि. । अति. २) (शा. सं.। खं. २ अ. १; . मा. । गलगण्डा. श्रीपणिपर्णावृतदीर्घवन्तज
- ग. नि. । प्रन्ध्य.) त्वपिण्डकात्तन्दुलवारिकल्कितात् । अलम्बुषायाः स्वरसः पीतो द्विपलमात्रया। मद्वेष्टिवादनिविषाचिताद्रसं
अपचीगण्डमालानां कामलायाश्च नाशनः ।। पिवेदतीसारहरं समाक्षिकम् ॥
गोरखमुंडीका २ पल (१० तोले ) स्वरस अरलुकी छालको चावलोंके धोवनमें पीसकर नित्य पीनेसे अपची, गण्डमाला और कामलाका गोला बनावें और उस पर शालपी (या गम्भारी) नाश होता है।
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कषायप्रकरणम् ।
परिशिष्ट
३६५
(यह प्रयोग सं. १११३ के समान है परन्तु । रक्तप्रवाहं हृदयस्थितं वा वहां इसका अर्थ अशुद्ध छप गया है अतएव . बातो यथाऽभ्रं हरते तथैव ॥ यहां पुनः दिया गया है ।)
पीपल वृक्ष ( अश्वत्थ) की कोंपलोंका रस (८७९७) अश्वत्थादिकाथः
। ६ भाग ( ३ माशे ) लेकर उसमें ६ भाग बोल (वृ. मा. । प्रमेहा.)
। (बीजा बोल) का चूर्ण और १२ भाग शहद अश्वत्यचतुरङ्गुलन्यग्रोधादिफलत्रयम्। मिलाकर पीनेसे रक्त प्रवाह बन्द हो जाता है। सरक्तसारमनिष्ठा क्वाथाः पश्च समाक्षिकाः ।। नीलहारिद्रशुक्ताख्यक्षारगण्डीरिकाहयान् । '
(८७९९) अष्टादशाङ्गकाथ: मेहान्हन्युः क्रमादेते सक्षौद्रो रक्तमेह जित् ॥ (३. मा. ; भा. प्र. ग. सं. २ । ज्वरा.! क्वाथः खर्जुरकाश्मयतिन्दुकास्थ्यमृताकृतः ॥ दाक्षाऽनता शठी की मस्तकं रक्तचन्दनम् । (१) पीपल वृक्ष ( अश्वत्थ )की छाल (२)
नागरं कटुकं पाठा भूनिम्ब सदुरालभम् ! अमलतासकी छाल (३) बड़की छाल (४) त्रिफला
जशीरं पद्मकं धान्यं बालकं कण्टकारिका । (५) लाल चंदन और मजीठ; ये पांच क्वाथ
! पुष्करं पिचुमन्दं चाष्टादशाङ्गमिदं शुभम् ॥ क्रमश: नील मेह, हारिद्र मेह, शुक्त मेह, क्षार मेह
जीर्णज्वरारुचिश्वासकासश्त्रपथुनाशनम् ।। और मानिष्ठ मेहको नष्ट करते हैं। इनमें शहद मिलाकर पीना चाहिये।
___ द्राक्षा ( मुनक्का गिलोय, कचूर, काकड़ाखजूर, खम्भारी छाल, तेन्दुके फलकी गुठली, सिंगी, नागरमोथा, लाल चन्दन, सांठ, कुटकी, और गिलोय; इनके क्वाथमें शहद मिलाकर पीनेसे | "
| पाठा, चिरायता, धमाता. खस, पाक, धनिया, रक्तप्रमेह नष्ट होता है।
सुगन्ध बाला, कटेली, पोखग्मूल और नीमकी छाल;
ये अठारह औषधिया समान भाग लेकर वाथ (८७९.) अश्वत्थादियोगः (यो. र. । रक्तपित्ता.)
बनावें। अश्वत्थपत्रागरसात्पडशो
___यह क्वाथ जोर्ण पा, अरुचि, श्वास, कास बोलोऽथ तस्माद्विगुणं मधु स्यात् । और शोथको नष्ट करता है।
इत्यकारादिकषाय-प्रकरणम्
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३६६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[अकारादि
अथाकारादिचूर्णप्रकरणम् (८८००) अग्निचूर्णम् ___ (८८०२) अङ्कोटमूलकल्कः (ग. नि. । परि. चूर्णा. ३)
(अकोलमूलकल्कः) सौवर्चलं सैन्धवं च विडं क्षारः समांशकम् ।। ७. यो. त. । त. ६४; शा. सं.। ख. २ अ. दिगुणा च कणा शुण्ठी जीरकं षड्गुणं तथा।। ५. ग. नि. । अतिसारा.२ ; व. से.। अतिसारा. ; अग्निचूर्णकमेतच्च वातमन्दाग्निवारणम् ॥
___यो. र. ; भा. प्र. म. ख. २ । अतिसारा.) सश्चल (काला नमक, ), सेंधा नमक, बिड
अङ्कोटमूलकल्क: सक्षौद्रस्तण्डुलाम्बुना पीतः। नमक और जवाखार १-१ भाग तथा पीपल और सोंठ २-२ भाग एवं जीरा ६ भाग लेकर चूर्ण
सेतुरिव सरिद्वेगं झटिति निरुध्यादतीसारम् ।। बनावें।
___ अंकोटकी जड़के कल्कको शहदमें मिलाकर यह चूर्ण वातज अग्निमांद्यको नष्ट करता है। चावलोके धोवनके साथ पीनेसे अत्यन्त वेगवान (मात्रा-१॥-२ माषा। अनुपान-उष्ण |
अतिसार भी बन्द हो जाता है। जल।)
(८८०३) अङ्कोटमूलयोगः (८८०१) अग्निमुखचूर्णम्
(व. से. । अतिसारा.) (ग. नि. । चूर्णा. ३)
| अङ्कोटमूलं तक्रेण यतिसारहरं परम् । त्रिकटुत्रिफलाभागाः पञ्च षट् च पृथक् चव्य
माहिषेण तु तक्रेण पाठाप तथैव च ॥ चित्रकयोः।
अंकोटकी जड़का चूर्ण तक्रके साथ सेवन विडसैन्धव सौवर्चलमेकद्वित्रीणि कर्षाणि ॥ ।
करनेसे या पाठाके पत्तोंका चूर्ण भैसके तक्रके साथ इति घूर्ण ग्रहणीगदगुदजोदरगुल्मशूलघ्नम् ।।
पोनेसे अतिसार रोग नष्ट हो जाता है । जनयति च जातवेदसमल्पभुजामेतदप्रिमुखम् ॥ (८८०४) अजमोदादिचूर्णम् (१) ___ त्रिकुटा और त्रिफला ५-५ कर्ष, चव्य और (हा. सं. । स्था. ३ अ. २९) चित्रकमूल ६-६ कर्ष, बिड नमक १ कर्ष (१। अजमोदा सठी दन्ती विडङ्गं कुष्ठतुम्बुरु । तोला) सेंधानमक २ कर्ष और संचल (काला नमक) त्रिफला चित्रकं चैव शुण्ठी कर्कटभृङ्गिका ॥ ३ कर्ष (३॥ तोले ) लेकर चूर्ण बनावें। त्रिता च मुराहा च पुष्कर वृद्धदारुकम् । ___ यह चूर्ण ग्रहणी विकार, गुदरोग ( अर्श), | तथाम्लवेतसं चैव तिन्तिडीकरसस्तथा ॥ उदररोग, गुल्म और शूलको नष्ट तथा अग्निकी | समं तु मातुलुङ्गेन विभाव्यमेकतः कृतम् । वृद्धि करता है।
त्रिभागरिजुसंयुक्तं घृतेन च परिप्लुतम् ॥ (मात्रा-१॥-२ माशा । अनुपान उष्ण जल ।) निहन्ति वातगुल्मं च सशुलमुदरं तथा ॥
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चूणेप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
३९७
अजमोद, कचूर, दन्तीमूल, बायविडंग, कूठ, अजमोद १० तोले तथा हल्दी, बिड नमक, तुम्बरु, हरें, बहेड़ा, आमला, चीतामूल, सोंठ, काकंडा- कत्था, उद्भिद् लवण, हर्र, पोखरमूल, भरंगी, इला. सिंगी, निसोत देवदारु, पोखरमूल, विधारामूल यची, सुहागा, कायफल, बासा ( अडूसा )की जड़,
और अम्लवेत १-१ भाग एवं घीमें भुनी हुई अपामार्ग (चिरचिटे )की जड़, जवाखार और हींग ३ भाग लेकर चूर्ण बनावें और उसे इमलीके सज्जीखार ५-५ तोले एवं आकके फूल २० तोले फलोंके रस तथा जम्बीरी नीबूके रसमें १-१ दिन लेकर चूर्ण बनावें और उसे घृतकुमारीके रसमें खरल करके सुरक्षित रखें।
खरल करके हाण्डीमें बन्द करके इस प्रकार भस्म इसे धीमें मिलाकर सेवन करनेसे वातज गुल्म | करें कि धूम्र बोहर न निकले । तदनन्तर पीसकर और शूलयुक्त उदररोग नष्ट होता है । (मात्रा-१॥ कपड़छन करके रखें। माशा ।)
इसे शहदके साथ चाटनेसे ५ प्रकारकी खांसी (८८०५) अजमोदादिचूर्णम् (२) नष्ट होती है। (यो. र. । स्त्री.)
( मात्रा-४ रत्तीसे १ माशा तक । ) अजमोदा नागरं च पिप्पली जीरकं समम् । (८८०७) अजमोदाचं चूर्णम् तच्चूर्ण सगुडक्षौद्र गर्भिण्या वह्निदीपनम् ॥ (ग. नि. । परि. चूर्णा. ३) ____ अजमोद, सोंठ, पीपल और जीरा समान भाग साजमोदलवणा हरीतकी लेकर चूर्ण बनावें।
शृङ्गवेरसहिता च पिप्पली। इसे गुड़ और शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे | मधेन तक्रेण तथोष्णवारिणा गर्भिणीकी अग्नि दीप्त होती है।
चूर्णपानमुदराग्निदीपनम् ॥ (मात्रा--१॥-२ माशे।)
अजमोद, सेंधा नमक, हर्र, सोंठ और पीपल (८८०६) अजमोदादिभस्मचूर्णम् समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। (ग. नि. । चूर्णा. ३)
इसे मद्य, तक्र या उष्ण जलके साथ सेवन अजमोदा पलद्वन्द्वं हरिद्रा च बिडं तथा। करनेसे जठराग्नि दीप्त होती है। सारस्तु खादिरस्यापि औद्भिदं लवणं तथा ॥ (मात्रा-२-३ माशे।) अभया पौष्करं भार्गी एला टङ्कणकट्रफलम् । (८८०८) अजाज्यादियोगः वृषापामार्गयोर्मूलं क्षारयुग्मं तथैव च ॥ ( ग. नि. । श्वयध्व. ३३; वृ. मा. । शोथा.) प्रत्येकं पलमानि रविपुष्पचतुष्पलम् । अजाजिपाठाघनपञ्चकोलचूर्णीकृत्य ततो दद्यात्कुमारीरसभावनाम् ॥ ___ व्याघ्रीरजन्यः सुखतोयपीताः । सान्तधूमं घटे दग्ध्वा चूर्णितं वस्त्रगालितम् ।। शोफ त्रिदोषं चिरजं प्रद्धं मधुना लीढमेतद्धि पञ्चकासनिवारणम ॥ । निघ्नन्ति भूनिम्बमहौषधैर्वा ॥
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भारत-भैषण्य - रत्नाकरः
जीरा, पाठा, नागरमोथा, पीपल, पीपलामूल, चव, चीतामूल, सोंठ, कटेली और हल्दी समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
(८८११) अभयादिचूर्णम् (ग. नि. । ग्रहण्य. ३ )
अभयाऽतिविषा शुण्ठी वचा मुस्तं कणाशिफा ।
इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे प्रवृद्ध बिडादिलवणं वह्निः कुष्ठं दारु समांशतः ॥ पुराना त्रिदोषज शोथ, नष्ट होता है । सुश्लक्ष्णचूर्णमेतेषां भक्षितं तप्तवारिणा । श्लेष्मजां ग्रहण हन्ति पक्वामामां सदाऽचिरात् ॥
( मात्रा - ३ - ४ माशे । )
अथवा चिरायते और सटका चूर्ण या क्वाथ सेवन करने से भी शोथ नष्ट हो जाता है।
t
(८८०९) अतिविषादिचूर्णम्
( यो. र. । रक्तातिसारा. ) सक्षौद्रातिविषां पिट्वा वत्सकस्य फलं त्वचम् । तण्डुलोदकसंयुक्तं पेयं पित्तातिसारनुत् ||
अतीस, इन्द्रजौ और कुड़ेकी छाल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे शहद में मिलाकर चावलोंके धोवनके साथ सेवन करने से पित्तातिसार नष्ट होता है।
( मात्रा -- १ - १ ॥ माशा । ) (८८१०) अभया दिकल्कः ( वृ. मा. | हिक्काश्वासा. )
।
अभयानागरकल्कं पुष्करयावशुकमरिचकल्कं वा तोयेनोष्णेन पिवेद्धिकी श्वासी च तच्छान्त्यै
।।
हर्र और सोंठ समान भाग लेकर पानीके साथ पीसकर कल्क बनायें अथवा इसी प्रकार पोखरमूल, जवाखार और काली मिर्चका कल्क बनावें ।
ये प्रयोग हिचकी और श्वासको नष्ट करते हैं । ( मात्रा - ३-४ माशे । ) अनुपान - उष्ण जल ।
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[ अकारादि
हर्र, अतीस, सोंठ, बच, नागरमोथा, पीपलामूल, बिडलवण, सामुद्र लवण, उद्भिद लवण, चीता, कूठ और देवदारु समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे पक्व और साम कफज ग्रहणी रोगका शीघ्र ही नाश हो है।
( मात्रा - २ - ३ माशे । ) (८८१२) अभयायोगः (१) ( यो. र. । रक्तपित्ता ; वृ. मा. । रक्तपित्ता. ) अभयामधुसंयुक्ता पाचनी दीपनी मता ।
मार्ण रक्तपित्तं च हन्ति शूलातिसारजित् ।। शहद के साथ मिश्रित हर्रका चूर्ण पाचन, दीपन, कफ और रकपित्त नाशक एवं शूल और अतिसारको नष्ट करनेवाला होता है ।
(८८१३) अभयायोगः (२) (ग.नि. । अजीर्णा. ५ )
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विदयते यस्य तुक्तमात्रं दह्येत हृल्कोटगलं च यस्य । द्राक्षासिता माक्षिकसम्प्रयुक्तां
sai वै स सुखं लभेत ॥
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चूर्णप्रकरणम् ]
यदि आहार विदग्ध हो जाता हो ( विदधाजीर्ण हो ) तथा भोजनके पश्चात् हृदय, कोठ और गले में दाह होती हो तो हर्र मुनक्का और मिश्रीको एकत्र पीसकर शहद में मिलाकर चाटना चाहिये ।
परिशिष्ट
(८८१४) अमृतादिकल्कः
( भा. प्र. 1 म. खं. २ )
अमृताकटुकायष्टी कल्कसमाक्षिकम् । गोमूत्र जयति सर्फ वातशोणितम् || धात्री हरिद्रामुस्तानां कषायं वा समाक्षिकम् ॥
गिलोय, कुटकी, मुलैठी और सोंठ समान भाग मिलित ( ३ माशे ) लेकर पानीके साथ बारीक पीसलें 1 इसे शहद में मिलाकर गोमूत्र के साथ सेवन करने से कफयुक्त वातरक्तका नाश होता है ।
आमला, हलदी और नागरमोथा, इनका क्वाथ शहद डालकर पीने से भी वातरक्तका नाश होता है।
(८८१५) अमृतादिचूर्णम्
(वै. म. र. | पटल ३ ) अमृताविडङ्गरास्ना दारुवराव्योष चूर्णसमतुलितम् सहसा सर्वान् कामान् सितारजः परिहरेत्सम धु॥
गिलोय, बायबिडंग, रास्ना, देवदार, हर्र, बहेड़ा, आमला, सोंठ, काली मिर्च, पीपल और खांड समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे शहद में मिलाकर चाटने से समस्त प्रकारके कास शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।
( मात्रा - ३ माशा । )
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३६६
(८८१६) अर्कपत्रादिलवणम् (ग. नि. । अर्शो ४ ) लवणं ह्यर्कपत्राणि करीरतरुजान्यपि । मद्यैरम्लैश्च युक्तानि युक्तया क्षारं दहेत्पुटे || सुखोदकेन मधैर्वा रसैरम्लैश्च पाययेत् । पीतः क्षारो वयं हन्याद्वाताशस्यचिरेण तु ॥
सेंधा नमक, आक के पत्ते और करीरके फल (टेंट) समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर nusha भरें और इसमें मद्य तथा कांजी डालकर उसका मुख बन्द करदें | तत्पश्चात् उसे चूल्हे पर चढ़ाकर इतना पकायें कि सब चीजोंकी भस्म हो जाय । तदनन्तर उसके स्वांगशीतल होने पर हाण्डीसे औषधको निकालकर पीस लें ।
इसे उष्ण जल, मद्य, मांसरस अथवा कांजी के साथ पीने से वाता का शीघ्र ही नाश हो जाता है।
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( मात्रा - १ - १ ॥ माशा | ) (८८१७) अर्कमूलादियोगः
( रा. मा. । विषा. २८ ) अर्कमूलत्वचा चूर्ण पीतं शीतेन वारिणा । धरकाश्वमाराभ्यां गोनाशविषनाशनम् ।।
आककी जड़ चूर्णको शीतल जल के साथ पीनेसे धतूरे, कनेर और गोनास (सर्प विशेष ) का विष नष्ट हो जाता है ।
(८८१८) अलम्बुषादिचूर्णम्
(व. से. । उदरा. ) अलम्बुषाभत्रं चूर्ण पीतं काञ्जिकसंयुतम् । दौर्गन्ध्यनाशयत्याशु दृष्टं मेदोभवं नृणाम् ॥
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४००
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[अकारादि ।
गोरखमुंडीके चूर्णको कांजीमें मिलाकर पीनेसे (८८२१) अश्वगन्धायोगः (१) मेद बढ़ जानेसे आनेवाली शरीरकी दुर्गन्ध शीघ्र
(वै. म. र. । पट. ४) ही नष्ट हो जाती है।
अश्वगन्धारजो लिह्याद्गुडन हविषाऽथवा । (मात्रा-३ से ६ माशे तक।) पयसा वा पिबेच्छस्त्रक्षतक्षीणो रसायनम् ॥ (८८१९) अलम्बुषाद्यं चूर्णम् ___ शस्त्राघातसे क्षीण हुवे मनुष्यको असगंधका (ग. नि. । चूर्णा. ३)
| चूर्ण गुड़ या घीमें मिलाकर खिलाना अथवा दूधके अलम्बुषाऽमृता शुण्ठी चित्रकं त्रिफला कणा। साथ पिलाना चाहिये। यावन्त्येतानि चूर्णानि वृद्धदारु च तत्समम् ।। ।
(मात्रा-३ से ६ माशा।) सूक्ष्मचूर्णाकृतान् सर्वान् स्वेच्छाहारविहारिणः। (८८२२) अश्वगन्धायोगः (२) पिबतस्तक्रमदिरा काझिकोष्णोदकैर्जयेत् ॥ (ग. नि. ; वृ. मा. । रसायना.; आमवातं यकृत्प्लीहं पाण्डुरोगं विचिकाम् ।
यो. त. । त. ७९) काङ्कायनेनोक्तमिदं चूर्णमग्निकरं परम् ॥ पीताऽश्वगन्धा पयसार्धमास
गोरखमुंडी, गिलोय, सोंठ, चीतामूल, हर्र, घृतेन तैलेन सुखाम्बुना वा । बहेड़ा, आमला और पीपल १-१ भाग तथा विधा- कृशस्य पुष्टि वपुषो विधत्त रामूल ८ भाग लेकर चूर्ण बनावें।
बालस्य सस्यस्य यथा सुदृष्टिः॥ इसे तक, मदिरा, कांजी या उष्ण जलके साथ असगंधके चूर्णको १५ दिन तक दूध, घी पीनेसे आमवात, यकृत्वृद्धि, प्लीहा, पाण्डु और विधू- या तेल अथवा उष्ण जलके साथ पीनेसे कृश मनुचिकाका नाश होता तथा अग्नि दीप्त होती है। ष्यका शरीर इस प्रकार पुष्ट हो जाता है जिस ____ यह चूर्ण श्री कांकायन नामक वैद्य द्वारा प्रकार वृष्टि होनेसे अनाजके पौदे बढ़ जाते हैं। आविष्कृत है।
___(८८२३) अश्वगन्धायोगः (३) (मात्रा-२-३ माशा)
(यो. त. । त. ७९ ; रा. मा. । रसायना. ३२) (८८२०) अवल्गुजादिचूर्णम् ।
| शिशिरे योऽश्वगन्धायाः कन्दचूर्ण पलोन्मितम् । (व. से | कुष्टा.)
| मासमत्ति समध्वाज्यं स वृद्धोऽपि युवा भवेत् ।। अवल्गुनादीजकप पिवेदुष्णेन वारिणा। शिशिर ऋतु ( माघ, फाल्गुन ) में असगंधकी भोजनं क्षीरसर्पिभ्यां सर्वकुष्टहरं परम् ॥ जड़का चूर्ण शहद और घीके साथ सेवन करनेसे
बाबचीका १। तोला चूर्ण नित्य उष्ण जलके ! १ मासमें वृद्ध पुरुष भी युवाके समान हो जाता है। साथ सेवन करने तथा दूध और घृतयुक्त आहार मात्रा-५ तोला। खानेसे समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट होते हैं।
(व्यवहारिक मात्रा-१ तोला)
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४०१
चूर्णप्रकरणम् ]
परिशिष्ट (८८२४) अश्वगन्धाधमुद्वर्तनम् श्रृंगकी भस्मको शहद में मिलाकर तकके साथ (ग. नि. । राजय. ९)
| पीनेसे समस्त प्रमेह नष्ट हो जाते हैं।
( बीजोंका चूर्ण ६ मासे । शृंग भन्म.२ रत्ती ) अश्वगन्धा ह्यपामार्गों नाकुली गौरसर्षपाः।। तिला बिल्वं च कल्क: स्यात्क्षये तूद्वर्तनं परम् ।।
(८८२७) असीतकचूर्णम् .
(भा. प्र. । म. खं. २ आमवाता.) असगन्ध, अपामार्ग (चिरचिटा ), नाकुली
असीतकं मागधिका गुडूची कन्द, सफेद सरसों, तिल और बेल छाल समान ।
श्यामा वराही गजकर्णशुण्ठी। भाग लेकर चूर्ण बनावें और उसे पानीके साथ ।
समधृताः कृत्स्नमिदन्तु चूर्ण पीसलें ।
पिबेत्तदुष्णोदकमण्डयूषैः ॥ क्षय रोगीके शरीर पर इसकी मालिश करना । तन रसैर्मद्यमस्तुभिर्वा हितकारक है।
यथेष्टचेष्टस्य च भोजनस्य । (८८२५) अश्वत्थफलादियोगः अपवाहुकं गृध्रसि खअवातं (व. से. । वाजीकरणा.)
विश्वाचितूनीप्रतितूनिरोगान् ॥ अश्वत्थ फलशुङ्गाग्रमूलं त्वग्भिः शृतं पयः ।
जङ्घामवातादितवातरक्तं पीत्वा सशर्करश्चैव वृद्धोऽपि तरुणायते ॥
कटिग्रहं गुल्मगुदामयश्च ।
प्रकोष्ठकं पाण्डुगरोग्रशोफं अश्वत्थ ( पीपल वृक्ष )के फल, अंकुर और |
हन्यादुरुस्तम्भमुदीर्णवेगम् ॥ छालसे सिद्ध दूधमें खांड मिलाकर सेवन करनेसे
___ कोयल (अपराजिता), पोपल, गिलोय, काली वृद्ध पुरुष भी तरुणके समान हो जाता है।
| निसोत, बाराहीकन्द, गजकर्ण पलाशकी छाल (८८२६) अश्वत्थबीजादियोगः
और सांठ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। ( वृ. यो. त. । त. १०३ ; वै. म. र. । पटल ७) इसे उष्ा जल, मण्ड, यूष, तक्र, मांसरस, अश्वत्थबीजं हरिणस्य शृङ्गं
मद्य, या मस्तुके साथ पीनेसे अपबाहुक, गृध्रसि, तक्रेण पीतं मधुना सहैव । खञ्जवात, विश्वाची, तूनी, प्रतितूनी, जंघा गत प्रमेहजालं सहसैव हन्याद
आमवात, अर्दित, वातरक्त, कटिग्रह, गुल्म, गुदशाननं दाशरथी यथैव ॥
| रोग, पाण्डु, गरविष, उग्र शोथ और प्रबल उरुस्तअश्वत्थ (पीपल )के बोजोंका चूर्ण और हरिण ! म्भका नाश होता है।
इत्यकारादिचूर्णप्रकरणम्
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४०२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ अकारादि
अथाकारादिगुटिकाप्रकरणम् (८८२८) अग्निमुखवटी
दारुहल्दीकी जड़, अंकोलकी जड़, पाठाकी (ग. नि. । गुटिका. ४) जड़, कुड़ेकी छाल, सेंमलका गोंद, शाल वृक्षका हिङ्गुभागो भवेदेको वचा च द्विगुणा भवेत् । | गोंद, धायके फूल, लोध और अनारकी छाल; इनका त्रयो भागा विडङ्गानां सैन्धवं च चतुर्गुणम ॥ समान भाग चूर्ण लेकर सबको चावलोंके धोवनके अजाज्याः पश्चभागाश्च पड़भागाश्चैव नाग- साथ खरल करके १।-१। तोलेके वटक बना लें।
रात ।। . इनमें से १-१ वटक प्रातः काल शहदमें मरिचस्य सप्त भागाः पिप्पली चाष्टभागिका ॥ मिलाकर चावलोंके धोवनके साथ पीनेसे समस्त कुष्ठं नवगुणं प्रोक्तं दशभागा हरीतकी। प्रकारके भयंकर अतिसार नष्ट होते हैं । एकादश तथा बहेर्भागा द्वादश दीप्यकात् ।। । ( व्य. मा.-३-४ माशे । ) गुटेन द्विगुणेनैव गुटिकां कारयेदबुधः।। ततो वातरुजार्तानां नित्यमेव प्रयोजयेत् ॥
(८८३०) अङ्कोटवटकः (२) हींग १ भाग, बच २ भाग, बायबिडंग ३
| (भा. प्र. म. खं. २ ; व. से. । अतिसा ) भाग, सेंधा नमक, ४ भाग, जीरा ५ भाग, सेठ पलमकोटमूलस्य पाठां दावीश्च तत्समाम् । ६ भाग, काली मिर्च ७ भाग, पीपल ८ भाग, कूठ | पिष्ट्वा तण्डुलतोयेन वटकानक्षसम्मितान् । ९ भाग, हर्र १० भाग, चीतामूल ११ भाग और छायाशुष्कांश्च तान्कुर्यात्तेष्वेकं तण्डुलाम्बुना। अजवायन १२ भाग लेकर चूर्ण बनावें तथा उसे पेषयित्वा प्रदद्यात्तं पानाय गदिने भिषक् ।। सबसे दो गुने गुड़ में मिलाकर [६-६ माशेको) वातपित्तकफोद्भतान्द्वन्द्वजान्सानिपातिकान् । गोलियां बनालें।
हन्यात्सर्वानतीसारान्वटकोऽयं प्रयोजितः ॥ इनके सेवनसे वातव्याधिका नाश होता है। अंकोलकी जड़, पाठा और दारुहल्दी; इनके (८८२९) अङ्कोटवटकः (१) ५-५ तोले चूर्णको एकत्र मिलाकर चावलों के
(च. द. ; व. से. । अतिसारा.) धोवनमें खरल करके ११-१। तोलेके वटक बनाकर सदाय॑ङ्कोटपाठानां मूलं त्वक्कुटजस्य च ।। छायामें सुखा लें। शाल्मलीशालनियांसं धातकीलोध्रदाडिमम् ॥ | इनमें से १ १ वटक चावलोंके धोवन में पिष्वाक्षसम्मितान्कृत्वा वटकांस्तण्डुलाम्धुना। | मिलाकर नित्य सेवन करनेसे वातज, पित्तज, कफज, तेनैवमधुसंयुक्तानेकै कान्मातरुत्थितः ।। द्वन्द्वज, और सान्निपातिक अतिसारका नाश पिबेदत्ययमापनो विविसर्गण मानवः।।
होता है। अकोटवटको नाम्ना सर्वातीसारनाशनः ॥
(व्यव. मा. ३-४ माशे।)
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परिशिष्ट
गुटिकाप्रकरणम् ]
अङ्कोटवटिका (व. से. । अतिसारा. ) ( अँकोट वटक सं. ८८३० देखिये। केवल इतना अन्तर है कि इसमें चावलोंके धोवनके स्थानमें मुलैठीका क्वाथ प्रयुक्त होता है | ) (८८३१) अजमोदाथो मोदकः (ग. नि. 1 शोथा. ३३ ) अजमोदा कणा विश्वा मरिचं दारु चित्रकः । fasi पिप्पलीमूलं शतपुष्पा च सैन्धवम् ॥ एकैकशमितं सर्वं पञ्चभागा हरीतकी । दृद्धिर्दशांशका जीर्णो गुडः स्याजिनभागतः । मोदकः क्रियतेऽमीभिर्भुक्त्वा योग्नु जलं पिबेत् उष्णं तस्य विनश्यन्ति सशोथाश्राममारुताः ।
।
अजमोद, पीपल, सोंठ, काली मिर्च, देवदारु, चीतामूल, बायबिडंग, पीपलामूल, सोया और सेंधा नमक १-१ भाग, हर्र ५ भाग, वृद्धि १० भाग और पुराना गुड़ २४ भाग लेकर यथाविधि (६-६ माके) मोदक बना लें ।
इन्हें उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे शोध और आमवातका नाश होता है ।
(८८३२) अतिविषादिगुटी
( आर्य औषध )
अतीस १ तो. करञ्जकी भूनी हुई गिरी १ तो. तथा गिलोयका त आधा तो. लेकर सबको एकत्र खरल करके कुड़ेकी छालके घन ( गाढ़ा किये हुवे क्वाथ) में मिलाकर ६-६ रत्तीकी गोलियां बनालें ।
1
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४०३
यह गोली बालके के ज्वर, अतिसारादिमें उपयोगी हैं। जब बार बार उल्टी होती हो और पेटमें कोई चीज न रुकती हो तो यह गुटिका विशेष लाभ पहुंचाती है। सुबह शाम १-१ गोली दूधके साथ दें 1
(८८३३) अभयाद्या गुटिका (ग.नि. । गु. ४ )
हरीतकीनां कुडवं त्र्यूषणाच पलत्रयम् । द्वेपले पिप्पलीमूलात्तथा चैषाम्लवेतसात् ॥ afari चित्रकं धान्यमजाज हपुषामपि । यवानीं चाजमोदं च तिन्तडीकं च दाडिमम् ॥ सौवर्चलं कारवीं च पलिकानि प्रदापयेत् । त्वगेला पत्र कनकं कर्षीशं चात्रदापयेत् ।। गुडस्य च पलान्यत्र दापयेद्विगुणानि च । अभया गुटिका ह्येषा मन्दस्याग्नेस्तु दीपिनी ॥ - वातशोणितमानाहं गुल्मं पञ्चविधं तथा । चतुरो ग्रहणीदोषानशींसिषविधानि च ॥ कासं क्षयविबन्धं च शूलं हज्जठराश्रयम् । भक्षिता नाशयत्येषा भोज्या निर्यन्त्रणा स्मृता ॥
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हरे २० तोले, त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल) १५ तोले, पीपलामूल १० तोले, अम्लवेत १० तोले तथा चव, चित्रक मूल, धनिया, जीरा, हपुषां, अजवायन, अजमोद, तिन्तड़ीक, अनारदाना, संचल (कालानमक), और काला जीरा ५-५ तोले; दालचीनी, इलायची, तेजपात और धतूरा ११-१| तोला एवं गुड़ सबसे दो गुना लेकर गुड़में समस्त ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर (९-९ माशे की ) गोलियां बना लें ।
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४०४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ अकारादि
इसके सेवनसे अग्नि दीप्त होती तथा वातरक्त, हर्र १० तोले, पीपलामूल २।। तोले, अमलवेत अफारा, ५ प्रकारका गुल्म, ४ प्रकारकी ग्रहणी, २|| तोले तथा सोंठ, मिर्च, पीपल, तितडीक, ६ प्रकारकी अर्श, कास, क्षय, विबंध, हृदयशूल - वाष्पिका (कलौंजी), अजवायन, अजमोद, काला और उदरशूल; इनका नाश होता है। . जीरा, कचूर, पोखरमूल, चव, संचल (काला नमक),
इस पर किसी विशेष परहेज की आवश्यकता बिड नमक, हपुषा, जीरा, धनिया, खट्टे बेर और नहीं है।
| अनारदाना आधा आधा कर्ष ( प्रत्येक ७॥ माशे) (८८३४) अभयाद्या वटकाः (१)
| एवं दालचीनी, इलायची, तेजपात और नागकेसर
१।-१। तोला लेकर चूर्ण बनावें तथा उसे सबसे (ग. नि. । गुटि. ४)
दो गुने गुड़में मिलाकर (९-९ माशे के) मोदक अभयागुडपिप्पल्यः समांशा वटकीकृताः। ! बना लें। भक्षिता हन्त्यतीसारमशःपाण्डामयज्वरान् ॥
__इनके सेवनसे गुल्म, आनाह, उदररोग, प्लीहा, हर और पीपलका चूर्ण तथा गुड़ समान
पाण्डु, अर्श, ग्रहणी रोग, कास, अतिसार, पार्श्व भाग लेकर (४-४ माशे के ) मोदक बना लें ।
पीडा, श्वासरोग, कामला, मदात्यय, वमन, प्रमेह, ये मोदक अतिसार, अर्थ, पाण्डु और ज्वरको हिचकी, पीनस, पित्त विकार, शूल और ज्वरका नष्ट करते हैं।
नाश होता तथा अग्नि दीस होती है। (८८३५) अभयाद्या वटकाः (२)
(८८३६) अमृतप्रभागुटिका (ग. नि. । गुटिका. ४)
(यो. चि. म. | अ. ३) हरीतकीनां द्विपलं ग्रन्थिकं वेतसं तथा । पलाधैं चार्धकांशा व्योषवृक्षाम्लवाष्पिकाः॥ । आकल्लकं सैन्धववद्विशुण्ठि यवानी चाजमोदा च कारवीशठिपौष्करम् ।। धायूपणं दिव्यसमा सपथ्या । चव्यसौवर्चलबिडं हपुषाजाजिधान्यकम् ॥ रसेन भाव्यं फलपूरकेण कोलाम्लं दाडिमं चेति चातुर्जातं च कार्षिकम्। मन्दानिलत्वे ह्यमृतप्रभेयम् ॥ चूर्ण गुडद्विगुणितं कृत्वा तु वटकान्भजेत् ॥ कासे गलामये श्वासे प्रतिश्याये च पीनसे । गुल्मानाहोदरप्लीहपाण्डीग्रहणीगदान् । अपस्मारे तथोन्मादे सन्निपाते तथा हिता ।। कासातीसारपाङतिश्वासरोगं च कामलाम् ॥ अकरकरा, सेंधा नमक, चीतामूल, सोंठ, मदात्ययवमीमेहहिक्कापीनसपित्तजान् । आमला, काली मिर्च, लौंग और हर्र; इनके समान शूलं ज्वरं च शमयेदग्निदीप्तिकराः परम् ॥ भाग चूर्णको एकत्र मिलाकर बिजौरके रसकी कृष्णात्रिस्मृतियुक्तस्तु नित्यं जीवेत्समाः शतम् ॥। भावना देकर (४-४ रत्ती की ) गोलियां बनावें ।
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गुटिकाप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४०५
इनके सेवनसे कास, गलरोग, श्वास, प्रति २ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर श्याय, पीनस, अपस्मार, उन्माद और सन्निपानका पकावें। जब २ सेर शेष रह जाय तो उसमें नाश होता है।
अतीस, देवदारु, सोया, धनिया, गंधतृण, सोंठ, (८८३७) अमृतवटक: मुलैठी, इन्द्रायगकी जड़, पीपल, सोठ, मिर्च, पीपल,
(हा. सं. । स्था. ३ अ. ८) बायबिडंग, नागरमोथा, हपुषाकेफल, मूर्वा, हल्दी, धात्रीफलानां रसप्रस्थमेकं
कुटकी, धमासा, पोखरमूल, इन्द्रजौ, कूठ, अजमोद ___ प्रस्थं तथा चेक्षुरसं विदध्यात् ।
और तुलसी--पत्र; इनका चूर्ण ५-५ तोले एवं प्रस्थं तु कूष्माण्डरसपदिष्ट
पुराना गुड़ सबसे दो गुना मिलाकर पुनः पकावें मार्क रसं प्रस्थाविमिश्रमेकम् ॥
और गाढ़ा हो जाने पर अग्निसे नीचे उतार कर एकीकृतं मन्दहुताशनेन
घीके हाथसे गोलियां बना लें। पाच्यं भवेत्पादमशेषमेति ।
(मात्रा-६ माशे) विमिश्रयेदौषधसमेतत्
इसके सेवनसे कामला, अर्श, पाण्डु, ज्वर, शोथ, पलैकमात्रं विपचेच्च पश्चात् ।।
शोप, ग्रहणीरोग, बिद्रवि और कुष्ठको नाश होता है । भृङ्गी सुराहं शतपुष्पधान्यं
( अनुपान----उष्ण जल ।) सुगन्धशुण्ठीमधुकं विशाला ।
(८८३८) अशनादियोगः सपिप्पलीकं सकटुत्रयं च
(व. से. । बालरोगा.) विडङ्गमुस्ता हपुषा फलानि ॥
अशनस्य तु पुष्पाणि इलक्ष्णचूर्णानि कारयेत् । मृर्वा हरिद्रा कटुरोहिणीनां
गुटिकां कारयेद्वैवस्तां च भक्तस्य वारिणा । दुरालभापौष्करवत्सकानाम् ।
एतां पश्चात्तके दद्याद्वालेषु मतिमान्भिषक कुष्ठाजमोदा सुरसादलानि चूर्ण स्वमीषां विनियोजनीयम् ॥
असना वृक्षके फूलोंको बारीक पीसकर चावगुडं पुराणं द्विगुणं तु मध्ये
लोंके धोवनसे खरल करके गोलियां बना लें । घृतेन चोक्तं वटिकां विवन्ध्येत् ।
इनके सेवन से बालकोंका 'पश्चात रुज" भक्षणाजयति कामलार्श
नामक रोग नष्ट हो जाता है। पाण्डुरोगमतिदारुणज्वरान् ।।
१-बालकोंकी गुदामें एक विशेष प्रकारका शोफशोषग्रहणी विजन्नति
व्रण होता है जिसका आकार जोक (जलौका) के विद्रधीन हरति कुष्ठमेहकान् ॥ पेटके समान और रंग लाल होता है तथा उसमें
आमलेका रस २ सेर, ईखका रस २ सेर, दाह होती है और बालकको ज्वर आ जाता है, कुम्हड़े (पेठे) का रस २ सेर और आकका रस | उसे 'पश्चात रुज' कहते हैं ।
इत्यकारादिगुटिकाप्रकरणम्
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४०६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ अकारादि
अथाकारादिगुग्गुलुप्रकरणम्
अयोगुग्गुलः (व. से. । शूला.)
प्रयोग संख्या २४२२ " त्रिफला गुग्गुलुः " । देखिये।
इत्यकारादिगुग्गुलुपकरणम्
अथाकारायवलेहप्रकरणम् अगस्त्य हरीतक्यवलेहः तस्योपरि पिवेत् क्षीरं भोजनं च ततः परम् । (च. द. कासा. ११; वृ. मा. । राजयक्ष्मा. ; र. |
राजयक्ष्मी लभेत् सौख्यं पाण्डुकामलकान् र. कासा. ; हा. सं. स्था. ३ अ. ९; वृ. यो..
जयेत् ॥ त.। त. ६७)
| अतीसारो विनश्येत्तु बले नागबलो भवेत् ।। प्र. सं. ३०१८ " दशमूल हरीतकी " नं. १ सेर गिलोयको पत्थरपर पीसकर ८ सेर १ देखिये।
पानीमें पका और २ सेर रहने पर छान लें। ___ वृ. यो. त. में काव्य द्रव्योंमें जवासा, गिलोय, फिर १०० हर्रोको आठ गुने पानीमें पकावें और पाठा और रास्ना अधिक हैं।
चौथा भाग रहने पर छान लें। इसी प्रकार ६।
सेर कुड़ेकी छालको ३२ सेर पानीमें पकायें और (८८३९) अमृतप्राशावलेहः
८ सेर रहने पर छान लें । तपश्चात् ये तीनों ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ९) क्याथ और २ सेर शतावरका रस एकत्र मिलाकर शतमूलीरसः प्रस्थं गुडूचीकल्कमस्थकम् ।
पुनः पकावें । जब कर छीको लगने लगे तो उसमें हरीतकी शतं चान्यत् कुटजस्य त्वचस्तुलाम् ।।
५०० नग पीपल का चूर्ण, १०० आमलोंका निःक्वाथ्यं च पृथक्त्वेन पूतांश्चैकत्र मिश्रयेत्।
चूर्ण, एवं दालचीनी, इलायची, चीतामूल, कचूर, दावर्वीप्रलेपनं दृष्ट्वा कृष्णानां शतपश्चकम् ।।
द्राक्ष (मुनक्का), कूठ, शिलाजीत, शिलाभेद ( पाषाशतं चामलकीचूर्णं त्वगेला चित्रकं सठी।
णभेद ) और तालमूली (मूसली); इनका चूर्ण १। द्राक्षा कुष्ठं शिलाजिच्च शिलाभेदस्त तालकम। १। तोला मिलाकर ठंडा करके सुरक्षित रक्खें । योज्यं तत्राक्षमानेन भक्षयेत् सितसर्पिषा ॥ इसे यथोचित मात्रानुसार घी और खांड के
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अवलेहमकरणम् ]
परिशिष्ट
४०७
(वक्ष्यमाणानि
चात
साथ खाकर ऊपरसे दूध पीना और फिर ( समय --- यूषणकुष्ठयमानि द्राक्षा सैला सजीरकद्वितया । पर ) भोजन करना चाहिये।
सुरदारुसिन्धुसविडं सौवर्चलरोमकं च सामुद्रम्। इसके सेवनसे राजयक्ष्मा, पाण्डु, कामला, पलसम्मितानि कृत्वा श्लक्ष्णवदापयेन्मतिमान् ।। और अतिसारका नाश होता तथा बलवृद्धि होती है।। आलोडय धान्यराशी (मात्रा-१ से २ तोले तक ।)
___सप्ताहांस्त्रीन्न्यसेच कृतरक्षः।
| उद्धृत्य तदनुसिद्धं सुतिथिमुहूर्ते तथा सुनक्षत्रे ॥ अमृतभल्लातकावलेहः
| त्वक्पत्रैलाकेसरकर्पूरलवङ्गजातिचूर्णेन । (भा. प्र. । म. खं. २)
सुरभीकृतं च नरः खादेट्रिपलोन्मितं पिण्डम् ।। प्र. सं. १८६ देखिये । उसमें तीसरे श्लोक | अत्यर्थोष्णविवर्जी तपितश्च पिवेत्सरां यथेम।
| अमृतादमृताख्योऽयं रसोनपिण्डः पराशरेणोक्तः।। "शरावमात्रकं सर्पिग्धं स्यादाढकं तथा।। हतपतितच्युतभग्नसन्धिसितां प्रस्थमितां दद्यात्प्रस्थाई माक्षिक
विभुक्तास्थिभग्नदेहानाम् ।
क्षिपेत् ।। " | अस्मात्परं नराणां न ह्यस्ति भेषजं वाऽन्यत् ।। यह पोठ छूट गया है।
बलवर्णवह्निजननं स्मृतिमेधाबुद्धिवर्धनं धन्यम् । अर्थात् उसमें आधासेर घी, ४ सेर दूध, १
शमयति सर्वविकाराशतशोऽन्यभैषजैरजितान्॥ सेर खांड और आधासेर शहद भी डालना चाहिये। ___छिला और कूटा हुवा ल्हसन ६। सेर, छिले (८८४०) अमृतरसोनपिण्डः
और कुटे हुवे काले तिल ३ सेर १० तोले, तक
९ सेर ३० तोले ( १८ सेर ६० तोले ), चुक्र (वृ. मा. । आमा.)
(शुक्त) १। सेर (२॥ सेर), गुड़ १। सेर, अदरक क्षुण्णं रसोनपलशत
( पिसा हुआ) १। सेर, बिजौरे नीबूका रस १॥ मसिततिलानां पलानि पश्चाशत् । सेर ( २॥ सेर ), तिल तेल २॥ सेर, घी २।। सेर घृतलिप्तभाजनस्थे
तथा सोया, गजपीपल, अनारदाना, वृक्षाम्ल तक्रेण समेन तत्कुर्यात् ।। (तितडीक ), धायके फूल, नागरमोथा, सोंठ, काली विंशतिपलानि चुक्रा
मिर्च, पीपल, कूट, अजवायन, मुनक्का, इलायची, त्सुण्डाईकमातुलुङ्गमेतावत् । जीरा, काला जीरा, देवदारु, सेंधानमक, बिड नमक, तिलतैलानि च ताव
संचल ( काला नमक ) रोमक लवण, और सामुद्र त्तावन्त्येवात्र सर्पिषो दद्यात् ॥ लवण; इनका चूर्ण ५-५ तोले लेकर सबको एकत्र शतपुष्पा गजपिप्पलि
मिलाकर अच्छी तरह आलोडित करके घृतसे चिकने दाडिमक्षाम्लधातकीमुस्तम् ।। किये हुवे मटके में भरकर उसका मुख बन्द करके
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४०८
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
अनाजके ढेर में दबा दें । एवं ३ सप्ताह पश्चात् निकालकर उसे दालचीनी, तेजपात, इलायची, केसर, कपूर, लौंग और जावित्री के चूर्ण से सुगन्धित करके १० तोलेकी मात्रानुसार सेवन करें ।
( व्यवहारिक मात्रा १ - १॥ तोला । ) इसके सेवन कालमें अधिक गरम पदार्थोंसे परहेज करें और प्यास लगने पर मद्य पियें ।
यह बल, वर्ण, अग्नि, बुद्धि, मेधा और स्मृति को बढ़ाता है तथा अन्य सैकड़ों औषधे से आराम न होने वाले बहुतसे रोगोंको नष्ट कर देता है ।
[ अकारादि
जातीफलं केशरं च त्वक् पत्रं वंशरोचना । एलाद्वयं कुङ्कुमं च गुडूचीसच्वमेव च ॥ एतेषां कर्षमादाय मधुनः कुडवत्रयम् । कृत्वा लेहं ततो मात्रां यथायोग्यां प्रदापयेत् ॥ धातुक्षयं तथा वातं ध्वजभङ्गं नियच्छति । | अनेनाशीतित्रर्षोऽपि युवेव च वृषायते ॥
-
हड्डी पर चोट लगी हो, हड्डी अपने स्थान से उतर गई हो या टूट गई हो तो उसके लिये इससे बढ़कर अन्य कोई उपाय नहीं है ।
|
असगंध, गोखरु, शतावर, विदारीकन्द, बीजबन्द, मुलैठी, तालमखाना, कौंच के बीज, सेंभलकी मूसली, विधारेके बीज, लौंग, जावित्री, जायफल, नागकेसर, दालचीनी, तेजपात, बंसलोचन, छोटी और बड़ी इलायची, केसर और गिलोयका सत ११-१| तोला लेकर सबके बारीक चूर्ण को ६० तोला ( १२० तोला ) शहद में मिला लें ।
(८८४१) अश्वगन्धाद्यवलेहः
(ग. नि. । परि. अवलेहा. ५ ) अश्वगन्धा गोक्षुरश्च शतवीर्या विदारिका । बलबीजानि यष्ट्या बीजानीक्षुरकस्य च ॥ कपिकच्छोश्च बीजानि शाल्मलीमूलकं तथा । वृद्धदारुकवीजानि लवङ्गं जातिपत्रिका |
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इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करने से धातुक्षय, वातरोग, और ध्वज भंगका नाश होता है । इसके सेवन से वृद्ध भी युवाके समान हो है।
( मात्रा - १ से २ तोले तक 1 ) अश्वगन्धापाकः
रस प्रकरण में देखिये |
इत्यकाराचवलेह - प्रकरणम्
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घृतप्रकरणम् ]
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परिशिष्ट
अथाकारादिघृतप्रकरणम्
(८८४२) अगस्तिपुष्पघृतम्
( भा. प्र. म. खं. २ । वातरक्ता. ) अगस्तिपुष्पचूर्णन माहिषं जनयेदधि । तदुत्यनवनीतेन देहजं स्फुटनं जयेत् ॥
अगस्ति ( अगथियाके ) फूलों का चूर्ण भैंसके दूध में डालकर उसका दही जमावें और मक्खन निकाल लें ।
यह घृत स्फुटित वातरक्तको नष्ट करता है । ( इसे खाना तथा लगाना चाहिये )
(८८४३) अगस्त्यघृतम् ( हा. सं. 1 स्था. ३ अ. ६ ) पिप्पली चित्रकं चैव चव्यं पिप्पलिमूलकम् । अजमोदा गजकणा क्षारौ द्वौ लवणानि च ॥ एतान्यर्धपली मात्रा प्रस्थं चापि तुषोदकम् । प्रस्थमत्र घृतं देयं प्रस्थं चैवार्द्रकं रसम ॥ भृङ्गराजरसप्रस्थं प्रस्थं तु मातुलिङ्गकम् । दधिमस्थद्वयं क्षिप्त्वा द्वौ प्रस्थौ नवनीतकम् ॥ पचेन्मृद्वनिना तावद्घृतं यावत्मदृश्यते । अवतार्य प्रयोक्तव्यं पाने भोजनकेपि वा ।। मन्दाग्नीनां च गुल्मानामजीर्णानां विनाशनम् ग्रन्ध्यर्बुदापचीकासथूलश्वासनिवारणम् ॥ ग्रहणीश्वयधूनां च कमीणां गुदकीलकम् । अर्शसां वस्तिशूलानां हृद्रोगाणां विशेषतः ॥ नाशयेच्चाशु योगाच्च भास्करातिमिरं यथा । मन्दाग्रीन नाशयत्येव कृतं चेति ह्यगस्तिना ।।
।
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૪૨
कल्क — पीपल, चीतामूल, चव, पीपलामूल, अजमोद, गजपीपल, जवाखार, सज्जीखार, पांचों नमक; प्रत्येक औषधि २॥ - २॥ तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर पानीके साथ पीस लें ।
द्रवपदार्थ - कांजी २ सेर, अदरक का रस २ सेर, भंगरेका रस २ सेर, बिजौरे नीबूका रस २ सेर और दही ४ सेर |
४ सेर नवनीत (मक्खन) और २ सेर घी तथा उपरोक्त कल्क और द्रव पदार्थोंको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो पोको छान लें 1
इसे पिलाने या भोजनके साथ खिलानेसे अग्निमांध, गुल्म, अजीर्ण, ग्रन्थि, अपची, अर्बुद, कास, शूल, स्वास, ग्रहणी रोग, शोध, कृमि, अर्श, बस्ति शूल और विशेषत: हृद्रोगका नाश होता है । यह घृत अग्निमांद्य अवश्य ही नष्ट कर देता है ।
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( मात्रा - १ से २ तोले तक )
(८८४४) अनन्तायं घृतम् ( व. से. । रक्तपित्ता. )
अनन्ताशारिवापद्मं सलोभ्रं नीलमुत्पलम् । कल्कैरेतैः पचेत्सर्पिः सक्षीरं नावनं परम् ।। रक्तपित्तं प्रशमयेनारीणां प्रदरं तथा । हस्तपादाङ्गदादेषु ज्वरे रक्ते तथोर्ध्वगे ॥ वासाघृतं शताव सिद्धं वा परमं हितम् ||
कल्क - अनन्तमूल, सारिवा, कमल, लोध
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४१०
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[ अकारादि और नीलोत्पल, इनका चूर्ण (४-४ तोले) लेकर यह घृत कास, श्वास, हिचकी और हृद्रोगको सबको पानीके साथ पीस लें।
नष्ट करता है। (२ सेर) घीमें यह कल्क और (८ सेर) दूध (मात्रा-१ तोला।) मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें। जब पानी (दूध) (८८४७) अमृतं घृतम् जल जाय तो घीको छान लें।
(ग. नि. । गरविषा. ८ ; व. से. । विषा. ; ___इसकी नस्य देनेसे रक्तपित्तका नाश होता है।
धन्व. । विषा.) यह घृत स्त्रियोंके प्रदर और हाथ पैरों तथा अपामार्गस्य बीजानि शिरीषस्य तथैव च । शरीरकी दाह एवं वरमें भी उपयोगी है।
द्वे मेदे काकमाची' च गवां मूत्रेण पेषयेत् ।। ऊर्ध्वगत रक्तपित्त में वासास्वरस या शतावरके |
सपिरेतेषु संसिद्धं विषसंशमनं परम् । स्वरससे बनाया हुवा घृत भी विशेष उपयोगी है। अमृतं नाम विख्यातमपि सञ्जीवयेन्मृतम् ।। (८८४५) अभयादिघृतम् (१) ___अपामार्ग (चिरचिटे) के बीज, सिरसके बीज,
(ग. नि. | हृद्रोगा. २७) मेदा, महामेदा और मकोय (४-४ तोले) लेकर पञ्चाशदभयाकल्क सौवर्चलपलद्वयम् । सबको गोमूत्रके साथ पीस लें। घृतप्रस्थं जले सिद्धं हृद्रोगश्वासगुल्मनुत् ।। (२ सेर) धीमें उपरोक्त कल्क (और ८ सेर २ सेर धीमें पचास हरौंका चूर्ण (कल्क), |
| पानी) मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी १० लोले संचल (काला नमक) और ८ सेर पानी
जल जाए तो घीको छान लें। मिलाकर पानी जलने तक पकावें और फिर छान लें।
| यह घृत अत्यन्त विषनाशक है । इससे मृत इसे पीनेसे हृद्रोग, श्वास और गुल्मका नाश प्रायः रोगी भी बच जाता है। होता है।
। (८८४८) अमृतलतादिघृतम् ( मात्रा--१ से २ तोले तक।)
(भा. प्र. । म. खं. २ पाण्डवा. ; व. से. । पाण्ड्या. ; (८८४६) अभयादिघृतम् (२) (ग. नि. । हिक्कावासा.)
घृ. यो. त. । त. ७४) । कासे श्वासे च हिक्कायां हृद्रोगे चापि पूजितम्। .
अमृतारसकल्कं प्रसाधितं तुरगबिषः सर्पिः।
क्षीरचतुर्गुणमेतद्वितरेच हलीमकातेभ्यः ॥ घृतं पुराणं संसिद्धमभयाबिडरामः ॥ कल्क-हर्र, बिडनमक और हींग (५-५
गिलोयके कल्क और स्वरस तथा दूधसे तोले) लेकर पानीके साथ पीस लें।
| सिद्ध भैंसका घृत पीनेसे हलीमक रोग नष्ट होता है। (१२० तोले) पुराने धीमें यह कल्क और
(गिलोयका कल्क १० तोला; गिलोयका (६ सेर) पानी मिलाकर मन्दाग्नि पर पकायें । जब
| स्वरस १ सेर, घी १ सेर, दूध ४ सेर ।) पानी जल जाए तो धोको छान लें।
१ श्वेते द्वे काकमाची चेति पाठान्तरम् ।
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घृतमकरणम् ]
परिशिष्ट
४११
(८८४९) अमृताद्यं घृतम् रक्तपित्त, श्वास, खांसी, क्षतक्षीणता, दाह और
शोथका नाश होता है। (व. से. । राजयक्ष्मा.)
(मात्रा-१ से २ तोले तक।) गुडूची शारिवा ह्रस्वा पञ्चमूली बला पम् । (८८५०) अशोकघृतम् समूलपत्रशाखन्तु पृथग्दशपलानि च ।।
(वा. भ. । चि. अ. । ३ कासा. ) जलद्रोणे विपक्तव्यं यावत्पादावशेषितम् । अशोकवीजक्षवकजन्तुघ्नाअनपद्मकैः । पिप्पली चन्दनं लोभ्रं हीवेरोशीरपर्पटम् ।। सविडेश्च घृतं सिद्धं तच्चूगै वा घृतप्लुतम् ।। पाठाभूनिम्बयष्टया त्रायन्ती नीलमुत्पलम् । लिह्यात्पयश्चानु पिबेदाज कासादिपीडितः ॥ मुस्तकेन्द्रयवाः शुण्ठी कटुकं सदुरालभम् ॥ । अशोकके बीज, काली सरसों, वायबिडंग, त्वकपत्रं दशमूलश्च कल्कैरर्धपलभिषक् । सुरमा, पाक और बिड नमक; इनके कल्कसे सिद्ध अजाक्षीरेण तत्तल्यं घृतपस्थं विपाचयेत् ॥ वृत पीने या इनके चूर्णको घीके साथ चाटकर हन्ति यक्ष्माणमत्युग्रं रक्तपित्तं त्रिदोषजम् ।। ऊपरसे बकरीका दूध पोनेसे कासका नाश होता है। श्वासकासक्षतक्षीणदाहशोथरुजापहम् ॥ (कल्क १० तोले, घो १ सेर, पानी ४ सेर ।) क्वाथ-गिलोय, सारिवा, लघु पंचमूल
(मात्रा-१ से २ तोले तक ।) (शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, कटेली, बड़ी कटेली, गोखरू),
(८८५१) अश्वगन्धावृतम् (१) बला (खरैटी)का पंचांग और बासा (अडूसा) का
(ग. नि. । वन्ध्या . ५) पंचांग ५०-५० तोले लेकर सबको कूट कर ३२ अश्वगन्धाकपायेण मृदाग्निपरिसाधितम् । सेर पानीमें पकायें और ८ सेर रहने पर छान लें। : ऋतुकाले पिवेद्वन्ध्या गर्भसन्धानकं घृतम् ॥
२ सेर असगन्धको कूटकर १६ सेर पानीमें कल्क–पीपल, सफेद चन्दन, लोध, सुगन्ध
। पकायें जब ४ सेर पानी शेष रहे तो छानकर उसमें बाला, खस, पित्तपापड़ा, पाटा, चिरायता, मुलैठी, ।
। १ सेर घी मिलाकर पकायें। त्रायमाणा, नीलोत्पल. नागरमोथा, इन्द्रजौ, सोंठ,
ऋतु कालमें इसे सेवन करनेसे बन्ध्या स्त्री कुटकी, धमासा, दालचीनी, तेजपात और दशमूल;
गर्भ धारण करलेती है। प्रत्येकका चूर्ण २॥२॥ तोले लेकर सबको पानी ।
(मात्रा-२ से ४ तोले तक।) के साथ पीस लें।
(८८५२) अश्वगन्धावृतम् (२) २ सेर घीमें उपरोक्त क्वाथ, कल्क और २ (ग. नि. । वातव्या. १९; च. द. ; भै. र. ; वृ. सेर बकरीका दूध मिलाकर मंदाग्नि पर पकावें । मा. : व. से. । वातव्या.; यो. चि. म. । अ. ५) जब पानी जल जाए तो धीको छान लें।
अश्वगन्धाकषायेण कल्कैः क्षीरचतुर्गुणम् । इसके सेवनसे अत्युन राजयक्ष्मा, त्रिदोषज घृतं पक्वं तु वातघ्नं वृष्यं मांसविवर्धनम् ॥
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४१२
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
असगन्धके क्वाथ और कल्क तथा चार गुने दूधके साथ सिद्ध घृत वातव्याधिको नष्ट करता है। तथा इसके सेवन से वीर्य और मांसकी वृद्धि होती है।
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( असगन्धका क्वाथ ८ सेर, असगन्धका कल्क २० तोले, दूध ८ सेर, घी २ सेर । ) ( मात्रा - २ से ४ तोले तक । ) (८८५३) अष्टाङ्गमङ्गलघृतम् (अष्टाङ्गघृतम् )
( व. से. ; धन्व. ; २. २. | वाजीकरणा . ) मण्डूकीं सवचां सशङ्ख
कुसुमां सब्रह्मसौवर्चलाम् |
Trisanaat शतावर -
तां ब्राह्मीं गुडूचीं तथा ॥ पिष्ट्रांशैः पलिकैरिमाति
विधिवद्रव्याणि मस्रावणम् ।
सर्पिषस्थमथान
पयसां युक्तिं पचेत्पाचनम् ।
नाम्नाष्टाङ्गमिदं विदेहरचितं ख्यातं पिवेो घृतम् । लोकस्य सहस्रमेक दिवसेनैवाखिलं धारयेत् ॥
अक्षीणाप्रतिहीनवाणि मधुस्पष्टाभदायी सदा । oth शुक्रबृहस्पतीसम
नृणां पूज्यश्च नित्यं सदा ॥
कल्क- मण्डूकपर्णी, बच, शंखपुष्पी, ब्रह्मसुवर्चा (हुलहुल), चौंटली, वेतवती (सफेद कोयल), शतावर, ब्राह्मी, और गिलोय ५-५ तोले लेकर पानी के साथ पीस लें ।
इत्यकारादिघृतप्रकरणम्
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२ सेर घीमें यह कल्क और ८ सेर दूध मिलाकर मंदाग्नि पर पकावें । जब दूध जल जाय तो घीको छान लें।
इसे सेवन करने से स्मरणशक्ति इतनी तीव्र हो जाती है कि १ दिनमें हजार इलोक याद हो जाते हैं एवं वाणी मधुर और स्पष्ट होती है ।
-10++--
[ अकारादि
अथाकारादि-तैलप्रकरणम्
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(८८५४) अगुर्वादितैलम्
काबृहतीशा लिपर्णीपृश्निपर्णीमाषपर्णीमुद्रपर्णी
( च. सं. । चि. अ. ३ ज्वरा. )
| गोक्षुरकैरण्डशोभा जनकवरुणार्क चिरिबिखतिव
अगुरुकुष्ठतगरपत्रनलदशैलेयकध्यामकहरे- कशटी पुष्करमूलगण्डीरोरुबूकप राक्षीवाश्मन्तणुकास्थौणेयकक्षेमिकैलावराङ्गदलपुरतमालपत्र- कशिग्रुमातुलुङ्गमूषकपर्णीपीलुपर्णी तिलपर्णीमेषभूतीकरोहिषसरलसलकी देवदार्वग्निमन्यबिल्व- शृङ्गीहिंस्रादन्तशठैरावतकभल्लातकास्फोतककास्यांना काश्मर्यपलापुनर्नवावृश्चीरकण्टकारि ण्डीर। त्मगुप्ताका काण्डैपी काकरअधान्यकाजमोदा
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तैलप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
।
लकपर्णा सक्षवक फणिज्जक भूस्तृणशृङ्गवेर पिप्पलीसर्षपाश्वगन्धारास्नारुहावरोहाबलातिबलागुडू - चीशतपुष्पाशी तवल्लीनाकुलीगन्धनाकुली श्वेताज्योतिष्मतीचित्रकाध्यण्डाम्लाङ्गेरी वदरकुलस्थमापाणामेवं विधानामन्येषां चोष्णवीर्याणां यथालाभमौषधानां कषायङ्कारयेत्तेन कषायेण तेषामेव च कल्केन सुरासौवीरकतुषोदकमैरेयमेदकदधिमण्डारनालकट्वरप्रतिविनीनेन तैलपात्रं विपाचयेत् । तेन सुखोष्णेन तैलेनोष्णाभिप्रायेण ज्वरितमभ्ययात् । तथा शीतज्वरः प्रशाम्यति तैरेव चौषधैर्लक्ष्णपिटैः सुखोष्णै प्रदेहं कारयेत् || एतेषामेव च सुखोष्णकाथमवगाहनपरिषेकार्थे प्रयुञ्जीत शीतज्वरप्रशमा६ मिति ॥
पृथ्वीका सुमुखसुरस कर कण्डीर कुठेरककालमा- | ( जटामांसी), दन्तशठ ( चांगेरी या जम्बीरी नीबू ), ऐरावत (नारंगी), भिलावा, आस्फोता, काण्डीर ( अपामार्ग या करेला ), कौंच, काकमाची, शरमूल, करंज, धनिया, अजमोद, छोटी इलायची, सुमुख, सुरस, कुठेरक, काल, माल, पर्णास, फणिज्झक (ये सातों तुलसीके भेद हैं), करक ( बड़ा करेला ), कण्डीर (छोटा करेला), क्षवक (राई), भूतॄण, सोंठ, पीपल, सरसों, असगन्ध, रास्ना, रहा ( बन्दा ), अवरोह ( बटादिके अंकुर), खरैटी, कंघी, गिलोय, सोया, दूर्वा, नाकुली, गन्धनाकुली, श्वेत अपरा मालकंगनी, चीता, भुई आमला, खट्टी चांगेरी, तिल, बेर कुलथी और उड़द तथा और भी इसी प्रकार के उष्ण द्रव्य लेकर उनके क्वाथ और उन्हींके कल्क तथा सुरा, सौवीरक, (तुष रहित जौ की कांजी ), तुषोदक (तुष युक्त जौकी कांजी), मैरेय (मध्वासव), मेदक (सुराभेद), दधिमंड (मस्तु), आरनाल (कांजी) और कदर (सारयुक्त तक ); इनके साथ ८ सेर तेल पकावें ।
1
|
अगर, कूठ, तगर, तालीसपत्र, खस, शैलेय ( भूरी छरीला ), ध्यामक तृण (कत्तृण), रेणुका, थुनेर, हल्दी, इलायची, प्रियंगुके पत्ते, गूगल, तमालपत्र ( तेजपात ), अजवायन, रोहिषतृण, सरल वृक्ष (चीरका काष्ट), सल्लकी ( सालई वृक्ष), देवदारु, अरणी, बेलछाल, श्योनाक (अरल) की छाल, खम्भारीकी छाल, पाढलकी छाल, पुनर्नवामूल, वृश्चीर (सफेद सांठ), कटेली, बड़ी कटेली, शालपर्णी पृष्ठपर्णी, भाषपर्णी, मुद्गपर्णी, गोखरु, अण्डमल, सहजनेकी छाल, बरनेकी छाल, आक के पत्ते, चिःबिल्व (करंजभेद), लोध, कचुर, पोखरमूल, गण्डीर (स्नुही ), अरण्डमूल, पत्तूर, सहंजना, अश्मन्तक, सहंजना, बिजौरे की जड़, मण्डूकपर्णी, पीलुपर्णी (मूर्वा), तिलपर्णी (लाल चन्दन ), मेढासिंगी, हिंस्रा
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४१३
( क्वाथ और सुरा इत्यादि द्रव पदार्थों में से प्रत्येक तेलके बराबर लेना चाहिये और कल्कके लिये सब ओषधियां समान भाग मिलित १ सेर लेनी चाहियें । )
शीतज्वर में इस तेलका मन्दोष्ण करके इसकी मालिश करनेसे ज्वर शान्त हो जाता है ।
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इन्हीं औषधियोंको बारीक पीसकर मन्दोष्ण करके लेप करने और इन्होंके मन्दोष्ण क्वाथमें अवगाहन करने तथा उसका परिषेक करनेसे भी शीतज्वर में लाभ होता है ।
।
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४१४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[अकारादि
-
-
(८८५५) अङ्कोलवीजतैलम् इसे शिरमें लगानेसे बालोंका पीलापन, पलित (वै. म. र.। पटल १६)
| और इन्द्रलुप्त नष्ट होकर बाल काले और लम्बे
होते हैं। अङ्कोलबीजं द्वात्रिंशत्पलं सम्यक् पचेजले ।
(८८५६) अजयपालतैलम् द्विद्रोणे पादशेषे तु तैलं तत्पतितं क्षिपेत् ।। प्रस्थोन्मितं वराक्वाथे काललोहसमन्वितम् ।
__( न. म. । न. :) कालारिमेदसम्भूतक्वाथपस्थेन योजयेत् ॥ कर्षजेपाळजं तैलं द्विपलं जातिसम्भवम् । इन्द्रवल्लीबकुलयोः कुमारीभृङ्गराजयोः ।
ः कमारीभङ्गराजयोः। सम्मेल्य मर्दनं शिश्ने नाडीनां दोषनाशनम् ।। चिश्चामलकयोश्चापि मालतीनालिकेरयोः ॥ १० तोले चमेलीके तेल में ?। तोला जमालस्वरसं केतकाच्चैव कल्कं दत्त्वा पचेत्पुनः। गोटेका तेल मिलाकर इ-द्री पर (सीवन नथा श्रम बिभीतकास्थि सम्भूतं कुडवं, कुडवं तथा ॥ | भाग छोड़कर) मालिश करनेसे नसोंका दृषित पानी गणादेलादिकाच्चैव, तदभ्यङ्गे सुयोजितम् । निकल जाता है। केशानां दीर्घ कृष्णत्वं करोति च निहन्ति च ॥ (८८५७) अजामृत्रादितैलम् पीतत्वं पिञ्जरत्वं च पलितं चेन्द्रलप्तकम् ।
( वा. भ । उ. अ. १८. कर्णशूला ) अश्विभ्यां निर्मितं श्रेष्ठं केशजन्मनि पूजितम् ॥
| अजाविमूत्रवंशत्वक्सिद्धं तलं च पृरणम् । ३२ सेर ( ६४ सेर ) पानीमें २ सेर अंकोल सिद्धं वा सार्षपं तैलं हिङ्गतुम्बरुनागरैः ।। ( ढेरा वृक्ष ) के बीज कूटकर पकावें। जब १६
| बांसकी छालके कल्क और बकरी तथा भेड़के सेर पानी शेष रह जाय तो छानकर उसमें २ सेर मूत्रके साथ सिद्ध तैल कानमें डालनेसे कर्ण-शूलका अंकोलका तेल, २ सेर त्रिफलाका क्वाथ, १ सेर
नाश होता है। तीक्ष्ण लोह, २ सेर अगर और अरिमेदका क्वाथ, !
(कल्क-१० तोले, मूत्र ४ सेर, सरसोंका तथा २-२ सेर इन्द्रायनका रस, मौलसिरीकी छाल
तेल १ सेर) ( या पत्तों)का रस, घृतकुमारीका रस, भंगरेका रस, इमलीके पत्तोंका रस, आमलेका रस, मालती
हींग, तुम्बह और सोंटके कल्क तथा इन्हीं के
क्वाथ के साथ सिद्ध सरसोंका तेल भी कर्णशूलको (चमेली)के पत्तोंका रस, नारियलका रस (पानी) और केतकीके पत्तोंका रस एवं निम्न लिखित कल्क
| नष्ट करता है। मिलाकर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाए तो (८८५८) अतिविषादितलम् तेलको छान लें।
(वा. भ. । 3. अ. १८ कर्णरोगा.) कल्क--बहेडेकी गुठलीकी मजा (मींग) पक्वं प्रतिविषाहिङ्गुमिशित्वकस्वर्जिकोषणैः। २० तोले एवं एलादि गणका चूर्ण २० तोले। ! ससुक्तैः पूरणात्तैलं रुक्सानश्रुतिनादनुत् ।।
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तैलपकरणम् ]
- परिशिष्ट
४१५
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-
अतीस, हींग, सौंफ, दालचीनी, सब्जी और (८८६१) अरिमेदाद्यं तैलम् काली मच ; इनके कल्क तथा शुक्त *'चुक्र) के ( भै. र. ; धन्य. । मुखरोगा., च. द. ; यो. र. साथ सिद्ध तैल कानमें डालनेसे कर्णस्राव, और वृ. मा.। मुख. ; शा. ध.। खं. २ अ. ९ ; ग. कर्णनादका नाश होता है।
नि. । तैला. ; यो. त.। त. ६९ (फरक–२० तोले, शुक्त ८ सेर, तेल अरिमेदत्वपलशतमभिनवमापोथ्य २ सेर।)
खण्डशः कृत्वा। (८८५९) अपामार्गमूलतैलम् तोयाढकैश्चतुर्भिनिःकाथ्य चतुर्थशेषेण ॥ (रा. मा. । व्रणा. २५)
काथेन तेन मतिमान् तैलस्या ढकं शनैर्विपचेत् तिलतैलमपामार्गमूलेनाम्भोन्वितेन यत् ।
कल्कैरक्षसमांशैर्मभिष्टालोध्रमधुकानाम् ।। सिद्धं तत्स्वेदितः शस्त्रघातो न कुरुते व्यथाम् ॥
अरिमेदखदिरकटफललाक्षान्यग्रोधमुस्तासूक्ष्मैला१ सेर तिलके तैलमें ४ सेर पानी और १० तोले अपामार्गकी जड़का कल्क मिलाकर पकावें।
कर्पूरागुरुपद्मकलवङ्गकक्कोलजातीफलानाम् ॥ इस तेलसे स्वेदित करनेसे शस्त्राघातमें पीड़ा | पत्तङ्गगारकवराङ्गगजकुसुमघातकानाञ्च । नहीं होती।
सिद्धं भिषग्विदध्यादिदं मुखोत्थेषु रोगेषु ॥ (८८६०) अपामार्गादितैलम् परिशीर्णदन्तविद्रधिशौषिरशीताददन्तहर्षेषु । (धन्व. । शिरोरोगा. ; व. से. ; च. द. ; वृ. | कृमिदन्तदालनचलितादृष्टमांसावशीर्णेषु । मा. । शिरोरोगा.)
मुखदौर्गन्धयेषु कार्य प्रागुक्तेष्वामयेषु तैलमिदम् अपामार्गफलव्योपनिशाक्षवकराम?ः।
___क्वाथ-~अरिमेद (दुर्गंधित खदिर ) की सविडङ्गे धृतं मत्रे तलं नस्यं कृमीन् जयेत ।। छाल ६। सेर लेकर कूटकर ३२ सेर पानीमें पकावें
कल्क-अपामार्ग (चिरचिटे) के बीज, सोंठ, और ८ सेर पानी रहने पर छान लें । काली मिर्च, पीपल, हल्दी, नकछिकनी, हींग और कल्क-मजीठ, लोध, मुलैठी, अरिमेद छाल, बायबिडंग; सबका चूर्ण २॥-२॥ तोले लेकर |
खैर छाल, कायफल, लाख, बड़की छाल, नागरएकत्र मिलाकर पानीके साथ पीस लें।
मोथा, छोटी इलायची, कपूर, अगर, पनाक, लौंग, २ सेर तिलके तेलमें यह कल्क और ८ सेर
कंकोल, जायफल, पतङ्गकी लकड़ी, गेरु, दालचीनी, गोमूत्र मिलाकर पकावें।
नागकेसर और धायके फूल; इनका चूर्ण ११-१॥ इसकी नस्य लेनेसे कृमिजन्य शिरोरोग नष्ट
तोला लेकर सबको एकत्र मिलाकर पानीके साथ होता है।
पीस लें। ___ * शुक्त निर्माण विधि प्रथम भागके परि- ४ सेर तिलके तेलमें उपरोक्त क्वाथ और भाषा प्रकरणमें देखिये।
| कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर पाक करें।
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४१६
[ अकारादि
(८८६३) अलम्बुषाद्यं तैलम् (व. से. । स्त्रीरोगा . ) अलम्बुषा कणाकल्कैः सिद्धं तैलं करोति वनितायाः ।
टि. योग त. में ४-४ सेर गोदुग्ध और पिचुधारणनस्यदानात्कुचद्वयं श्रीफलाकारम् || लाखका रस भी लिखा है । गोरखमुण्डी और पीपल के कल्क से सिद्ध तैलमें रुई भिगोकर स्तनों पर रखने तथा इस तेलकी नस्य लेनेसे स्त्रियोंके स्तन दृढ़ और उन्नत हो जाते हैं।
( इसे मुखमें धारण करना चाहिये )
(८८६२) अर्कलम्
(न. मृ. । त. ६. )
( कल्क २० तोळे, तिल तेल २ सेर, पानी ८ सेर । )
वस्त्र वा अर्कदुग्वेन सप्तवारं विभावयेत् । निरातपे विशोष्याथ नवनीतेन लेपयेत् ॥ afai कारयित्वा तु वह्निना योजयेत्ततः । बर्तितः पतितं तैलं कांस्यपात्रे विनिक्षिपेत् ॥ तत्तैलं पयेच्छ्नेि पत्रैरण्डेन वेष्टयेत् । नाशयेद्धस्तजं दुःखं तथा वै गुदसम्भवम् ॥
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
यह तैल शीर्ण दन्त (दांतों को किरना), दन्त विद्रधि, शौषिर, शीताद, दन्तहर्ष, कृमिदन्त, चालन, दालन, अधिमांस और मुख दार्गन्ध्य आदि रोगोंको नष्ट करता है।
स्वच्छ सफेद वस्त्रको आकके दूध में भिगोकर छाया में सुखावें । इसी प्रकार सात बार आकके दूधमें भिगोवें ओर सुखावें । फिर उसे नवनीत (मक्खन) में तर करके उसकी बत्ती बनालें और उसके एक सिरेको चिमटे आदिसे पकड़कर दूसरे सिरेमें आग लगादें तथा उल्टा लटकादें । उससे जो तेल टपके उसे कांसीके पात्र में एकत्रित करलें । शिश्न पर ( सीवन और अग्र भागको छोड़कर ) यह तैल लगाकर अरण्डका पत्ता बांध दें
1
( इसी प्रकार कई दिन करने से ) इस प्रयोग से हस्तदोष और गुद---व्यभिचार जनित विकारे नष्ट हो जाते हैं।
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(८८६४) अलाबुतैलम् (वै. म. र. | पटल १३ ) कटुकालासिद्धं तैलमभ्यञ्जनाद्भवेत् । योनिदोषहरं नार्या गर्भमुत्पादयेदपि ॥
कड़वी तूंबी से सिद्ध तेलकी योनि पर मालिश करनेसे योनि दोष नष्ट होते और स्त्रियोंको गर्भ धारणकी शक्ति प्राप्त होती है ।
( कड़वी तूंबीका रस ४ सेर, तेल १ सेर, कड़वी तूंचीका कल्क १० तोला | )
(८८६५) अश्वगन्धातैलम् (भा. प्र. म. खं. २ कार्या. ) अश्वगन्धस्य कल्केन क्वाथे तस्मिन्पयस्यपि । सिद्धं तैलं कृशाङ्गामभ्यङ्गादङ्गपुष्टिदम् ||
असगन्धके कल्क, उसीके क्वाथ और दूधके साथ सिद्ध तैलकी मालिश करनेसे कृश शरीर पुष्ट हो जाता है ।
( कल्क १० तोले, क्वाथ २ सेर, दूध २ सेर, तेल १ सेर | )
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तैलप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४१७
(८८६६) अश्वगन्धादितैलम् खामकजडत्वे च तिमिरे च तथाऽर्बुदे ॥ ( भा. प्र. । म. खं. २ शूकदोषा. ; पक्षाघाते तथाऽऽयामे च्युतभग्नास्थिसन्धिषु । च. द. । वृष्या. ६६)
विधेयं पृष्ठभग्नेषु हनुमन्याग्रहे तथा ॥ अश्वगन्धा वरी कुष्ठं मांसी सिंहीफलान्वितम् ।।
स्तम्भकम्पेषु शोफेषु रुजासु विविधामु च । चतुर्गुणेन दुग्धेन तिलतैलं विपाचयेत् ॥
ज्वरे व विषमे गुल्मे तथा मारुतशोणिते ॥
| प्लीहि प्लीहोदरे चैव विद्रधिगृध्रसीषु च । तत्तल मेद्वक्षोजकर्णपालिविवर्द्धनम् ॥ __कल्क-असगन्ध, शतावर, कूठ, जटामांसी
| क्षीणेन्द्रिया नष्टशुका ये चान्ये षण्डका नराः॥ और कटेलीके फल ४-४ तोले लेकर पानीके साथ
भूतोपहतचित्ताश्च शस्यते तेषु नित्यशः । पीस लें।
व्यापत्रयोनी बन्ध्यामु पाययेत तदा भिषक् ॥ २ सेर तिलके तेल में यह कल्क और ८ सेर पुत्रदं परमं प्रोक्तं धन्वन्तरिवचो यथा।
क्वाथ-६। सेर असगन्धको कूटकर ६४ दूध मिलाकर पकावें। इसकी मालिशसे शिश्न, स्तन और कर्णपाली
सेर पानीमें पकायें और ८ सेर रहने पर छान लें ।
___ कल्क-तगर, सोया, नागरमोथा, नखी, की वृद्धि होती है।
दालचीनी, मुलैठी, सोंठ, पृष्ठपर्णी, खरैटीकी जड़, (८८६७) अश्वगन्धाद्यं तैलम् शालपर्णी, रास्ना, पोखरमूल, अजवायन, पुनर्नवा
(ग. नि. । तैला.) (बिसखपरे) की जड़, मजीठ, खस, तेजपात, मूलानि चाश्वगन्धायाः शतं स्यात्स्वण्डशः कृतम् । द्रवन्ती, तुलसी, बच, गोखरु, कमलनाल, हरै द्विद्रोणेऽपां पचेत्काथमष्टभागावशेषितम् ॥ और शतावर; सबका २॥-२॥ तोले चूर्ण लेकर तैलाढकं समावाप्य क्षीरं दद्याच्चतुर्गुणम् । पानीके साथ पीस लें। एतत्समालोडय पचेकल्लांश्चमान् समावपेत् ॥ ८ सेर तैलमें उपरोक्त क्वाथ, कल्क और तगरं शतपुष्पां च मुस्तं व्याघ्रनखं त्वचम् । । ३२ सेर दूध मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब मधुकं शृङ्गवेरं च पृश्निपर्णी बलां स्थिराम् ॥ | पानी जल जाए तो तेलको छान लें। रास्नां पुष्करमूलं च भूतीकं सपुनर्नवम्। इसे बस्ति और नस्य कर्मद्वारा प्रयुक्त करना, मञ्जिष्टां नलदं पत्रं द्रवन्ती सुरसां वचाम् ॥ भोजनके साथ देना और पिलाना चाहिये । तथा श्चदंष्ट्रां च मृणालं च वयस्थां बहुपुत्रिकाम।। इसकी मालिश भी करनी चाहिये।
लक्ष्णपिष्टापलिकान् दया गर्भ विपाचयेत् ।। यह तैल खन्नता, मूकता, जड़ता, तिमिर, तत्सिद्धमविदग्धं च ततः समवतारयेत् । अर्बुद, पक्षाघात, आयाग, अस्थिच्युत होना, अस्थि बस्ती पाने तथाऽभ्यङ्गे नस्यकर्मणि भोजने ॥ भंग, संधि भंग, पृष्टभन्न, हनुग्रह, मन्याग्रह, शरीरस्तम्भ, यत्र यत्र विधातव्यं तन्मे निगदतः शृणु। शरीर कम्प, शोथ, अनेक प्रकारकी पीड़ा, विषम ज्वर,
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ अकारादि
गुल्म, वातरक्त, प्लीहोदर, विद्रधि, गृध्रसि, इन्द्रियोंकी गिरे । इस तेलके कानमें जानेसे कर्ण पीला शीघ्रही क्षीणता, शुक्रक्षय, नपुंस्कता, भूतोन्माद, योनिरोग बन्द हो जाती है।
और बन्ध्यत्व आदि रोगोंको नष्ट करता है । इसके (८८६९) अस्मार्थ सैलम् सेवनसे पुत्र प्राप्ति होती है।
(ग. नि. । तैला. २) (८८६८) अश्वत्थपत्र तैलम्
असन्सारका दिनाचित (वृ. मा. ; व. से. । कर्णरोगा.
त्रिफलया मधुकेन च संयुतम् । वृ. यो. त. । त. १२९) भवति नावनतैलमनुत्तम अश्वत्थपत्रखल्लं वा विधाय बहुपत्रकम् । पलितनेत्रविकाररुजापहम् ॥ तैलाक्तमङ्गारपूर्ण निदध्याच्छ्वणोपरि ॥ असना वृक्षके सारके क्वाथ और त्रिफला यत्तैलं च्यवते तस्मात्खल्लादङ्गारतापितात् । तथा मुलैठीके कल्कके साथ सिद्ध तैलकी नस्य तत्माप्तं श्रवणस्रोतः सद्यो गृह्णाति वेदनाम् ॥ लेनेसे पलित और नेत्रविकार तथा नेत्रपीडाका ___ पीपलके हरे पत्तोंको तेल लगाकर ऊपर नीचे | नाश होता है। रखकर उसका खरलसा बनावें और उसमें अंगारे (असना वृक्षका सार २ सेर, पानी १६ भरकर उसे कानके छिद्रसे जरा ऊपर इस प्रकार सेर, पकाकर ४ सेर रक्खें। तिल तेल १ सेर, रखें कि उससे जो तेल टपके वह कानके भीतर कल्क १० तोले ।)
इत्यकारादितैल-प्रकरणम्
अथाकारादिलेपप्रकरणम् (८८७०) अगस्त्यादिलेपः । (अगथियाके फूलोंका चूर्ण २० तोले, दूध (वृ. मा. । वातरक्ता.)
२ सेर, पानी ८ सेर । मिलाकर पानी जलने तक
पकावें।) अगस्तिपुष्पचूर्णेन साधि नदिपीपयः ।
___ (८८७१) अङ्कोलबीजादिलेपः तदुत्थनवनीताक्तं वातासृक्महवं जयेत् ॥
(वै. म. र. । पट. १७) अगथियाके फूलोंके चूर्णके साथ भैसका दूध, अकोलजातानि बीजानि पिष्ट्वा यः सिद्ध करें और उसका दही जमाकर धी निकाल ले। काकमाचीरसेनैव लिम्पेत ।
यह घी लगानेसे प्रबल वातरक्त नष्ट हो कण्डूतिमिच्छन् विजेतुं मनुष्यस्ता जाता है।
चापि जित्वा सुवर्ण लभेत ॥
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लेपप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४१६
अंकोलके बीजोंको मकोयके रसमें पीसकर अलसी, कलौंजी, मोथा, सरसों, नागरमोथा, लेप करनेसे खाज नष्ट होकर शरीरका वर्ण सुन्दर दारुहल्दी, चिरायता, मूर्वा, आककी जड़ और हो जाता है।
। हल्दी, इनके समान भाग चूर्णको एकत्र मिलाकर (८८७२) अङ्कोल्लकादियोगः पानी में पीसकर शरीर पर लेप करनेते बालकोंका
(ग. नि. । कुष्ठा. ३६) ज्वर नष्ट होता है। अङ्कोलः करवीरमूलमुशलीधत्तरपत्रं जटा ।
(८८७५) अपामार्गपत्रलेपः शिगुर्लाङ्गलिका च कुष्ठतुलसीमूलं च बीजा
(वै. म. र. । पट. १६)
नि च । भृढेरण्डगजार्कपत्रसहितं युक्तं तथा सर्षपै- अपामार्गदकालेपः सद्यो बध्नाति शोणितम् । देहश्वित्रहरं सकाञ्जिकमिदं तक्रेण सञ्चूर्णितम ॥ अतिप्रवृत्तमप्याशु सेतुबन्ध इवोदकम् ॥ ____ अंकोलकी जड़, कनेरकी जड़, मूसली, धतू- अपामार्ग (चिरचिटे)के पत्तोंको पीसकर लेप रेके पत्ते, जटामांसी, सहजनेकी छाल, लांगली करनेसे ( शस्त्राघातादिका) बहता हुवा रक्त तुरन्त (कलियारी) की जड़; कूठ, तुलसीकी जड़, तुल- बन्द हो जाता है। सीके बीज, भंगरा, अरण्डके पत्ते, गजपीपल, आकके पत्ते और सरसों समान भाग लेकर चूर्ण बनावें।
___ (८८७६) अपामार्गभस्मयोगः इसे कांजी या तक्रमें पीसकर लेप करनेसे श्वित्र
(वै. म. र. । पटल ११) नष्ट हो जाता है।
प्रलेपासिध्मयात्यस्तमपामार्गस्य भस्मना । (८८७३) अजापुरीषादियोगः कवलन यथा पाप चन्द्रशेखरभस्मना । (वै. म. र. । पटल १७)
अपामार्ग (चिरचिटे ) की भस्मका लेप कर अजापुरीपवल्मीकमृदश्वत्थजलैः कृतः। नेसे सिम्म नष्ट हो जाता है। प्रलेपः पातयत्याशु चर्मकीलं दशाहतः ।। (८८७७) अपामार्गादिलेपः ___बकरीकी मांगनी और बल्मीक (बांबी)की
( रसे. चि. म. । अ. ९) मिट्टी बराबर बराबर लेकर घोड़ेके मूत्रमें पीसकर लेप करनेसे दश दिनमें चर्मकील नष्ट हो जाती है। अपामागेस्य पञ्चाङ्गं कदलीद्रवसंयतम् । (८८७४) अतस्पादिलेपः
पुटदग्धं च गोमूत्रैर्लेपनं दद्रुनाशनम् ।। (यो. त. । त. ७७ ) ___अपामार्ग (चिरचिटे)के पंचागको केलेके रसके अतसीकारवीमुस्तासर्षपैः सपयोधरैः । । साथ हाण्डीमें बन्द करके भस्म करें। इस भस्मको दारूभूनिम्बमहिरिदाभिश्च लेपकः ॥ गोमूत्रमें पीसकर लेप करनेसे दाद नष्ट हो ज्वरं निहन्ति बालस्य महान्तमपि वासरैः ।। जाता है।
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४२०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ अकारादि
(८८७८) अभयादिलेपः
(८८८१) अर्कक्षारलेपः (यो. र. । व्रणा.)
(वै. र.। अर्शो.) अभयात्रितादन्तीलाङ्गलीमधुसैन्धवैः ।
पञ्चाङ्गमार्कमनले विधिवद्विदग्धं सुषवीपत्रधत्तरकर्णमोटकुठेरिकाः ॥
क्षारं प्रकल्पित बुधैः सममस्य योज्यम् । पृथगेते प्रलेपेन गम्भीरत्रणशोधनाः ॥
सिन्दुरमुत्तममिदं द्वि शिखण्डयुक्तं ___हर, निसोत, दन्तीमूल, लांगली (कलियारी)
लेप्यं निघN गुदजानिसुखपरेण ॥
तेषामुपर्युपरि भक्तदधि प्रलिम्पेकी जड़, सेंधा नमक; शहद, फरेलेके पत्ते, धतू
दुबाटयेद्गतवति त्रितये दिनानाम् । रके पत्ते, बबूल के पत्ते और तुलसी; इनमेंसे प्रत्येकका लेप गहरे घावोंको शुद्ध कर देता है।
एवं पतन्ति गुदजान्यचिरेण नूनं
___ दृष्टं मया बहुश एतदनन्यथास्ति । (८८७९) अमृतादिलेपः
आकके पञ्चांगको जलाकर इसका क्षार निकालें (वै. म. र. । पटल ११) यह क्षार, सिन्दूर और नीलाथोथा समान भाग शीतपित्तेऽमृताराजी कल्कं चाभ्यङ्गलेपनम् ॥ लेफर तीनोंको (पानीके साथ ) बारीक पीसलें और गिलोय और बाबची ( या राई) को पीसकर
| फिर अर्शके मस्सोंको मिट्टीके ठीकरेसे रगड़ कर उन लेप करने और मलनेसे शीतपित्त नष्ट हो
पर यह लेप लगादें तथा ऊपरसे दही भात बांध जाता है।
दें। इसे तीन दिन पश्चात् खोलें ।
इस लेपसे अर्शके मस्से अवश्य गिर जाते (८८८०) अरिष्टकादिलेपः
। हैं। यह प्रयोग अनेक बारका अनुभूत है, कभी (न. मृ. । त. ६)
निष्फल नहीं जाता। त्वचामरिष्टकभवामाकारकरभं तथा ।
(८८८२) अर्कक्षारादियोगः तीक्ष्णे मधे मर्दयित्वा शिश्ने नित्यं प्रलेपयेत् ॥ (वै. म. र. । पटल ११) ताम्बूलं वेष्टयेत्पश्चादिशैकदिवसानयम्। भास्करकाण्डक्षारं स्वरसेनेक्ष्वाकुजेन संलिप्तम् । योगोऽयोनिरतोद्भूतपण्डत्वस्थ विलोपकः॥ हन्यात्कपालकुठं कौवं गिरिं तारकारिरिव ॥
रीठेका छिलका और अकरकरा बराबर बराबर आकके क्षारको कड़वी तूंबीके स्वरसमें पीसलेकर दोनोंको तीक्ष्ण मद्यमें पीसकर शिश्न पर लेप कर लेप करनेसे कपाल कुष्ट नष्ट हो जाता है। करें और ऊपरसे पान बांध दें।
(८८८३) अर्कक्षीरादिलेपः (१) इसी प्रकार २१ दिन लेप करनेसे अयोनि- । (रा. मा. । अधिका. ५) मैथुन (गुद व्यभिचारादि) जनित नपुंस्कता नष्ट | अक्षीरजपापुष्पतैललाक्षारसैः समैः । हो जाती है।
कण्ठमाला शमं याति प्रलिप्ता सप्तभिर्दिनैः ॥
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लेपप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४२१
-
___ आकका दूध, जपापुष्प, तिलका तेल और | श्वेत आककी जड़की छालको कांजी में पीसलाखका रस समान भाग लेकर बारीक पीसकर लेप कर लेप करनेसे बद्धमूल श्लीपद भी नष्ट हो करनेसे सात दिनमें कण्ठमाला नष्ट हो जाती है। | जाता है।
(८८८४) अर्कक्षीरादिलेपः (२) (८८८७) अर्जुनादिलेपः (व. से. । क्षुद्ररोगा. ; शा. सं.।
(हा. सं. । स्था. ३ अ. ५७) ____ खं. ३. अ. ११)
अर्जुनं च कदम्बं च कुष्ठं गैरिकमेव च । अर्कक्षीरहरिद्राभ्यां मर्दयित्वा प्रलेपनात् ।।
लेपनं त्वचो दोषाणां वारणं बालकस्य च ॥ मुखकाये शमं याति चिरकालोद्भवं ध्रुवम् ।। |
____ अर्जुनकी छाल, कदम्बकी छाल, कूठ और हल्दीके चूर्णको आकके दूधमें खरल करके
गेरु समान भाग लेकर सबको एकत्र पीसकर लेप लेप करनेसे मुखकी पुरानी श्यामता भी नष्ट हो
करनेसे बालकोंके त्वम्विकार नष्ट होते हैं।
(८८८८) अशोहरलेपः (१) जाती है।
(र. चि. म.। स्त. ९) (८८८५) अर्कक्षीरादिलेपः (३) गवास्थि सावरं रोधं रसाअनं तथैव च । (न. मृ. । त. ६)
लागलीमूलमध्यानि समभागानि कारयेत् ।। गोघृतमर्कदुग्धं च माक्षिकं समभागतः । एतेन नाभिलेपेन सर्वतश्चतुरङ्गुलात् । कांस्यपात्रे मर्दयित्वा शिश्ने नित्य विमर्दयेत ॥ पतेदांसि सर्वत्र सप्तवारान संशयः ॥ मासैकमर्दनेनैव शैपिल्यं च विनाशयेत् । सिद्धोर्शसां प्रयोगोऽयं न च भयो भवन्ति च ॥ हस्तमैथुनजं दुःखं प्रणश्यति न संशयः॥ गायकी हड्डी, लोध, रसौत और कलियारीकी
गायका घी, आकका दूध और शहद समान | जड़के भीतरका काष्ठ समान भाग लेकर ( पानीके भाग लेकर तीनोंको कांसीके पात्रमें डालकर मर्दन साथ ) बारीक पीस लें और नाभिके चारों ओर करें ।
चार अंगुल दूर तक इसका लेप करें। इस नित्य प्रति शिश्न पर इसकी मालिश करनेसे | प्रयोगसे सात दिन में अर्शके मस्से नष्ट हो जाते १ मासमें शिश्नकी शिथिलता और हस्तव्यभि- हैं और फिर पैदा नहीं होते। अर्शके लिये यह चार जनित रोगोंका नाश हो जाता है । एक सिद्ध प्रयोग है। (८८८६) अर्कादिलेपः
(८८८९) अशोहरलेपः (२)
(ग. नि. । अर्शों. ४ ; र. चि. म. । स्त. ९) (व. से. । इलीपदा.)
उलूकास्थिगृध्रलिण्ड मानुषास्थि तथैव च। निष्पिष्टमारणालेन रूपिकामूलबल्कलम् । एतेन नाभिलेपेन सर्वतश्चतुरङ्गुल्लात् ॥ प्रलेपाच्छ्लीपदं हन्ति बद्धमूलमपि स्थिरम् ॥ | गुदजानि विनश्यन्ति न तु भूयो भवन्ति हि ॥
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४२२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[अकारादि
उल्लक (उल्लू) की हड्डी, गिद्धकी विष्ठा । (८८९२) अशोहरलेपः (५) और मनुष्य की हड्डी समान भाग लेकर (पानीके
(र. र. स. । उ. अ. १५) साथ ) बारीक घिसकर नाभिके चारों ओर चार अंगुल तक लेप करनेसे अर्शके मस्से नष्ट हो जाते
देवदाल्याश्च बीजानि सैन्धवेन सुचूर्णितम् । हैं और फिर कभी नहीं होते।
आरनालेन लेपोऽयं मूलरोगनिकृन्तनः ।।
देवदाली (बिंडाल) के बीज और सेंधा (८८९०) अर्शीहरलेपः (३)
नमक बराबर बराबर लेकर दोनोंको कांजीके साथ (ग. नि. । अर्शो. ४ ; र. चि. म. । स्त. ९) । पीसकर अर्शके मस्सों पर लेप करनेसे वे नष्ट हो
| जाते हैं। शिरीषस्य तु मूलानि लागलक्यास्तथैव च । एतेन नाभिलेपेन सर्वतश्चतुरझुलात् ॥
(८८९३) अर्शीहरलेपः (३) सिद्धोऽर्शसां प्रयोगोऽयं न तु भूयो भवन्ति हि॥ (र. चि. म. । स्त. ९)
सिरसकी जड़ और कलियारीको जड़ समान देवदाल्यास्तु बीजानां पीतायास्तैलमाहरेत् । भाग लेकर दोनोंका ( पानीके साथ ) बारीक पीस- पातालयन्त्रतस्तेन लिप्यन्ते गुदानि ॥ कर नासिके चारों ओर चार अंगुल तक लेप करदें अशांसि वक्राकाराणि वक्रपीडायराणि। इससे अर्श समूल नष्ट हो जाता है और फिर नहीं
एकपक्षमयोगेण तानि सर्वाणि यान्ति च ॥ होता। यह एक सिद्ध प्रयोग है। न भूयः सम्भकत्येव तस्य वंशे कदाचन ।। (८८९१) अर्शीहरलेपः (४) देवदाली (बिंडाल ) के बीजोंका पाताल (र. चि. म. । स्त. ९)
यन्त्रसे तैल निकालें। अर्शके मस्सों पर इसे लगानेशिरीषबीज द्वौ क्षारौ लागलीसैन्धवं तथा ।
से १५ दिनमें वे समूल नष्ट हो जाते हैं और
' फिर कभी उस रोगीको या उसकी सन्तानको स्नुहीक्षीरेण पिष्टानि गर मत्रेण पेषयेत् ॥
( पितृ दोषसे ) नहीं होते। नाभिलेपस्तु कर्तव्यस्त्रिसारं सान्ति सर्वजाः ।। ____ सिरसके बीज, जनाखार, सज्जीखार, कलियारी
(८८९४) अवल्गुजादिलेपः की जड़ और सेंधा नमक; इनके समान भाग (व. से.। कुष्टा.) मिलित बारीक चूर्णको स्नुही (सेहुंड-थूहर ) के कडवमवलगुजबीजं हरितालचतुर्थभागसम्मि. दूधमें खरल करके सुखा लें।
श्रम् । इसे गोमूत्रमें पीसकर नामि पर लेप करनेसे मनःधिलातोलका गुनाफलमनिमूलश्च ॥ तीन बारमें ही सर्व दोषज मस्से नष्ट हो जाते हैं। गोमुत्रेण च पिष्टं सवर्णकरणं परं चित्रे ॥
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लेपप्रकरणम् ]
परिशिष्ट .
४२३
बाब चीके बीज २० तोले, हरताल ५ तोले, (८८९८) अश्वत्थादिलेपः (१) मनसिल ७॥ माशे, चौंटली (गुंजा ) ७॥ माशे
(व. से. । बालरोगा.) और कलियारीकी जड़ ७॥ माशे लेकर सबको अश्वत्थत्वग्दलक्षौद्वैर्मुखपाके प्रलेपनम् । बारीक पीसकर गोमूत्रमें खरल करके लेप करनेमे दायष्टचाभयाजाजीपत्रक्षौरैस्तथापरम् ॥ श्वित्र (सफेद कोढ़) नष्ट हो जाता है।
पीपल वृक्षकी छाल और उसके पत्तोंको पीस(८८९५) अश्वगन्धादिलेपः (१) 'कर शहद में मिलाकर लेप करनेसे मुखपाक नष्ट
(भा. प्र. । म. खं. २) होता है। अश्वगन्धा रुहा लोधं कट्फलं मधुयष्टिका। दारुहल्दी, मुलैठी, हर्र, जीरा और तेजपात; समझा धातकीपुष्पं परमं व्रणरोपणम् ॥ इनके समान भाग मिलित चूर्णको शहद में मिलाकर
___ असगंध, दूर्वा ( दूब घास ), लोध, कायफल, लेप करनेसे भी मुखपाक नष्ट होता है। मुलैठी, मजीठ और धायके फूल; इनका चूर्ण समान (८८९९) अश्वत्थादिलेपः (२) भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर ( शहदमें अथवा । (वृ. मा. । व्रणा.) घीमें मिलाकर ) लेप करनेसे ब्रण भर जाता है। अन्तर्दग्धकुठारको दहन लेपाभिहन्तिव्रणयह उत्तम प्रयोग है।
मश्वत्थस्य विशुद्धवल्कलकृतं चूर्ण तथा गुण्ड(८८९६) अश्वगन्धादिलेपः (२)
नात् ॥ (वै. म. र.। पटल ११)
कुठेरक (तुलसी भेद ) की अन्तर्दग्ध राख और अश्वगन्धारसः स्वल्पपारदेन विमिश्रितः। चीतामूलका चूर्ण समान भाग लेकर एकत्र मिलाकर लिप्तो ममूरिकार्तानां भवेद्रक्षाकरोनणाम् ॥ घाव पर लगानेसे या पीपल वृक्षकी छालका बारीक
असग-धके रसमें जरासा पारा मिलाकर खरल ! 'चूर्ण लगानेसे घाव भर जाता है। करके, मसूरिकाग्रस्त रोगीके शरीर पर लेप करनेसे (८९००) अष्टमङ्गल उद्वर्तनम् वह सुरक्षित रहता है।
(यो. त.। त. ७७) (८८९७) अश्वत्थादिभस्मलेपः शटोकिरातसिद्धार्थमूर्वामुस्तोपकुश्चिकाः ।
(३. मा. | गलगण्डा.) श्वेतः शिरीप इत्येषां छागीक्षीरेण लेपनम ।। अश्वत्थकाण्डं निचुलं गवां दन्तं च दाहयेत् । ज्वरदाहवमीरेकरक्षस्तृण्नाशनं शिशोः ॥ सप्ताहमालसंयुक्तं भस्म हन्त्यपची क्षणात् ॥ कचूर, चिरायता, सफेद सरसों, मूर्वा, नागर
पीपल वृक्षका कार, हि जल और गायका दांत मोथा, कलौंजी और सफेद सिरसको छोल समान समान भाग लेकर हाण्डी में बन्द करके भस्म करें : भाग लेकर चूर्ण करें। इसे बकरीके दूधमें पीसकर इसे कांजीमें मिलाकर सात दिन तक खा रहने दें। । शरीर पर लेप करनेसे बच्चों के ज्वर, दाह, वमन इसका लेप करनेसे अपची शीघ्रही नष्ट हो जाती है।। दस्त और तृषाका नाश होता है।
इत्यकारादि-लेपप्रकरणम्
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४२४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[अकारादि
अथाकारादिधूपप्रकरणम् (८९०१) अकोलपत्रधूपः छागरोपाणि निर्मोकं विष्ठा बैडालकी तथा । ( रा. मा. । विषा. २८)
गजदन्तस्य चूर्ण हि किश्चिद घृतविमिश्रितम् ॥
गृहेषु धूपनं दत्तं सर्वान्बालग्रहाअयेत् । अझोलवृक्षदलधूपविधानयोगा
पिशाचावाक्षसान्हत्वा सर्वज्वरहरं भवेत् ॥ माशं प्रयाति विषमाशु नरस्य मात्स्यम् ॥ अंकोल के पत्तोंकी धूप देनेसे मछलीका विष
___ मोरका पंख, नीमके पत्ते, कटेलीके फल, काली नष्ट हो जाता है।
| मिरच, हींग, जटामांसी, कपासके बीज (बिनौले),
बकरीके बाल, सांपकी कांचली, बिल्लीकी विष्ठा (८९०२) अपराजिताधूपः और हाथीदांतका चूरा समान भाग लेकर चूर्ण
(यो. त.। त. १०) बनावें और उसमें थोड़ा घी मिला लें। मयूरपिच्छ निम्बस्य पत्राणि बृहतीफलम् । इसकी धूप देनेसे समस्त बाल ग्रह, पिशाच, मरिचं हि मांसी च बीजं कार्पाससम्भवम् ॥ । राक्षस, और बच्चोंके ज्वरका नाश होता है।
इत्यकारादिधूपपकरणम्
अथाकारायञ्जन-प्रकरणम् (८९०३) अञ्जनभैरवरसः ___ इसका आंखमें अंजन लगानेसे समस्त उप(र. चं. । ज्वरा )
द्रवयुक्त सन्निपातका नाश होता है।
(८९०४) अञ्जनरसः (१) सूततीक्ष्णकणागन्धमेकांश जयपालकम् ।
| (र. चं. । ज्वरा. ; रसे. सा. सं. । ज्वरा.) सबैस्त्रिाणितं जम्बुवारिपिष्टं दिनाष्टकम् ॥ वाही रसकं तुल्यं कर्पूर मृतशुल्वकम् । नेत्रामनेन हन्त्या सर्वोपद्रवमुल्वणम् ॥
कासमदरसैर्मध दिनाधै वटकीकृतम् ॥ पारद, काली मिर्च, पीपल और गंधक १-१ | अधनं ज्वरदाइघ्नं सर्वदोषसमुद्भवे ॥ भाग तथा शुद्ध (तैल रहित ) जमालगोटा १२ | हींग, खपरिया, कपूर और ताम्र भस्म समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके आठ दिन भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके आधे दिन जामनके रसमें खरल करके घोट कर सुखा लें। । कसौंदी के रसमें घोटकर गोलियां बनालें।
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अमनप्रकरणम्]
परिशिष्ट
.४२५
इसे ( पानीमें घिसकर) आंखमें लगानेसे सर्व | सम्मर्दयेसिन्धुफलेन कांस्ये दोषज ज्वर, और दाहादि उपद्रव नष्ट होते हैं । तेनाअनेनाजितलोचनस्य ॥ (८९०५) अपराजितावतिः सयोऽक्षिनिस्यन्दमकाण्डकण्डू
स्तथाऽधिमन्यानपि इन्ति सत्यम् ।। (ग. नि. । नेत्ररोगा. ३)
इमलीके ताजे पत्तोंको (धोकर ) अरण्डके अभयानां पलं दद्यात्तुत्थकाच शुभात्पलम् ।। पत्तोंमें लपेटकर गोलासा बनावें और उस पर तायेशैलार्धकर्षश्च तत्सम मरिच सितम् ॥
| मिट्टीका लेप करके कण्डोंकी मन्दाग्नि में पाक करें। अभयावर्तिरित्येषा जलपिष्टाऽपराजिता ।।
जब ऊपरकी मिट्टीका रंग लाल हो जाय तो गोले. कण्डतिमिरकाचार्मपिल्लाभिष्यन्दनाशिनी ॥
मेंसे इमलीके पत्तोंको निकालकर पीसकर रस निकाल ___ हर्रका चूर्ण ५ तोले, शुद्ध नीलाथोथा ५ । लें। कांसीके पात्रमें यह रस डालकर उसमें समन्दर तोले, रसौत ७॥ माशे. और सफेद मिर्चका चूर्ण फल घिसकर आंखमें लगानेसे आंखसे पानी बहना, ७॥ माशे लेकर सबको (पानीके साथ ) एकत्र ! नेत्रकण्डू और अधिमन्थका नाश होता है। खरल करके वर्तियां बनावें। इसे पानी में घिसकर
(८९०८) अर्धनारीनटेश्वरो रसः आंखमें लगानेसे नेत्रकण्डू, तिमिर, काच, अर्म, पिल्ल तथा नेत्राभिष्यन्दका नाश होता है।
(र. स. फ. । उल्ला. ४ ; र. का. धे. । ज्वरा.) (८९०६) अपामार्गमूलायञ्जनम्
निम्बबीज शिलाऽजाजी' धूमं कृष्णा समां
शकम् । (रा. मा. । नेत्र रोगाः ३)
कारल्ल्या रसैर्भाव्यमेकविंशति वारकान् ॥ प्रत्यक्पुष्पीमूलं ताम्रपये भाजने ससिन्धुत्थम् । यत्पार्श्वतोऽअयेन्नेत्रे ज्वरं तत्पाजं जयेत् । मधुसहितं निघृष्टं नयनप्रकोपं हरत्याशु ॥ | अर्धनारीनटेशाहो रसः कौतुककारकः ॥
__ अपामार्ग (चिरचिटे) की जड़को ताम्रपात्रमें | नीमके बीज (निबौलीकी गिरी ), शुद्ध मनसिल, सेंधा नमकके चूर्ण और शहदके साथ घिसकर जीरा ( पाठान्तरके अनुसार जावित्री), घरका धुवां,
आंखमें लगानेसे नेत्राभिष्यन्दका शीघ्र ही नाश हो और पीपल समान भाग लेकर सबके चूर्णको एकत्र जाता है।
मिलाकर करेलेके रसकी २१ भावना दें। (८९०७) अम्लिकाअनम्
इसका जिस ओर की आंखमें अंजन किया (बृ. यो. त.। त. १३१) जायगा उसी ओरका ज्वर जाता रहेगा। यह एक वातारिपत्रे पुटपाचितानां
अद्भुत प्रयोग है। द्रवं दलानां वरमम्लिकायाः। १ जातीति पाठान्तरम् ।
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४२६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ अकारादि
(८९०९) अर्धनारीश्वररसः (१) (८९११) अर्धनारीश्वररसः (३) (र. चं. । ज्वरा.)
(र. का. धे. । ज्वरा.) व्योषं च त्रिफलां मृतं लोहं भृङ्गं च ताम्रकम् । मजा निम्बफलानां च राजवृक्षफलस्य च । सपत्रस्त्रीपयश्चैव कारयेद्गुटिकां दृढाम् ॥ नटी च कणा चेति शाणमात्रं पृथक्पृथक् ।। दुग्धेन चाअनं कृत्वा एकाङ्गज्वरनाशनम् ॥ अतिक्षणं वाससा च गुटिका च कृता शुभा।
सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, | कार्या निम्बरसोपेता साक्षान्माषप्रमाणतः ।। शुद्ध पारद, लोह भस्म, भंगरा और ताम्र-भस्म निम्बूकरसयोगेन चक्षुरेकमथाञ्जयेत् । समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल करें और सदोषज्वरनाशः स्यादिति धन्वन्तरीरितम् ॥ फिर पुत्रवती स्त्रीके दूधमें घोटकर गोलियां बनालें। अर्धनारीश्वरो नाम रसः परमदुर्लभः ।। ___(स्त्रीके ) दूधमें घिसकर जिस आंखमें इसका भैरषेण स्वयं प्रोक्तः पार्वत्याः मेमयोगतः ।। अंजन किया जायगा उसी ओरका ज्वर जाता ___नीमके बीजोंकी गिरी, अमलतासका गूदा, रहेगा।
शुद्ध मनसिल और पीपलका चूर्ण समान भाग (८९१०) अर्धनारीश्वररसः (२) ।
लेकर एकत्र खरल करके अत्यन्त सूक्ष्म चूर्ण बनावें (र. का. धे. । ज्वरा.)
और उसे नीमके रसमें खरल करके गोलियां
बना लें। रसस्य भाग एक: स्याञ्चत्वारो जयपालजाः ।। सप्त वाकुचिबीजोत्थाः पिप्पल्या एकविंशतिः।।
इसे नीबूके रसमें घिसकर जिम आंखमें सर्वेतुल्यं निम्बबीजचूर्ण सर्व समीकतम। अंजन लगाया जायगा उसी ओरका सदोष ज्वर दोलायन्त्रे निम्बरसे सप्ताहं पाचयेद्भशम ॥
नष्ट हो जायगा । इस परम दुर्लभ रसका आविष्कार अन्तधूमेन नाम्ना स्यादर्धनारीश्वरो रसः ।।
स्वयं भैरव महादेवने किया था। अमनात्सन्निपातघ्नस्त तत्पार्श्वगतो भवेत् ॥ (८९१२) अश्वत्थपत्रादिवटी
शुद्ध पारद १ भाग, शुद्र जमालगोटा ४ (वै. म. र. । पटल १६) भाग, बाबचीके बीज ७ भाग, पीपलका चूर्ण २१ अश्वत्थपत्रकुवलयदलचन्द्रैः कृता गुटिका । भाग और नीमके बीजोंका चूर्ण सबके बराबर (३३ तिमिरापहा प्रसिद्धा भास्करकिरणावलीव भाग) लेकर सबको एकत्र खरल करके ( गोला
दिवसमुखे ॥ बनाकर चार ते कपड़े में लपेट कर ) दोलायन्त्र पीपल वृक्षके पत्ते और नीलोत्पलके फूलकी विधिसे १ सप्ताह तक नीमके रसमें पकावें। पंखड़ियां तथा कपूर समान भाग लेकर सबको
जिस आंखमें इसका अंजन किया जायगा । ( पानीसे ) बारीक पीसकर गोलियां बना लें। उसी ओरका सन्निपात ज्वर जाता रहेगा।
इसे आंखमें आंजनेसे तिमिरका नाश होता है।
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अञ्जनप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४२७
(८९१३) अश्वलालाद्यन्जनम्
(८९१४) अक्षयोगः
(धन्च.। नेत्ररोगा.) (हा सं. । स्था. ३ अ. १८)
विभीतकास्थिमज्जा तु शकनाभिर्मनःशिला । घोटकलालामरिच लवणयुतं निम्बपत्रमरीचानि अजामूत्रेण पेषयेत् ।।
नेत्रयोरअनं शस्तम् । | पुष्पं राज्यन्धतां हन्ति तिमिरं पटलं तथा ।। विनिहन्ति दिवसतन्द्रां निद्रां वा मानुषस्या ।। नाभि मनसिल, नीमके पत्ते और काली मिर्च
बहेड़ेकी गुठलीकी गिरी ( मज्जा ), शंखकाली मिरच और सेंधा नमकका चूर्ण बराबर इनके समान भाग मिलित चूर्णको बकरीके मूत्रमें बराबर लेकर दोनोंको एकत्र मिला कर घोड़ेकी खरल करके बर्तियां बना लें । लारमें पीसकर अंजन करनेसे दिनको तन्द्रा और इसे आंखमें आंजने से खके फूले रायंधना निदा आना बन्द हो जाता है। ! तिमिर, और पटलका नाश होता है ।
इत्यकाराद्यानप्रकरण
अथाकारादिनस्यप्रकरणम् (८९१५) अकोलबीजादितैलनस्यम् (८९१६) अङ्कोलमूलादिनस्यम् (ग. मा. । रसायना. ३२)
(रा. मा. । कामला.)
अकोलमूलमथवाऽर्कजटामपिष्टा अझोलबीजसितसर्षपसम्भवं य
स्वच्छेन तालजलेन समं प्रयवाद । निष्पीडनोक्तविधिना निपुणैहीतम् ।।
स्यात्कामलामयहरी कृतनावनानासमस्यकर्मनिरतस्य करोनि नूनं
माघ्रातमात्रमपि जालनिकाफलं वा ॥ विशत्समाभ्यधिकवर्षशतान्तमायुः ।। अंकोलकी जड़ या आककी जड़ अथवा अंकोलके बीज और सफेद सरसों समान
। कड़वी तोरीके फरको चावलोंके स्वच्छ धोवनके भाग लेकर दोनोंको एकत्र मिलाकर घानीमें
| साथ पीसकर नस्य लेने से कामला रोग नष्ट हो
जाता है। (कोल्हूमें ) तेल निकलवावें ।
(८९१७) अञ्जनरसः ___इस तेलकी नस्य लेने से १०० वर्षका वृद्ध (रसे. सा. सं. । सन्निपाता.) भी २० वर्षके युवाके समान ( बलि पलि-रहित ) गन्धेशं लशुनाम्भोभिर्मदैयेद्याममात्रकम् ।
तस्योदकेन संयुक्तं नस्यं तत्पतिबोधकृत् ।।
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४२८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[अकारादि
___समान भाग शुद्ध पारद और गंधककी कजली पूर्ण ३ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर स्त्रीके बनाकर उसे १ पहर ल्हसनके रसमें खरल करें। दूधमें खरल करके गोलियां बना लें।
इसे ल्हसनके ही रसमें मिलाकर नस्य देनेसे इसकी नस्य देने से कफज शिर पीड़ा आदि सन्निपात ज्वरकी मूर्छा नष्ट हो जाती है।
शिररोगों का नाश होता है। (८९१८) अपामार्गादिनस्यम्
(८९२०) अर्धनारीश्वररसः (व. से. । शिरोरोगा.)
(र. चं. ; रसे. सा. सं. । ज्वरा.) अपामार्गस्य बीजानि विश्व सक्षौद्रशर्करम् । नस्य प्रयोजयेन्नित्यं सूर्यावर्ताऽर्द्धभेदयोः ॥
। रसगन्धौ समौ शुद्धौ विषं ग्राह्यं च तत्समम् ।
जैपालं तत्समं ग्राह्यं मरिचं च चतुर्गुणम् ॥ अपमार्ग (चिरचिटे) के बीजोंका चूर्ण,
त्रिफलाया रसैर्मध भावना पश्चधा नथा । सोंठ, शहद और खांड समान भाग लेकर सबको
जम्बीराणां द्रवैर्नस्यमेकस्मिन्नासिकापुटे ॥ . एकत्र खरल करें।
शरीराधगतं घोरं ज्वरं हन्ति न संशयः । नित्य इसकी नस्य लेनेसे सूर्यावर्त और | अर्धनारीश्वरो नाम रसः शम्भुप्रकीर्तितः ॥ अर्धावभेद ( आधाशीशी ) का नाश होता है ।
शुद्ध पारद और गंधक १-१ भाग, शुद्ध (८९१९) अर्धनाडीनाटकेश्वरः
बछनाग २ भाग, शुद्ध जमालगोटा २ भाग और (भै. र. । शिरोरोगा.) काली मिर्चका चूर्ण ८ भाग लेकर सबको एकत्र वराटं टङ्गणं शुद्धं पञ्चभागसमन्वितम् ।
| खरल करें और फिर त्रिफलाके क्वाथको ५ भावना दें। नवभागं मरीचस्य विषं भागत्रयं मतम् ॥ इसे जम्बीरी नीबूके रसमें मिलाकर जिस स्तन्येन वटिकां कृत्वा नस्यं दधाद्विचक्षणः। ओरके नासापुट ( नसको रे ) में नस्य दो जायगी शिरोविकारान् विविधान् हन्ति श्लेष्मोत्तरानपि।। उसी ओरका ( आधे शरीरका ) घोरज्वर अवश्य
कौडी भस्म और सुहागेकी खील ५-५ | नष्ट हो जायगा। यह रस स्वयं महादेवका बतभाग, काली मिर्चका चूर्ण ९ भाग तथा शुद्ध विषका । लाया हुवा है ।
इत्यकारादिनस्यपकरणम्
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रसप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४२६
अथाकारादिरसप्रकरणम् (८९२१) अग्निकुमाररसः (१) मन्दे ह्यग्नौ बातरोगेऽथ शूले (र प्र. सु. । अ. ८)
___ पस्मारे वै सन्निपाते बलासे ।
सेव्यो वल्लं चाकेणापि सम्यक मूतं चैकं गन्धकं च त्रिभागं
क्षारं चाम्लं वर्जयेच्चापिपथ्ये ।। नागं वङ्ग शुल्वतारं च हेम । अभ्रं लोहं तारमाक्षीकवन
शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गंधक ३ भाग, मेकैकं वै शोधयित्वा प्रदेयम् ॥
तथा नाग (सीसा) भस्म, बंग भस्म, ताम्र भस्म,
चांदी भस्म, स्वर्ण भस्म, अभ्रक भस्म, लोहभस्म, मुण्डीश्वेताकाकमाच्यश्वगन्धा
रौप्यमाक्षिक भस्म, और हीरा भस्म १-१ भाग निर्गुण्डयो वै भृङ्गराजेन युक्ताः ।
लेकर प्रथम पारे गंधककी कज्जली बनावें और रसैरेषां वासरान् त्रीन् प्रम
फिर उसमें अन्य औषधियां मिलाकर सबको खल्वे सम्यग्गोलकं कारयेद्धि ।।
गोरखमुंडी, अतीस, मकोय, असगंध, संभाल और ततो धर्मे शोषयेत्तं च गोलं
भंगरेके रसमें ३-३ दिन खरल करके गोला बनावें लेपाः सम्यक् पश्च मृद्भिः प्रदेयाः।
और उसे धूपमें सुखाकर उस पर (कपड़ा लपेट भाण्डं चाधै पूरयेद्वालुकाभि
कर) ५ बार मिट्टीका लेप करदें। एवं उसके सूख मध्ये गोलं निक्षिपेन्मुद्रयेच्च ।।
जाने पर एक हाण्डीमें आधी दूर तक रेत भरकर अनि कुर्याधामषष्टयष्टमात्र
उसमें वह गोला रक्खें और फिर हारडीको मुंह शीते सिद्धो जायते वै रसोऽयम् । तक रेतसे भरकर उस पर शराव ढककर सन्धिको कृष्णाकायैर्भावनाः पञ्च देया
अच्छी तरह बन्द कर दें। अब इस हाण्डीको __ आद्रेणैवं भावयेत्पश्चवारान् ॥ चूल्हे पर चढ़ाकर ६८ पहर की अग्नि दें और फिर ज्वालामुख्याः स्वै रसैः सप्तवारं स्वांग शीतल होने पर औषधको निकालकर पीस ___ भाव्यं चापि सूर्यवारं हि वह्ने । लें । तदनन्तर उसे पीपलके क्वाथको ५, अद्रकके निर्गुण्डया वै भावना भानुमात्राः रसकी ५, कलियारीके स्वरसकी ७, चोतामूलके
पश्चात्कार्या वल्लमात्रा वटी हि ॥ क्वाथको १२ और संभालुके रसकी १२ भावना देया सद्भिः पञ्चमांश. हि कृष्णा
देकर २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें। तद्वच्छुण्ठी चूर्णिता तत्पमाणा ।
इनमेंसे १-१ गोली पांचवां भाग पीपल कासे श्वासे मूत्रकृच्छ्रे ग्रहण्या
और सोंठ का चूर्ण मिलाकर अद्रकके रसके साथ मर्शःशोफे चाश्मरीमेदूरोगे ॥ सेवन करनेसे कास, श्वास, मूत्रकृच्छ्, ग्रहणी-रोग,
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४३०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ अकारादि
अर्श, शोथ, अश्मरि, उपदंश अग्निमांद्य वातव्याधि, (८९२३) अग्निकुमाररसः (४) शूल, अपस्मार, सन्निपात और कफ का नाश (र. का. धे. । सन्निपाता.) होता है।
भस्ममूतकभागैकं मृतं शुल्वं तथैव च । अपथ्य- क्षार और अम्ल पदार्थ । विषं चैतत्सम ग्राह्यं गन्धकं द्विगुणं कुरु ।। (८९२२) अग्निकुमाररसः (२)
त्रिकटु त्रिफलायुक्तं सर्वमेकत्र मर्दयेत् ।
| निर्गुण्डी चाग्निदमनी वहिव्याघ्रीद्वयं तथा ।। (र. का. धे. । ग्रहण्य.)
| पातालतुम्बिकी ग्राह्या इन्द्रवारुणिमेव च । दशनिष्कं शुद्धसूतं शुद्धगन्धं च तत्समम् । एतेषां स्वरसेनैव भावना त्वेकविंशतिः ।। . सार्धनिष्कं च विश्वं स्याद्धंसपाया द्रवर्दिनम् ॥ रसो ह्यग्निकुमारोऽयं प्रत्यक्षश्च महेश्वरः । हस्तिशुण्ड या द्रवैर्वाऽथ मर्दितं वटकीकृतम् । सन्निपाते त्रिदोषे च यमालयगतेऽपि वा ॥ काचकुप्यां विनिक्षिप्य मृदः संलेपयेदहिः ॥ मूच्यग्रेण प्रदातव्यो मृतो जीवति तत्क्षणात् ।। शुष्का तो वालुकायन्त्र क्रमदाग्निना पचेत् । पारद भस्म, ताम्र भस्म और शुद्ध वछनाग षड्यामान्ते समुदत्य साधनिष्कविषण च॥ १-१भाग तथा शुद्ध गंधक, त्रिकुटा और त्रिका सह सञ्चूर्णयेच्छ्ल क्ष्णं रसो ह्यग्निकुमारकः।। २-२ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके संभाख, गुजैकं पर्णखण्डेन दातव्यं सन्निपातजित् ॥ अग्निदमनी, चीता, छोटी कटेली, बड़ी कटेली, पाताल कासवासक्षयं पाण्डं मन्दानि च विनाशयेत् ।। तुम्बी और इन्द्रायण के स्वरसकी २१ ( प्रत्येक
शुद्ध पारद १० निष्क, शुद्ध गंधक १० की ३ ) भावना दें। निष्क, और सोंठका चूर्ण १॥ निष्क (७|| माशे )
यह रस स्वयं महेश्वर स्वरूप है । इसे सुईकी लेकर सबको एकत्र खरल करके हंसपादीके स्वरस
नोकपर लगाकर प्रयुक्त करने से यमालयके निकट या हाथीसुंडीके स्वरसमें १ दिन खरल करके
पहुंचा हुवा सन्निपात रोगी भी स्वस्थ हो जाता है। गोलियां बना लें और उन्हें सुखाकर कपडमिट्टी
(शिरपर---तालु प्रदेशमें-छुर से ज़रा खुरच की हुई आतशी शीशीमें भरकर ६ पहर बालुका
कर यह रस मल देना चाहिये । ) यन्त्रमें मृदु मध्यम और तीब्राग्नि पर पकावें ।। कर तदनन्तर शीशी के स्वांग शीतल होने पर उसमें (८९२४) अग्निकुमाररसः (४) से औषध को निकालकर उसमें १॥ निष्क शुद्ध
(र. सं. क. । उ. ४) वछनागका चूर्ण मिलाकर बारीक पीसकर रक्खें। शुत गन्धं विपं शकं कपर्द टङ्कणोषणे ।
इसमें से १ रत्ती रस पानमें रखकर खानेसे चन्द्रकाग्निगजत्रिद्विवमुभागैर्मितं क्रमात् ॥ सन्निपात ज्वर, कास, श्वास, क्षय, पाण्डु और जम्बीरकेण सम्मघे भवेदग्निकुमारकः । अग्रिमांध का नाश होता है।
वाते मन्दानलेऽजीणे ज्वरश्लेष्मविषूचिके ।।
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रसपकरणम् ]
परिशिष्ट
४३१
गुभ्रामात्र प्रदातव्यो विमूत्रशिरसोग्रहे। बनावें और उसका एक गोला या टिकिया बना कासे श्वासे क्षये शृले सर्वरोगेषु योजयेत् ॥ | लें । तदन्तर उस पिट्टीके बराबर शुद्ध गंधक और
शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गंधक १ भाग, | उतना ही सेंधा नमकका चूर्ण लेकर दोनों को शुद्ध वछनाग ३ भाग, शंख भस्म ८ भाग, कौडी | एकत्र खरल करें। इस चूर्णको उपरोक्त टिकिया पर भस्म ३ भाग, सुहागेकी खील २ भाग और काली चारों ओर लपेटकर उस पर नीबूका रस डालकर मिर्चका चूर्ण ८ भाग लेकर प्रथम पारे गंधककी | धूपमें सुखालें । जब वह सूख जाय तो पुनः रस कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां डालें । इसी प्रकार बार बार रस डालकर ८ दिन मिलाकर जम्बीरी नीबूके रसमें खरल करें। तक धूप में सुखावें । तदनन्तर उस टिकिया को इसके सेवनसे वातव्याधि, अग्निमांद्य, अजीर्ण,
पानीसे धोकर स्वच्छ करें ( लवणांश बिल्कुल निकाल चर, कफ, विसूचिका, मूत्रग्रह, मलावरोध, शिरोग्रह,
देना चाहिये । ) इसके पश्चात् उसमें उपरोक्त कास, श्याम, क्षय और शूलका नाश होता है ।
पिट्ठीके बराबर (४ भाग) अभ्रक भस्म मिलाकर
| ३-३ भावना भंगरेके रस, अदरकके रस और मात्रा–१ रत्ती ।
चनेके क्षारजलकी दे कर ३-३ रत्तीकी गोलियां (८९२५) अग्निकुमाररसः (५) । बना लें। (र. का. धे. । ग्रहण्य.)
इसे हर्र, पीपल और गुड़के समान भाग एकभागं ताम्रचूर्ण शुद्धमृतं त्रिभागकम्।
मिलित (३ माशा) चूर्णके साथ खानेसे अग्निअम्लेन कारयेपिष्टी नवनीतनिभां बुधः ॥
मांधका नाश होकर अग्नि दीप्त हो जाती है । पृथक् पिष्टीसमं गन्धं सैन्धवं चूर्णयेत्ततः ।
___(८९२६) अग्निकुमाररसः (६) पिष्टिकोपरि तच्चूर्ण क्षिप्त्वा निम्बूरसं क्षिपेत् ॥ (र. का. धे, । ग्रहण्य.) वारं वारं रसं दत्वा स्थाप्य धर्मे दिनाष्टकम् । रसगन्धकणाजाजीटङ्कणं दीप्ययुग्मकम् । ततः प्रक्षाल्य पिष्टीं तां पिष्टयकं मृतमभ्रकम् ॥ जातीपत्रफले देवपुष्पं सामुद्रकं फलम् ॥ दत्त्वा भृङ्गरसैर्भाव्यं त्रिवार चाकद्रवैः। विषं वचा पारसिका त्रित्रिशाणमिता इति । त्रिवारं चणकक्षारैस्ततः सिद्धो भवेद्रसः ॥ पलद्वयमधुघृते पलार्धं खण्डतस्ततः॥ त्रिगुलं भक्षयेन्नित्यं पथ्याकृष्णागुडैः समम् । | सर्वमेकीकृतं चास्य मात्रातः कारयेद् गुटीम् । अयमग्निकुमाराख्यो रसोमन्दाग्निदीपनः ॥ अयमग्निकुमारस्तु कथितो ग्रहणीहरः ॥
शुद्ध ताम्र चूर्ण (भस्म) १ भाग और शुद्ध | दृष्टोऽयं बहुधा वैद्यैः सद्यः प्रत्ययकारकः ।। पारद ३ भाग लेकर दोनों को नीबूके रसमें एकत्र शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, पीपल, जीरा, सुहागेकी खरल करके नवनीतके समान कोमल पिष्टी (पिट्ठी) खील,अजवायन,जावित्री, जायफल, लौंग, समुद्रफल,
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४३२ भारत-भैपज्य-रत्नाकरः
[अकारादि शुद्ध बछनाग और खुरासानी अजवायन: ३-३ दिन पिष्ट्वा लिहेन्माष मधुना वहिदीप्तये । शाणः(११।-१११ माशे), धी ५ तोले, शहद ५ ककं भक्षयेच्चानु दाडिमं नागरं गुडैः ॥ तोले और खांड २॥ तोले लेकर प्रथम पारे गंधककी रससिन्दूर ५ तोले: जावित्री और सुहागेकी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधियों
खील १०-१० तोले एवं बच और सोंठ ११-१। का चूर्ण तथा घृतादि मिलाकर गोलियां बना लें।
तोला लेकर सबको एकत्र मिलाकर १ दिन भंगरेके यह रस ग्रहणी रोगको नष्ट करता है । | रसमें खरल करके सुरक्षित रक्खें । इसके सधः फल प्रद प्रभावको वैद्योंने अनेक बार
मात्रा--१ माशा । देखा है।
इसे शहदके साथ खाकर ऊपरसे अनारदाना, (मात्रा-१ माशा ।) | सोंठ और गुड़का समान भाग मिलित १ तोला (८९२७) अग्निकुमाररसः (७) चूर्ण खाना चाहिये।
यह वटी अग्नि की वृद्धि करती है । (२. का. धे. । ग्रहण्य.)
(८९२९) अग्निजारलक्षणगुणाः एकैकं विषसूतं च जातिटङ्की द्विको द्विकौ।।
(र. प्र. सु. । अ. ६ ; आ. वे. प्र. । अ. १०; कृष्णा त्रिकं विश्वषद्कं कपदै दग्धमेव च ॥
र. र. स. । पू. अ. ३) देवपुष्पं वाणमितं सर्व सम्मर्दयेत्ततः । भवेदग्निकुमारोऽयं नष्टवह्निप्रदीपनः ॥ समुद्रेणामिनकस्य जरायुर्वहिरुज्झितः । शुद्ध बछनाग और पारद भस्म १-१ भाग, |
रवितापेन संशुष्कः सोऽमिजार इति स्मृतः ॥
| त्रिदोषशमनो ग्राही धनुर्वातहरः परः । जावित्री और सुहागेकी खील २-२ भाग, पीपल ३ भाग, सोंठ ६ भाग, कौड़ी भस्म ६ भाग और
वर्धनो रसवीर्यस्य जारणः परमः स्मृतः ॥ लौंग ५ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर
समुद्र में 'अग्निनक' नामक जन्तु होता है; खरल करें।
उसका जरायु समुद्रके किनारे गिर कर सूख जाता
है जिसे 'अग्निजार' कहते हैं । इसके सेवनसे अग्नि दीप्त होती है।
___ अग्निजार त्रिदोष नाशक, प्राही, धनुर्वातनाशक, (मात्रा–२ माशे ।)
तथा रस-वीर्य-वर्द्धक है। (८९२८) अग्निजननीवटी
(८९३०) अग्निमुखरसः (१) (र. का. धे. । अग्निमान्द्या.)
(र. र. । शूला.) पलैकं मूर्छितं सूतं जाती टकौ द्विकं द्विकम् । शुद्धसूतं समं गन्धं रसार्दै मृतताम्रकम् । प्रतिकर्ष वचा शुण्ठी तत्सर्व मार्कवद्रवैः ॥ | दिनैकं शाकजैवैर्मर्यश्च क्षीरिणीद्रवैः ।।
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४३३
रसप्रकरणम् ]
परिशिष्ट रुवा लघुपुटे चैव पच्यादग्निमुखो रसः। कक्कमनुपानं स्याद्वातशूलहरं परम् । यवानीन्द्रयवापाठा बिल्वशुण्ठीरसाधनम् ॥ चिश्चाक्षारं जलैः पीतं शूलं शान्तिमवाप्नुयात्।। चूणे शूलहरं चानु पिबेदुष्णाम्बुना सह ॥
पारद भस्म, अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म, शुद्ध शुद्ध पारद और गंधक १-१ भाग तथा | गंधक, अम्लबेत, शुद्ध बछनाग, हरै, बहेड़ा और ताम्र भस्म आधा भाग लेकर तीनोंको एकत्र खरल | आमला, समान भाग लेकर सबको १ दिन एकत्र करके कजली बनावें और उसे १-१ दिन सागौन । खरल करके ३-३ दिन कुचला, जया, बासा, तथा खिरनी की छालके क्वाथ में खरल करके सबका | भांग, रक्तशाकिनी, बड़ी कटेली, महाराष्ट्री (जलपीएक गोला बनावें और उसे सुखाकर शराव संपुटमें | पल), धतूरा, पोखरमूल (या कमल पत्र), पान, शमीबन्द करके लघुपुटमें पकावें । तत्पश्चात् उसके वृक्षकी छाल और जामन; उनके रसमें खरल करें। स्वांगशीतल होने पर रसको निकाल लें। तदनन्तर उसमें उसके बराबर पांचों नमकका चूर्ण (मात्रा-१ रत्ती।)
मिलाकर १ दिन अदरकके रस में धोटकर चनेके
| समान गोलियां बना लें। इसके सेवनसे शूल नष्ट हो जाता है।
इनके सेवन से वातज शूल नष्ट होता है। अनुपान-औषध खाने के पश्चात् अजवा
__अनुपान-हरे, अतीस, हींग, संचल यन, इन्द्रजौ, पाठा, बेलगिरी, सोंठ और रसौतका
| ( कालानमक ), वच और इन्द्रजौ समान भाग समान भाग मिलित चूर्ण गरमपानीसे पीना चाहिये।
लेकर चूर्ण बनावें। उपरोक्त वटी खानेके पश्चात् (८९३१) अग्निमुखरसः (२) ११ तोला (व्य. मात्रा-२-३ माशे) यह चूर्ण (र. र. स. । उ. अ. १८; र. र. । शूला.)
गर्म पानीसे पीना चाहिये।
___इमलीका क्षार उष्णजलसे खानेसे भी शूल मृतसूताभ्रकं तानं गन्धकं चाम्लषेतसम् ।
| शान्त हो जाता है। विर्ष फलप्रय तुल्यं सर्व मर्य दिनावधि ।। विषमुष्टिर्जया वासा विजया रक्तशाकिनी ।
(८९३२) अग्निरसः (१) बृहती च महाराष्ट्री धत्तूरः पद्मपत्रकः ।।
(र. र. । कासा.) नागवल्ली शमी जम्बू भाव्यमेभिर्देवैस्यहम् । वज्रहाटकसूतानां भस्मैषां द्वित्रिषटक्रमात् । समांशं पश्चलवणं दत्वाऽऽकरसेन च ॥ । त्रिकण्टकरसैव्यं दिनान्ते तद्विचूर्णयेत् ॥ दिनं पेष्यं ततः कुर्याद्वटिकां चणमात्रकाम् ।। गुमामात्र प्रयोक्तव्यं सज्वरे राजयक्ष्मणिः । भक्षयेद्वातशूलातः सोऽयमग्निमुखो रसः ।। स्नुहीमूलं च जम्बीरद्रवैः स्यादनुपानकम् ॥ हरीतकी प्रतिविषा हिङ्गु सौवर्चलं वचा। साध्यासाध्यक्षयं हन्ति ह्यनुपानं मृगाङ्कचत् । कलिगेन्द्रयवास्तुल्यं पाययेदुष्णवारिणा ॥ । अयमग्निरसं खादेत् त्रिनिष्कं राजयक्ष्मनुत् ।।
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- भैषज्य रत्नाकरः
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भारत
[ अकारादि
हीरा भस्म २ भाग, स्वर्ण भस्म ३ भाग, प्लीहं गुल्मजलोदरं कटिभवं शूलं पुनर्जाठरं और पारद भस्म ६ भाग लेकर सबको एकत्र | शोफं चामसमुद्भवं बहुरुजं दुग्धोदनं भक्षणे ॥ मिलाकर १ दिन गोखरुके रस में खरल करें ।
इसके सेवन से ज्वरसहित राजयक्ष्मा नष्ट हो जाता है । यह रस साध्यासाध्य हर प्रकार के क्षयको नष्ट कर देता है ।
साधारणतः इस पर मृगाक रसके समान अनुपान देना चाहिये |
विशेष अनुपान - जम्बीरी नीबू के रसके साथ स्नुही ( थूहर ) की जड़का चूर्ण खिलाना चाहिये । ( पूर्ण लाभ प्राप्त करनेके लिये ) यह रस ३ निष्क खिलाना चाहिये ।
अग्निरसः (२)
(भै. र. । अग्निमांद्या. )
प्र. सं. ८३२३ स्वयमग्निरसः नं. १ देखिये
अग्निसूनुरस:
प्र. सं. २६२ अग्निकुमार रस देखिये । (८९३३) अजीर्णहररसः ( यो. र. अजीर्णा. )
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शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, शुद्ध हरताल ( या हरताल भस्म ), शुद्ध बछनाग, सुहागे की खील, जवाखार, भरंगी, चीतामूल, पुनर्नवा, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, लोह भस्म, अभ्रक भस्म, हर्र, बहेड़ा और आमला समान भाग लेकर प्रथम पार गंधककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर १-१ दिन भंगरे, संभालु, अदरक और बिजौरेके रसमें घोट कर ५-५ रत्तीकी गोलियां बना ले 1 इनके सेवन से भारीसे भारी पदार्थ भी पच जाते हैं तथा यह रस प्लीहा - वृद्धि, गुल्म, जलोदर, कमरके शूल, उदरशूल और आम - जनित शोथको नष्ट करता है ।
पथ्य -- दूध भात | (८९३४) अपस्मारनाशनरसः
( र. र. स. । उ. अ. २३) रसगन्धशिलातुत्थकान्तहेमाधिफेनकम् । रजनी तेजनीवीजं कर्षमात्रं पृथग्युतम् ॥ निम्बुवान्तौ तेनान्तर्लिप्तां ताम्रपलोन्मिताम् । पात्रीं न्युब्जां सुभाण्डान्तां रुध्वा खर्परिकां श्रुताम् भस्मनाऽऽ पूर्य भाण्डान्तर्धृत्वाऽधो द्विनिशं पचेत् । स्वाङ्गशीतं विचूर्थ्याथ रसोऽपस्मारनाशनः ॥! वल्लभस्योदये दद्याद्राव्योषविडङ्गयुक् । अनुदेयमजामूत्रं ततोऽर्धमहरे गते || सार्पपे पोडशपले तैले तत्कलितं पचेत् । क्षिता । नस्यं तैलेन तेनास्य दद्यात्सव्योषण तु ||
।
सूतं गन्धकतालकं विषयुतं टङ्कं यवक्षारकं भार्गी पुनर्नवा त्रिकटुकं लोहाभ्रकं त्रैफलम् चूर्ण भृङ्गरसेन मर्दितमन निर्गुण्डिकाद्रावकैः पश्चाद्रार्द्रकवीजपूरकर सैर्देया पुनर्भावना || भुक्तं जीर्यति भोजनं गुरुतरं मांसादिकं पिष्टकं | गुञ्जापञ्चकसम्मितस्य वटिका श्रीभैरवाच्छ |
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रसपकरणम् ]
परिशिष्ट
४३५
शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, शुद्ध मनसिल, शुद्ध (८९३५) अपस्मारारि रसः नीलाथोथा, कान्तलोह भस्म, स्वर्ण भस्म, समुद्रफेन,
(र. का. घे. । अपस्मारा.) हल्दी और मालकंगनी के बीज १।१। तोला लेकर प्रथम पारे गंधक की कग्जली बनावें और फिर मयूरतुत्थं रसगन्धयोयुतं उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर सबको गुडूचिकातोयविमर्दितं दृढम् । नीबू के रसमें खरल करें एवं ५ तोले शुद्ध ताम्रकी शरावरुद्धं पुटितं प्रयत्नात् कटोरीके भीतर उसका लेप कर दें।
रम्भोत्थतोयेन दिनं विमर्थम् ।।
स स्यादपस्मारकरोगनाशनो तदनन्तरं एक कपरमिट्टी की हुई हाण्डीके
हैयं गवीनेन च वल्लयुग्मकः । भीतर यह कटोरी उल्टी करके रख दें और उसपर
हन्यादपस्मारकमेव यत्नतः मिट्टीका शराव ढक कर हांडीको राखसे भरदें तथा उसके ऊपर ढकना ढककर सन्धिको अच्छी तरह |
स सेव्यमानः कृतनिश्चयो बुधैः ।। बन्द कर दें और हाण्डीको चूल्हे पर चढ़ाकर उसके शुद्ध नीला थोथा, शुद्ध पारद और शुद्ध नीचे २ दिन (१६ पहर) अग्नि जलावें । तत्पश्चात् । गंधक समान भाग लेकर कज्जली बनावें और फिर स्वांगशीतल होने पर हांडीमेंसे ताम्रकी कटोरीको उसे गिलोयके रसमें खरल करके टिकिया बनावें निकाल कर पीस लें।
एवं सुखाकर शरावसम्पुटमें बन्द करके पुट लगादें । इसमें से नित्य प्रति प्रातःकाल २ रत्ती रस
तत्पश्चात् उसके स्वांग शीतल हाने पर औषधको
निकाल कर उसे १ दिन केलेके रसमें खरल करें। बच, सोंठ, मिर्च, पीपल और बायबिडंगके समान भाग मिलित (१॥-२ माशा ) चूर्णके साथ इसे ४ रस्ती मात्रानुसार गायके नवनीत खिलाकर बकरीका मूत्र पिलाना चाहिये । । (मक्खन) के साथ सेवन करनेसे अपस्मारका नाश १ सेर सरसोंके तेलमें बच, सोंठ, मिर्च,
होता है। पीपल और बायबिडंगका १० तोले कल्क तथा
( व्यवहारिक मात्रा--१-२ रत्ती।) ४ सेर पानी मिलाकर पकावें और पानी जल जाने (८९३६ ) अपूर्वो रसः (कर्पूररसः) पर तेलको छान लें।
( र. का. धे. । क्षयरोगा.) उपरोक्त रस खानेके आधा पहर पश्चात् इस रामठं शुद्धमानीय दशटङ्घ महोत्तमम् । तेल में त्रिकुटे का बारीक चूर्ण मिलाकर उसकी मषिकाद्वितयं कृत्वा रसं दत्वाऽवशोषयेत् ॥ नस्य लेनी चाहिये।
द्वितीया दीयते तस्या उपरिष्टाच्च मूषिका। इसके सेवनसे अपस्मारका नाश होता है। । सूक्ष्म छिद्रं पुनस्तस्या उपरिष्टाच कारयेत् ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ अकारादि
विमुद्रय सन्धिमुभयोईण्डिकान्तस्थयोदृढम् ! । इस भरमको बारीक वस्त्र में बांधकर मजबूत अत ऊर्ध्व ततो दद्यात्क्षाराच्छलवणं द्वयोः ॥ | पोटली बनावें और उसे २ पहर तक दूधमें स्वेदित दीयन्ते खर्परा गाढा हण्डिकां इण्डिकोपरि। | करें । फिर निकालकर सुखा लें । दत्वा सन्धि निरुध्याथ वह्नि दद्यादहर्निशम् ।। मात्रा-आधी रत्ती। आदाय मुन्दरं भस्मोपरिलग्नं समन्ततः। इसके सेवनसे प्रथम जठराग्नि दीप्त होती है सूताकारं महासारं कनकामं मनोहरम् ॥ | और फिर पाचन शक्ति बढ जाती है। यह राजवस्त्रे सूक्ष्मे निधायाथ बध्वा पोट्टलिकां दृढाम् । यस्मा और उदर रोगादि महा व्याधियोंको नष्ट कर पयसा स्वेदयेत्सूतभस्म तत्महरद्वयम् ॥ देता है। यदि इसे सदैव सेवन किया जाय तो आदाय शोषयेत्पश्चादर्धगुजं निषेवयेत् ।
| मनुष्य अजर अमर हो जाता है । (१) पूर्वमग्नेबलं कुर्यात्पाचनं तदनन्तरम् ।।
(८९३७ ) अभिनवकामदेवरसः क्षयादिकानयं हन्याजठरादीन्महागदान् । अपूर्वोऽयं रसः साक्षान्नाम तस्य प्रकीर्तितम् ॥ ।
(र. र. ; धन्व. । वाजीकरणा.) अजरामरतां कुर्यात प्रत्यहं यदि सेव्यते ॥ | तोलकैकं समादाय पृथग्गन्धकमतयोः।
१० टंक (५० माशे ) उत्तम हींग लेकर रक्तोत्पलदलाम्भोभिर्मर्दये दिवसत्रयम् ॥ (पानीके साथ पीसकर ) उसकी दो मूषा बनावें | मदेयित्वा पुनदेयं गन्धं मासचतुष्टयम् । और एक मूषामें शुद्ध पारद डालकर दूसरी मूषा उसके | तस्यैव पत्रतोयेन पुनर्दत्त्वा च गन्धकम् ॥ ऊपर ढक दें। ऊपरवाली मूषाकी पेंदी में एकछोटासा | शहिन्याश्चापि तोयेन रुदध्वा काचघटे रहे। छिद्र कर देना चाहिये। इन दोनोंकी सन्धिको ततस्तु बालुकायन्त्रे पचेचामत्रयं ततः॥ अच्छी तरह बन्द करके सुखा लें और इस यन्त्रको | काचकुप्याः समाकृष्य सिद्धसूतमतः परम् । कपरमिट्टी की हुई हांडीमें रखदें तथा उसे जवाखार । खादेत्तु रक्तिकाः पश्वरोगेराकान्तमानवः ।।
और सेंधा नमक के चूर्णसे ढक दें । तत्पश्चात् उस | भोजनं पूर्ववदेयं यत्नतः सततं भिषक् । पर मज़बूत ठीकरे रखकर हाण्डी पर एक दूसरी | दुबैलं वपुरत्यर्थ मल्लवज्जायते नृणाम् ।। हाण्डी डल्टी ढकदें और दोनोंकी संधिको अच्छी मासेनेकेन सूतेन्द्रः पित्तजामाशयेद्गदान् । तरह बन्द करके एक दिन रात ( ८ पहर ) १-१ तोला शुद्ध पारद और गंधककी कज्जली पाक करें।
बनाकर उसे ३ दिन लाल कमलके पत्तोंके स्वरसमें तदनन्तर उसके स्वांग शोतल होने पर हांडीको | खरेल करें और फिर उसमें ४ माशे शुद्ध गंधक खोलकर चारों ओर लगीहुई पारदभस्मको निकाललें। | मिलाकर पुनः ३ दिन लाल कमलके पत्तोंके रसमें
यह भस्म अत्यन्त सुन्दर पारदके समान | खरल करें । तत्पश्चात् उसमें पुनः ४ माशे शुद्ध (सफेद) और स्वर्णके समान (चमकदार) होगी। | गंधक मिला कर शंखपुष्पीके रसमें खरल करके
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रसपकरणम् ]
परिशिष्ट
सुखाकर आतशी शीशी में भरकर बालकायन्त्र में | धमेत्तदन्धमूषायां त्रिवारं च पुनः पुनः । ३ पहर तक पकावें । तत्पश्चात् शीशीके स्वांग- तिर्भवति तद्वजं नात्र कार्या विचारणा ।। शीतल होने पर उसमेंसे औषधको निकालकर अनेनैव प्रकारेण कुर्याद् द्रुति सुशोभना ॥ पीसकर सुरक्षित रक्खें ।
___ श्वेताभ्रकको बारीक कूट कर उसमें (उसके मात्रा-५ रत्ती।
बराबर ) केलेकी फली मिलाकर गोमूत्रमें खरल करें ___ इसे १ मास तक सेवन करनेसे समस्त
और फिर उसे अन्धमूषामें बन्द करके आगमें रख पित्तज रोग नष्ट हो जाते हैं। यह रस दुर्बल
कर ध्मा (ोंकनीसे आग तेज करें। ) जब केला शरीरको अत्यन्त पुष्ट पहलवानके समान कर
जल जाय तो ) पुनः इसी प्रकार केले की फलीके
साथ गोमूत्रमें घोटकर अन्धमूषामें पकावें । इस देता है।
प्रकार ३ बार पकानेसे वज्र जातिका श्वेताभ्रक ( व्यवहारिक मात्रा-१-२ रत्ती।)
अवश्य द्रुत हो जाता है। (८९३८) अभ्रकद्रुतिः (८९४० ) अभ्रकद्रुतिः (३) (र. रा. सु.)
(र. रा. सु. ; रसे. चि. म. । अ. ४) कर्कोटीफलचूर्ण तु मित्रपञ्चकसंयुतम् ।
स्वरसेन वज्रवल्याः पिष्टं सौवर्चलान्वितं गगनम् । एतत्तुल्यं च धान्याभ्रमम्लैमधु दिनावधिः॥
| पकं शरावसंस्थं बहुवारं भवति रसरूपम् । अथ मूषागतं ध्मातं तद् द्रुतिर्भवति ध्रुवम् ॥ अभ्रकमें संचल ( काला नमक ) मिलाकर
वज्रवल्ली (हड़जोड़ी) के रसमें खरल करके शराव में ककोड़ेके फलका चूर्ण और मित्रपंचक १--१
रखकर पकावें । इसी प्रकार अनेक बार पाक करनेसे भाग लेकर दोनोंको एकत्र मिलावें और फिर उसमें
अभ्रक पारदके समान द्रुत (प्रवाही) हो जाता है। २ भाग धान्याभ्रक डालकर १ दिन नीबूके रस ( या कांजी ) में खरल करके मूषामें रखकर ।
(८९४१) अभ्रकद्रुतिः (४) अग्निमें ध्मानेसे अभ्रक अवश्य द्रुत ( प्रवाही) ( आ. वे. प्र. । अ. ४) हो जाता है।
अगस्त्यपत्रनिर्या समर्दित धान्यकाभ्रकम् । (८९३९) अभ्रकद्रुतिः (२)
सूरणोदरमध्ये तु निक्षिप्तं लेपितं मृदा ॥
गोष्ठभूमौ खनित्वा तु हस्तमात्रे हि पूरितम् । (र. रा. सु.)
मासानिष्कासितं तत्तु जायते पारदोपमम् ॥ श्वेताभ्रकं च सठचूर्ण्य गोमूत्रेण तु भावयेत् । धान्याभ्रकको अगस्ति ( अगथिया) के पत्तोंके कदलीफलसंयुक्तं भावयेत्तद्विचक्षणः ॥ (मतान्तर में फूलोंके) रसमें घोंटकर जिमिकंद (सूरण)
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४३८
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
के भीतर भरदें और उस पर मिट्टीका लेप करके सुखा लें। इसे गोशाला में एक हाथ गहरा गढ़ा खोदकर दबा दें और १ मास पश्चात् निकाल लें । इस प्रकार अभ्रक पारद के समान प्रवाही हो है ।
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(८९४२) अभ्रकद्रुतिः (५)
( आ. वे. प्र. । अ. ४ ; रसे. चि. म. 1 अ. ४ )
निजरसवहुपरिभावित - सुराली चूर्णमानवापेन ।
द्रवति पुनः संस्थानं
भजते गगनं न कालेऽपि ॥
देवदाली (बिडाल) के चूर्णको उसीके रसकी बहुतसी भावनाएं देकर सुखा लें । अभ्रक (अभ्रक सत्व) को तपाकर उसमें यह चूर्ण डालने से वह पतला हो जाता है और फिर कभी कड़ा नहीं होता।
( ८९४३) अभ्रक भस्मयोगः (१) ( र. का. . । अम्लपित्ता. ) उष्णोदाम्बुरुतैलर से निमग्नं
कृष्णाभ्रकं वसनबद्धमहानि सप्त । पिष्ट्वा च किञ्चिदुपशोप्य पलममार्ण
न्यग्रोधदुग्धपळयुक्तमथो पुटेत्तत् ॥ माषाष्टगन्धकपृथक् त्रिकटोर्वरायाः
संयोज्य चाज्यमधुनी च चिरं विमृद्य । तप्ताम्बुपानमुपयुक्तमिदं निहन्ति
शूलाम्लपित्तत्रमनानि हिताशिनोऽदः ।।
कृष्णाभ्रकको कपड़े की पोटली में बांधकर
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[ अकारादि
चावलों के मांड, अरण्डी के तेल और अरण्डी के रस में सात दिन भिगोए रक्खें । (मांड आदि तीनों पदार्थ बराबर बराबर लेकर एकत्र मिला लेने चाहियें |)
इसके पश्चात् उसे पीसकर कुछ सुखाकर उसमेंसे ५ तोला लें और उसमें ५ तोले बड़का दूध मिलाकर खरल करके टिकिया बनावें । तथा शरावसंपुटमें बन्द करके गज पुटमें फूंक दें । इसी प्रकार कई पुट देकर भस्म बनायें। तत्पश्चात् उसमें ८ मा शुद्ध गंधक तथा ८-८ माशे सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा और आमला ; इनका चूर्ण मिलाकर शहद और घी के साथ बहुत देर तक खरल करें ।
इसे उष्ण जलके साथ सेवन करने और पथ्य पालन करनेसे शूल, अम्लपित्त और वमनका नाश होता है।
( ८९४४) अभ्रक भस्मयोगः (२) ( न. मृ. । त. ; या. र.
; र. रा. सु. ।
प्रमेहा. ; वृ. यो त । त. १०३ ) निश्चन्द्रमभ्रक भस्म सवरा रजनी रजः । मधुना लीढमचिरात्ममेहान्विनिवर्तयेत् ॥
निश्चन्द्र अभ्रक भस्म, हर्र, बहेड़ा, आमला और हल्दी समान भाग ले कर सबको एकत्र खरल करें ।
इसे शहद के साथ चाटने से प्रमेहरोग शीघ्रही हो जाता है ।
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रसप्रकरणम्
परिशिष्ट
४३६
( ८९४५) अभ्रकभस्मामृतीकरणम् (१) । अर्कदुग्धैः पुनः पिष्ट्वा कृत्वा टिकडिकाः शुभाः। ( शा. सं. । खं. २ अ. ११; र. र. स. । पू. अ. वेष्टयित्वार्कपत्रैश्च खर्परस्थाः पुनः पचेत् ॥ २;र. रा. सु. ; आ. वे. प्र. । अ. ४; यो. र.; एवमेवार्कदुग्धस्य दद्यात्सप्तपुटानि च । यो. चि. म. । अ. ७; रसे. चि. म. । पुटत्रयं कुमाश्चि त्रिफलायाः पुटत्रयम् ॥
| गुडस्य च पुटं दत्वा पुनः पश्चामृतैः पुटेत् । तुल्यं घृतं मृताभ्रेण लोहपात्रे विपाचयेत । ततो वटजटाकाथैः सम्यक् देयं पुटत्रयम् ॥ घृते जीणे तदभ्रं तु सर्वयोगेषु योजयेत् ॥ एवं निश्चन्द्रतां याति सर्वरोगेषु योजयेत् । ____ अभ्रक भस्ममें उसके बराबर घी मिलाकर | मृत त्वभ्रं हरेन्मृत्युं जरापलितनाशनम् ॥ लोहपात्रमें पकावें । जब घी जल जाय तो अभ्रकको योजितं चानुपाने च सर्वरोगहरं परम् ॥ पीसकर रख लें।
__२ सेर कृष्णाभ्रकको पीसकर गोमूत्रमें मिलायहभस्म सर्वत्र प्रयुक्त की जा सकती है। । कर हाण्डी में डालें और चूल्हे पर चढ़ाकर २४
घंटे पाक करें । तदनन्तर उसे आकके दूधमें खरल ( र. रा. सु. ; आ. वे. प्र. । अ. ४ ; वृ. यो.
करके टिकिया बनावें और उन्हें सुखाकर आकके त. । त. ४१; रसे. चि. म. । अ. ४ ; र. र.)
पत्तोंमें लपेटकर शरावसम्पुटमें बन्द करें एवं त्रिफलात्वकषायस्य पलायान्यादाय षोडशः।
गजपुटमें फूंकदें । इसी प्रकार आकके दूधकी सात गोघृतस्य पलान्यष्टौ मृताभ्रस्य पलान् दश ।।
पुट दें। तदनन्तर उसे घृतकुमारी के रसकी ३, एकीकृते लोहपात्रे विपचेन्मृदुवह्निना।
| त्रिफला क्वाथकी ३, गुड़के पानीकी ३, पंचामृत द्रवे जीर्ण समादाय योगवाहे प्रयोजयेत् ॥
की ३ और बड़की जटाके क्वाथकी ३ पुट दें। अन्येषामपि धातूनाममृतीकरणं ह्ययम् ॥ इस विधिसे अभ्रककी निश्चन्द्र भस्म हो जाती है। ___ त्रिफलेका क्वाथ १ सेर, गोघृत आधा सेर अभ्रक भस्म जरा, मृत्यु, पलित और अनु.
और अभ्रक भस्म ५० तोले लेकर सबको एकत्र | पान भेदसे समस्त रोगोंको नष्ट करती है। मिलाकर लोहपात्रमें मन्दाग्नि पर पकावें । जब वह (पञ्चामृत-गिलोय, गोखरु, मूसली, शुष्क हो जाय तो पीसकर सुरक्षित रक्खें।
गोरखमुंडी, और शतावर समान भाग लेकर एकत्र __ अन्य धातुओंकी भस्मीका अमृतीकरण भी
मिलालें।) इसी प्रकार किया जाता है।
( ८९४८ ) अभ्रकमारणम् (२) ( ८९४७) अभ्रकमारणम् (१) ( यो. चि. म । अ. ७)
(र. रा. सु.) कृष्णाभ्रकसमादाय द्विपस्थं चूर्णयेवुधः। पुनर्नवा कुमारों च चपलां वानरी तथा । गोमूत्रलोडितं भाण्डे क्षिप्त्वा वन्हौ दिनं पचेत्॥ मुशलीं चेक्षुवल्लीं च तथा तामलकीरसैः ।
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४४०
भारत-भैषज्य-रलाकरः
[अकारादि
प्रत्येकैकेन पुटयेत्सतवारं पुनः पुनः । बार डालनेकी आवश्यक्ता नहीं है, सिर्फ १ बार अर्कसेहुण्डदुग्धेन प्रदेया सप्तभावनाः॥ ही डालना चाहिये ।) एवं स म्रियते वजं सर्वरोगहरं परम् ॥ तत्पश्चात् चौलाई और बासाके रसमें घोट
अभ्रकको क्रमशः पुनर्नवा (बिसखपरा), घोटकर पृथक् पृथक् सात सात पुट दें। घृतकुमारी, पीपल, कौंचकी जड़, मूसली, कृष्ण इस विधि से अभ्रककी निश्चन्द्र और सिन्दूरके क्षीरबिदारी और भुई आमला; इनके रस या क्या- समान लाल भस्म हो जाती है। थकी एवं आक और सेहुंड (थूहर ) के दूधकी |
( ८९५०) अभ्रकमारणम् (४) पृथक् पृथक् सात सात पुट देनेसे वह मर जाता है।
(र. र. स । पू. अ. २; र. रा. सु. ; र. प्र.
सु. । अ. ५) (८९४९) अभ्रकमारणम् (३)
वटमूलत्वचः काथैस्ताम्बूलीपत्रसारतः । (र. प्र. सु. । अ. ५)
वासामत्स्याक्षिकाभ्यां वामीनाक्ष्या सकटिल्लया। सूक्ष्मचूर्ण ततः कृत्वा पिष्ट्वा हंसपदीरसैः ॥
पयसा वटवृक्षस्य मदितं पुटितं धनम् । चक्राकारं कृतं शुष्कं दधादर्धगजाहये । भवेद्विशति वारेण सिन्दूरसदृशपभम् ॥ षट् पुटानि ततो दत्त्वा पुनरेवं पुनर्नवा- ॥
अभ्रकको ४ पुट बड़की जड़की छालके रसेन मर्दितं गाढमभ्रांशेन तु टङ्कणम् ।
क्वाथकी; ४ पुट पानके रसकी, ४ पुट बासा और पुनश्च चक्रिकां कृत्वा सप्तवारं पुटेखलु ॥
मछेछीके सम्मिलित रसकी, ४ पुट मछछी और तण्डुलीयरसेनेव तद्वद्वासारसेन च ।
लाल पुनर्नवाके सम्मिलित रसकी एवं ४ पुट बड़के पुटयेत्सप्तवाराणि पुटं दद्याद्गजार्धकम् ॥
दूधकी (इस प्रकार कुल २० पुट ) देनेसे उसकी अनेन विधिना चाभ्रं म्रियते नात्र संशयः ।
सिन्दूरके समान लाल भस्म हो जाती है । चन्द्रिकारहितं सम्यक् सिन्दूरामं प्रजायते ॥
| (८९५१ ) अभ्रकमारणम् (५) धान्याभ्रकका बारीक चूर्ण करके उसे हंस पदीके रसमें खरल करके टिकिया बनावें और उन्हें (शा. सं. । खं. ५. अ. ११; र. रा. सु.) सुखाकर शरावसम्पुट में बन्द करके अर्ध गजपुटमें शुद्धं धान्याभ्रक मुस्तशुण्ठी षड्भागयोजितम् । फूंक दें। इसी प्रकार हंसपादीके रसमें घोटकर | मर्दयेत्काभिकेनैव दिनं चित्रकजै रसैः ।। सात पुट दें। तदनन्तर उसे पुनर्नवा (बिसखपरा) | ततो गजपुटं दद्यात्तस्मादुद्धत्य मर्दयेत् । के रस में खरल करके अभ्रकके बराबरे सुहागा मिला- त्रिफलावारिणा तद्वत्पुटेदेवं पुटैस्त्रिभिः ॥ कर घोटकर उपरोक्त विधिसे पुट दें। इसी प्रकार | बलागोमूत्रमुसलीतुलसीसूरणद्रवैः। पुनर्नवाके रसमें घोटकर सात पुट दें। (सुहागा हर । मर्दितं पुटितं वहौ त्रित्रिवेलं व्रजेन्मृतिम् ॥
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रसपकरणम् ]
परिशिष्ट
४४१
६ भाग धान्याभ्रक में १-१ भाग नागरमोथे ततोस्य काक्षिकस्थस्य चिरं धर्मे विधारयेत । और सोंठका चूर्ण मिलाकर १ दिन कांजोमें पेषणं च विधातव्यं पौन पुन्येन पण्डितैः ।। खरल करें और उसके सूखने पर १ दिन चित्रक चाङ्गेरीस्वाङ्गनिर्यासैरप्येवं विधिमाचरेत् । मूलके क्वाथमें खरल करें तथा टिकिया बनाकर तण्डुलीयकमूलस्य रसेनापि ततः परम् ॥ सुखालें और यथा विधि गजपुटमें फूंक दें। तद- ततोस्मिन्खदिराङ्गारैनीते नीतेऽग्निवर्णताम् । नन्तर उसे त्रिफलाके क्वाथ; खरैटी (बला )के । | क्षिपेत्पुनः पुनः क्षीरे यथा निश्चन्द्रिकं भवेत् ।। क्वाथ, गोमूत्र, मूसलीके रस या क्वाथ, तुलसीके
___कृष्णाभ्रकको खैरके कोयलोंकी अग्नि पर रस और सूरण ( जिमीकन्द)के रसमें घोट घोटकर
तपाकर खूब लाल करें और कांजीमें बुझा दें। पृथक् पृथक् ३-३ पुट दें। बस अभ्रक भस्म तैयार
। तदनन्तर उसे कांजी समेत कई दिन तक धूपमें हो जायगी।
सुखावें और कई बार पीसकर बारीक करें। (८९५२ ) अभ्रकमारणम् (६)
___इसी प्रकार इस चूर्णको तपाकर लाल करके (र. रा. सु.)
चांगेरीके स्वरसमें बुझावें और फिर सुखाकर तपाअङ्गारोपरि विन्यस्त ध्मातमेव दलीकृतम्।। कर चौलाईकी जड़के रसमें बुझावें । तत्पश्चात् उसे निक्षिपेत्कालिके कृष्णमभ्रकं वह्नि सन्निभम् ॥ खैरकी लकडीके अंगारो पर तपा तपाकर अग्निके
धान्याभ्रकविधिः समान लाल करके दूधमे बुझावें । जब तक वह (र. र.)
निश्चन्द्र न हो जाय इसीप्रकार दूधर्मे बुझाते रहें । अथवाभ्रस्य भागो द्वौ टश्चैकं जलैः सह। (८९५३ ) अभ्रकमारणम् (७) द्विदिनं स्थापयेत्पात्रे सूक्ष्म कृत्वा प्रपेषयेत् ।।
(र. रा. सु.) बध्वा धान्ययुतं वस्त्रे मर्दयेत्काभिकैः सह।
धान्याभ्रं गुडतुल्यं च श्रेष्ठं क्षीरेण मर्दितम् । अधोयद्गालितं सूक्ष्म शुद्धं धान्याभ्रकं भवेत् ॥
कुर्यात्सचक्रिकां शुष्का सम्यग्गजपुटे पचेत् ॥ २ भाग अभ्रक और १ भाग सुहागेको एकत्र मिलाकर पानीसे भरे हुवे पात्रमें डाल दें और दो |
ततो धतूर पत्तर कुमारी शशिवाटिका । दिन पश्चात् निकालकर बारीक पीसकर उसमें धान
प्रत्येकं स्वरसेनैव पुटादाशुमतिं व्रजेत् ॥ मिलाकर कपड़ेमें बांधकर पोटली बनावें तथा उसे धान्याभ्रकमें समान भाग गुड़ मिलाकर दूधसे कांजीसे भरे हुवे पात्रमें डालकर दोनों हाथोंसे । घोटें और टिकिया बनाकर सुखा लें तथा शराव रगड़ें। इस क्रियासे जो बारीक अभ्रक पोटलीसे | सम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें पकावें । इसी प्रकार छनकर कांजीमें गिरे उसे निकालकर सुखा लें। धतूरे, पत्तूर (जल पीपल ), धृतकुमारी और पुनयही धान्याभ्रक है।
नवाके रसमें घोट घोटकर पुट दें। ( हरबार गुड़
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४४२
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[अकारादि
-
मिलाना चाहिये और पुट लगानेके बाद पानीसे बार अभ्रं कषायं मधुरं सुशीतबार धोकर गुड़के क्षारको निकाल देना चाहिये ।)
मायुष्करं धातुविवर्धनं च। इस विधिसे शीघ्र ही अभ्रक मर जाता है।। इन्यात्रिदोष व्रणमेहकुष्ठं (८९५४) अभ्रकमारणम् (८)
प्लीहोदरग्रन्थिविषकमीश्च ॥
रोगान्हन्ति दृति वपुर्वीर्यवृद्धि विधत्ते ( आ. वे. प्र. । अ. ४; र. रा. सु.)
तारुण्याढयं रमयति शतं योषितां नित्यमेव । अथ नागबला भद्रमुस्ता दुग्धं वटस्य च ।
दीर्घायुषकाअनयति मुतान्सिहतुल्यप्रभावान् । यद्वा वटजटातोयं हरिद्रावारिणा पुटेत् ॥
मृत्योर्भीति हरति च सदा सेवमानं मृताभ्रम् ॥ मभिष्ठा काथ तोयेन सर्वैरेभिर्यथाक्रमम् ।
वयास्तम्भकारी जरामृत्युहारी पुटितं भावनायोगाच्चरमे पुटने मुहुः ॥
बलारोग्यधारी महाकुष्ठदारी। जायते धरुणं चाति भस्म वज्राभ्रकोद्भवम् ॥
नृणां मेघ एकः स योगेषु योज्यः वज्राभ्रकको नागबला (गंगेरन ), नागर
सदा मूतराजस्य तुल्यो गुणेन ।। मोथा, बड़का दूध या बड़की जड़का रस, हल्दी
(वृ. यो. त.) और मजीठ; इनके रसमें पृथक् पृथक् घोटकर
धान्याभ्रकको १-१ दिन चौलाईकी जड़, पृथक् पृथक् गजपुट दें। इसी प्रकार बहुतसी पुढे
| केले और मोथेके रसमें तथा सुहागेके पानी और देने से अभ्रककी अत्यन्त लाल भस्म बन जाती है।
अंकोलकी जड़के क्वाथमें घोट घोटकर गजपुट (८९५५) अभ्रकमारणम् (९) दें। इसी प्रकार १२ पुट दें। तदनन्तर उसमें
(वृ. यो. त.। त. ४१; यो. र.) समान भाग गंधक मिलाकर मछेछीके रसमें घोटधान्यानं मेघनादैःकदलिघनजलैटङ्कणाङ्कोलतोयै । कर पुट दें। इसी प्रकार गंधक मिलाकर और खल्वे सम्म गाढं तदनु गजपुटाद्वादशैवं प्रदद्यात्। मछेछीके रसमें घोट घोट कर सात पुट दें। फिर मीनाक्षीभृातोयैत्रिफलजलयुतैर्मर्दयेत्सप्तवारं ७-७ पुट भंगरेके रस और त्रिफलाके क्वाथकी गन्धं तुल्यंच दत्त्वाप्रवरगजपुटात्पश्चतां याति मेघः दें। (हरबार गंधकभी मिला लेना चाहिये।)
इस विधिसे अभ्रक मर जाता है। १ निश्चन्द्रं च सुसूक्ष्मं च लोचनाञ्जनसनिभम्।। + + + + तदामृतमितिपक्तिमभ्रकं चान्यथामृतम् ॥ अभ्रक कषाय और मधुर सर युक्त, शीतल, ___ जब अभ्रक निश्चन्द्र और आंखोंके अंजनके | आयुवर्द्धक, धातुवर्द्धक तथा त्रिदोष, व्रण, प्रमेह, समान सूक्ष्म हो जाय तब उसे मृत समझना | कुष्ठ, प्लोहोदर, उदर प्रन्थि, विष और कृमिरोगको चाहिये। (र. रा. सु.)
नष्ट करनेवाला है।
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रसप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४४३
इसके नित्य सेवन से समस्त रोग नष्ट होकर पुट चौलाईकी जड़के रसमें दें। इस विधिसे अभ्रशरीर-दृढ़ होता है; वीर्यकी वृद्धि होती और यौव. कभस्म तैयार हो जाती है। नका विकास होकर नित्य १०० बार स्त्री समा
(८९५७) अभ्रकमारणम् (११) गमकी शक्ति प्राप्त होती है।
(१ पुटी भस्म ) इसके प्रभाव से अत्यन्त पराक्रमी और दीर्घायु | पुत्रोंकी प्राप्ति होती है; रोगजनित मृत्युका भय
(र. रा. सु.) नहीं रहता; वृद्धावस्था नहीं आती और आयु धान्याभ्रकस्य भागौ द्वौ भागेकं शुद्ध गन्धकम् । स्थिर रहती है।
वटक्षीरेण सम्पर्ध अन्धमूषां निरोधयेत् ।। अभ्रक बलवर्द्धक. आरोग्य रक्षक और पारटके पचेद्गजपुटेनैव वारमेकं मृतो भवेत् ॥ समान सर्व रोग नाशक है।
२ भाग धान्याभ्रक और १ भाग शुद्ध गंधक (८९५६) अभ्रकमारणम् (१०)
को एकत्र मिलाकर बड़के दूधमें खरल करें और
| टिकिया बनाकर सुखा लें तथा अन्धमूषामें बन्द ( र. रा. सु.)
! करके गजपुटमें फूंक दें। इस विधिसे १ ही पुटमें ततो धान्याभ्रकं कृत्वा पिष्ट्वा मत्स्याक्षिकारसैः। अभ्रक मर जाता है। चक्री कृत्वा विशोष्याथ पुटं दत्वाभ्रके तथा । (८९५८) अभ्रकमारणम् (१२) देयं पुटं हि षदार पुनर्नवरसैः सह ।
(३ पुटी भस्म) कलांशं टङ्कणेनापि सम्म चक्रिकाकृतम् ।।
(र. र. स. । पू. अ. २) ऊर्द्धभागे पुटेत्तद्वत् सप्तवारं प्रयत्नतः ।
गन्धर्वपत्रतोयेन गुडेन सह भावितम् । एवं वासारसेनापि तन्दुलीयरसेन च ॥
अधोवं वटपत्राणि निश्चन्द्र त्रिपुटैः खगम् ।। मपुटेत्सप्तवाराणि पूर्वमोक्तविधानतः ॥
क्षुधं करोति चात्यर्थ गुञ्जार्धमिति सेवया। एतत्सिद्धं घनं सर्वयोगेषु विनियोजयेत् ॥
तत्तद्रोगहरैर्योगैः सर्वरोगहरं परम् ॥ ___ धान्याभ्रकको मछेछी के रसमें खरल करके अभ्रकमें (समान भाग) गुड़ मिलाकर अर. टिकिया बनावें और उन्हें सुखाकर शराव सम्पुटमें। ण्डके पत्तोंके रसमें घोटकर टिकिया बनावें और बन्द करके गजपुट में फूक दें। इसी प्रकार ६ फिर उन्हें सुखाकर बड़के पत्तोंमें लपेटकर गजपुट दें। तदनन्तर उसमें १६ वां भाग सुहागा पुटमें फूंक दें। इस प्रकार ३ पुट देनेसे अभ्रक मिलाकर पुनर्नवा (बिसंखपरा)के रसमें खरल करके निश्चन्द्र हो जाता है । पुट दें। इसी प्रकार पुनर्नवाके रसमें सात पुट दें। यह अभ्रक भस्म अत्यन्त क्षुधावर्द्धक और
इसी प्रकार सात पुट बासाके रसमें और सात | योगवाही है।
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
मात्रा - आधी रत्ती ।
( हर पुटके बाद पानीसे कई बार धोकर गुड़ के क्षारको निकाल देना चाहिये । )
(८९५९) अभ्रकमारणम् (१३) ( ४ पुटी भस्म )
( रसरत्नाकर ) धान्याभ्रं टङ्कणं तुल्यं गोमूत्रैस्तुलसीदलैः । बाकुच्याः शूरणैरल्पैर्दिनं पिवा पुटे पचेत् ॥ जयन्त्याश्च द्रवैः पश्चान्मद्यै मर्द्य त्रिधा पुटेत् । चतुर्गजपुटेनैवं निश्चन्द्रं सर्वरोगजित् ॥
धान्याक और सुहागा बराबर बराबर लेकर दोनों को एकत्र खरल करके १-१ दिन गोमूत्र, तुलसीपत्रके रस, बाबचीके रस या क्वाथ और ज़िमिकंद (सूरण)के रसमें घोटकर शराब सम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें फूंक दें। तदनन्तर उसे जयन्ती के रस में घोट घोटकर ३ पुट दें। इस प्रकार ४ पुट देनेसे अभ्रक निश्चन्द्र हो जाता है ।
(८९६०) अभ्रकमारणम् (१४) ( १० पुटी भस्म )
;
( र. र. स. पू. अ. २; र. रा. सु. र. प्र. सु. अ. ५ ; आ. वे. प्र. ) धान्या कासमर्दस्य रसेन परिमर्दितम् । पुटितं दशवारेण म्रियते नात्र संशयः ॥
arrant कसौंदी रसमें खरल करके टिकिया बनावें और सुखाकर शरावसम्पुट में बन्द करके गजपुटमें फूंक दें। इसी प्रकार दस पुट देनेसे अभ्रक अवश्य मर जाता है ।
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[ अकारादि
(८९६१) अभ्रकमारणम् (१५) ( ६० पुटी भस्म )
( र. र. स. । पू. अ. २ ; र. रा. सु. ) तद्वन्मुस्तारसेनापि तण्डुलीयरसेन च । पीतामलकसौभाग्य पिष्टं चक्रीकृताभ्रकम् ॥ पुटितं षष्ठि वाराणि सिन्दूराभं प्रजायते । क्षयाथखिलरोगघ्नं भवेद्रोगानुपानतः ॥
अभ्रक में हरताल, आमले और सुहागेका चूर्ण ( अभ्रकका साठवां भाग ) मिलाकर नागरमोथेके रसमें खरल करें और टिकिया बनाकर सुखालें तथा शरावसंपुटमें बन्द करके गजपुटमें फूंक दें। इसीप्रकार ३० पुट दें। तत्पश्चात् ३० पुट चौलाईकी जड़के रस में घोट घोट करदें । (हर बार उपरोक्त तीनों पदार्थ डालते रहना चाहिये ।) इस प्रकार ६० पुट देनेसे सिन्दूरके समान लाल भस्म हो जाती है जो अनुपान भेदसे क्षयादि समस्त रोगों को नष्ट करती है ।
(८९६२) अभ्रकमारणम् (१६) ( ६० पुटी भस्म ) (र. प्र. सु. अ. ५. ) एवं मुस्तारसेनापि तण्डुलीय शिवारसैः । टङ्कणेन समं पिट्वा चक्राकारमथाभ्रकम् ॥ षष्टिसङ्ख्यपुटैः पक्वं सिन्दूरसदृशं भवेत् । कुष्ठक्षयादिरोगघ्नमभ्रकं जायते ध्रुवम् ॥
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अभ्रक ( समान भाग ) सुहागा मिलाकर नागरमोथेके रस में खरल करें और टिकिया बनाकर सुखालें तथा शराव - सम्पुट में बन्द करके गजपुटमें फूंक दें इसी प्रकार मोथेके रसकी २० पुट दें
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रसप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
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-
और फिर २०-२० पुट चौलाईकी जड़के रसकी तथा आमलेके रसको दें। इस प्रकार कुल ६० पुट देनेसे अभ्रककी सिन्दूरके समान लाल भस्म हो जाती है जो कुष्ठ, क्षयादि रोगोंको नष्ट करती है।
(सुहागा हरबार मिलानेकी आवश्यकता नहीं है सिर्फ १ बार ही मिलाना चाहिए।) (८९६३) अभ्रकमारणम् (१७)
( सहस्रपुटीभस्म )
(रे. रा. सु.) वज्राभ्रकं कुटयित्वा सुखल्वे
गोदुग्धेन तप्ते च सिञ्चनीयम् । तल्लोहपात्रे मृदुरनिपक्वं
घृतेन किश्चिञ्च विलोलयित्वा ॥ शालीविमिश्रेण सुवस्त्रमध्ये
बध्वा दृढं पोटलिकाम्भपात्रे । विघृष्य तोयान्तरसंस्थितं त
धान्याभ्रकं शुद्धं भवेच्च पश्चात् ।। खल्वे सुरम्ये दृढं घर्षयित्वा
जलं चतुःषष्टि वनस्पतीनाम् । सूर्यातपे शोष्य दिनान्तकाले
वनोत्पलानां पुटमाचरेश्च ॥ एवं विधं मारितमभ्रकं च
वनस्पतीनां क्रम एवमुक्तम् । दुग्धं रखेटदुग्धवनि___ कुमारिकानामनिलारितिक्ता॥ मुस्ता गुइची विजया त्रिकण्ट___ वर्ताकिनी पर्णिद्वयं च गुल्मम् । सिद्धार्थको वै खरमञ्जरीणां
___ वटप्ररोहं अजशोणितं च ॥ पिल्वानिमन्थोग्निसतिन्दुकानां ___ हरीतकीपाटलिकासमूहैः। गोमूत्रधात्रीकलिमम्भकुम्भो
तालीसपत्रं च सतालमूली ॥ वृषाधगन्धा मुनिभृङ्गराज
रम्भाजलं सासुसप्तपर्णम् । धत्तरलोभ्रं च सदेवदारु
वृन्दा सदूर्वा द्वयकासमः॥ मरीचकं दाडिम काकमाची
सशङ्खपुष्पी नतनागवल्ली। पुनर्नवामण्डूकपर्णिका च ___ इन्द्रावणी भार्गि च देवदाली॥ कपित्थलिङ्गीकटुकिंशुकानां ___ कोषातकीमूषकपर्ण्यनन्ता। मीनाक्षिकाकारवितैलपर्णी
कुम्भी तथाः च शतावरीणाम् ॥ एभिश्च तोयैः स्थितखल्वमध्ये
विघर्षयेच्छुष्कभवं तथैव । वनोत्पलानां पुटमनिशीतं
पुनः पुन खल्वतले विघर्षत् ॥ एभि क्रियां षोडशवारमेकं
वल्लीजलानां पुटमारभेच्च । निश्चन्द्रगोपारुणरङ्गतुल्यं
भस्मं सुधा दिव्यं रसायनं च ॥ नानानुपानैरजरामरं च
शरीरिणां सेव्यमिदं वरिष्टम् । गुणैः सहस्रावधि सेवकानां
समस्तरोगारिरसप्रसिद्धम् ॥
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
वज्रा को उत्तम खरलमें कूटकर तपाकर गोदुग्धमें बुझावें। तत्पश्चात् उसे दूधसे निकालकर थोड़ा घी मिलाकर लोह पात्रमें मन्दाग्नि पर पकायें जब धी जल जाय तो अभ्रक में शालीधान मिलाकर कम्बलकी थैली में डालें और उसका मुख बन्द करके उसे कांजीसे भरी हुई परात ( या बड़े मृत्पात्र ) में डालकर हाथों से मसलें | इस क्रिया से समस्त अभ्रक कांजीमें आ जायगा । इसे धान्याभ्रक कहते हैं ।
अब इस अभ्रकको उत्तम खरल में डालकर निम्नलिखित ओषधियोंके रसमें घोट घोटकर टिकिया बनाकर सुखावें और गजपुटमें फूंकें । ओषधियों के नाम
(३)
(१) आक का दूध, (२) बड़का दूध, सेहुंड ( थूहर ) का दूध, (४) घृतकुमारी ( ५ ) अरण्डमूल (६) कुटकी (७) नागरमोथा (८) गिलोय (९) भांग (१०) गोखरु (११) कटेली (१२) शालपर्णी (१३) पृष्ठपर्णी (१४) गठौना (ग्रन्थि पर्ण) (१५) सरसो (१६) चिरचिटा (अपामार्ग ) (१७) बड़के अंकुर (१८) बकरीका रक्त (१९) बेल छाल (२०) अरण (२१) चीता (२२) तेंदु (२३) हर्र (२४) पाटला (पाढल) (२५) गोमूत्र (२६) आमला (२७) बहेड़ा (२८) जलकुम्भी (२९) तालीसपत्र (३०) तालमूली (३१) बासा (३२) असगंध (३३) अगथिया (अगस्ति) (३४) भंगरा (३५) केलेका रस (३६) अदरक (३७) सतौना (३८) धतूरा (३९) लोध (४०) देवदारु (४१) तुलसी (४२) दूब (४३) सफेद दूब (४४) कसौंदी (४५) काली मिर्च (४६) अनारकी छाल (४७) मकोय (४८) शंखपुष्पी (४९) तगर (५०)
[ अकारादि
|
पान (५१) पुनर्नवा (५२) मण्डूकपर्णी (५३) इन्द्रायण (५४) भरंगी (५५) देवदाली (बिडाल) (५६) कैथ (५७) शिवलिंगी (५८) कड़वा पटोल (५९) पलाश (ढाक) (६०) तुरई (६१) मूषाकर्णी (६२) अनन्तमूल (६३) मछेछी (६४) कलौंजी (६५) तेलपर्णी (६६) कुम्भी [ दन्ती ] और (६७) हरी शतावर*
इन ओषधियों में से प्रत्येकके रस में घोट घोट कर १६-१६ पुट दें ।
यह भस्भ निश्चन्द्र और इंद्र गोप (बीरबहूटी) के समान लाल रंग की होगी ।
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यह अमृत के समान गुणकारी दिव्य रसायन है । यह उचित अनुपानके साथ देने से समस्त रोगोंको नष्ट करती है ।
(८९६४) अभ्रकमारणम् (१८) ( श्वेताभ्रक भस्म विधिः ) (र. रा. सु. )
अभ्रकं त्रिपलं शुद्धं क्षिपेत्युक्ते चतुर्गुणे । चत्वारिंशद्दिनान्येव स्थापयेत्तत्र बुद्धिमान् ||
|
* ऊपर श्लोक में ६४ वनस्पतियों का उल्लेख किया है । परन्तु नाम ६७ ओषधियोके लिये हैं । अतः इनमें से गोमूत्र और बकरीका रक्त निकाल देना चाहिये क्योंकि ये वनस्पतियां नहीं हैं; इनके नाम छन्दकी मात्रा पूरी करनेके लिये हो लिख मारे प्रतीत होते हैं। इसके अतिरिक्त दो प्रकारको दूबको एक ही मानना चाहिये । और दोनो में से जो मिले वही ले लेनी चाहिये । इस से ६४ संख्या पूरी हो जायगी ।
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रसप्रकरणम्
परिशिष्ट
४४७
पला? पारदं शुद्धं पलं बम्बूरज नवम् । सुखा लें और गज पुटमें फूंकदें। इसी प्रकार ३ कुसुमं च समादाय मर्दोद्भिषगुत्तमः ॥ पुट देनेसे अभ्रककी भरम हो जायगी। उभयोर्गुटिकामेकां कृत्वा तत्रैव निःक्षिपेत् । मात्रा--१ रत्ती। दण्डेन चालयेन्नित्यं त्रिदिनं नाधिकं ततः ॥ इसे नित्य सेवन करनेसे अन्धे को भी दिव्य मर्यादा दिवसे पूर्णे खल्वे क्षिप्त्वा विमर्दयेत् । (श्रेष्ठ) दृष्टि प्राप्त हो जाती है । इसके सेवनसे जठघनत्वमागतं दृष्ट्वा चक्रिकां कारयेद्बुधः ॥ राग्नि तीत्र होती और वातज, पित्तज, कफज, तथा धर्म संशोध्य विधिना ततो गजपुटे पचेत् । । रुधिर विकार जनित रोग, प्रमेह, अण, तृषा, कुष्ठ पुनः शुक्तान्तरेणैव मर्दयेदेकवासरम् ॥ प्लीहावृद्धि, उदररोग, ग्रन्थि, कृमि और कर्णश्वेड वन्योत्पलैः पचेदेवं कुर्याद्वारत्रयं ततः। ( कानोंमें बांसरीका सा शब्द होना ) का नाश भस्मीभूतमिदं खादेद्गुअामात्र निरन्तरम् ॥ होता है। अन्धोपि दिव्यदृष्टिः स्यात्तीब्रो वद्विश्च जायते ।। यह भस्म अत्यन्त पौष्टिक है। वातपित्तकफातङ्कान् तथैव रुधिरामयान ॥ प्रमेहान्नाशयेत्सर्वानात्र कार्या विचारणा।
(८९६५) अभ्रकमारणम् (१९) अतीव पुष्टिजनको व्रणट्नाशनं परम् ।।
( रसरत्नाकर ) कुष्ठं प्लीहोदरं ग्रन्थिकृमिक्ष्वेडविनाशनम् ॥* धान्याभ्रकं द्रवैर्मध मत्स्याक्षीतुलसीद्रवैः ।
१५ तोले शुद्ध सफेद अभ्रकको चार गुने मूलजैः कोकिलाक्षस्य कुमारीश्वेतदर्वयोः॥ सिरकेमें डाल दें। ४० दिन पश्चात् २॥ तोले व्याघ्रीकन्दपुनर्नव्या दिनमेतैविमर्दयेत् । पारद और ५ तोले बबूलके नवीन फूलोंको एकत्र कुञराख्यैः पुटैः सप्त पिष्ट्वा पिष्ट्वा पचेत्पुनः॥ खरल करके सबकी १ गोली बनावें और उसे उप- तद्वत्पश्चामृतः पाच्यं पिष्ट्वा पिष्वा तु सप्तधा। रोक्त अभ्रकवाले पात्रमें डाल दें। इसे रोज डण्डेसे | एवं निश्चन्द्रतां याति सर्वरोगेषु योजयेत् ॥ चला दिया करें। ३ दिन पश्चात् उस सबको खर- | धान्याभ्रकको मछेछीके रसमें घोट कर टिकिया लमें डालकर घोटें और गाढा होने पर छोटो छोटी बनावें और उन्हें सुखाकर शराव-सम्पुटमें बन्द टिकिया वनाकर सुखा लें तथा उन्हें शराव सम्पुटमें करके गजपुटमें फूंक दें। इसी प्रकार मछेछीके रससे बन्द करके गजपुटमें फुक दें। तत्पश्चात् उसे । घोटकर सात पुट दें। फिर क्रमशः तुलसीके रस, पुनः १ दिन सिरके में घोटकर टिकिया बनाकर तालमखानेकी जड़के क्वाथ, घृतकुमारीके रस, सफेद ___ *र. रा. सु. ग्रन्थके रचयिता श्रीयुत् पं. दत्तराम ! दूबक रस, कटलाका जड़क रस, आर पुननवा के चौबेजी लिखते हैं कि यह क्रिया अत्यन्त चमत्कृत
रसमें घोटघोट कर पृथक पृथक् सात सात पुट दें। है और हमारी अनुभव की हुई है इसमें सन्देह | तत्पश्चात् पञ्चामृत के साथ घोटघोट कर सात नहीं है।
पुट दें।
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४४८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ अकारादि
-
इस प्रकार अभ्रककी निश्चन्द्र भस्म बन जाती है। अभ्रक भस्म, अपामार्ग (चिरचिटे) का चूर्ण,
(पश्चामृत-गिलोय, गोखरु, मूसली, चांदी भस्म और दो प्रकारकी दुद्री समान भाग गोरखमुंडी और शतावर सब समान भाग एकत्र लेकर एकत्र खरल करें। मिलाकर काथ बनावें ।)
मात्रा-२ रत्ती। (८९६६) अभ्रकमारणम् (२०) इसे प्रातःकाल खाकर मध्याह्नमें भोजन कर(र. र.)
| ना चाहिये। पुनर्नवामेघनादद्रवैर्धान्याभ्रक दिनम् । इसके सेवनसे असाध्य कहा जाने वाला मधं गजपुटे पच्यात्पुनश्चिश्चाथ शुरणैः ।। - उदम्बरनामक महाकुष्ठ भी नष्ट हो जाता है। द्रवैर्मुस्तभवैर्मर्थ पृथग देयं पुटत्रयम् ।
इसके सेवन कालमें अम्ल, विदाही और एवमर्कदलैष्टिं देयं वा मोचसम्पुटे ।। गुरु पदार्थो से परहेज़ करना तथा पुराने चावलोका निश्चन्द्रं जायते ह्यभ्रं यथादोषेषु योजयेत् ॥ भात घी और दूध खाना चाहिये । शुद्ध अभ्रकको पुनर्नवा, चौलाई, इमली, सूरण
___(८९६७) अभ्रकरसायनम् (१) (जिमिकंद) और नागरमोथा; इनके रसोंमें घोट घोटकर पृथक् पृथक् ३-३ पुट दें। हरेकके
(र. र. स. । पू. अ. २; र. प्र. सु. । अ. रसमें १ दिन खरल करके टिकिया बनाकर सुखा.
५ ; र. रा. सु.) कर आकके पत्तोंमें या केलेके पत्तोंमें लपेटकर शराव खल्वे पिष्ट्वा तु मतिमान् सूक्ष्मचूर्ण तु कारयेत् । संपुटमें बन्द करके गजपुटमें फूंकना चाहिये। गालितं वस्त्रखण्डेन घृतेन च परिप्लुतम् ॥ इसी प्रकार हरेक द्रव्यके रसकी ३ पुट देनी भर्जितं दशवाराणि लोहखर्परकेण वै । चाहियें ।
अग्निवर्णसमं यावत्तावत्पिष्ट्वा तु भर्जयेत् ।। इस विधिसे अभ्रक निश्चन्द्र हो जाता है। शुकपिच्छसमं पिष्ट्वा काथे तु वटमूलजे । (८९६६ अ) अभ्रकयोगः
ततो विंशतिवाराणि पुटेच्छूकरसंज्ञिकैः ॥ अभ्रं मृतमपामार्गरजतं क्षीरिकाद्वयम् । वराकषायेमेतिमान् तथा कुरु भिषग्वरः। समं गुनाद्वयं प्रात: प्रातरेनं निषेवयेत् ॥
नीलीगुआवरापथ्यामूलकेन सुभावयेत् ।। मध्याहे भोजनं कार्य कुष्ठं साध्यं भवेद्धवम । संशुष्कं भक्षयेद्विद्वान् सर्वरोगहरं परम् । उदुम्बरमहाकुष्ठं यदसाध्यं प्रचक्षते ॥
| अभ्रसत्वात्परं नास्ति रसायनमनुत्तमम् ॥ विनिहन्ति बलादेतद्योग्यमात्रानिषेवितम्। यदि चेच्छतवाराणि पाचयेत्ताबवाहना। सप्तसप्तकमात्रैश्च दिवसैर्नाशयेत्किल ॥ तदाऽमृतोपमं चाभ्रं देहलोहकरं परम् ।। अम्लं वस्तु न चाश्नीयाद्विदाहि च गुरुण्यपि। शुद्ध वज्राभ्रक (अभ्रक सत्व )को बारीक पीसजीर्णामानि च शस्यन्ते रोगिणे घृतदुग्धकम् ॥ कर कपड़ेसे छान लें और उसे घृतसे चिकना करके
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रसप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४४६
लोहे की कढ़ाइमें डालकर अग्नि पर रक्खें । जब घो सम्प्रताप्य घनस्थूलकणान्क्षिप्त्वाथ कांजिके । जल जाय और अभ्रक अंगारों के समान लाल हो तत्क्षणेन समाहृत्य कुट्टयित्वा रजश्चरेत् ॥ जाय तो और घी डाल दें। इसी प्रकार दस गोघृतेन च तर्ण भर्जयेत्पूर्ववत्रिधा। बार घी डालकर जलावें । तदनन्तर जब वह धात्रीफलरसैस्तद्वद्धात्रीपत्ररसेन वा ॥ अग्निके समान लाल हो जाय तो अग्निसे नीचे । भर्जने भर्जने कार्य शिलापट्टेन पेषणम् । उतारकर ( ठंडा करके ) उसमें उसके बराबर शुद्ध ततः पुनर्नवावासारसैः कानिकमिश्रितैः ।। गंधक डालकर घोटें और फिर बड़की जड़की छालके प्रपुटेशवाराणि दशवाराणि गन्धकैः । क्वाथमें खरल करके टिकिया बनाकर सुखालें तथा एवं संशोधितं व्योमसत्त्वं सर्वगुणोत्तरम् । उन्हें शरावसम्पुट में बन्द करके वराह पुटमें फूंक दें। यथेष्टं विनियोक्तव्यं जारणे च रसायने । ____ इसी प्रकार हर बार गंधक मिलाकर बड़की वेल्लव्योषसमन्वितं घृतयुत वल्लोन्मितं सेवितं जड़की छालके क्वाथमें घोट घोट कर २० पुट दें। दिव्यानं क्षयपाण्डुरुग्ग्रहणिकाशूलामकुष्ठामयम्। इसी प्रकार त्रिफलाके क्वाथ में खरल करके २० | ऊर्वश्वासगदं प्रमेहमरुचिं कासामयं पुट दें । ( हर बार गंधक भी डालना चाहिये )। दुर्धरं मन्दाग्निं जठरव्यथां विजयते योगैरतदनन्तर नीलके पंचांगके रस, गुञ्जामूलके रस या
शेषामयान् ॥ क्वाथ, त्रिफलाके क्वाथ और हर्र की जड़के काथकी अभ्रक सत्वकी डलीको अग्नि में रखकर ध्मायें । १-१ भावना देकर सुखाकर सुरक्षित रखें । * जब वह अंगारेके समान लाल हो जाय तो उसे ____यदि इसे उपरोक्त विधिसे १०० पुट दिये चावलोंकी कांजीमें बुझा दें और फिर तुरन्त ही जायं तो यह अमृतोपम रसायन हो जाती है और निकालकर लोहेकी मूसलीसे कूट लें । जो बड़े बड़े शरीरको अत्यन्त दृढ़ करती है।
कण रह जाएं उन्हें फिर इसी प्रकार गरम करके अभ्रकसत्व से उत्तम अन्य कोई भी रसायन | कांजीमें बुझावें और तुरन्त ही कूट लें । इसी प्रकार नहीं है।
सम्पूर्ण अभ्रकसत्व का बारीक चूर्ण कर लें। (८९६८) अभ्रकरसायनम् (२)
___इस चूर्णमें गोघृत मिलाकर लोहेकी कढ़ाई में (दिव्याभ्रकरसायनम् )
डालकर आग पर रक्खें । जब वह आगके समान ( र. रे. स. । अ.२ ; र. रा. सु.) लाल हो जाय तो अग्निसे नीचे उतारकर अच्छी सत्वस्य गोलकं ध्मातं सत्यसंयुक्तकाधिके । तरह पीसें और पुनः घी मिलाकर भूनें। इसी प्रकार निर्वाप्य तत्क्षणेनैव कुट्टयेल्लोहपारया ॥ ३ बार घी डालकर भूनें। इसी प्रकार ३ बार
*र. र. स. के मतानुसार त्रिफला, मुण्डी, आमलेका रस या आमलेकी पत्तियोंका रस मिलाकर भांगरेके पत्ते और बहेडेकी जड़के क्वाथकी भावना भूनें । हरबार भूननेके पश्चात् शिलापर पत्थरसे देनी चाहिये।
पीसना चाहिये ।
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४५०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[अकारादि
तदनन्तर पुनर्नवा (बिसरखपरा ) का रस, वासा, ! तस्माद्यत्नेन सद्वैद्यैर्वर्जनीयानि नित्यशः ।। (अडूसा) का रस, और कांजी समान भाग लेकर तीनोंको एकत्र मिलाकर उसमें उपरोक्त चूर्णको वजाभं धमायमानेऽनौ विक्रति न भजेत कदा। घोटकर टिकिया बनाकर सुखा लें और उन्हें शराव- सेवितं तन्मृति हन्ति वज्राभं कुरुते वपुः॥ सम्पुट में बन्द करके गज पुट में फूंक दें। इसी प्रकार इस मिश्रण में खरल करके दश पुट दें। फिर उसमें
पिनाकं चाग्निसन्तप्तं विमुञ्चति दलोच्चयम् । ( समान भाग ) गंधक मिलाकर (उपरोक्त मिश्रण में
सेवितं चैकमासेन कृमि कुष्ठं करोत्यलम् ।। घोटकर) पुट दें। इसी तरह गंधक के साथ घोट घोट कर १० पुट दें। इस विधिसे अभ्रकसत्वकी सर्वश्रेष्ठ भस्म होजाती !
नागाभ्रं ध्मापितं सम्यङ्नागवत्स्फूर्जते ध्रुवम् । है । इसे रसायन और जारणमें प्रयुक्त करसकते हैं।
सेवितं तत्प्रकुरुते क्षयरोगसमुद्भवम् ॥
विषं हालाहलं पीतं मारयत्येव निश्चितम् । ___ इसमेंसे २ रत्ती भस्म बायबिडंग और त्रिकुटेके तथा नागाभ्रनामानं सद्वैद्यः कथयत्यलम् ।। चूर्णके साथ मिलाकर धीके साथ सेवन करने से क्षय, पाण्डु, ग्रहणी विकार, शूल, आम, कुष्ट, ऊर्च श्वास, प्रमेह, अरुचि, दुर्जय कास, अग्निमांद्य, और मण्डूक
मण्डूकादं प्रकुरुते ताप्यमानं हि नित्यशः। उदररोगोंका नाश होता है।
क्षणं चाग्नौ न तिष्ठेत मण्डूकसदृशां गतिम् ।
मण्डूकाभ्रं न सेव्यं हि कथितं रसवेदिना ।। (८९६९) अभ्रकशोधनम् (१) (.र. प्र. सु. । अ. ५)
मृतं वज्राभ्रक सम्यक सेवनीयं सदा बुधैः । क्रममाप्तमहं वक्ष्ये गगनं तु चतुर्विधम ।
| वलीपलितनाशाय दृढतायै शरीरिणाम् ।। श्वतं रक्तं तथा पीतं कृष्णं परममुन्दरम् ।।
सर्वव्याधिहरं त्रिदोपशमन वद्देश्च संदीपनं श्वेतं श्वेतक्रियायोग्यं रक्तपीतं हि पीतकृत ॥
वीर्यस्तम्भविदृद्धिकृत्परमिदं कृच्छादिरोगापहम्। कृष्णा, सर्वरोगाणां नाशनं परमं सदा।
भूतोन्मादनिवारणं स्मृतिकरं शोफामयध्वंसके वजं पिनाकं नागं च मण्डूकमभिधीयते ॥
सद्यःप्राणविवर्धनं ज्वरहरं सेव्यं सदा चाभ्रकम्॥ अनेन विधिना प्रोक्ता भेदाः सन्तीह षोडश ।। सानो
. अभ्राणामेव सर्वेषां वन्रमेवोत्तमं सदा ॥ यथा विषं यथा वनं शस्त्राग्नी प्राणहा यथा । शेषाणि त्रीणि चाभ्राणि घोरान व्याधीन् भक्षितं चन्द्रिकायुक्तमभ्रकं तादृशं गुणैः ॥
सृजन्ति हि ।
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रसप्रकरणम् ]
स्वेदयेद्दिनमेकं तु काञ्जिकेन तथाभ्रकम् । पश्चात्कुलत्थजे काये तक्रे मूत्रेऽथ वह्निना ॥ पाचितं दोषशून्यं तु शुद्धिमायाति निश्चितम् ।
अभ्रक ४ प्रकारका होता है; (१) सफेद (२) पीला (३) लाल और (४) सुन्दर कृष्ण वर्ण का । स्वेताक श्वेत क्रिया ( चांदी बनाने ) में; लाल और पीला पीतक्रिया ( स्वर्ण निर्माण ) में और काला औषधों में प्रयुक्त होता है ।
परिशिष्ट
उपरोक्त चारों प्रकारके अभ्रक के ४-४ भेद होते हैं - (१) वज्र (२) पिनाक (३) नाग और ( ४ ) मण्डूक | इस प्रकार अभ्रक १६ भेद हैं ।
उपरोक्त भेदों में केवल वज्राभ्रक ही औषधों में प्रयुक्त होता है शेष तीन प्रकारके अभ्रक खानेसे अनेक घोर व्याधियां उत्पन्न होती हैं ।
X
X
X
Eatest में तपानेसे उसमें किसी प्रकारका परिवर्तन नहीं होता-न वह फूलता है, न कूदता है और न शब्द करता है । इसे सेवन करनेसे शरीर वज्रके समान दृढ़ हो जाता है और ( रोगजनित ) मृत्यु नहीं होती ।
X
X
X
जिस अभ्रकको अग्नि में तपानेसे उसके पत्र अलग अलग हो जाएं उसे " पिनाक " कहते हैं । इसे सेवन करने से १ मासमें ही कृमि और कुष्ठ रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।
x
X
X
नागाभ्रक को अग्निमें तपानेसे सर्प की फुंकारके समान शब्द होता है । इसे सेवन करने से क्षय रोग
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४५१
उत्पन्न होता है । नागात्रको वैद्य हालाहल विष समान मारक मानते हैं ।
+
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मण्डूका को अग्निमें तपानेसे वह मेंढक के समान बारबार कूदता है और जरा देर भी अग्निमें स्थिर नहीं रहता । रस - विज्ञान - वेत्ता इसे भी असेव्य बतलाते हैं ।
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बलि पलित का नाश और शरीरको दृढ़ करने के लिये केवल वज्राकी उत्तम रीति से बनी हुई भस्म ही सेवन करनी चाहिये ।
यह भस्म सर्वरोग - नाशक, त्रिदोषशामक, अग्नि दीपक, वीर्यस्तम्भक तथा वर्द्धक, मूत्रकृच्छ्रादि नाशक, एवं भूतोन्माद, शोथ और ज्वरको नष्ट करनेवाली तथा शीघ्र बलवर्द्धक होती है। इसके सेवन से स्मृति भी बढ़ती है ।
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+
+
जो अभ्रक भस्म निश्चन्द्र न हो - जिसमें तनिक भी चमक हो उसे कदापि सेवन न करना चाहिये । वह विष, वज्र, शस्त्र और अग्निके समान घातक होती है।
अभ्रकको १ - १ दिन क्रमशः काञ्जी, कुलथीके क्वाथ, तक और गोमूत्र में पकानेसे वह शुद्ध हो जाता है ।
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(८९७०) अभ्रकशोधनम् (२)
र. र. स. । पू. खं. अ. २ ; यो. र. ) प्रतप्तं सप्तवाराणि निक्षिप्तं काञ्जिके भ्रकम् । निर्दोषं जायते नूनं प्रक्षिप्तं वापि गोजले ||
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४५२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ अकारादि
अभ्रकको तपा तपाकर सात बार कांजी या अभ्रकको तपा तपा कर ( सात सात बार ) गोमूत्रमें बुझानेसे वह शुद्र हो जाता है। त्रिफलाके क्वाथ, गोदुग्ध, गोमूत्र और भंगरेके रसमें
(र. प्र. सु. में केवल कांजी द्वारा शोधन | बुझानेसे वह शुद्ध हो जाता है। लिखा है।)
(८९७४) अभ्रकसत्वनिष्कासनविधिः (८९७१) अभ्रक शोधनम् (३)
( आ.वे. प्र. । अ. ४) ( आ. वे. प्र. । अ. ४ ; वृ. यो. त. । त. ४१ ;
पिण्डीकृतं तु बहुधा महिषीमलेन यो. र. ; यो. चि. म. । अ. ७ ; भा. प्र. पू.
___ संशोष्य कोष्ठगतमाशु धमेद्धठानौ ।
सत्वं पतत्यतिरसायनजारणार्थ खं. ; र. र.)
___ योग्यं भवेत्सकललोहगुणाधिकं च ।। वज्राभ्रक धमेद्वह्नौ ततः क्षीरे विनिक्षिपेत् । सप्तधा भिमपत्रं तत्तण्डुलीयाम्लयोवैः ॥ भावयेदष्टयामं तदेवं शुध्यति चाभ्रकम् ॥ कणशो यद्भवेत्सत्वं मूषायां प्रणिधाय तत । ___ वजाभ्रकको अग्निमें तपाकर दूधमें बुझा दें।
मित्रपश्चकयुगध्मातमेकी भवति घोषवत् ।।
घृतमधुगुग्गुलु गुलाटणमेतत्तु मित्रपञ्चकं नाम । इसी प्रकार सात बुझाव देनेके पश्चात् जब उसके
मेलयति सप्तधातूनगारामौ तु धमनेन ॥ पत्र अलग अलग हो जाएं तो उसे चौलाईके रस
और कांजीकी ८-८ पहर भावना दें। इस विधिसे अभ्रक शुद्ध हो जाता है।
सत्त्वमभ्रस्य शिशिरं त्रिदोषनं रसायनम् । (८९७२) अभ्रक शोधनम् (४)
विशेषात्पुंस्त्वजननं वयसः स्तम्मनं परम् ॥
नानेन सदृशं किश्चिद्वेषज्यं पुंस्त्वकृत्परम् । (र. रा. सु.)
सखसेवी वयः स्तम्भ लभते नात्र संशयः ।। आदौ मुतापितं कृत्वा गगनं सप्तधा क्षिपेत् ।
___ शुद्धाभ्रकके चूर्णको भैंसके गोबरमें मिलाकर निर्गुण्डी स्वरसे सम्यक् गिरिदोषप्रशान्तये॥
छोटे छोटे गोले बनावें और उन्हें सुखाकर मूषामें ___अभ्रकको भली भांति तपा तपा कर सात बार
रखकर तीब्राग्नि पर भावें । इस विधि से अभ्रकका निर्गुडी के स्वरस में बुझाने से उसके गिरिसंभव दोष
जारणयोग्य समस्त लोहों (स्वर्णादि) से श्रेष्ठ सत्व नष्ट हो जाते हैं।
निकल आता है। (८९७३) अभ्रकशोधनम् (५)
xxx (र. प्र. सु. । अ. ५)
अभ्रकसत्वके जो कण निकलें उन्हें एकत्रित वराक्वाये तथा दुग्धे गवां मूत्रे तथैव च ।। करके मित्रपंचकके साथ मूषामें रखकर तीब्राग्नि पर मार्कवस्य रसेनापि दोषशून्यं प्रजायते ॥ . | धमाने से वे सब मिलकर एक हो जाते हैं।
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रसप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४५३
घी, शहद, गूगल, गुंजा और सुहागा; इन पारद और अभ्रकसत्व १-१ भाग तथा शुद्ध पांचोंके योगको 'मित्रपंचक' कहते हैं । मित्र | गंधक २ भाग लेकर प्रथम पारे और सत्वको खरल पंचकके साथ मिलाकर एकाधिक धातुओंको अंगारों | करें। जब दोनों मिल जाएं तो उसमें गंधक ( कोयलों )की तीब्राग्नि पर धमाने से वे परस्पर मिलाकर कजली बनावें । इसे घृतकुमारीके रस में मिलकर एक हो जाती हैं। मित्रपंचक सातों धातु- घोटकर सुखाकर ( आतशी शीशी में डालकर ) ओंको मिलाकर एक कर देता है।
२ दिन बालुकायन्त्रमें पकावें । इससे अभ्रकसत्वकी
। भस्म हो जाती है। अभ्रकसत्व शीतल, त्रिदोषनाशक, रसायन,
___ यह भस्म क्षय, शोष, कास, प्रमेह, पाण्डु विशेषतः पुंस्त्व वर्द्धक और आयुको स्थिर करनेवाला
और कृशता को शीघ्र ही नष्ट कर देती है *। है। इसके समान पुंस्त्व शक्ति वर्द्धक अन्य एकभी औषध नहीं है।
___ (८९७७) अभ्रकसत्व-शोधनम् (८९७५) अभ्रकसत्वपातनम् । ( आ. वे. प्र. । अ. ४ ; रसे. चि. म. । अ. ४) ( र. र. स. । पू. अ. २; र. प्र. सु. । अ. ५) अयोवच्छोधनं तस्य मारणं तद्वदेव तु। पादांशटणापेतं मुशलीपरिमर्दितम् । । रुन्ध्यात्कोष्ठयां दृढं ध्मातं सत्त्वरूपं भवेद्धनम् ॥
अभ्रकसत्वका शोधन मारण लोहके समान अभ्रकमें चौथा भाग सुहागा मिलाकर मूसलीके ! करना चाहिय । रसमें खरल करें और उसे मूषामें बन्द करके *अभ्रकसत्वके अन्य गुण तीब्राग्नि में रखकर ध्मावें। इससे अभ्रकका सत्व
(र. प्र. सु. । अ. ५) निकल आता है। अभ्रकसत्वपातनम्
मृतं सत्वं हरेन्मृत्युं सर्वरोगविनाशनम् । ( शा. सं. । खं. २ अ. ११)
क्षयं पाण्डु ग्रहणिकां श्वासं शूलं सकामळम् ॥ प्र. सं. ३०१ देखिये
ज्वरान्मेहांश्च कासांश्च गुल्मान् पश्चविधानपि।
मन्दाग्निमुदराण्येवमीसि विविधानि च ॥ (८९७६) अभ्रकसत्वमारणम् (र. रा. सु.)
अनुपानप्रयोगेण सर्वरोगानिहन्ति च । सूततुल्यं व्योमसत्वं तयोस्तुल्यं च गन्धकम् । अभ्रकसत्व की भस्म समस्त रोगोंका नाश कुमारीस्वरसैमधे यन्त्रे सैकतके पचेत् ॥ करके मृत्युको भी जीत लेती है। यह क्षय, पाण्डु, दिनद्वयान्ते समाद्यं भक्षयेन्मासपात्रकम् । ग्रहणी, श्वास, शूल, कामला, ज्वर, प्रमेह, खांसी, क्षयं शोषं तथा कासं प्रमेहं चापि दुस्तरम् । । ५ प्रकारका गुल्म, अग्निमांद्य, उदररोग, अर्श, और पाण्डुरोगं च काय च जयेच्छीघ्रं न संशयः॥ अनुपान भेद से समस्त रोगोंको नष्ट करती है।
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४५४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[अकारादि (८९७८) अमर कलानिधि रमः भावयेच त्रिफलाकन्यका । (र. प्र. सु. । अ. ८ , र. चं.)
वन्हिशिग्रुजरसैश्च सप्तधा ॥ मुक्ताफलं विद्रुमकं रसेन्द्र
जायते इह रसोऽमृतश्रवा । गन्धं समांशानि ततो विदध्यात् ।
शुष्कपाण्डुविनिवृत्तिदायकः ॥ नदीजपरस्य रसेन मर्दितं
द्रामयुग्मपरिमाणतस्त्विमं । गोलं हि कृत्वा वसनेन वेष्टयेत् ॥ __ लेहयेत घृतमाक्षिकान्वितम् ।। मृदासलिप्त परिशोषितं च
पथ्यमत्र परिभावितं पुरा। तच्छरावके सम्पुटयेच्च वहौ।
___ यत्तदेव विवय॑वर्जितम् ॥ चूर्णीकृतं वल्लमितं च भक्षित
शोफपाण्डुविनिवृत्तिदो भवेत् । स्याद्रोगराजस्य निकृन्तनं हि ॥
सेवितस्तु यवबिम्बिकाद्रवैः ॥ मोती भस्म, प्रवाल भस्म,' शुद्ध पारद और
नागराहजयपालकैः समं । शुद्ध गंधक समान भाग लेकर प्रथम पारे गंधककी
वचिदुग्धपचितेन सर्पिषा ।।
तक्रभक्तमिह भोजयेदिति । कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधियां मिलाकर जंबीरी नीबूके रसमें घोट कर सबका एक
स्निग्धमन्नमतिनूतनं त्यजेत् ॥ गोला बनावें और उसे कपड़ेमें लपेटकर उस पर
अभ्रक भस्म १ भाग, पारद भस्म २ भाग,
शुद्ध गंधक ३ भाग, लोहभस्म ४ भाग और मूसली मिट्टीका लेप करदें तथा (सुखाकर) शराव स-पुटमें
५ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करें और फिर बन्द करके पुट लगादें। तदनन्तर उसके स्वांग
१-१ दिन सेंमलकी जड़के रस तथा गिलोयके शीतल होने पर औषधको निकालकर पीस लें।
क्याथ में घोटें एवं त्रिफलाके क्वाथ, अद्रकके रस, • मात्रा-२ रत्तो।
घृतकुमारीके रस, चीतामूलके क्वाथ और सहजनेकी यह रस राजयक्ष्माको नष्ट करता है। छालके रसकी ७-७ भावना दें।
इसके सेवनसे शुष्क पाण्डुका नाश होता है। (८९७९) अमृतश्रवा रसः
मात्रा-२ द्राम (र. चं.। पाण्डा.)
इसे घी और शहदके साथ सेवन करना चाहिये। अभ्रभस्म रसभस्म गन्धकं ।
जौके काथ और कन्दूरीके रसके साथ सेवन लोहभस्म मुसली विदृद्धितः ॥
करनेसे यह शोथ और पाण्डुको नष्ट करता है। शाल्मलीजरसतो गुडूचिका-।
इसे खानेके पश्चात् सोंठ, जमालगोटा और कायतश्च परिमर्दयेदिनम् ॥
सेहुंड (थूहर)के दूधके साथ सिद्ध घृत पीना चाहिये।
पथ्य-तक भात । अपथ्य- स्निग्ध पदार्थ ? र. चं. में विद्रुम का अभाव है । और नवीन अन्न ।
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रसप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
- ४५५
(८९८०) अमृतार्णवरसः (१) दिन पश्चात् हींग, शुद्ध हिंगुल, शुद्ध गंधक, स्वर्ण(र. र. स. । उ. अ. २७ )
माक्षिक और काला सुरमा बराबर बराबर लेकर
बारीक चूर्ण करें और उसमें से ५ तोले ७॥ माशे कृत्वा कण्टकवेध्यानि पलस्वर्णदलान्यथ ।
{ चूर्ण लेकर उपरोक्त स्वर्ण पत्रोंके ऊपर नीचे रखकर हिङ्गहिङ्गुलगन्धाश्मताप्यनीलाअनैः समैः ॥
उन्हें शरावसम्पुट में बन्द करके पुट में फूंक दें । इसी अष्टांशरसलिप्तानि निक्षिपेदुपले व्यहम् ।
प्रकार १०० पुट लगावें । इससे सोनेकी निरुत्थ कृतं चूर्णमधश्चोर्ध्व पत्राणां विनिधाय च ।। | भस्म हो जायगो । शतवारं पुटेत्सम्यङ् निरुत्थं भस्म जायते ।
___ (हींग आदिका चूर्ण हरबार नहीं डालना तद्भस्मद्विगुणं सूतं तस्मादिगुणहिङ्गलः॥
चाहिये नहीं तो ५ तोले स्वर्णमें १०० तोला तस्माञ्च द्विगुणं ताप्यं सर्वमेकत्र मर्दयेत् ।
सुरमेकी भस्म मिश्रित हो जायगी।) रसेन मातुलुङ्गस्य निरन्तरदिनद्वयम् ।।
___ तदनन्तर १ भाग यह भस्म, २ भाग शुद्ध तुषैः पुटत्रयं दद्याद्गोकरीपैः पुटत्रयम्।
पारद, ४ भाग शुद्ध हिंगुल और ८ भाग स्वर्णपुटानि दश विंशत्या छाणानां प्रकल्पयेत् ॥
माक्षिक भस्म, लेकर सबको एकत्र मिलाकर निरन्तर त्रिंशद्भि छगणैर्दद्यात्पुटानामथ विंशतिम् ।।
२ दिन जम्बीरी नीबूके रसमें खरल करें और तस्मिन्वक्रान्तजं भस्म निक्षिपेत्पादमात्रया ॥
टिकिया बनाकर सुखाकर शराव-सम्पुटमें बन्द सर्वमेकत्र सञ्चूर्ण्य भृङ्गराजनिजद्रवैः ।
| करके तुषाग्निमें (धानकी भूसीकी आगमें) फंक दें। भावयेत्सप्तवाराणि सिद्धयत्येवमयं रसः॥
| इसी प्रकार ( नीबूके रसमें घोट घोटकर ) तुषाग्निमें श्रीमता नन्दीना प्रोक्तो रसोयममृतार्णवः। ३ पुट दें। फिर ३ पुट गायके गोबरकी अग्निमें गुनाबीजमितःसिताघृतकणासंयोजितः सेवितः। दें। तदनन्तर १० पुट २०-२० बनकण्डों (अरने कुर्याद वृष्यमनेकशो वरवधूसन्तोषसंपाषणः॥ उपलों) की आगमें दें और २० पुट ३०-३० यक्ष्मव्याधिविधृननो गरहरः पर्याप्तदीप्तानलो। कण्डोको दें। ( हरबार नीबूके रसमें खरल कर मलव्याधनिवारणः किमपरं सर्वामयध्वंसनः॥ लेना चाहिये ।) रम्भापकफलं घृतं दधिपयः क्षरेयक मण्डका।
तदनन्तर उसमें उसका चौथा भाग वैक्रान्तबाल तालफलं सिता च पललं सन्तानिका मोदकाः भस्म मिलाकर भंगरेके रसकी सात भावना दें। खरं वरपानकं च वटकाः पुण्डेक्षवः सारसं। बस अमृतार्णव रस तैयार है । यह रस श्रीमान् गुर्वन्नं पनसं तथा शिखरिणी पथ्यं रसेऽस्मिन्मतम्॥ नन्दिने बतलाया था।
५ तोले स्वर्ण के बारीक कंटकवेधी पत्र लेकर मात्रा-१ रत्ती । उन पर आठवां भाग (७॥ माशे ) शुद्ध पारेका इसे मिश्री, घी और पीपलके चूर्णके साथ लेप करदें और पत्थरके खरल में रख छोड़ें। तीन ! सेवन करना चाहिये।
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४५६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[अकारादि
यह अत्यन्त वृष्य है और इसे सेवन करनेवाला | (८९८२) अमृतेशरसः अनेक स्त्रियोंको सन्तुष्ट कर सकता है ।
( र. र. रसा. खं. । उपदेश २ ) इसके अतिरिक्त यह राजयक्ष्मा, विष, अग्नि
मृतसूताभ्रकं कान्तं विषं ताप्यं शिलाजतु मांच, अर्श, और अन्य अनेक रोगों को भी नष्ट | तुल्यांशं मधसपिभ्यां लिहेदगुतात्रयं सदा। करता है।
षण्मासेन जरां हन्ति जीवेद्ब्रह्मदिनं नरः ॥ पथ्य-केलेका पका फल, घी, दही, दूध, |
अश्वगन्धामूलचूर्ण सप्तभागघृतैः समम् । धके बने पदार्थ, मण्ड, नवीन ताडफल, मिसरी, | भागाष्टकं गुडं तस्मिन् क्षिपेद्भागं च पिप्पलीम् ॥ तिलकुट, मलाई, लड्डू, खजूर, उत्तम शरबत, वटक
मृदामिना च तत्सर्व पिण्डितं भक्षयेत् पलम् । (पेड़े), पौंडा, सरोवरका जल, भारी अन्न, कटहल, | क्रामक खमृतेशस्य रसराजस्य सिद्धये ॥ और शिखरन ।
पारद भस्म, अभ्रक भस्म, कान्तलोह भस्म,
शुद्ध विष, स्वर्णमाक्षिक भस्म और शिलाजीत समान (८९८१) अमृतार्णवरसः (२)
भाग लेकर सबको एकत्र खरल करें। (र. र. स. । उ. अ. १८)
मात्रा-३ रत्ती । रसभस्म त्रयो भागा भागैकं हेमभस्मकम् । ।
इसे शहद और घीके साथ सेवन करनेसे ६ सर्वाशममृता सत्त्वं सितामध्वाज्यमिश्रितम् ॥ | मासमें जरा ( वृद्धावस्था ) का नाश हो जाता है दिनैक मर्दयेत्खल्वे मापैकं भक्षयेत्सदा।
| तथा आयु अत्यन्त दीर्घ हो जाती है । कृशानां कुरुते पुष्टिं रसोयममृतार्णवः ॥
___ अनुपान-असगंधका चूर्ण ७ भाग, घी अश्वगन्धापलाधं च गवां क्षीरः पिवेदनु ॥
७ भाग, गुड़ आठ भाग और पीपलका चूर्ण १ पारदभस्म ३ भाग, स्वर्ण भस्म १ भाग और | भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर गिलोयका सत ४ भाग तथा मिश्री, शहद और | पकावें । इसमेंसे ५ तोला दवा उपरोक्त रस खानेके घी ( १-१ भाग ) लेकर सबको एकत्र मिलाकर | पश्चात् खानी चाहिये । १ दिन खरल करें।
(८९८३) अयश्चूर्णादियोगः (१)
( यो. र. । पाण्ड्वा.) मात्रा-१ माशा।
अयस्तिकत्र्यूषणकोलभागैः इसके सेवनसे कृश व्यक्ति पुष्ट हो जाते हैं।
सर्वैः समं माक्षिकधातुचूर्णम् । औषध खानेके पश्चात् २॥ तोले असगंधका तैर्मोदकः क्षौद्रयुतोऽनु तक्रः चूर्ण गोदुग्धके साथ पीना चाहिये ।
पावामये दूरगतेऽपि शस्तः॥
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परिशिष्ट
रसप्रकरणम् ]
लोहभस्म, तिल, सोंठ, मिर्च और पीपल १-१ भाग तथा स्वर्णमाक्षिक भस्म सबके बराबर लेकर सबको एकत्र खरल करें और शहद में मिलाकर गोलियां बना लें ।
इन्हें तकके साथ सेवन करने से पुराना पाण्डु भी नष्ट हो जाता है ।
( मात्रा - २ - ३ रत्ती | )
(८९८४) अयश्चूर्णादियोगः (२) ( वृ. मा. । शला. ) तीक्ष्णायश्चूर्णसंयुक्तं त्रिफला चूर्णमुत्तमम् । प्रयोज्यं मधुसर्पिर्भ्यां सर्वशूलनिवारणम् ।।
तीक्ष्ण लोह भस्म और त्रिफला ( हर्र, बहेड़ा आमले ) का चूर्ण समान भाग लेकर एकत्र खरल करें।
इसे घी और शहदके साथ सेवन करने से समस्त प्रकारका शूल नष्ट होता है ।
मात्रा - २ - ३ रत्ती । ) (८९८५) अर्केश्वररसः (१)
( र. रा. सु. । कुष्ठा . ) तालं ताप्यं शिलां सूतं शुद्धं सैन्धवटङ्गणम् । सवह्निकं च भृङ्गस्य चूर्ण तुल्यं विमिश्रयेत् ॥ अयमर्केश्वरो नाम्ना सुप्तमण्डलकुष्ठजित् । चतुर्गुञ्ज लिहेत्क्षौद्रमनुपानञ्च पूर्ववत् ' ॥
शुद्ध हरताल, स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध मनसिल, शुद्ध पारद ( रस सिन्दूर), सेंधानमक, १ गुग्गुलं त्रिफलां गन्धं सममेरण्डतैलकम् । द्विनिष्कमनुपानं स्याद्रक्तमण्डल कुष्ठजित् ॥
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४५७
सुहागेकी खील, चीतामूल और भंगरा, इनके समान भाग चूर्णको एकत्र मिलाकर खरल करें । मात्रा -- ४ रत्ती ।
इसके सेवन से सुप्त कुष्ठ और मण्डल कुष्ठका नाश होता है ।
इसे शहदके साथ खाकर ऊपरसे शुद्ध गूगल, त्रिफला, और गंधकको अरण्डीके तेल में घोटकर पीना चाहिये ।
(८९८६) अर्केश्वररसः (२)
;
( र. रा. सु.; रसे. सा. सं. २. चं. । कुष्ठा. ; रसे, चि. म. । अ. ९; वृ. यो. त. । त. ९१ ) पलानीशस्य चत्वारि बलेर्द्वादश तावती । ताम्रस्य चक्रिका देया रसस्योर्ध्वं शरावकम् ॥ दत्वा विवृद्धभाण्डस्थं पूरयेद्भस्मना दृढम् । अग्निं प्रज्वालयेद्यामद्वयं शीतं विचूर्णयेत् ॥ पुटेद्वादशधा सूर्यदुग्धेनालोडितं पुनः । aria भृङ्गानां द्रवैस्त्रीयेव भावयेत् ॥ अयमर्केश्वरो नाम्ना रक्तमण्डलकुष्ठजित् ॥
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शुद्ध पारद २० तोले और शुद्ध गंधक ६० तोले लेकर कज्जली बनायें और उसे कपड़ मिट्टी की हुई अच्छी बड़ी हाण्डीमें भरकर उसके बीच में ६० तोले शुद्ध ताम्रकी चकरी रख दें तथा उस पर शराव ढककर सन्धिको बन्द करके हाण्डीके शेष भाग में अरने उपलेकी राख दबा दबाकर भरदें एवं उसे चूल्हे पर चढ़ाकर २ पहरकी अग्नि दें और स्वांगशीतल होने पर निकाल कर ताम्र समेत रसको पीस लें । तदनन्तर उसे आकके दूधमें १ व पाचक निर्गुण्डीति पाठान्तरम् ।
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४५८
नस्य प्रकरण में देखिये |
|
घोट घोटकर १२ पुट दें और अन्तमें ३-३ दिन त्रिफला क्वाथ, चीतामूल क्वाथ और भंगरे के रस में खरल करके सुरक्षित रक्खें ।
इसके सेवन से रक्तमंडल कुष्ठ नष्ट होता है । अर्धनाडीनाटकेश्वरः
( भै. र. । शिरोरोगा . )
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भारत - भैषज्य रत्नाकर:
अर्धनारीनटेश्वरो रसः
( र. स. क. ; र. का. घे. । ज्वरा ) अंजन प्रकरणमें देखिये |
अर्धनारीश्वरो रसः
अंजन प्रकरण तथा नस्य प्रकरण में देखिये |
अर्धाङ्गवातारिरसः ( र. चं. । पित्ता. )
प्र. सं. ८१७९ सर्वाङ्ग कम्पारिरस देखिये उस पाठकी प्रथम पंक्ति इस प्रकार होनी चाहिये मृतं मृतं मृतं तीक्ष्णं मर्दयेत्क टुकिद्रवैः ।
तथा अर्थ में ताम्रकी जगह तीक्ष्णलोह भस्म और त्रिकुटे के स्थान में कुटकी होनी चाहिये ।
(८९८७) अर्श: कुठारो रसः (१) ( २. चं. ; रसे. सा. सं. । अर्शो.) शुद्धं सूतं द्विधा गन्धं मृत लौहं च ताम्रकम् प्रत्येकं द्विपलं दन्ती यूपणं शूरणं तथा ॥ शुभाटङ्गयवक्षारसैन्धवं पलपञ्चकम् । पलाष्टकं स्नुहीक्षीरं द्वात्रिंशच गवां जलैः ॥
[ अकारादि
आपिण्डितं पचेदनौ खादेन्माषद्वयं ततः । रसश्चार्शः कुठारोऽयं सर्वरोगकुलान्तकः ||
शुद्ध पारा ५ तोले, शुद्ध गंधक १० तोले तथा लोहभस्म, और ताम्र भस्म १० - १० तोले एवं दन्तीमूल, सोंठ, मिर्च, पीपल, सूरण (जिभिकंद), बंसलोचन, सुहागेकी खील, जवाखार और सेंधानमक २५-२५ तोले, स्नुही ( थूहर - सेंड ) का दूध ८० तोले और गोमूत्र ४ सेर लेकर प्रथम पारे गंधककी कज्जली बनावें और फिर समस्त शुष्क चीज़ों को एकत्र खरल करने के पश्चात् सबको एकत्र मिलाकर पकायें और गाढ़ा हो जाने पर २ || २ || माशे की गोलियां बना लें 1
इनके सेवन से समस्त प्रकारका अर्शरोग नष्ट
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(८९८८) अर्शः कुठारो रसः (२)
( वृ. यो. त. । त. ६९; यो. र. र. रा. मु.; र. का. घे. | अशी. ; यो त । त. २३ ) भागः शुद्धरसस्य भागयुगलं गन्धस्य लोहाभ्रयोः षडू बिल्वादिलोपणत्रयरजो' दन्ती च भागैः पृथक् । पञ्च स्युः स्फुटटङ्कणस्य च यवक्षारस्य सिन्धूद्भवा भागाः पञ्च गवां जलं सुविमलं द्वात्रिंशदेतत्पचेत् ॥ स्नुग्दुग्धं च गवां जलावधिशनैः पिण्डीकृतं तद्भवेद्दौ माषी गुदकील काननजटाच्छेदे कुठारो रसः ॥
शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गंधक २ भाग, लोहभस्म २ भाग, अभ्रकभस्म २ भाग तथा बेलगिरी, चीतामूल, तेजपात, काली मिर्च, सोंठ, पीपल १ पाठान्तर - षडूबिल्वानिहलोषणाभयरजो
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रसप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४५६
और दन्तीमूल, ६-६ भाग एवं सुहागेको खील, । अनुपान-अपामार्ग (चिरचिटे ) के बीज, जवाखार और सेंधानमक ५-५ भाग; गोमूत्र चीतामूल, सोंठ, हर्र, नागरमोथा और चिरायता ४ सेर, और सेहुंड (थूहर-स्नुही )का दूध ४ सेर समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और उसे सबके लेकर प्रथम पारे गंधककी कजली बनावें और फिर | बराबर गुड़में मिला लें। उपरोक्त रस खानेके समस्त चीज़ोंके चूर्ण में गोमूत्र और स्नुहीका दूध | पश्चात् इसमें से १श तोला ( व्यहा. मात्रा ३-४ मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब गाढ़ा हो जाय | माशे) औषध खानी चाहिये। तो उसे अग्निसे नीचे उतारकर २-२ माशेकी
पथ्य-पुराने चावलोंका भात । गोलियां बनावें ।
(८९९०) अलर्कविषहरगुटिका इनके सेवनसे अर्शके मस्से समूल नष्ट हो ।
( र. सं. क. । उ. ५) जाते हैं।
कट्फलाम्बुगिलं कृष्णां हिङ्गुलं बोलटङ्कणम् । (८९८९) अशोहररसः गुडेन गुटिका शाणमिता सा नवमेऽहनि ।।
उष्णोदकेन दातव्या सद्योऽलर्कविषापहा । (र. र. ; अन्य. । अर्शो.)
गरभृङ्गोषणं चूणे साज्यं वा तद्विषापहम् ॥ रसवैक्रान्तशुद्धाभ्रकान्तभस्म सगन्धकम् । ___ कायफल, सुगन्धबाला, बिजौरे नीबूकी जड़की तुल्यांशं मर्दयेच्चादाडिमोत्यै रसैस्ततः ।।
छाल, पीपल, शुद्ध हिगुल, बोल और सुहागा १-१ भक्षयेन्माषमेकन्तु अर्शसां नाशनो रसः।
भाग तथा गुड़ सबके बराबर लेकर सबके चूर्णको अपामार्गस्य बीजानि वहि शुण्ठी हरीसकी।
गुड़में मिलाकर ४-४ माशेकी गोलियां बना लें । मुस्ताभूनिम्बतुल्यांशं सर्वतुल्यं गुडं भवेत ।
पागल कुत्ते के काटनेके नवें दिनसे ये गोकषकं भक्षयेचानु जीर्णान्नं भक्तभोजनम् ॥ | लियां उष्ण जलसे देनेसे विष नष्ट हो जाता है। शुद्ध पारद, वैत्रात भस्म, अभ्रक भस्म,
शुद्ध बछनाग, भंगरा और काली मिर्च समान कान्त लोह भस्म, और शुद्ध गंधक समान भाग
भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे घीके साथ सेवन लेकर प्रथम पारे गंधककी कजली बनावें और फिर करनेसे भी पागल कुत्तका विष नष्ट हो जाता है । उसमें अन्य चीजें मिलाकर सबको अद्रक और (८९९१) अश्वगन्धापाकः (१) अनारके रसमें खरल करके १-१ माशेकी गोलियां
( वृ. यो. त. । त. १४७) बनावें ।
सञ्चूर्ण तुरगीविदारिमुसलीगोक्षुरकं तत्पृथग्( व्यवहारिक मात्रा-१ रत्ती। ) द्वयाम्रांशं मृदु पाचितं च इसके सेवनसे अर्शका नाश होता है।
महिषीदुग्धाढके गोघृतम् ।
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-भैषज्य रत्नाकरः
भारत
द्वयानं चेक्षुरबीजमर्कटभवं मोचारसं पालिक जातीपत्र लवङ्गजातिफलगं भीरुचतुर्जातकम् || शुक्त्यंशं पृथगत्र केशरजटामांस्यब्धिशोषं तुगा जाजीग्रन्थिकशोथहा त्रिकटुकं धात्रीजला कलकम् । कङ्कोलोच्चटपद्मबीजचविका कर्षीशचूर्ण पृथग्द्विपस्था सितशर्करा मृतरसं कर्षे च मन्दाग्निना ।। युक्त्या वैद्यवरेण पाचितमिदं संप्रेक्ष्य सात्म्यं बलं
।
प्रातः सेवितमौषधं पिचुयुगं दुग्धं तदन्ते पिवेत् रोगार्तो जरठोऽपि नित्यमसकृत्कन्दर्पदपद्धतं रामाणां शतकं विजित्य हि भवेत्तेजः प्रतापोद्धतः ॥ वा पित्तकफक्षयं च कसनं पाण्डप्रमेहादिका freat मन्मथकान्तिविग्रहधरः पाकोऽश्वगन्धाभिधः ॥
असगंध, विदारीकन्द, मूसली और गोखरुका चूर्ण १० - १० तोले लेकर सबको ८ सेर भैंसके दूधमें मन्दाग्नि पर पकावें। जब खोवा (मावा) साहो जाय तो उसे २० तोले घी में भून लें तथा २ सेर खांडकी चाशनी करके उसमें यह खोवा (मावा) तथा तालमखाना, कौंच के बीज और मोचरस, इनका चूर्ण ५-५ तोला एवं जावित्री, लौंग, जायफल, शतावर, दालचीनी, इलायची, तेजपात और नागकेसर, इनका चूर्ण २॥ -२॥ तोले तथा केसर, जटामांसी, समुद्रशोष, बंसलोचन, जीरा, पीपलामूल, पुनर्नवामूल, सोंठ, मिर्च, पीपल, आमला, सुगन्धवाला, अकरकरा, कंकोल, भुईआमला, कमलगट्टा, चव, और पारदभस्म; इनका चूर्ण ११- १। तोला मिला दें ।
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[ अकारादि
इसमें २|| तोले औषध प्रातः काल खाकर ऊपरसे दूध पीना चाहिये ।
इसके सेवन से तीनों दोषोंका शमन तथा खांसी, पांडु और प्रमेहादि रोग नष्ट होते एवं कामशक्ति अत्यन्त बढ़ जाती है । यह रोगपीड़ित वृद्धों को भी कामोन्मत्त कर देता है |
(८९९२) अश्वगन्धापाक: (२) ( यो त । त. ८० ) अश्वगन्ध | प्रस्थमेकमजाक्षीरे चतुर्गुणे । घृतस्य प्रस्थमादाय खण्डप्रस्थत्रयं तथा ॥ प्रस्थार्द्धश्च तिलान्माषान्पाचयेन्मृदुवह्निना । व्योषत्रिजातहपुषाशताडा शतमूलिकाः ॥ attodiosani जाती शटी गोक्षुरकं बला । यवानी ग्रन्थिकं लोहं नागं शुल्बं पलं पळ ॥ दत्वा सिद्धेऽत्र विधिवत्प्रातः खादेद्यथाबलम् । सर्ववातामयान्हन्ति कटिपृष्ठगुदस्थितान् ॥ अस्थिभङ्ग तथा शोफं सन्धिवातं सुदारुणम् । व्रणहृद्रोग गुल्माश: श्वासकासप्रमेहनुत् || अश्विभ्यां विहितो योगो वाजीकरणमुत्तमम् ॥
असगंधा चूर्ण १ सेर, छिलके रहित तिल का चूर्ण आधा सेर और उड़दकी छिलके रहित दालका चूर्ण आधा सेर लेकर प्रथम सबको २ सेर घीमें भूनें और फिर उसमें ८ सेर बकरीका दूध तथा ३ सेर खांड मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब अवलेहके समान गाढ़ा हो जाय तो अग्निसे नीचे उत्तर कर उसमें सोंठ, मिर्च, पीपल, दालचीनी, इलायची, तेजपात, हपुषा, सौंफ, शतावर, जीरा, पोखरमूल, जावित्री, कचूर, गोखरू, खरैटोको
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रसप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
जड़, अजवायन और पीपलामूल; इनका चूर्ण तथा । (८९९४) अहिफेनवटिका लोहभस्म, सीसाभस्म और ताम्रभस्म ५-५ तोले ।
___ (रसे. सा. सं. ; र. चं. । अतिसारा.) डाल कर अच्छी तरह मिला दें। ___ इसे यथोचित मात्रानुसार प्रातःकाल सेवन । अहिफेनं सखर्जूरं घृष्ट्वा गुजैकमात्रकम् । करनेसे समस्त प्रकारके वातज रोग नष्ट होते । रक्तस्रावमतीसारमतिवृद्धं विनाशयेत् ।। तथा पृष्ठ और गुदस्थित वायु; अस्थिभंग, शोथ,
(१ तोला ) खजूर को पीसकर उसमें १ दारुण सन्धिवात, ब्रण, हृद्रोग, गुल्म, अर्श, श्वास, कास और प्रमेहका नाश होता है । यह अत्यन्त
रत्ती अफीम मिलाकर देनेसे प्रवृद्ध रक्तातिसारका वाजीकर है। इसका आविष्कार अश्विनीकुमारों | नाश हो जाता है। ने किया है।
(८९९५) अहिफेनादियोगः (मात्रा-आधेसे १ तोला तक।)
(वै. म. र. । पटल ६) (८९९३) अश्वत्थादियोगः
सर्वातिसारान् सहसा जयेदन्यैः किमौषधैः । ( यो. र. । क्षयरोगा.)
तथा हिफेनं सक्षौद्रं तुल्यकारस्करत्वचम् ॥ अश्वत्थवल्कलं चैव त्रिकटुलोहकिट्टकम् ।
कुचलेके वृक्षकी छाल का चूर्ण और अफीम गुडेन सह दातव्यं क्षयरोगविनाशनम् ॥
| बराबर बराबर लेकर एकत्र खरल करें । अश्वत्थ ( पीपल वृक्ष )की छाल, सोंठ, मिर्च और पीपल; इनका चूर्ण तथा मण्डूर भस्म समान
इसे शहदके साथ खिलाने से समस्त प्रकारके भाग लेकर सबको एकत्र खरल करें।
अतिसार नष्ट होते हैं । इस योग की मौजूदगीमें इसे गुड़के साथ मिलाकर सेवन करनेसे क्षय
अतिसारके लिये अन्य किसी भी औषधकी आव
श्यकता नहीं रहती। रोग नष्ट होता है। ( मात्रा-१॥ माशा ।)
(मात्रा-आधी रत्ती ।)
इत्यकारादिरसपकरणम्
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
अथाकारादि- मिश्रप्रकरणम्
(८९९६) अगारधूमादिवर्तिः ( यो. र. | उदावर्ता.)
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अगारधूमः पिप्पल्यो मदनं सजसर्षपाः । गोमूत्रपिष्टाः सगुडा फलवर्तिः प्रशस्यते ॥
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(८९९८) अजमूत्रादियोगः
( यो त । त. ७५ ) वस्तमूत्रं च सघृतं नवनीतं च माहिषम् । पलत्रयं पिवेन्नारी बन्ध्या ते सुतोत्तम् ॥
बकरे का मूत्र, घी और भैंसका मक्खन ५-५ तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर सेवन करने से बन्ध्या स्त्रीको पुत्र प्राप्ति होती है ।
[ अकारादि
घरका धुवां, पीपल, मैनफल और राई समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और उसे गोमूत्र में पीसकर ( सबके बराबर ) गुड़में मिलाकर ( कन उंगली के समान) बत्तियां बना ले
1
(८९९९) अजाज्यादिमुखधावनम् ( यो. र. । अरोचका.; ग. नि. । अरोचका. १३) इनमें से एक बत्ती मलमार्गमें रखनेसे उदा - अजाजी मरिचं कुष्ठं बिडं सौवर्चलं तथा । वर्तका नाश होता है ।
(८९९७) अजगन्धादिपानकम्
( ग. नि. । ज्वरा. १ )
अजगन्धा त्रिकटुकं तथैव च हरीतकी । पाठा मूर्वा समञ्जिष्ठा विडङ्गं सैन्धवं वचा || एतान् सर्वान् समानीय कल्कपेष्यान् प्रकल्पयेत्
तस्यार्धशुक्ति पूतस्य गव्यमूत्रेण पाययेत् ॥ एतद्धि पानकं श्रेष्ठ कासश्वासनिबर्हणम् । सन्निपातभवान् व्याधीन् सद्य एव चिकित्सति । । जाती है ।
मधुकं शर्करा तैलं वातिके मुखधावनम् || करदन्तकाष्ठं च विधेयमरुचौ सदा ॥
जीरा, कालीमिर्च, कूठ, बिडलवण, संचल, (काला नमक), मुलैठी और खांड; इनके समान भाग चूर्ण को एकत्र मिलाकर उसमें थोड़ासा तिलका तेल मिला लें ।
इसे जिह्वा और मुखमें मलकर मुख साफ करनेसे वातज अरुचि नष्ट होती है ।
raat दातौन करनेसे भी अरुचि नष्ट हो
(९०००) अजीर्णनाशकगणः
अजगन्धा (बन तुलसी या बन अजवायन ), सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, पाठा, मूर्वा, मजीठ, बाय
( यो. र. । अजीर्णा. )
बिड़ंग, सेंधानमक और बच समान भाग लेकर | नारीकेलफलेषु तण्डुलमथ क्षीरं रसाले हितं
जम्बीरोत्थरसो घृते
पानी के साथ बारीक पीस लें । इसमें से १| तोले 1 कल्क को गोमूत्र में मिलाकर पीने से कास, श्वास और सन्निपात विकार शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ।
( व्यवहारिक मात्रा - ३-४ माशे । )
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समुचितः सर्पिस्तु मोचाफले । गोधूमेषु च कर्कटी हितमा मांसाशने काञ्जिक नारङ्गे गुडभक्षणं कथितं पिण्डालुगं कोद्रवे ||
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मिश्रपकरणम्]
परिशिष्ट
गेहूं का
पनसे कदलं कदले च घृतं
किस वस्तुका अजीर्ण किस वस्तुसे मिटताहै घृतपाकविधावपि जम्भरसः ।
अथवा तदुपद्रवशान्तिकरं लवणं
कौन वस्तु किसके योगसे शीघ्र पचती है लवणेषु च तण्डुलवारि परम् ॥ नारियल (खोपरा)का भातसे गोधूमे कर्कटिका मापे
आमका
दूधसे
घृतका ___ तक्रं च मूलकं चणके ।
जम्बीरी नीबूके रससे
केलेकी फलीका घीसे आमलकं किल मुद्दे दीप्यः
ककड़ीसे पक्ता तु यावनाले स्यात् ॥
मांसका
कांजीसे खण्डं च खण्डयति माषभवं ह्यजीर्ण
नारंगीका गुड़ से तैलं कुलत्थजमिति प्रवदन्ति केचित् ।
कोदोंका पिण्डाल से द्राक्षामुकूल फनिकोचकसेवितं वा
बढलका वातामन्तफलपाककरं लवङ्गम् ॥
जम्बीरी नींबूका लवणसे कङ्गुश्यामाकनीवारकोरदूषमकुष्ठकाः ।
लवणका
चावलोंके धोवनसे दध्ना जलेन जीर्यन्ति कामिकं त्वाढकी पचेत् ।। उड़दका तकसे पिष्टान्ने शीतलं वारि कुशराने तु सैन्धवम् । चनेका
मूलीसे माषेण्डर्या निम्बमूलं मुद्गयूषस्तु पायसे । मूंगका
आमलेसे पटोलवंशाङ्कुरकारवल्ली
अजवायनसे __फलान्यलाबूनि बहुन् जग्ध्वा ।
उड़दका
खांडसे क्षारोदकं ब्रह्मतरोनिपीय
कुलथीका
तेलसे भोक्तुं पुनर्वाञ्छति तावदेव ॥
द्राक्ष, पिस्ता, अखरोट
और बादामका लवंगसे विपच्यते सूरणको गुडेन
कंगनी, श्यामाक, नीवार तथाऽऽलुकं तण्डुलकोदकेन ।
कोदों और मोठ का दहीके पानीस पिण्डालुकं जीर्यति कोरदृषा
अरहरका
कांजीसे कसेरुपाकः खलु नागरेण ॥
पिष्टान(पिट्ठी)का शीतल जल से क्षारो जीर्यति तक्रेण तद्गव्यं कोष्णमण्डतः। खिचड़ी का
सेंधा नमक से माहिषं माणिमन्थेन शङ्खचूर्णेन तद्दधि ॥ माषेण्डरी (उनुद की रसाला जीर्यति व्योषात्खण्डं नागरभक्षणात् । | पिडा के बड़े आदि)का निम्बमूल से गुडो नागरमुस्ताभ्यां तथेक्षुश्वाऽऽकाशनात् ॥ । दूधका मूंगके यूषसे
मक्काका
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पटोल, बास अंकुर
करेला और कदूका
सूरणका
आलूका
पिण्डालूका
कसेरुका
क्षारका
ग्रोतका
भैंस तक का
भैसकी दहीका
रसाळा (शिखरन) का
मिश्रीका
गुड़का
का
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
पलाशके क्षार जलसे
गुड़ से
तण्डुलोदक
कोदोंसे
सठसे
तकसे
मन्दोष्ण मांडसे सेंधानमक से
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(९००१) अपामार्गपुनर्नवायोगौ
( रा. मा. । स्त्रीरोगा. ३ )
अपामार्गाद्वयं मोनिमध्ये
निविष्टं क्षणाधोनिशूलं निहन्ति । वीरमप्येवमेव प्रयुक्तो विदध्यासस्तत्र पौनर्नवोऽपि ॥
शंख भस्मसे
सोंठ मिर्च पीपल के चूर्ण से
सोंठसे
उष्णमेव समादाय तं वारानेकविंशतिम् । सोंठ और नागरमोथे से | गालयित्वा प्रयत्नेन कटाहे कृष्णलोहजे ||
अद्रक से
योनि में अपामार्ग २ पत्ते रखने से या पुनfat का रस योनि में भरने से कष्ट साध्य योनि शूल भो तुरन्त नष्ट हो जाता है ।
(९००२) अपामार्गमूलबन्धनम्
(ग. नि. । ज्वरा. )
अपामार्गस्य मूलं तु प्रातरक्षालिताननः । विषमज्वरनाशाय बध्नीयाद्वामपाणिना ||
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[ अकारादि
अपामार्ग ( चिरचिटे ) की जड़को प्रातः काल
मुंह हाथ धोकर बाएं हाथ में बांधनेसे विषम ज्वर नष्ट हो जाता है ।
(९००३) अपामार्गादिक्षारः
( ग. नि. । भगन्दरा. ७ ) अपामार्गात्पलाशाच कलाकन्दकात्तथा । युगपद्रोणमादाय सुविशुद्धस्य भस्मनः ॥ अग्नावत्यन्ततप्तेषु षड्द्रोणेष्वभ्मसां पचेत् । क्वाथः सपिच्छिलो रक्तः स्वच्छो यावद्विभाव्यते ॥
कुडवद्वयमावाप्य स्वर्जिकायाः पुनः पचेत् । निक्षिप्य वह्नौ दग्यायाः शङ्खनाभे पलाष्टकम् || श्लक्ष्णपिष्टं तु विपचेद्यावत्स्याद्बुद्बुदागमः । नातिसान्द्रं न चात्यच्छ्मवतार्य च तं पुनः ॥ उष्णमेव निदध्याच्च लौह एव हि भाजने । भगन्दरेषु चाशःसु नाडीदुष्टव्रणेषु च ॥ यथाविधि प्रयोक्तव्यो भिषजा सिद्धिमिच्छता ।।
अपामार्ग (चिरचिटा), पलाश (ढाक) और केले की जड़ ; इनकी समान भाग मिलित १६ सेर भस्मको अत्यन्त उष्ण ९९२ सेर पानीमें डालकर पकावें । जब क्वाथमें पिच्छिलता (चिकनाहट आ जाए और उसका रंग स्वच्छ लाल हो जाए तो उसे गरम को ही २१ बार छान लें और फिर उसमें ४० तोले सज्जीका चूर्ण तथा ४० तोले शंख भस्म मिलाकर पुनः कृष्णलोह के पात्र में पका । जब उसमें बुलबुले उठने लगें
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परिशिष्ट
४६५
और न अधिक गाढ़ा हो न पतला रहे तब उतार । मिलाकर लुगदी सी बना लें । तदनन्तर सेहुंड कर गरम गरम को ही लोहपात्रमें भरकर रख दें। । (थूहर) के डंडेको एक तरफसे खोखला करें और इसे भगन्दर, अर्श और नाड़ी ब्रणमें विधि
उसमें वह लुगदी भरकर उसके मुंहको उसीके वत् प्रयुक्त करना चाहिये ।
(थूहरके ) कटे हुवे टुकड़ेसे बन्द करके उसपर
कपड़मिट्टी करके कण्डोंकी अग्निमें पकावें । (९००४) अपामार्गादियोगः ।
जब ऊपर की मिट्टीका रंग लाल हो जाय (व. से. । स्त्रीरोगा.) तो उसमें से वह लुगदी निकाल कर उसे कपड़ेमें
रखकर निचोड़ें। इससे जो रस निकले उसे मन्दोष्ण अपामार्गशिफां योनिमध्ये निःक्षिप्य धार्यते । सुखं प्रमूयते नारी भेषजस्यास्य योगतः ॥
करके कानमें डालनेसे कर्णशूल नष्ट होता है । प्रसवके समय अपामार्ग (चिरचिटे) को जड़को (९००७) अर्शनाशकयोगः योनिमें रखनेसे सुखपूर्वक प्रसव हो जाता है ।।
(र. र. स. । उ. अ. १५) (९००५) अरणीक्षारयोगः । देवदाल्याः कषायेण ह्यनं शौचमाचरेत् ।
(ग. नि. । शोथा. ३३) गुदनिःसरणं चापि शान्ति चायाति नान्यथा ॥ अरणीक्षारसम्मिश्रं तोयं क्वथितशीतलम् ।
देवदाली (बिंडाल) के कषायसे शौच करनेसे त्रिदिनं पानतोऽभ्यङ्गाच्छोफं हन्त्युदरोद्भवम् ।। (मलमार्ग धोनेसे) अर्श तथा गुदानःसरण (काच अरनीका क्षार मिलाकर पकाकर ठंडा किया
निकलना) को आराम हो जाता है। हुवा पानी पीने तथा उसीकी मालिश करनेसे ३ (९००८) अर्शीहरयोगः दिनमें उदरशोथ नष्ट हो जाता है।
( र. र. स. । उ. अ. १५) (९००६) अर्काङ्कुरादियोगः पीलुतैलेन संलिप्ता वर्तिका गुदमध्यगा ।
(व. से. । कर्णरोगा.) घातयत्यर्शसां शीघ्रं सकलां वेदनां तथा । अर्काकुरानम्लपिष्टांस्तैलाक्ताल्लवणान्वितान् ।
रूईकी बत्तीको पीलुके तैलमें मिगोकर गुदामें सन्निसाध्यात्स्नुहीकाण्डे कौरिते तच्छदावृते ॥ रखनेसे अर्श और उसकी वेदना नष्ट हो जाती है। पुटपाककमात्स्विन्नं पीडयेदारसागमात् ।। (९००९) अश्वगन्धाक्षीरम् सुखोष्णं तद्रसं कर्णे दापयेच्छूलशान्तये ॥
( ग. नि. । वन्ध्या. ५) आकके अंकुरों में थोड़ासा सेंधानमक मिला- अश्वगन्धाकपायेण क्वथितं शीतलं पयः । कर कांजीके साथ पीसें और फिर उसमें तेल | पीत्वा कान्तं समाश्लिष्य ऋतौ वन्ध्या प्रसूयते !!
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[अकारादि
असगन्धके क्वाथके साथ दूध पकाकर ठंडा ! और सेंधानमकका चूर्ण ( स्वोद योग्य ) डाल दें करके ( कुछदिन ) पीनेके पश्चात् ऋतु कालमें | तथा मांडको छानकर उसे हींग और तेलसे बघार दें। (ऋतुधर्मकी समाप्ति पर ) पति समागम करने से यह मंड अग्निदीपक, बलवर्द्धक, बस्तिशोधक, वन्ध्या गर्भ धारण कर लेती है।
रक्तवर्द्धक, ज्वरनाशक और त्रिदोष हर है । (९०१०) अष्टगुणमण्डः
(९०११) अष्टवर्गः ( शा. सं. । खं. २ अ. २ ; यो. त. । त. १८) (शा. सं. । खं. २ अ. ६ ; भै. र. ; यो. त.।
त. १८) धान्यत्रिकटुसिन्धृत्थमुद्गतण्डुलयोजितः ।
द्वे मेदे च काकोल्यौ जीवकर्षभको तथा। भृष्टश्च हितैलाभ्यां स मण्डोऽष्टगुणः स्मृतः ॥
ऋद्धिवृद्धी च तैः सर्वैरष्टवर्ग उदाहृतः ॥ दीपनः प्राणदो बस्तिशोधनो रक्तवर्धनः। अष्टवर्गों बुधैः प्रोक्तो जीवनीयसमो गुणैः ।। ज्वरजित् सर्वदोषघ्नो मण्डोऽष्टगुण उच्यते ॥ । मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली,
मूंग और चावलों को एकत्र मिलाकर १४ । जीवक, ऋषभक, ऋद्धि और वृद्धि ; इनके समूहको गुने पानीमें पकावें और मूंगके भली भांति पक | अष्टवर्ग कहते हैं। इसके गुण जीवनीय गणके जाने पर उसमें धनिया, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, . समान हैं।
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परिशिष्ट
४६७
-
-
-
२
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आ
अथाकारादिकषायप्रकरणम् ( ९०१२ ) आटरूषकादिकषायः (९०१४ ) आम्रादिफाण्ट: (ग. नि. । कासा १०)
(शा. सं.। खं. २ अ. ३) आटरूपकलघुकण्टकारिका
आम्रजम्बूकिसलयैर्वटशुङ्गप्ररोहकैः । देवदारु च विभीतनागरम् । उशीरेण कृतः फाण्टः सक्षौद्रो ज्वरनाशनः ॥ पक्वमाद्यमिदमेव पिप्पली
पिपासाच्छर्घतीसारान् मूछी जयति दुस्तराम् ।। कुष्ठचूर्णसहितं च कासजित् ।। ___आमकी कोंपल, जामनकी कोंपल, बड़के
बासा (अडूसा), छोटी कटेली, देवदारु, बहेड़ा | अंकुर और खस समान भाग लेकर फाण्ट वनावें। और सोंठ समान भाग लेकर क्वाथ बनावें।
इसमें शहद मिलाकर पीनेसे ज्वर, प्यास, इसमें कूठ और पीपलका चूर्ण मिलाकर पीनसे छर्दि, अतिसार, और दुस्तर मूर्छाका नाश कासका नाश होता है।
होता है। (९०१३) आम्रत्वक्पुटपाकः (वै. म. र.। पटल ६)
(९०१५) आरग्वधादिक्वाथः (१) रसो निहन्त्यतीसारमा त्वक्पुटपाकजः। ___ (हा. सं. । स्थान ३ अ. ४२ ) तैलेन युक्तो रक्ताढयं सबलासं सनिःस्रवम् ॥ | आरग्वधो धातकी कर्णिकार ___ आमकी ताजी छालको कूटकर केले या वार्जु नैः सर्जककिंशुकानाम् । बड़के पत्तोंमें लपेट कर गोला बना और उसे | कदम्बनिम्बैः कुटजाटरूपैः कुशादिसे बांधकर उस पर मिट्ठीका लेप करके | खदिरेण युक्ताश्च तथैव मूर्वा ॥ कण्डोको आगमें रखकर पकावें। जब ऊपरकी मूलानि चैषामुपहृत्य सम्यक मिट्टी लाल हो जाए तो आमकी छालको निकाल __ अष्टावशेषः क्वथितः कषायः। कर कपड़ेमें बांधकर रस निचोड़ें।
घृतेन तुल्यं प्रतिमानमस्य इसमें तेल मिलाकर पीनेसे रक्त युक्त और | निहन्ति सर्वाणि शरीरजानि ॥ फफ प्रधान अतिसारका नाश होता है। कुष्ठानि सर्वाणि विसर्पदद्रु(मात्रा-१ तोला ।)
विचर्चिको हन्ति नरस्य शीघ्रम् ।।
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४६८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ आकारादि अमलतास, धाय, कर्णिकार (छोटा (९०१७) आरग्वधादिक्वाथः (३) अमलतास ), धव, अर्जुन, सर्ज (रालका
( हा. सं. । स्था. ३ अ. ३२) वृक्ष), पलास, कदम्ब, नीम, कुड़ा, बासा (अडूसा), खैर और मूर्वा; इनकी जड़ें समान भाग
आरग्वधफलगर्भ दुरालभा धान्यकशतावर्यः । लेकर आठ गुने पानीमें पकावें और आठवां भाग
पाषाणभेदपथ्याक्वाथोऽयं मूत्रकृच्छे स्यात् ।। रहने पर छान लें। इसमें घी मिलाकर पीनेसे कुष्ठ,
____ अमलतासका गूदा, धमासा, धनिया, शतावर, विसर्प, दद्रु और विचर्चिकाका शीघ्र ही नाश हो
पाषाणभेद (पखानभेद) और हर्र समान भाग जाता है।
लेकर क्वाथ बनावें। (९०१६ ) आरग्वधादिक्वाथः (२)
यह क्वाथ मूत्रकृच्छूको नष्ट करता है। (ग. नि. । ज्वरा.)
(९०१८) आईकस्वरसः आरग्वधो मुष्ककश्च मदनः स्वादुकण्टकः।
(शा. सं. । खं. २ अ. १) सप्तपर्णस्तथोशीरं शिरीषः खदिरास्नौ ॥ वत्सकः प्रग्रहो मूर्वा नक्तमालो वितुन्नकः ।
आईकस्वरसः क्षौद्रयुक्तो वृषणवातनुत् । पटोलपिचुमन्दौ च हरिद्रा कटुरोहिणी ॥
श्वासकासारुचीहन्ति प्रतिश्यायं व्यपोहति ॥ त्रिफला देवकाष्ठं च भद्रमुस्तं निदिग्धिका ।
___अदरकके स्वरसमें शहद मिलाकर पीनेसे
अण्डकोषोंकी वायु, श्वास, कास, अरुचि और एतान्याहृत्य तुल्यानि कषायमुपसाधयेत् ॥ तं कषायं पिबेद्युक्त्या सन्निपातोद्भवे ज्वरे।
प्रतिश्यायका नाश होता है। कासे श्लेष्मप्रसेके च श्वयथावरुचौ तथा ॥
(मात्रा-३ माशेसे ६ माशे तक ।) अमलतासका गूदा, सुष्कक (मोखावृक्ष)की (९०१९) आर्द्रकादिस्वरसः छाल, मैनफल, गोखरु, सतौनेकी छाल, खस, सिर
(वृ. मा.। कर्णा.) सकी छाल; खैरसार, असना वृक्षकी छाल, इन्द्रजौ, छोटे अमलतासकी छाल, मूर्वा, करंज.धनिया, पटोल
आर्द्रकसूर्थावर्तकसौभाअनमूलमूलकस्वरसाः। नीमकी छाल, हल्दी. कुटकी, त्रिफला, देवदारु,
त्रिफला. देवदास. मधुसैन्धवतैलयुताः पृथगुष्णाः कर्णशूलहराः॥ नागरमोथा और कटेली समान भाग लेकर क्वाथ ___अदरक, हुलहुल, सहजनेकी जड़ और मूली बनावें।
इनमेंसे किसीके भी स्वरसमें शहद, सेंधा नमक ___ यह क्वाथ सन्निपात ज्वर, खांसी, कफ प्रसेक | और तेल मिलाकर उष्ण करके कानमें डालनेसे शोथ और अरुचिको नष्ट करता है। कर्ण शूल नष्ट होता है।
इत्याकारादिकषायप्रकरणम्
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चूर्ण प्रकरणम् ]
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परिशिष्ट
अथाकारादिचूर्णप्रकरणम्
( ९०२० ) आकारकर भादिचूर्णम्
(शा. सं. । खं. २. अ. ६ ; न. मृ. । त. ३ ; वै. र. । वाजीकरणा ; यो. चि. म. । अ. ३; भा. प्र. म. ख. २ वाजीकरणा . ) आकारकरभः शुण्ठी कङ्गोलं कुङ्कुमं कणा । जातीफलं लबङ्गं च चन्दनं चेति कार्षिकान् || चूर्णानि मानतः कुर्यादहिफेनं पलोन्मितम् । सर्वमेीकृतं सूक्ष्मं माषैकं मधुना लिहेत् ॥ शुक्रस्तम्भकरं चूर्ण पुंसामानन्दकारकम् । नारीणां प्रीति जनन सेवेत निशि कामुकः ॥
अकरकरा, सोंठ, कंकोल, केसर, पीपल, जायफल, लौंग और सफेद चन्दन इनका चूर्ण ११ - १ | तोला तथा अफीम ५ तोले लेकर सबको एकत्र खरल करके रक्खें ।
मात्रा -- १ माशा ।
इसे रातको शहदके साथ सेवन करनेसे शुक्र - स्तम्भन होता और स्त्री समागममें विशेष आनन्द आता है।
( १ माशा में आधामाशा अफीम आती है। अतः समझ बूझकर खाना चाहिये । )
(९०२१) आभादिचूर्णम्
( व. से. । रसायना. )
आभाश्च सोमराजीच समभाग विचूर्णिताम् । नरः क्षीरेण संपीत्वा स कृशः स्थूलतां व्रजेत् ॥
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૪૬૨
देहकम्पे च शोषे च योगमेतत् प्रयोजयेत् । मासमात्रोपयोगेन मतिमाञ्जायते नरः || harat स्मृतिमांचैव वली पलितनाशनः ॥
बबूल की फली, और बाबचीके बीज समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे दूध के साथ पीने से कृश व्यक्ति स्थूल हो जाता है।
यह चूर्ण शरीरकम्प और शोष में भी उपयोगी है । इसे १ मास तक सेवन करने से बुद्धि, मेधा और स्मृतिकी वृद्धि होती तथा वलि पलितका नाश हो जाता है ।
( मात्रा - १॥ - २ माशा । ) (९०२२-२४) आमलकयोगाः ( रा. मा. । रसायना. ३२)
मासमामलकचूर्णमश्नतः साज्यमाक्षिकतिलैर्विमिश्रितम् । वाक्प्रवृत्तिरचिरात्प्रजायते
कान्तिमच नवयौवनं वपुः ॥ घृतामलकशर्करातिलपला शत्रीजानि यः समान शयनस्थितो मधुयुतानि खादेन्निशि वली पलितवर्जितस्तरुणनागतुल्यो बले बृहस्पतिसमः पुमान्
भवति सोऽचिरेण ध्रुवम् ॥
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चूर्णमामलककृतम्भसा सर्पिषायमधुनाऽथवा निशि ।
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४७०
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पीयमानमुदराप्रिनासिका - श्रोत्रनेत्रबल यौवनमदम् ||
आमले और तिलोंके समान भाग मिश्रित चूर्णको एक मास तक घी और शहदके साथ सेबन करनेसे वाणि, कान्ति और यौवनकी वृद्धि होती है।
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
आमला, खांड, तिल और पलाश (ढाक ) के बीज १ - १ भाग लेकर चूर्ण बनावें तथा उसमें १ भाग घी मिलालें। इसे रात्रिको शैया पर जानेके बाद शहदके साथ सेवन करनेसे बलि पलितका नाश होता और तारुण्यकी वृद्धि होती है। शरीमें हाथी के समान बल आ जाता है और बुद्धि वृहस्पतिके समान हो जाती है।
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[ आकारादि
(९०२६) आमलकादिचूर्णम् (२)
(ग. नि. | परिशि. चूर्णा. )
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धात्री भागेकमुक्तं च पथ्या भागत्र्यं तथा । कणाभागश्रयं चैव द्वौ भागौ चित्रकस्य च ॥ भागैकं सैन्धवस्यैतच्चूर्णमामलकादिकम् । शुधाकरमिदं चूर्ण मन्दानिं विनिवारयेत् ॥
आमला १ भाग, हर्र ३ भाग, पीपल ३ भाग चीतामूल २ भाग और सेंधा नमक १ भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
यह चूर्ण अग्निमांद्यको नष्ट करके क्षुधावृद्धि करता है ।
रात्रिको पानीके, घीके या शहद के साथ आमलेका चूर्ण सेवन करने से जठराभि तथा नासिका श्रोत्र और नेत्रोंका बल बढ़ता और यौवन प्राप्त होता है।
(९०२५) आमलकादिचूर्णम् (१) ( रा. मा. कुष्ठा. ८; ग. नि. । कुष्प्र. ३६ ) यः प्रातरामलकनिम्बदलानि लेढि
चूर्णीकृतान्यनुदिनं विमुक्ततन्द्रः । शीर्णाङ्घ्रिपाणिरवगाढतमोऽपि कुष्ठ
रोगेण कैरपि दिनैः प्रविमुच्यते ऽसौ ॥ आमला और नीमके पत्ते समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
४ सेर आमलेके चूर्णको उसीके स्वरसकी अनेक भावनाएं देकर उसमें ४-४ सेर घी तथा
इसे प्रातः कत्ल ( शहदके साथ) चाटनेसे भयंकर गलित कुष्ठ भी कुछ दिनों में ही नष्ट हो
|
शहद और आधासेर पीपलका चूर्ण तथा १ सेर खांड मिलाकर (मृत्पात्रमें भरकर वर्षा ऋतुसे पूर्व )
है ।
( मात्रा - १॥ - २ माशा । अनुपान - उष्ण जल ) (९०२७) आमलक्यादिचूर्णम् (१)
(च. द. | रसा. ६५ )
धात्री चूर्णस्य कंसं स्वरसपरिगतं क्षौद्रसर्पिः समाश कृष्णा मानी सिताष्टप्रसृतयुतमिदं स्थापित भस्मराशौ । वर्षान्ते तत्समश्नन्भवति बिपलितो रूपवर्णप्रभानिर्व्याधिर्बुद्धिमेधा स्मृतिबलवचनस्थैर्य सत्यैरुपेतः ॥
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४७१
चूर्णपकरणम् ]
परिशिष्ट राखके ढेर में दबा दें और वर्षा बीत जाने पर निकाल- | यवान्यावाजमोदायाः पलार्धे तु पृथक् पृथक् । कर सेवन करें।
रामठस्य पलं चैकं पलैकं जीरकदयात् ॥ इसे सेवन करनेसे बलि पलितका नाश होता | कुडवं राजिकायाथ प्रस्थाधे चित्रकस्य च । तथा रूप, वर्ण, प्रभाव, बुद्धि, मेघा, स्मृति, बल,
सर्वमेकत्र संयोज्य कुट्टयित्वा घुलूखले ॥ वाणि, स्थैर्य और साहसकी वृद्धि होती एवं प्रस्थाधैं चार्कदुग्धस्य मानीं सर्षपतैलतः । आरोग्य प्राप्त होता है।
एकत्र मिलितं कृत्वा चान्तधूमं ततो दहेव ॥ (मात्रा-१ तोला)
मस्तुना तं पिबेत्सारं कर्षार्धे कर्षमेव था। (९०२८) आमलक्यादिवर्णम् (२)
गुल्मं शूलं तथानाहमरुचिं पाण्डुतां तथा ॥
हृद्रोगं ग्रहणीदोषमर्शोजीर्ण विचिकाम् । (वैचामृत । वि. १२) अष्ठीलामूर्ध्वातं च वातकुण्डलिका तथा ।। दुग्धपयुक्तामलकि नराणां
मूत्रप्रन्थि प्रतिश्यायं कासं यासं तथाऽश्मरीम् । नष्टस्वराणां मुखमातनोति । | प्लीहानमामदोषांश्च वातश्लेष्मोद्भवान् गदान ।। ययामृगाक्षीसरत नराणां
हन्यादारोग्यलवणं समस्यामेश्च दीपनम् ॥ कन्दर्पदर्पप्रतिपीडितानाम् ॥
इन्द्रायणकी जड़ ५० तोले, स्नुही (सेंडआमलेके चूर्णको दूधके साय पीनेसे स्वरभंग
थूहर )का डंडा १०० तोले, कटेलीके फल १००, मिट जाता है।
घृत कुमारी (ग्वार पाठा) १० तोले, आकके
पत्ते १००, करज (कण्टक करंज) के पत्ते १००, (मात्रा-३ माशा । )
भैसिया गूगल १ सेर, ल्हसन २५ तोले, सेंधा (९०२९) आरोग्यलवणम् (१) नमक २५ तोले, करन की छाल २५ तोले, संचल (ग. नि. । गुटिका.)
| ( काला नमक ) १५ तोले, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्ग,
पीपल) २५ तोले, काच लवण (कचलोना) पलानि दश वारुण्या: स्नुकाण्डात्पलविंशतिः। १० तोले, सामुद्र लवण ५० तोके, बिड लवण शतं सिंहीफलानां तु कुमार्याश्च पलटूयम् ॥ ५ तोले, शंख २० तोले, काली मिर्च २० अर्कपत्रशतं चैकं शतं पूतीकपत्रकात् । तोले, अजवायन २० तोले, अजमोद २।। तोले, महिषाख्यात्पाणिमानी रसोनात्पलपञ्चकम् ॥ हाँग ५ सोले, जीरा. ५ तोले, काला जीरा पलानि पञ्च सिन्धृत्याचिरबिल्वत्वपस्तथा।। ५ तोले, राई २० तोले और चीतामूछ ४० सौपर्चलाचया श्रीणि व्योषात्पल पलानि च ॥ तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर गोखलीमें कूटें पाट्यं तु काचस्य सामुदलवणादश । और फिर उसमें ४० तोले आकका दूध तथा ४० पलमेकं विगख्यस्य कुहवं दरकृष्णतः ॥ तोले सरसों का तेल मिलाकर (मिट्टीके ) पात्रमें
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४७२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
( আন্ধায়রি
भरकर उसका मुख बन्द करदें और चूल्हे पर चढ़ा- इसमें से एक चुटकी चूर्ण सुरामण्ड, मस्तु, कर सब चीजोंकी भस्म बना लें ।
आरनाल या गोमूत्रके साथ खानेसे वात गुल्म, इसे मस्तुके साथ १ कर्ष (१। तोला) या शूल, वातोदर, प्लीहा, पाण्डु, किलास कुष्ठ और आधा कर्षकी मात्रानुसार सेवन करनेसे गुल्म, शूल, | कफवायुका नाश होता है। अफारा, अरुचि, पाण्डु, हृद्रोग, ग्रहणी विकार,
(९०३१) आरोग्यवटिका (चूर्णम् ) अर्श, अजीर्ण, विसूचिका, अष्टीला, ऊर्च वात, वातकुण्डलिका, मूत्रप्रन्थि, प्रतिश्याय, कास, श्वास,
(व. से. । गुल्मा.) अश्मरी, प्लीहा, आमदोष और वातज तथा कफज | अपामार्गपलाशानां तथैवेक्षुरसस्य च । रोगनेका नाश होता एवं अग्नि दीप्त होती है। स्नुह्ययोर्मातुलुङ्गकुटजस्यामिकस्य च ॥
( व्यवहारिक मात्रा-१ माशा । ) तिलसर्पपमूलानि दग्ध्वा भस्मानि कारयेत् । (९०३०) आरोग्यलवणम् (२)
गोजाविण्मूत्रसहितं सपिस्तैलसमन्वितम् ॥ ( ग. नि. । गुल्मा. २५)
त्र्यूषणं पिप्पलीमूलं चित्रकं शूष्कमूलकम् ।
मूर्वामतिविषां पाठां कुष्ठं भल्लातकानि च ।। त्र्यूषणं पिप्पलीमूलं शठी शृङ्गी दुरालभा।
चव्यं पूतिकरनश्च बिल्वं कटुकरोहिणीम् । हौ क्षारौ पञ्चलवणं समभागानि चूर्णयेत् ॥
द्वौ क्षारौ पश्चलवणं समभागानि कारयेत् ॥ सनीय चूणे लवणैः शनैमृद्वग्निना पचेत् । तदनिवर्ण निधूमं चूर्ण कृत्वा सुशीतलम् ।।
सन्नीय चूर्णलवणैः शनैर्मद्वग्निना पचेत् । बालग्रहमालोडय सुरामण्डेन पाययेत् ।।
तदग्निचूर्ण निर्धूमं कृत्वा चूर्ण सुशीतलम् ॥ मस्त्वारनालमूत्रैस्तु युक्तं स्याद्वातगुल्मजित् ॥ |
अङ्गुलिग्रहमालोडय सुरामण्डेन पाययेत् । शूलवानोदरप्लीहपाण्डवामयकिलासजित् । मस्त्वारणालमूत्रैस्तु युक्तः स्याद्वातगुल्मनुत् ।। इत्यादारोग्यलवणं प्रशस्तं कफवातनुत् ॥ शूलवातोदरप्लीहपाण्ड्वामयकिलासकम् । ___ सोंठ, मिर्च, पीपल, पीपलामूल, कचूर, काक- हन्यादारोग्यलवणं प्रशस्तं कफवातनुत् ॥ झसिंगी, धमासा, जवाखार, सज्जीखार और । अपामार्ग (चिरचिटा ), ढाक ( पलाश ), पांचों नमक (सेंधा नमक, काला नमक, बिड- तालमखाना, सेहुंड (थूहर-स्नुही), आक, बिजौरा, लवण, सामुद्र लवण, और उद्भिद् लवण) समान कुड़ा, चीता, तिल और सरसों; इनकी जड़ों की भाग लेकर सबको एकत्र कूट कर मृत्पात्रमें भर | राख तथा गोमूत्र, गायका गोबर, बकरीका मूत्र, कर भन्दाग्नि पर पकावें । जब धुवां निकलना बन्द बकरीकी मेंगनी, घी, तैल, सोंठ, काली मिर्च, हो जाए और समस्त चूर्ण अग्निके समान लाल हो। पीपल, पीपलामूल, चीता, सूखी मूली, मूर्वा, अतीस, जाए तो उसे ठंडा होने पर बारीक पीस लें। पाठा, कूठ, भिलावा, चव्य, पूति करंज, बेलछाल,
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गुटिकापकरणम् ]
परिशिष्ट
कुटकी, जवाखार, सम्जीखार और पांचों नमक । इसमेंसे १ चुटकी (१-१॥ माशा) चूर्ण समान भाग लेकर सबको हाण्डीमें बन्द करके सुरामण्डके साथ या मस्तु, आरनाल अथवा गोमूत्र मन्दाग्नि पर इस प्रकार पकायें कि जिससे सब
के साथ पीनेसे वातज गुल्म, शूल, वातोदर, प्लीहा, चीजें जलकर भस्म हो जाएं और धुंवा बाहर न | निकले । तदनन्तर उसके शीतल होने पर औषधको
पांडु, किलास और कफ तथा वायुका नाश होता है। निकालकर पीस लें।
इत्याकारादिचूर्णप्रकरणम्
-- --
अथाकारादिगुटिकाप्रकरणम् (९०३२) अजकरीषयोगः । इन्हें सौवीरक कांजीके साथ सेवन करनेसे ( च. सं. । चि. अ. १८)
शोथ, अविपाक और प्रवृद्ध दकोदरका नोश होताहै। क्षारं चाजकरीषाणां सुतं मृर्विपाचयेत् ।।
(बकरेकी मेंगनियोंकी राख २५ तोले कार्षिकं पिप्पलीमुलं पञ्चैव लवणानि च ॥ गोमूत्र २०० तोले। मिलाकर २१ बार छान लें।) पिप्पलीचित्रकं शुण्ठी त्रिफलां त्रितां वचाम् ।। (९०३३) आमवातारि वटी द्वौ क्षारौ शातला दन्तों स्वर्णक्षीरी विषाणि
(वै. र. । आमवाता.)
काम् ।। कोलममाणां वटिकां पिबेत् सौबीरसंयुताम् ।
| अभयासैन्धवं श्यामा विशाला विश्वभेषजम् । श्वयथावविपाके च प्रवृद्धे चोदरे दके ॥
| इन्द्रवारुणिकामज्जा तया सर्व विमर्दयेत् ।। बकरेकी मेंनियों की राखको क्षार-निर्माण
लोहभाण्डे विनिक्षिप्य दद्यादग्निं शनैः शनैः । विधिसे गोमूत्रमें मिला कर छान लें । तदनन्तर उसे
बदराभा प्रमाणेन गुटी कार्या भिषग्वरैः ।। पकाकर गाढ़ा करें और फिर उसमें ११-१। तोला |
उष्णोदकाम्बुपानेन भुक्ता दोषाधपेक्षया। पीपला मूल, पांचों नमक, पीपल, चीतामूल, सेठ, | पथ्यं धृतोदनं देयमामरोगविनाशकृत् ।। त्रिफला, निसोत, बच, जवाखार, सजीखार, हर, सेंधा नमक, निसोत, इन्द्रायणकी जड़ सातला, दन्तीमूल, स्वर्णक्षीरी (चोक) और काकड़ा- और सोंठ; इनका समान भाग चूर्ण लेकर सबकों सिंगी; इनका चूर्ण मिलाकर बेरके समान गोलियां । एकत्र मिलाकर इन्द्रायनके (बीजरहित ) गूदे में बना लें।
खरल करके (पतला कर लें और फिर उसे ) लोह
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४७४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[आकारादि
पात्रमें मन्दाग्नि पर पकाकर गाढ़ा करें तथा वेरके समान गोलियां बना लें।
इन्हें दाषादिका विचार करके उष्ण जलके साथ | सेवन करनेसे आमरोग नष्ट होता है।
पथ्य-धो भात ।
आनंदभैरवी गुटिका रस प्रकरणमें देखिये।
इत्याकारादिगुटिकापकरणम्
अथाकारादिलेहप्रकरणम् (९०३४) आटरूषादिलेहः २० तोले आमलेको स्विन्न करके (सिजाकर) (हा. सं. । स्था. ३ अ. १२)
उनकी गुठली निकाल दें। तदनन्तर उने २ सेर
दूधमें पीसकर २ सेर घीमें भून लें और फिर १ भाररूपकपत्राणि पिचुमन्ददलानि च ।
| सेर खांडकी चाशनीमें मिलाकर उसमें २० तोले तुलसीस्वरसं चैव शठी भृङ्गी मरीचकम् ॥
बासाका चूर्ण तथा १-१॥ तोला जीरा, काली शुण्ठीगुडयुतं लियाकासे वातकफात्मके ॥
मिर्च, पीपल, दालचीनी, इलायची और तेजपात; अडूसे ( बासे )के पत्ते, नीमके पत्ते, कचूर, इनका चूर्ण मिलाकर स्निग्ध पात्र में भर कर अतीस, काली मिर्च, सोंठ और गुड़; इनके समान सुरक्षित रखें। भाग मिलित चूर्णको तुलसीके रस में मिलाकर
इसके सेवनसे दुर्जय दाह, मूर्छा, और पुरानी चाटनेसे वातकफज कास का नाश होता है।
छर्दिका नाश होता है। (९०३५) आमलक्यादिखण्डः
(मात्रा-१ से २ तोले तक।) (व. से. । दाहा.)
(९०३६) आमलक्यादिपाकः मामलक्याश्च कुडवं मुस्विनं निष्कुलीकृतम् । प्रस्थेन पयसः पिष्ट्वा पचेत्प्रस्थे च सर्पिषि ॥
( न. मृ. । त. ४) पस्थं दत्वा सितायाश्च वासापलचतुष्टयम् । सुपक्वपात्रीफलशुष्कचूर्ण जीरकं मरिचं कृष्णां चातुर्जातं क्षिपेत्पुनः ॥ पुनः पुनस्तद्रसभावितं च । कर्ष दत्वा ततः स्निग्धे भाण्डे धृत्वोपभोजयेत् । शतैकवारान्परिशोध्य पश्चाद् दाई सुदुर्जेयं हन्ति मूच्छी छदि चिरोत्थिताम ॥ | घृतेन तुल्येन सिताद्वयेन ॥
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घृतपकरणम् ]
परिशिष्ट
४७५
घृतार्द्रभागेन च माक्षिकेण शक्ति इतनी बढ़ जाती है कि मनुष्य १० स्त्रियोंकों
विधाय पाकं सहदुग्धपानः। संतुष्ट कर सकता है। सुजीत यस्त्वाशु च कामिनीनां
(मात्रा--१ से २ तोले तक ।) दशं तु विद्रावयते पुरस्तात् ॥
(९०३७) आमलक्यादिलेहः
(हा. सं. । स्था. ३ अ. १६) आमले के पके फलोंके शुष्क चूर्णको आम
आमलक्या रसेनाथ घृष्टं चन्दनकं मधु । लेही के स्वरसकी १०० भावना दें। तदनन्तर उसे
गुटिकामलमानेन लेहो हन्ति वर्मि ध्रुवम् ॥ समान भाग घीमें भून लें और घोसे दो गुनी खांडकी
___आमले के रसमें सफेद चन्दनको घिस लें। चाशनी में मिलाकर उसमें घीसे आधा शहद मिला- इसमें शहद मिलाकर एक आमले के बराबर (१ कर सुरक्षित रखें।
तोले के लगभग) चाटने से वमन अवश्य नष्ट इसे दूधके साथ सेवन करने से शीघ्रही काम- | हो जाती है ।
इत्याकारादिलेहप्रकरणम्
अथाकारादिघृतप्रकरणम् (९०३८) आमलकघृतम्
आरग्बध ( अमलतास )की जड़के कल्क और
क्वाथके साथ १०० बार पकाया हुवा घृत पीने (सु. सं. । चि. अ. ५)
और खरसारका क्वाथ (पानीकी जगह ) पीनेसे सर्वेषु च पुराणघृतमामलक
कुष्ठ रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। रसविपक्वं वा पानार्थे ॥
...( अमलतासकी जड़ २ सेर, पानी १६ सेर, . आमलेके रसके साथ पकाया हुवा पुराना घी
शेषक्वाथं ४ सेर; इसमें १ सेर धी और १० तोले पिलाना हर प्रकारके वातरक्तमें लाभ पहुंचाता है।।
अमलतासकी जड़ का कल्क मिलाकर पकावे ।
क्वाथ जलनेपर छान लें। उसमें पुनः उपरोक ( रस ८ सेर, घी २ सेर ।) क्वाथ और कल्क डालकर पकावें । इसी प्रकार (९०३९) आरग्वधादिघृतम्
१०० बार पाक करें ।)
(९०४०) आरुष्करघृतम् ( वा. भ. । चि. अ. १९)
(व. से. । ग्रहण्य.) आरग्वधस्य मूलेन शतकृत्वः भृतं घृतम् । । आरुष्करं हिङ्गु कणा सयष्टी पिबन्कुष्ठं जयत्या भजन्सखदिरं जलम् ॥ | पूतीकशुण्ठी मरीचं गजाहा। .
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४७६
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
अजाजी चव्या रुचर्क सबह्निमूलं विडङ्गं सह दीप्यकश्च ॥ सक्षारवित्रिकगन्धा
पला भाविपचेद्विधिज्ञः । अत्र धान्याकचाङ्गेरीदशमूली समं पृथक् । afa : प्रस्थं निहन्त्याशु ग्रहणीं सर्वजां नृणाम् । विष्टम्भमामजात्री गान्कृमिजान्कुक्षेिजांस्तथा । मन्दानलभवान्सर्वान्नभस्वानिव वारिदम ||
कल्क - - भिलावा, हींग, पीपल, मुलैठी, पूतिकरंज, सोंठ, काली मिर्च, गज पीपल, जीरा, चव्य, संचल ( काला नमक ), चोतामूल, बायबिडंग, अजवायन, जवाखार, होंग, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल) और बच २॥ - २॥ तोले लेकर कल्क बनावें ।
सेर घीमें उपरोक्त कल्क तथा २-२ सेर धनियेका क्वाथ, चांगेरीका रस, दशमूलका क्वाथ और पानी मिलाकर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो घीको छान लें ।
[ आकारादि
इसके सेवन से सर्व दोषज ग्रहणी, विष्टम्भ, आमजनित रोग, कृमि विकार, उदररोग और अग्निका नाश होता है ।
( मात्रा -- १ से २ तोले तक । ) (९०४१) आकघृतम् ( व. से. । उदरा. )
(९०४२) आगारधूमाथं तैलम्
( धन्व. । नासा. )
गृहधूमकणादारुक्षारनक्ताह सैन्धवैः । सिद्धं शिखरिवीजैश्च तैलं नासार्शसां हितम् ||
नवघृतमा कल्कस्वरसाभ्यां परिसाधितं च विधिना ।
श्वयथूदराग्निसादैरभिभूतः
पिबेद्भवत्यरोगः ॥
कल्क —— घरका धुवां, पीपल, देवदारु, जवाखार, करञ्जकी छाल, सेंधा नमक और अपामार्ग
इत्याकारादिघृतप्रकरणम्
१ सेर ताज़े धीमें १० तोले अदरकका कल्क और ४ सेर अदरकका रस मिलाकर पकावें । जब रस जल जाए तो धीको छान लें I
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इसके सेवन से शोथोदर और अग्निमांधका नाश होता है ।
( मात्रा - १ से २ तोले तक । )
अथाकारादितैलप्रकरणम
( चिरचिटे ) के बीज समान भाग मिलित ( १० तोले ) लेकर कल्क बनावें ।
१ सेर तेलमें यह कल्क और ४ सेर पानी मिला कर पकावें । जब पानी जल जाए तो तेलको छान ले 1
इसे लगाने से नासार्श ( नाकके मस्से ) की नाश होता है ।
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तैलपकरणम् ]
परिशिष्ट
४७७
amann
-
murar
-en
(९०४३) आदित्यपाकगुडूचीतेलम् अमलतासकी जड़के क्वाथ तथा चौंटली
(र. र. ; च. द. । क्षुद्ररोगा.) (गुंजा ), बाबची और गंधकके कल्कके साथ वटावरोहकेशिन्योश्चूर्णेनादित्यपाचितम् ।
मालकंगनी का तेल सिद्ध करें । गुडूचीस्वरसे तैलं चाभ्यङ्गाकेशरोपणम् ॥
इसकी मालिशसे सिध्म और उदम्बर कुष्ठ ___बड़के अंकुर और जटामांसी का चूर्ण (५-५ नष्ट होता है । तोले ), गिलोयका स्वरस ( ४ सेर ) और तिलका (तेल १॥ सेर, अमलतासमूलका क्वाथ ६ तेल ( १ सेर ) लेकर सबको एकत्र मिलाकर सेर, कल्ककी प्रत्येक ओषधि ५ तोले । ) धूपमें रख दें। जब गिलोयका रस मूख जाए तो (९०४५) आरग्वधादितैलम् (२) तेलको छान लें।
(यो. र. । शोथा.) इसकी मालिश से गिरे हुवे बाल पुनः निकल आते हैं।
कफोत्थेऽत्र पिवेत्तैलं सिद्धमारग्वधादिना । (९०४४) आरग्वधादितलम् (१) । कफोत्थ शोथमें आरम्वधादि गणके कल्क ( र. र. स. । उ. अ. २०)
और क्याथसे सिद्ध तेल पिलाना चाहिये । आरग्वधरसो गुभावाकुचीगन्धकत्रयैः । ( आरग्वधादि गण भा. भै. र. भाग १ के सरसैः कङ्गुणीतैलं जयेसिध्ममुदुम्बरम् ॥ । आकारादि कषाय प्रकरणमें देखिये । )
इत्याकारादितैलप्रकरणम्
- --
अथाकारादिलेपप्रकरणम् (९०४६) आभलकादिलेपः (९.०४७) आमलक्यादिलेपः ( शा. सं. । खं. ३ अ. ११)
(व. से. । बालरो)
आमलक्याः पलान्यष्टौ गोमूत्रे सप्तभावयेत् । आमलं घृतभृष्टं तु पिष्टं कामिकवारिभिः ।।
भावयित्वातपे पश्चाद्विच्छिलिप्ता प्रशाम्यति ॥ जयेन्मृधि मलेपेन रक्तं नासिकया मृतम ॥
____४० तोले आमलोंके चूर्णको गोमूत्रकी सात __ आमलेको धीमें भूनकर कांजीमें पीसकर भावना देकर धूप में सुखा लें। शिरपर लेप करनेसे नासिकासे होने वाला रक्तस्राव इसे (गोमूत्र या पानीमें पीसकर) लेप करने बन्द हो जाता है।
से बालकोंका विच्छिन्न रोग नष्ट होता है ।
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४७८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ आकारादि
(९०४८) आम्रवल्कलकल्कलेपः लेकर सबको कान्तलोहके पात्रमें १ मास तक ( भै. र. । वरातिसारा.)
नीमके तेल में घोटें । आम्रस्य वल्कलं पिष्टं काचिकेन प्रयत्नतः ।
इसका लेप करनेसे बाल काले हो जाते हैं। नाभि संलेपयेत्तेन कल्केन मतिमान् भिषग् ॥ (९०५०) आरग्वधादिलेपः नदीवेगोपमं घोरमतीसारं निवारयेत् ॥
(३. मा. । विसर्पा.) (ताजे ) आमलेको कांजीके साथ बारीक | आरग्वधस्य पत्राणि त्वचः श्लेष्मातकोद्भवाः । पीसकर उसका नाभिके ऊपर लेप करनेसे नदीके शिरीषपुष्पं काफमाची हिता लेपावचूर्णितः ।। वेगके समान घोर अतिसार भी नष्ट हो जाता है। अमलतासके पत्ते, लिहसोड़े की छाल, सिर
(९०४९) आम्रास्थ्यादियोगः । सके फूल और काकमाची समान भाग लेकर चूर्ण (र. र. रसा. खं. । उप. ५)
बनावें । इसे ( पानीमें पीसकर ) लेप करनेसे
| विसर्प में लाभ पहुंचता है। आम्रास्थि त्रिफला भृकी मियॉर्मातुलुङ्गकम् ।। निशा नीली मृणालानि नागं लोहं च चूर्णितम् ॥
(९०५१) आरण्यतुलसीलेपः समं कल्कं लान्तपात्रे निम्बतैलेन भावयेत । (वै. म. र. । पटल १७ ) मासमात्रं ततस्तेन लेपाद्भवति रञ्जनम् ॥ आजेन पयसा पिष्टामारण्यतुलसीशिफाम् ।
आमकी गुठलीकी मज्जा ( गिरी ), हर, आधिप्योद्वर्तयेद्वक्त्रं व्यङ्गलोपमना नरः ॥ बहेड़ा, आमला, अतीस (या भांग), फूलप्रियंगु, बन तुलसीकी जड़के चूर्णको बकरीके दूधमें विजौ रे नीबूकी जड़, हल्दी, नील, कमलनाल, पीसकर चेहरे पर लेप करने और मलने से व्यङ्ग सीसा धातका बारीक चूर्ण ओर लोहचूर्ण समान भाग (आई) का नाश होता है ।
इत्याकारादिलेपप्रकरणम्
अथाकारादिनस्यप्रकरणम् (९०५२) आरग्वधादिनस्यम् अमलतासकी ताज़ी जड़को चावलोंके पानीके
( वृ. मा. ; यो. र. । गलगंडा.) साथ पीसकर उसकी नस्य लेने और उसीका लेप आरबधशिफां क्षिप्रं सम्यक्तण्डुलवारिणा। करनेसे गण्डमाला नष्ट हो जाती है । पिष्ट्वा नस्यप्रलेपाभ्यां गण्डमालां समुद्धरेत् ।।
इत्याकारादिनस्यपकरणम्
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रकरणम् ]
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अथाकारादिरसप्रकरणम्
(९०५३) आनन्द भैरवरसः
(रसे. सा. सं. । ज्वरा. )
हिङ्गुलश्च विषं व्योषं मरिचं टङ्कणं कणा । जातीकोषसमं चूर्ण जम्बीरद्रवमर्दितम् ॥ रक्तिमानां वीं कुर्यात्खादेदाईकसंयुताम् । ata यं वापि सन्निपाते सुदारुणे ॥ ज्वरमविधं इन्ति तथातीसारनाशनः । जीर्णश्चैव तथा सर्वाङ्गभेदकः ॥ आमवातादिरोगञ्च नाशयेदविकल्पतः ||
शुद्ध हिंगुल, शुद्ध बछनाग, त्रिकुटा ( सोंठ, मिर्च, पीपल), मिर्च, सुहागेकी खील, पीपल और जावित्री; इनका चूर्ण समान भाग लेकर Hast re मिलाकर जम्बीरी नीबूके रसमें खरल करके १-१ रतीक गोलियां बना लें I
मात्रा --- २ से ३ गोली तक ।
इसे अदरक के रसके साथ सेवन करनेसे दारुण सन्निपात, आठ प्रकारका ज्वर, अतिसार, जीर्णज्वर, अङ्गमर्द और आमवातादिका नाश होता है ।
|
(९०५४) आनन्द भैरबी गुटिका
( र. प्र. सु. । अ. ८ )
सौभाग्यं वै हिङ्गुलोत्थं विषं च मारीचं वै हेमबीजेन युक्तम् । कृत्वा चूर्ण सर्वमेतत्समांशं
जम्बीरैहिं मर्दितं यामयुग्मम् ॥
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४७६
गुञ्जामात्रा निर्मिता भक्षिता च गुढी हन्यात्सन्निपातातिसारम् ॥
सुहागेकी खील, हिंगुलोत्थ पारद, शुद्ध बछ नाग, काली मिर्च और धतूरे के बीज सनान भांग लेकर सबको एकत्र मिलाकर, दो पहर जम्बीरी नीबू के रस में खरल करें और १-१ रत्तीकी गोलियां बना ले 1
इसके सेवन से सन्निपातज अतिसार नष्ट होता है।
( पारद के स्थान में शुद्ध हिंगुल लेना अधिक उत्तम है | )
(९०५५) आनन्दभैरवी वटी
भै.
( र. चं. ; र. रा. सु. ; सं. 1 ज्वरा.
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र. । ज्वरा. र. सा. ;
विषं त्रिकटुकं गन्धं टङ्कणं मृतशुल्बकम् । धत्तरस्य च बोजानि हिङ्गुलं नवमं स्मृतम् ॥ एतानि समभागानि दिनैकं विजयाद्रवैः । मर्दयेचणकायां तु वटीं चानन्दभैरवीम || भक्षयेच्च पिवेधानु रविमूलकषायकम् । सव्योषं हन्ति नो चित्रं सन्निपातं सुदारुणम् ॥ शोता सन्निपाते वा सामान्ये वा त्रिदोषजे । धान्याकं पिप्पली शुण्ठी कुटकी कण्टकारिका || क्वाथं पिप्पलिसंयुक्तं चतुर्गुआ च पर्पटी | सन्निपातं ज्वरं हन्ति वटिकाऽऽनन्दभैरवी ॥ मूलं च कटुरोहिण्याः समं बिल्वं सजीरकम् । दध्ना पिष्टं पिवेचानु वीं चानन्दभैरवीम् ||
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४८०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[आकारादि
समिपातातिसारघ्नीं पथ्यं शाकविवर्जितम् ।। आनन्दभैरवी वटी खाकर वरनेकी छालका भानन्दभैरवीं पीत्वा काथं वरुणसम्भवम् ॥ क्याथ पीनेसे सात दिनमें अश्मरि रोग नष्ट पाययेदश्मरी हन्ति सप्तरात्रान्न संशयः। हो जाता है। वागुजीसम्भवैस्तैलैवटीश्चानन्दभैरवीम् ॥
___ यह रस बाबचीके तेल के साथ सेवन करनेसे छेहये निष्कमात्रान्तु गलत्कुष्ठश्च नाशयेत् । ।
| गलत्कुष्ठ नष्ट होता है । मात्रा-३।। माशे । दधिमस्तुसिताक्षौद्रैः वटीश्चानन्दभैरवीम् ॥ भक्षयेन्मूत्रकृच्छ्रातों यवक्षारं सितान्वितम् ।। ___मूत्रकृच्छ्-दही, मस्तु, मिसरी और गोदुग्धं कथितश्चानु शीतलं मधुना निवेत शहद के साथ यह वटी खाकर ऊपर से मिश्रीके गुआमूलं पिबेत्क्षीरैरनुपानं प्रशस्यते ।
साथ जवाखार मिलाकर खाना चाहिये । अनेन चानुपानेन वटिकानन्दभैरवी ॥ प्रमेहमें रुद्रजटाके चूर्णको शहदमें मिलाकर देया रुद्रजटाक्षौद्रैः सर्वमेहप्रशान्तये ॥ उसके साथ यह रस खिलाकर ऊपरसे पकाकर शुद्ध बछनाग, सोंठ, काली मिर्च, पीपल,
टंडा किये हुवे दूधमें शहद और चौंटली (गुंजा) शुद्ध गंधक, सुहागेकी खील, ताम्र भस्म, धतूरेके
| की जड़का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिये । पीज और शुद्ध हिंगुल समान भाग लेकर सबको
(९०५६) आनन्दसूतरसः एकत्र मिलाकर एक दिन भांगके रसमें खरल करके
(आ. वे. प्र. | अ. १, र. चं. । रसायना. ; चनेके समान गोलियां बनावें ।
वृ. यो. त. । त. १४७; रसे. चि. म. । अ. ८) अनुपान-भयंकर सन्निपातमें यह गोली खिलाने के पश्चात् आककी जड़का क्वाथ त्रिकुटे |
शुद्धं रसं समविषं प्रहरं विमर्च
तद्गोलकं कनकचारुफले निधाय । का चूर्ण मिलाकर पिलाना चाहिये ।।
दोलागतं पच दिनं विषमुष्टितोये शीतांग सन्निपात और साधारण त्रिदोष ____प्रक्षाल्य तत्पुनरपीह तथा द्विवारम् ।। ज्वर में यह वटी खिलाकर धनिया, पीपल, सोंठ, तत्सूतके गिरिशलोचनयुग्मगन्धं कुटकी और कटेलीके प्रथमें पीपलका चूर्ण और __युक्त्याऽवजार्य कुरु भस्म समं च तस्य । ४ रत्ती सौराष्ट्री (सोरठी मिट्टी) मिलाकर पिलाना वैक्रान्तभस्य जयपालनवांशकाध चाहिये ।
___ सर्वविपं द्विगुणितं मृदितं च खल्वे ॥ सनिपातातिसार में यह वटी खिलाकर घस्रत्रयं कनकभृारसेन गाढकुटकीकी जड़, बेल गिरी और जीरेका चूर्ण दहीमें मावेश्य भाजनतले विषधूपभाजि । पीसकर पिलाना चाहिये । पथ्यमें शाक नहीं देना | भृङ्गद्रवेण शिथिलं लघुकाचकूप्याचाहिये।
मापूर्य रुद्धवसनं सिकताख्ययन्त्रे ॥
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रसप्रकरणम्
परिशिष्ट
४८१
नां वासरार्धमुपदीप्य निसर्गशीतां
अब इसमें उस के समान वैक्रोन्त भस्म तथा दृष्ट्वा विचूर्ण्य गदशालिषु शालिमात्रम् । उससे ४ ॥ गुना शुद्ध जभालगोटा एवं इन सबसे आनन्दमूतमखिलामयकुम्भिसिंह
दो गुना (१३ भाग) शुद् बछनागका चूर्ण मिला गद्याणकार्धसितया सह देहि पथात् ।। कर ३-३ दिन धतूरे और भांगरेके रसमें खरल रोगानुरूपमनुपानमपि प्रकाश
करें । तत्पश्चात् कपरमिट्टी की हुई आतशी शीशी ___ क्षोणीभुजां प्रचुरपूजनमाप्नुहि त्वम् ।
के भीतर बछनागविषकी धूनी देकर उसमें, उपरोक्त कीया दिशो धवलय स्फुरदिन्दुकान्त्या । रस को भंगरके रससे पतला करके भर दें एवं वैद्यश्वरेति विरुदं भज वैद्यराज
| शीशोका मुख बन्द करके उसे आधे दिन बालुका
। यन्त्रमें पकायें और फिर स्वांगशोतल होने पर शुद्ध पारद और बछनाग समान भाग लेकर ।
रसको निकालकर पीसकर सुरक्षित रक्खें ।। दोनांको १ पहर खरल करके गोली बनावें और ।
यह रस समस्त रोगांका नष्ट करता है। उसे धतूरे के उत्तम फल के भीतर रखकर कपड़ेमें
मात्रा--३ माशे । इसे मिश्री या रोगोचित लपेटकर १ दिन कुचलेके रस या काथ में दोला
अनुपानके साथ देना चाहिये। यन्त्र विधिसे पकावें । तदनन्तर स्वांगशीतल होने !
जिस वैद्यके पास यह रस होगा उसे राजाओं पर उस गोलीको निकाल कर धोकर धतूरेगे अन्य |
से सम्मान प्राप्त होगा, देश देशान्तरोमें उसकी फल में रख कर इसी प्रकार १ बार और पकावं ।
कीर्ति फैल जायगी और संसार उसे वैधेश्वरके सदनन्तर उस पारदमें यथाविधि ६ गुना ! नामसे पुकारेगा। गंधक जारण करके भस्मके समान बना लें।
(व्यवहारिक मात्रा-आधी रत्ती ।)
इत्याकारादिरसपकरणम्
अथाकारादिकल्पप्रकरणम् (९०५७) आमलककल्पम् स्विन्नानि तान्यामलकानि तृप्त्या (ग. नि. । औषधिकल्पा. २
खादेनरः क्षौद्रघृतान्वितानि । नीरुजाईपलाशस्य छिन्ने शिरसि तत्क्षतम् ।
क्षीरं शृतं चानु पिवेत्यकामं अन्तर्द्विहस्तगरपीर पूर्यमामलकैनवैः ॥
तेनैव वर्तेत च मासमेकम् ॥ आमूलं वेपितं दर्भः पद्मिनीपङ्कलेपितम् । । वानि वानि च नत्र यनात् आदीप्य गोमयैर्वन्यैर्निवाते स्वेदयेत्ततः ।। स्पश्यं च शीताम्बु न पाणिनापि ।
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४८२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[आकारादि.
एकादशाहेऽस्य तनो व्यतीते
जब आमले स्विन्न हो जाएं ( उसीज जाएं) तो पतन्ति केशा दशना नखाश्च ॥ उन्हें निकालकर घी और शहद के साथ पेट भरकर अथाल्पकैरेव दिनैः सुरूपः
खाना चाहिये । इसके पश्चात् पका हुवा दूध खीष्वक्षयः कुअरतुल्यवीर्यः। इच्छानुसार पीना चाहिये । इसी प्रकार यह प्रयोग विशिष्टमेधावलबुदिसत्वो
१ मास तक करना चाहिये । (अन्य सब प्रकारभवत्यसौ वर्षसहस्रनीवी ।। | का आहार बन्द रखना चाहिये।) इस प्रयोग दामलकं शीतमम्लं पित्तकफापहम् ॥ . कालमें परहेज पूरी तरह रखना चाहिये और शीतल
पलाशके निरोग ( कृमि आदि रहित ) और | जल हाथसे भी न छूना चाहिये । आई (रसपूर्ण) वृक्षको तनेके उपरसे ( जड़के इस प्रकार यह प्रयोग करनेसे ११ दिन थोड़ा ऊपरसे) काट कर उसमें दो हाथ | पश्चात् केश, दांत और नख गिर जाते हैं एवं गहरा गढ़ा करें और उसमें उत्तम ताजे आमले| थोड़ेही दिनों पश्चात् ( नवीन केशादि उत्पन्न भर दें तथा उसके मुंह पर और चारों ओर जड़ होकर) शरीर सुरूपवान हो जाता है । फिर खी. तक दाभ घास लपेटकर कमलिनी की जड़की मिट्टीका समागमकी अत्यन्त शक्ति आ जाती है। शरीर (१ भंगुल मोटा ) लेप करदें एवं उसके चारों हाथीके समान बलशाली हो जाता है; मेधा, बुद्धि ओर गायके अरने उपले (वनकण्डे) लगाकर उनमें और सत्व ( मानसिक बल ) की विशेष वृद्धि आग लगा दें।
होती है और १ सहस्र बर्ष की आयु प्राप्त होती है। यह कार्य निर्वात स्थानमें होना चाहिये। आमला शीतल, अम्ल और पित्तकफनाशक है।
इत्याकारादिकल्पप्रकरणम्
अथाकारादिमिश्रप्रकरणम (९०५८) आखुकादियोगः । (९०५९) मामलक्यादिस्नानम्
(यो. २. । कृम्य.) आखुकर्णीदलैः पिष्टै: पिष्टकेन च पकान् । __(व. से. । नेत्ररोगा.) भुक्त्वा सौवीरकं चानु पिबेत्कृमिहरं परम ॥
" | आमलैः सततं स्नानं परं दृष्टिषलावहम ॥ मूषाकर्णी के पत्तों को पीसकर ( चावलोंको या मंगकी ) पिटीमें मिलाकर पड़े बनावें । ये पडे । आमले के कल्कको शिर और शरीर पर खाकर सौवीरक कांजी पोनेसे कृमि नष्ट हो जाते हैं। | मलकर स्नान करनेसे दृष्टि शक्ति बढ़ती है ।
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मिश्रप्रकरणम् )
परिशिष्ट
४८३
(९०६०) आयामकाजिकम्
( भै. र.; च. द. । ग्रहण्य. ) वाटचस्य दद्याद्यवशक्तुकानां
पृथक् पृथक् चाढकसम्मितन्तु । मध्यप्रमाणानि च मूलकानि
दधाश्चतुःषष्टि सुकल्पितानि ।। द्रोणेऽम्भसः प्लाव्य घटे सुधौते
दधादिदं भेषजजातयुक्तम् । क्षारद्वयं तुम्बुरुवस्तगन्धा
धनीयकं स्याद्विडसैन्धवञ्च॥ सौवर्चलं हिश शिवाटिकाच
चव्यश्च दयाद द्विपलप्रमाणम् । इमानि चान्यानि पलोन्मितानि
विजर्जरीकृत्य घटे क्षिपेञ्च ॥ कृष्णामजाजीमुपण्कुश्चिकाच
तथासुरी कारवीचित्रकश्च । पक्षस्थितोऽयं बलवर्णदेह
वयस्करोऽतीवबलपदश्च ।। काञ्जीवयामीति यतः प्रवृत्त
स्तत्काधिकेति प्रवदन्ति तज्ज्ञाः । आयामकालाजरयेच्च भुक्त
मायामकेति प्रवदन्ति चैनम् ॥ दकोदरगुल्ममथप्लीहानं
हृद्रोगमानाहमरोचकश्च । मन्दाग्नितां कोष्ठगतं च शूल
मर्शोविकारान् सभगन्दरांश्च ।। वातामयानाशु निहन्ति सर्वान्
संसेव्यमानो विधिवनराणाम् ॥
वाट्यर और जौके सत्तू ४-४ सेर तथा मध्यम आकारकी (न बहुत पतली न मोटी) मूली ६४ ( अथवा ६४ पल-४ सेर ) लेकर सबको एक मटकेमें डालकर उसमें ३२ सेर पानी डाल दें तथा उसमें जवाखार, सज्जीखार, तुम्बरु, अजमोद, धनिया, बिड लवण, सेंधा नमक, संचल, हींग, हिंगुपत्री और चव; इनका चूर्ण १०-१० तोले तथा पीपल, जीरा, काला जीरा, राई, कलौंजी
और चीतामूल; इनका चूणे ५-५ तोले मिलाकर मटकेका मुख बन्द करदें और १५ दिन पश्चात कांजीको छान लें । ____ यह कांजी बल, वर्ण, शरीर और आयुकी वृद्धि करती है। 'कां जीवयामि ' ( मैं किसः किसको जिलाऊ ! सभी मुझसे नवजीवन प्राप्तिकी आशा रखते हैं ) इस विचारसे इसे कांजी कहते हैं। यह आहारको १ आयाम (पहर ) में पचा देती है इसी लिये इसे 'आयाम कामिक' कहते हैं।
यह कांजी दकोदर, गुल्म, प्लीहा, हृद्रोग, अफारा, अरुचि, अग्निमांद्य, उदरशूल, अर्श, भगन्दर और समस्त वातज रोगोंको नष्ट करती है ।
(९०६१) आरग्वधादियोगः (व. से.। आमवाता. ; भा. प्र. । म. ख. २) आरमधस्य पत्राणि भृष्टानि कटुतैलतः । आमनानि नरः कुर्यात्सूप भक्तामृतानि च ।। ___xवाटय-निस्तुष कुटे हुवे जौको १४ गुने पानीमें पकाकर बनाया हुवा मांड (मण्ड) ।
१ सायं भक्तावृतानि चेति पाठभेदः
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४८४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[आकारादि
अमलतासके पत्तोंको सरसों के तेल में भूनकर । अरुचि, हृद्रोग, गुल्म, अर्श, उदररोग, कास, श्वास भात या दालके साथ खाने से आमवातका नाश | और ज्वरका नाश होता है। होता है।
(९०६२-६५) आर्द्रकयोगः गुड़के साथ अदरक खानेसे वायुका नाश (ग. नि. । अजीर्णा.)
होता है; बल और अग्निकी वृद्धि होती है तथा
वायु और मल स्वमार्गमें प्रवृत्त होते हैं । यह भोजनाने सदा पथ्यं जिहाकण्ठ विशोधनम् ।
प्रयोग नेत्रोके लिये भी हितकारक है। अग्निसन्दीपनं हृधं लवणाकभक्षणम् ।।
(९०६६-६७) आर्द्रकविधिः शोफहद्रोगगुल्मार्थो विबन्धानाहनाशनम् । (ग. नि. । वाजीकरणा. ; यो. र. । अरोचका. ) दीपनं कफहृद्रुच्यं हर्षणं लवणार्द्रकम् ॥
धौत खण्डितमाकं च सलिलैः क्षिप्तं सुतप्ते घृते शोफारोचकहृद्रोगगुल्माशांस्युदराणि च ।।
सिन्धृत्यं मरिचं मुजीरयुगलं चूर्णीकृतं प्रक्षिपेत् । कासं श्वास ज्वरं हन्यात्सहसा मधुनाऽऽर्द्रकम् ॥
चूर्ण भृष्टचणोद्भवं च वितुषं हिङ्ग्याज्यधूपं दहे
" दित्थं दोषविहीनमार्द्रवरं सुस्वादुसंजायते ॥ गुडाकं वातहरं चक्षुष्यं बलवर्धनम् । । कायाग्निजननं चैव वातवर्होनुलोमनम् ॥ तिन्तिण्यामफलानि लाजसलिले संस्थाप्य तत्राक
भोजन के पहिले सेंधा नमक लगाकर अदरक यामैकं विधृतं च तत्र नितरां रतं भवेत्स्वाद तत्। खाना सदैव हितकारी है। इससे जिवा और कण्ठ
___अदरकके टुकड़े करके उन्हें धोकर गरम शुद्ध होता तथा अग्नि दीप्त होती है । यह हृदयके
धीमें डाल दें और फिर उसमें सेंधा नमक, काली
धीमे हाल में और लिये भी हितकारी है।
मिर्च, जीरा और काला जीरा; इनका चूर्ण उचित ___
मात्रामें मिला दें तथा एक चमचे में भुने हुवे छिलके ____ अदरकमें सेंधा नमक मिलाकर सेवन करनेसे
रहित चनों का या जौका चूर्ण, हींग और घी डाल शोथ, हृदोग, गुल्म, अर्श, मलमूत्र वायु आदिका
कर उसे आग पर रखकर गर्म करें और उससे अवरोध, आनाह और कफका नाश होता तथा उपरोक्त अदरकको बघार दें । इस विधिसे अदरक अग्नि दीप्त होती और रुचि बढ़ती है।
| निषि और सुस्वादु हो जाता है । __
.. शहद के साथ अदरक सेवन करनेसे शोथ, चूर्ण भृष्टयवोद्भवमिति पाठान्तरम्
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मिश्रप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४८५
धानकी खीलोंको पानीमें भिगो दें और उनके । काञिकापटेनावगुण्ठनं दाहनाशनम् । फूल जाने पर पानीको छान लें। इस पानीमें इमलीके अथ गोतक्रसंस्विन्नशीतलीकृतवाससा ॥ कच्चे फलोंको भिगो दें और थोड़ी देर बाद उस पानीमें अदरकके टुकड़े भिगो दें। एक पहर
कांजीमें चादर भिगोकर रोगीके शरीर पर पश्चात् यह अदरक अन्यन्त लाल और सुस्वाद लपेटनेसे दाह शान्त हो जाती है। हो जायगा ।
अथवा कपड़ेको गायके मढेमें डालकर थोड़ी (९०६८) आर्द्रवस्त्रधारणम् देर पकाकर ठंडा करके रोगीके शरीर पर लपेटनेसे ( भा. प्र. । म. खं. २ ) भी दाह शान्त हो जाती है।
इत्याकारादिमिश्रप्रकरणम्
Doo
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इ
अथ इकारादिकषायप्रकरणम्
(९०६९) इक्षुरसादियोगः
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( यो. र. । मूत्रकृच्छ्रा. ) भृष्टेथुस्वरसं ग्राहथमाखु विविहितं पिवेत् । नाशयेन्मूत्रकृच्छ्राणि सद्य एव न संशयः ॥
ईखके रसमें चूहेकी विष्ठा डालकर पीने से मूत्रकृच्छ्र अवश्य नष्ट हो जाता है ।
इति इकारादिकषायप्रकरणम्
(९०७१) इक्षुरका चूर्णम्
( ग. नि. । वाजीकरणा . )
इक्षुरगोरको शतमूली वानरिनागबलातिलमाषाः । चूर्णमिदं पयसा निशि पेयं यस्य गृहे प्रमदाशतमस्ति ॥
अथ इकारादिचूर्णप्रकरणम्
(९०७०) इन्द्रयवादिकाथः ( शा. सं. । ख. २ अ. २ ) यत्रधान्यपटोलानां क्वाथः सक्षौद्रशर्करः । योज्यः सर्वातिसारेषु विल्वाम्रास्थिभवस्तथा ॥
इन्द्रजौ, धनिया और पटोल के क्वाथमें शहद और खांड मिलाकर पीने से या बेलगिरी और आमकी गुटलोकी मज्जा ( गिरी ) का क्वाथ पीने से समस्त प्रकार के अतिसार नष्ट होते हैं ।
तालमखाना, गोखरु, शतावर, कौंच के बीज (छिलके रहित), नागबला ( गुलशकरी ), तिल और उड़द समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
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इसे रात्रि के समय दूध के साथ सेवन करने से कामशक्ति अत्यन्त प्रबल हो जाती है । ( मात्रा - ४ - ६ माशे । ) (२०७२) इक्ष्वादिचूर्णम्
( यो. र. | कासा. ) इक्ष्वालिकापद्ममृणालोत्पलचन्दनैः । मधुकं पिप्पली द्राक्षा शृङ्गी चैत्र शतावरी ॥ द्विगुणा च तुगाक्षीरी सिता सर्वैश्चतुर्गुणा । लिह्यात्तं मधुसर्पिभ्यां क्षतकास निवृत्तये ॥
तालमखाना, कासकी जड़, कमल, कमलनाल,
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चूर्णप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४८७
-
नीलोत्पल, सफेद चन्दन, मुलैठी, पीपल, मुनक्का, (९०७५) इन्द्रायणीचूर्णम् काकड़ासिंगी और शतावर १-१ भाग तथा बंस
(र. चि. म. । स्त. ९) लोचन सबसे दो गुना और मिश्री सबसे ४ गुनी । इन्द्राणीफलमादाय पक्वं लवणपश्चकम् । लेकर चूर्ण बनावें ।
तेन चापूर्यते गाढं तन्मृदा लेपयेत्कलम् ।। इसे घी और शहदके साथ चाटनेसे क्षतज | विशोष्य मृत्तिका तस्य पुटो देयो महानपि । कासका नाश होता है।
स्वांगशीतं समादाय त्रिफलां च कटुत्रिकम् । ( मात्रा-१ तोला ।)
पिप्पली चव्यचित्रं च पिप्पलीमूलमप्यथ । (९०७३) इन्द्रवामणीमूलयोगः (१) । समभागं च तत्सर्व मिश्रितं खल्वमध्यगम् ।। ( ग. नि. । वृद्वय. ३६ ; वृ. नि. र. । वृद्धय ;
टकं भक्षयेत्यातः क्षुद्रोधं कुरुते तराम् ।
श्लैष्मिकानपि चेद्रोगान्वातिकान्वा विनाशयेत् । रा. मा. । वृद्धय. १६)
अतिपुष्टिकरं चैव पाचनं परमं मतम् ॥ वातारितैलमृदितं सुरवारुणीज
___इन्द्रायणके पक्के फलके भीतर पंचलवणका ___ मूलं नरः पिबति यो ममृणं विचूर्ण्य ।
चूर्ण ( उसमें जितना आ सके उतना) भरकर उस गव्ये निधाय पयसि त्रिदिनावसाने
| पर मिट्टीका ( आध अंगुल मोटा ) लेप करदें और तस्य प्रणश्यति कुरण्डकृतो विकारः॥
उसे सुखाकर गज पुट में फूंक दें। तदनन्तर जब वह इन्द्रायणकी जड़के बारीक चूर्णको अरण्डीके
रवांगशीतल हो जाए तो निकालकर ऊपरको मिट्टी तेलमें घोटकर गोदुग्धके साथ पीनेसे ३ दिनमें
छुड़ा दें और लवण युक्त फलको पीसकर चूर्ण करें । कुरण्ड रोग नष्ट हो जाता है।
अब यह चूर्ण तथा त्रिफला, त्रिकुटा (सोंठ, (९०७४) इन्द्र वारुणीमूलयोगः (२) । मिर्च, पीपल); पीपल, चव, चीतामूल और पीपला(ग. नि. । ग्रन्थ्य. १)
मूल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । पिष्ट्वा तन्दुलतोयेन घृतमात्रापरिप्लुतम । ___ मात्रा-५ माशे - (व्यवहा. मा. १॥-२ माशे।) मूलं तु शक्रवारुण्या गण्डमालापहं पिबेत् ॥ इसे सेवन करने से भूख खुलती है तथा __इन्द्रायणकी जड़को चावलों के पानीमें पीस कफज और वातज रोगोंका नाश होता है । यह कर घीमें मिलाकर पीनेसे गण्डमालाका नाश होता है। अत्यन्त पौष्टिक और पाचक है।
सान
इति इकारादिचूर्णप्रकरणम्
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४८८
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[इकारादि
अथ इकारादिगुटिकाप्रकरणम् (९०७६) इन्द्रवारुणिकामूलाद्या वटी . ( सोंठ मिर्च, पीपल )का चूर्ण मिलाकर गोदुग्धके
(र. र. रसा. खं. । उप. ७) साथ बारीक पीसकर दृढ गोली बनावें और इन्द्रवारुणिकामूलं पुष्ये ननः समुद्धरेत । छायामें सुखा लें। यूषणैश्च गवां क्षीरैः पिष्ट्वा कुर्याद्वटीं दृढाम् ।। । इसे मुखमें रखकर स्त्री समागम करनेसे वीर्यछायाशुष्का स्थिता वक्त्रे वीर्यस्तम्भकरी नृणाम्। स्तन मोता है। वरमकोलतैलेन नाभिलेपोऽपि वीर्यधृक् ॥
पुष्यनक्षत्रमें नंगे होकर इन्द्रायणकी जड़को नाभि पर अंकोल के तेलका लेप करके समाउखाड़ लें और फिर उसमें उसके बराबर त्रिकुटा, गम करनेसे भी वीर्यन्तम्भन होता है।
इति इकारादिगुटिकाप्रकरणम्
अथ इकाराद्यवलेहप्रकरणम् (९०७७) इन्द्रोक्तरसायनम् खजूराणां मधूकानां मुस्तानामुत्पलस्य च ।
(च. सं. । चि. अ. १) । मृद्वीकानां विडङ्गानां वचायाचित्रकस्य च ।। दिव्यानामौषधीनां यः प्रभावः स भवद्विधैः। शतावर्याः पयस्यायाः पिप्पल्या जोङ्गकस्य च । शक्यः सोहुमशक्यस्तु स्यात् सोढुमकृतात्मभिः॥ ऋद्धया नागबलायाश्च हरिद्राया धवस्य च ॥ औषधीनां प्रभावेण तिष्ठतां स्वे च कर्मणि । त्रिफलाकण्टकार्योश्च विदार्याश्चन्दनस्य च । भवतां निखिलं श्रेयः सर्वमेवोपपत्स्यते || इक्षणां शरमलानां श्रीपास्तिनिशस्य च ॥ वानप्रस्थैर्गृहस्थैश्च प्रयतैनियतात्मभिः ।
! रसाः पृथक पृथग्ग्राह्याः पलाशक्षार एव च । शक्या ओषधयो ह्येताः सेवितुं विषयाभिजाः ।। तासु क्षेत्रगुणैस्तेषां मध्यमेन च कर्मणा।
एपां पलोन्मितान् भागान् पयो गव्यं चतुर्गुणम्। मृदुबीर्यतया तासां विधिज्ञेयः स एव तु ॥
द्वे पात्रे तिलतैलस्य द्वे च गव्यस्य सर्पिपः । पर्येष्टुं ताः प्रयोक्तुं वा येऽसमर्थाः सुखार्थिनः।
तत्साध्यं सर्वमेकत्र मुसिद्ध स्नेहमुद्धरेत् ॥ रसायनविधिस्तेषामयमन्यः प्रशस्यते ॥ तत्रामलकचूर्णानामाढकं शतभावितम् ।। बल्यानां जीवनीयानां बृंहणीयाश्च या दश। स्वरसे नैव दातव्यं क्षौद्रस्याभिनवस्य च ॥ वयसः स्थापनानां च खदिरस्यासनस्य च ॥ शर्कराचूर्ण त्रिं च प्रस्थमेकं प्रदापयेत् ।
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प्रयोज्यमिच्छद्भिरिदं यथा
परिशिष्ट
अवलेहमकरणम् ]
जुगाक्षीर्याः सपिप्पल्याः स्थाप्यं संमूच्छितं च तत् ॥ चौमार्तिक कुम्भे मासार्धं घृतभाविते । मात्रासिमां तस्य तत ऊर्ध्वं प्रयोजयेत् ॥ हेमताम्रप्रवालानामयसः स्फटिकस्य च । मुक्तावैदूर्यशङ्खानां चूर्णानां रजतस्य च ॥ प्रक्षिप्य पोडशीं मात्रां विहायायासमैथुनम् । जीर्णे जीर्णे च भुञ्जीत पष्ठिकं क्षीरसर्पिषा ॥ सर्वरोगप्रशमनं वृष्यमायुष्यमुत्तमम् । सच्चस्मृतिशरीरामिबुद्धीन्द्रियवलमदम् || परमूर्जस्करं चैव वर्णस्वरकरं तथा । विषालक्ष्मीप्रशमनं सर्ववाचोगतप्रदम् ।। सिद्धार्थतां चाभिनवं वयश्व
जामियत्वं च यशश्च लोके ।
रसायनं ब्राह्ममुदारवीर्यम् इतीन्द्रोक्तरसायनमपरम् ||
इन्द्र ऋषियोंसे कहा - दिव्योषधियों के प्रभा वको आपके समान संयमी पुरुष ही सहन कर सकते हैं । औषधियोंके प्रभावसे अपने अपने कर्मों - तपश्चर्यादि में संलग्न आप लोगोंका हर प्रकार से कल्याण होगा ।
उत्तम क्षेत्र (हिमालय) में उत्पन्न होने वाली इन दिव्यौषधियोंके प्रभावको संयमी और प्रयत्नशील गृहस्थी तथा वानप्रस्थी भी सहन कर सकते हैं परन्तु साधारण पुरुष नहीं ।
जो औषधियां मध्यमक्षेत्र में उत्पन्न होती हैं और का प्रभाव भी मध्यम होता है उन्हें भी उपरोक्त विधिसे ही सेवन करना चाहिये ।
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४८६
जो लोग इन दिव्यौषधियों की खोज नहीं कर सकते और न इनके प्रभावको ही सहन कर सकते हैं तथापि सुख चाहते हैं उनके लिये यहनिम्न लिखित रसायनप्रयोग उत्तम है
-
बल्य गण, जीवनीयगण, बृंहणीय गण तथा वयस्थापन गण एवं खैर, असन, खजूर, महुवा, नागरमोथा, नीलोत्पल, मुनक्का, बायबिडंग, बच, चित्रक, शतावर, पयस्था, ( क्षीर काकोली ), पीपल, अगर, ऋद्धि, नागबला (गंगेरन), हल्दी, धव, त्रिफला, कटेली, विदारीकन्द, लाल चन्दन, ईख, कासकी जड़, गम्भारी और तिनिश; इनके रस और पलाश (ढाक) का क्षार - जल १० - १० तोले लें । (जिनके स्वरस न मिलें उनके क्वाथ ले लेने चाहियें ) । इन सबसे चार गुना गोदुग्ध, १६ सेर तिलका तेल और १६ सेर गोघृत लेकर सबको एकत्र मिला कर मन्दाग्नि पर पावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो स्नेहको छान ले तत्पश्चात् उसमें अपने हो स्वरसमें १०० बार भावित किये हुवे आमलोंका चूर्ण ४ सेर, नवीन शहद ४ सेर, खांड ४ से२, सलोचनका चूर्ण १ सेर और पीपलका चूर्ण १ सेर मिलाकर मिट्टी चिकने पात्र में भरकर रखदें और १५ दिन पश्चात् उसमें स्वर्ण, ताम्र, प्रवाल, लोह, स्फटिकमणि मोती, वैदर्यमणि, शंख और चांदी इनका चूर्ण उपरोक्त सम्पूर्ण औषधसे १६ वां भाग ( या ५ तोले ) मिलाकर अग्निबलोचित मात्रानुसार सेवन करें ।
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इसके सेवनकालमें परिश्रम और मैथुनसे परहेज़ करना चाहिये तथा औषधके पचने पर साठी चावलों का भात घी और दूधके साथ खाना चाहिये ।
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४९०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ इकारादि
यह रसायन सर्वरोगनाशक, उत्तम वृष्य तथा । शक्ति उत्पन्न होती है। जिन्हें सर्वत्र सफलताकी आयुष्य, सत्व (बल), स्मृति, शरीर, जठराग्नि और इच्छा हो, जो नवीन अवस्था चाहते हों और जिन्हें इन्द्रियों के बलको बढ़ाने वाली है ।
लोकप्रिय बनने तथा यश प्राप्त करने की इच्छा हो इसके सेवन से ओज, वर्ण और स्वरकी। उन्हें यह रसायन यथाविधि सेवन करनी चाहिए। अत्यन्त वृद्धि होती तथा विष और अलक्ष्मी (कान्ति (ताम्रचूर्णादिकी भस्में डाली जाए तो उत्तमहै।) हीनता)का नाश होकर समस्त विद्याएं प्राप्त करने की
इति इकाराबवलेहप्रकरणम्
Orta
अथ इकारादिघृतप्रकरणम् (९०७८) इक्ष्वादिघृतम्
कल्क-दालचीनी, इलायची, तेजपात, नाग. (वै. म. र. । प. ३) | केसर, क्षीरीवृक्ष (बड़, गूलर, अश्वत्थ,-पीपलवृक्ष-- इक्षुदूर्वामृताधात्रीश्वदंष्ट्रास्वस्तिकोद्भवैः। पिलखन और पारस पीपल ) की कोंपलें, सुगंधस्वरस लिकेराम्बुपयोयुक्तैः सुकल्कितैः ॥ बाला, नागरमोथा, सारिवा, खस, मुलैठी, मिसरी, चातुर्जातपयोवृक्षमुकुलाम्वुपयोधरैः । लाल चन्दन और कूठ समान भाग मिलित १० तोला। सारिवोशीरयष्टयाहसितोपलहिमामयः ॥ १ सेर नवीन ( ताजे ) गोवृतमें उपरोक्त सिद्धं घृतं नवं तूर्ण रक्तपित्तहरं परम । द्रव पदार्थ और कल्क मिलाकर पकावें । जब जलांश अस्थिस्रावं च नारीणां तृड्दाहौ च महावलौ। शुष्क हो जाय तो घीको छान लें। उभयायनमप्याशु रक्तपित्तं हिताशिनाम् । इसे पान, नावन और लेप में प्रयुक्त करने हन्ति पित्तामयान चाम्यान पाननावनलेपनैः॥ और पथ्य पूर्वक रहनेसे ऊचंगत तथा अधोगत
द्रव पदार्थ-ईखका रम, दूबका रस, गिलोय रक्तपित्त शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । यह घृत का रस, आमलेका रस, गोखरुका रस, चांगेरीका स्त्रियोंके अस्थिस्राव एवं प्रबल तृषा, दाह और अन्य रस, नारियलका पानी और गोदुग्ध १-१ सेर । । पितरोगोंको भी नष्ट करता है।
इति इकारादिघृतप्रकरणम्
D
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तेलप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४६१
(९०
__अथ इकारादितैलप्रकरणम
इन्द्रजौका चूर्ण २० तोले, मजीठका चूर्ण ।
२॥ तोले, तिलका तेल २ सेर और कांजी २००
| सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें। तिक्तेक्ष्वाकुबीजं द्वे तुत्थे रोचना हरिद्रे द्वे ।
| जब कांजी जल जाए तो तेलको छान लें । वृहतीफल मेरण्डः सविशालः चित्रको मूर्वा ॥ |
___ इसकी मालिशसे ज्वर और प्रबल दाहका नाश काशीशहिङ्गुशिगूत्र्युषणसुरदारुतुम्बरुविडङ्गम् ।
| होता है तथा अङ्गोंमें चैतन्यता आती है । लाङ्गलकीकुटजत्वकटुकाख्या रोहिणी चैव ॥ सर्वपकल्कैरेतैमत्रे चतुर्गुणे साध्यम् ।
(९०८१) इरिमेदाद्यतैलम् कण्डूकुष्ठविनाशनमभ्यङ्गान्मारुतकफघ्नं तैलम् ॥
___ (ग. नि. । तैला. २) कड़वी तूंबीके बीज, दो प्रकारका तुत्थ (मयूर न वृद्धानातिबालाच्च त्वक्तुलामिरिमेदकात् । तुत्थ और खर्परी तुत्थ ), गोरोचन, हल्दी, दारुहल्दी, अपां द्रोणे समावाप्य पचेत्पादावशेषितम् ।। बड़ी कटेली के फल, अरण्डमूल, इन्द्रायणकी जड़, ततस्तेन कषायेण क्षीरमस्थसमन्वितम् । चित्रकमूल, मूर्वा, कसीस, हींग, सहजनेकी छाल, लाक्षारससमायुक्तं तैलप्रस्थं पचेन्नरः ।। सोंठ, मिर्च, पीपल, देवदारु, तुम्बरु, बायबिडंग, लोप्रकटफलपभिष्ठापद्मकेसरपनकैः । कलियारी, कुड़ेकी छाल, कुटकी और सरसों समान चन्दनोत्पलपष्टयाः पालिकैर्धातकीसमैः ।। भाग मिलित २० तोले लेकर कल्क बनावें । एतदुजापहं नाम तैलं गण्डूषधारणात् ।
२ सेर ( सरसोंके ) तेलमें यह कल्क और दारणं दन्तचालं च हनुमोक्षं कपालिकाम् ॥ ८ सेर गोमूत्र मिलाकर यथाविधि तैल सिद्ध करें। शीतादं पूतिवक्त्रं च शौषिरं विरसास्यताम् ।
इसकी मालिशसे खुजली, कुष्ट, वायु और । हन्यादाशु गदानेतान् कुर्यादन्तांस्थिरानपि ।। कफका नाश होता है।
___जो इरिमेद ( दुर्गधित खैर ) का वृक्ष न (९०८०) इन्द्रयवाद्यं तैलम्
बहुत छोटा हो न बहुत पुराना उसकी ६। सेर
छाल लेकर कूटकर ३२ सेर पानी में पकावें और (रा. मा. । ज्वरा. २०)
८ सेर शेष रहने पर छान लें। इन्द्रयवकुडवं मनिष्ठाया पलार्धमादाय ।। तदनन्तर २ सेर तिलके तेलमें यह क्याथ, तैलप्रस्थं तेन प्रस्थशने कानिके विपचेत् ॥ २ सेर गोदुग्ध, २ सेर लाखका रस और निम्न उपयुक्तं तदारुणदाहज्वरनाशनं भवति पुंसाम् । लिखित कल्क मिलाकर पकावें । जब जलांश शुष्क अङ्गानां च करोति प्रहर्षमभ्यङ्गयोगेन हो जाए तो तेलको छान लें ।
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४६२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ इकारादि
कल्क-लोध, कायफल, मजीठ, कमलकेसर, | दारण, दन्तचालन, हनुमोक्ष, कपालिका, शीताद, पमाक, सफेदचन्दन, नीलोत्पल, मुलैठी और धायके पूतिवक्त्र, शौषिर और मुखकी विरसताका नाश फूल; इनका चूर्ण ५-५ ताले लेकर पानीके साथ होता तथा दांत दृढ़ होते हैं । पीस लें।
। इरिमेदाध तैलम् इस तेलके गण्डूष धारण करनेसे दन्तपीडा, प्र. सं. ८८६१ अरिमेदाद्य तैलम् देखिये ।
इति इकारादितैलप्रकरणम्
अथ इकारादिलेपप्रकरणम् (९२८२) इक्षुमूलादिलेपः इंगुदी ( हिंगोट ) के फलकी मजाको अत्यन्त ( वै. म. र. । पटल १६)
शीतल जलके साथ पीसकर लेप करने से २१ दिन में
मुखव्यङ्ग (झांई )का नाश होता है । इक्षुमूलमधुकाअनदावी
(९०८४) इगुधादिलेपः लोध्रमैरिकपटुत्रिफलानाम् ।
(ग. नि. । ज्वरा. १) लेपनं बहिरिदं नयनानां
इदिनिशाविशाला क्षीरपिष्टमपहन्ति विकारम् ॥
सैन्धवारदारुकुष्ठरविदुग्धः। ईसकी जड़, मुलैठी, सुरमा ( या रसौत ), दत्तः क्रमेण लेपो हरति महाकर्णकग्रन्थिम् ॥ दारुहन्दी, लोध, गेरु, सेंधानमक, और त्रिफला; इंगुदी (हिंगोट ), हल्दी, इन्द्रायणकी जड़, इनके समान भाग मिलित चूर्णको दूध में पीसकर | सेंधा नमक, देवदारु, और कूठ; इनका चर्ण तथा आंखों के बाहर लेप करनेसे नेत्राभिष्यन्द नष्ट होता है। ओकका दूध समान भाग लेकर पीसकर लेप करने
(यह प्रयोग पित्ताभिष्यन्द में उपयोगी है।) से कर्णक-सन्निपातमें होने वाली कानके पीछेकी (९०८३) इदीफलमज्जालेपः
| गांठकी सूजन नष्ट होती है।
(९०८५) इन्द्रयवलेपः ( रा. मा. । मुखरोगा. ५)
| (ग. नि. । विस्फोटा. ४०) सुदीफलसमुद्भवमज्जा
| विस्फोटव्याधिनाशाय तण्डुलाम्बुमपेषितैः। पेषिताऽतिशिशिरेण जलेन । बीजैः कुटजवृक्षस्य लेपः कार्यों विजानता ॥ एकविंशतिदिनप्रविलिता
____इन्द्रजौ के चूर्णको चावलों के पानीके साथ व्यामाननभवं परिमाष्टि ।। पीसकर लेप करनेसे विस्फोटक का नाश होता है ।
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लेपप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४६३
(९०८६) इन्द्रवारुणिमूललेपः (१) । (९०८९) इन्द्रवारुण्यादिलेपः (२) ( रा. मा. । व्रणा. २५)
(वैद्यामृत ) व्रणपर्यन्तालेपान्मूलं जलपिष्टशक्रवारुण्याः। इन्द्रवारुणिकामूललेपाघाति कुचव्यथा । कर्षति नष्टं शल्यं कदाचिदजशृङ्गिकामूलम् ।। । तथा कुमारिकाकन्दहरिद्रालेपनादपि ।। ___ यदि लकड़ी, कांटा आदि शरीर में घुसकर इन्द्रायणकी जड़का या घीकुमार (ग्वारपाठा) अन्दरही टूट जाय तो इन्द्रायणको जड़के चर्णको | की जड़ और हल्दीका लेप करनेसे स्तनांकी पीडा पानीमें पीसकर घाव पर लेप करदें इससे वह नष्ट हो जाती है। बाहर निकल आएगा।
(९०९०) इन्द्रवारुण्यादिलेपः (३) मेढासिंगीकी जड़का लेप करनेसे भी नष्ट शल्य
(वैद्यजीवन । वि. ३) निकल आता है।
तरण्युत्तरणीमूलं छागीसर्पिः सनागरम् । (९०८७) इन्द्रवारुणीमूललेपः (२)
| शिवशस्त्राभिधां बाधां योनिस्थां हन्ति सत्वरम् । (रा. मा.। वृद्ध्य. १६)
___ इन्द्रायणकी जड़, घृतकुमारी और सोंठके चर्णको सुरेन्द्रवारुणीमूलं तृपमत्रेण पेषितम् ।
बकरीके घीमें पोसकर योनिमें लेप करनेसे योनिशूल चमकीलानिहन्त्याशु प्रलेपात्साधनोद्भवान ॥
शीघ्रही नष्ट हो जाता है। इन्द्रायण की जड़के चूर्णको बैलके मूत्रके साथ (९०९१) इन्द्रायुधादिलेपः पीसकर लेप करनेसे चमकीलका नाश होता है।
( वृ. मा. । वृद्ध्य.) (९०८८) इन्द्रवारुण्यादिलेपः (१)
| इन्द्रायुधरविक्षीरमित्रैश्चणकसक्तुभिः । ( शा. सं. । खं. ३ अ. ११ )
| सिन्दूरसैन्धवोपेनैर्लेपो हन्ति कुरण्डकम् ।। इन्द्रवारुणिकाबीजतैलेनाभ्यङ्गमाचरेत् ।
__ चनोंका सत्तू , सिन्दूर और सेंधा नमक का प्रत्यहं तेन जायन्ते कुन्तला भृङ्गसन्निभाः॥ चर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर
इन्द्रायणके बीजोंके तैलकी नित्य शिर पर थूहर ( सेहुंड ) और आकके दूधमें पीसकर लेप मालिश करनेसे बाल भौं रके समान काले होजाते हैं। | करने से कुरण्ड रोग नष्ट होता है ।
इति इकारादिलेपप्रकरणम्
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४६४
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
अथ इकारादिनस्यप्रकरणम्
(९०९२) इङ्गुदीफलनस्यम् ( र. चि. म. । स्त. ९ ) इङ्गुदीफलचूर्णस्य नस्येन च शिरोगताः । पतन्ति कृमयो दुष्टाः श्वेता रक्ताश्च ये स्थिताः ||
इति इकारादिनस्यप्रकरणम्
अथ इकारादिरसप्रकरणम्
(९०९३) इच्छाभेदोरस: (१) ( र. प्र. सु. । अ. ८; शा. सं. । खं. २ अ. १२; २. का. . । उदरा. ) शुण्ठीपिप्पलीटङ्कणं सदरदं प्रत्येकमेवाक्षकं माहा पलमात्रका कथिता दन्तीफलं तत्समम् । चूर्णीकृत्य समांशकानि
सततं गोदुर्भावयेत् ags: सितया समं
रसवरः संभक्षितो रेचकृत् ॥ सोंठ, पीपल, सुहागे की खील और शुद्ध हिंगुल ११-११ तोला, चोक ५ तोले और शुद्ध जमालगोटा ५ तोले लेकर सबके चूर्णको एकत्र मिलाकर गोदुग्धमें खरल करके २-२ या ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लें ।
इनमें से एक गोली मिश्री के साथ खाने से विरेचन होता है ।
( अनुपान --- शीतल जल | )
इंगुदी (हिंगोट )
फलका बारीक चूर्ण करके उसकी नस्य लेनेसे सिरके खेत और लाल कृमि निकल जाते हैं ।
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[ इकारादि
(९०९४) इच्छाभेदीरमः (२) (र. का. घे. | रा.)
शुण्ठीपारदणं सुविमलं सेहुण्डकं तत्सम जैपाले त्रिगुणं तदेव निभृतं दन्तीजले घर्षितम् । तच्चात्र त्रिवृताजले विलुलितं सूर्याशुभिः शोषितम् aisi गुडसम्मितो मुनिवरैरिच्छा विभेदी स्मृतः ॥ सन्निपाते तथा बाते महाजीर्णे समुद्भवे । आमाजीर्णे तथाsssमाने दातव्यं रक्तिकात्रयम् । शर्करादधिभक्तं च पथ्यं देयं विचक्षणैः ॥
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साँठका चूर्ण, पारद ( रससिदूर ), सुहागे की खाल और हुंड ( थूहर ) का दूध १-१ भाग तथा शुद्ध जमालगोटा ३ भाग लेकर सबको एक खरल करके दन्तीमूलके क्वाथमें १ दिन घोटें और फिर १ दिन निसोतके क्वाथमें खरल करके धूप सुखा लें ।
इसे गुड़ साथ देनेसे विरेचन होता है ।
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रसप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४६५
यह रस सन्निपात ज्वर, वायु, अजीर्ण, आमा- इनके सेवनसे विरेचन होकर समस्त रोग जीर्ण, और आध्मानमें उपयोगी है । | नष्ट हो जाते हैं। मात्रा-३ रत्त।
अनुपान-उष्ण जल । पथ्य-खांड, दही और भात |
(९०९६) इच्छाभेदीवमनम् ( अनुपान- शीतल जल । )
( र. का. घे. । छZ.) (९०९५) इच्छाभेदीरसः (३) अर्ध तालाच तुत्थान द्वावेकं नवसादरम् ।
(र. का. धे.। उदरा.) गन्धाहोलाच मदनान्मर्द येत्फेनिलद्रवैः ॥ त्रिकटु त्रिफला मूतं गन्धकं टङ्कणं समम् । ताम्रण तस्य माषस्तु ज्वरं छदि विनाशयेत् ।। सर्वेस्तुल्यं तु जैपालं सर्वव्याधिहरं परम् ॥ शुद्ध हरताल आधा भाग, शुद्ध नीलाथोथा रेचनं निष्कमात्रेण हितमुष्णेन वारिणा ॥ २ भाग तथा नौसादर, शुद्ध गंधक, बोल और ___सोंठ, काली मिर्च, पीपल, हर, बहेडा, | मनफल १-१ भाग लेकर सबको एकत्र खरल आमला; इनका चूर्ण, शुद्ध पारद, शुद्र गंधक और करके ? दिन तांवे की मूसलीसे लिहसोड़ेके रसमें सुहागेकी खील १-१ भाग तथा शुद्ध जमालगोटा | घोटकर सुखा लें। सबके बराबर लेकर प्रथम पारे गंधककी कजली इसे खिलानेसे ( वमन होकर ) ज्वर और बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर छर्दिका नाश होता है । ( पानीके साथ ) खरल करके ( १-१ रत्तीकी) मात्रा--१ माशा । गोलियां बना लें।
(व्यवहारिक मात्रा--१ रत्ती ।)
इति इकारादिरसप्रकरणम्
- * - --
अथ इकारादिमिश्रप्रकरणम् (९०९७) इक्ष्वाकुयोगः सबके चूर्णको स्नुही ( थूहर-सेहुंड ) के दूधमें
मिलाकर बत्ती बनावें । ( भा. । प्र. । म. ख. २ स्त्री. : यो. र. वी
____ इसे योनिमें रखनेसे मासिक धर्म खुल जाता है । इक्ष्वाकुबीजदन्तीचपलागुडमदनकिण्वयावशूकैः।
मदनाकण्वयावशूकः । (५०९८) इक्ष्वादियोगः सास्नुक्क्षीरैवतियोनिगता कुसुमसअननी ॥
( यो. र. | क्षतकासा.) कड़वी तुंबाके बीज, दन्तीमूल, पीपल, गुड़, इविक्षुवालिकापद्ममृणालोत्पलचन्दनैः । मैनफल, जवाखार और सुरा बीज समान भाग लेकर | शृतं पयो मधुयुतं सन्धानार्थ पिबेत्क्षती ।।
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४६६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[इकारादि
ईखकी जड़, कांसकी जड़, कमल, कमलनाल, (२.१००) ईसबगोलयोगः नीलोत्पल और लाल चन्दन; इनके साथ सिद्ध दृधमें
(वैद्यामृत ) शहद मिलाकर पीनेसे उरःक्षतका घाव भरता है। ( ओषधियां समान भाय मिलित २॥ तोले,
इसबगोल इति पथितं जने
हरति तज्ज्वरभाजमतीमृतिम् । दूध २० तोले, पानी १ सेर; पानी जलने तक मन्दाग्नि पर पकावें ।)
अनुभवाल्लिखितं नतु शास्त्रतो
भवतु तद्भिषजामुपयोगिकम ।। (९०९९) इन्द्रवारुण्यादियोगः
ईसब गोल नामक ओपधि खिलानेसे बरा( रा. मा. । मुखगेगा. ५)
तिसारका नाश होता है । यह प्रयोग किमी शास्त्र मूलं मुरवारुण्या गोमूत्रयुतं महीध्रका वा। का नहीं है मैं अपने अनुभवसे लिग्व रहा हूं । अपहरात गण्डमाला पात सुश्लक्ष्णपारापष्टम् । (३. ४ माशे इसब गोल को रातको पानी में
इन्द्रायणकी जड़ या कोयलकी जड़को गोमूत्रके - भिगो दें और प्रातःकाल वह पानी नितारकर मिश्री साथ बारीक पीसकर पीनेसे गण्डमालाका नाश होताहै। मिलाकर पिलावें ।)
इति इकारादिमिश्रप्रकरणम
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कषायप्रकरणम् ]
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परिशिष्ट
अथ उकारादिकषायप्रकरणम्
उ
(९१०१) उत्पलपत्रस्वरसयोगः ( वै. म. र । पट. ३ ) उत्पलपत्रस्वरसः किञ्चित्तैलेन सहापीतः । अस्थिस्रावं स्त्रीणां नाशयति नरस्य सोमरोगं च ॥ नीलोत्पल के पत्तों के रस में जरासा तेल मिलाकर पीने से स्त्रियोंका अस्थिस्राव और सोमरोग नष्ट जाता है ।
(९१०२) उशीरादिकषायः
उशीरपाठाकुटजाटरूप
( ग. नि. । ञ्चरा. १ ) उशीरयष्टीमधुनिम्बमिश्र मुस्तं हरिद्राद्वितयं पटोलम् । आरग्वधवेति कृतः कषायः
सवातपित्तज्वर जिन्मतोऽयम || खस, मुलेठी, नीम की छाल, नागरमोथा, हल्दी, दारूहल्दी, पटोल और अमलतास समान भाग लेकर क्वाथ बनावें ।
श्रीखण्डमुस्तातिविषाविमिश्रः ।
सनागरः क्वाथवरः सुखाय
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ज्वरातिसारे मधुनान्त्रितो भवेत् ॥
૪૨૭
खस, पाठा, इन्द्रजौ, बासा ( अडूसा ), लाल चन्दन, नागरमोथा, अतीस, और सोंठ समान भाग लेकर क्वाथ बनावें ।
खस, कमल, नीलोफर, लालचन्दन और पकी
यह क्वाथ वातपित्त ज्वरको नष्ट करता है। हुई ईंट समान भाग लेकर कूटकर रातको पानीमें
(९१०३) उशीरादिक्वाथः
भिगो दें एवं प्रातःकाल वह पानी नितारकर उसमें खांद और शहद मिलाकर रोगी को पिला दें ।
(ग. नि. । ज्वरा. २ )
इसमें शहद मिलाकर पीने से ज्वरातिसारका नाश होता है।
(९१०४) उशीरादियोगः
( च. सं. । चि. अ. ४ ; ग. नि. | रक्तपित्ता. ८ ) उशीरपद्मोत्पलचन्दनानां
पक्वस्य लोष्टस्य च यः प्रसादः । सशर्करः क्षौद्रयुतः सुशीतो
रक्तातियो प्रशमाय देयः ॥
इति उकारादिकषायप्रकरणम्
इसके सेवन से रक्तपित्त रोगमें होने वाला प्रबल रक्तस्राव बन्द हो जाता है ।
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४६८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ उकारादि
अथ उकारादिचूर्णप्रकरणम् (९१०५) उच्चटादिचूर्णम्
(९१०७) उदीच्थादिकल्कः (न. मृ. । त. ३ ; वृ. मा.. । वाजीकरणा.) । ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ३) उच्चटाचूर्णमप्येवं क्षीरेणोत्तममुच्यते ।
उदीच्यधान्यस्य जलेन कल्कं शतावर्युच्चटाचूणे पेयमेव मुखार्थिना ॥
पाने हितं पाचयतेऽतिसारम् । उटिंगणके बीजोंका चूर्ण ( मिसरी मिले हुवे |
तृष्णापहं दाहविनाशनं च धारोष्ण ) दूध के साथ पीनेसे वीर्य पुष्ट होता है ।
सशूलहिकासु विनाशनं स्यात् ।। (मात्रा-३ माशा)
सुगन्धबाला और धनिया समान भाग लेकर इसी प्रकार शतावर और उटिंगणके बीजोंका।
पानीके साथ पीसकर पीनेसे अतिसार, तृष्णा, दाह, समान भाग मिलित चूर्ण भी वीर्यको पुष्ट करता है।
शूल और हिक्का का नाश तथा आमका पाचन (९१०६) उत्पलादियोगः
होता है। ( भै. र. । स्त्रीरोगा.)
(९१०८) उदुम्बरपर्णीमूलयोगः कन्दं रक्तोत्पलस्याथ रक्तकासमूलकम् । करवीरस्य मूलानि तथा रक्तोडूमूलकम् ।।
(रा. मा. । स्त्रीरोगा. ३०) बकुलस्य तथा मूलं गन्धमातृकजीरको। स्तम्भयति गर्भमुदुम्बररक्तचन्दनकञ्चव समभागश्च कारयेत् ॥
पर्णीमूलं जलेन परिपीतम्। तण्डुलोदकसम्पिष्टं रक्तमृत्राय दापयेत् । ज्येष्ठजलपिष्टमेतत्तत्कुरुते योनिमध्यगतम् ।। योनिशूलं कटिशूलं कुक्षिशूलञ्च नाशयेत् ॥ ___दन्तीमूलके चूर्णको पानी के साथ पीनेसे या योनिशूलहरः प्रोक्तः उत्पलादिन संशयः ।। । चावलोंके पानी में पीसकर (कपड़ेमें बांधकर) योनिमें
लाल कमलकी जड़, लाल कपासकी जड़, रखनेसे गिरता हुवा गर्भ स्थिर हो जाता है। कनेरकी जड़, लाल गुडहलकी जड़, मौलसिरीकी | (९१०९) उर्वारुयोजकल्कः जड़की छाल, गंधमात्रा, जीरा और लाल चन्दन
(यो. र. । मूत्रकृच्छा. ; व. से. । मूत्रकृच्छ्रा.) समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
उर्वारुवीजकल्कं च श्लक्ष्णं पिष्ट्वाऽक्षसम्मितम् । ___ इसे चावलोंके धोवनमें पीसकर पिलाने से धान्याम्ललवणैः पेयं मूत्रकृच्छ्रविनाशनम् ॥ रक्तमूत्र, योनिशूल, कमरको पीडा और कुक्षिशल । ककड़ीके बीजोंके ११ तोला चूर्णको कांजीमें का नाश होता है ।
पीसकर सेंधा नमक मिलाकर पीनेसे मूत्रकृच्छू नष्ट (मात्रा--१-१॥ माशा।)
होता है।
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चूर्णप्रकरणम् ]
परिशिष्ट (९११०) उर्वारुबीजादियोगः (१) | (९११२) उशीरादिचूर्णम् ( यो. र. । उदावर्ता.)
(यो. र. । मूत्राघाता.) उर्वारुबीजं तोयेन पिवेद्वा लवणान्वितम् ।।
| उशीरं वालकं पत्रं कुष्ठं धात्री च मौसली ।
एला हरेणुकं द्राक्षाकुङ्कुमं नागकेसरम् ॥ पञ्चमूलीशृतं क्षीरं द्राक्षारसमथापि वा ।।
पद्मकेसरकन्दं च कर्पूरं चन्दनद्वयम् । ककड़ीके बीजोंको पीसकर सेंधा नमक मिला
व्योषं मधुकलाजाश्च अश्वगन्धा शतावरी ॥ कर पानीके साथ पोनेसे या पञ्चमूल (लघु पंचमूल)
गोक्षुरं कर्कटाख्यं च जातीकङ्कोलचोरकम् । से सिद्ध दूध पीनेसे अथवा द्राक्ष (अंगूर) का रस
एतानि समभागानि द्विगुणाऽमृतशर्करा ॥ पीनेसे उदावर्त नष्ट होता है ।।
मत्स्यण्डिकामधुभ्यां च पातरेव बुभुक्षितः । ( मात्रा-१ से २ तोला)
क्षयं च रक्तपित्तं च पाददाहममृग्दरम् ॥ ( यह योग मूत्रावरोध-जन्य उदावर्त में | मूत्राघातं मूत्रकृच्छं रक्तस्रावं च नाशयेत् । मूत्र खोलने के लिये उपयोगी है। ) अशीतिं वातजारोगान्विशेषान्मेहनुत्परम् ।। ((९१११) उर्वारुबीजादियोगः (२) खस, सुगन्धबाला, तेजपात, कूठ, आमला, ( यो. र. । मूत्रकृच्छा.)
मूसली, इलायची, रेणुका, मुनक्का, केसर, नाग.
केसर, कमलकेसर, कमलकन्द, कपूर, सफेदचन्दन, उर्वारुवीज मधुकं सदावि
लालचन्दन, सेांठ, मिर्च, पीपल, मुलैठी, धानकी पित्ते पिवेत्तण्डुलधावनेन ।
खील, असगंध, शतावर, गोखरु, काकड़ासिंगी, दार्वी तथैवाऽऽमलकीरसेन
जावित्री, कंकोल और चोरक समान भाग लेकर समाक्षिकां पित्तकृतेऽथकृच्छ्रे ॥ चूर्ण बनावें और उत्तम खांड (अथवा खांड और
ककड़ीके बीज, मुलैठी और दारुहल्दी समान धी) सबसे २ गुनी लेकर उसमें मिला दें। भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
__ इसे प्रातःकाल भूख लगने पर राब और इसे चावलेोके धोवनके साथ पीनेसे अथवा | शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे क्षय, रक्तपित्त, दारुहल्दीके चूर्ण को आमलेके उसमें मिलाकर उसमें । पाददाह, रक्तप्रदर, मूत्राघात, मूत्रकृच्छ्, रक्तस्राव शहद डालकर पीनेसे पित्तज मूत्रकृच्छ्र नष्ट और ८० प्रकारके वातज रोग एवं विशेषतः प्रमेह होता है।
का नाश होता है। (मात्रा-३ माशे । )
(मात्रा---१ तोला।) इति उकारादिचूर्णप्रकरणम्
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ उकारादि
अथ उकारायवलहप्रकरणम् (९११३) उच्चटाद्यमोदकः । मात्रा में, ठीक समय पर पध्य ) आहार करने ( व. से. । राजयस्मा.)
| एवं ब्रह्मचर्य से रहनेसे ११ लक्षणों वाले ( पूर्ण
| लक्षण युक्त) राजयक्ष्मा, हृदयरोग, प्लीहावृद्धि, उच्चटेक्षुरसः क्षौद्रं तुगाक्षीर्याश्च बुद्धिमान् । ग्रहणी रोग, मूत्रकृच्छू और अपतन्त्रकका नाश पस्थं प्रस्थं पृथग्गृह्य शर्करातुलान्तथा ॥ होता है । यह मोदक स्वर, वर्ण, बल, तुष्टि, पुष्टि,
आत्मगुप्ताफलानाश्च कुडवं मरिचस्य च । आयु और अग्निकी वृद्धि करता है तथा भूतोन्माद, त्रिसुगन्धिकृतावापं मन्थानेन विमन्थयेत् ॥ | शरीरकी विकलता, वृद्धावस्था और वीर्यकी कमी पलिकान्मोदकान्कृत्वा स्थापयेद्भाजने वरे। में उपयोगी है । यह वाजीकरण भी है तथा इसके एतद्विकालमेकं वा खादेदग्निबलं प्रति ॥ सेवनसे वन्ध्या स्त्रीको पुत्र प्राप्ति होती है । धनुष वटकान्नियताहारो ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः । चलाने, स्त्री समागम करने, मद्य पीने, भार उठाने स हन्याद्यक्ष्मिणः सद्य एकादशविध क्षयम् ॥ और मार्ग चलनेसे उत्पन्न हुई दुर्बलता इसके स्वरवर्णवलौदार्यतुष्टिपुष्टिविवर्धनम् । सेवनसे नष्ट हो जाती है । आयुष्यं पौष्टिकं चाग्न्यं भूतोपहतचेतसाम् ॥
(९११४) उच्चटापाकः व्याकुलीकृतदेहानां वृद्धानां क्षीणरेतसाम् ।
(वै. जी. । वि. ५) वाजीकरणमप्येवं वन्ध्यानां पुत्रदं परम् ।।
उच्चटामर्कटीगोक्षुरैश्चूर्णितः धनुः स्त्रीमद्यभाराध्वखिन्नानां बलवर्धनम् ।
शर्करादुग्धसम्मिश्रितैः पाचितैः । हृत्प्लीहग्रहणीदोषमूत्रकृच्छापतन्त्रकम् ॥
सेवितर्वार्धके मानवो मानिनीअपस्मारविषोन्मादनाशनं तद्रसायनम् ।।
मानमुच्छेदयेकि पुनयौवने ॥ ___ भुई आमले का रस, ईखका रस, शहद और |
उटिंगनके बीज, कौंचके बीज और गोखरु; बंसलोचन का चूर्ण १-१ सेर; खांड ३ सेर १०
इनका समान भाग चूर्ण एकत्र मिलाकर गायके तोले, कौंचके बीजोंका चूर्ण २० तोले, काली
दूघमें पकावें और कुछ गाढा हो जाने पर उसमें मिर्चका चूर्ण २० तोले तथा त्रिसुगन्धि (दाल
स्वादयोग्य मिश्री मिला दें तथा थोड़ी देर और चीनी, इलायची, तेजपात ) का चूर्ण २० तोले
पकाकर हलया सा बना लें। लेकर सबको एकत्र मिलाकर मथनी से मथें और
इसे सेवन करने से वृद्ध पुरुष भी मानगर्विता फिर ५-५ तोलेके मोदक बना लें।
। रमणियोंका मान मर्दन कर सकता है, फिर यदि इनमेंसे १-१ मोदक प्रति दिन प्रातः सायं ! इसे युवावस्थामें सेवन किया जाय तब तो कहना या केवल १ समय खाने और नियत ( उचित । ही क्या है।
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अवलेहप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
५०१
(९११५) उदुम्बरादियोगः सर्वावक्तभवांश्चैव रोगानाशयति ध्रुवम् । ( वृ. मा. । रक्तपित्ता. ; यो. र. ; व. से.। कृपया ह्येकदा मा मातुलेन प्रकाशितम् ॥ रक्तपित्ता.)
उशवा २० तोला, चिरायता ९ तोला, उत्तम पक्वोदुम्बरकाश्मर्यपथ्याखर्जूरगोस्तनाः। निशोथ १० तोला, सनाय ६ तोला, बड़ी हर्डका मधुना नन्ति संलोढा रक्तपित्तं पृथक्पृथक् ॥ बक्कल ३ तोला, कावलीहरडका बक्कल ३ तोला, ___ पक्के गूलर, खम्भारीके फल, हर्र, खजूर | जंगीहर्ड ३ तोला, गुलाबके फूल १॥ तोला, और मुनक्का, इनमें से किसीको भी पीसकर शहद | आकाशवेल ( अफतिमुन ) १॥ तोला, सौंफ- १॥ में मिलाकर चाटने से रक्तपित्तका नाश होता है। तोला, नीलोफर १॥ तोला, पित्तपापड़ा १॥ तोला, (१११६) उशबाऽवलेहः
एलुवा १।। तोला, चोपचीनी ५ तोला, धनिया १ (न. मृ. । त. ८)
तोला, लालचंदन १ तोला, इन सबको कपड़छान
करके, वीस तोला बादामरोगनमें मसलकर सबसे चतुःपलां ध्रुवजटां नवकप किरातकम् ।
तीनगुने शुद्ध शहदमें मिलाकर चिकने वर्तनमें भरदशकर्षा विद्ग्राह्या पट्कर्षा स्वर्णपत्रिका ॥
कर रख देवें । इसमेंसे एक तोला. अथवा जितना हरीतकीत्रयं चैव त्रित्रिकर्ष पृथक पृथक् ।
वैद्य उचित समझे उतना खिलाकर ऊपरसे थोड़ाशतपत्री निराधारा शतपुष्पा तथैव च ॥
सा गरम जल पिलावे और मूंग, चावल, घी, आदि नीलोत्पलं पर्पटं च सार्द्धकषलवालुकम् । कर्षकर्पप्रमाणेन धान्यकं रक्तचन्दनम् ।।
पथ्य भोजन करावे । तैल, खटाई, दही, दूध,
उड़दकी दाल, लाल मिर्चसे परहेज रक्खे और चोपचीनीपलं चैकं योजयेन्मतिमानरः।
इसको वसंत ऋतुमें बराबर दो महीने खिलावे तो सर्व सङ्कुटय विधिना श्लक्ष्णं चूर्ण च कारयेत् ।।
प्रमेह, कुष्ट, फिरंग उपदंश, और रक्तके विकार वातामकोद्भवे तैले मर्दयेच चतुःपले । त्रिगुणे माक्षिफे शुद्धे विधिना मेलयेद्भिषक् ।
नष्ट हो जाते हैं । यह परमोत्तम उशबावलेह एक
समय स्नेहवश कृपा करके हमारे मामा केशवानंदजीने कर्षमानं भक्षयित्वा कोणतोयं ततः पिबेत् ।
कथन किया था । वसन्ते भक्षयेन्नित्यं प्रातःकाले यथावलम ॥ घृतं मुद्ग तथा शालीन्भक्षयेन्मतिमान्नरः। (इस योगकी यह टीका उक्त श्लोंकों के अम्लं तैलं दधि दुग्धं गुडं चापि परित्यजेत् ॥ रचयिता श्रीयुत् पं. रामप्रसादजी वै. पं. की ही नानायोगेषु योगोयमुत्तमः परिकीर्तितः। की हुई है।) मेहं कुष्ठं फिरङ्गं हि उपदंशं च नाशयेत् ॥ ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[उकारादि
अथ उकारादिघृतप्रकरणम् (९११७) उदकषट्पलघृतम्
कल्क---सोंठ, पीपलामूल, चव, पीपल, (व. से. । अर्शो. ; च. द. । अर्शो. ५) जवाखार और चीतामूल; इनका चूर्ण ५-५ तोले । नागरं ग्रन्थिकं चव्यं पिप्पली क्षारचित्रकम् । २ सेर घी में यह कल्क, ६ सेर पानी और एतैश्च पलिकैः सर्वैघृतपस्थं विपाचयेत् ॥ २ सेर गोदुग्ध मिलाकर पकावें । जब जलांश उदकस्य त्रयो भागाः क्षीरस्यैकं तदेकतः। शुष्क हो जाय तो घीको छान लें। दुर्नामश्वासकासनं प्लोहपाशामयापहम् ।। । इसके सेवनसे अर्श, श्वास, कास, प्लीहा, विषमज्वरशान्त्यर्थं तृष्णारोचकनाशनम्। पाण्डु, विषमञ्चर, और अरुचिका नाश होता तथा एतत्पट्पलकं नाम बलवर्णानिवर्द्धनम् ॥ 'बल वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती है ।
इति उकारादिघृतपकरणम्
अथ उकारादिलेपप्रकरणम् (९११८) उत्पलादियोगः । मूल सहित उत्पल (नीलोफर ) और पारद ( वृ. मा. । क्षुद्ररोगा.)
समान भाग लेकर दोनोंको सात दिन तक आमले उत्पलं पयसा साधं मासं भूमौ निधापयेत । | के स्वरसमें खरल करें। केशानां कृष्णकरणं स्नेहनं च विधीयते ॥ इसे शरीर पर मलनेसे बलि ( झुर्रियां ) नष्ट
नीलोफर को दूधमें पीसकर उसीमें घोल कर होती हैं और ( बालों पर लगाने से ) सफेद बाल (लोहपात्रमें बन्द करके ) भूभिमें दबा दें और १ /
| काले हो जाते हैं। मास पश्चात् निकालकर काममें लावें।
इसे बालों में लगाने से बाल काले और (९१२०) उपोदिकालेपः स्निग्ध हो जाते हैं। (९११९) उत्पलाद्युदर्तनम्
(व. से. । अर्बुदा.) (र. र. रसा. खं. । उप. ५) उपोदिकाकाञ्जिकतक्रपिष्टा उत्पलानि समूलानि पारदं च समं समम् । तथोपनाहं लवणेन साघम् । सप्ताह मर्दयेत्खल्वे स्वकीयेना शिवाम्बुना ॥ दृष्टोऽर्बुदानां प्रशमाय कैश्चितेनैव गर्दयेद्गात्रं जायते पूर्ववत्फलम् ॥ दिने वा त्रिषु ममजानाम् ॥
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परिशिष्ट
लेपप्रकरणम् ]
उपोदिका (पोई) को कांजी या तक्र में पीसकरे उसमें सेवा नमक मिलाकर गाढ़ा गाढ़ा लेप करने से मर्मज अर्बुद नष्ट हो जाता है । (९१२१) उशोरादिलेपः ( वै. म. र । पटल ११ ) उशीर बहुशो लिम्पेनश्येत् वेदमसूरिका ।
इति उकारादिलेपकर गम्
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अथ उकारादिधूपप्रकरणम
(९१२२) उग्रगन्धादिधूपः ( वृ. मा. । मसूरिका. )
उग्राज्यवंश नीली यवविष कार्पासिकी सब्राह्मी सुरसमयूरकलाक्षाधूपो रोमान्तिकादिहरः । आदावेन प्रयुक्तस्य प्रशा यन्ति ममरिकाः न गृह्णन्ति विषं विद्ययाला रिह ||
बच, वांसके पत्ते, नीलका पंचांग, जौ, वळनाग, कपास के बीज (बिनौले), पाली, तुलसी,
1
(९१२३) उन्मादभञ्जिनीवदी (र. रा. सु. | उन्मादा. )
शुद्धं मनःशिला चूर्ण सैन्धवं कटुरोहिणी । बचा शिरीषबीजश्च हिहुं च श्वेतसर्षपम् ॥
खसको ( पानी के साथ बारीक पीसकर बारबार लेप करने से स्वेद और मसूरिका का नाश होता है ।
कर
अपामार्ग ( चिरचिटा ) और लाख समान भाग लेकर बारीक चूर्ण बनावें तथा उसे घी से चिकना
लें
I
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इति उकारादिधूपप्रकरणम्
५०३
मसूरिका के प्रारम्भमें इसकी धूप देने से वह नष्ट हो जाती है ।
अथ उकाराद्यञ्जन प्रकरणम्
इस योग में कोई कोई वैद्य 'विष' ग्रहण नहीं करते । इसकी जितनी चीजें मिल सके उतनी ही ले लेनी चाहियें ।
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करवीजं त्रिकटु मलं पारावतस्य च । एतानि समभागानि गोमूत्रैर्वटिकां कुरु ॥ गिरिमली बीज समां छायाशुष्काञ्च कारयेत् । मातः सन्ध्या निशाकाले चक्षुषोरञ्जनहितम् ।।
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५०४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ उकादि
मधुरादिरसेनाऊज्याद् राज्यावपि जलेन च । सबका समान भाग चूर्ण लेकर गोमूत्रमें घोटकर वटिकका समाख्याता नाम्ना चोन्मादमशिनी ॥ इन्द्रजौ के समान वटी ( वर्तियां ) बनाकर छाया चातुर्थकमपस्मारमुन्मादश्च विनाशिनी ॥ में सुख
इनमें से १ वटी प्रातः, सायं शहदमें शुद्ध मनसिल, सेंधा नमक, कुटकी, बच, । घिसकर और रातको पानीमें घिसकर आंखमें अंजन सिरसके बीज, हींग, सफेद सरसों, करजचीज, | करने से उन्माद, अपस्मार और चातुथिक ज्वर का सोंठ, काली मिर्च, पीपल और कबूतरकी विष्टा; ' नाश होता है।
राधजनप्रकरणम्
अथ उकारादिरसप्रकरणम् (९१२४) उदयभास्कररसः । सर्व खन्वतले विध (र. चं.; र. का. धे.; र. रा. सु.; र. र. । श्वासा.) मतिमानगुमाद्वयं वै ददेत् । धान्यानं सूतकं गन्धं श्वेतापामार्गजै रसैः।। मार्तण्डोदयको ज्वरादितुल्यांशं मर्दयेच्चाहो यन्त्रे पातनके पचेत् ॥ सहिते यः सोदरामानके ऊर्बलग्नं तु तद्ग्राह्यं रसो ह्युदयभास्करः । पाण्डाजोणंगदेऽनुपानवशतः श्वासं पञ्चविधं इन्ति द्विगुञ्जमनुपानतः ।।
पथ्यं च तक्रौदनम् ॥ ___ धान्याभ्रक, शुद्ध पारद और शुदगंक समान व्योषेणाऽऽरसेन तत्र भाग लेकर कजली बनावें और उसे १-१ दिन सफेद सितया युक्तो ज्वरे दारुणे कोयल और अपामार्ग के रसमें खरल करके ऊर्ध्व
मान्ये गुल्मकफानले च पातन यन्त्रमें डालकर उड़ा लें । ऊपरके पात्र में जो
पवने शूले च शोफोदरे। रस लगा हुवा मिले उसे छुड़ाकर शीशी में भर लें । मात्रा-२ रत्ती।
वाताखे स्वरवर्णकुष्ठ
गुदजारोगानशेषाञ्जयेत् ॥ इसके सेवनसे ५ प्रकारका श्बास नष्ट होता है।
___ शुद्ध हिंगुल ३ भाग, शुद्ध जमालगोटा २।। (११२५) उद्यमार्तण्डरसः भाग, सुहागेकी खील २ भाग, और शुद् विष (यो. र. । उदावर्ता.)
(वछनाग) १। भाग लेकर सबको एकत्र खरल हिलं जयपालटङ्कण
करके रक्खें। विषाण्यन्त्यार्थभागोत्तरं
मात्रा--२ रत्ती।
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रमाकरणम् ]
परिशिष्ट
५०५
इसे यथोचित अनुपानके पाथ दे से ज्वर, । पर कपड़ा लपेटकर उसके ऊपर वज्रमृत्तिका का रेप उदराध्मान, पाण्डु और अजीर्ण का नाश होता है। कर दें। इसे सुखाकर गज मुटमें फूंक दें और फिर इस पर तक भात का पथ्य देना चाहिये। उसके स्वांगशील होने पर रसको निकालकर
इसे दारुण ज्वर में सोंठ, मिर्च, पीपल के . ३-३ दिन देवदाली (बिंडाल ), भंगरे और चूर्ण, अदरक के रस और मिश्री के साथ देना चाहिये।
पुनर्नवाके रेसमें खरल करें । तत्पश्चात् उसमें
उसके बराबर सोंठका चूर्ण मिलाकर सुरक्षित रक्खें । यह रस अग्निमांद्य, गुला, कफ, वायु, शूल,
___इसमें से नित्य प्रति २ माशे रस शहद और शोफोदर, वातरक्त, कुष्ट और गुद-रोंगों को नष्ट
घीके सय १ वर्ष तक सेवन करनेसे जरामृत्युका करता है।
नाश हो जाता है । (१) (९१२६) उदयादित्यरसः
____ अनुपान-पुनर्नवा, भंगरा और देवदालीका (र. र. रसा. ख. । उपदे. २) चूर्ण बरोबर बराबर लेकर एकत्र मिलालें । इसमें से
१ कर्ष चूर्ण शहद और घीके साथ मिलाकर उपपारदाद्विगुणं गन्ध शुद्धं सर्व विमर्दयेत् ।
रोक्त रस खानेके पचात् चाटना चाहिये । मुण्डयाकरसैः खल्वे त्रिसप्ताहं पुनः पुनः॥ । एनत्तुल्यं शुद्धतानं सम्पुटे तन्निरोधयेत् । (९१२७) उदरारिरसः वेष्टयेद्वस्त्रखण्डेन वज्रमृत्तिकया बहिः ॥
(२. का. थे. । उदग. ; यो. त. । ५२ ) लिप्त्वा विशोषयेत्तं वै सम्यग्गजपुटे पचेत् ।
सूतगन्धकणापथ्यावचारग्वधकान हनम् । उद्धृत्य सम्पुटं चूर्य देवदाल्या द्रवैस्यहम् ।।
मर्दयेद्वन्निदुग्वेन तन्मापं खाटयेदिनम् ॥ भृकापुनर्नवादावः पृथग्भाव्यं व्यहं व्यहम ।
नृणां जलोदरं हन्ति पथ्यं शालगोदनं दधि । तत्तुल्यं नागराच्चूर्ण क्षिप्त्वा मध्वाज्यसंयुतम् ।
बिम्बाफलरसं चानुपानमस्मिन्प्रयोजयेत् ।। लिहे माषद्वयं नित्यं यावत्संवत्सरावधि । रसोऽयमुदयादित्यो जरामृत्यु :रः परः॥
शुद्ध पाग्द, शुद्र गंधक, पीपल, हर्ष, बच
और अमलतास का गूदा समान भाग लेकर प्रथम पुनर्नवादेवदालीभृङ्गचूर्ण समं समम ।
पारे गंधककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य मध्वराज्याभ्यां लिहेत्कषमनुस्यात्क्रामणं परम् ॥ ओषधियोंका चर्ण मिलाकर १ दिन सेहंट (थहर)के
शुद्ध पारद १ भाग और शुद्ध गंधक २ भाग | दूधमें खरल करें और सुखाकर सुरक्षित रक्खें । लेकर दोनोंकी कजली बनाकर उसे २१-२१ ।
मात्रा-१ माशा। दिन गोरखमुण्डी और अदरकके रसमें खरल करे । । पथ्य ----शालि चावलों का भत और दही। तदनन्तर उस कजली के बगबर शुद्ध ताम्र का चूर्ण अनुपान-- कन्दूरीके फलोंका रस । मिलाकर सबको शरावसंपुट में बन्द करें और उस ! यह रस जलोदरको नष्ट करता है।
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५०६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[उकारादि
(९१२८) उदरारिलोहः | लोहदण्डेन सघृष्य लोहपात्रे चिरं भिषक् । (र. र. ; व. से. । उदरा.)
| विधिज्ञोक्तेन विधिना हिताहारविहारवान् ।। स्नुह्यर्कदन्तीधववतिफली
अन्नपानं यथा सात्म्यं कुर्वनित्यं निरामयः ।
उदरेषु च सर्वेषु शोथेषु विविधेषु च ॥ शोफारिपाशोऽशनकन्दकन्दः ।
अर्शःसु च विशेषेण पाण्डुरोगे सकामले । माणत्रियामाग्निकवाणरण्डा तालं तथा मारिपारिभद्रौ ॥
विधिनोक्तेन कुर्वाणो नरो रोगान विन्दति ।। प्रत्येकशः क्षारचतुः पलांश
__सेहुंड ( स्नुहो-थूहर ), आक, दन्ती, धव, तथा पलाशस्य समेः समः स्यात् ।
भिलावा, फंजी ( भरंगी ), पुनर्नवा (बिसखपरा), चतुर्गुणे क्वाथजलाष्टशेषे
बरना, असना, जिमीकन्द, विदारीकन्द, मानकन्द पचेद्विधिज्ञा विधिशुद्धलोहम् ॥
हल्दी, चीता, सरफोंका, मूषाकर्णी, ताड़, तुलसी चूर्णीकृतं तत्पुटितं पुटेन
और पारिभद्र ( फरहद या नीम ); इनका क्षार
२०-२० तोले और पलाश (ढाक) का क्षार सबके तन्तुच्युतं षोडशिकं पलानाम् । वर्षाभूभल्लातकवहिदन्ती
बराबर लेकर सबको चारगुने ( ८ गुने ) पानीमें त्रिवन्तीरविद्धमूलम् ॥
पका और आठवां भाग शेष रहने पर उसमें १
सेर लोह भस्म तथा निम्न लिखित काथ और १-१ कञ्चुकी तालमूली च पीवरी गिरिकर्णिका । मीलिनी बृहतीपत्रं शम्पाकं विजया समम् ।।
सेर स्नुही तथा आकका दूध एवं २ सेर घी डाल चतुष्पलांशं क्वथिताष्टशेष
कर ताम्र पात्रमें पकावें । स्नुपर्कदुग्धेन पलाष्टकेन ।
क्वाथ-पुनर्नवा, भिलावा, चीतामूल, दन्ती. दत्त्वा पवेत्ताम्रमये सुपात्रे
मूल, निसोत, द्रवंती, आककी जड़, विधारेकी जड़, पलैर्द्विरप्टै विषस्तथैव ।।
सरफोंकाकी जड़, तालमूली ( मूसली), शतावर, अमृनि चूर्णानि च सिद्धशीते
कोयल, नीलकी जड़, कटेलीके पत्ते, अमलतासका क्षिपेत्तथा लोहरजः समानि ।
गूदा और भांग २०-२० तोले लेकर फूटकर लवणानि च सर्वाणि क्षारः पञ्चोषणानि च ॥ आठ गुने पानोमें पकावें और आठवां भाग शेष मरिचं चाजमोदा च हिमुभल्लातकानि च। | रहने पर छान लें । चित्रकं तालमूलश्च गवाक्षी त्रिताऽमृता ॥ जब पकते पकते अवलेहके समान गाढ़ा हो वर्शभूः मूरणो मानो विडङ्गं दन्ति:न्धिकम् । जाय तो ठंडा करके उसमें निम्न लिखित ची का mit माक्षिकचूर्णस्य कङ्कष्ठकशिलाजतोः ॥ चूर्ण मिला।गु.लोगन्धकस्यापि पारदस्य पलं पृथक् । पांचों नमक, जवाखार, सजीखार, सुहागा, शीते पलाष्टक क्षौद्रं दत्वा मधुघृतान्वितम् ।। । पोपल, पीपलामूल, चव, चीतामूल, सोंठ, काली मिर्च
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परिशिष्ट
रसप्रकरणम् ]
अजमोद, हींग, शुद्ध भिलावा, चीतामूल, तालमूली ! (मूसली), इन्द्रायणकी जड़, निसोत, गिलोय, पुनर्नवा ( बिसखपरा ), जमीकन्द, मानकन्द, बायबिडंग, उन्तीमूल और पीपलामूल; इनका चूर्ण समान भाग मिलित १ सेर ( ८० तोले ) । स्वर्णमाक्षिक भस्म ५ तोले, कंकुष्ठ ५ तोले, शिलाजीत ५ तोले, गूगल ५ तोले तथा ५-५ तोले शुद्ध पारद और गंवककी काजली ।
इनके अतिरिक्त उसमें १ सेर शहद भी डाल दें और सब को लोहपात्रमें डालकर बहुत देर तक लोके मूसले से घो
1
इसके सेवन से समस्त प्रकारके उदररोग, अनेक प्रकारके शोथ, अर्श, पाण्डु और कामला का नाश होता है ।
इसके सेवनकाल में जो अन्न पनि सात्म्य ( अनुकूल ) हो वही खाना पीना चाहिये ।
(९१२९) उन्मादकुठाररसः ( र. का. घे. | उन्मादा. )
रसं गन्धं बच्चा ब्राह्मी शङ्खिनी विषधूर्तकम् । वचा सूरजैर्भाव्यं स्यादुन्मादकुठारकः ॥
शुद्ध पारद, शुद्ध गंवक, बच, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, शुद्ध बछनाग और धतूरे के शुद्ध बीज समान भाग लेकर प्रथम पारे गंधककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर सबको १-१ दिन बच और धतूरे के रस में खरल करें ।
इसके सेवन से उन्माद नष्ट होता है ।
( मात्रा - २ रत्ती । )
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(९१३०) उन्मादध्वंसिरसः (र. रा. सु. | उन्मादा. ) तालकं शुल्बकं तुल्यं गन्धकेन प्रमारयेत् । तन्मृतञ्च पुटेत्पश्चाद्दत्वा गन्धं समं पुनः गुञ्जाद्वयं प्रदातव्यमुत्पादे च वचायुतम् । अपस्मारे च सततमुन्मादध्वंसनं रसम् ॥
शुद्ध हरताल, शुद्ध ताम्र और शुद्ध गंधक समान भाग लेकर तीनोंको एकत्र खरल करके शराब सम्पुट में बन्द करें और फिर गज पुटमें फूंक दें । तदनन्तर उसमें समान भाग गंधक मिलाकर पुनः खरल करें और गज पुटमें फूंक दें । ( इसी प्रकार कई पुट देकर निरुत्थ भस्म करें | ) मात्रा - २ रती ।
५०७
इसे बचके चूर्ण के साथ सेवन करने से उन्माद और अपस्मार का नाश होता है ।
(९१३१) उन्माद पर्पटीरसः
( र. चं. ; र. रा. सु. ; धव. | उन्मादा. ) पर्पटीरसगुअष्टौ धत्तूगद् वीजपञ्चकम् । गोघृतेन च संयोज्य खादेदुन्मादशान्तये ||
८ रत्ती पर्पटी रसमें धतूरे के ५ बीज मिला कर गोघृतके साथ सेवन करने से उन्माद रोग नष्ट होता है !
उन्मादभञ्जनी वटी
( र. रा. सु. । उन्मा. ) अञ्जन प्रकरण में देखिये ।
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(९१३२) उपदंशघ्नरसः
(न. मृ. । त. ८ ) पारदः कर्षमात्रः स्यात्तावन्मात्रं तु गन्धकम् । तावन्मात्रस्तु खदिरस्तेषां कुर्यात्तु कज्जलीम् ॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[उकारादि
-
रजनी केशरं त्रुटयौ जीरयुग्मं यवानिका। फिरंग रोगमें कुष्ठ और ब्रणकी चिकित्सा के चन्दनद्वितयं कृष्णा वांसी मांसी च पत्रकम् ॥ समान उपचार करने चाहिये । स्नेहन स्वेदन के अर्द्धकर्षमितं सर्व चूर्ण येला व निक्षित। पश्चात् वमन और तीक्ष्ण विरेचन देना चाहिये और तत्सर्व मधुसर्पिभ्यां द्विपलाभ्यां पृथक्पृथक् ॥ | फिर औषधियां सेदन करानी चाहिये । मर्दयेदथ तत्वादेदद्ध कर्षमितं नरः ।
(९१३३) उपदंशान्धसूर्यः व्रणः फिरङ्गरोगोत्यस्तस्यावश्यं विनश्यति ॥ अन्योऽपि चिरजालोऽपि प्रशाम्पति महाब्रणः।
( वृ. यो. त.। त. ११७) एनद्भयतः शोथो मुखस्यान्तन जायते ॥ शोपलं कोलमितं पलत्रिक वर्जयेदत्र लवणमेकविंशतिवासरान् ।
क्षुद्रारसं निम्बुरसं तथैव । घृतयुक्तामयो शुष्कां भक्षयेत्करपट्टिकाम् ॥ लौहे कटाहे विनिधाय सर्व प्रसंगाकथिता तात उपदंशहरी किया। ___ संपृष्य सत्व क्षिचुमन्दजेन ॥ ब्रणवत्कुष्ठवच्चात्र कर्तव्या विविधाः क्रियाः ।। दण्डेन यावद्धि घनी भवेच्च स्वदनं ६मनं चाथ तीक्ष्णश्चैव विरेचनम् ।। _ सिद्धो भवेन्मुद्गनिभा च मात्राम् | ततश्च औषधीनां वै प्रयोगमुपयोजयेत् ॥
दद्यारिफरणामयके भिषामः शुद्ध पारद १। तोला, शुद्ध गंक ११ तोला | स्वेच्छं विधेयं किल पथ्यमस्य ॥ और कत्था ११ तोला लेकर तीनोंकी कज्जली बनावें । तैलाम्लवयं निखिलवणनं और फिर उसमें हल्दी, केसर, छोटी इलायची, घृतानुपानरुपदंशसूर्यः ॥ बड़ी इलायची, सफेद जीरा, काला जीरा, अजवायन,
शंखोपल (शंखके समान सफेद पत्थर अर्थात् सफेद चन्दन, लालचन्दन, पीपल, बंसलोचन, संखिया) ५ माशे लेकर उसे लोहेकी कढ़ाहीमें डाल जटामांसी और तेजपात; इनका ७॥-७॥ माशे
कर उसमें १५-१५ तोले कटेलीका तथा नीबूका चूर्ण मिलावें । तदनन्तर उसमें १०-१० तोला घी
रस डालकर छिलके सहित नीमके सो ठेसे घंटें । और शहद मिलाकर सुरक्षित रक्खें ।
जब वह गाढ़ा हो जाय तो मूंगके समान गोलियां मात्रा-~-७॥ माशे।
बना लें । इनमें से १-१ गोली प्रतिदिन धीके इसके सेवन से मुखमें शोथ हुवे बिना ही |
साथ देनेसे फिरङ्ग रोग नष्ट हो जाता है। फिरंग रोगके ब्रण अवश्य नष्ट हो जाते हैं तथा यह तेल और खटाईका परित्याग करके पथ्याहार रस अन्य प्रकारके पुराने अणोंको भी नष्ट कर देता है। देना चाहिये ।
पथ्यापथ्य--२१ दिन तक नमक खाना ( यह प्रयोग विषैला है अतः अनुभवी चिकिछोड़ दें और घी के साथ या रूखी रोटी खावें। । त्सकके परामर्शसे ही खाना चाहिये।
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रसप्रकरणम्
परिशिष्ट
५०६
(९१३४) उपरसशोधनम्
(९१३५) उपविषशोधनम् ( यो. त. । त. १७)
(रसे. सा. सं.) काष्ठं गैरिकं शङ्ख कासीसं टट्टणं तथा ।
अर्कसेहुण्डधत्तरलागलीकरवीरकाः । नीलाअनं शुक्तिभेदाः क्षुल्लकाः सवराटिकाः ॥
गुज़ाहिफेनावित्येताः सप्तोपविषजातयः ।। जम्बीरवारिणा स्विन्नाः
धुस्तूरम्य च यदीजमन्यच्चोपविषञ्च यत् । क्षालिताः कोष्णवारिणा।
तच्छोध्यं दोलिकायन्त्रे क्षीणेथ मात्रके ।। शुद्धिमायान्त्यमी योज्या
आकका दृध, मेहुंड (थूहर )का दूध, धतूरा, भिषग्भिोगसिद्धये ।।
कलियागेकी अड, कनेरकी जड़, गुन्ना और अफोम कंकुष्ठ, गेरु, शंख, कसीस, सुहागा, नीलांजन,
ये सात उपविष हैं। शुक्तिभेद क्षुल्लक ( घोंघा ) और कौड़ी: ये उपरस । जंबीरी नीबू के रसमें ( दोलायन्त्र विधिसे ) स्वेदित । धत्तूरबीजादि उपविष दोलिकायन्त्र विधिसे करके गरम पानीसे धो डालनेसे शुद्ध हो जाते हैं। : १ पहर ) गोदुग्धगें पकानेसे शुद्ध हो जाते हैं।
इति उकारादिरसप्रकरणम्
अथ उकारादिमिश्रप्रकरणम् (९१३६) उच्चटादिमर्दनम् पादे स्थितं वलयरूपतयोत्तरिया (न. मृ. । त. ६)
मूलं व्ययातिशयविक्लबमानमानाम् ।। कुडवैकमुच्चटाबीजान्मेषीक्षीरे चतुर्गुणे। यदि प्रसबके समय स्त्रीको अत्यन्त वेदना हो पाचयित्वा विधानेन शि ने मा विमर्दयेत् ।। रही हो और प्रसव न होता हो तो इंद्रायणकी औदण्डयं जायते शिश्ने दोपं हत्वा ह्ययोनिजम्।। जड़को पैरमें लपेट देने से मृत गर्भ भी शीघ्र ही
२० तोले उटिंगणके बीजों का चूर्ण करके निकल आता है और उसके साथ ही जरायु पटल उसे ८० तोले भेड़के दृधमें पकाकर खीर सी (जेर ) भी निकल जाती है । बना लें । इसे थोड़ी थोड़ी करके शिश्न पर गर्दन (९१३८) उपोदिकादियोगः करें । इसी प्रकार १ मास तक करने से अयोनि (वै. म. र. । पट. १८) मैथुन जनित दोष नष्ट होकर शिश्न दृढ़ हो जाता है। निद्रां करोनिद्राणां प्रदोषे शिरसा धृता ।
(९१३७) उत्तरिणीमूलयोगः । उपोदिका करीतायाः शिफा वाऽथ धृता तथा ॥ ( रा. मा. । स्त्रीरोगा. ३०)
सायंकालको उपोदिका ( पोई ) को या कपोगर्भ विपन्नमपि पातयनि क्षणेन
ताकी ज शिर पर रख कर सो रहने से अनिद्रा स्त्रीणां जरायुपटलं च पृथक्करोति। । दूर होकर नींद आ जाती है।
इति उकारादिमिश्रप्रकरणम्
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अथ एकारादिकषायप्रकरणम् (९१३९) एरण्डसप्तकम् । दद्याच्छृगालविनाश्च सहदेवां तथैव च । (वृ. यो. त. । त. ९४; व. से.; वृ. मा. । शूला.; | महासहां क्षुद्रसहां मूलश्चक्षुरकस्य च ॥ ग. नि. । शूला. २३; हा. सं. । स्था. ३ अ. ७) एतत्सम्भृत्य सम्भारं जलद्रोणे विपाचये । एरण्डबिल्वबृहतीद्वयमातुलुङ्ग
चतुर्भागावशेषन्तु यवक्षारयुतं पिबेत् ।। पाषाणभिन्नकटुमूलकृतः कषायः । वातिकं पैत्तिकं वापि श्लैष्मिकं सामिपातिकम् सक्षारहिङ्गुलवणो रुबुतैलमिश्रः प्रसह्य नाशयेच्छूलं छिन्नाभ्रमिव मारुतः ॥ श्रोण्यूरुमेढहृदयस्त नरुक्षु पेयः॥
अण्डीके बीज, अरण्डमूल, गोखरुकी जड, अरण्ड मूल, बेलकी जड़की छाल, कटेली, कटेला
शालपर्णी, पृष्टपर्णी, बड़ी कटेली, छोटी कटेल, (बड़ी कटेली), बिर्जा रकी जड़की छाल, पाषाणभेद और पीपलामूल समान भाग लेकर क्वाथ बनावें ।
| पृष्टपर्णी, सहदेवी, माषपर्णी, मुद्गपणी और ईखकी
जड़ समान भाग मिलित ६। सेर लेकर ३२ सेर इसमें जवाखार (१ माशा), हींग (१ रत्ती), सेंधा नमक (१ माशा) अरण्डीका तेल (१ तोला)
पानी में पकावे और ८ सेर रहने पर छान लें। मिलाकर पीनेसे श्रोणी (नितम्ब ), ऊरु, मेद,
इसमें जवाखार मिलाकर ( रोगीकी शक्ति के हृदय और स्तन में होने वाला शूल नष्ट होता है। अनुसार-थोड़ा थोड़ा बार बार ) पिलानेसे पित्तज,
(९१४०) एरण्डादिकाथः कफज, और सान्निपातिक शूल नष्ट होता है । (धन्व.; र. र. । स्त्रीरोगा.
(९१४२) एलादिकषायः एरण्डमूलममृनामधिष्ठारक्तचन्दनम् ।
( ग. नि. । मूत्राबाता २८) दारुपमयुतः क्वाथो गर्भिण्या ज्वरनाशनम् ॥
एलादुरालभैरण्डपथ्यापाषाणभित्समम् । अरण्डमूल, गिलोय, मजीठ, लाल चन्दन, देवदारु
| गोक्षुरः कर्कटीबीनं तथा बीजं कुरण्टकात् ॥ और कमलपुष्प समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । यह क्वाथ गर्भिणीके ज्वरको नष्ट करता है। सम्मिथ्य क्याथपानेन मूत्ररोधोनिवर्तते ।।
(९१४१) एरण्डादियोगः ___इलायची, धमासा, अरण्डमूल. हर और पाषाण (सु. सं. । चि. अ. ४२ गुल्मा.) भेद समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । इसमें गोखरु, एरण्डफलमूलानि मूलं गोक्षुरकस्य च । ककड़ी के बीज और इन्द्रजौ; इनका चूर्ण मिलाकर शालपर्णी पृश्निप) वृहती कण्टकारिकाम् ॥ . पीनेसे मूत्रावरोध नष्ट होता है ।
इति एकारादिकषायप्रकरणम्
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चूर्णप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
५११
अथ एकारादिचूर्णप्रकरणम् (९१४३) एरण्डमूलाधं चूर्णम् । के बीजों के चूर्ण को तक के साथ पीने से मूत्र
(ग. नि. । कासा. १०) कृच्छु का नाश होता है। एरण्डमूलं बृहती च वांशी
(९१४६) एलादिचूर्णम् (१) __कटुवयं कर्कटभृङ्गिका च ।
(यो. र. । प्रदग , फलत्रयं वै लवणानि पश्च
एलामंशुमती द्राक्षामुशीरं तिक्तरोहिणीम् । चूर्ण हरत्युष्णजलेन कासम् ॥
चन्दनं कृष्णलवणं सारिवालोध्रसंयुतः । अरण्डमूल, बड़ी कटेली, बंसलोचन, सोंठ, वातासम्मरशान्त्यर्थ पिबेहध्ना सहान. . मर्च, पीपल, काकड़ासिंगी, हर्र, बहेड़ा, आमला |
पित्तामुग्दरशान्त्यर्थं सक्षौद्रं ललना पिबेत् ॥ और पांचों नमक समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इलायची, शालपर्णी, द्राक्षा, खस, कुटकी, इसे उष्ण जलके साथ सेवन करने से खांसी
सफेद चन्दन, काला नमक, आरिवा और लोध नष्ट होती है।
समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । (मात्रा–२-३ माशे ।)
इसे दही के साथ पीनेसे वातज प्रदर और (९१४४) एरण्डादिकल्कः शहदके साथ पीनेसे पित्तज प्रदर नष्ट होता है । (यो. र. । अश्मर्य.)
(पात्रा-२-३ मारो ।) गन्धर्वहस्तबहतीव्याघ्रीगोक्षुरकेचरात् । (९१४७) एलादिचूर्णम् (२) मूलकल्कं पिवेद्दध्ना मधुरेणाश्मभेदनः ।
(वै. म. र. । पटल ४ ) भरण्डमूल, बड़ा कटेलो को जड़, छोटी कटेली की
एलालबाल्कलतमालदल रजो मधुविमिश्रम् । जड़, गोखरू की जड़ और तालमखानेको जड़ समान
लीढं वमि निहन्याद्रिल्यवराव्योषचूर्ण वा। भाग लेकर मीठी दही के साथ बारीक पीसकर पीनेसे |
इलायची, लौंग, दालचीनी और तेजपात समान अश्मरिका नाश ह ता है।
भाग लेकर चूर्ण बनायें । (९१४५) एलाचूर्णयोगः
इसे शहदमें मिलाकर चाटनेसे वमन नष्ट (यो. र. । मूत्रकृच्छ्रा.)
होती है। पिवेन्मधेन मूक्ष्मैलां धात्रीफलरसेन वा। ( मात्रा-१-१ माशा । १-१ घंटा बाद शितिवारकबीजं वा तक्रे श्लक्ष्णं च चूर्णितम् ।। दिनमें ५-६ बार ।)
छोटी इलायची के चूर्णको मद्य अथवा आम- बेलगिरी, हर, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च लेके फलके रसके साथ सेवन करने से या चांगेरी और पीपल; इनका चूर्ण भी वमनको नष्ट करता है।
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
इलायची, शिलाजीत, पीपल और पाषाणभेद समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
(९१४८) एलादिचूर्णम् (३)
(९१५०) एलादिचूर्णम् (५)
( हा. सं । स्था. ३ अ. १४ )
तण्डुलजलेन पीतं प्रमेहरोगं हरत्येव ||
( हा. सं. । स्था. ३ अ. ३२ ) एला शिलाजतुयुतं मागधिपाषाणभेदजं चूर्णम् । एलातमालदलनागरवालकौ द्वौ कृष्णा च भागिंसुरसागुरुचन्दनानि । चूर्ण सिताधिकमिदं पि शीततोयैः श्वास तमकमेव निहन्ति चाशु ||
इलायची, तमालपत्र ( तेजपात ), सोंठ, सुगंधबाला, खस, पीपल, भरंगी, तुलसी, अगर, चन्दन, और खांड समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे शीतल जल के साथ सेवन करने से ऊ श्वास और तमक श्वास शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। ( मात्रा - २ - ३ माशा । ) (९१५१) एलादि चूर्णम् ( ६ ) ( यो. र. । हृद्रोगा. )
सूक्ष्मैला मागधीमूलं पटोलं सर्पिषा सह । नाशयेदाशु हृद्रोगं कफजं सपरिग्रहम ||
छोटी इलायची, पीपलामूल और पटोल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे के साथ सेवन करनेसे उपद्रव सहित कफज हृद्रोग नष्ट होता है ।
( मात्रा - २ - ३ माशे । )
इसे चावलों के धोवनके साथ सेवन करने से प्रमेह अवश्य नष्ट हो जाता है ।
(९१४९) एलादिचूर्णम् (8) ( वैद्या. | विषय २८ ) एलामांसिलवङ्गनागरकणामुस्ताहिमं धान्य कं खर्जुरं च तमालपत्रं मधुकोशीरद्वयं दाडिमम् । हिका कामलपाण्डुरोगनिचयं मूत्रे च दाहोष्मतां मेहान्विशतिं नाशयेच्च सततं मीतिप्रदं बृंहणम् ||
इलायची, जटामांसी, लौंग, सोंठ, पीपल, नागरमोथा, लाल चन्दन, धनिया, खजूर, तमालपत्र, मुलैठी, दो प्रकारकी खस और अनारदाना समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
यह चूर्ण, हिचकी कामला, पाण्डु, मूत्रकी दाह और प्रमेहको नष्ट करता है । यह बृंहण भी है।
इति एकारादिचूर्णमकरणम्
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[ एकारादि
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गुटिकाप्रकरणम्
परिशिष्ट
५१३
अथ एकारादिगुटिकाप्रकरणम् (९१५२) एलीयकादिगुटिका राई, सञ्जी, सोरा, बायबिडंग, जीरा और सेंधानमक
(यो. चि. म. । अ. ३) समान भाग लेकर सबके बराबर गुड़ में मिलाकर एलीयकं कणा पथ्या शुण्ठी चित्रकटङ्कणम् । गोलियां बना लें। राजिका सर्जिका सौरो विडङ्गानाजिसैन्धवम् ॥ इनके सेवन से यकृत् और प्लीहावृद्धि का गुडेन गुटिका कार्या यकृत्प्लीहविनाशिनी ॥ नाश होता है। एलवा, पीपल, हर्र, सोंठ, चीतामूल, सुहागा । (मात्रा-१ माशा । अनुपान-उष्ण जल ।)
इति एकारादिगुटिकाप्रकरणम्
अथ एकारादिगुग्गुलुप्रकरणम् (९१५३) एरण्डादिगुग्गुलुः । मूल, चव, चीतामूल, सोंठ, खरैटीकी जड़, हर,
(व. से. वातव्या.) | छोटी और बड़ी कटेली, पुनर्नवा ( बिसखपरा ) की शुक्लेरण्डस्य मूलानि युग्मं सहचरस्य च ।। जड़, अतोस, बच, असगंध, शतावर, बासा (अडूसा), मुस्ता दुरालभा दीया देवाह कदुका शठी ।। धनिया, गिलोय, बायबिडंग, अमलतासका गूदा, पञ्चकोले वला पथ्या क्षुद्रे द्वे च पुनर्नवा । गोखरु, बिधारा, हल्दी और दारुहन्दी; इनका विषोना वाजिगन्धा च शतावर्याटरूपकम् ॥ चूर्ण १-१ भाग तथा शुद्ध गूगल ३४ भाग लेकर धान्यं छिन्नरुहा चैव विडङ्गं व्याधिघातकम्। सबको एकत्र मिलाकर (आवश्यकतानुसार घी गोक्षुरं वृद्धदारु च दीप्यको निशायुग्मकम् ॥ मिलाकर ) कूटें । चतुस्त्रिंशतिको भागः पीतः कौशिकसंयुतः ।
____ यह दीपन, पाचन और लघु है तथा समस्त सर्वचातविकारघ्नः पाचनो दोपनो लघुः ।।
| वात विकारों एवं आमवात और शोथको नष्ट करता बामवातस्य शोथस्य स्रोतसां कफनाशनः ॥
तथा स्रोतोंमें स्थित कफको दूर करता है । ___सफेद अरण्डकी जड़, दो प्रकारके ( पोले ।
और काले ) पियाबांसेकी जड़, नागरमोथा, धमासा, (मात्रा-१॥-२ माशा । अनुपानअजवायन, देवदारु, कुटकी, कचूर, पीपल, पोपला. उष्ण जल । )
इति एकारादिगुग्गुलुपकरणम्
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५१४
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[एकारादि
अथ एकाराद्यवलेहप्रकरणम् (९१५४) एलाद्योवलेहः . इलायची, तेजपात, पद्माक, नागकेसर, द्राक्ष
( हा. सं. । स्था. ३ अ. १०) ( किशमिश ) नागरमोथा, मुलैठो, पीपल और एलादलानि सहपद्मकनागकेशरै
खजूर समान भाग तथा खांड सबके बराबर लेकर दक्षिा घना च मधुपिप्पलिका समांशा । (शहदमें मिलाकर) अवलेह बनावें । एषां समांशसितशर्करयुक्तलेहः । खजूरिकां समभिहन्ति च रक्तपित्तम् ॥ इसके सेवनसे रक्तपित्त, दाह, ज्वर, श्वास, दाहं ज्यराति श्वसनं च विमोहतृष्णा- | मोह, तृष्णा, मूर्छा और रक्तवमनका नाश होता है। मूर्च्छी निहन्ति रुधिरं वमिजित् तथैव ॥
इति एकाराघवलेहपकरणम्
अथ एकारादिघृतप्रकरणम्
(९१५५) एरण्डाचं घृतम्
क्वाथ-अरण्डमूल, बड़ी कटेली, गोखरु, (व. से. । शूला.)
पुनर्नवा (बिसखपरा) की जड़, गोखरुकी जड़, एरण्डमूलं बृहती वदंष्ट्रा
शतावर, हंसपदी, खरैटीको जड़, माषपर्णी, मुद्गपर्णी, पुनर्नवा गोक्षुरकस्य मूलम् ।
विदारीकन्द, बेलकी जड़की छाल, कमलनाल, चीताशतावरी हंसपदी बलाच
मूल, कटेली, जीवक, ऋषभक, दो प्रकारको दाम महासहा क्षुद्रसहा विदारी॥
(दर्भ), मीठे बिजौरे के वृक्षकी जड़, सहदेवी और बिल्वस्यमूलं समृणालचित्रं
देवदारु, समान भाग लेकर आठ गुने पानी में पकावें निदग्धिकाजीवककर्षभौ च ।
और चौथा भाग म्हने पर छान लें। कुशे कुशाख्या सहदेवदेवे
___ यह क्वाथ ४ सेर, घी १ सेर, इन्हीं (कायकी) पचेत्कषायं जलपादशेषम् ॥
ओषधियोंका कल्क १० तोले और बिजौरे का रस क्वाथेन कल्केन पचेत्तु धीमान् रसेन तुल्यं फलपूरकस्य ।
४ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकायें। जब उत्कृष्टदोषो यस्य स्याद्यस्य
जलांश शुष्क हो जाय तो घीको छान लें। शूलो न शाम्यति ॥
जो शूल अन्य किसी औषधसे शान्त न होता तत्र सपिरिदं दद्यात्प्रसह्य विनिवारणम् । हो वह इसे पीनेसे अवश्य नष्ट हो जाता है। यह सर्वस्थानगतं शूलमेतद्धन्ति चतुर्विधम् ॥ हर स्थानके और हरेक दोषसे उत्पन्न शूल को बलएरण्डाद्यमिदं सर्पिः कृष्णात्रेयेण पूजितम् ॥ ' पूर्वक नष्ट कर देता है।
इति एकारादिघृतपकरणम्
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तैलपकरणम् ]
परिशिष्ट
. ५१५
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अथ एकारादितैलप्रकरणम् (९१५६) एरण्डतैलयोगः (१) त्रिफला के क्वाथ में अण्डीका तेल मिलाकर
(वै. म. र. । पटल १२) पिलाने से विरेचन होकर मल, पित्त, कफ और वायु एरण्डतैलं निर्गुण्डीस्वरसं च पृथक समम्। स्वमार्गगामी हो जाते हैं और अर्श रोग नष्ट पीत्वा कटीपदेशस्थ वातं जित्वा सुखी भवेत् ॥ हो जाता है। ____ अरण्डोका नेल और संभालुका रस समान भाग (९१६०) एरण्डतैलयोगः (५) लेकर एकत्र मिलाकर पीनेसे कटि (कमर)का वायु
(वै. म. र. । पट. १६) नष्ट हो जाता है।
| दुष्टवणेषु सर्वेषु युज्यादेरण्डसम्भवम् । (९१५७) एरण्डतैलयोगः (२)
____ हर प्रकारके दुष्ट व्रणोंमें एरण्डतैल प्रयुक्त ( यो. र. ; वृ. मा. । उदरा.)
करना चाहिये। एरण्डतैलं दशमूलमिश्रं
(इसे पिलाकर पेट साफ करना चाहिये और गोमूत्रयुक्तं त्रिफलारजो वा।
यही तेल घावों पर लगाना चाहिये या इसमें कपड़ा निहन्ति वातोदरशोथशूलं
| भिगोकर घाव पर रखना चाहिये।) क्वाथः समृत्री दशमलजश्च ॥
दशमूलके क्वाथमें अरण्डीका तेल मिलाकर (९१६१) एरण्डपत्रादितैलम् पीनेसे या गोमूत्रके साथ त्रिफलाका चूर्ण सेवन ( व. से. । कर्णरोगा,) करनेसे अथवा गोमूत्र में दशमूलका क्वाथ बनाकर
एरण्डपत्रपुटपाकविपाचिताम्बु पीनेसे वातोदर, शोथ और शूलका नाश होता है ।
तुल्याईकस्य सलिलं मधुन मिश्रम् । (९१५८) एरण्डतैलयोगः (३)
पक्त्वा च तैललवणेन युतं सुखोणं (वृ. यो. त. । त. ९३ )
कर्णे रुजं हरति तत्क्षणमेव दत्तम् ॥ आमवातगजेन्द्राणां शरीरवनचारिणाम् ।
अरण्डके पत्तोंका पुटपाक विधिसे पकाकर एक एव निहन्ताऽस्ति रुजूकस्नेहकेसरी ।। शरीररूपी वनमें विचरण करने वाले आमवात रूपी
निकाला हुवा रस, अदरकका रस, मुलेठीका चूर्ण,
तिलका तेल और सेंधा नमक एकत्र मिलाकर पकायें हाथीके लिये अरण्डका तेल ( कास्ट्रायल ) सिंहके समान है।
और जलांश शुष्क होने पर तेलको छान लें । (९१५९) एरण्डतैलयोगः (४) । इसे मन्दोष्ण करके कानमें डालनेसे कर्णपीड़ा
(ग. नि. । अर्शी. ४) | तुरन्त नष्ट हो जाती है। एरण्डतैलं त्रिफलारसेन च विशोधनम् ।
(तेल ५ तोले, दोनों रस २०-२० तोले, विपित्तश्लेष्मवातानुलोमनाद्गुदजापहम् ॥ मुलैठीका चूर्ण और सेंधानमक ७||-७॥ माशे । )
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[ एकारादि
सेर, तिलका तेल
और बरने के पत्तों का रस १-१ ६० ताले, गोदुग्ध ६ सेर, तथा मुलैठी और क्षीरकाकोलीका कल्क ७| तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो तेलको छान लें ।
इसे कान में डालने और इसकी नस्य लेनेसे कर्णनाद, बधिरता और कर्णशूलका नाश होता है । इति एकारादितैलमकरणम
(९१६२) एरण्डादितैलम् ( व. से. । कर्णेगा. ) एरण्ड शिवरुण मूलिकापत्र जे रसे । चतुर्गुणे पचतैलं क्षीरे चाष्टगुणान्विते || यष्ट्याह श्रीरकाकोलीकल्कयुक्तं निहन्ति तत् । नादाधिर्यथूलानि नावनाभ्यङ्गपूरणैः ॥
अरण्डके पत्तोंका रस, सहजन के पत्तों का रस
अथ एकारादिलेपप्रकरणम्
(९१६३) एकाष्ठीला दिलेपः (ग. नि. । शिरोरोगा. ) एकटीला पुण्डरीकं मधुकं नीलमुत्पलम् । पद्मकं वेतसं मूत्र लामज्जकमथापि वा ॥ दाव हरिद्रा मञ्जिष्ठा फेनिलोशीरमेव च । एतैरालेपनं कार्य शङ्खस्य विनाशनम् || एतान्येव तु सर्वाणि कषायमुपसाधयेत् । तेन शीतेन कर्तव्यं बहुशः परिषेचनम् ।।
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(९१६४) एडगजादिलेपः
( व. से. । कुष्टा.; वृ. मा. ; ग. नि. ; च. द. । कुष्ठा. )
एडगजकुछ सैन्धवसौवीरसर्षपैः कुमिव । कृमिसिध्मदमण्डलकुष्ठानां नाशनो छेपः ॥
माड़ के बीज, कूट, सेंधानमक, सौवीराजन, सरसों और बायबिडंगका चूर्ण समान भाग लेकर पानी में पीसकर लेप करनेसे कृमि, सिम ( छीप ), दाद और मण्डल का नाश होता है।
पाठा, कमल, मुलैठी, नीलोत्पल, पद्माक, बेत, मूर्वा, लामज्जक, ( खसभेद ), दारूहल्दी, हल्दी, मजीठ, हिसोड़ा और खस समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसको ( पानी में पीसकर ) लेप करनेसे शंख रोग नष्ट होता है ।
(९१६५) एरण्डादिलेप: (१) ( वै. म. र. | पटल १९ ) मलेपः स्यात्तु वातारिशाल्मलीक्वथितैर्जलैः । गैरिकद्विनिशाभिर्वा नखदन्तविषे हितः ॥
|
अथवा इन्हीं ओषधियों के शीत कषायका बार बार अवसेचन करने से भी शंखक रोग नष्ट होता है।
अरण्डमूल और सेंभलको जड़को गरम पानी में पीसकर लेप करने से या गेरु, हल्दी और दारूहल्दीका लेप करने से नख और दन्त विष नष्ट होता है ।
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छेपपकरणम् ]
परिशिष्ट
(९१६६) एरण्डादिलेपः (२) । कतैले विनिक्षिप्य झुष्णं कृत्वा विलेपयेत् ।
( ग. नि. । श्वयध्व. ३३) अवश्यं पुंस्त्वमाप्नोति षण्डत्वं तस्य नश्यति ॥ परण्डो मघ द्राक्षा वाजिगन्धा पनवा। शीतं वारि न सेवेत मैथुनं चापि वर्जयेत् ॥ शुष्कमूलकसंयुक्ता वातशोथपलेपनम् ॥
इलायची, जावत्री, सफेद कनेरकी जड़, सेंभ
| लकी छाल और अफीम ६-६ माशे लेकर सबको अरण्डमूल, मूलैठी, द्राक्षा, असगंध, पुनर्नवा, (बिसखपरा )की जड़ और सूखी मूली; इनके समान
बारीक पीस लें और १ तोला तेल में मिलाकर गर्म
करके शिश्न पर लेप करें। (ऊपरसे पान लपेट भाग मिलित चूर्णको (पानीमें ) पीसकर लेप करनेसे वातज शोथ नष्ट होता है।
कर कच्चे सूतसे बांध दें। रोज़ इसी प्रकार २१
दिन लेप करें। ) शिश्न पर शीतल जल न लगने (९१६७) एलादिलेपः (१)
दें और मैथुनसे परहेज करें। (व. से. । कुष्ठा. ; यो. र. । कुष्ठा. ; यो.
। इससे नपुंस्कता अवश्य नष्ट हो जाती है । त. । त. ६२)
(९१६९) एलादिलेपः (३) एलाकुष्ठविडङ्गानि शताहा चित्रको वचा । (ग. नि. । उपदंशा. ८) दन्तीरसाअनश्चैभिलेपः कुष्ठविनाशनः ॥ एला दारुहरिद्रा च शकनाभीरसाधनम् ।
इलायची, कूठ, बायबिडंग, सोया, चीता, बच लाक्षागोमयनिष्पीडस्तैलं क्षौद्रं घृतं पयः ।। ( पाठान्तरके अनुसार खरेटीकी जड़), दन्तीमूल | एभिः सुपिष्टैस्तैलांशरुपदंशं प्रलेपयेत् ।
और रसौत; इनके समान भाग लित चूर्णको व्रणाश्च तेन शाम्यन्ति श्वयधुर्दाह एव च ॥ (पानीमें) पीसकर लेप करने से कुष्ठ नष्ट होता है। इलायची, दारुहल्दी, शंखनाभि, रसौत, और
(९१६८) एलादिलेपः (२) लाख; इनका बारीक चूर्ण तथा गायके गोबरका (न. मृ. । त. ६)
| रस, तेल, शहद, घी और दूध समान भाग लेकर
सबको एकत्र मिलाकर खूब खरल करें और फिर एलाफलं जातिकोशं मूलं कर्वीरज सितम् । औषधके ऊपर जो स्नेह आ जाय उसे पृथक् कर शाल्मलीत्वचमादाय स्वाफुकं षट् च मापकम् ॥ लें। इसका लेप करनेसे उपदंशके व्रण, शोथ और १ बला इति पाठान्तरम्
| दाहका नाश होता है। इति एकागदिलेपमकरणम्
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भारत-मैपल्य-रत्नाकरः
[ एकारादि
अथ एकारादिधूम्रप्रकरणम् (९१७०) एरण्डादिधूमः ___ अरण्ड मूल, धतूरेकी जड़, सोंट, कालीमिर्च,
पीपल और मनसिल समान भाग लेकर बारीक चूर्ण ( यो. र. । कासा.)
बनावें और उसे (धीमें मिलाकर) कपड़े पर लगापिष्ट्वा त्रिपुटधत्तूरमूलव्योषमनःशिलाः। कर बर्ति बना लें । तेन प्रलिप्य वसनं धूमवति प्रकल्पयेत् ॥ इसे आगसे जलाकर धूम्र पान करने से ३ धूमं तस्याः पिवेद्यस्तु त्रिदिनात्कसनं हरेत् ।। । दिनमें कास नष्ट हो जाती है ।
इति पकारादिधूम्रप्रकरणम्
अथ एकाराद्यञ्जनप्रकरणम् (९१७१) एलादिवतिः
इलायचीके बीज, लहसन, निर्मलीके बीज, ( वा. भ. । उ. अ. ९)
| शंखचूर्ण, काली मिर्च, तुलसी और कायफल; इनका
चूर्ण समान भाग लेकर सुरामें पीस कर बर्तियां बनावें। एलारसोनकतकशझोषणफणिज्जकैः। । इसे आंखमें लगानेसे पोथकी और कुकूणक वत्तिः कुकूणपोधक्योः सुरापिष्टैः सकटफलेः॥ रोग नष्ट होता है।
इति एकारापञ्जनप्रकरणम्
अथ एकारादिनस्यप्रकरणम् (९१७२) एरण्डादिनस्यम् ___ सफेद अरण्डकी जड़, कटेलीके फल, देवदारु,
( वा. भ. ! उ. अ. १३) बच, तगर, बायबिडंग और बेलकी जड़; इनके सितैरण्डजटासिंहीफळदारुबचानतैः । कल्क और दूधके साथ तेल पकावें । घोषया बिल्वमूलैश्च तैलं पक्वं पयोऽन्वितम् ॥
इसकी नस्य लेनेसे ऊर्च जत्रुगत वातकफज नस्य सर्वोर्ध्वजत्रूत्थबातश्लेष्मामयातिजित् ॥ । रोग नष्ट होते हैं ।
इति एकारादिनस्यप्रकरणम्
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रसपकरणम् ]
परिशिष्ट
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अथ एकारादिरसप्रकरणम् (९१७३) एकादशायसरसः
(९१७४) एरण्डपाकः ( र. चं. ; र. र. । वृद्धय.)
(र. का. थे. । वृद्धय.) मृतायः पुरुषः शुल्वं खगो दरदगन्धको। प्रस्थं वातारिबीजं सलिलहतमलं गगनं पुष्परागं च शोणितं चेश्वरोरगौ ॥ | पाचितं धेनुदुग्धेपश्चादेरण्डतैले विडङ्गं त्रिफला हिमु यमानी जीरकद्वयम् | । द्विपलपरिमिते सार्धप्रस्यार्धगन्ये । स्वर्जीफलवचाङ्गी मरिचं पिप्पलोद्वयम् ॥ पश्चाद व्योषं विडङ्गं त्वचतगरयुतं चवी दुरालभा वदिः शुण्ठीद्रावैविमर्दयेत् । | जोरकधान्यदुग्धीबीजं मोचाऽश्वगन्धा अण्डवातान्त्रवृदिं च कृच्छ्रमूरुगदापहम् ॥ । मुसलिकदलिकागोक्षुरं त्वन्दलं च ॥ ये च खण्डगता रोगास्तान् सर्वानपकर्षति । एलापत्रं पलं श्रीजलनिधितनयावातारिरपि देयोऽत्र वृदिनाशं करोत्यसौ ॥ खण्डकं तुल्यभागं वर्ष ताम्राभलोहं
लोहभस्म, शुद्ध पारद, ताम्रभस्म, स्वर्णमाक्षिक दिपलमिति सकृच्चूर्णितं सर्वमेतत । भस्म, शुद्ध हिंगुल, शुद्ध गंधक, अभ्रक भस्म, पुखराज | पश्चात्खण्डं विपाच्य द्विमणितममलं भस्म, केसर, पीतल भस्म और सीसा भस्म १-१ | लोहपात्र विधिज्ञस्तद्र्म्यं कुकुमायेभाग लेकर प्रथम पारे गंधककी कज्जली बनावें और विललितममलं भावयेत्सर्वमेव ॥ फिर उसमें अन्य ओषधियां मिलाका ग्ल करें। आमघ्नं कृमिनाशनं बलकरं ब्रनामयध्वंसनं । तदनन्तर उसे निम्न लिखित ओषधियों । क्वाथ या | शुक्रस्तम्भकर रुजश्च सकलान् दीपक क्षमम् ।। पानीकी १-१ भावना देकर सुरक्षित रक्ख । पुष्ट्यायुधैतिवर्धनं सुमतिदं वातोत्थरुग्नाशनं ।
भावनाद्रव्य-बायबिडंग, त्रिफला, हींग, कृत्वेशार्चनकं सुभुज्य सततं सर्वार्थसिदिं ब्रजेत् ।। अजवायन, सफेद जीरा, क! जीरा, सज्जी, पानी से धले हवे अपडीके बीजोंकी १ मे जायफल, बच, काकडासांगी, काली मिचे, पीपल, गिरी ( मज्जा ) को ( पोसकर ८ सेर ) गोदुग्धमें गजपीपल, चव, घमासा, चीता और सोंठ । इनके
पकावें । जब खोवा ( मावा ) हो जाय तो उसमें क्वाथ या पानी की पृथक पृथक् १-१ भावना दें।। २० तोले अरण्डीका तेल और २ सेर गोघृत मिला
इसके सेवनसे आग्डकोषकी वायु, अन्त्रवृद्धि, । कर भूनें । तदन्तर सोंठ, मिर्च, पीपल, बायबिडंग, मूत्रकृच्छ्, ऊरु ग्रह और अण्डकोष के रोगोंका नाशाल वीजी, तगर, जीरा, धनिया, दुद्धीके बीज, मोचहोता है । (मात्रा-२ रत्ती । )
रस, असगंध, मूसली, केलेका कन्द,गोखरु, दालचीनी, वृद्धि रोगमें अरण्ट ( मूल तथा तेल ) भी तेजपात इलायची, तेजपात और गोला ( नारियलकी गुणकारी है।
गिरी);इनका चूर्ण ५-५ तोले; बंग भस्म, ताम्र भस्म,
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५२०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[एकारादि
अभ्रक भस्म और लोह भस्म १०-१० तोले, खांड । इसके सेवनसे आम, कृमि, बध्र रोग और उपरोक्त समस्त ओषधियों (खोवा, चूर्ण और भस्मों) वायुका नाश होता तथा बल, पुष्टि आयु, कान्ति से दो गुनी और केसरादि पदार्थ सुगाध योग्य और मतिकी वृद्धि होती है। यह शुक्रस्तम्भक भी है। लेकर लोहपात्रमें खांडकी चाशनी बनाकर उसमें (मात्रा-५ माशे । ) उपरोक्त समस्त द्रव्य मिला दें।
इति एकारादिरसप्रकरणम्
अथ एकारादिमिश्रप्रकरणम् (९१७५) एडगजााद्वर्तनम् । (हलवासा करके ) योनि में रखने से योनिशूल (ग. नि. । कुष्ठा. ३६)
नष्ट हो जाता है। एडगजातिलसर्पपकुष्ठं
_ (९१७७) एरण्डतैलादियोगः बाकुचिकारजनीद्वयतक्रम् ।
(यो. र. । शूला.) वर्षशतोपचितामपि कण्डूं
एरण्डतैलं षड्भागं लशुनस्य तथाऽष्टकम् । हन्ति विचर्चिकमण्डलदट्ठम् ॥ एकं हिङ्ग त्रिसिन्धूत्थं सर्वमेकत्र मर्दयेत् ॥
पमाड़के बीज, तिल, सरसों, कूठ, बाबची, | त्रिनिष्कं भक्षयच्चानु ह्यामशूलपशान्तये ॥ हल्दी और दारुहल्दी; इनके समान भाग मिलित
अरण्डीका तेल ६ भाग, ल्हसन का कल्क चूर्णको तक्रमें मिलाकर रो स्थान पर मसलनेसे सौ
८ भाग, होंग १ भाग और सेंधा नमक ३ भाग वर्षकी पुरानी खाज, विचर्चिका, मण्डल कुष्ठ और
लेकर सबको एकत्र मिलाकर मर्दन करें । दादका भी नाश हो जाता है।
इसे ३ निष्क मात्रानुसार खाने से आमशूल (९१७६) एरण्डतैलयोगः
नष्ट होता है । (रा. मा. । स्त्रीरोगा. ३०)
( व्यवहारिक मात्रा-३-४ माशे । ) एरण्डतैलेन परिप्लुता स्यात् कार्यासपिण्डी यदि योनिमध्ये ।
(९१७८) एरण्डबीजपायसः शूलं तदानीं शमयेत्तदीयं
( वृ. यो. त. । त. ९०; ग. नि. । वाता. १९; संयावको मुण्डिकया कृतो वा ॥
भा. प्र.। म. खं. २ आमवाता.) रुईको अण्डीके तेलमें तर करके योनिमें रखने विशोध्यैरण्ड बीजानि पिष्टा क्षीरे विपाचयेत् । से या गोरखमुंडीके चूर्णको घी और दूधमें पकाकर पायसः स कटीशूले गृध्रस्यां चौषधं परम् ॥
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मिश्रप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
५२१
अण्डीके छिलके रहित बीजोंको धोकर पीसकर । स्थाद्वातरक्तापहमुग्रमेतदा. दूधमें पकाकर खीर बनावें।
थोतनं सद्भिपजो वदन्ति ॥ इसे खानेसे कटिशूल और गृध्रसी का नाश |
अरण्डमूल, अण्डीके बीज और अरण्डकी कोपलें होता है । यह इन रोगोंकी परमौषध है ।
| समान भाग लेकर कूटकर गोदुग्धमें पकाकर छान (९१७९) एरण्डबीजशोधनम्
लें । इसे आंखमें डोलनेसे वातज और रक्तज उग्र ( यो. र.)
| नेत्राभिष्यन्द नष्ट होता है। गन्धर्वहस्तबोजानां नारिकेलोदकेन च । याममात्राद्भवेच्छुद्धिर्दन्तीबीजं पचेद्यथा ।। ____ (९१८१) एलादियोगः अण्डीके बीजों को दोलायन्त्र विधिसे १ पहर
(व. से. । मूत्रकृच्छा. ; वृ. मा. । मूत्रकृछ्रा.) नारियलके पानीमें स्वेदित करनेसे वे शुद्ध होजाते हैं।
इसी प्रकार जमालगोटा भी शुद्ध हो जाता है। एलाहिङ्गयुतं क्षीरं सर्पिमिश्रं पिवेन्नरः । (९१८०) एरण्डमूलाधाइच्योतनम् । मूत्रहृद्रोगशुद्धयर्थ शुक्रदोषहरं परम् ॥ ( ग. नि. । नेत्ररोगा. ३)
दूधमें इलायचीका चूर्ण ( ३ माशे ), हींग एरण्डमूलं सफलपरोह
( १ रत्ती ) और घी (१ तोला) मिलाकर पीनेसे विजर्जरं क्षीरयुतं गवां च । मूत्रकृच्छ, हृद्रोग और शुक्रदोष नष्ट होते हैं।
इति एकारादिमिश्रप्रकरणम्
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अथ ऐकारादिकषायप्रकरणम् (९१८२) ऐरावतीपत्रयोगः नारंगी के पत्तों और शल्लकी वृक्ष (सलई) के
(वै. म. र. । पटल ६) पत्तोंको पीसकर स्वरस निकाल । ऐरावतीपत्रसुत्रल्लकानि
क्षुण्णानि निष्पीड्य रसः प्रपीतः। इसे पीनेसे कफज और रक्तज अतिसार २-३ बलासरक्तं भवलातिसारं
दिनमें ही नष्ट हो जाता है। विनाशयेद्विप्रिदिनप्रयोगात् ।।
इति ऐकारादिकषायप्रकरणम्
M
अथ ओकारादिलेपप्रकरणम् (९१८३) ओष्ठस्फुटननाशकलेपः | सेंधानमक और मोम समान भाग लेकर प्रथम तेलको
( रा. मा. । मुखरोगा. ५) गरम करके उसमें मोम, घी और राब मिलावें और सघृतफाणिततैलविमिश्रितं
फिर अन्य ओषधियोंका बारीक चूर्ण मिलाकर कनकगैरिकसर्जरसान्वितम् । खरल करें। सलवणं मदनं विनिवारयत्यघरजान् स्फुटनोचटिकावणान् ।।
यदि होंट फटते हो तो इसे लगानेसे आराम घी, राब, तेल, सोनागेरुका चूर्ण, रालका चूर्ण, ' हो जाता है ।
इति ओकारादिलेपपकरणम्
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मिश्रप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
५२३
अथ ओकारादिमिश्रप्रकरणम् (९१८४) ओषधि-प्रतिनिधिगणः । तदभावे तु सर्वत्र जम्बीरादिरसः स्मृतः । ( यो. र.)
द्राक्षा यदि न लभ्यन्ते प्रदेयं काश्मरीफलम् ।। सवाभाषे गुडूच्यास्तु अमृताया रसः स्मृतः । तयोरभावे कुसुमं मथकस्य मतं बुधैः । चित्रकाभावतो दन्ती क्षारः शिखरिजोऽधवा ॥ लवकुसुमं देयं नखस्याभावतः पुनः ।। अभावे धन्वयासस्य प्रक्षेप्याऽथ दुरालभा । वरी विदारी मसली जीरकं च निशाद्वयम । तगरस्याप्यभावे तु कुष्ठं देयं भिषग्वरैः ॥ दीप्यकं देवदारुचाभावे त्वेकं प्रयोजयेत् ॥ माभावे त्वचो ग्राथा जिङ्गिनीप्रभवा बुधैः ।
कण्टकारीयुगं चैव धावनीयुगमेव च । । अहिंस्राया अभावे तु मानकन्दः प्रशस्यते ॥
शतपुष्पाद्वयं चैव उशीग्युगलं तथा ॥ लक्ष्मणागा अभाये तु नीलकण्ठशिखा पता ।
मुद्रपर्णीमाषपर्णीयुग्मं चैव ततो भवेत् । बकुलाभावतो देयं कहारोत्पलपङ्कजम् ॥
तर्कारीयुगलं चैव सर्वत्रेति विनिश्चयः ।। नीलोत्पलस्याभावे तु कुमुदं तत्र दीयते ।। कमलस्याप्यभावे तु कमलाक्ष इति स्मृतः ।।
पृथक्पृथग्द्वंद्वमध्येऽभावे तत्र प्रयोजयेत् । बकुलस्थाप्यभावे तु आभात्वक्तत्र दीयते ।
परस्परस्याभावे तु एकं तत्र प्रयोजयेत् ॥ जातीपत्रं न यत्रास्ति लवङ्गं तत्फलं स्मृतम् ॥
कस्तूर्यभावे कोलं देयं तत्र भिषग्वरैः । अर्कपर्णादिपयसो ह्यभावे तद्रसो मतः ।
कोलस्याप्यभावे तु जातीषुष्पं प्रदीयते ॥ पौष्करा भावना कुष्टं तथैरण्डजटा मता ॥
| अथवा मालतापुः पत्र वा दीयते बुधैः । स्थौणेयकस्याभाये तु भिपग्भिर्दीयते गदः। कराभावतो देयं जुगन्धिमुस्तकं तथा । चविकागजपिप्पल्यौ पिप्पलीमलवत्स्यते ॥ | कपूराभावतो देयं ग्रन्थिपणे विशेषतः। अभावे सोमगज्यास्त प्रमाटफलं मतम। हमाभावतो दद्यात्कुम्भकुसुमं नवम् ॥ यत्र न स्याहानिशा तदा देया निशा बुधैः॥ श्रीखण्डचन्दनाभावे कर्पूरं देययिष्यते । रसाअनस्याभावे तु सम्यग्दावी प्रयुज्यते । । अभावे च ततो वैद्यः पक्षिपेद्रक्तचन्दनम् ।। सौराष्ट्रयभावतो ज्ञेया स्फुटिका तद्गुणा जनैः।। रक्तचन्दनकाभावे नवोशीरं विदुर्बुधाः । तालीसपत्रकाभावे स्वर्णताली प्रशस्यते । निर्गन्धं च सगन्धं च द्विविधं रक्तचन्दनम् ॥ भार्यभावे तु तालीसं कण्टकारी जटाऽथवा ॥ भन्योन्यस्याप्यभावे तु योजयेन्मतिमान्भिषक् । रुचकाभावतो दद्यालवणं पांमुपूर्वकम् । यस्ता चातिविषाभावे देया तत्र शिवा मता ॥ सवणानामभाये च सैन्धवं तत्र दीयते ॥ अभावे च हरीतक्या मता कर्कटशृजिका । अनाये मधुयष्टयास्तु धातकी च प्रयोजयेत् । अभावे नागपुष्पस्य परकेसरमिष्यते ॥ अम्लवेतसकाभावे चुकं दातव्यमिष्यते ॥ भल्लातकस्याभावे तु नदीभल्लातको मतः ।
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५२४
भारत-मैगज्य-रत्नाकरः
[ओकारादि
मेदाजीवककाकोलीऋद्धिद्वन्द्वेऽपि वाऽसति ॥ शुद्धो रसो हाटकादि मृतं यत्र न लक्ष्यते । वरीविदार्यश्वगन्धावाराहीश्च क्रमाक्षिपेत् । तत्र लोहेन कर्माणि भिषक् कुर्यात्मयत्नतः॥ पाराद्याश्च तथाऽभावे चर्मकारालुको मतः ॥ कान्ताभावे तीक्ष्णलोहं योजयेद्वैद्यसत्तमः । वाराहीकन्दकः मोक्तः पश्चिमे गृष्टिसंज्ञकः। अभावे मौक्तिकस्यापि मुक्ताशुक्तिं प्रयोजयेत् ॥ क्षीरान्विता मूलकतुल्यकन्दा
वैदूर्यादीनि रत्नानि न लभ्यन्तेऽत्र धीमता। सप्ताष्टपत्रा सितरक्तकाण्डा॥
तत्र मुक्तादिभूतिं च योजयेच्च भिपग्वरः ॥ बिभर्ति या पल्लवमब्दमब्दात्सा
अभावे रसभूत्याश्व सिन्दरं रसपूर्वकम् ।। कंचुकी श्वेतवपुर्वरेण्या।
तदभावे तु दरदं योजयेत्तत्र बुद्धिमान् ।। श्यावकर्कशवाराहवृषणामानकन्दकाः ॥
अलाभे यच्च तव्यं प्रत्याम्नायेन योजयेत् ।
गोक्षीराभावतश्छागं पयः सर्वत्र दीयते ।। ताम्बूलवल्ली छदनावल्ली वाराहकुट्टिका ॥ भल्लाताभावतश्चित्रं नलचेक्षोरभावतः ।
गोघृत्तस्याप्यभावे तु चानं सर्वत्र दीयते ।
अत्र प्राक्तानि वस्तूनि तानि तेषु च योजयेत् ॥ कुशस्य चाप्यभावे तु काशो ग्राह्यः प्रयत्नतः ॥ बिल्वकाश्मर्यतर्कारीपाटलाटुण्टुकैर्महत् ।
क्षीराभावे रसो मौद्गो मासुरो वा प्रयुज्यते ।। हवं बृहत्यंशुमतीद्वयगोक्षुरकैर्भवेत् ॥
! (यदि कभी कोई मुख्य (असल) ओषधि प्राप्त एतेषां दशमूलानामेकमूलं प्रयोजयेत । न हो तो उसके अभावमें उसका प्रतिनिधि ले सकते अभावे तद्गुणं मूलं योज्यं वैद्यविशारदैः॥ हैं । कुछ ओषधियों के प्रतिनिधियोंकी सूची नीचे मधु यत्र न लक्ष्येत तत्र जीर्णगुडो मतः।।
। दी जाती है।) मत्स्यण्डिकारखण्डसिताः क्रमेण गुणवत्तराः ॥ मुख्य ओषधि
प्रतिनिधि मत्स्यण्डयभावतो देयं खण्डं च परिकीर्तितम् ।
गिलोयका सत गिलोयका रस । तदभावे सिता योज्या बुधैः सर्वत्र निश्चयः ।।
दन्तीमूल या अपामार्ग
क्षार। निर्गुण्डयाश्चाप्यभावे तु सुरसा दीयते बुधैः । तुलस्या अप्यभावे तु निर्गुण्डी योजयेत्ततः ॥
तगर कुठेरिकायाश्चाभावे तुलसी तत्र योजयेत् ।।
जिगनी वृक्षकी छाल पुनर्नवायाश्वाभावे रक्ता सा च प्रकीर्तिता ॥
अहिंसा
मानकन्द रास्ना यदि न लभ्येत कोलाअनमिति स्मृतम्। लक्ष्मणा
नीलकण्ठ शिखा सुवर्णस्याप्यभावे तु स्वर्णमाक्षिकमुच्यते ॥
( मयूरशिखा ) तारमाक्षिकमायोज्यं तदभावे तु यत्नतः। बकुल पुष्प कल्हार कमल माक्षिकस्याप्यभावे तु प्रदद्यात्स्वर्णगैरिकम् ॥ नीलोत्पल
चित्रक
घमासा
जवासा
मूर्वा
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मिश्रमकरणम् ]
मुख्य ओषधि
कमल
चकुल छाल
जावत्री
आक आदिका दूध
पोखरमूल स्थौणेय
चव
गजपीपल
बाबची बीज
दारूहल्दी
रसौत
सौराष्ट्री
तालीसपत्र
भरंगी
रुचक (संचल)
कोई भी व
मुलैठी
अम्लवेत
चुक ( कांजी )
द्राक्ष
गम्भारी के फल
नख
छोटी शतावर
बड़ी शतावर
विदारीकन्द
कुम्हड़ा
प्रतिनिधि
कमलबीज
चबूरकी छाल
लौंग या जायफल
उनके पत्तों का रस
कूठ या अरण्डमूल
कट
A
पीपलामूल
"
पंवाड़ के बीज
हल्दी
दारूहल्दी
फिटकी
स्वर्णताली
तालीसपत्र या कटे
लीकी जड़
पांसु लवण (खारी नमक)
सेंधा नमक
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धाय
चुक ( चूका घास या
कांजी भेद )
महुवे के फूल
लौंग
परिशिष्ट
बड़ी शतावर
छोटी शतावर
कुम्हड़ा
विदारीकन्द
मुख्य ओषधि सफेद मूसली
काली मूसली
सफेद जीरा
काला जीरा
हल्दी
दारूहल्दी
अजमोद
अजवायन
स्निग्ध देवदारु
Easte
कटेली
बड़ी कटेली
शालपर्णी
पृष्ठपर्णी
सोया
जम्बीरी आदि नीबू का रस छोटी अरणी
गम्भारीके फल
बड़ी अरणी
सौंफ
पीली खस
खफेद खस
मुद्गपर्णी
माषपण
कस्तूरी
कंकोल
कपूर
केसर
श्रीखण्ड चन्दन
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प्रतिनिधि
काली मूसली
सफेद मूसली
काला जीरा
सफेद जीरा
दारुह
हल्दी
अजवायन
अजमोद
काः देवदारु
विध देवदारु
बड़ी कटेली
छोटी कटेली
पृष्टपण
शालपर्णी
सौंफ
सोया
सफेद स
५२५
पीली खस
माषपर्णी
मुद्गपर्णी
बड़ी अरणी
छोटी अरणी
कंकोल
चमेली के फूल या माल
! तीके फूल अथवा पत्र
सुगन्धित मोथा या गठीवन
कुसुंभके नवीन पुष्प कपूर या लाल चन्दन
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५२६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ ओकारादि
-
शहद
तुलसी
मुख्य ओषधि प्रतिनिधि
मुख्य ओषधि प्रतिनिधि लाल चन्दन नवीन खस
भिलावा
चीता सुगंधित और निर्गध। । एकके अभावमें
नल लालचन्दन दूसरा
कुश
काश तीन प्रकारका । (एकके अभावमें दशमूल की कोई। (अप्राप्त वस्तुके समान चन्दन । अन्य प्रकारका
वस्तु न मिले तो गुणवाले वृक्षकी जड़ लें अतीस नागरमोथा
पुराना गुड़ काकड़ासिंगी
मत्स्यण्डिका (राब) खांड नागकेशर कमलकेसर
खांड
सिता ( मिश्री) भिलावा नदी भल्लातक
(राब से खांड और खांडसे मेदा, महामेदा शतावर
मिश्री उत्तम होती है ) जीवक, ऋषभक विदारीकन्द
संभाल काकोली, क्षीरकाकोली असगन्ध
तुलसी
संभालु ऋद्धि, वृद्धि बाराहीकन्द
कुठेरक वाराही कन्द चर्मकारालु
तुलसी
( सफेद तुलसी) (वाराहीकन्दको पश्चिम में
सफेद पुनर्नवा लाल पुनर्नवा गृष्टिकन्द कहते हैं। वाराही
रास्ना
कोलाञ्जन (कुलिंजन) कन्दको जड़ मूलीके समान
स्वर्णमाक्षिक रौप्य माक्षिक और क्षारयुक्त होती है
तारमाक्षिक स्वर्णगैरिक इसके पौधेमें ७ या ८
शुद्ध पारद और। पत्ते होते हैं। काण्ड सफेद
लोहभन्म
स्वर्ण भस्मादि । या लाल होता है एवं
कान्तलोह तीक्ष्ण लोह इसमें प्रति वर्ष एक एक पत्ता
मोती
मोती की सीप आता है । छाल मुख्यतया सफेद होती है। इसका कन्द
वैदूर्यादि रत्न मोती आदिको भन्म श्यामवर्ण खुरदारा और
पारद भस्म
रससिन्दूर वृषणके समान होता है।
रससिन्दूर
हिंगुल इसे ताम्बूलवल्ली, छदना
बकरीका दूध वल्ली और वाराहकुट्टिका भी
गोधृत
बकरीका घृत कहते हैं।)
मूंग या मसूरका यूष इति ओकाराा मिश्रप्रकरणम्
गोदुग्ध
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मिश्रप्रकरणम्
परिशिष्ट
५२७
-
--
MO
अथ औकारादिमिश्रप्रकरणम् (९१८५) औष्ट्रक्षीरयोगः । ऊंटनी का दूध पीनेसे 4 मयंकर कुष्ट भी
( ग. नि. । कुष्टा. ३६ ) नष्ट हो जाता है कि जिसमें कृमि पड़ गये हों, जातकृमीणि कुष्ठानि च्युतरोमनरखान्यपि। रोम और नरख गिर चुके हो तथा ५. "का मास अपि वा शीर्णमांसानि क्षीरमौष्ट्र पिवयेत् ॥ सड़कर बिग्वर गया हो ।
इति औकारादिमिश्रप्रकरणम्
+Attrity
न
अथ ककारादिकषायप्रकरणम् (९१८६) कटङ्कटेयाँदिक्वाथः (१) दारहन्दी, रसौत, नागरमोथा, बासा, चिग़(व. से. । प्रमेहा. )
यता, भिलावा और तिल समान भाग लेकर क्वाथ कटङ्कटेरीमधुकत्रिफलाचित्रकैः समः। बनावें। इसमें शहद मिलाकर पीनेसे स्त्रियोंका सिदः कषायः पातव्यः प्रमेहानां विनाशनः।। अनेक प्रकारका प्रदर रोग नष्ट होता है। ____दारुहल्दी, मुलैठी, हर्र, बहेड़ा, आमला और (९१.८८) कटुकादिक्वाथः (१) चौतामूल समान भाग लेकर क्वाथ बनायें ।
( वा. भ. । चि. अ. १) यह क्वाथ प्रमेहों को नष्ट करता है। पाचयेत्कटुकां पिष्ट्वा कर्परेभिनवे शुचौ । (९१८७) कटकटेादिक्वाथः (२) निष्पीडितो घृतयुतस्तद्रसो ज्वरदाहजित् ।। (वै. जी. । वि. ३)
( ताजी-हरी ) कुटकी को पीसकर मिट्टीके कटटेरीरसजान्दवासा
शुद्ध नवीन पात्रमें रखकर स्वेदित करें और फिर भनिम्बभल्लीतिलजः कषायः । । उसे निचोड़कर रस निकालें । इसमें घी मिलाकर सौदान्वितश्चञ्चललोचनानां
पीनेसे ज्वर और दाहका नाश होता है। नानाविधानि प्रदराणि हन्यात् ।। (मात्रा--रम १ तोला, घी १ तोला ।)
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५२८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
-
(९१८९) कटुकादिक्वाथः (२) इसमें ( १ माशा ) पोपलका चूर्ण मिलाकर
( ग. नि. । ज्वरा. १) | पीनेसे शूल और कफवर नष्ट होता है । कटुकाविजयाद्राक्षामुस्तपर्पटकैः शृतः। (९१९३) कण्टकार्यादिक्वाथः (१) कपायो नाशयेत्पीतः पित्तश्लेष्मभवं ज्वरम् ॥ (व. से. | कासा, ; भा. प्र. म. खं. २)
कुटकी, भांग, मुनक्का, नागरमोथा और पित्त कण्टकारीकृतः काथः सकृष्णः सर्वकासहा । पापड़ा समान भाग लेकर क्वाथ बनावें।
कण्टकार्याः कणायाश्च यह क्वाथ पित्तकफज ज्वरको नष्ट करता है। चूर्ण मधुयुतं लिहेत् ॥ (९१९०) कटुकादिक्वाथः (३)
कटेलीके क्वाथमें पीपलका चूर्ण मिला कर (वै. जी, 1 विलास १)
| पीनेसे या कटेली और पीपलके समान भाग मिलित मम द्वयं विस्मयमातनोति
चूर्णको शहदमें मिलाकर चाटनेसे हर प्रकारकी
खांसी नष्ट हो जाती है। तिक्ताकषायो मुखतिक्तताघ्नः । निपिडितोरोजसरोजकोषा
(९१९४) कण्टकार्यादिक्वाथः (२) योषा प्रमुदं प्रचुरं प्रयाति ॥
( यो. र. | शूला. ; वृ. यो. त. । त. ९४ )
| निदिग्धिकाबृहत्यौ च कुशकाशेक्षुबालिकाः । कुटकीका क्वाथ मुखकी तिक्तताको नष्ट करता
श्वदंष्ट्ररण्डमूलं च वारिणा सह पाचयेत् ॥ है । यह एक विचित्र बात है।
पिबेत्सशर्करक्षौद्रं शूले पित्तानिलात्मके ॥ (९१९१) कटुत्रिकादिक्वाथः
कटेली, बड़ी कटेली, कुश (दाभ) की जड़, (ग. नि. । ज्वरा. १) कासकी जड़, ईखकी जड़, सुगन्धबाला, गोखरु कटुत्रिकं नागपुष्पं हरिद्रा कटुरोहिणी। और अरण्डमूल समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । कौटजं च फलं हन्यात्सेव्यमानं कफज्वरम् ॥ इसमें शहद और खांड मिलाकर सेवन करने
सोंठ, मिर्च, पोपल, नागकेसर, हल्दी, कुटकी : से पित्तवातज शूल नष्ट होता है। और इन्द्रजौ समान भाग लेकर क्वाथ बनावें। (९१९५) कण्टकार्यादियोगः इसे पीनेसे कफचर नष्ट होता है।
(वै. र. । कासा.) (९१९२) कटुरोहिण्यादिक्वाथः लघुभृष्टकण्टकारीस्वरसं चपलारजोमिश्रम् । (ग. नि. । ज्वरा. १) । यः पिबति तस्य कासाः सश्वासा नाशमुप
यान्ति ॥ कटुकरोहिणिकारग्वधविश्वाग्निकपिप्पलीमूलम् ।
छोटी कटेली को पुटपाक विधिसे पकाकर शूलकफज्वरहारी क्वाथोऽयं पिप्पलीमिश्रः ।।
कुटकी, अमलतासको गूदा, सोंठ, चीता और कास श्वासका नाश होता है। पीपलामूल समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । (मात्रा-रस १ तोला, पीपल १ माशा 1)
स्वरस
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कपायप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
५२६
(९१९६) कत्तृणादिकषायः (९२००) करञ्जा दिक्वाथः (१) ( ग. नि. । ज्वरा. १)
(व. से. । ज्वरा.) कत्तृणं दारु त्रिफला चन्दनं सपरूपकम् । करओ बिल्वमभिष्ठे त्रायन्त्यग्निः पटोलकम् । कटुका पत्रकोशीरं विपचेत्कार्षिकान् जले ॥ हत्यौ सुषवी व्योष क्वाथः स्यादगलशोधनः ।। तत्सर्व सन्निपातघ्नं पानमात्रेयपूजितम् ।
करञ्जकी छाल, बेलछाल, मजीठ, त्रायमाणा, कत्तृण ( गंधतृण ), देवदारु, हर्र, बहेड़ा, चीता, पटोल, छोटो कटेली, बड़ी कटेली, करेली और आमला, लाल चन्दन, फालसे को छाल, कुटकी, | सोंठ, मिर्च, पीपल समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । तेजपात और खस ११-१। तोला लेकर काथ बनावें। यह क्वाथ ( अभिन्यास सन्निपातमें ) गलेको
यह क्वाथ सन्निपात ज्वरको नष्ट करता है। शुद्ध करता है। (९१९७) कपिकच्छूमूलयोगः
(९२०१) करनादिक्वाथः (२) (भा. प्र. म. खं. २ । खोरोगा. ; यो. र. । स्त्रीरोगा. )
( ग. नि. । ज्वरा. १) फपिकच्छूभवं मूलं क्वाथयेद्विधिना भिषक् । योनिः सङ्कीर्णतां याति क्याथेनानेन धावयेत् ।।
| नक्तमालगुडूच्यग्निचित्रकारग्वधं समम् ! कोचकी जड़को पानीमें पकाकर काब बनावें। मधूक पाटला मृों शाङ्गेष्टा स्वादुकण्टकः ।। इस क्वाथसे योनिको धोनेसे योनि संकीर्ण
निम्बः सप्तच्छदः पाठा वृक्षकः सुषवी शठी।
कषायःपूर्ववच्छ्लेष्मज्वरकासगलातिषु । हो जाती है।
____ करंज की छाल, गिलोय, भिलावा, चीतामूल, (९१९८) कपित्थरसयोगः
अमलतासका गूदा, महुवेकी छाल, पाढल, मूर्वा (सु. सै. । चि, अ. ५० हिक्का.)
मकोय, छोटा गोखरु, नीमको छाल, सप्तपर्ण (सतौने) रसङ्कपित्यान्मधुपिप्पलीभ्यां
की छाल, पाठा, इन्द्रजौ, करेला और कचूर समान पिचुपमाणं प्रपिवेत्सुखाय ॥
भाग लेकर क्वाथ बनावें। कैथके ५ तोले रसमें शहद और पीपलका
इसे ( शहद मिलाकर ) पीने से कफवर, चूर्ण मिलाकर पीनेसे हिचकी नष्ट होती है।
| कास और गलेकी पीड़ा नष्ट होती है। (९१९९) कपित्थादियोगः (व. से.। कर्णरो.)
(९२०२) करञ्जादिक्वाथः (३) कपित्थमातुलुङ्गाम्लशृङ्गवेररसैः शुभैः । ___ (यो. र. । वातव्या.) मुखोष्णैः पूरयेत्कर्ण कर्णशूलोपशान्तये ॥ पूतीकपथ्याशठिपुष्कराणि ___ कैथ, बिजौरा नीबू और अदरख; इनके रसों बिल्वं गुडचो सुरदारु शुण्ठी । को एकत्र मिलाकर मन्दोष्णा करके कानमें डालनेसे | विडङ्गपाठातिविषा कणा च कर्णशूल नष्ट होता है।
क्वाथास्त्रयः सामसमीरणनाः ॥
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भारत
1- भैषज्य रत्नाकरः
(१) पूति करंज, हर्र, कचूर और पोखरमूल; (२) बेलकी छाल, गिलोय, देवदारु और मोंठ, (३) बायबिडंग, पाठा, अतीस और पीपल; ये तीनों क्वाथ आमवातको नष्ट करते हैं ।
(९२०३) करञ्जादिवमनकषायः (१) ( ग. नि. । अजीर्णा. ५ ) I कारञ्जश्च कषायः स्यादथवाऽर्जुनसार्षपः । पीतः कषायो वमनात् सद्यो हन्ति विषूचि - काम् ॥ करञ्ज ( फल ) का अथवा अर्जुनकी छाल और सरसोंका काथ पीने से वमन होकर विषूचिका नष्ट हो जाती है । (९२०४) करञ्जादिवमनकषायः (२) ( ग. नि. । अजीर्णा. ५ )
करवनिम्बशिखरीगृह्रध्यर्जुनवरसकैः । पीतः कषायो बमनाद्घोरां हन्ति विषूचिकाम् ।। करञ्ज ( फल ), नीमकी छाल, अपामार्ग ( चिरचिटा ), गिलोय, अर्जुनकी छाल और इन्द्रजौ समान भाग लेकर क्वाथ बनावें ।
इसे पीने से वमन होकर घोर विषृचिका नष्ट हो जाती है ।
(९२०५ ) करञ्जादिस्वरसः ( वृ. मा. । व्रणशोथा. ) करआरिष्टनिर्गुण्डीरसो हन्याद् व्रणक्रिमीन् ॥ करञ्ज, नीम और संभालु, इनके पत्तोंके रस एकत्र मिलाकर व्रण में भरने से ऋणके कृमि नष्ट हो जाते हैं ।
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[ ककारादि
(९२०६) कर्च् रादिक्वाथः ( ग. नि. । ज्वरा. १ ) कर्चूरमार्गी कटुकापटोलीदुरालभा पुष्करमूलमेन्ट्री | व्याघ्री तथा कर्कटङ्गिका च
क्वाथोऽयमुक्तः प्रचुरे त्रिदोषे ॥ कालो ह्येष यमश्चैव नियतिर्मृत्युरेव च । तस्मिन्त्रपगते देहान्मेह पुनरुच्यते ||
कचूर, भरंगी, कुटकी, पटोल, धमासा, पोखरमूल, इन्द्रायणकी जड़, कटेली और काकड़ासिंगी समान भाग लेकर क्वाथ बनायें ।
इसे पिलाने से भयंकर सन्निपात ज्वर भी नष्ट हो जाता है ।
(९२०७) कलिङ्गषट्कः
( ग. नि. । अतिसारा. २; वै. जी. । विलास २ ) 1 विश्वका लङ्गातिविषाब्दबिल्वैः सवालकैरुत्क्वथितः कषायः । सशूलाय सशोणिताय सामाय शस्तोsथ कलिङ्गषट्कः ॥ सोंठ, इन्द्रजौ, अतोस, नागरमोथा, बेलगिरी और सुगन्धवाला समान भाग लेकर क्वाथ बनावें ।
तस्मै
इसे पीने से शूल युक्त अतिसार, रक्तातिसार और आमातिसार का नाश होता है ।
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(९२०८) कलिङ्गादिकषायः ( वैद्यामृत. )
कलिङ्गशुण्ठीघनतितविक्ता निम्बामृताधान्यरजोन्त्रितानाम् ।
१ वै. जी. में इन्द्रजौकी जगह कु.ड़ेकी छाल है और सटका अभाव है ।
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कषायप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
.. धनम् ।
सरिङ्गणीपुष्करचन्दनानां
सशूलगर्भस्नुतिपीडिताना पटोलभाङ्गों वृषपद्मकानाम् ॥
पयो विमिश्र पयसाऽन्न भुक्पिबेत् ।। कषायकः कासवमीपिपासा
कसेरु, सिंघाड़ा, पभाक, नीलोत्पल, मुद्गपण दाहान्विते चाष्टविधज्वराते । और मुलैठी समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । सजन्तुरोगेऽरुचिकामलाते
इसमें दूध और खांड मिलाकर पीने और दोषत्रयाः गदितो मुनीन्द्रः ॥
दूध भात खानेसे गर्भशूल नष्ट होता तथा गर्भनवा इन्द्रजौ, सोंठ, नागरमोथा, चिरायता, कुटकी,
रुक जाता है। नीमकी छाल, गिलोय, धनिया, पित्तपापड़ा, कटेली, (९२११) कारव्यादिक्वाथः पोखरमूल, लाल चन्दन, पटोल, भरंगी, बासा और (व. से. । ज्वरा. ; वृ. मा. ; ग. नि. ; भै. पाक समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । .
र. ; धन्व. । ज्वरा.) यह क्वाथ कास, वमन, पिपासा और दाह | कारवी पुष्करैरण्डत्रायन्ती नागरामृता। युक्त आठ प्रकारके ज्चर, कृमिरोग, अचि और | दशमूली शठी शृङ्गी वासा भाजी पुनर्नवा ॥ कामला को नष्ट करता है।
तुल्या मूत्रेण निष्क्वाथ्य पीता स्रोतोवियो(९२०९) कलिङ्गादिक्वायः
अभिन्यासज्वरावासमाशु नन्ति समुदतम् ॥ ( वै. जो. । वि. ४)
___कालाजीरा, पोखरमूल, अरण्डमूल, त्रायमाणा, गोमत्रेण कृतः कलिङ्गकटुकापाठावृषाब्दामर
| सोंठ, गिलोय, दशमूलकी प्रत्येक औषधि, कचूर, क्याथः क्षौद्रयुतो निहन्ति
काकड़ासिंगी, बासा (अडूसा), भरंगी और पुनर्नवा सकलान्कण्ठामयानुत्कटान् ।।
(बिसखपरा ) समान भाग लेकर गोमूत्रमें पका इन्द्रजौ, कुटका, पाठा, बासा, नागरमोथा
कर क्वाथ बनावें। और देवदारु समान भाग लेकर गोमूत्रमें पकाकर
इसे पीनेसे स्रोत शुद्ध होते और अभिन्यास क्वाथ बनावें।
सन्निपात शीघ्रही नष्ट हो जाता है ।* इसमें शहद मिलाकर पीनेसे समस्त कण्ठरोग
__ (९२१२) काश्मर्यादिशीतकषायः नष्ट होते हैं।
(ग. नि. । ज्वरा. १) (९२१०) कसेर्वा दिक्वाथः काश्मर्यफलमृद्वीकाशीतपाकीपरूपकम् । (वृ. मा. । स्त्रीरोगा. ; व. से. ; यो. र. । स्त्रीरोगा.) मधुकत्रिफलामुस्तचन्दनोशीरपत्रकम् ॥ कसेरुपृकाटकपनकोत्पलं
वृ. मा. में सोंठके स्थान पर पाठा और समुद्गयष्टी'मधुकं सशर्करम् ।
ग. नि. में जवासा है। १ समुद्गपर्णी ।
भै. र. में वासेके स्थान पर जवासा है।
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
त्रायन्तीकटुका तुल्या यष्टचाडं चापि तत्समम् । पिबेत्पर्युषितं शीतं मधुना श्लेष्मपित्तजित् ॥
खम्भारी के फल, मुनक्का, काकोली, फालसा, मुलैठी, हर, बहेड़ा, आमला, नागरमोथा, लाल चन्दन, खस, पद्माक, त्रायमाणा और कुटकी १-१ भाग तथा मुलैठी सबके बराबर लेकर शीत कषाय बनावें । ( ५ तोले चूर्ण को ३० तोले पानी में रातको मिट्टी के बरतन में भिगो दें और सुबहको मलकर छान लें । )
इसमें शहद मिलाकर पीने से कफपित्तज ज्वर नष्ट होता है।
( मात्रा - १० तोले । )
(९२१३) किराततिक्तादिक्वाथः ( भै. र. । अतीसारा. ) किराततिक्तकं मुस्तं वत्सकं सरसाञ्जनम् । पित्तातिसार रोगघ्नं सक्षौद्रं वेदनापहम् ॥
चिरायता, नागरमोथा और इन्द्रजौ समान भाग लेकर क्वाथ बनावें ।
इसमें ( १ माशा ) रसौत का चूर्ण और शहद मिलाकर पीनेसे वेदनायुक्त पित्तातिसार नष्ट होता है।
(९२१४) किरातादिक्वाथः (१) ( वैद्यामृत )
किरात नागरामृता रजोग्दसंमृतं जलम् । निहन्तिवातपित्तजज्वरं यथा गजं हरिः ॥
चिरायता, सोंठ, गिलोय, पित्तपापड़ा और नागरमोथा समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । यह क्वाथ वातपित्तज ज्वरको नष्ट करता है ।
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[ ककारादि
(९२१५) किरातादिक्वाथः (२) (भै. र. । ज्वरा. ; हा. सं. १ । स्था. ३ अ. २ ) किरातान्दामृतोदीच्यहहतीद्वय गोक्षुरैः । सस्थि कलसीविश्वैः क्वाथो वातज्वरापहः ॥
चिरायता, नागरमोथा, गिलोय, सुगंधबाला, छोटी कटेली, बड़ी, कटेली, गोखरू, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी और सोंठ समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । यह क्वाथ वातज्वरको नष्ट करता है । (९२१६) किरातादिक्वाथः (३) ( ग. नि. । ज्वरा. १ ) किराततिक्तकटुकास्तपर्पटकासृताः । पटोलारिष्टरजनीः पिबेत्क्वाथं तु पैत्तिके ॥
चिरायता, कुटकी, नागरमोथा, पित्तपापड़ा, गिलोय, पटोल, नीम की छाल और हल्दी समान भाग लेकर क्वाथ बनावें ।
यह क्वाथ पित्तज्वरको नष्ट करता है। (९२१७) किरातादिक्वाथः (४)
( ग. नि. । ज्वरा. १ ) किरातस्तं त्रिफलां गुडूचीं वत्सकात्फलम् । पिचुमन्दं पटोलं च पाठां कटुकरोहिणीम् ॥ त्र्यूषणं चाक्षतुल्यांशं पवेत्तोये चतुर्गुणे । सन्निपातपरीतानां तृट्छर्दिज्वरनाशनम् ॥
चिरायता, नागरमोथा, हर्र, बहेड़ा, आमला. गिलोय, इन्द्रजौ, नीमकी छाल, पटोल, पाठा, कुटकी, सोंठ, मिर्च और पीपल ११ - १ | तोला लेकर कूट लें । ( इसमें से २|| तोले दवाको २० तो पानी में पकायें और ५ तोले रहनेपर छान लें ।) यह क्वाथ सन्निपात ज्वर, तृषा और छर्दिको नष्ट करता है
I
१ हा. सं. में पीपल और कुटकी अधिक है।
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कषायपकरणम् ]
परिशिष्ट
-
(९२१८) किरातादिकाथः (४) (वृहद) | (९२२१) कुटजादिक्वाथः (२) (भै. र. । ज्वरा. ; हा. सं. । स्था. ३ अ. २) ( भै. र. । अतीसारा. ; वृ. मा. ; ग. नि.) किराततिक्तामलकशटीनां
कुटजातिविषां मुस्तं हरिद्रापणिनीद्वयम् । द्राक्षोषणानागरकामृतानाम् ।
सक्षौद्रशर्करं शस्तं पित्त लेष्मातिसारिणाम् ।। क्वाथः सुशीतो गुडसंयुतः स्यात्
____ कुड़ेकी छाल, अतीस, नागरमोथा, हल्दी, सपित्तवातज्वरनाशहेतुः ॥
शालपर्णी और पृष्ठपर्णी समान भाग लेकर चिरायता, आमला, कचूर, द्राक्षा, कालीमिर्च, क्वाथ बनावें ।
इसमें शहद और खांड मिलाकर पीनेसे पित्तसोंठ और गिलोय समान भाग लेकर क्वाथ बनावें।
| कफज अतिसार नष्ट होता है। इसे ठंडा करके गुड़ मिलाकर पीनेसे वातपित्त ज्वर
(कफातिसारमें शहद और पिसातिसार में नष्ट होता है।
खांड मिलानी चाहिये । ) (९२२९) किरातादिपाचनकषायः
(९२२२) कुटजादिक्वाथ: (३) (ग. नि. । ज्वरा. १)
| (भै. र. । अतिसारा. ; वृ. मा. ; ग. नि. ; व. से.) किराततिक्तकं क्षौद्रं हीवेरामलकीफलम् ।। कुटमत्वक्फलं मुस्तं क्वाययित्वा पिज्जलम् । ज्वरनं तत्पिबेच्छीतं पाचनं पैत्तिके ज्वरे॥ अतीसारं जयेदाशु शर्करामधुयोजितम् ।।
चिरायता, सुगंधबाला और आमला समान । कुड़ेकी छाल, इन्द्रजौ और नागरमोथा समान भाग लेकर शीतकषाय बनावें । इसमें शहद मिला| भाग लेकर क्वाथ बनावें । कर पीनेसे पित्तज्वर में दोषोंका पाचन होता है। इसमें शहद और खांड मिलाकर पीनेसे (९२२०) कुटजादिक्वाथः (१) अतिसार शीघ्रही नष्ट हो जाता है। (वृ. मा. । प्रमेहा.)
(९२२३) कुशमूलादिक्वायः कुटजासनदाय॑न्दफलत्रयभवोऽथयो ।
( हा. सं. । स्था. ३ अ. ३) गृहच्याः स्वरसः पेयो मधुना सर्वमेहनुत् ॥ कुशकाशेक्षुमूलानां शालीनलदवजुलैः।
कुड़े की छाल, असन वृक्षकी छाल, दारुहल्दी, | मूलानां क्वाथमाहृत्य शस्तं पित्तातिसारिणाम ॥ नागरमोथा, हर्र, बहेड़ा और आमला समान भाग
____ कुशमूल, कासकी जड़, ईखको जड़, शाली लेकर क्वाथ बनावें ।
चावलोंकी जड़, खस और बेतकी जड़ समान भाग यह क्वाथ या शहद मिलाकर गिलोयका रस लेकर क्वाथ बनावें। यह क्वाथ पित्तातिसारको पीनेसे समस्त प्रकारके प्रमेह नष्ट होते हैं। नष्ट करता है।
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[ ककारादि
-
(९२२४) कुशा देक्वाथः (१)
(९२२७) कूष्माण्डयोगः (वै. जो. : वि. ४)
(व. से. । अश्मर्य.) सक्षौद्र कुशकागोक्षुरशिवाशम्पाकपाषाणभि- कूष्माण्डफरसो हिमुयनक्षारसमायुतः । दुस्पर्श परिसेवितं परिहरेत्सघोश्मरी दुस्तराम् ।। पर
बस्ती मेढ़े सशूले च शर्कराश्मरिनाशनः ।।
पेठेके रसमें हींग और जवाखार मिलाकर कुशकी जड़, कासकी जड़, गोखरुकी जड़, हरं, अमलतास, पाषाणभेद और धमासा समान
पीनेसे बस्ती और मेढ़की शूलयुक्त शर्करा और
अश्मरी नष्ट हो जाती है। भाग लेकर क्वाथ बनावें । इसमें शहद मिलाकर पीनेसे दुस्साध्य अश्मरी भी शीघ्रही नष्ट होजाती है।
(९२२८) कूष्माण्डरसयोगः (१)
(वृ. यो. त. । त. १०२ ) (९२२५) कुशादिक्वाथ: (२)
यवक्षारगुडोन्मिश्रं रसं पुष्पफलोद्भवम् । ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ३४)
पिबेन्मूत्रविबन्धन्नं शर्कराइमरिनाशनम् ॥ इशकाशनलं वेणु भनिमन्थाश्मरीनकम्। पेठे ( भूरे कुम्हड़े )के रसमें जवाखार और पर्दष्ट्रा मोरटा वापि तथा पाषाणभेदकम् ॥ | गुड़ मिलाकर पीनेसे मूत्राघात, शर्करा और अश्मरि पलाशस्त्रिफलाक्वायो गुडेन परिमिश्रितः। का नाश होता है। पानान्मूत्राश्मरी हन्ति शूलं बस्तौ व्यपोहति ॥ (९२२९) कूष्माण्डरसयोगः (२)
कुश, काश, नल, बांस, अरणी, बरना, (हा. सं. । स्था. ३ अ. ३२ ; ग. नि. । गोखरु, मूर्वा, पाषाणभेद, पलाश (ढाक) की जड़ मूत्रकृ. २७ ; वै. म. र. । पटल ७) और त्रिफला समान भाग लेकर क्वाथ बनावें ।।
कूष्माण्डरसमादाय शर्करासहितं पिबेत् । इसमें गुड मिलाकर पीनेसे मूत्राश्मरि और |
यस्तु त्रिदोषसम्भूतमूत्रकृच्छूनिवारणम् ॥ बस्तिशूलका नाश होता है।
भूरे कुम्हडे ( पेठे) के रसमें खांड मिलाकर (९२२६) कुष्ठादिकषायः पीनेसे त्रिदोषज मूत्रकृच्छू नष्ट हो जाता है ।
(ग. नि. । ज्वरा. १) ___ (९२३०) कूष्माण्डरसयोगः (३) छठं सातिविष मुस्तानागरं देवदारु च । ( शा. सं. । खं. २ अ. १) यवासकः कृतः पायो हितः श्लेष्मज्वरान्विते॥ कल्याण्डकाय सरसो,
तः लष्मज्वरान्वित।। कूष्माण्डकस्य स्वरसो गुडेन सह योजितः । कूठ, अतीस, नागरमोथा, सोंठ, देवदारु दुष्टकोद्रवसातं मदं पानाद् व्यपोहति ॥ और जवासा समान भाग लेकर क्वाथ बनावें । भरे कुम्हडे ( पेठे ) के रसमें गुड़ मिलाकर
यह क्वाथ कफज्वरमें हितकारी है। पीनेसे कोद्रव (कोदों ) का मद नष्ट होता है।
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पूर्णप्रकरणम्
परिशिष्ट
(९२३१) कृष्णादिक्वायः केशराजमुनिषण्णकट (रा. मा. । विषा. २८)
दाडिमस्य फलमर्जुनोद्भवम् । कृष्णाहोल्लक्वाथस्तरचूर्ण वा दिनत्रयं पीतम् ।। क्याथ एष परिशी लिंतो नृणां घुमां निहन्ति नूनं दारुणमपि कृत्रिम गरलम् ।। हन्ति साममथ शूलमद्भुतम् ॥ ___ पोपल और अंकोल का क्वाथ या चूर्ण पीने |
___मंगरा, सुनिषण्णक (चौपतिया), जल चौलाई, से ३ दिनमें दारुण कृत्रिम विष भी अवश्य
अनारका फल और अर्जुनके फल समान भाग लेकर नष्ट हो जाता है।
काथ बनावें । यह काथ आम और शूल युक्त अति(९२३२) केशराजादिक्वायः
| सारको नष्ट करता है । यह एक अद्भुत प्रयोग है। (व. से. । अतिसारा )
इति ककारादिकषायप्रकरणम्
अथ ककारादिचूर्णप्रकरणम् कंकुष्ठचूर्णम्
(९२३४) कटुकादिकल्क: (पृ. यो. त. । त. १०५ ; व. से. उदरा.) (ग, नि. । ग्रहण्य. ३) रस-प्रकरणमें देखिये।
| कटुकेन्द्रयवौ पाठां कुटजत्वासाननम् । (९२३३) कटभ्यादियोगः
| धावक्यतिविषे शुण्ठी मुस्तां पिष्ठाच वारिणा ।। (पृ. मा. । विषा. ; व. मे. । विषा )
विष्टम्भमरचि रक्त दाहं च गुदवेदनाम । कारभ्यर्जुनसैरेयशेलक्षीरिद्रुमत्वचः । कषायकल्कचूर्णाः स्युः कीटलूतात्रणापहाः ॥
पित्तोत्थग्रहणी हन्ति मधुना सह भक्षितः ।। छोटी मालफंगनी, अर्जुनकी छाल, सैरेय कुटकी, इन्द्रजौ, पाठा, कुड़ेकी छाल, रसौत, ( कटमरैया ) लिहसोड़ा और क्षीरोद्रम ( बड़, | धायके फूल, अतीस, सोंठ और नागरमोथा; इनके पीपल, पिलखन, गूलर और सिरस ) की छाल | समान भाग मिलित चूर्णको पानीके साथ पीसार समान भाग लेकर एकत्र कूट लें।
शहद में मिलाकर चाटनेसे विष्टम्भ, अरुचि, रक
स्राव, दाह, गुदाकी पीड़ा और पित्तजग्रहणी रोग __इसका कषाय, कल्क या चूर्ण बनाकर प्रयुक्त
| का नाश होता है। करनेसे कीड़ों और मकडी के काटेसे उत्पन्न अण नष्ट होते हैं।
(मात्रा-३ माशा ।)
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
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(९२३५) कटुकायोगः पीनसे स्वरभेदे च तमके सहलीमके ।
(ग. नि. । चरा.) सन्निपातेऽनिळकफे कासे श्वासे च शस्यते ।। सशर्कराक्षमात्रां कटुकामुष्णवारिणा ।
कायफल, सोंठ, पीपल, कालीमिर्च, कचूर, पीत्वा ज्वरं जयेज्जन्तुः कफपित्तसमुद्भवम् ॥ | पोखरमूल, भरंगी, मूर्वा, त्रिफला ( हर्र, बहेडा, कुटकी का चूर्ण और खांड समान भाग लेकर
आमला ), हर, काला नमक ( सं वल ) और एकत्र मिलावें।
काकडसिंगी समान भाग लेकर चूर्ण बनावें और इसे उष्णा जलके साथ पीनेसे कफपित्तज ज्वर
उसे गोमूत्रकी भावना देकर सुखा लें या इन द्रव्योंको नष्ट होता है।
गोमूत्रमें पकाकर क्याथ बनावें। मात्रा-११ तोला।
यह चूर्ण या क्वाथ पीनस, स्वरभेद, तमक (९२३६) कटुत्रिकादिचूर्णम् श्वास, हलीमक तथा सन्निपातज और वातकफज (व. से. | नासा.)
कास श्वास में उपयोगी है। कटुत्रिकं चित्रकतित्तिडीकं
( चूर्णकी मात्रा-३ माशे।) तालीशपत्रं चविकाम्लसञम् ।
(९२३८) कणादिचूर्णम् विचूर्णितं जीरकचूर्णयुक्तमेलात्वचा तत्सुरभीकृतं च ॥
( वै. म. र. । पट. ३ ) मिश्रं पुराणेन गुडेन दद्या
कणोषणनिशापथ्यागुडगोस्तनिकारजः । तत्पीनसानां परिपाचनार्थम् ॥ लीढं तैलेन कासानां श्वासानां च निवृत्तये ॥ सोंठ, मिर्च, पीपल, चीतामूल, तिन्तडीक, | पीपल, काली मिर्च, हल्दी, हरं, गुड़ और तालीसपत्र, चव्य, अम्लवेत, जीरा, इलायची और / मुनक्का समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । दालचीनी समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । ( मुनक्काको पृथक् पत्थर पर पोस कर (मात्रा-२-३ माशे )
मिलाना चाहिये ।) इसे समान भाग गुड़में मिलाकर सेवन करनेसे
इसे तेलमें मिलाकर चाटनेसे कास श्वास नष्ट पीनस पक जाती है।
| होता है । (यह वातज कास स्वास में उपयोगी है।) ___(९२३७) कट्फलादिचूर्णम् ।
( मात्रा-६ माशे ।) (यो. त. । त. ७२ ; वृ. यो. त. । त. १३० ) कट्फलं शृङ्गावरं च पिप्पली मरिचानि च ।
(९२३९) कमलकेशरादियोगः शटी पुष्करमूलं च भाजी मधुरसा वरा ॥ । (व. से. । बालरोगा.) अभयाकृष्णलवणं शृङ्गी कर्करकस्य च। श्वेतकमळकिअल्कं सम्पिष्टं तण्डुलाम्बुना। एतच्चूर्णवरं प्रोक्तं क्याथो वा मूत्रमूर्छितः ।। । मत्स्यण्डिमधुसंयुक्तं सिमं हन्ति प्रवाहिकाम् ।।
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चूर्णपकरणम् ]
परिशिष्ट
५३७
सफेद कमलकी केसरको चावलोंके धोवनके करंज के बीज, सोंठ और बच समान भाग साथ पीसकर उसमें खांड और शहद मिलाकर सेवन लेकर चूर्ण बनावें । इसे करञ्जके क्वाथके साथ करनेसे प्रवाहिका शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। पीसकर प्रातःकाल पीनेसे अन्तर्विदधि नष्ट (मात्रा-१ माशा ।)
हो जाती है। (९२४०) कम्पिल्लकादियोगः
(मात्रा-२ माशे ।) ( ग. नि. । गुल्मा. २५) कम्पिल्लकं हरीतक्यो बिडं शिग्रुफलानि च ।
(९२४३) करञ्जमूलयोगः श्यामां वचामश्वमूत्री विडङ्गान्यम्लवेतसम् ।।
(ग. नि. । अशों. ४) यवक्षारं यवानी तु पिबेदुष्णेन वारिणा। तक्रभुङ्नक्तमालस्य गोमूत्रपरिपेषितम् । एतद्धि गुल्मनिचयं सशूलं सपरिग्रहम् ।। अर्शसां नाशनं मूलमापिबेदिवसत्रयम् ।। भिन्नत्ति सप्तरात्रेण वायुर्वृद्धो यथा घनान् ।
___ करनकी जड़को गोमूत्र में पीसकर पीने और ___कमीला, हर्र, बिड लवण, सहजनेकी फली,
केवल तक पर रहने से ३ दिनमें अर्श रोग नष्ट निसोत (काली), बच, शल्लकी (सलई), बायबिडंग,
हो जाता है। अम्लवेत, जवाखार और अजवायन समान भाग लेकर चूर्ण बनावें।
(मात्रा-२ माशे।) इसे उण्णा जलके साथ सेवन करनेसे शूल
(९२४५) करादिचूर्णम् और उपद्रवयुक्त गुल्म सात दिनमें नष्ट हो जाता है।
( यो. र. । वातशुला. ; वृ. यो. त. । त. ( मात्रा-१॥-२ माशे।)
___९४; वै. र. । शूला.) . (९२४१) कम्पिल्लकाद्यो योगः
करनसौवर्चल'नागराणां (ग. नि. | कृम्य. ६ ; यो. चि. म. । अ. २) कम्पिल्लको हरीतक्यः क्षारः सैन्धवमेव च । ।
सरामठानां समभागिकानाम् । पिष्टं तक्रेण पातव्यं नित्यं कृमिविनाशनम् ।।
| चूर्ण कदुष्णेन जलेन पीतं कमीला, हर, जवाखार और सेंधा नमक समीरशूलं विनिहन्ति सद्यः॥ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
___ करअ बीज, संचल ( काला नमक ), सोंठ इसे तकमें पीसकर पीने से कृमिरोग नष्ट होताहै। और हींग समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । ( मात्रा-३ माशा ।)
इसे मन्दोष्ण जल के साथ सेवन करने से (९२४२) करञ्जबीजयोगः ।
| वातजशूल नष्ट होता है। (वै. म. र. । पटल ८)
(मात्रा-४ रत्तोसे १ माशा तक ।) करनबीजविश्वोग्राः करअक्वाथपेषिताः।। पीताः प्रभाते निःशेषं प्रत्याभ्यन्तरविद्रधिम् ।। १ वैद्य रहस्यमें सौर्वचलकी जगह सुहागा है।
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५३८
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[ककारादि
(९१४५) कर्कटीवीजयोगः कपूर, सफेद चन्दन, लोध, सिरसकी छाल, (ग. नि. । मूत्राघाता. २८ ; भै. र. । मूत्राघाता.) । खस और नागकेसर समान भाग लेकर चूर्ण घनावें। वारिणाऽऽपिष्य बीजानि
इसे ग्रीष्मऋतुमें शरीर पर मलनेसे स्वेद कर्कटयाः सितया सह। । (पसीना) नहीं आता। पीतानि नाशयन्त्युग्रं मूत्ररोधं सवेदनम् ॥ (९२४९) कलिङ्गादिकरूक:
फकही खीरे ) के बीजोंको पानीके साथ (हा. सं. । स्था. ३ अ, ३ } पीसकर उसमें मिश्री मिलाकर पीनेसे पीडा युक्त।
कलिङ्गपाठातिविषा बलाच प्रवल मूत्रावरोध शीघ्र ही नह हो जाता है।
सोदीच्य मुस्ता परिचानि शुण्ठी । (मात्रा-१ तोला ।)
गुडेन क्षौद्रेण प्रशस्तकल्को (९२४६) कोंटीमूलयोगः
रकातिसारे कफजे शमाय । (ग. नि. 1 मूत्राघाता २८)
इन्दजी, पाठा, अतीस, खरैटीकी जड़, सुगंध. कोटीमलिका पीता दशाई पयसा सइ। वाला, नागरमोथा, काली मिर्च, सोंठ और गुड़ मित्वाऽश्मशर्कराः शीघ्रं पातयत्येव खण्डशः॥ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । इसे शहद में मिला
ककोड़ेकी जड़के चूर्णको दस दिन तक धक कर सेवन करनेसे कफज रक्तातिसार नष्ट होता है। साथ पीनेसे अश्मरि टुकड़े टुकड़े होकर निकल
( मात्रा-३ माशे !) जाती है। (९२४७) कर्परादिवर्णम
(९२५०) कलिङ्गादिचूर्णम् (१) (व. से. । व्रणा. ; ५ व. । त्रणा.)
( ग. नि. । अतिसारा. २) कर्परपूरितं बद्धं सघृतं सम्परोहति । कलिङ्ग कटफल मुस्तं दारुः सातिविषा शिवा। सद्यः शस्त्रक्षतं तत्तु व्यथापाकविवर्जितः॥ फलक तण्डुलतोयेन पिवेपित्तानिलामगी ।
इन्द्रजौ, कायफल, नागरमोथा, दारु, घीमें मिलाकर कपूरका चूर्ण चाकू तलवार भादिके ताजे घावमें भर कर पट्टी बांध देनेसे वह
| अतीस और हरके समान भाग मिलित चूर्णक शीघ्र ही भर जाता है और न तो उसमें पीड़ा।
| चावलोंके धोवनके साथ पीनेसे पित्तज और वातज होतो है, न वह पकता ही है।
अतिसारका नाश होता है।
(मात्रा-१॥ माशा।) (९२४८) कर्पूरागुवर्तनम् (यो. र. । मेदो.)
कलिङ्गादिचूर्णम् । चन्द्रांशुशीतलं लोभ्रं शिरीपोशीरकेसरैः ।
(व. से. । उदरा.) सदर्तनं भवेद्ग्रीष्मे स्वेदोद्गमनिवारणम् ।। रस-प्रकरणमें देखिये।
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चूर्णप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
५३६
(९२५१) कल्याणक्षारः । भल्लातकेङ्गुदीवैजयन्तीकदलीवर्षाभूट्टीवेरक्षुर
( वा. भ. । त्रि. अ. ८ ! केन्द्रवारुणीश्वेतमोक्षकाशोका इत्येवं वर्गसमूत्रिकटु त्रिपटु श्रेष्ठा दन्त्यरुष्करचित्रकम् । लपत्रशाखपामाहृत्य लवणेन सह संसृष्टं पूर्व जर्जरं स्नेहमूत्राक्तमन्तधूम विपाचयेत् ॥ वदग्ध्वा क्षारकल्पेन परिस्राव्य विपचेदेतत्म. शरावसन्धौ मुल्लिते क्षारः कल्याणकाहयः। तिवापश्चात्र हिङ्ग्वादिभिः पिप्पल्यादिभिर्वा स पीनः सर्पिषा युक्तो ना. वा स्निग्धभोः इत्येतत्कल्याणकलवर्ण वातरोगेषु गुल्मप्लीहामि
जिना पङ्गाजीर्णार्थोऽरोचकानिां कासादिभिरूपउदावविवन्धार्थी गुरुपाण्डूदरकृमीन् । दुतानां चोपदिशन्ति पनभोजनेष्विति ।। मूत्रसङ्गागरीश कहद्रोगग्रहणीपदान् ॥
मजीठ, पलाश (क), कुड़ा, बेल, आक, मेहप्लीहरुजानाहश्वासकासांश्च नाशयेत ॥ थूहर, अपामार्ग (चिचिटा ), पाढल, पारिभद्र
सोंठ, मिर्च, पीपल, सेंधा नमक, विड लवण, ! , फरहद या नीम ), नादेवी (नागरमोया या काचलवण, हा, हडा, आमला, दन्तीमूल, भिलावा ॐ रण्ड ), पीपल, सुगन्धि शाली धान, नूवो, अडूसा और चीतामूल समान भाग लेकर चूर्ण करके उसे । (बासा), करज, नाटा करञ्ज, कटेली, बड़ी कटेली, घोसे चिकना करें और फिर उसमें थोडा गोमूत्र | भिलावा, इंगुदी, अरनी, केला, पुनर्नवा (बिसमिलाकर हाण्डीमें बन्द करके इस प्रकार भस्म करें खपरा ), सुगन्धवाला, तालमखाना, इन्द्रायण कि उसका युवां बाहर न निकले । तदनन्तर सफेद आउ, मोखावृक्ष और अशोक; इनके हरे हाहा तल होने पर उसमेंमे भस्मको निकाल (ताजे) मूल, पत्र और शाखा लेकर कूटकर उसमें कर पोस में । इसका नाम कल्याणक क्षार है। सबके बराबर सेंधा नमक मिलाकर हांडीमें बन्द
इसे घी में मिलाकर पीने या भातके साथ करके फण्डोंकी अग्निमें भस्म करें और राखको खाने और स्निग्धाहार करनेसे उदावर्त, विबन्ध, : निकाल कर क्षार निमाग विधिस पानाम पालकर अर्श, गुल्म, पाण्डु, उदररोग, कृमिरोग, मूत्राघात, स्वच्छ जल टपका लें। तदनन्तर इसे पकाकर अश्मरि, शोथ. हृद्रोग, ग्रहणी, प्रमेह, प्लीहा, पेटका । गाढ़ा करें और पाकके अन्तमें हिंग्यादि गण या अफारा, स्वास और कासका नाश होता है। पिप्पल्यादि गण का चूर्ण मिला दें। ( मात्रा-१॥-५ पाशा ।)
इसके सेवनसे वातव्याधि, गुल्म, प्लीहा, अग्नि१९२५२) कल्याणलवणम् (१) मांद्य, अजीर्ण, अर्श, अरुचि और. कासादिका । सुश्रुत सं. । चिकि. अ. ४ वातव्या.) । नाश होता है।
गण्डीरपलाशकुटजबिल्वास्नापामार्ग- इसे भोजनके साथ खिलाना या अन्य समय पाटलापारिभद्रकनादेवीकृष्णागन्धानीयनिर्द- पानीमें मिलाकर पिलाना चाहिये । हन्यटरूषकमक्तमालकपूतिकहतीकण्टकारिका (मात्रा-१ माशा ।)
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५४०
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(९२५३) कल्याणलवणम् (२) ( हा. सं. । स्थान ३ अ. ११ ) चित्रकपुष्करमूलसठी नां
तेषु समशास्तिला विनियोज्याः । सूरणकन्दकखण्डसमेतं
तेषु समाग्रिफला च विदध्यात् ॥ सैन्धवं तस्य चतुर्गुणकं च भावितमर्कदलेन समस्तम् । तं च घृतस्य घटे विनिधाय कानन गोमयवह्निचिपक्वम् ॥
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
[ ककारादि
(९२५४) काकजङ्घाचं चूर्णम् ( ग. नि. । ग्रहण्य. ३ ) स्यात्काकजङ्घा लवणानि पञ्च पाठा यवक्षारकचित्रकौ च । करकं पिपलिका बृहत् साध्मानवातग्रहणीषु चूर्णम् ॥ काकजंघा, पांचों नमक (सैंधा नमक, (काला नमक), बिड नमक, सामुद्र लवण, लवण ), पाठा, जवाखार, चीतामूल, कचूर, पीपल, कटेली और बड़ी कटेली समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
संचल
उद्भिद
इसे तक के साथ पीने से गुदकील, शूल, विसूचिका, भगन्दर, कामला, पाण्डु, आनाह, चिबन्ध, गुल्म, अरुचि, मूत्ररोग, गलगण्ड और क्रिमि का नाश होता है ।
( मात्रा - १ माशा,
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क्षार मिदं लवणघृतपक्वं तक्रयुतं प्रतिपानमतोऽपि । नाशयति गुदकीलककीलान् शुलविसूचिभगन्दरकानि ॥ कामलपाण्डवानाहविबन्धान्
गुल्मम रोचकनाशनकारि । सूत्रगदगलगण्डक्रिमीणां
नाशनभद्रक सैन्धवनामा ॥
चीतामूल, पोखरमूल और कचूर १-१ भाग; तिल ३ भाग, जिमीकन्दके टुकड़े ३ भाग, बड़ी मालकंगनी ९ भाग और सेंधा नमक ३६ भाग लेकर सबको कूटकर आकके पत्तों के रसकी एक भावना दें । तदनन्तर उसे घृतसे स्निग्ध किये हुवे घड़े में भरकर उसका मुंह बन्द करके बनकण्डों ( अरने उपलों) की अभिमें फूंकें ।
स्यानीलपुष्पी हाथ शोपशान्तये ॥ काकजंघा को दूध में पीसकर पीने से या रसौत और नीले फूलकी कोयल को पीसकर पीने से शोष रोग नष्ट होता है ।
|
यह चूर्ण आध्मान युक्त वातज ग्रहणीको नष्ट करता है ।
( मात्रा - ३ माशा । अनुपान तक । ) (९२५५) काकजङ्घानीलपुष्प्योः योगः ( रा. मा. । यक्ष्मा ११ ) गव्येन पिष्टा पयसा निपीता
निहन्ति शोषं खलु काकजङ्घा । सम्पेष्य पीताऽथ रसाञ्जनेन
(९२५६) काकादन्यादिक्षारः
( व. से. । श्लीपदा. ; ग. नि. । श्लीपदा. २ ) काकादनीं काकजङ्घां बृहत कण्टकारिकाम् । कदम्बपुष्पों मन्दारों लम्बां शुकनसं तथा ॥ दग्ध्वा मूत्रेण तद्भस्म स्रावयेत्क्षारकल्पवत् । तत्र दद्यात्प्रतीवापं काकोदुम्बरिकारसम् ||
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चूर्णप्रकरणम्]
परिशिष्ट
५४१
) समा
मदनस्य फलक्वायं शुकाख्यास्वरसं तथा। (९२५८) काकोदुम्बरयोगः (२) एषः क्षारस्तु पानीयः श्लीपदं हन्ति सेवितः॥ (र. चि. म. । स्त. ३) अपची गलगण्डं च ग्रहणीदोषमेव च। काकोदुम्बरकचूर ब्रह्मदण्डी फलत्रिकम् । भक्तस्यानशनश्चैव हन्यात्सर्वविषाणि च ॥ .. प्रत्यहं मधुना लीढं रक्तकुष्ठापहं नृणाम् ॥ पष्वेव तैलं संसिद्धं नस्याभ्यङ्गेषु योजितम् । कठूमर, कचूर, ब्रह्मदण्डी, हर्र, बहेड़ा और एतान्येवामयान्हन्ति ये च दुष्त्रणा नृणाम् ॥ आमला समान भाग लेकर चर्ग बनावें ।
चौंटली, काकजंघा, बडी कटेली, छोटी कटेली, इसे शहदके साथ चाटनेसे रक्त कुष्ठका गोरखमुण्डी, लाल आक, कडवी तंबी और नाश होता है।
___ (१.२५९) काकोदुम्बरिकादियोगः कर हांडीमें बन्द करके भस्म करें और फिर उसे |
(ग. नि. । कुष्टा. ३६) क्षार निर्माण विधिसे गोमूत्रमें घोलकर छान लें ।
| मथितेन पिबेच्चूर्ण काकोदुम्बर्यफल्गुजम् । तदनन्तर उसमें कठूमरका रस, मैनफलका क्वाथ
तैलाक्तो धर्मसेवी स्यात्तकाशी श्वित्रमुद्धरेत् ।। और अरलुका स्वरस ( प्रत्येक उक्त क्षार-जल के
कठूमरके चूर्णको मथित ( वस्त्रसे छनी निर्जल समान ) मिलाकर पकायें और क्षार बना लें।
| दही ) के साथ सेवन करने, तक्राहार पर रहने और ____इसे पीनेसे इलोपद, अपची, गलगण्ड, ग्रहणी,
रोज शरीरपर तेल मलकर धूपमें बैठनेसे श्वत्र
(सफेद कुष्ठ )का नाश होता है। अरुचि और हर प्रकारके विषका नाश होता है।
(९२६०) काकोदुम्बरिकामूलयोगः (मात्रा-१ माशा । )
(ग. नि. । मुखा. ५ ; रा. मा. । मुखरो. ५) इन्हीं द्रव्योंसे ( उक्त क्षार और कठूमर
काकोदुम्बरिकामूलं पिष्टं तन्दुलवारिणा। आदिके रससे ) तेल सिद्ध करके उसकी नस्य लेने और मालिश करनेसे भी उक्त रोग एवं दुष्ट व्रणका
| पानानिवारयत्याशु प्रवृत्तं वदनादमुक ॥
कठूमरकी जड़ को चावलोंके धोवनके साथ नाश होता है।
पीसकर पीने से मुंहसे होने वाला रक्तस्राव शीघ्र (९२५७) काकोदुम्बरयोगः (१) बन्द हो जाता है। (व. से. । विषा. ; रा. मा. । विषा २८) (९२६१) काञ्चनारयोगः काकोदुम्बरमूलन्तु धत्तरफलकान्वितम् । (व. से. । गण्डमाला. ; ग. नि. | ग्रन्थ्य. १) पिवेत्तण्डुलतोयेन सारमेयविषापहम् ॥ पलमर्द्धपलं वापि पिष्ट्वा तण्डुलवारिणा। ____कठूमरकी जड़ और धतू रेका फल समान काञ्चनारत्वचः पीत्वा मुच्यते गण्डमालया ॥ भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
२॥ से ५ तोले तक कंचनारको छालको इसे चावलों के धोवनके साथ पीनेसे कुत्तेका चावलोंके धोवनके साथ पीसकर पीनेसे गण्डमाला विष नष्ट होता है।
का नाश होता है।
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५४२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
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कामेश्वरचूर्णम्
चिरायता, कुटकी, इन्द्रजौ, बच, ब्राह्मी, (र. चि. म. ! स्त. ८) पलाशके फल, सब्जी, काला जीरा, पीपल, पीपलारसप्रकरण में देखिये।
मूल, चीतामूल, सोंठ और काली मिर्च समान भाग (९२६२) कालाजाजीयोगः | लेकर चूर्ण बनावें। इसे अद्रकके रस में पीसकर
( भा. प्र. । म. खं. २ ) बार बार जिहा पर मलनेसे जिहाकी शू-यता नष्ट कालाजाजी तु सगुडा विषमज्वरनाशिनी। होकर समस्त रसोंका ज्ञान होने लगता है। मधुना चाऽभया लीढा हन्त्याशु विषमज्वरान् ।। (९२६५) किराता दिया काले जीरके चूर्णको गुड़के साथ खिलाने से
(३. मा. । अतिसारा. : र, ..! आंतसारा या हर के चूर्णको शहदके साथ चटानेसे विषमज्वर ।
किराततिक्तकं मुस्तं वत्सकं सरसाधनम् । नष्ट होता है। (मात्रा-३ से ६ माशे तक । )
पिवेत्पित्तातिसारनं सक्षौद्रं वेदनापहम् । (९२६३) कासान्तकचूर्णम्
चिरायता, नागरमोथा, इन्द्रजौ और : (धन्व. । कासा.)
समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । त्रिकला व्योपचूर्ण च समभागं प्रकल्पयेत् ।
इसमें शहद मिलाकर पीनेसे वागायुक्त मधुना सह पानात्तु दुष्टकासं नियच्छति ॥
पित्तातिसार नष्ट होता है। त्रिफला और त्रिकुटा का समान भाग मिलित (मात्रा-१॥ से ३ माशे तक }; चूर्ण शहद के साथ पिलानेसे दुष्टकास नष्ट होती है। (९२६६) कुलभयोगः ( मात्रा–३ माशे ।)
(ग. नि. । रक्तपित्ता. ८) कासीसादिचूर्णम्
शृतेनाजेन दुग्धेन सुपिष्टं कुङ्कम पिबेत : ( यो. त. । त. ५९)
ऊर्ध्वरक्तविनाशाय तेनैवान भोजनम् ।। रसप्रकरणमें देखिये
___बकरीके पके हुवे दूधमें केसरका पूर्ण ( ४ (९२६४) किराततिक्तादिकल्क:
रत्तीसे १ माशा तक ) मिलाकर पीनेसे उर्ध्वगत ( भा. प्र. । म. ख. २)
| रक्तपित्त नष्ट होता है। किराततिक्तका कटु कुटजस्य फलं बचा।। ब्राह्मी फलश्च पालाशं सर्जिका कृष्णजीरकम् ।
उर्ध्व गत रक्तपित्तमें इसी दूधके साथ भोजन पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रं नागरमूषणम् ।
( भात ) खाना चाहिये। एषां कल्कैर्मुहुर्घर्षजिहिकामादिकारसैः ।।
कुकुमाचं चूर्णम् तेन सम्यग्विजानाति रसना सकलालसान् ।
(र. चि. म.) कल्कः किराततिक्तादिजिहायाः शून्यता हरेत् ॥ रसप्रकरण में देखिये
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पूर्णमकरणम् ]
परिशिष्ट (९२६७) कुटजकल्कः
(९२७०) कुटजादियोगः (१) (यो. र. | अश्मर्य.) | (यो. र. । अश्मय. ; वृ. यो. त. । ल. १०२) अपि च कुटजमूलं धेनुदध्यम्बुपिष्टं । | पिवतः कुटजं दध्ना पथ्यमनं च खादतः । पिचुमितमवलीढं पातयत्यश्मरीकाम् ॥ | निपतत्यचिरादस्य निश्चितं मेदशर्करा ॥
१। तोला कुड़की जड़को पानीमें पीसकर | कुड़ेकी जड़को दहीके साथ खाने और पथ्य चाटनेसे अश्मरि निकल जाती है ।
पालन करनेसे मेढ़ शर्करा की शर्करा-रेत ) (९२६८) कुटजादिचूर्णम् (१) अवश्य शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। (हा. सं. । स्था. ३ अ. ३)
(९२७१) कुटजादियोगः (२) कुटजत्वक् च पाठाच
( ग. नि. । रक्तपिता. ८ विश्वं पिल्वं च धातकीकुसुमम् । कुटजत्वक्समायुक्तर्यातकीरो पालकैः। दना सहितं चूर्ण देयं रक्तातिसारनम् ॥ | चूर्णमुत्पलसम्मिश्रः कृतमिन्द्रयवान्वितैः ।।
कुड़ेकी छाल, पाठा, सोंठ, बेलगिरी और वासारसेन सम्मिश्ररवश्यायस्थितं पिवेत् । धायके फूल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। | मधुना योजितं घेतदूर्ध्वरक्तहरं परम् ॥ इसे दहीके साथ सेवन करनेसे रक्तातिसार |
वन करनेसे रक्तातिसार | कुड़ेकी छाल, धायके फूल, लोध, सुगंधवाला, नष्ट होता है।
नीलोत्पल और इन्द्रजौ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। ( मात्रा-३ माशे । )
___इसे बाला के रसमें मिलाकर रातको ओसमें (९२६९) कुटजादिचूर्णम् (२) | रख दें और प्रातःकाल शहद मिलाकर पियें। इसके
( ग. नि. । ग्रहण्य. ३) सेवनसे ऊर्ध्वगत रक्तपित्तका नाश होता है । कुटजोऽतिविरा शुण्ठी मधुकं धातकीफलम् । ( मात्रा-चूर्ण २-३ माशे । बासारस शाल्मलीशुष्कनिर्यासः कणा मुस्ता समांशतः ॥ | १ से २ तोले । मधु ६ माशे । ) सुलक्ष्णं चूर्णेमेतेषां मधुना सह भक्षितम् ।
(९२७२) कुटजाचं चूर्णम् हन्त्यामरक्तपित्तोत्यां ग्रहणीमतिवेगतः ॥
(ग. नि. 1 चूर्णा.) कुड़ेकी छाल, अतीस, सोंठ, मुलैठी, धायके | कुटजत्वगिन्द्रयवान् पाठां फूल, सेंभलका सूखा हुवा गोंद, पीपल और नागर
___ मुस्तं रसाधनं शुण्ठीम् । मोथा समान भाग लेकर बारीक चूर्ण बनावें। । बलं बिल्वमतिविषां कटुकं ___इसे शहद के साथ सेवन करनेसे आम और | वैधातकीं समाहृत्य ॥ रक्त युक्त पित्तज ग्रहणी रोग शीघ्र ही नष्ट | मधुनाऽऽलोडय निपीतं हो जाता है।
तण्डुलपयसा प्रवाहिकां हरति । ( मात्रा-१॥ से ३ माशे तक । ) अशांसि गुदे शूलं पित्तरक्तातिसारं च ।।
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५४४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ ककारादि
___ कुड़ेकी छाल, इन्द्रजौ, पाठा, नागरमोथा, । (९२७५) कुलत्थादिचूर्णम् रसौत, सोंठ, सुगन्धबाला, बेलगिरी, अतीस, कुटकी
(ग. नि. । ज्वरा. १) और धायके फूल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें।
कुलत्थं त्रायमाणां च पिप्पली चैव हिङ्गु च । इसे शहदमें मिलाकर चावलोंके पानी के
| सैन्धवं काललवणं शृङ्गवेरं सचित्रकम् ॥ साथ पीनेसे प्रवाहिका, अर्श, गुदशूल तथा पित्तज
वयस्था कोलमज्जान धन्वयासं हरेणुकाम् । और रक्तज अतिसारका नाश होता है ।
त्वचं दारुहरिद्रे च मूक्ष्मैलां चोरकं तथा ॥ ( मात्रा-२-३ माशे ।)
बलां मवीं समश्रिष्ठां विडङ्गं तुम्बरूणि च । कुठेरका चूर्णम् हरीतकी तामलकी शिकस्य फलानि च ।।
(ग. नि. । परि. चू. ) मरिचं चाजमोदं च यथालाभेन संहरेत् । रस प्रकरण में देखिये।
चूर्णीकृतानि सर्वाणि लेहयेन्मधुसर्पिषा ।। (९२७३) कुबेराक्षयोगः रसेन मातुलुङ्गस्य पयसाऽम्लेन वा पुनः।
( हा. सं. । स्था. ३ अ. ७) दधिमण्डेन चालोडय मूत्रेणान्यतमेन वा ॥ एक एव कुबेराक्ष: सर्वशूलापहारकः ।
वातोत्तरं सन्निपातं क्षिप्रमेव चिकित्सति ।
समस्तं चगेमधे वा यथालाभमथापि वा ॥ किं पुनः स त्रिभिर्युक्तः पथ्यारुचकरामटैः ।। . लता करंजकी मींगी अकेली ही समस्त
प्रयुभीत भिषक् प्राज्ञः कालसात्म्यविभागतः ॥ प्रकारके शूलोंको नष्ट कर देती है। यदि उसके __कुलथी; त्रायमाणा, पीपल, होग, सेंधानमक, साथ हर्र, काला नमक और हींग मिला लिया जाए
संचल ( काला नमक ), सोंठ, चोतामूल, काकोली, तो कहना ही क्या है।
बेरकी गुटलीकी मींगी, धमासा, रेणुका, दालचीनी, (मात्रा-करंजकी मींगी ४-६ रत्ती ।
हल्दी, दारुहल्दी, छोटी इलायची, चोरक, खरैटी, मिश्रित चूर्ण १॥-२ माशे । )
मूर्वा, मजीठ, बायबिडंग, तुम्बरू, हर्र, भुई आमला, (९२७४) कुरण्टमूलयोगः
सहं जनेकी फली, काली मिर्च और अजमोद ये
समस्त औषधियां अघवा इनमें से आधी या समया. (यो. र. । स्त्रीरोगा.)
| नुसार जितनी मिल सकें उतनी ही समान भाग कुरण्टमूलं धातक्या: कुसुमानि वटाकुराः। लेकर चूर्ण बनावें । नीलोत्पलं पयोयुक्तमेतद् गर्भमदं ध्रुवम् ॥ इसे घी और शहद में मिलाकर या बिजौरे
कुरण्टमूल (पीले फूलके पिया बांसेकी जड़), नीबूके रसके साथ अथवा दूध, कांजी, दधिमण्ड, धायके फूल, बड़के अंकुर और नीलोत्पल; इनके और गोमूत्रमें से किसी एकके साथ देनेसे वातसमान भाग मिश्रित चूर्णको दूधके साथ सेवन । प्रधान सन्निपात शीव्र ही नष्ट हो जाता है। करानेसे स्त्री गर्भ धारण कर लेती है ।
( मात्रा-२-३ माशे ।)
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चूर्णप्रकरणम्
परिशिष्ट
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(९२७६) कुलित्थचूर्णम् यः कुष्ठचूर्ण रजनीविरामे (व. से. । ज्वरा. ।)
मध्वाज्यसम्मिश्रितमत्ति नित्यम् । स्वेदोद्गमे भ्रष्टकुलित्यचूर्ण
समत्तमातङ्गबलः सुगन्धिनिपातनं शस्तमिति ब्रुवन्ति ।
ग्मिी चिरायुश्च भवेन्मनुष्यः ॥ मृत्युश्च तस्मिन्बहुपिच्छलत्वा
(यो. त. । त. ८१) च्छीतस्य जन्तोः परितः सरत्वात् ॥ जो व्यक्ति नित्य प्रातःकाल घी और शहदके
सन्निपात ज्वरमें अधिक पसीना आने लगे | साथ कूठका । तोला चूर्ण सेवन करता है वह तो भुनी हुई कुलथी के चूर्ण को शरीर पर | १ वर्ष में अत्यन्त बलशाली, दीर्घायु और वाग्मी मलना चाहिये ।
। (उत्तम वक्ता ) हो जाता है तथा उसके शरीरसे यदि अत्यधिक आने हुवे पसीनोंको न रोका
| कमलकी सी सुगंध आने लगती है। जाय तो शरीर ठंडा होकर मृत्यु हो जाती है । (९२७७) कुशमूलयोगः (१)
(९२८०) कुष्ठहरचूर्णम् (व. से. । अर्शो.)
(र. चि. म. । स्त. ४) कुशमूलं बलायुक्तं पानं तण्डुलधावनम् । चिरबिल्वं चित्रपथ्या शिरीषं च विभीतकम् । रुणद्धि गुदजा सावं प्रदरं वापि सर्वजम् ॥ | काकोदुम्बरिकामूलं गोजलेन च भावितम् ॥ ___ कुशमूल और खरैटी समान भाग लेकर चूर्ण ! कर्षमात्रं पिबेद्रोगी गोजलेन समन्वितम् । बनावें । इसे चावलोंके धोवनके साथ पीनेसे गुदासे | सप्तसप्तकपर्यन्तं सर्वकुष्ठानि नाशयेत् ॥ होने वाला रक्तस्राव और सर्वदोषज प्रदर नष्ट होता है। करञ्ज, अर डनूल, हरं, सिरसकी छाल, (मात्रा-६ माशे।)
बहेड़ा और कठूमरको जड़ समान भाग लेकर चूर्ण (९२७८) कुशमूलयोगः (२) बनावें एवं उसे गोमूत्र की भावना देकर सुरक्षित रक्खें। (यो. त. । त. ७४; वृ. मा. ; यो. र. । प्रदरा.) मात्रा--११ तोला । कुशमूलं समुद्धृत्य पेपयेत्तन्दुलाम्बुना। इसे सात सप्ताह तक गोमूत्र के साथ सेवन एतत्पीत्वा व्यहं नारी पदरात्परिमुच्यते ॥ करनेसे समत कुष्ठ नष्ट हो जाते हैं । कुशाकी जडको चावलों के पानीके साथ पीस
(९२८१) कुष्ठादिकल्कः कर पीनेसे ३ दिन में प्रदर रोग नष्ट होता है।
(यो. र.। स्नायुरोगा.) (९२७९) कुष्ठयोगः (र. र. रसा. खं. । उप. ५ )
| कृष्ठरामठ शुण्ठाभिः कल्कं शिग्रुसमन्वितम् । कुष्ठचूर्ण समध्वाज्यं नित्यं कर्ष लिहेत्तु यः । पानलेपनयोगेन तन्तुकीटविनाशनम् ॥ वत्सरादिव्यदेहः स्यादन्येन शतपुष्पवत् ।।
____कूट, हींग, सोंठ और सहजनेकी छाल का चूर्ण समान भाग लेकर पानीके साथ (या सहजने
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
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के रसके साथ ) बारीक पीस लें। इसे पीने और | (९२८५) कुष्ठादिचूर्णम् (४) इसका लेप करनेसे स्नायुक (नहरवा) नष्ट होजाता है । ( रा. मा. ! रसा. वाजी. ३२ )
(९२८२) कुष्ठादिचूर्णम् (१) कुष्ठं मुरा केसरमित्यमूनि
(व. से. । अतिसारा.) __श्लक्ष्णानि सञ्चूर्ण्य घृतान्वितानि । कुष्ठं पाठा वचा मुस्तं चित्रकं कदुराहिणी।। यो लेदि नित्यं मधुसंयुतानि पीतमुष्णाम्बुना चूर्ण श्लेष्मातीसारनाशनम् !! । स स्यात्सुगन्धिः सुभगश्च लोके ॥
कूठ, पाठा, बच, नागरमोथा, चीता और ____ कुठ, मुरमुकी और केसर समान भाम कुटकी समान भाग लेकर पूर्ण बनावें । लेकर चूर्ण बनावें।
इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे कफाति- इसे घो और शहदमें मिलाकर सेवन करने से सार नष्ट होता है।
शरीरसे सुगन्धि आने लगती है और सौन्दर्य बढ़ता है। (मात्रा-२-३ माशे।)
(९२८६) कुष्ठादियोगः (९२८३) कुष्ठादिचूर्णम् (२
( यो. र. । कृत्रिम बपा.) (ग. नि. । कासा. १०)
कुठं वचा मदनकोशवतीफलेन कुष्ठ तामलकी भार्गी शो क्षारौ हरीतकी । ___ संयोजितं तदिति चूर्णमिदं चतुर्णाम् । कोल चोष्णाम्भसा चूणे
गोमूत्रपीतमखिलाखुविषं निहन्ति श्लेष्मकासान्वितः पिबेत् ॥
कोशातकीक्वथनमापिवतोऽथ वाऽपि ॥ कूठ, भुईआमला, भरंगी कचूर, जवाखार, | कुठ, बच, मैनफल और तुरई (कड़वी तोरी) सज्जीखार और हर समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। का फल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ! ____ इसे उष्ण जलके साथ पीनेसे कफज कासका इसे गोमूत्र के साथ पीनेसे चूहेका विष नाश होता है।
नष्ट होता है। मात्रा-७|| माशे।
___ अथवा तोरी ( कड़वी तोर के कलका काथ (९२८४) कुष्ठादिचूर्णम् (३) पानसे भी चूहेका विष न होता है । ( भा. प्र. | म. खं. २ ; यो. र. । तालुोगा.) (९२८७) कुष्ठाय चूर्णम् कुष्ठोषणवचासिन्धुकणापाठाप्लवैः सह ।।
(ग. नि. : उदरा. ३२) ससौभिषजा कार्य गलशुण्डी प्रघर्षणम् ॥ कुष्ठं दन्ती यवक्षारः पाठा त्रिलवणं बचा। ___ कूठ, काली मिर्च, बत्र, सेंधा नमक, पीपल.| अजाजी दीप्यको हिङ्गु स्वर्जिका चव्यचित्रकौ ॥ पाठा और केवटी मोथा समान भाग लेकर | शुण्ठी चोष्णाम्भसा पीतं वातोदररु जापहम् ।। चूर्ण बनावें ।
कूर, दन्जीमूल, जवाखार, पाठा, सेंधा नमक, इसे शहद में मिलाकर गागिट पर मलना चाहिये। काला नमक - संचल ), बिडलवण, बच, जीरा,
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चूर्णप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
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mem
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अजवायन, होंग, सजीखार, चव, चीतामूल और भाग लेकर सबको फाणित ( राब ) में मिलाकर सोंठ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। दुधके साथ पिलाने से चूहे का विष नष्ट होता है ।
इसे उष्ण जलके साथ पीनेसे वातोदर तिलकमंजरी ( मारवे की मंजरी ) पीनेसे में नष्ट होता है।
चूहेका विष नष्ट होता है। ( मात्रा-२ माशे ।)
(९२६) कृष्णमृदादिकल्कः
( भा. प्र. म. खं. २ । रक्तातिसारा.) (९२८८) कुष्ठारिरसः (चूर्णम्)
| कृष्णमृन्मधुकं लो कॉटनं तण्डुलाम्बुना । । सें. चि. म. । अ. ९; र. रा. सु. । कुटा. पीतमेकत्र सक्षौद्रं रक्तसङ्ग्राहणं परम् ॥ . ___रसें. सा. सं. । कुष्ठा.)
___काली मिट्टी, मुलैठी, लोध और इन्द्रजौ; इन काठोडम्बरिकाचूर्ण ब्रह्मदन्तिबलात्रयम् । का चर्ण समान भाग लेकर चावलोंके पानीके साथ प्रत्येकं मधुना लीहं वातरक्तापहं नृणाम् ॥ पीस लें । इसे चावलोंके पानीमें मिलाकर उसमें खरद्रक्तश्चरन्मांसं मासमात्रेण सर्वथा। शहद डालकर पीने से रक्तातिसार नष्ट होता है । गलत्पूर्य पतत्कीटं त्रिटई सेव्यमीरितम् ॥
(मात्रा-३ माशा ।) कठूमरको छाल, ब्रह्मदण्डी, खरैटी, कंधी (९२९१) कृष्णाजाजीयोगः और गंगेरन; इनके समान भाग चूर्णको पृथक् (व. से. ; भा. प्र.। म. ख. २ विध्य.) पृथक् ११-१। तोले की मात्रानुसार शहद में मिलाकर कृष्णाजाजीविशाला च ह्यपामार्गफलं तथा। सेवन करनेसे १ मासमें वह वातरक्त भी नष्ट हो | पीतं तमिहन्त्याशु विधि कोष्ठसम्भवाम् ।। जाता है कि जिससे रक्त बहता हो, जिसका मांस | काला जीरा, इन्द्रायण और अपामार्ग (चिरचिट) सड़ गया हो और जिससे पीप निकलता हो तथा ! के बीज समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । जिसमें कृमि पड़ गये हों।
इसे सेवन करनेसे कोष्ठकी विद्रधि ( अन्तर्वि(९२८९) कुसुम्भयोगः | द्रधि ) नष्ट हो जाती है। (व. से. । विषा.)
( मात्रा-१ माशा ।) कुसुम्भपुष्पगोदन्तस्वर्णक्षीरीकपोतविट । (९२९२) कृष्णादिचूर्णम् (१) दन्तीत्रिवृत्सैन्धवैलाकिणिहीफाणितं तथा ।
(व. से. । उर्थ.) क्षीरेणाखुविषं हन्ति पीता तिलकमबरी ।। कृष्णोषणसिताचूर्ण लाजतुल्यं समाक्षिकम् ।
कुसुम्भ ( कुसुम्भा ) के फूल, गोदन्ती कपित्थबीजपूराम्लकल्कित छर्दिनाशनम् ॥ हरताल, स्वर्णक्षीरी ( सत्यानाशी), कबूतरकी विष्ठा, पीपल, काली मिर्च और मिश्री १-१ भाग दन्तीमूल, निसोत, सेंधानमक, इलायची और अपा- तथा धानको खील ३ भाग लेकर चूर्ण बनावें । मार्ग ( चिरचिटे की जड़ ); इनका चूर्ण समान १" धामार्गवफलं तथा " ( भा. प्र.)
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
इसे कैथके रस या बिजौ रे नीबूके रसमें पीस (९२९५) कोलम जादिचूर्णम् कर शहदमें मिलाकर पीनेसे छर्दिका नाश होता है। (यो. र. । मूॉ. ; ग. नि. । मूर्छा. १६) (मात्रा-६ माशे।)
| कोलमज्जोषणोशीरकेसरं शीतवारिणा । (९२९३) कृष्णादिचूर्णम् (२) पीतं मूछां जयेल्लीढा कृष्णा वा मधुसंयुता ॥ (ग. नि. । अरोचका. १३ : वृ. मा. । अरोचका.) बेरकी गुठलीकी मोंगी, काली मिर्च, खस और वाते बचाम्बुवमनं कृतवान् पिबेत्तु नागकेसर समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । स्नेहैः मुराभिरथवोष्णजलेन चूर्णम् ।
इसे शीतल जलके साथ पीने से या पीपलका कृष्णाविडायचभस्महरेणुभार्गी
चूर्ण शहद के साथ चाटनेसे मूर्छा नष्ट होती है । रास्नैलहिङ्गुलवणोत्तमनागराणाम् ।। (मात्रा-२-३ माशा।) पीपल, बायबिडंग, जौकी भस्म, रेणुका,
(९२९६) कोलास्थिचूर्णम् भरंगी, रास्ना, इलायची, हींग, सेंधा नमक और
(सु. सं. । उ. त. अ. ५०) सोंठ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
कोलास्थिमज्जाजनलाजचूर्णम् । - वातज अरुचिमें बचके क्वाथसे वमन कराने
हिक्कां निहन्यान्मधुना च लीढम् ॥ के पश्चात् यह चूर्ण स्नेह ( घृत या तैल ), सुरा
बेरकी गुठली की मांगी, सुरमा और धानकी या उष्ण जलके साथ सेवन कराना चाहिये। खील समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । (मात्रा-१॥-२ माशा ।)
इसे शहद के साथ चाटने से हिचकी का
। नाश होता है। (९२९४) कृष्णादियोगः
(मात्रा--२-३ माशे । ) (ग. नि. । मूढगर्भा.)
(९२९७) क्रव्यादिकल्पः कृष्णा तन्मूलशुण्ठथैलाहिङ्गभार्गी: मदीप्यकाः। (वै. र. । अग्निमांद्या. ) वचामतिविषां रास्नां चव्यं सञ्चूर्ण्य पाययेत् ।। एलालबमरिचकृष्णाशुक्तिसमन्वितम् । स्नेहन दोषशान्त्यर्थ वेदनोपशमाय च। चुक्रनागरसिन्धुत्थमृषकपलपञ्चकम् ।। क्वार्थ चैषां तथा कल्कं चूणे वा घृतभर्जितम् ।। एषां चूर्ण वस्त्रपूतं कन्यादानातिरिच्यते ॥
पीपल, पीपलामूल, सोंठ, इलायची, हींग, इलायची, लौंग, काली मिर्च और पीपल, भरंगी, अजवायन, बच, अतीस, रास्ना और चव २॥२॥ तोले तथा अमलबेत, सेठ, सेंधा नमक समान भाग लेकर चूर्ण बन वें तथा उसे घीमें सेक लें। और ऊष (रेह मिट्टी ) २५-२५ तोले लेकर
इसे घीके साथ खिलानेसे अथवा इन्हीं द्रव्यों । वस्त्रपूत चूर्ण बनावें । का क्वाथ या कल्क देनेसे मूढ गर्भ जनित विकार इसे सेवन करनेसे क्षुधा अत्यन्त बढ़ जाती है। और पीडाका नाश होता है।
(मात्रा---१ माशा।) इति ककारादिचूर्ण प्रकरणम्
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गुटिकाप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
अथ ककारादिगुटिकाप्रकरणम्
कनकप्रभावटी
( कनकसुन्दरी गुटिका )
रस प्रकरण में देखिये
( ९२९८) कम्पिलको मोदकः ( ग. नि. । गुटिका. ४ ) कम्पिल्लकत्रिवृत्कृष्णापध्यानागरकैरपि । सितागुडयुतो ह्येष मोदको ज्वरिणां हितः ॥ शीतानुपानस्तुट्छदिनाशनः पित्तरोगजित् ||
कमीला, निसोत, पीपल, हर्र, और सोंठ, इनका चूर्ण १-१ भाग तथा गुड़ और खांड ५ -५ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर ( ३-३ माशे के) मोदक बना लें |
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इनके सेवन से ज्वर, तृषा, छर्दि और पित्तज
रोगों का नाश होता है ।
अनुपान - शीतल जल ।
( मात्रा - १ से २ मोदक तक । )
कर्पूरादिगुटिका
(ग. नि. । परिशि. गुटिका ) रस प्रकरण में देखिये
(९२९९) कलिङ्गाद्या गुटिका
( ग. नि. । गुटिका. ४; वा. भ. । चि. अ. ८ ) कलिङ्गालीकृष्णाय चपामार्ग पिप्पली
भूनिम्बसैन्धवगुडैर्गुडा गुदजनाशनाः ॥ इन्द्रजौ कलियारी की जड़, पीपल, मुलैठी, अपामार्ग ( चिरचिटे के बीज ), पीपल, चिरायता
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५४६
और सेंधा नमक; इनका चूर्ण १-१ भाग तथा गुड़ सबके बराबर लेकर ( २ - २ माशे के ) मोदक बना लें ।
इनके सेवन से अर्शका नाश होता है । (९३००) कल्याणका गुटिका (ग. नि. 1 गुटिका. ४ ) द्राक्षां नियोज्य विधिना द्विगुणां शिवायाः सञ्चूर्ण्य फलमात्रमितां प्रभाते । कल्याणकारककृतां गुटिकामिमां यः
संसेवते भवति तस्य हि पित्तनाशः ॥ हृद्रोगरक्तविषमज्वरपाण्डुवान्तिकुष्ठानि कासकमलारुचिमेहमुख्याः । आनाहगुल्मपिटकमभवा विकाराः
सर्वेपि ते विलयमाशु सुखेन यान्ति ॥ हर का चूर्ण १ भाग और बीजरहित मुनक्का ( द्राक्षा ) २ भाग लेकर दोनों को एकत्र कूट कर
बहेड़े के फलके समान गोलियां बना लें
I
•
इन्हें प्रातः काल सेवन करने से पित्तवृद्धि, हृद्रोग, रक्तविकार, विषमज्वर, पाण्डु, वमन, कुष्ठ, कास, कामला, अरुचि, प्रमेह, आनाह, गुल्म और पिटिका आदि रोगों का शीघ्र ही सुख पूर्वक नाश होता है । (९३०१) कस्तूरोमोदक:
( रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. । प्रमेहा. ; रसें. चि. म. । अ. ९ )
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कस्तूरी वनिता क्षुद्रा त्रिफला जीरकद्वयम्' । कदलीनां फलं पक्कं खर्जूरं कृष्णतिलकम् ॥ कोकिलाख्यस्य बीजञ्च माषमात्रं समं समम् । यावन्त्येतानि चूर्णानि द्विगुणा सितशर्करा ||
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
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धात्रीरसेन पयसा कूष्माण्डस्वरसेन च। और सफेद जीरा, केलेको पक्को फलो, खजूर, काले विपचेत्पाकविद्वैः । मन्दमन्देन वह्निना॥ | तिल और तालमखाना १-१॥ माशा (रसे. चिं. अवतार्य मुशीते च यथालाभं विनिःक्षिपेत् । । म. के पाठ के अनुसार इलायची के बोज, दालचीनी, अक्षमात्रं युञ्जोत सर्वमेहप्रशान्तये ।। मुलैठी,सौंफ, सुगन्धवाला, सोया, नोलोत्पल, आमला, पातिकं पैत्तिकश्चैव श्लैष्मिकं सानिपातिकम् । नागरमोथा; ये ओषधियां भी १०-११ माशा ) ले सोमरोग बहुविधं मूत्रातीसारमुल्वणम् ॥ और सबसे २ गुनी खांड लेकर उसमें आमलेका केशराजरसैर्भाव्यं द्विगुञ्जाफलमानतः । रस, दूध और पेठेका रस (प्रत्येक खांडके बराबर ) प्रमेहान्विशतिश्चैव साध्यासाध्यमथापि वा ॥ मिकाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब चाशनी हो जाय मूत्रकृच्छ्रे तथा पाण्डं धातुस्थश्च ज्वरं जयेत् । तो ठंडा करके उसमें उपरोक समस्त ओषधियों का हलीमकं रक्तपित्तं वातपित्तकफोद्भवम् ।। चूर्ण मिलाकर ११-१। तोलेके मोदक बना लें। ग्रहणीमामदोषश्च मन्दाग्नित्वमरोचकम् । इनके सेवनसे वातज, पित्तज, कफज और एतान्सर्वानिहन्त्याशु वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ सान्निपातिक प्रमेह, सोमराग, मूत्रातिसार, मूत्रकृच्छू, बृहदश्वरोनाम सोमरोगं निहन्त्यलम् । मूत्राघात, अश्मरी, ग्रहणी, पाण्डु, कामला और कुम्भ बहुमूत्रं बहुविधं मूत्रमेहं सुदारुणम् ॥ कामला का नाश होता है। मूत्रातिसारं कृच्छ्रश्च क्षीणानां पुष्टिवर्द्धनः। यह मोदक वृष्य, बलकारक, हृद्य और
ओजस्तेजस्करो नित्यं स्त्रीषु सम्यग्टपोयते ॥ शुक्र वर्द्धक है। बलवर्णकरो रुच्यः शुक्रसअननः परः।
(व्यवहारिक मात्रा-३ माशा।) . छागं वा यदि गव्यं पयो वा दधि निर्मलम (९३०२) काङ्कायनगुटिकाः अनुपानं प्रयोक्तव्यं बुद्ध्वा दोषगति भिषक् ।
(हा. सं. । स्था. ३ अ. ११ दघाच बाले पौडे च सेवनार्थ रसायनम ॥ जाजीपिप्पलिमूलकोलमगधापथ्यानिक नागराः मूत्रकृच्छ निहन्त्याशु मूत्राघातं तथाश्मरीम्।। मूक्ष्मैला च पलद्वयेऽपि क्रमशः कृत्वा पलैः
सैन्धवम् । ग्रहणी पाण्डुरोगश्च कामलां कुम्भकामलाम ।।
| भल्लातक्य फलानि पञ्चशतकं तेन समस्तेन तु वृष्यो बलकरो हृद्यः शुक्रवद्धिकरः परः।
| द्विगुणोऽपि पुराणमूरणस्ततः सर्वस्य तुल्यो गुडः।। कस्तुरीमोदकाचायं चरकेण च भाषितः ।।
क्षोदित्वा वटकाक्षमात्रमुपपुआन विशेष गुणम् एलाबीजं त्वचं यष्टिमधुकं मिषिवालकम।
कुर्वत्यर्शनिवारणं क्षयहरं पुष्टिं नयेन सुपभाम् । शतपुष्पोत्पलं धात्री मुस्तकं भद्रसज्ञकम् ॥
मन्दाग्नौ वडवासमो भ्रमहरी हृद्रोग पाण्ड्वामय___कस्तूरी, फूलप्रियङ्गु, कटेली, त्रिफला, काला
| शूलानाहभगन्दरामयहरोदावर्त निर्माशनः॥ १ रसे. चि. म. में इसके आगे निम्रलिखित कृतोऽप्यर्थीविकारेऽपि ऋषिणा योगयुक्तिना। पाठ अधिक है
काकायनेन मतिमन्तेन सौख्यमभीप्सति ॥
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गुटिकापकरणम् ]
परिशिष्ट
जोरा, पीपलामूल, बेर, पोपल, हरं, चीता, है इनके सेवनसे उन्माद रोग शीघ्र ही नष्ट सोंठ और छोटी इलायची का चर्ण१०-१० तोले: हो जाता है। सेंधा नमक का चूर्ण ५ तोले और शुद्ध भिलावे ।
(मात्रा----रत्ती । ) ५०० नग एवं सबसे दो गुना पुराना शूरण (९३०४) कुष्ठाद्या वटिका ( जिमिकन्द ) लेकर सबको एकत्र कूट लें और
(रा. मा. । मुखा. ५) फिर उसमें सब के बराबर गुड मिलाकर ११-१॥ गदकुवलयजातीकोशजातीफलत्वतोलेके मोदक बना लें।
विरचितगुलिकाभिर्वक्त्रमध्ये धृताभिः । इनके सेवनसे अर्श, क्षय, अग्निमांद्य, भ्रम, व्रजति झदिति नाशं पूतिरास्यस्य गन्धः द्रोग, पाण्डु, शूल, आनाह, भगन्दर और उदावर्त । सविधगतनितान्तोद्वेजिताशेषलोकः ॥ का नाश होता है। यह पौष्टिक और कान्तिवद्धक है। कूठ, सफेद कमल, जावित्री, जायफल और इसका आविष्कार कांकायन मुनिने किया था।
दालचीनी समान भाग लेकर पानीमें (या गोंद के
पानी में ) घोट कर गोलियां बना लें। कामकलादिवटी
इनमें से १-१ गोली मुंहमें रखने से मुखकी (र. र. । वातरक्ता.) रस प्रकरण में देखिये।
| दुर्गध नष्ट होती है। कामेश्वरमोदकः (महाकामेश्वरपाक:) .
(१३०५) कृष्णाचा गुटिका
(ग. नि. । गुटिका. ४ ; मूर्छा. १६) (यो. र. वाजी. ; नपु. म. । त. ४) प्र. सं. ५५३३ "महाकामेश्वरः" देखिये !
कृष्णाशताहाशुण्ठीनामभयानां पलं पलम् ।
गुइस्य षट्पलान्येपण गुटिका भ्रमनाशिनी ॥ कामेश्वरीवतिका
___ पीपल, सोया, सोंठ और हर्र का चूर्ण ५-५ (र. का. धे । पा
तोले तथा गुड़ ३० तोले लेकर (९-९ माशे की) रस प्रकरणमें देखिये।
गोलियां बना लें। (९३०३) फितववादि
इन्हें संवन करने में भ्रम का नाश होता है। (२. सं. क. । र,
९.३०६) केशराजादिवटी मसेन पत्रेण फलेन वाऽपि
(व. से. । अतिसारा.) ____ व्योषान्विता या कितवोद्भवेन । केशराजसमुद्भूता जलेन गुटिका कृता। पद्धा गटी सा सहसैव हन्ति
जयेत्साममतीसारं सशूलं सास्रमाशु च ।। 'पारदोषत्रयदुधवातात् ।।
भंगरे के स्वरस को पकाकर गाढ़ा करें और धतूरे की जड़, या पते अथवा फत्र और । (१-१ साशे की ) गोलियां बना लें। सोंठ, मिर्च, पीपल समान भाग लेकर सबको (पानीके के सेवनसे शूल और रक्तयुक्त आमातिसार माथ) खरल करके गोलियां बनावें । । शीघ्र ही नष्ट जाता है।
इति ककारादि काप्रकरणम्
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५५२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
-
अथ ककारादिगुग्गुलुप्रकरणम् (९३०७) कैसाख्यो गुग्गुलुः उसमें “ कृष्णात्रिवृन्नागरसोषणानि " पाठ है
(म. नि. । गुटिका. ४) | उसकीजगह इसमें “ कृष्णात्रिवृत्यूषण चित्रप्र. सं. ४०११ पथ्यादि गुग्गुलुः देखिये। | काणि '' पाठ है।
इति ककारादिगुग्गुलुप्रकरणम्
अथ ककाराद्यवलेहप्रकरणम (९३०८) कटुकतैलयोगः (९३१०) कपिकच्छुपाकः (१) ( यो. र. । हिक्काश्वासा. ; वै. जी. । वि. ३) (वृ. यो. त.। तः १४७) गुडं कटुकतैलेन मिश्रयित्वा समं लिहेत् । प्रस्थं स्वगुप्तवींजानां सूक्ष्मं चूर्णीकृतं भिषक् । त्रिसप्ताहप्रयोगेण श्वासो निःशेषतां व्रजेत् ।। पचेत्पश्चाढके दुग्धे मृत्पात्रे मृदुवतिना ॥ सरसों के तेलमें गुड़ मिला कर ३ सप्ताह तक
प्रस्थाधै गोघृतं दत्वा द्विपस्यां शर्करामपि । सेवन करनेसे हर प्रकारका श्वास नष्ट हो जाता है।
जातीफलं जातिपत्र कङ्कोलं नागकेशरम् ॥
लवङ्गं दीप्यमाकल्लमब्धिशोषं त्रिकद्वयः । ( मात्रा-हरेक वस्तु ६ -६ माशे से १-१
त्रिजातं हेमजीरं च प्रियङ्गं गजपिप्पलीम् ॥ तोले तक ।)
प्रत्येकं कर्षमादाय भक्षयेत्पलमात्रया । (९३०९) कणा दिलेहः प्रमेहक्षेण्यकृच्छ्राश्मगुल्मशृलानिलामये ।। ( ग. नि. । बालरोगा. ११ ; व. से. । बालरोगा.)
शस्तोऽयं स्त्रीषु गर्भार्थ षण्डानां शुक्रवृद्धये।
प्रमूतानां हितो रक्तविकारविनिवारकः ।। कणोषणसिताक्षौद्रसूक्ष्मैलासैन्धवैः कृतः ।
पुंसां वाजीकरो बस्यचक्षुष्यः कामवर्धनः । पूत्रग्रहे प्रयोक्तव्यः शिशूनां लेह उत्तमः ।।
कामिनीदर्पविध्वंसकर्ता निधुवने नृणाम् ॥ पीपल, काली मिर्च, मिश्री, छोटो इलायची | नास्त्यनेन समो योगो दस्राभ्यां निर्मितः शुभः। ओर सेंधा नमक; इनके समान भाग मिलित चूर्णको कपिकच्छ्बीजपाको दीपनः पाचनः परः ॥ शहद में मिलाकर अवलेह बनावें ।
___१ सेर छिलके हित कौंचके बीजोंके बारीक इसे चटानेसे बालकका मूत्राबरोध नष्ट होता है। चूर्णको १ सेर गोघृत में मिट्टीके पात्रमें मन्दाग्नि पर
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अवलेहमकरणम्
परिशिष्ट
५५३
भूनें और फिर उसमें ४० सेर गोदुग्ध तथा २ सेर इसके सेवनसे अर्श जनित, कृमिरोग जनित. खांड मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब गाढ़ा हो और विरुद्ध अन्नपान जनित अतिसारका नाश होता है जाय तो अग्निसे नीचे उतार कर उसमें १।१।
(पात्रा-६ माशे । ) तोला जायफल, जावत्री, कंकोल, नागकेसर, लौंग, अजवायन, अकरकरा, समन्दरशोषके बीज, सेठ, । ( ९३१२ ) कसेर्वाद्योऽवलेहः मिर्च, पीपल, हरे, बहेडा, आमला, दालचीनी, इला
( ग. नि. । लेहा. ४) यची, तेजपात, धतूरेके शुद्ध बोज, जीरा, फूलप्रियंगु और गजपीपल; इनका चूर्ण मिला दें। कसेरोस्तु तुलाधं हि द्वि द्रोणेऽपां त्रिपारयेत् ॥ मात्रा-५ तोले।
द्रोणार्धशेषे पूते च दद्याद्गुडतुलां तथा। इसके सेवनसे प्रभेह, क्षीणता, मूत्रकृच्छ्, | सर्पिषः कुडवं दद्याल्लेहवत्साधु साधयेत् ।। अश्मरी, गुल्म, शूल, वातरोग और रक्त विकारोंका चतुष्पलं तु व्योषस्य त्रिजातं त्रिपल तथा । नाश होता है । इससे स्त्रियों में गर्भधारणकी शक्ति पलद्वयं केसरस्य चूर्ण कृत्वा विनिःक्षिपेत । आती और नपुंसक पुरुषो में शुक्रवृद्धि होती है। तद्यथाग्निबलं खादेकासकृमिज्वरापहः । यह पाक प्रसूताके लिये हितकारी, बाजीकरण, हृत्पाण्डुरोगवैवण्य दौर्बल्यनाहनाशनः ॥ बलकारक, नेत्रोंके लिये हितकारी, कामिनी मदभंजक | कसेरुकावलेहोऽयं स्वरपुष्टिविवर्धनः । तथा दीपन पाचन अद्वितीय योग है ।
३ सेर १० तोले कसेरुको कूटकर ६४' सेर कपिकच्छुपाकः (२)
| पानीमें पका और १६ सेर रहने पर छान लें । ( यो. त.)
तदनन्तर उसमें ६। सेर गुड़ और आधासेर वी रस प्रकरणमें देखिये
मिलाकर पुनः पकायें और गाढ़ा हो जानेपर अग्निसे (९३११ ) कल्याणावलेहः नीचे उतार कर उसमें २० तोले त्रिकुटा ( समान
(व. से. । अतिसारा.) भाग मिलित सोंठ, मिर्च पीपल का चूर्ण ), १५ शर्कराधातुकिलोधैः पाठारलुकपिप्पली-। तोले त्रिजात ( दालचीनी, इलायची, तेजपात का समाभिर्मोचरसपद्मकेसरसंयुतैः ॥ | समान भाग मिलित चूर्ण) तथा १० तोले केसरका भमभवं कृमिजं विरुद्धपानान्नदोषसम्भूतम्। चूर्ण मिला दें। अतिसारामयं शमयति लेहः कल्याणको नाम्ना॥
___इसके सेवनसे कास, कृमि, ज्वर, हृद्रोग, पाण्डु ____ खांड, धायके फूल, लोध, पाठा, अरल (सोना
| रोग, विवर्णता, दुर्बलता और आनाह ( अफारे )का पाठा ) की छाल, पीपल, मजीठ, मोचरस और कमलकेसर; इनके समान भाग मिलित चूर्णको
| नाश होता तथा स्वर और पुष्टि की वृद्धि होती है। ( शहदमें मिलाकर ) अवलेह बनावें ।
( मात्रा-३-४ तोले ।)
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५५४
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[ककारादि
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, (९३१३) कामसुन्दरपाकः । ५ तोले कुड़ेकी छालको १ सेर पानीमें पकायें (न. मृ. । त. ४ ; वै. र. । वाजी.)
! और १० तोले रहने पर छान लें । तदनन्तर उसमें शतावरी च मुसली गोक्षुरस्त्यग्लवङ्गकम् ।।
१० तोले अनारका रस मिला कर पुनः पकावें । खर्जूरमेला कृष्णा च शिवा कमलचन्दनम् ।।
जब अवलेह तैयार हो जाय तो उतार लें।
मात्रा-७॥ माशे। कपिणच्छुभवं बीजं पत्रं मुस्ता च नागरम् ।
इसे तक्रके साथ सेवन करनेसे रक्तातिसारका कोकिलाक्षश्च धनिका शुक्ति पूगं पलद्वयम् ॥ । विंशत्पला सिता दर्पकर्पूरश्चार्द्धकार्षिकः ।।
' मरणासन्न रोगी भी अवश्य स्वस्थ हो जाता है। विजया सापलिका प्रमेहघ्नो रसायनः ॥ (९३१५) कुलिञ्जनायोऽवलेहः परनः पुष्टिजननः पाकोयं कामसुन्दरः ॥ ( ग. नि. । परि. अव. ५)
सतावर, मूसली, गोखरु, दालचीनी, लौंग, कुलिअन समानीय नवीनं पलविशतिम् । खजूरे, इलायची, पीपल, आमला, कमल, सफेद तुलाद्वये जले क्वाध्य तुलार्धमवशेषयेत् ।। चन्दन, कौंचके बीज (छिलके रहित ), तेजपात, वस्त्रपूते जले तस्मिन् चूर्णान्येतानि दापयेत् । मागरमोथा, सोंठ, तालमखाना और धनिया; इनका कट्फलं पौष्करं भार्गों पञ्चकोलं कटुत्रिकम् ।। चूर्ण २||-२॥ तोले, चिकनी सुपारीका चूर्ण १० त्रिफला च विडाच धान्यकं जीरकद्रयम् । सोले एवं कस्तूरी और कपूर ७||-७|| माशे और | वासा करमः शिखरी प्रत्येकं च पलद्वयम् ॥ धुली हुई भांग ७॥ तोले लेकर सबको ११ सेर | सर्वार्थी प्रक्षिपेच्छुदां शर्करां गुडमेव च । खांडकी चाशनी में मिला दें।
हन्त्ययं पञ्चकासांश्च हिका अपि सवेदनाः ॥ यह पाक प्रमेह और ज्वर को नष्ट करता है स्वरभक्षं महाघोरं कण्ठरोगं मुखामयम् । संथा रसायन और पौष्टिक है।
मन्दाग्निं च प्रतिश्यायं स्वरभक्षं विशेषतः॥ ( मात्रा-११ तोला ।)
१०० तोले नवीन कुलिंजनको कूटकर २५
| सेर पानीमें पका और ६। सेर पानी रहने पर छान (९३१४) कुटजावलेहः
लें । तदनन्तर उसमें कायफल, पोखरमूल, भरंगी, (यो. र. ; वृ. मा. । अतिसारा.)
पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ, त्रिकुटा (सोंठ, कुटजस्य पलं ग्राहामष्टभागनले भृतम् । मिर्च, पीपल), हरे, बहेड़ा, आमला, बायविडंग, संथैव विपचेद्भयो दाडिमादकसंयुतम् ।। धनिया, सफेद जीरा, काला जीरा, बासा, करा अजवायतुल्योऽत्र दाडिमस्य रसो मतः। (की गिरी) और चिरचिटा ( अपामार्ग ); इनका पारसिकामासं शृतं तमुपकल्पयेत् ॥ चूर्ण १०-१० तीले तथा सबसे आधी खांड और तस्थाः कर्ष सक्रेण पिबेद्रक्तातिप्सारवान् । उतनाही गुड़ मिला कर पुनः पकावें एवं अवलेह अवश्यं मरणीयोऽपि न मृत्योर्याति गोचरम् ॥ ' तैयार हो जाने पर उतार लें।
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अवलेहप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
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इसके सेवन से पांच प्रकारकी खांसी, वेदना (९३१७) कोलमज्जादिलेहः करनेवाली हिचकी, घोर स्वरभंग, कण्ठ रोग, मुख-
(वृ. मा. । छर्घ.) रोग, अग्निमांद्य और प्रतिश्याय का नाश होता है। यह अवलेह स्वरभंगमें विशेष उपयोगी है।
कोलमज्जाकणाधात्री, लाजाविश्वफलत्रिकम् । (मात्रा-६ माशे।)
श्यामाअनाब्दकोलास्थि
माक्षिकाविसितायुतम् ॥ कुलित्थगुडः (वृहद्
कणोषणकपित्थाम्बु, त्वगेलापत्रक समम् । (व. से. । कासा.)
सक्षौद्राः पादिका लेहाः षडेते छर्दिनाशनाः । प्र. सं. ६७१८ "वृहत्कुलस्थगुडः" देखिये । |
(१) बेरको गुठलीकी गिरी, पीपल और (९३१६) कृष्णादियोगः
आमला: (२) धानको खील, सोंठ, हर्र, बहेड़ा ( यो. र. । यक्ष्मा. ; वृ. मा. । राजयक्ष्मा.) और आमला; (३) फूल प्रियंगु, सुरमा, नागरमोथा, कृष्णाद्राक्षासितालेहः क्षये वा क्षौद्रतैलवान् । बेरकी गुठली को गिरी ( मांगी); (४) मक्खीकी मधुसपिर्युतो वाऽश्वगन्धाकृष्णासितोद्भवः ॥ विष्टा और मिसरी; (५) पीपल, काली मिर्च, कथ
पीपल, मुनक्का और मिसरीको पीसकर शहद | और सुगन्धवाला तथा (६) दालचीनी, इलाथषी और तेल में मिलाकर सेवन करानेसे या असगन्ध, और तेजपात; ये छः प्रयोग छर्दिको मष्ट करते हैं। पीपल और मिसरी को पीसकर शहद और घी में | हर एक प्रयोग की ओषधियोंका समान भाग मिलाकर सेवन करानेसे क्षय रोग का नाश होता है। मिलित चूर्ण शहदमें मिलाकर चाटना चाहिये।
इसि ककाराधवलेहमकरणम्
अथ ककारादिघृतप्रकरणम् (९३१८) कण्टकारीपतम् श्वासाग्निसादस्वरभेदभिन्ना(ग. नि. । धृता. १)
निहन्त्युदीर्णानपि पञ्चकासान् ।। पाठविडव्योषविडङ्गसैन्धव
__ कल्क-पाठा, बिड लवण, सोंठ, काली त्रिकण्टरास्नाहुतभुग्बलाभिः। मिर्च, पीपल, बायबिडंग, सेंधा नमक, गोखरु, रास्ना, ही वचाम्भोधर देवदारु
चीतामूल, खरैटी, काकड़ा सिंगी, बच, नागरमोथा, दुरालभा भार्यभया शठीभिः ॥ देवदारु, धमासा, भरंगी, हर्र और कचूर समान सम्यग्विपक्वं द्विगुणेन सपि
भाग मिलित १० तोले लेकर पानीके साथ निदग्धिकायाः स्वरसेन चैतत् । बारीक पीस लें।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
द्रव पदार्थ-कटेली का स्वरस २ सेर (तथा । (९३२०) कपित्थायघृतम् पानी २ सेर)
(व. से. । अशो.) १ सेर धीमें यह कल्क और द्रव पदार्थ मिला स्वरसे तु कपित्थाम्लदाडिमामलकोद्भवे । कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो | द्विपस्थे सर्पिषोः प्रस्थं पचेक्षारार्तिदाहनुत् ॥ जाय तो घी को छान लें।
___कैथका रस ४ सेर, खट्टे अनारका रस ४ सेर, इसके सेवनसे श्वास, अग्निमांद्य, स्वरभेद और | आमलेका रस ४ सेर और घी २ सेर लेकर सबको पांच प्रकारकी प्रबल कासका नाश होता है।
एकत्र मिलाकर पकावें और घृत मात्र शेष रहने एकत्र
पर छान लें। ( मात्रा-१ से २ तोले तक ।)
इसे ( लगाने और पीनेसे ) क्षार प्रयोगसे (९३१९) कण्टकार्यादिघृतम् उत्पन्न वेचैनी और दाहका नाश होता है । ( यो. र. । कासा.)
( ९३२१) करजायं धृतम् कण्टकार्यामलां क्षुण्णां कृत्वा द्रोणेऽम्भसः पचेत (च. द. । व्रणशोथा. ४३ ; वृ. मा. । व्रणा. ; व. देनाऽऽढकेन क्वाथस्य घतप्रस्थं पिचन्मितः॥7 से. । विद्रध्य. ; ग. नि. । व्रणा. ४ ; र. र. । रास्नादुःस्पर्शषड्ग्रन्थिपिप्पलीद्वयचित्रकैः।।
व्रणा. ; सु. सं * । चि. अ. १६ विध्य.) सौवर्चलयवक्षारकृष्णामूलैश्च तज्जयेत् ॥ नक्तमालस्य पत्राणि वरुणानि फलानि च । कासश्वासकफष्ठीवहिक्कारोचकपीनसान् ।। सुमनायाश्च पत्राणि पटोलारिष्टयोस्तथा ॥ ६। सेर कटेलीको कूट कर ३२ सेर पानी में |
द्वे हरिद्रे मधृच्छिष्टं मधुकं तिक्तरोहिणी। पकावें और ८ सेर रहने पर छान लें। तत्पश्चात् |
मनिष्ठा चन्दनोशीरमुत्पलं शारिखे त्रित् ।। उसमें २ सेर घी तथा निम्न लिखित कल्क मिला
एतेषां कार्षिकैर्भागघृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ कर पकावें और पानी जलने पर घी को छान लें ।
पाठ भेद कल्क-रास्ना, धमासा, पीपलामूल, पीपल, ४ सु. सं. में " प्रियंगुः कुशमूलं च निचुगजपीपल, चीतामूल, संचल ( काला नमक), | लस्य त्वगेव च " यह पाठ अधिक है। जवाखार और पीपलामूल १-१॥ तोला लेकर | १ तरुणानि फलानि च । पानीके साथ बारीक पीस लें।
२ व. से. में “ मंजिष्ठा....त्रिवृत्" के इसके सेवनसे कास, श्वास, रक्त थूकना, | स्थान पर प्रियङ्ग कुशमूलश्च निचुलस्य त्वगेव च " हिक्का, अरुचि और पीनसका नाश होता है। यह पाठ है (मात्रा-१-२ तोला ।)
३ स्नेहप्रस्थं।
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( ब्रण में लगाना चाहिये । ) (९३२२) कर्पूरसर्पिः
परिशिष्ट
घृतप्रकरणम् ]
दुष्टव्रणप्रशमनं तथा नाडीविशोधनम् । सघ छिन्नव्रणानां च करञ्जाद्यमिहेष्यते ॥ कल्क करञ्जके पत्ते, बरने के फल, (पाठा(९३२३) कहारां घृतम् तर के अनुसार करके कोमल फल), चमेली के पत्ते, (बृ. यो. त. । . ९८; व. से. ; र. र. । गुल्मा.) पटोलपत्र, नीमके पत्ते, हल्दी, दारूहल्दी, मोम, मुलैठी, कुटकी, मजीठ, सफेद चन्दन, खस, नीलो - कडारमुत्पलं पद्मं कुमुदं मधुयष्टिका । त्पल, दो प्रकारकी सारिवा और निसोत (पाठान्तर के पक्त्वाम्बुनाथ तत्त्रवार्थ जीवनीयोपकल्कितम् ॥ अनुसार मजीठसे निसोत तक की सात चीजों के घृतं पक्त्वा नवं पीतं रक्तपित्तास्रगुल्मनुत् । स्थानमें फूल प्रियंगु, कुशकी जड़ और हिज्जल | दाहतृष्णाज्वरच्छर्दियोनिदोषहरं परम् ॥
वृक्षकी छाल; सुश्रुतके मतानुसार मजीठ आदि सातों द्रव्य भी तथा ये तीनों चीजें भी ) ११- १। तोला लेकर पानी के साथ बारीक पीस लें ।
२ सेर घीमें यह कल्क ( और ८ सेर पानी ) मिलाकर पानी जलने तक पकावें और फिर छान लें।
यह घृत दुष्ट व्रणको नष्ट करता और नाड़ी ( नासूर ) को शुद्ध कर देता है तथा तुरन्तके छिन्न मणों में भी उपयोगी है ।
( रा. मा. | व्रणा. २५)
सद्यः कर्पूरस पूरितो वस्त्रयन्त्रितः ॥ शस्त्रमहारः संरोहत्यपूयः पाकवर्जितः ॥
शस्त्राघात ( चाकू, छुरी आदिके घाव ) में कपूर मिला हुवा घी भर कर वस्त्र बांध देनेसे घाव बिना पके और बिना पीप पड़े पक जाता है । ( घी ५ तोले कपूर १ तोला । )
कल्याणघृतम् (सु. सं. )
प्र. सं. ५२२१ “महाकल्याणघृत" देखिये ।
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कल्याणघृतम् (महा)
महा कल्याण घृतम् देखिये ।
५५७
लाल और सफेद रंग मिश्रित कमल, नीलोत्पल, सफेद कमल, कुमुद और मुलैठी समान भाग मिलित २ सेर लेकर सबको कूट कर १६ सेर पानी में पकावें और ४ सेर रहने पर छान लें।
इस क्वाथमें १ सेर नवीन घी और "जीवनीय गण १ का १० तोले कल्क मिलाकर पकांवें और पानी जल जाने पर घीको छान लें।
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यह घृत रक्तपित्त, रक्तगुल्म, दाह, तृष्णा, ज्वर, छर्दि और योनिदोषको नष्ट करता है । ( मात्रा - २ तोले 1 ) (९३२४) काकोल्यादिघृतम्
(व. से. । बालरोगा . ) क्षीरवृक्षकषाये तु काकोल्यादौ गणे तथा । विपक्तव्यं घृतञ्चापि पानीयं पयसा सह ॥
क्षीरवृक्ष ( अश्वत्थ - पीपल ) की २ सेर छालको कूट कर १६ सेर जलमें पकावें और ४ सेर रहने पर छान लें । एवं इसमें १ सेर घी तथा
१ जकारादि कषाय प्रकरणमें देखिये ।
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५५८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
-
१० तोले " काकोल्यादि गण " का क्वाथ (९३२६) कारस्करघृतम् मिला कर पानी जलने तक पकायें और फिर छान लें। (वै. म. र. । पट. ११)
इसे दूधमें मिलाकर बालकको पिलाना चाहिये। कारस्करास्थिनियंहे तत्करकेन हविः भृतम् ।
( यह धृत स्कन्दापस्मार में उपयोगी है। गव्यं वा माहिषं प्रात्नं लिप्त हन्ति विपादि मात्रा १ से ३ माशे तक ।) (९३२५) काजीषट्पलघृतम्
___ कुचलेके क्वाथ और कल्कसे सिद्ध गाय या ( भा. प्र. म. सं. २ ; व. से. । आमवाता. ;
भैंसका पुराना घी लगाने से विपादिका ( बिवाई )
का नाश होता है। वृ. यो. त. । त. ९३ ; वृ. मा. ; धन्व. ;
(कुचला २ सेर, पानी १६ सेर, पकाकर च. द. । आमवाता.)
| ४ सेर शेष रखें। घी १ सेर, कुचलेका कल्क हिज त्रिकटुकं चव्यं माणिमन्थं तथैव च । १० तोले ।) फरकान्कृत्वा तु पलिकान्घृतपस्थं विपाचयेत् ॥ (९३२७) काश्मर्यादिघतम् भारनालाढकं दया तत्सर्जिठरापहम् ।
(व. से. । स्त्रीरोगा.) शूलं विवन्धमानाहमामवातकटिग्रहम् ॥ काश्मरीकटमक्याचे सिद्धमुत्तरवस्तिना । माशयेद् ग्रहणीदोष मन्दाग्नेर्दीपनं परम् ॥ रक्तयोन्यरजस्का याऽपुत्रा तासां हितं घृतम् ।।
हींग, सोंठ, मिर्च, पीपल, चव्य और संधा खम्भारीकी छाल और कुड़की छाल १-१ नमक; इनका चूर्ण ५-५ सोले लेकर पानीके साथ सेर लेकर दोनोंको एकत्र कूटकर १६ सेर पानीमें पीसकर कल्क बनावें ।
पकावें और ४ सेर रहने पर छान लें । इस क्वाथ ____२ सेर घी में यह कल्क और ८ सेर आरनाल
में १ सेर घी मिलाकर पकावें । (काजी) मिला कर काजी जलने तक पकावे और इसकी उत्तर वस्ति रक्तयोनि, अरजस्का योनि फिर न लें।
और अपुत्रा योनि में उपयोगी है। यह घृत उदररोग, शूल, विबन्ध, अफारा, (९३२८) काश्मर्यादितम् (२) आमवात, कटिग्रह और ग्रहणीदोषको नष्ट तथा । (व. से. । खोरोगा.) अग्मिको दीप्त करता है।
काश्मय॑ वटशृङ्गानि पृथग्दन्त्यास्तथैव च । (मात्रा-१ से २ तोले तक ।)
घृतं सिद्धं भवेच्छेष्ठं शोणितपदरे पिबेत् ॥
खम्भारी की कोंपल, बड़के अंकुर और दन्तीमूल; १काकोल्यादिगण-काकोली, क्षीरकाकोली, |
| पृथक् पृथक् ( या सम्मिलित ) इन ओषधियों के जीवक, ऋषभक, मुद्गपणी, माषपर्णी, मेदा, महा |
कल्क और क्याथ से सिद्ध घृत पीनेसे रक्तप्रदर मैदा, गिलोय, काकड़ासिंगी, बंसलोचन, पाख, नष्ट होता है। पुण्डरिया, ऋद्धि, वृद्धि, मुनक्का, जीवन्ती, मुलैठी। (मात्रा-१ से २ तोले तक।)
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घृतप्रकरणम् ]
__
परिशिष्ट ।
५५६
(९३२९) काश्मर्यादितम् (३) घी में कसौंदी का, बैंगनका और भंगरे का
( व. से. । स्त्रीरोगा.) | स्वरस मिलाकर ( या इनके समान भाग मिलित काश्मरी बदरानन्ता गुड़ची मकैः श्रतम। । ४ सेर स्वरसमें १ सेर घी पकाकर ) दूधके साथ आजेन पयसा सिद्धमेतद घृतमसग्दरे ॥ पीनेसे पैत्तिक स्वरभंग नष्ट होता है। ___ कल्क-खम्भारी की छाल, बेर, अनन्तमूल, (९३३२) कुङ्कुमादिघृतम् गिलोय और मुलैठी; इनके ४-४ तोले चूर्णको
( भै. र. । क्षुरोगा, पानीसे पीस लें।
कुङ्कुमेन निशाभ्याञ्च कणया वह्निवारिणा । ____२ सेर घीमें यह कल्क और ८ सेर बकरीका घृतं पक्वं निराकुर्यानीलिकां मुखदृषिकाम् ॥ दूध मिलाकर पकावें । जब दृध जल जाए तो सिध्मादींस्त्वगादान् सर्वान् व्याधीन कफसमुघो को छान लें।
द्भवान्। यह घृत पीने से रक्त प्रदर नष्ट होता है ।
शिरोऽत्ति नाशयेच्चाश लावण्यं जनयेत्परम् ।। ( मात्रा-२ तोले ।)
जगतामुपकाराय दस्राभ्यां विहितन्त्विदम् । (९३३०) कासमर्दादिघृतम् (१) पानेऽभ्यङ्गे तथा नस्ये युक्तथा योज्यं विचक्षणः।। (वृ. यो. त. । त. ८६)
कल्क-केसर, हन्दी, दारुहल्दी और पीपल; स्वरोपघातेऽनिलजे भुक्तोपरि घृतं पिबेत् ।
इनका ५-५ तोले चूण लेकर पानीके साथ पीस लें। मरीचचूर्णसहितं मरुत्स्वरहतिपणुत् ।।
क्वाथ-र चौतामलको ३२ सेर पानीमें कासमर्दग्सं दत्त्वा भार्गीकल्कं शनैः शनैः।
। पका और ८ सेर रहने पर छान लें। सिद्ध सर्पिहन्ति पीतं स्वरभेदं मरुद्भवम् ॥
२ सेर घीमें यह कल्क और क्वाथ मिलाकर भोजनोपरान्त काली मिर्चका चूर्ण मिलाकर घी मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाए तो घी पीनेसे वातज स्वरभंग नष्ट होता है।
को छान लें।
___ यह घृत नीलिका, मुखदूषिका, सिध्मादि त्वग्रोग, मसौंदी के ४ सेर स्वरसमें १ सेर घी और कफन रोग और शिरपोडाको शीघ्र ही नष्ट कर देता १० तोले भरंगीका कल्क मिलाकर मंदाग्नि पर है तथा अत्यन्त सौन्दर्यवर्द्धक है। पकावें । जब पानी जल जाय तो घी को छान लें। इसे पिलाना चाहिये तथा अभ्यंग और नस्य
यह घो पीनेसे वातज स्वरभंग नष्ट होता है। द्वारा यथावसर प्रयुक्त करना चाहिये । ( मात्रा-१ से २ तोले । )
(९३३३) कुटजादिघृतम् (९३३१) कासम दिघृतम् (२)
(ग. नि. । अतिसारा. २) (ग. नि. । स्वरभंगा. १२)
प्रयोग सं. ७७५३ षडङ्ग घृत देखिये । इस कासमर्दकवार्ताकमार्फवस्वरसैर्युतम् ।। में उसकी अपेक्षाक्षीरानुपानं चैतेषु पिबेत्सपिरतन्द्रितः।। " कुटज क्वाथ तुल्योऽत्र दाडिमस्य रसो मतः "
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५६०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
यह पाठ अधिक है। अर्थात् ग. नि. के। कुलथी, दशमूल और भरंगी १-१ सेर लेकर मतानुसार उसमें घीके बराबर कुड़ेकी छालका क्वाथ | सबको एकत्र कूटकर ३२ सेर पानीमें पकावें और और उतना ही अनारका रस भी डालना चाहिये । ८ सेर रहने पर छान लें । (९३३४) कुटजाधं घृतम्
___ इस क्वाथ में २ सेर घी, ४ सेर दूध और (व. से. । अतिसारा.)
निम्नलिखित कल्क मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें। कुटजस्वक्फलं लोधं कृष्णादावीमहौषधम । जब पानी जल जाए तो घीको छान लें। कटुका चेति तैः सिद्धं घृतं सर्वातिसारनुत् ॥
कल्क-पीपल, पीपलामूल, चय, चीता, कुडेकी छाल, इन्द्रजौ, लोध, पीपल, दारु- सोंठ, और जवाखार ५-५ तोले लेकर पानी से हल्दी, सोंठ और कुटकी; इनके क्वाथ और कल्क बारीक पीस लें। से सिद्ध धृत समस्त प्रकारके अतिसारोंको नष्ट करता है।
यह घृत कास, श्वास, हिचकी, विषमज्वर,
अर्श, हृद्रोग, ग्रहणी, अरुचि, पीनस, गुल्म और (क्वाथ ४ सेर, कल्क १० तोला, घी १ सेर )
प्लीहा को नष्ट तथा बल, वर्ण और अग्नि की (९३३५) कुलित्थषट्पलघृतम्
वृद्धि करता है। (व. से. । श्वासा; र. र. । हिक्काश्वासा.)
( मात्रा-१ से २ तोले तक । ) कुलित्यदशमूलश्च तथा ब्राह्मणयष्टिका । प्रस्थं प्रस्थश्च संगृह्य वारिद्रोणेन साधयेत् ॥ (९३३६) केतकीघृतम् पादशेषे रसे तस्मिन् घृतप्रस्थं विपाचयेत् ।
(वै. म. र. । पट. ७) क्षीरकं द्विगुणं दत्वा कलिकतैः पञ्चकोलकैः ॥ सक्षारैः पलिकैः सर्वैः शनैर्मद्वग्निना पचेत् ।।
" केतकीस्वरसे सिद्धं तत्परोहायकल्कितम् । कासश्वासहरश्चैव हिक्काञ्च विषमज्वरम् ॥
| सर्पिः पीतं दिनस्यादौ मूत्रकृच्छू जयेद्रुतम् ॥ हन्यात्तथार्शीग्रहणीहृद्रोगारुचिपीनसान् । - केतकी के स्वरस और उसके अंकुरों के अन गुल्मं प्लीहामयं हन्याद्रलवर्णाग्निवर्धनम् ॥ भाग के कल्क से सिद्ध घृत प्रातःकाल पीनेसे अग्निसन्दीपनश्चैव कौलित्थं षट्पलं घृतम् ॥ मूत्रकृच्छ्र शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
इति ककारादिघृतप्रकरणम्
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५६१
तैलपकरणम् ]
परिशिष्ट
अथ ककारादितैलप्रकरणम् (९३३७) कटुकतुम्ब्यादितैलम् | मखाने का क्षार समान भाग लेकर एकत्र मिलाकर
( रा. मा. । कर्णरोगा.) कल्क बनावें। कटुकतुम्बकबीजसमुद्भवं
इस कल्कसे सिद्ध तैल पीनेसे कफवातज खरजलेऽष्टगुणे सविषं शृतम् ।
प्लीहाका नाश होता है। भवति तैलमलङ्करणोचितं
(तैल १ सेर; कल्क १० तोले; पानी ४ श्रवणपाशविद्धिविधायकम् ॥
सेर; एकत्र मिलाकर पानी जलने तक पका ।) कड़वी तूंबीके बीजोंका तेल ४० तोले, गधेका
(९३४०) कनकसुन्दरतैलम्
(यो. त. । त. ७५) मूत्र ४ सेर (३२० तोले) और बछनाग विषका चूर्ण ५ तोले ले कर सबको एकत्र मिलाकर पकावें और
रसे कनकसम्भवे कटुकतैलमापाचयेद्वचामूत्र जल जाने पर तेलको छान लें ।
कनकदुग्धिकारजनिनागरैः कल्कितैः । इसकी मालिश से कर्णपाली बढ़ती है ।
इदं कनकसुन्दरं भवति दुष्टसंस्वेदजित्स(९३३८) कटुरोहिण्यादितैलम्
__ मस्तपवनामयप्रणुदनल्पकान्तिपदम् ॥
___ कल्क-बच, धतूरा, दुद्धी ( अथवा धतूरे (वै. म. र. । पट. २)
और दुद्धीके स्थानमें स्वर्णक्षीरी), हल्दी और चूर्णन कटुरोहिण्याः पर्वा छिनरोहजैः।
सोंठ सभान भाग मिलित १० तोले लेकर पानी के स्वरसैः सहदेव्या वा सिद्धं तैलं ज्वरं जयेत् ।। | साथ पीस लें। ___कुटकी के कल्क से या गिलोय के पत्तो के १ सेर सरसों के तेलमें यह कल्क और ४ कल्क से अथबा सहदेवी के स्वरस के साथ सिद्ध सेर धतरे का रस मिला कर रस जलने तक पकायें। किया हुवा तैल ज्वर को नष्ट करता है ।
इसकी मालिश से दुष्ट स्वेद और समस्त कटवरतेलम्
वातज रोगों का नाश होता तथा कान्ति की वृद्धि (भै. र. । ज्वरा.)
होती है। प्र. सं. ७७५८ " षड्गुणतक तैलम् " (९३४१) कम्पिल्लकतैलम् देखिये ।
(व, से. । व्रणा.; ग. नि. । विसर्पा.; च. (९३३९) कदल्यादिक्षारतैलम् सं. । चि. अ. ११ विसर्पा.) ( वा. भ. । चि. अ.१५ उदरा.; व. से. । उदरा.) कम्पिल्लक विडङ्गानि त्वचं दास्तिथैव च। कदल्यास्तिलनालानां क्षारेण क्षुरकस्य च । पिष्ट्वा तैलं विपक्तव्यं व्रणग्रन्थिहरं परम् ॥ तैलं पक्वं जयेत्पानात्प्लीहानं कफवातजम् ॥ १ च. सं. में कल्क द्रव्यों में करन--फल
केलेका क्षार, तिलनाल का क्षार और ताल- अधिक हैं।
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५६२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
___ कमीला, बायबिडंग और दारुहल्दी की छाल करनकी छिलके रहित मांगीको पीस कर उसमें का चूर्ण समान भाग मिलित १० तोले ले कर थूहरके पत्तों का रस मिला कर मर्दन करें और उसे पानी के साथ पीस लें । तदनन्तर १ सेर तेल में यह धूप में रख दें। धूपकी गरमी से जो तेल निकले कल्क और ४ सेर पानी मिला कर पकायें। उसे एकत्रित कर लें । जब पानी जल जाए तो तेलको छान लें।
इसे पीनेसे अन्तर्विदधि और लगानेसे बाह्य यह तैल व्रण और ग्रन्थि को नष्ट करता है। | विद्रधि का शीघ्र नाश होता है । (९३४२) कम्पिल्लकाद्यतेलम् ( चूर्णको अधिक गोला नहीं करना चाहिये
और चीनीके पात्रमें भर कर उसको तिरछा करके (व. से. । विस्फोटा.; वृ. यो. त । त. १२५ )
| इस प्रकार रखना चाहिये कि जिस से तेल बह कर कम्पिल्लकं विडङ्गानि वत्सकं त्रिफलां बलाम् ।
चूर्ण से पृथक् हो जाए। पटोळं पिचुमन्दश्च लोभ्रं मुस्तप्रियङ्गुकम् ॥ धातकी खदिरं सर्जमेला चागुरु चन्दनम् ।
(९३४४) करवीरादितैलम् पिष्ट्वा तैलं भवेत्साध्यं तत्तैलं व्रणरोपणम् ।।
(वै. म. र. । पटल ११) - कल्क-कमीला, बायबिडंग, कुड़ेकी छाल,
रक्तकरवीरमुकुलान्यादाय शतं शतेन मरिचेन । हर, बहेड़ा, आमला, खरैटी, पटोल, नीमकी छाल,
पिट्वा धृतं तिलोत्थं कुडवं पामां हरेल्लेपात् ॥ लोध, मोथा, फूलप्रियंगु, धायके फूल, खैरसार, राल,
| लाल कनेर की कली १०० नग और काली इलायची, अगर और सफेद चन्दन, इनका समान | मिर्च १०० नग लेकर एकत्र पीस लें तथा ४० भाग मिलित चूर्ण २० तोले ले कर सबको पानीके | तोले तिलके तेलमें यह कल्क ( पिट्टी) और २ साथ पीस लें।
सेर पानी मिला कर पकावें । जब पानी जल जाय २ सेर तिलके तेलमें यह कल्क और ८ सेर |
तो तेल को छान लें। पानी मिला कर पकावें | जब पानी जल जाए तो
यह तेल लगाने से पामा ( खुजली ) नष्ट हो तेलको छान लें।
जाती है। इसे लगाने से व्रण भर जाते हैं।
(९३४५) करवीराधं तेलम् (१) (९३४३) करञ्जतैलम्
(२. र. । नासा.) (वै. म. र. । प. ८) करवीरस्य नक्तस्य मालत्यास्फोतयोरपि । करनास्थीनि सम्पेष्य वितुपीकृत्य चूर्णयेत् । पुष्पकल्कैः शृतं तैलं नासाझे नाशनं परम् ॥ स्नुग्दलस्वरसेनैव मृदित्वा रविसन्निधौ ॥ | कनेर, करञ्ज (डहर करन), मालती चमेली) तैलं गृहीत्वा तत्तैलं बाथान्तरुपयोजयेत् । और आस्फोता ( कचनार ); इनके फूल २॥ २॥ अन्तर्विद्रधिमाश्वेव नाशयेदाह्यजं तथा ॥ तोले ले कर पानी के साथ पीस लें १ सेर तेलमें यह
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तैलमकरणम् ]
परिशिष्ट
५४३
कल्क और ४ सेर पानी मिला कर पकावें । जब | कटकटाना छोड़ देता है। पानी जल जाए तो तेल को छान लें।
(कल्क १० तोले, तेल १ सेर, दूध ४ सेर) यह तैल नासार्श को नष्ट करता है।
(९३४८) कर्कोटका तैलम् (९३४६) करवीराचं तैलम् (२) ।
(धन्व. व्रणा.) (पृ. यो. त. । त. १४३; शा. ध. । ख. २ अ.
| वन्ध्याकर्कोटकी पाठा व्याघ्री कुष्ठपटोलिका । ९; वं. से. । स्त्री.)
अकोटहस्तिपर्णी च तालगन्धकसैन्धवम् ।। करवीरशिफादन्ती चित्रको धातकीति च ।
| मभिष्ठाकरवीरं च निशा हिङ्गु सुवर्चला । रम्भाक्षारोदके तैलं प्रशस्तं लोमशातनम् ॥ वचासिन्दरतल्यांशं जलेन सह पेषयेत् ।। ____कल्क---कनेरकी जड़, दन्तीमूल, और धाय
लामो के फूल समान भाग मिलित १० तोले ले कर
| पचेत्तैलावशेषं च लेपाक्षुष्टत्रणापहम् ॥ पानीके साथ पीस लें। १ सेर तैलमें यह कल्क और ४ सेर केलेका
___ कल्क-बांझ ककोड़ेकी जड़, पाठा, कटेली, क्षारजल मिलाकर पकावें जब पानी जल जाय तो
कूठ, पटोल, अंकोल, हस्तिपर्णी ( मूर्वा ), हरताल,
गंधक, सेंधा नमक, मजीठ, कनेर, हल्दी, हींग, तेल को छान लें।
सुवर्चला ( हुलहुल ), बच और सिन्दूर समान इसे लगाने से बाल गिर जाते हैं।
भाग मिलित २० तोले लेकर पानी के साथ (९३४७) कर्कटकादितैलम्
पीस लें। (वृ. मा. । बालरोगा.)
२ सेर तेल में यह कल्क और ८ सेर पानी पिष्ट्वा कर्कटकं तैलं सक्षीरं साधितं तु तत् । मिला कर पानी जलने तक पकायें। पादाभ्यङ्गेन बालस्य दन्तध्वनिनिवारणम् ॥
इसे लगानेसे दुष्ट व्रण नष्ट होते हैं। काकडासिंगी के कल्क और दूधके साथ सिद्ध तैल बालकके पैरोंमें लगाने से बह नोंदमें दांत __(९३४९) कर्णामृततैलम्
१ शा. घ. में धायके फूलोंकी जगह निसोत ! ___ (र. सं. क । उ. ५; यो. त. । त. ७०) और कड़वी तोरी है। तथा बंगसेनमें तीन प्रकारकी रामठं निम्बपत्राणि फेनः सागरसम्भवः । तोरी लिखी है
एतानि समभागानि तद्वद्देयं सितं विषम् ।। करवीरशिखादन्ती त्रिवृत्कोशातकीफलम् । गोमूत्रेण समायुक्तं कटुतैलं विपाचितम् ।
(शा. ध.) । तेनैव पूरयेत्कणे नरकुअरवाजिनाम् ॥ करवीरशिखादन्ती त्रीणि कोशातकानि च । कर्णरोगं निहन्त्याशु लेपनाच्छिरसो गदान् ।
(वं से.) ' नाम्ना कर्णामृतं तैलं ब्रह्मणा निर्मितं स्वयम् ॥
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५६४
हिममधुक मधूकसेव्यगर्भे
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कल्क - हींग, नीमके पत्ते, समन्दरझाग और सफेद विष ( दुधिया वछनाग ) समान भाग मिलित १० तोले लेकर पानी के साथ पीस लें
1
१ सेर सरसों के तेलमें यह कल्क और ४ सेर गोमूत्र मिला कर पकावें । जब मूत्र जल जाय तो तेल को छान लें
I
इसे कान में भरने से मनुष्य, हाथी और घोड़े के कर्णरोग शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं तथा शिरमें लगाने से शिरके रोग नष्ट होते हैं । (९३५०) कर्पूरतैलम् ( वै. म. र. । पटल १६ )
भारत - भैषज्य - रत्नाकरः
जगलवारससाधितं तिलोत्थम् ।
शिरसि रुजमपाकरोति कण्डूं कचशतनं च करोति हस्तकेशम् ॥
कल्क -- कपूर, मुलैठी, महुवा और खस इनका चूर्ण २॥ -२ ॥ तोले लेकर पानी के साथ पीस लें ।
नागवेल (पान) के ४ मेर रसमें यह कल्क और १ सेर तिलका तेल मिलाकर पकायें। जब पानी जल जाए तो तेलको छान लें।
इस तेलकी मालिश से शिरपोड़ा और शिरकी खाज का नाश होता तथा बालोंका गिरना बन्द हो जाता है
( कपूर को तेल छाननेके पश्चात् मिलाना चाहिये ।) (९३५१) कर्पूरादितैलम् ( वै. म. र. । पट. १६ ) कुष्ठोद्भवं व्रणमपोहति शीघ्रमेव कर्पूरतैलमसकृत् पिचुना निषिक्तम् ।
[ ककारादि
सारुष्करं तिलमहर्मुखभक्षितं च भक्तिर्यथा तिमिरवैरिपदार्पिता तम् ॥
रुई से कपूरका तेल लगाने से तथा प्रातः काल शुद्ध भिलावा और तिल मिला कर खाने से एवं सूर्यकी भक्ति करनेसे ( सूर्य किरणों में बैठने से ) कुष्ठवण नष्ट हो जाते हैं ।
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(९३५२) कर्पूराद्यं तैलम् (ग. नि. । तैला. २ )
कर्पूरचन्दनवचासुरदारुमूर्वा
गन्धर्वमूलरजनीद्वय सिन्धु जातैः ।
मेदात्रिकटु पुष्करमूलकुष्ठरास्नाच्या सुहरितालककुङ्कमैश्च ॥ पथ्याक्षका स्थितगरागरुसारमेष
शृङ्गजटायुतैः खलु कल्कितैश्च । गोदुग्धयुक् कटुकतैलमिदं विपक्
ख्यातं निहन्ति सहसा विविधा रुजश्च ॥ कल्क -- कपूर, सफेद चन्दन, बच, देवदारु, मूवो, अरण्डमूल, हल्दी दारूहल्दी, सेंधानमक, मेदा, महामेदा, सोंठ, मिर्च, पीपल, पोहकरमूल, कूठ, रास्ना, हरिताल, केसर; हर्रकी गुठलीकी माँगी, बहेड़ेकी मोंगी, तगर, काला अगर, मेढासिंगी और जटामांसी; इनका समान भाग मिलित चूर्ण २० तोले ले कर पानी के साथ पीस लें ।
२ सेर सरसों के तेल में यह कल्क और ८ सेर गोदुग्ध मिला कर पकावें । जब दूध जल जाय तो तेल को छान लें।
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यह तैल विविध प्रकारकी पीड़ाओं को तुरन्त कर देता है ।
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तैलपकरणम्
परिशिष्ट
५६५
( कपूर, तेल छानने के पश्चात् मिलाना यह तैल ( पीने, लगाने और नस्य द्वारा चाहिये ।)
| प्रयुक्त करने से ) अपची (गंडमाला भेद ) को (९३५३) काकजङ्घातैलम्
नष्ट करता है। ( ग. नि. | कर्णरोगा. ३)
(९३५६) काञ्जिकादितैलम् समूलकाकजनया रसस्तैलेन पाचितः ।
(वै. म. र. । पट. १२) तेन पूरितकर्णस्य बाधिर्य शाम्यति ध्रुवम्॥ धान्याम्लमिश्रं चिश्चाम्लं पटुतैलमिदं शृतम् ।
मूलसहित काकजंघाका रस और तेल एकत्र | लिम्पेद्वाताम्रनाशाय मृगनाभिमथापि वा ॥ मिलाकर पकाकर कानमें डालनेसे बधिरता अवश्य कांजी ४ सेर, तेल १ सेर तथा इमलीका सत नष्ट हो जाती है।
(टाटरी) और सेंधा नमक ५-५ तोले लेकर सबको
एकत्र मिलाकर पकावें । जब कांजी जल जाए तो (९३५४) काकमाच्यादितैलम्
तेल को छान लें। ( र. र रसा. खं । उपदेश ५) काफमाचीयबीजानि समाः कृष्णतिलास्तथा।।
इसे लगानेसे वातरक्तका नाश होता है। तत्तैलं ग्राहयेयन्त्रे तन्नस्यं केशरजनम् ॥
कस्तूरीका लेप करनेसे भी वातरक्तका नाश
| हो जाता है। मकोयके बीज और काले तिल समान भाग लेकर एकत्र मिलाकर कोल्हू (घानी) में पिलवाकर
(९३५७) कारस्करादितैलम् तेल निकलवावें।
(वै. म. र. । पटल १२) इसकी नस्य लेनेसे बाल काले हो जाते हैं। कारस्करस्याङ्घिचतुःपलेन (९३५५) काकादन्यादितैलम्
क्षीराढके कल्फितलोडितेन । (व. से. । गण्डमाला.) प्रस्थं पचेत्तैलमपाकरोति काकादनीशिफाकल्कैनिर्गुण्डयाः स्वरसैः शृतम् ।
तद्वातरक्तं न तु तुल्यमस्य ।। आरनालैश्च कटुकं तैलं स्यादपचीहरम् ॥
२० तोले कुचलेकी जड़को पीसकर २ सेर
तेलमें मिलावें और उसमें ८ सेर गोदुग्ध मिलाकर चौटलो ( गुञ्जा ) की जड़का कल्क १०
दूध जलने तक पकावं। तोले, संभालूका रस २ सेर, कांजी २ सेर और सरसोंका तेल १ सेर लेकर सबको एकत्र मिला यह तैल वातरक्तको नष्ट करता है । वातरक्त कर पकावें । जब पानी जल जाए तो तेलको | के लिये इससे उत्तम अन्य कोई प्रयोग नहीं है। छान लें।
| ( इसे रोग स्थान पर लगाना चाहिये ।)
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
(९१५८) कार्पासादितैलम् (वै. म. र. 1 पट. ११ ) मूलत्वक्पत्रपुष्पाणां कार्पासस्य रसे शृतम् । तैलं कपालजान् कुष्ठान् जयेत्तक्राम्लसाधितम् ॥
कपास की जड़, छाल, पत्र और पुष्पका स्वरस (या क्वाथ) २ सेर, खट्टा तक (छाछ) २ सेर तथा तेल १ सेर लेकर सबको एकत्र मिलाकर पकावें और जब तेलमात्र शेष रह जाए तो उसे छान लें।
यह तैल शिरके कुटको नष्ट करता है । (९३५९) कालानुसार्यादितैलम्
(सु. सं. । चि. अ. २ व्रणा. ) कालानुसायला जातीचन्दनपद्मकैः । शिलादार्व्यमृतातुत्थैस्तैलं कुर्बति रोपणम् ॥
कल्क —— तगर, अगर, इलायची, चमेलीके पत्ते, सफेद चन्दन, पद्माक, शिलाजीत, दारूहल्दी, गिलोय और नीलाथोथा समान भाग मिलित तोले लेकर पानी के साथ बारीक पीस लें ।
१ सेर तेलमें यह कल्क और ४ सेर पानी मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाए तो तेलको ले
छान
1
यह तेल लगाने से घाव भर जाते हैं । (९३६०) कासीसादितैलम्
( र. चि. म. । स्त. ९ ) कासीसं हरिताळं च सैन्धवं हयमारकः । विडङ्गं पूतिकं चैव धनं जम्बुश्च दन्तिका ॥ चित्रकार्कस्नुहीदुग्धं तैलं पक्वं समैश्च तैः अभ्यञ्जनेन तत्सद्यश्चाशांसि शातयेद्ध्रुवम
[ ककारादि
कल्क --- कसीस, हरताल, सेंधा नमक, कनेरकी जड़, बायबिडंग, पूतिकरञ्ज, मोथा, जामनकी छाल, दन्तीमूल, चीतामूल, आकका दूध और थूहर का दूध समान भाग मिलित १० तोले लेकर पानी के साथ बारीक पीस लें ।
१ सेर तेलमें यह कल्क और ४ सेर पानी मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाए तो तेलको छान लें।
इसे लगाने से अर्शके मस्से गिर जाते हैं। (९३६१) कासीसा तैलम् (१) ( वृ. यो. त. । त. १४३ ; वृ. मा. स्त्रीरोगा. ; यो. चि. म. । अ. ६ ; स्त्री. भै. र. । खी. )
व. से. ।
च. द. ।
;
कासीसतुरगगन्धासावरेगजपिप्पलीविपक्वेन । तैलेन यान्ति वृद्धिं स्तनकर्णवराङ्गलिङ्गानि ॥
कल्क – कसीस, असगंध, लोध ( पाठान्तर के अनुसार सारिवा) और गजपीपल समान भाग मिलित १० तोले लेकर पानीके साथ पीस लें ।
१ सेर तेलमें यह कल्क और ४ सेर पानी मिलाकर पकायें | जब पानी जल जाए तो तेलको छान ले 1
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इसकी मालिश से स्तन, कान, भग और लिंग बड़े होते हैं ।
(९३६२) कासीसायं तैलम् (२) (वं. से. । अर्शो ; ग. नि. । परिशि. तैला. ) काशीसदन्तीसिन्धूत्थ करवीरानलैः पचेत् । तैलमर्क पयोन्मिश्रमभ्यङ्गात्पायुकी लजित् ॥ १ च. द. में 'शारिवा' पाठ है ।
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सेलमकरणम् ]
कल्क ---- कसीस, दन्तीमूल, सैंधा नमक कनेरकी जड़ और चीतामूल २-२ तोले लेकर पानी के साथ बारीक पीस लें ।
१ सेर तेलमें यह कल्क और ४ सेर आकका दूध मिलाकर पकावें । जब दूध जल जाए तो तेलको छान लें।
र. र. व. से । नाड़ीबणा. )
;
परिशिष्ट
मिलाकर पकावें । जब क्वाथ जल जाए तो तेल को छान लें ।
इसे लगाने से अर्श मस्से नष्ट होते हैं। (९३६३) कुम्भीकाद्यं तैलम् (भै. र. ; भा. प्र.; वृ. मा. ; च. द. ; धन्व. ;
कुम्भीकखर्जूरकपित्थ बिल्ववनस्पतीनान्तु शलादुवगैः ।
कृत्वा कषायं विपचेतु तैल
मावाप्य सुस्ता सरलयितुम् ॥ सौगन्धिका मोचरसाहिपुष्पा
लोधाणि वा खलु घातकीञ्च । एतेन शल्यप्रभवा हि नाडी रोहेद् व्रणो वै
सुखमाशु चैव
Il क्वाथ - कुम्भी ( सुलतान चम्पा), खजूर, एवं कैथ और जेल के कच्चे फल समान भाग मिलित २ सेर लेकर सबको एकत्र कूटकर १६ सेर पानी में पकावें और ४ सेर रहने पर छान लें।
कल्क -- नागरमोथा, सरल काष्ठ, फूलप्रियंगु, सुगन्धतृण (अथवा अनन्त मूल), मोचरस, नागकेसर, लोध और धायके फूल समान भाग मिलित १० तोले लेकर पानी के साथ बारीक पीस लें ।
१ सेर तेलमें उपरोक्त कल्क और क्वाथ
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५६७
इसे लगाने से शल्य - जनित नाडी व्रण भर जाता है ।
(९३६४) कुष्ठकालानलतैलम् (१) (ग. नि. । तैला. २ )
क्षारद्वयं कटुत्रीणि पञ्चैव लवणानि च । वचा कुठे हरिद्रे द्वे विडङ्गं चित्रकं विषम् ॥ हरितालं शिलागन्धं सिन्दूरं तुत्थखर्परम् । रामटं च रसोनं च मदनं च रसाञ्जनम् || एतत्सवं समांशं च स्तुत्यर्कपयसा प्लुतम् । षड्गुणं सार्षपं तैलं तैलान्मूत्रं चतुर्गुणम ।। सर्वं मन्दानले पक्वं ग्राह्यं तैलाव शेषकपू । हन्त्यष्टादश कुष्ठानि मांसमेदोगतानि च ॥ दुष्टणानि शातानि जीर्णनाडीव्रणानि च । हन्ति श्वित्रसाध्यं च ददुपामाविचर्चिकाः एतत्तैलं सदाऽभ्यङ्गात्कुष्टव्याधिहरं नृणाम् ॥
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कल्क --- जवाखार, सज्जीखार, सोंठ, मिर्च, पीपल, सेंधा नमक, सञ्चल ( कालानमक ), काच लवण, विड लवण, सामुद्र लवण, बच, कूठ, हल्दी, दारूहल्दी, बायबिडंग, चीतामूल, बछनाग, हरताल, मनसिल, गंधक, सिन्दूर, नीलाथोथा, खपरिया, हींग, ल्हसन, मैनफल और रसोत समान भाग मिलिट २० तोले लेकर एकत्र पीस लें और उसमें थूहर तथा आकका दूध मिलाकर लुगदी बना लें । तदनन्तर ३ सेर सरसों के तेल में यह कल्क और १२ सेर गोमूत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब जलांश शुष्क हो जाय तो तेलको छान लें।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
इसे लगाने से मांस मेदोगत अठारह प्रकारके । मनसिल, गन्धक, सिन्दूर, नीलाथोथा, खपरिया, कुष्ठ, दुष्टबण, पुराना नाडीव्रण, श्वित्र, दाद, पामा हींग, लहसन, मैनफल, रसौत, भिलावा, याबची, और विचर्चिका का नाश होता है।
चोक, कपूर, लांगली ( कलियारी )की जड़, पटोल, (९३६५) कुष्टकालानलतैलम् (२) । | हंसपादी, मालकंगनी, मुरामांसो, कमीला और खैर(यो. त. । त. ६२)
सार समान भाग मिलित २० तोले लेकर बारीक
चूर्ण बनावें और उसे स्नुही ( सेहुंड-थूहर ) के क्षारास्त्रयस्त्रिकटुकं पञ्चैव लवणानि च । वचा कुष्ठं हरिद्रे द्वे विडङ्ग चित्रकं विषम् ।।
दूध तथा आकके दूधमें मिलाकर लुगदी बना लें। हरितालशिलागन्धसिन्दूरं तुत्थरखर्परम् । तदनन्तर ३ सेर सरसोंका या विशेषतः करम रामठं च रसोनश्च मदनं च रसाधनम् ॥
| ( कळे ) का अथवा रेंडी या तिलका तेल लेकर भल्लातकं बाकुचिका चोकं कर्पूर तथा।
उसमें उपरोक्त कल्क और गाय, भैंस, घोड़ी, लागली च पटोली च हंसपादो तथैव च ॥
हथीनी, गधा, ऊंट, बकरी और भेड़में से किसी तेजनी मुरमांसी च कम्पिल्लं खदिरान्तरम् ।
एकका १२ सेर मूत्र मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावे एतच्चूर्ण समांशेन वज्यकैपयसाप्लुतम् ॥
एवं जलांश शुष्क होने पर तेलको छान लें । षड्गुणं सापं तैलं कारचं वा विशेषतः ।
__इसकी मालिशसे वातरक्त, दाद, खुजली, तैलं गन्धर्वजं वापि तिलतैलं तथैव च ॥
विचचिका; मांसमेदोगत १८ प्रकारके कुष्ठ, समस्त तैलाचतुर्गुणं मूत्रं गोमहिष्यश्वसम्भवम् ।
दुष्ट व्रण, पुराने नाड़ी ब्रण, भगंदर, अर्श, मकड़ी हस्तिगर्दभज वापि तथोष्टाजाविजं क्षिपेत् ॥
| का विष और गर्दभ जालादि का नाश होता है । सर्वमेकत्र सम्पक्वं कटाहे मन्दवह्निना।
(९३६६) कुष्ठादितैलम् तैलावशेषं सङ्ग्रह्य रुजामभ्यङ्गमाचरेत् ॥ ( वा. भ. । चि. अ. १९ कुष्ठा.) पातरक्तविनाशाय दद्रुकण्डूविचर्चिकाः । अष्टादशानि कुष्ठानि मांसदोगतानि च ॥ कुष्ठाश्वमारभृङ्गार्क मूत्रस्नुक्क्षीरसैन्धवैः। दुष्टवणानि सर्वाणि जीर्णनाडीव्रणानि च । ।
तैलं सिद्धं विषावापमभ्यगात्कुष्ठजित्परम् ॥ भगन्दरं च दुर्नामलूतागर्दभजालकम् ॥ · कूठ, कनेर, भंगरा, आककी जड़, (या दूध) एतत्तलं सदाभ्यङ्गात्सर्वकुष्ठं व्यपोहति ॥ गोमूत्र, स्नुही ( थूहर-सेंड ) का दूध और सेंधा
जवाखार, सज्जीखार, सुहागा, सोंठ, मिर्च, नमक; इनके कल्क (और ४ गुने पानी) के साथ पीपल, सेंधा नमक, सञ्चल ( काला नमक ), बिड | तैल सिद्ध करे । नमक, काच लवण, सामुद्र लवण, बच, कूठ, हल्दी, इसमें बछनागका चूर्ण मिलाकर मालिश दारुहल्दी, बायबिडंग, चीतामूल, बछनाग, हरताल, | करनेसे कुष्ठका नाश होताहै । यह एक उत्तम योग है।
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तैलमकरणम् ]
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परिशिष्ट
(९३६७) कुष्ठायस्नेहः ( शा. सं. । ख. २ अ. ९ )
कुणाशुण्ठीद्राक्षाल्ककषायवत् ।
11
सोंठ
-
साधितं तैलमाज्यं वा नस्यात्क्षवथुनाशनम् । कल्क – कूठ, बेलकी छाल, पीपल, और मुनक्का ४-४ तोले लेकर पानीके साथ बारीक पीस लें I
(९३६९) कुसुम्भाद्यं तैलम् (ग.नि. 1 तैला. २ ) कुम्भकुङ्कुमोशीरमञ्जिष्ठारक्तचन्दनैः । सिक्थसर्जरसातङ्कगुडूची] सैन्धवाम्बुदैः ॥ मूर्वाशतावरी लाक्षामधुकैश्च पलांशकैः । चतुर्गुणेन पयसा पचेत्तैलाढकं भिषक् ॥ अर्दितं कर्णशूलं च शिरःशूलं च दारुणम् । गृध्रसीं वातरक्तं च पक्षाघातं व्यपोहति ॥ तद्धस्तिषु च पानेषु नस्ये च कर्णपूरणे । अभ्यङ्गे च शिरोरोगे तैलं विद्याद्यथाऽमृतम् ॥ पाणिपादांसद हेषु गुदयोनिरुजातु च । सुप्तिवातेऽस्थिभङ्गे च देवदेवेन पूजितम् ।। कल्क - कुसुम्भ (कसुम्भा - आल), केसर,
रोगका नाश होता है ।
इसकी नस्य लेनेसे क्षवथु ( छींक आना) खस, मजीठ, लाल चन्दन, मोम, राल, कूठ, गिलोय, धा नमक, नागरमोथा, मूर्वा, शतावर, लाख और मुलैठी ५-५ तोले लेकर पीसने योग्य चीजों को पानी के साथ बारीक पीस लें ।
क्वाथ———कल्क की चीजें समान भाग मिलित ४ सेर लेकर ३२ सेर पानीमें पकावें और ८ सेर रहने पर छान लें।
(९३६८) कुष्ठारितैलम्
( र. र. स. । उ. अ. २० ) नारिकेरं हरिद्रे द्वे बाकुची वचया सह । अभृङ्गकमला शाककाएं च काञ्चनम् ॥ एतानि समभागानि तैलं पातालयन्त्रतः । सङ्ग्रह्य लेपयेत्तेन कुष्ठाष्टादशनाशनम् ॥
२ सेर तेल या घी में यह क्वाथ और कल्क मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाए तो स्नेह को छान लें।
नारियल ( खोपरा ), हल्दी, दारूहल्दी बाबची, बच, बहेड़ा, भंगरा, भिलावा, सागौन का का और धतूरा समान भाग लेकर पातालयन्त्रसे तेल निकालें ।
इसे लगाने से १८ प्रकारके कुष्ट नष्ट होते हैं।
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८ सेर तेल में यह कल्क और ३२ सेर दूध मिलाकर पकावें । जब दूध जल जाए तो तेलको छान लें।
यह तेल अर्दित, कर्णशूल, दारुण शिरशूल, गृध्रसी, वातरक्त, पक्षाघात, हाथ पैर और कन्धोंकी दाह तथा योनि और गुदाकी पीड़ा एवं सुप्तिवात तथा अस्थिभंगको नष्ट करता है ।
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इसे आवश्यक्तानुसार बस्ति, अभ्यङ्ग, पान, नस्य और कर्णपूरण आदि द्वारा प्रयुक्त करना चाहिये । शिरशूल मालिश करने से यह अमृत के समान गुण करता है ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ ककारादि (९३७०) केतक्यादितैलम् पिण्डीतकमयश्चूर्ण नीली पक्षश्च पग्रजम् । (व. से. । क्षुद्ररोगा.)
कल्कैरेतैः पचेत्तैलं वचाभारसेन तु ।। केतकं भृङ्गनीलिकाः पार्थपुष्पं सीजकम् ।
शिरोऽभ्यङ्गात्मणश्यन्ति दारुणं चेन्द्रलुप्तकम् । सहचरं तिला कृष्णा पिण्डीतकमयोरजः ॥
अकालपलितं कण्डू लूतिकां दद्रुमेव च ॥
करोति कुश्चितान्केशान् भ्रमरोदरसनिभान् । अमृता चोत्पलं श्यामा त्रिफलापनकर्दमैः ।
केतक्याथमिदं नाम्ना विदेहादि प्रकीर्तितम् ।। कल्कैरेभिः पचेत्तैलं त्रिफलाक्वाथमार्कवैः ।
कल्क-केतकीके फूल, हर , बहेड़ा, आमला, अकालपलितं हन्ति नाशयेदुपजिहिकाम्।
| दारुहल्दीकी छाल, दारुहल्दीके फल, मैनफलकी केशाश्च तेन जायन्ते ।स्नग्धावाअनसन्निभाः ।।
छाल, आमकी गुठलीकी मोंगो, कूठ, काले तिल, कला-केतकी के फूल, भंगरा, नीलका वृक्ष, | भंगरा, रसौत, तगर, लोहचूर्ण, नीलका पौधा और अर्जुनके फूल और बीज, पिया बांसा, काले तिल, । कमलकी जड़की मिट्टी समान भाग मिलित २० तगर, लोहचूर्ण, गिलोय, नीलोत्पल, हल्दी ( या तोले लेकर पानीके साथ बारीक पीस लें. काली निसोत ), हर, बहेड़ा, आमला और कम
२ सेर तेल में यह कल्क और ४-४ सेर लकी जड़की मिट्टी समान भाग मिलित २० तोले
बचका तथा भंगरेका रस मिलाकर मन्दाग्नि पर लेकर सबको पानीके साथ बारीक पीस लें।
पकावें । जब पानी जल जाए तो तेलको छान लें। २ सेर तेलमें यह कल्क और ४-४ सेर
| शिरपर मलनेसे यह तेल दारुणक रोग, त्रिफलेका क्वाथ तथा भंगरेका रस मिलाकर पकावें।
इन्द्रलुप्त (गंज), अकाल पलित (७.कालमें बालोंका बब पानी जल जाय तो तेलको छान लें।
सफेद होना ), शिरको खाज, लतिका और दादको यह तेल अकाल-पलित ( समयसे पहिले | नष्ट करता है। पालोंका सफेद होना ) और उपजिहाको नष्ट
इसके उपयोगसे बाल काले और धुंघराले करता है । तथा इसके उपयोगसे बाल स्निग्ध और हो जाते हैं। भजनके समान काले हो जाते हैं ।
(९३७२) कैडर्यतेलम् (इसे मर्दन करना और इसकी नस्य लेनी चाहिये ।)
| (वै. म. र. । पट. ३) (९३७१) केतक्याद्यतेलम् परिणतकैडच्छिकली कृत्वाऽऽज्यकुम्भपरिदग्धात
(व. से. ! क्षुद्रा.) | तैलं निःसृतमस्यति कासं भासं प्रमेहं च ॥ केतकी त्रिफला दारू तत्फलं मदनत्वचः। कायफलके पक्के पत्तों को कूटकर घीके चिकने · भानास्थिमजकुष्ठश्च तिला भृङ्गासाधनम् ।। घड़ेमें भरकर पातालयन्त्र से तेल निकालें ।
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तैलप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
५७१
यह तेल कास, श्वास और प्रमेह को। यह तैल अनेक प्रकारके घोर दुष्ट अणोंको नष्ट करता है।
| शीघ्र ही नष्ट कर देता है। जिसके लिंगका सब (९३७३) कोशातकीतैलम् मांस गल गया हो और केवल अण्डकोष ही बचे हो (व. से. ; भा. प्र. म. खं. २ । उपदंशा.) | उसे भी इस तेलसे आराम हो जाता है । यस्य लिङ्गस्य मांसन्तु शीर्यते मुष्कशेषतः । ___ (९३७४) कोशातकीलाभ्यङ्गः विक्तकोशातकीलम्बाबीजनागरसाधितम् ।। (रा. मा. । स्त्रीरोगा. ३०) तैलं हन्त्यचिराद् घोरं व्रणदुष्टमनेकधा ॥ उत्पाटय गुह्यप्रभवाणि रोमाण्य
कल्क-कडवी तोरी के बीज, कड़वे कदूके भ्यञ्जनं तत्र ततो विधेयम् । बीज और सांठ समान भाग मिलित १० तोले कोशातकीबीजसमुद्भवेन लेकर पानीके साथ पीस लें।
तैलेन लोम्नामपुनर्भवाय ॥ १ सेर तेलमें यह कल्क और इन्ही ओष- गुह्य प्रदेशके बालोंको उखाड़ने के पश्चात धियांका ४ सेर क्याथ मिलाकर पानी जलने तक तोरी ( कड़वी तोरी ) के बीजोंका तेल लगाने से पकावें और फिर छान लें।
'पुनः बाल नहीं निकलते । इति ककारादितैलपकरणम्
- - - अथ ककाराद्यासवारिष्टप्रकरणम् (९३७५) कनकबिन्दरिष्टम्
खरसारका ३२ सेर क्वाथ धृत भाक्ति (च. सं. । चि. अ. ७ कुष्ठा.)
| मृत्पात्रमें भरकर उसमें हरं, बहेड़ा, आमला, सेठ,
मिर्च, पीपल, बायबिडंग, हल्दी, नागरमोथा, असा खदिरकषायद्रोणं कुम्भे घृतभाविते समावाप्य ।
(बासा), इन्द्रजौ, अमलतासकी छाल और गिलोय; द्रव्याणि चूर्णितानि च षट्पलिकान्यत्र देयानि ।।
इनका चूर्ण ३०-३० तोले मिलाकर उसका मुख त्रिफलाव्योषविडॉ रजनीमुस्ताटरूषकेन्द्रयवाः। बन्द करके अनाजके ढेर में दबा दें और एक मास सौवर्णी च तथा त्वक
पश्चात् निकालकर छान लें। __छिनकहा चेति तन्मासम्
इसे प्रातःकाल यथोचित मात्रानुसार सेवन निदधीत धान्यमध्ये प्रातः
करनेसे १ मासमें महा कुष्ठ और १५ दिनमें क्षुद्र माता पिवेत्ततो युक्त्या ।
कुष्ठ नष्ट हो जाता है । यह अरिष्ट अर्श, श्वास, मासेन महाकुष्ठं हन्त्येवाल्पन्तु पक्षेण ॥ | भगंदर, कास, किलास कुष्ठ, प्रमेह और शोषको अर्शःश्वासभगन्दरकासकिलासप्रमेहशोषांश्च । नष्ट करता है। इसके सेवनसे मनुष्य का शरीर ना भवति कनकवर्णः पीत्वारिष्टं कनकविन्दुम् ॥' स्वर्णके समान कान्तिमान् हो जाता है।
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५७२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ ककारादि
( इसमें मीठे का अभाव है और बिना मीठा | निकालें । यह रेस ३२ सेर लेकर उसमें ६। सेर मिलाए आसव नहीं बन सकता अतएव ६। सेर गुड़ मिला दें और फिर सबको घृत-भावित गुड़ और ३ सेर १० तोले शहद भी डालना चाहिये।) | मृत्पात्रमें भरकर उसमें निम्न लिखित प्रक्षेप (९३७६) कुमार्यासबः (१)
डाल कर मिला दें
प्रक्षेप--शहद ६। सेर; शुद्ध लोहचूर्ण (या ( शा. सं. । खं. २ अ. १०)
भस्म ) ३ सेर १० तोले; सांठ, मिर्च, पीपल, लौंग, सुपक्वरससंशुद्धं कुमार्याः पत्रमाहरेत् । दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, चीतामूल, यत्मेन रसमादाय पात्रे पाषाणमृण्मये ॥ . पीपलामूल, बायबिडंग, गजपीपल, चव, हपुषा, द्रोणे गुड्तुलां दत्वा घृतभाण्डे निधापयेत् । । धनिया, सुपारी, कुटकी, नागरमोथा, हरं, बहेड़ा, माक्षिकं पक्वलोहं च तस्मिन्नर्धतुलां क्षिपेत् ॥ आमला, रास्ना, देवदारु, हल्दी, दारुहल्दी, मूर्वा, कटुत्रिकं लवङ्गं च चातुर्जातकमेव च।। मुलैठी, दन्तीमूल, पोहकरमूल, खरै टी, कंधी, कौंचके चित्रकं पिप्पलीमूलं विडङ्गं गजपिप्पली ॥ बीज, गोखरु, सोया, हिंगुपत्री, अकरकरा, उटिंचविक हपुषा धान्यं क्रमुकं कटुरोहिणी।
| गणके बीज, सफेद और लाल पुनर्नवा, लोध मुस्ता फलत्रिकं रास्ना देवदारु निशाद्वयम् ॥
और स्वर्णमाक्षिक भस्म २॥ २॥ तोले एवं धायके
फूल ४० तोले; इन सबका चूर्ण मिलाकर पात्रका मूर्वा मधुरसा दन्ती मूलं पुष्करसम्भवम् ।
मुख बन्द करके रखदें और १ मास पश्चात् बला चातिबला चैव कपिकच्छुत्रिकण्टकम् ॥
निकालकर छान लें। शतपुष्पा हिडपत्री आकल्लकमुटिङ्गणम् । ।
___मात्रा-२॥ तोलेसे १० तोले तक (व्य. पुनर्नवाद्वयं लोभ्रं धातुमाक्षिकमेव च ॥
मा.-२ तोले ।) एषां चापलं दत्वा धातक्यास्तु पलाष्टकम् ।। इसके सेवनसे बल, वर्ण और अग्निकी वृद्धि पलं चार्धपलं चैव पलद्वयमुदाहृतम् ।।
होती है । यह पौष्टिक, रुचिवर्द्धक और वीर्यवर्धक वपुर्वयः प्रमाणेन बलवर्णाग्निदीपनम् । है । इसके सेवनसे पक्तिशूल, आठ प्रकारके उदरBहणं रोचनं वृष्यं पक्तिशूलनिवारणम् ॥ | रोग, उग्र क्षय, २० प्रकारके प्रमेह, उदावर्त, अष्टावुदरजान् रोगान् क्षयमुग्रं च नाशयेत् । अपस्मार, मूत्रकृच्छू, शुकदोष, अश्मरी, कृमिरोग विंशति मेहजान् रोगानुदावर्तमपस्मृतिम् ।। और रक्तपित्तका अवश्य नाश हो जाता है। मूत्रकृच्छ्रमपस्मारं शुक्रदोषं तथाश्मरीम् । (९३७७) कुमार्यासवः (२) कृमिजं रक्तपित्तं च नाशयेत्तु न संशयः ॥
( सिद्ध भेषजमणिमाला) घृतकुमारी के रससे परिपूर्ण पत्र लेकर उन्हें कन्यारसाढके प्रत्नगुडतः कुडवद्वयम् । अच्छी तरह धोकर मिट्टी या पत्थरके पात्रमें रस मण्डूरं टङ्कणं क्षारौ पञ्चैव लवणानि च ॥
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आसवारिष्टमकरणम् ]
परिशिष्ट नवसादर इत्यस्माद्वर्गादेयं पल पलम् । । सारं सूरणतेजबलं तालीसश्यामपूगकम् ॥ काचकोषे समादाय मुखमस्य विमुद्रयेत् ॥ एतेषां कर्षमात्रश्च सूक्ष्मचूर्णन्तु कारयेत् । अष्टाहमातपन्यस्तमेकीभूतरसं पिबेत् । मूलभाण्डे क्षिपेत्सर्वं पलमेकं भजेन्नरः ।। यकृत्प्लीहोदरेष्वेनं कुमार्यासवमाख्यया ॥ | कासं वासं च हृद्रोगं पाण्डुरोगं क्षतक्षयम् ।
घृतकुमारी (ग्वारपाठे) का रस ८ सेर, पुराना | गुल्मोदरं ग्रहण्यझै मूत्रकृच्छ्रे तथाश्मरीम् ॥ गुड़ ४० तोले तथा मण्डूर भस्म, सुहागेकी खील,
प्रमेहं शोफातीसारे वातपित्तकफापहः । जवाखार, सजीखार, सेंधा नमक, संचल ( काला
कूष्माण्डासव इत्येष बलकृन्मलशोधनः ॥ नमक), बिड नमक, सामुद्र लवण, काच लवण
एक बहुत बड़ा पेठा (सफेद कुम्हड़ा) लेकर और नौसादर ५-५ तोले लेकर सबको एकत्र |
| उसमें एक बड़ासा छिद्र करें और फिर उस छिद्रके मिलाकर कांचके घड़ेमें भरकर उसका मुख बन्द
द्वारा उसके भीतर धीरे धीरे १२॥ सेर गुड़ भर करके धूपमें रख दें। आठ दिनमें सब चीजें
दें जब गुड़का पानी हो जाय तब छिलके और एकरस हो जायंगी।
बीजों को निकाल दें तथा शेष भाग को घृतइसके सेवनसे यकृत् , प्लीहा और उदर रोगों
भावित मृत्पात्रमें भरकर उसमें बेरीकी ४० तोले का नाश होता है।
छालका क्वाथ और ५-५ तोले दोनों प्रकारका (९३७८) कूष्माण्डासवः कसेरु, धायके फूल, हपुषा, हर, बहेड़ा,
( योगचिन्तामणि । अ. ७) आमला, सुगन्धबाला, काकड़ासिंगी, भरंगी, पोहकर कूष्माण्डं च फलं पक्वं तस्मिश्छिद्रन्तु कारयेत् । मूल, तालमूली (मूसली), कौंचके बीज, कंकोल, छिद्रमध्ये गुडो देयो द्वितुलश्च शनैः शनैः ॥ | बंसलोचन, मुलैठी, मोचरस, नागरमोथा, पीपलामूल, त्वचाबीजं च उत्कृष्य स्निग्धभाण्डे निधापयेत्। मेदा, महामेदा, जीवक, ऋषभक, ऋद्धि, वृद्धि, बदरीत्वक् पलान्यष्टौ तस्य क्वार्थ प्रदापयेत् ॥ काकोली, क्षीरकाकोली, दालचीनी, इलायची, तेजद्वौ कसेलौ च धातक्या हपुषा च पलं पलम् ।। पात, नागकेसर, बायबिडंग, सोंठ, मिर्च, पीपल, त्रिफला होवेरश्च शृङ्गो भागीं च पुष्करम् ॥ । चीतामूल, केसर, जावत्री, लौंग, अकरकरा, जायफल, तालमूली स्वयं गुप्ता कङ्कोलं वंसलोचनम् । दशमूल, लालचन्दन, कायफल, रेणुका, कचूर और यष्टी मोचरसं मुस्ता ग्रन्थिकं चाष्टवर्गकम् ॥ । कुटकी; इनका चूर्ण एवं अडूसा (बासा), कुलिंजन, चातुर्जातं विडङ्गानि व्योषं चित्रककुङ्कमम् । अजमोद, असगंध, चव, माजूफल, शतावर, लोहजातीपत्रं लवङ्गं च करभं मालतीफलम् ॥ भस्म, सूरण (जिमिकंद), तेजबल, तालीसपत्र दशानि रक्तसारं च कट्फलं रेणुका शटी । | और चिकनी सुपारी; इनका चूर्ण ११-१। तोला तिक्तसारचतुःकर्षमाटरूपकुलिननम् ॥ मिलाकर पात्रका मुख बन्द करके रखदें और एक अजमोदाश्वगन्धा च चव्यमाजूफलं बरी। ' मास पश्चात् निकालकर छान लें ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
(मात्रा-५ तोला | व्य. मा. २-२॥ | क्षत, क्षय, गुल्म, ग्रहणीरोग, अर्श मूत्रकृच्छ, तोले )
अश्मरि, प्रमेह, शोथ और अतिसार का नाश होता इसके सेवनसे कास श्वास, हृद्रोग, पाण्डु, | तथा बल बढ़ता है । यह मल शाधक भी है।
इति ककाराघासवारिष्टप्रकरणम्
अथ ककारादिलेपप्रकरणम् (९३७९) कटुकालाब्वादिलेपः ___ इसका कुष्ठ पर लेप करनेसे सफेद कुष्ठ नष्ट
हो जाता है। (वं. से. । कुष्ठा.)
(९३८०) कटफलादिलेपः (१) क्टुकालाचुसव्योपहिसाहयमारकाः।
(व. से. । व्रणा.) कुष्ठं वल्गुजभल्लातस्नुहीमूलानि सर्वपाः ।। कदफलदाडिमरजनीप्रियङ्गुफलताम्रपुष्पिकाविस्वकारिष्टपीलूनां पत्राण्यारमधस्य च ।
पुष्पैः। त्रिफलामुस्तजीमूतविशाला मूत्रपाचितः ।। | धात्रीरससम्पिष्टैर्दुष्टत्रणरोपणः फल्कः ॥ गोमजावाजमूत्राणामाढकं त्वाढक परे ।
| कायफल, अनारकी छाल, हल्दी, फूलप्रिया, स्नुपकक्षारकुडवं तेलं युक्त्या पदापयेत् ॥ हरी, बहेडा, आमला और धायके फूल, समान भाग पचेदानीप्रलेपन्तु घृष्ट्वा कुष्ठानि लेपयेत् । लेकर बारीक चूर्ण बनावें। इसे आमले के रसमें वित्राणि द्विष्पलिप्तानि यान्ति नाशमशेषतः ॥ पीसकर लेप करनेसे दुष्ट व्रण भर जाता है।
कड़वी तूंबी, सोंठ, मिर्च, पीपल, जटामांसी, ___(९३८१) कट्फलादिलेपः (२) आककी जड़, कनेर, कूठ, बाबची, भिलावा, स्नुही
(वैद्यामृत) (से हुंड-थूहर)की जड़, सरसों, बेलके पत्ते, नीमके शान्ते त्रिदोषे श्रतिमलजातफ्ते, पीलुके पत्ते, अमलतासके पत्ते, हरे, बहेड़ा, शोथस्य रक्तं प्रविमोचयेत्माक् । आमला, नागरमोथा, देवदाली (बिंडाल) और | पश्चान्मुहुः कटफलकृष्णजीरइन्द्रायण; समान भाग लेकर सबको अच्छी तरह विश्वाकुलित्योद्भवलेपनं स्यात् ॥ कूट लें और फिर उस चूर्णमें ८-८ सेर गोमूत्र, सन्निपात ज्वर के शान्त होने पर जो कर्णहस्तिमूत्र, घोड़ीकामूत्र और बकरीका मूत्र एवं २०- मूल में शोथ हो जाता है प्रथम उससे रक्त निकल२० तोले स्नुही का तथा आकका क्षार और तेल वावें और फिर कायफल, कालाजीरा, सोंठ और मिलाकर पकावें। जब करछी को लगने लगे तो कुलश्री; इनके समान भाग मिलित बारीक चूर्णको उतार कर ठंडा कर लें।
। पानीमें पीस कर बार बार लेप लगावें ।
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५७५.
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लेपप्रकरणम् ]
परिशिष्ट (९३८२) कविकादिलेपः शिरोभितापे सघृतैः शिरः शीतैः प्रलेपयेत् ।।
___(वं. से. । क्षुद्र.) ___कैथ, चूका, बेरी और मकोय; इनके पत्तोंको कट्वीकापालिकामूलं पूतीकं सैन्धवं तथा ।
। पीसकर शिर पर लेप करनेसे बालककी शिरपीडा, शम्बूकेन श्लक्ष्णपिष्ठं चर्मकीलकनाशनम् ॥
छर्दि और अतिसार का नाश होता है । कुटको, कण्टकपाली की जड़, पूतिकरच
___ यदि बालकका शिर तपता हो तो शीतल सेंधा नमक और घोंघे समान भाग लेकर बारीक |
ओषधियों ( चन्दनादि को ) घी में मिलाकर लेप पीसकर लेप करने से चर्मकीलका नाश हो जाता है। करना चाहिए । (९३८३) कदल्यादिलेपः (१)
(९३८६) कपित्थादिलेपः (व. से. । स्त्रीगेगा.)
( वा. भ. चि. अ. १ ज्वरा.) कदलीदीर्घन्तानां भस्मालं लवणं शमी-।।
कपित्थमातुलङ्गाम्लविदारीरोध्रदाडिमैः ।
बदरी पल्लवोत्थेन फेनेनारिष्टजेन वा ॥ बीजं शीताम्भसा पिष्टं लोमशातनमुत्तमम् ।।
लिप्तेऽङ्गे दाहरुम्मोहच्छर्दिस्तृष्णा च शाम्यति ।। केले और अरल की भस्म, हरताल, सेंधा
__ कैथके पत्ते, बिजौरे नीबूके पत्ते, खट्टा बेर, नमक, और शमी (छोंकर) वृक्षके बीज समान
बिदारीकन्द, लोध और अनारके पत्ते; इन्हें पीसकर भाग लेकर शीतल जलके साथ पीसकर लेप करनेसे
लेप करने से अथवा बेरोके पत्तों को पीसकर थोडे बाल गिर जाते हैं।
पानी में मिलाकर हाथरो फेन उठाकर वे फेन (९३८४) कदल्यादिलेपः (२) ।
| लगाने से या इसी प्रकार नीमके पत्तोंके फेन बना ( र. र. । स्त्री. )
कर लगाने से शरीर की दोह, पीड़ा, मोह, छर्दि दग्ध्वा शङ्ख क्षिपेद्रम्भास्वरसे तच्च पेषितम् ।। और तृष्णाका नाश होता है। तुल्याललेपनादन्ति रोमगुणादिसम्भवम् ।। (९३८७) कपीतनादित्वग्लेपः
शंख भस्म और हरताल को केलेके रस में | (ग. नि. । विसर्पा ३९) घोट कर लेप करनेसे गुह्य स्थानके बाल गिर |
कपीतनवटाश्वत्थप्लक्षोदुम्बरजासत्व वः । जाते हैं।
लेपनाच्छोफवीसर्परक्तपित्तप्रसाधनाः ॥ (९३८५) कपित्थपत्रादिलेपः सिरस, बड़, अश्वत्थ ( पीपल वृक्ष ), पिल
(ग. नि. | बालरोगा. ११) खन और गूलर; इनकी छाल (पानी के साथ) पीस पत्रैः कपित्थचाङ्गेरीबदरीकाकमाचिजः। कर लेप करनेसे शोथ, बिसर्प और रक्तपित्तका शिरोरुक्च्छर्यतीसारनाशनं मूनि लेपनम् ॥ | नाश होता है ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
(९३८८) कपोतवङ्कादियोगः पत्तोंको पीसकर लेप करनेसे ब्रणके कृमि नष्ट ( ग. नि. । कुष्टा. ३६)
हो जाते हैं। कपोतवङ्का लशुनस्य शीर्ष
(९३९१) करञ्जबीजादिलेपः ससैन्धवं चित्रकमूलमिश्रम् ।
( ग. नि. । विस्फोटा. ४०) तदश्वलिण्डस्य रसेन पिष्टं
करअतरुवीजानि युक्तानि तिलसर्षपैः । वणे प्रलेपो जननो हि रोम्णाम् ॥ एरण्डफलयुक्ता वा दुग्धका स्फोटनाशिनी ॥
करञ्ज ( कले ) के बीज, तिल और सरसों ब्राह्मी, ल्हसन का शिर ( ऊपर का भाग ),
समान भाग लेकर पीस कर लेप करनेसे या दुद्धी सेंधा नमक और चीतामूल समान भाग लेकर
और अण्डीके बीजोंको एकत्र पीसकर लेप करनेसे चूर्ण बनावें।
विस्फोटक का नाश होता है। इसे घोड़ेकी लीदके रसमें पीसकर लेप करने
(रा. मा. में प्रथम लेपको दुष्ट पिडिका से ब्रणके स्थान पर बाल निकल आते हैं। नाशक लिखा है।) (९३८९) करञ्जललेपः
(९३९२) करादिलेपः ( यो. र. । कुरण्डरोगा.)
(ग. नि. । ऊरुस्त. २१) तण्डुलवारिविमिश्र घृतपुरसझं यदुच्यते लोक करतः सरसा बिल्यो देवदासर्वचाऽर्जक। तन्मलपिष्टलेपं कुरण्डगलगण्डयोः कुर्यात् ॥ तर्कारीमेएशृङ्गी च शोभाअनकमिङ्गुदी ।। करञ्ज (कले ) को जड़ को चावलों के
उभे बृहत्यौ श्योनाकः श्वदंष्ट्रा खदिरासनौ । धोवनके साथ पीसकर लेप करनेसे कुरण्ड और जलपिरिमैस्तुल्यैः कषायः परिषेचनम् ॥ गलगण्ड रोग नष्ट होता है।
एतैरेवौपधैस्तुल्यैः क्षीरपिष्टैः प्रलेपयेत् । (९३९०) करञ्जयोगः
अनेन विधिना क्षिप्रमुरुस्तम्भः प्रशाम्यति ॥ (व. से. । व्रणा. ; शा. सं. । ख. ३ अ.
करन ( कलेकी छाल ), तुलसी, बेलछाल, ११; यो. र. । व्रगा. ; भा. प्र. । म. देवदारु, बच, अर्जक ( छोटे पत्ते वाली तुलसी ), ख. २ व्रणा.)
अरणी, मेढासिगी, सहं जनेकी छाल, हिंगोट, छोटी
और बडी कटेली, अरलुकी छाल, गोखरू, खरसार करआरिष्टनिर्गुण्डोलेपो हन्यावणकृमीन् ।
और असना वृक्षका सार समान भाग लेकर दूधके लशुनस्याथवा लेपो हिङ्गुनिम्बभवोऽथवा ॥
साथ बारीक पीस लें। इसका लेप करनेसे और करञ्ज, नीम और संभालु (के पत्तों )का लेप इन्हीं ओषधियोंके क्वाथका अवसेचन करने (तरैडा करनेसे अथवा ल्हसन को या हींग और नीमके देने) से ऊरुस्तम्भ में लाभ होता है ।
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लेपप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
(९३९३) करवीरजटालेपः __यदि लेप लगाने से इन्द्री पर फुसियां निकल
( यो. त. । त. ८०) आवें तो उन पर धुला हुवा नवनीत ( मक्खन ) करवीरजटालेपं यः करोति नरो मणौ ।
लगाना चाहिये। वीर्यस्तम्भं स लभते कार्णाटीसुरतेष्वपि ।।
(रातको रोज़ लेप लगा कर नया पान बांधना
और उसे हर समय बांधे रहना चाहिये । प्रयोग इन्द्रि की मणि पर कनेरकी जड़का लेप करके
काल में इन्द्रो को ठंडा पानी न लगने देना चाहिये।) स्त्रीसमागम करनेसे वीर्यस्तम्भन होता है।
(९३९५) करवीरलेपः (९३९४) करवीरत्वगादिलेपः (व. से. । उपदंशा. ; शा. सं. । ख. ३ अ. ११) (न. मृ. । त. ६ )
करवीरस्य मृलेन परिपिष्टेन वारिणा ।
असाध्यापि बजत्यस्तं लिङ्गोत्था रुक् प्रलेपनात् ।। करवीरत्वन्द्विकर्ष दुग्वे प्रस्थद्वये पचेत् ।
____ कनेरकी जड़को पानीके साथ पीसकर लिङ्ग तच दुग्धं दधि कृत्वा मन्थनेन विलोडयेत् ।।
पर लेप करने से उपदंश जनित असाध्य लिंग पीड़ा नवनीतं विनिष्कृष्य स्वौषधिं तत्र निक्षिपेत् ।
भी नष्ट हो जाती है । जातीफलमजेपालं विषमाखुपाषाणकम् ॥
(९३९६) करवीरादियोगः विधिना मर्दयेत्लल्वे ततो लेपं समाचरेत् । ( वा. भ. । उ. अ. ३६ ) त्यत्त्वाग्रभागसीमानौ ताम्बूले तं प्रवेष्टयेत् ॥ करवीराकुमममललाङ्गलिकाकणाः। पिडिका चेद्भवेच्छुद्धनवनीतेन लेपयेत् । कल्कयेदारनालेन पाठामरिचसंयुताः ॥ पण्डत्वनाशनार्थाय लेपोयं समुदाहृतः॥ एष व्यन्तरदष्टानामगदः सार्वकार्मिकः ।। ___२॥ तोले कनेरकी जड़ को पीसकर २ सेर ___कनेरकी जड़, कनेरके फूल, आककी जड़, दुधमें मिलाकर पकायें और फिर उसका दही जमा आकके फूल, कलियारीकी जड़, पीपल, पाठा और कर मक्खन निकालें । तदनन्तर जायफल, जमाल- | काली मिर्च समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । गोटा, शुद्ध बछनाग और शंखिया ( समान भाग ___इसे कांजी में पीसकर लेप करने तथा पिलाने मिलित २॥ तोला ) उस मक्खन में मिलाकर अच्छी आदि से व्यन्तर ( एक विशेष जाति के सर्प) का तरह खरल करें।
विष नष्ट होता है। ____ इन्द्री के अग्रभाग और सीवनको छोड़कर शेष (९३९७) करवीरादिलेपः (१) भाग पर यह लेप मलकर ऊपर से नागरवेल (वा. भ. । चि. अ. १९) पान बांध दें।
करवीरनिम्बकुट नाच्छइस प्रकार कुछ दिनों करनेसे नपुंस्कता नष्ट । ___म्पाकाचित्रकाच मूलानाम् । हो जाती है।
मृत्रे दर्जीलेपी क्वाथो लेपेन कुष्ठनः ॥
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कनेरकी जड़, नीम की जड़, कुड़े को जड़, अमलतास की जड़ और चीतेकी जड़ समान भाग लेकर कूट कर आठ गुने गोमूत्र में पकावें और चौथा भाग रहने पर छानकर उसे पुन: पकायें | जब करछी को लगने लगे तो अग्निसे नीचे उतार कर ठंडा कर लें 1
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
इसका लेप करने से कुछ नष्ट होता है । (९३९८) करवीरादिलेप: (२)
( न. मृ । त. ६ ) करवीरमूलत्वचं सम्म बृहतीर से । विधिनापयेच्छिने ध्वजस्योत्तेजनाय वै ॥
कनेरकी जड़ की छालको बड़ी कटेली के रसमें पीसकर लिंग पर लेप करनेसे काम त्तेजना तीत्र
है।
(९३९९) करवीरादिलेप: (३) ( व. से. । ज्वरा. ; ग. नि. । ज्वरा. ) करवीरस्य पत्राणि चन्दनं सारिवा तिलाः । हृष्णानः शिरसाऽऽलेप आरनालेन पेषितः ॥
(९४००) कर्कटयोगः
( व. से. | बालरोग. )
कनेर के पत्ते ( पाठान्तर के अनुसार फूल ), लाल चन्दन, सारिवा और तिल समान भाग लेकर कांजीमें पीसकर शिरपर लेप करनेसे उबरकी पिपासा शान्त हो जाती है ।
कर्कशा विपक्षीरेण चरणतलेपनादचिरात् ।
१ पुष्पाणीति पाठान्तरम्
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दन्तदंष्ट्रात शब्दं शमयति बहुधैव दृष्टमिदम् ||
A
[ ककारादि
काकड़ासिंगी और सागोनकी लकड़ीके साथ सिद्ध दूधका ( सोते समय ) बालक के पैरोंके तलुवों पर लेप करने से नींद में दांत बजाना शीघ्रही बन्द हो जाता है । यह प्रयोग अनेक बारका परीक्षित है।
( काकड़ासिंगी और सागोन ३-३ माशे, दूध ४ तोले, पानी १६ तोले । पानी जलने तक पक्रावें । )
(९४०१) कर्णिकारादिलेपः ( र. चि. म. । स्त. ३ ) कर्णिकारसूनानि कृतसूक्ष्माणि काक्षिके । क्षेपणीयानि तेषां वै मर्दनं कारयेद्भिषक् ॥ दनत्रिचतुराध्वं ददुनाशो भषेद्ध्रुवम् । मण्डलं न च दृश्येत न च कण्डूः क्वचिद्भवेत् ॥
|
छोटे अमलतास के फूलको बारीक पीसकर काञ्जी में मिलाकर दाद पर मलें। इसी प्रकार ३-४ दिन करनेसे दाद अवश्य न हो जाता है और मण्डल या खाजका नाम तक नहीं रहता । (९४०२) कर्पूरादिलेप:
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( वृ. यो. त । त. १४७ ) कर्पूरं टङ्कणं मृतं तुल्यं पुनरसं मधु । सम्मर्थ पयेल्लिङ्गं स्थित्वा यामं तथैव च ॥ ततः प्रक्षाल्य रमयेद्वनितानां शतं सुखम् । वार्यस्तम्भकरं सम्यक्सम्यङ्नागार्जुनोदितम् ॥
कपूर, सुहागा (कच्चा) और पारा सपान भाग लेकर एकत्र खरल करें और फिर उसमें थोड़ा थोड़ा अगस्ति ( अगथिया ) का रस और शहद मिलाकर लेप सा बना ले 1
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लेपप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
५७६
इसका लिंग पर लेप करके १ पहरे तक वैसे । और लेप करनेसे मण्डलीक सर्पका विष शीघ्र ही ही रहने दें और फिर धोकर स्त्री समागम करें। नष्ट हो जाता है ।
इस प्रयोगसे अत्यन्त वीर्यस्तम्भन होता है। (९४०६) काकोदुम्बरिकायोगः यह प्रयोग नागार्जुन-कथित है।
(ग. नि. । अर्शो. ४) (९४०३) काकजङ्घादिलेपः
काकोदुम्बरिकायास्तु क्षीरेण परिलेपिताः । ( ग. नि. ; व. से. | निसर्पा.)
गुदजा घृतपानेन निपतन्त्याशु देहिनाम् ॥ काकजडन शिरीषस्य पुष्पं श्लेष्मातकत्वनः।
____कठूमरकी जड़को दूधमें पीसकर लेप करने कृतमालस्य पत्राणि वाजिगन्धा प्रियङ्गवः ॥
और घृत पान करनेसे अर्शके मस्से शीघ्र ही प्रदेहं ककवीसपै कदुष्णं च प्रयोजयेत् ॥ |
| गिर जाते हैं। काकजंघा, सिरसके फूल, लिहसोड़े की छाल,
(९४०७) काश्चन्यादिलेपः छोटे अमलतासके पत्ते, असगन्धं और फूलप्रियंगु । समान भाग लेकर पानीके साथ पीस कर मन्दोष्ण
| (यो. र. । गण्डमाला.) करके लेप करनेसे कफज विसर्प में लाभ होता है। जलेन पेषयेत्तुल्यं काञ्चनीचित्रकं विषम् ।
(९४०४) काकजनालेपः सप्ताहं लेपयेद्यस्य यदिस्याद्गण्डमालिका ।। (रा. मा. । व्रणा. २५)
स्फुटन्ती नात्र सन्देहो स्फोटे लेपमिमं कुरु । दिनत्रयं वायसनविकायाः
आरग्वधशिफां पिष्ट्वा सम्यक्तण्डुल वारिणा ॥
तेन नस्यपलेपाभ्यां गण्डमालां समुद्धरेत् ॥ शस्त्रप्रहारे कुरुते प्रलेपम् । अजातपूयो व्यथया विहीनः ।
हन्दी, चीतामूल और बछनाग समान भाग संरोहमभ्येति स तस्य शीघ्रम् ॥
लेकर पानीके साथ पीस कर लेप करमेसे सात शस्त्राघात ब्रण पर तीन दिन तक काकजंघा
दिनमें गण्डमाला अवश्य फूट जाती है। जब का लेप करनेसे वह बिना पके शीघ्र ही भर जाता
गण्डमाला फूट जाए तो उसपर अमलतास की जड़को है और व्यथा भी नहीं होती।
चावलों के पानीमें पीसकर लेप करना चाहिये और
उसीकी नस्य देनी चाहिये । ____ (९४०५) काकादनीमूलयोगः ( रा. मा. । विषा. ८ ; ग. नि. । सर्पविषा. ३) (९४०८) कान्तपाषाणादियोगः अपहरति मण्डलिविष पानेनालेपनेन वा सद्यः। (र. र. रसा. खं. । उप. ५) काकादन्यामूलं कानिकपरिपेषितं पुंसाम ॥ | कान्तपाषाणचूर्ण तु तैलमध्वाज्यसंयुतम् ।
चौंटलीकी जड़को कांजीमें पीसकर पिलाने | काफतुण्डीफलं सर्व सममेतत्तु कल्पयेत् ॥
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५८०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ ककारादि
भाण्डे रुद्भवा क्षिपेन्मासं धान्यराशावथोद्धरेत्। (९४११) कासमर्दमूललेपः अनेन लेपयेच्छीर्ष नस्यं कुर्यादनेन वै ॥
(ग. नि. । कुष्टा. ३६) व्यहाद्ममरसंकाशाः केशाः स्युर्वत्सरार्धकम् ।। | कासमर्दकजं मूलं सौवीरेण तु पेषितम् । __ कान्तपाषाण का चूर्ण, तेल, शहद, घी | द्रुकिटिभकुष्ठानि जयेदेतत्प्रलेपनात् ॥ और काकतुण्डी ( चौंटली ) के फलोंका चूर्ण समान कासमर्द ( कसौंदी ) की जड़को कांजीमें भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर पात्रमें बन्द करके | पीसकर लेप करनेसे दद्र और किटिभ कुष्ठ का अनाजके ढेरमें दबा दें। एक मास पश्चात् निकाल | नाश होता है। कर इसका बालों पर लेप करें और इसीकी नस्य लें। (९४१२) कासम दिलेपः इससे ३ दिनमें ही ( सफेद ) बाल भौं रेके
( वै. म. र. । पट. ११) समान काले हो जाते हैं और छः मास तक वैसे
जम्बीरस्वरसे पिष्टकासमाज्रिलेपनम् । ही रहते हैं।
विचर्चिकानां सर्वेषां परमौषधमुच्यते ॥ - (९४०९) कारवेल्लीजटायोगः ___कसौंदीकी जड़को जम्बीरी नीबूके रसमें
( रा. मा. । स्त्रीरोगा. ३०) पीसकर लेप करनेसे विचर्चिका (तर खुजली ) का योनिः स्त्रीणां निर्गताऽपिप्रवेश नाश होता है । यह इस रोगकी परमौषध है।
मामोत्यन्तः कारवेल्लीजटाभिः। (९४१३) कुमारिकादिलेपः सम्पिष्टाभिर्लेपनाद्................
(र. र. 1 उपदंशा.)
कुमारीरससम्पिष्टं जीरक लेपनादुजम् । यदि स्त्रीको योनि बाहर निकल आई हो तो तेन दाहश्च पाकश्च शान्तिमानोति निश्चितम् करेलीकी जड़को पीसकर लेप करनेसे वह भीतर |
कर लेप करनेसे वह भीतर कुमारी (ग्वार पाठा ) के रसमें जीरेको प्रविष्ट हो जाती है।
पीसकर लेप करनेसे उपदंश के व्रणों की पीड़ा, (९४१०) कार्पासपत्रलेपः दाह और पाकका अवश्य नाश हो जाता है। (यो. त. । त. ७८ )
(९४१४) कुमारीमूलयोगः कासपत्रैः सम्पिष्टैः साज्यैलेंपो विषापहः । ( रा. मा. । स्त्रीरोगा. ३०) वृश्चिकस्याथवा वत्सनाभलेपः प्रशस्यते ॥ । अपत्यनाशप्रभवां निहन्ति ___ कपासके पत्तोंको पीसकर घीमें मिला कर स्तनव्यथामाशु कृते प्रलेपे । लेप करनेसे या बछनाग को पानीके साथ पीस कर स्त्रीणां हरिद्रासहितं कुमारी लेप करनेसे बिच्छूका विष नष्ट हो जाता है। मूलंविशालामभवं कदाचित् ॥
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लेपपकरणम्
परिशिष्ट
५८१
बच्चा नष्ट हो जाने पर स्त्रीके स्तनों में दूध | मण्डलानां च यत्स्थान प्रोञ्छयित्वा प्रलेपयेत् । एकत्रित होकर पीड़ा करने लगे तो कुमारी (ग्वार ततः समुद्भवन्त्यङ्गे विस्फोटाश्चातिदारुणा ।। पाठ। ) की जड़ और हल्दी के चूर्णको एकत्र पूर्व भवन्ति ते रक्ता पश्चात कृष्णा भवन्ति हि पीसकर लेप करना चाहिये । इससे पीड़ा शीघ्र ही अल्पैरेव दिनैः पश्चात्माक्तनाथं भविष्यति ।। शान्त हो जाती है।
___ कनेर, हल्दी, धतूरा, लाल अपामार्ग, कलि. अथवा इन्द्रायण की जड़ पानीमें पीसकर यारी और सज्जीखार समान भाग लेकर सबको लेप करनेसे भी लाभ होता है।
बारीक पीसकर ( ८ गुने ) गोमूत्रमें पाई और (९४१५) कुलत्थादिलेपः गाढ़ा होने पर ठंडा करके सुरक्षित रक्खें । (वृ. मा. ; यो. र. ; ग. नि. । ज्वरा. ; यो. । मण्डलकुष्ठ के स्थान पर पछने लगा कर यह त. । त. २० ; भा. प्र.। म. ख. २ ज्वरा.) लेप लगानेसे उस स्थान पर भयंकर विस्फोट कुलत्यः कट्फलं शुण्ठी कारवी च समांशकैः ।। ( फफोले ) उत्पन्न हो जाते हैं । पहिले तो वे मखोष्णैर्लेपनं कार्य कर्णमले महर्महः॥ लाल होते हैं और फिर काले हो जाते हैं तथा
कुलथी, कायफल, सोंठ और कलौंजी समान थोड़े दिनों में त्वचाका रंग अन्य स्वस्थ स्थानके भाग लेकर बारीक पीस कर मन्दोष्ण करके बारबार
समान हो जाता है। लेप करनेसे कर्णमूल नष्ट हो जाता है ।
(९४१८) कुष्ठहरलेपः (२) (९४१६) कुलीरशृङ्ग यादिलेपः
(र. चि. म. । स्त. ४) (ग. नि. । अझे. ४)
| सैन्धवं रविदुग्धेन मेलयित्वाऽय मण्डलम् । कुलीरङ्गी हस्त्यस्थि वचा लाललिका शुभा। मोञ्छयित्वा प्रलेपोयं नाशयेत्सकलं गदम् ॥ हिङ्गु कुष्ठं च तुत्यं च बिल्वं भल्लातकानि च ॥ सेंधा नमकके चूर्णको आकके दूधमें घोट कर अर्शसां पातनो लेपः सप्तरात्रात्पयोजितः ॥ लेप करने से मण्डल कुष्ठ नष्ट हो जाता है । कुष्ठ ___ काकड़ासिंगी, हाथीकी हड्डी, बच, कलियारी,
स्थान पर लेप लगानेसे पहिले पछने लगाने चाहिये। होंग, कूर, नीलाथोथा, बेलकी छाल और भिलावा; । (९४१९) कुष्ठादिलेपः (१) सब का चूर्ण समान भाग लेकर पानीके साथ पीस (रा. मा. । शिरोरोगा.) कर सात दिन लेप करनेसे अर्शके मस्से गिर जाते हैं। कुष्ठं समीरणरिपोर्जटया समेत(९४१७) कुष्ठहरलेपः (१)
मत्यम्लकाधिकयुतं परिपेष्य तेन । (र. चि. म. । स्त. ४)
लिम्पेच्छिरोर्तिशमनाय शिरोऽथ वाऽऽरअश्वहा रजनी हेम प्रत्यकपुष्पी च लागली। नालपपिटतरुणै रुबुकस्य मूलैः ।। स्वर्जीक्षारं समं नीत्वा गोजलेन प्रपच्यते ॥ । कूठ और अरण्डमूल को अत्यन्त खट्टी कांजी
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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[ककारादि में पीसकर लेप करसे या अरण्डके तरुण वृक्षकी । (९४२२) कुष्ठादिलेपः (४) जड़को कांजीमें ८ सकर लेप करनेसे शिरपीड़ा
(यो. र. । शीतपित्ता.) नष्ट हो जाती है ।
ससैन्धन कुष्ठेन सर्पिषा लेपमाचरेत् । (९४२०) कुष्ठादिलेपः (२)
। सुरसास्वरसैर्वाऽय लेपयेत्परमौषधम् ॥ (ग. नि. । भगन्दरा. ७)
___ कूट और सेंधा नमकके समान भाग मिलित
| चूर्णको घीमें मिलाकर लेप करनेसे या तुलसीके कुष्ठं फलत्रितयकाश्चनपुष्करत्वङ्
बरसका लेप करनेसे शीतपित्त ( पित्ती रोग ) नष्ट मुस्तावचात्रिकटुकातिविषाजमोदाः।
हो जाता है । यह इस रोगकी परमौषध है। गोमूत्रमिश्रितमिदं सकलं गुडेन
(९४२३) कुष्ठादिलेपः (५) कुर्याद्भगन्दरविकारयुतः प्रलेपम् ॥ ।
(रा. मा. ;ग. नि. । शिरोरोगा. ;व. से. । क्षुद्ररो. ) कूठ, हर्र, बहेड़ा, आमला, हरताल, पोहकर
तैलेन मृत्कर्परभृष्टकुष्ठमूल, दालचीनी, नागरमोथा, बच, सेठ, मिर्च, पीपल, अतीस, अजमोद और गुड़ समान भाग
____चूर्णान्वितेन प्रविलिप्तमूनः । लेकर गोमूत्रमें बारीक पीसकर लेप करनेसे भगन्दरमें
कण्डूश्च दाहश्च विनाशमेति
शिरोवणं शुष्यति रूषिका च ॥ लाभ होता है।
कुठके चूर्णको मिट्टीके ठीकरेमें डालकर मन्दाग्नि (९४२१) कुष्ठादिलेपा (३) पर भून कर तेलमें मिला लें। इसे शिरमें लगानेसे
(व. से. । विसर्पा.) शिर की खाज, दाह और अरुषिका का नाश होता कुष्ठं शताहा सुरदारुमुस्ता
तथा शिरोबण सूख जाते हैं। __वाराहिकुस्तुम्बुरुकृष्णगन्धाः।
(९४२४) कृष्णतिलादिलेपः वातेऽर्कवंशार्तगलाश्च योज्याः
(रा. मा.। मुखरोगा. ५) सेके प्रलेपेषु तथा घृतेषु ॥ कृष्णैस्तिलैरसितजीरकज़ीरकाभ्यां कूठ, सोया, देवदारु, नागरमोथा, बाराही |
सिद्धार्थकैश्च विहितैर्ममृणमपिष्टः । कन्द, कुस्तुम्बरु, सहजनेकी जड़की छाल, आककी
दुग्धान्वितो वदनचन्द्रमसः प्रलेपो जड़, बांस और पियाबांसा समान भाग लेकर ___व्यङ्गं विलुम्पति मुहुः परिशील्यमानः ।। बारीक पीस कर लेप करनेसे अथवा इन ओषधियों काले तिल, काला जीरा, सफेद जीरा और के क्वाथ का तरैडा देनेसे या इनके कल्क और सफेद सरसे समान भाग लेकर दूधके साथ बारीक क्वाथके साथ सिद्ध घृत लगानेसे वातज विसर्पमें | पीस कर मुख पर लेप करनेसे कुछ दिनों में व्यङ्ग लाभ होता है।
( चेहरेकी झाई ) का नाश हो जाता है ।
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परिशिष्ट
लेपप्रकरणम् ]
(९४२५) कृष्णघत्तरादिलेपः ( रसे. चि. म. | अ. ९ ) कृष्णधत्तूरजं मूलं गन्धतुल्यं विचूर्णयेत् । मर्थे जम्बीरनीरेण लेपनात् सिध्यनाशनम् ॥
काले धतूरे की जड़ का चूर्ण और गंधक समान भाग लेकर दोनों को जम्बीरी नीबूके रस में घोटकर लेप करने से सिध्म नष्ट हो जाता है ।
(९४२६) कृष्ण लोहादियोगः
1
( व. से. ; यो र. । नेत्ररोगा. ) कृष्णलोहरजस्ता म्रशङ्कविदुमसिन्धुजैः । समुद्रफेन कासीसत्रोतोञ्जनसृमस्तुभिः || लेपनं वा कृतं नस्यं परमुत्तममणि ||
कृष्णलोह, ताम्र, शंख, प्रवाल, सेंधा नमक, समुद्रफेन, कसीस और स्रोतोञ्जन (सफेद सुरमा); इनके समान भाग मिलित बारीक चूर्ण को मस्तु में पीस कर लेप करना तथा इस नेत्र रोग में अत्यन्त उपयोगी है ।
स्य लेना
(९४२७) तथा
( र. र. । कर्णश)
केतकी शिलवणमारनाये येत् । मूलस्थितं स्फोटं लेपनाच्च यथापहम् || की की जड़, सकी जड़ और सेवा
ल
I
नमक समान भाग लेकर कांजीके साथ पीस कर लेप करने से कर्णमूल के फोड़े की पीड़ा नष्ट हो जाती है। (९४२८) कोद्रवमसीलेषः
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( रा. मा. । शिरोरोगा . ) कोद्रलाल सिद्धा मसी प्रलेपे प्रयोजिता शिरसः ।
अपहरति रोगमचिरादारुणमपि दारुणाभिख्यम् ॥
कोदों की पुगल (नाल -- अन्नरहित पौर्दो) को जलाकर पानी के साथ पीसकर शिर पर लेप करने से ' दारुण रोग ' नष्ट हो जाता है। (९४२९) कोलादिलेपः
1
( च. द. । वातव्या . ) कोल कुलत्थं सुरदारु रास्नाभाषा उमा तैलफलानि कुष्ठम् ।
चचाशतादेयवचूर्णमम्ल
इति ककारादिलेपनकरणम्
५८३
-
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मुष्णानि वातायिनां प्रदेहः ||
जेर, कुलथी, देवदारु, रास्ना, उड़द, अलसी, तैलबीज ( तिल, रेडी, सरसों आदि ), कूठ, बच, सोया और जौ; इनके समान भाग मिलित चूर्ण को कांजी में पीस कर गर्म करके वातव्याधिमें पीड़ा-स्थान पर लेप करना चाहिये ।
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५८४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
-
अथ ककारादिधूपप्रकरणम् (९४३०) ककुभादिधूपः मछली काट खाय तो मनुष्यके बाल और (यो. र. । कृम्य.)
सत्तू ( जोका सत्तू ) कड़वे तेल में मिलाकर दंशकाकुभकुसुमविडङ्ग लाङ्गलिभल्लातकं तथोशीरम। स्थानपर उसकी धूप देनी चाहिये। यह उत्तम प्रयोगहै श्रविष्टकसर्जरसं चन्दनमथ कुष्ठमष्टमं दधात् ॥ (९४३३) कस्तूरिकादिधृपः
(रा. मा. । स्त्रीरोगा.) एषा सुगन्धो धूपः सकृत्कृमीणां विनाशकः ।
प्रोक्तः।
कस्तूरिघनसारकुङ्कमनखैलाशातुरष्कान्वितैः शय्यामु मत्कुणानां शिरसि च गात्रेषु यूकानाम्॥
, श्रीखण्डागुरुकुष्ठमाक्षिकयुतधूपो वराङ्गे कृतः ।
"" स्त्रीणां इन्ति विगन्धता अर्जुनके फूल, बायबिडंग, कलियारी की जड़,
वितनुते सौगन्ध्यमत्युत्तमं भिलावा, खस, धूप सरल, राल, चन्दन और कूठ सौभाग्यं कुरुते मृदुत्व समान भाग लेकर बारीक कूट लें।
मसमं धत्ते तनोति श्रियम् ॥ इसकी धूपसे कृमि नष्ट हो जाते हैं । यदि कस्तूरी, कपूर, केसर, नखी, लाख, शिलारस खाटको इसकी धूप दी जाय तो खटमलेांका और । (या श्रीवास धूप ), चन्दन, अगर और कूठ शिर तथा शरीरको दी जाय तो जुवों का समान भाग लेकर एकत्र कूट लें। इसे शहदमें नाश हो जाता है।
मिलाकर योनिको धूप देनेसे योनिको दुर्गन्ध नष्ट ___ (९४३१) कटुतुम्ब्यादिधूपः | | होकर उत्तम सुगन्ध आने लगती है। ( व. से. । स्त्रीरोगा. ; ग. नि. । मूढगर्भा. )
(९४३४) काकमाचीफलधूपः
(ग. नि. । नेत्ररोगा. ३) कटुतुम्ब्यहिनिर्मोककृतवेधनसर्षपैः । कटुसैलान्वितैर्योनेधूपः पातयतेऽपराम् ।।
काफमाचीफलैकेन घृतयुक्तेन बुद्धिमान् ।
| धुपयेपिल्लरोगात पतन्ति कृमयोचिरात ॥ ___ कड़वी तूंबी, सांपकी कांचली, अमलतास |
- मकोयके एक फल को घृत लगाकर उसे और सरसों समान भाग लेकर एकत्र कूट लें।
आगपर डालकर आंखमें उसकी धूनी देनेसे तुरन्त इसे सरसों के तेलमें मिलाकर योनिको धूप देनेसे
आंखसे कृमि निकल कर पिल्ल रोग नष्ट होजाता है। अपरा निकल जाती है।
(९४३५) कुष्ठादिधूपः (९४३२) कटुतैलादिधूपः (मत्स्यदेशे)
(हा. सं. । स्था. ३ अ. ११) (रा. मा. । विषा. २८)
। कुष्ठं पथ्या तथा निम्बपत्राणि च मनःशिला। धूपः पुनः कटुकतैलनृकेशसक्तु- तस्मान्मधु घृतं मिश्रं निधूमाङ्गारके क्षिपेत् ॥
युक्तोऽस्य दंशपदके मुतरां प्रशस्तः। । धूपयेद् गुदजास्तेन यथा सम्पद्यते सुखम् ।।
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धूपप्रकरणम्]
परिशिष्ट
५८५
कूठ, हरं, नीमके पत्ते और मनसिल समान | मिलाकर निर्धूम अंगारों पर डालकर अर्शके मस्सों भाग लेकर एकत्र कट लें। इसमें घी और शहद को धूनी देनेसे पीड़ा कम हो जाती है ।
इति ककारादिधृपप्रकरणम्
अथ ककाराद्यञ्जनप्रकरणम् (९४३६) कणाञ्जनम् । अपस्मारे तथोन्मादे सर्पदष्टे गरादिते ।
(वै. जो. । विला. ३) विषपीते जलमृते चैताः स्युरमृतोपमाः ॥ निराकरोति नक्तान्ध्यं सगोमयरसा कणा । ___कैथका गूदा, हरी मूंग, नागरमोथा, खस, यथा रतेन रमणी रमणस्य महाबलम् ॥ जौ, सोंठ, मिर्च और पीपल; इनके समान भाग
गायके गोबर के रसमें पीपलके चूर्णको घोट | मिलित चूर्णको बकरे के मूत्र में खरल करके कर उसका अञ्जन लगाने से रतौंधा नष्ट होजाता है। | बत्तियां बनावें । (९४३७) कतकफलाद्यञ्जनम्
____ अपस्मार, उन्माद, सर्पदंश, विषविकार और (व. से. । नेत्ररोगा. ; ग. नि. । नेत्ररो. ३ ; पानीमें डूबने से हुई मूर्छा में इस वर्तिका अंजन वृ. मा. । नेत्ररोगा.)
अमृतके समान गुणकारी है। कतकस्य फलं शङ्ख तिन्दुकं' रूप्यमेव च ।।
(९४३९) कमलकन्दादियोगः कांस्ये निघृष्य स्तन्येन क्षतशुक्रार्तिरोगजित् ॥
(वै. म. र. । पटल १७) निर्मलीका फल, शंखनाभि, तेंदु के फलकी |
कृष्णाष्टमीनिशायां पङ्कज गुठली ( पाठान्तरके अनुसार लोध ) और चांदी;
मूलात्तमृत्तिकान्तःस्थम् । इन्हें कांसीके पात्र में स्त्रीके दूधके साथ घिसकर
कन्दं तमसि सुपिष्ट निद्रा आंखमें लगाने से क्षतशुक्र का नाश होता है ।
कुरुतेऽञ्जनात् सायम् ॥ ( ग. नि. में अन्यत्र इसी प्रयोगमें मुलैठी
कृष्ण पक्षकी अष्टमीको रात्रि में जमीनके अधिक है तथा ताम्रपात्रमें घिसने को लिखा है। ) |
भीतरसे कमलकी जड़ निकालकर उसे अन्धेरे में ही (९४३८) कपित्थादिवतिः
घिसकर आंखमें आंजनेसे नींद आ जाती है। ( वृ. मा. । अपस्मारा. ; वृ. यो. त.। त. ८९)
(९४४०) करञ्जबीजवतिः कपित्याशारदान्मुद्गान्मुस्तोशीरयवांस्तथा ।
( हा. सं. । स्था. ३ अ. १८) सत्योपान्धस्तमूत्रेण पिष्ट्वा वीः प्रकल्पयेत् ॥
करमबीज सह सैन्धवेन १ तिल्वकमिति पाठान्तरम्
रसोनपत्रस्य रसं च यत्र ।
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५८६
भारत-षज्य-रत्नाकरः
[ ककारादि
मार्कवं पथ्यां च वचा जलेन
ताड़ वृक्षका काष्ठ, नारियल, भिलावा, करीर पिष्ठाननं हन्ति दिनस्य तन्द्राम् ॥ ( पाठान्तरके अनुसार कनेर ) और बांस; इनकी
करन बीज ( कंजेकी मींगी ), सेंधा नमक, | राख समान भाग लेकर ४ गुने पानी में घोलकर ल्हसनके पत्तोंका रस, भंगरा, हर्र और च समान क्षारनिर्माण विधिसे स्वच्छ पानी टपका लें । भाग लेकर पानीके साथ अत्यन्त बारीक पीसकर तदनन्तर हाथीके बच्चेकी हडोके बारीक
को अंजन लग से दिनमें तन्द्रा आना बन्द | चूर्णको इस क्षार-जलकी ७-८ भावना देकर हो जाता है।
बारीक चूर्ण बनावें। (९४४१) करञ्जबीजाद्यानम् इसे लगानेसे असाध्य नेत्रशुक्र ( फूला ) भी (वा. भ. । उ. अ. १६ ; वृ. मा. । शिरोरोगा.) | काला हो जाता है और साध्य शुक्रके लिये तो यह फरमबीजं सुरसं सुमनः कोरकाणि च । परमोत्तम अञ्जन है। सक्षुध साधयेत्क्वाथे पूते तत्र रसक्रिया ॥ (९४४३) करवीरादियोगः अञ्जनं पिल्लभैषज्यं पक्ष्मणां च परोहणम् ॥
( ग. नि. । नेत्ररोगा. ३) करजवीज ( कलेकी गिरी), तुलसी और | सद्यः प्रकुपिते नेत्रे करवीराप्रपल्लवैः। चमेलीकी कलियां समान भाग लेकर एकत्र कूटकर अञ्जयेच्छान्तये यावन्मुख हि तितकं भवेत् ।। आठ गुने पानीमें पकावें और चौथा भाग रहने पर
___ जब आंखें दुखने आवे तो शीघ्र ही कनेरकी छानकर पुनः पकाकर गाढ़ा करें।
कोंपलोंका रस निकालकर बारबार आंखमें आंजे, इसका अंजन लगाने से पिल्ल रोग नष्ट होता ।
यहां तक कि मुंह कड़वा हो जाय । और पलको के वाल निकल आते हैं।
(९४४४) कर्पूराथञ्जनम् (९४४२) करभास्थ्यञ्जनम्
(र. चं. । शिरोरोगा.) ( वृ. मा । नेत्ररोगा. ; ग. नि. । नेत्ररोगा.)
कर्पूराअनसीसपारदकणा. तालस्य नारिकेलस्य तथैवारुष्करस्य च ।
तीक्ष्णानि पिष्टवा सकृन् । करीरस्याच वंशानां कृत्वा क्षारं परिस्रुतम् ॥
नंधावतरसैविशोष्य करभास्थिकृतं चूर्ण क्षारेण परिभावितम् ।
मधुना पिष्ट्वा पुनर्भानने ॥ सप्तकत्वोऽष्टकृत्वो वा सूक्ष्मचूर्ण तु कारयेत् ।।
शाङ्गे स्फाटिक एव वा एतच्छुक्रेष्वसाध्येषु कृष्णीकरणमुत्तमम् ।।
_ विनिहितं शुक्लार्मकाचापहम् । यानि शुक्राणि साध्यानि तेषां परमपञ्जनम् ॥ तैमियं च निकरोति । करवीरस्येति पाठान्तरम् ।
सहप्ता नेत्रेऽननं सर्वदा ॥
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अञ्जनप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
५८७
कपूर, सुरमा, सीसा, पारद, पीपल और (९४४७) कासीसाद्यञ्जनम् (२) तीक्ष्णलोह भस्म समान भाग लेकर प्रथम पारदमें (वृ. मा. । नेत्ररोगा.) सीसेको मिलाकर खरल करें और जब दोनों एक जीव । पुष्पाख्यतायेजसितोदधिफेनशङ्कहो जाएं तो उसमें अन्य ओषधियों का चूर्ण मिला सिन्धृत्थगैरिकशिलामरिचैः समाशैः । कर अच्छी तरह घोटकर उसे तगरके रसकी भावना | पिष्टैस्तु माक्षिकरसेन रसक्रियेयं दें और फिर शहदमें घोट कर सांगके या स्फटिक | हन्त्यमकाचतिमिरार्जुनवमरोगान् ।। मणिके पात्र में नरकर सुरक्षित रखें।
पुष्पाञ्जन, रसौत, सफेद मुरमा, समन्दरफेन, इसे आंखमें लगानेसे शुक्र, अर्म, काच और | शंख, सेंधा नमक, गेरु, मनसिल और काली मिर्च तिमिरका शीघ्र ही नाश हो जाता है । इनके समान भाग मिलित बारीक चूर्णको शहदमें
घोट कर आंखमें लगाने से अर्म, काच, तिमिर, (९४४५) कार्पासाद्यञ्जनम् (यो. र. । नेत्ररोगा.)
अर्ज और वर्म रोगों का नाश होता है ।
(९४४८) कुमारीवतिः कार्यासीफलजम्बामजलैघृष्टं रसाधनम् ।
(ग. नि. । नेत्ररोगा. ३) मधुयुक्तं चिरोत्थं च चक्षुःस्रावमपोहति ॥
स्यादभय उत्थसमा तुत्थादप्यष्टमो परिच भागः। लाल कपासके फल ( डोढे ), तथा जामन
| वर्तिरियं हि कुमारी गतपपि चक्षुनिवर्तयति : और आम ( की गुठली ) एवं रसौत समान भाग लेकर बारीक पीस लें।
____ हर का चूर्ण ८ भाग, नीलेथोथे का चूर्ण
८ भाग और काली मिर्चका चूर्ण १ भाग लेकर इस शहद में मिलाकर आंख में आंजनेसे पुराना
पानीमें घोटकर मौतयां बनावें। नेत्रत्राव ( इलका ) रोग र हो जाता है।
इस जखमें लगानेसे नष्ट चक्षु भी ठीक (९४४६) कासीसाद्यञ्जनम् (१) हो जाती है। (व. से. । नेत्ररोगा. )
(१५४९) कुलत्थानाञ्जनम् कासीसजातिकलिकारसा
(वै. जी. । वि. ३) अनक्षौद्रमरिचतुल्यांशः।
सम्यस्विन्नाश्छगलजरसे काननोत्थाः अपनयति पिल्लकत्वं पिष्टैः पयसामनं सधः ॥ कुलत्थाश्चैलबद्धाः परिहततुषाः प्रौढसी पन्तिकसीस, चमेलीको कली, रसौत और काली
नीभिः। मिर्च; इनका बारीक चूर्ण तथा शहद समान भाग सूक्ष्मं पिष्टाः पदुरसनिशाचूर्णपूर्णाः क्षपायां कर सबको दूधके साथ घोटकर अञ्जन बनावें । । चक्षुःक्षिप्ताः सकलरुधिरं संहरन्ति व्यहेण ।।
इसे आंख में लगाने से पिल्लरोग शीघ्र नष्ट बनकुलथी ( चाकसू ) को कपड़े की पोटलोमें हो जाता है।
बांध कर दोलायन्त्र विधिसे बकरीके मूत्रमें पकायें
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
(९४५०) केशराद्यञ्जनम्
( रा. मा. 1 बालरोगा. ३१ ) केशरदावलाक्षासुवर्णगैरिक शिलाकृमिघ्नकृतम् । सकलनयनामयनं बालानामञ्जनं कथितम् ॥
और फिर उसके छिलके अलग करके बारीक पीस कर उसमें सेंधा नमक, बोल और हल्दी का चूर्ण ( प्रत्येक उसके बराबर ) मिलाकर अच्छी तरह खरल करके सुरमा सा बारीक बना ले
(९४५२) कौलीतिकावर्तिः
I
(ग. नि. । नेत्ररोगा . )
इसे रातको आंखमें भरनेसे ३ दिनमें रक्तज पलानि विंशतिं दाय मूलतः सम्प्रकल्पयेत् । नेत्राभिष्यन्द नष्ट होता है । जले च षोडशगुणे रात्रिमेकां निधापयेत् ॥ मृदाant क्वाथयेत चतुर्थीशावशेषितम् । निःस्त्राभ्य क्वाथयेभूयस्त्वजाक्षीरेण संयुतम् ॥ पादिकेन भिषग्दद्यादव हत्यमागतम् | अदग्धं तु तं कल्कं छायायां परिशोषयेत् ॥ कौलीतिका वर्तिरियं सर्वनेत्ररुजापहा । सर्वाभिष्यन्दशमनी स्वयं प्रोक्ता पिनाकिना ।
केसर, दारूहल्दी, लाख, सोनागेरु, मनसिल और बायबिडंग; इनके समान भाग मिलित चूर्णको खरल करके अंजन बनावें ।
|
यह अञ्जन बालकों के समस्त नेत्ररोगों को है ।
(९४५१) कोकिलागुटी
1
( ग. नि. । नेत्ररोगा. ३ ) व्योपायचूर्णसिन्धूत्यत्रिफलाञ्जनसंस्कृता । गुटिका जलपिष्टे कोकिला तिमिरापहा ।।
सोंठ, कालीमिर्च, पीपल, लोहचूर्ण, सैंधा नमक, हर्र, बहेड़ा, आमला, और सुरमा, इनके समान भाग मिलित चूर्णको पानीमें पीस कर गुटिका बनावें ।
[ ककारादि
इसे आंख में लगानेसे तिमिर रोग न
होता है ।
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१०० सोले दारूहल्दी की जड़ को कूट कर १६ गुने (३२ गुने) पानी में एक रात भिगोने के पश्चात् मन्दाग्नि पर पकावें । जब चतुर्थांश पानी शेष रह जाए तो उसे छानकर उसमें उसका चतुथींश बकरीका दूध मिला कर पुनः पकावें और जब अवलेह के समान गाढ़ा हो जाय तो वर्तियां बना कर छाया में सुखा लें। पकाते समय इस बात का ध्यान रक्खें कि औषध जल न जाए ।
इसे आंख में लगाने से समस्त प्रकार के नेत्राभिष्यन्द नष्ट होते हैं । यह बर्ति स्वयं भगवान शंकर द्वारा आविष्कृत है ।
इति ककाराद्यञ्जनप्रकरणम्
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नस्यप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
५८९
अथ ककारादिनस्यप्रकरणम् (९४५३) कटुतुम्बिमूलनस्यम्
| यह नस्य समस्त शिरोरोगोंमें शिरोविरेचन (रा. मा. । मुख रोगा. ५)
कराने के लिये उपयोगी है। संपेषितः पर्युषितोदकेन
(९४५६) कर्कोटमूलादिनस्यम् पटान्तनिश्चोतननिर्मलश्च ।
( व. से. । पाण्ड्वा ) घ्राणोद्भवा सि निहन्ति
नस्यं कर्कोटमूलस्य प्रेयं वा जालिनीफलम् । सद्यो नस्येन कन्दः कटुवम्बिकायाः॥ गुडूचीपत्रकल्कं वा पिबेत्तक्रेण कामली ॥
कडवी तंबीकी जड को बासी पानी में पीस | भक्तं तक्रेण भुञ्जीत स जहात्याशु कामलाम् ॥ कर कपड़े में लपेट कर निचोड़ें । इस प्रकार
कामला रोगमें ककोड़े की जड़ के चूर्ण की निकाले हुवे स्वच्छ रस की नस्य लेनेसे नाक के
या कड़वी तोरी के चूर्णकी नस्य देनी और गिलोय भीतर की अर्श ( मस्सों ) का शीघ्र ही नाश हो । के पत्तों को तक्र के साथ पीस कर उसी में मिला जाता है।
कर पिलाना चाहिये। (९४५४) कपित्थपत्रयोगः
पथ्य-तक भात । ( वै. म. र. । पटल ३)
इस उपचार से कामला रोग शीघ्र नष्ट हो फपित्यपत्राणि विदितानि
जाता है। हिकामु जिघेदयवाऽर्कतप्तम् ॥ कैथ के पत्तों को पीस कर ( रस निकाल
(९४५७) काकोदुम्बरियोगः कर उसे ) धूप में गर्म कर के सूंघने से हिक्का का (व. से. । वातव्या ) नाश होता है।
काकोदुम्बरिदुग्धैः सराम?हेरेत्सर्वयोगविश्च । (९४५५) करञ्जादिनस्यम् कपिकच्छुमूलयुक्तैर्नस्यैरपबाहुजां पीडाम् ॥ .
( व. से. शिरोरोगा.) ___कठूमरके दूधमें हींग और कौंचकी जड़का करअशिग्रुबीजानि पत्रकं शर्करा वचा।
चूर्ण मिलाकर उसकी नस्य देने से "अपबाहुक" सर्वेषां शीर्षरोगाणामेतच्छीर्षविरेचनम् ॥ | नामक वातव्याघि नष्ट हो जाती है। ____ करा ( कञ्ज ) के बीजोंकी मींगी, सहजने ।
(९४५८) कार्पासमजादिनस्यम् के बीज, तेजपात, खांड और बचः सबके समान ! (ग. नि. । शिरोरोगा. १; वा. भ. । उ. अ. २४) भाग मिलित चूर्णको एकत्र मिला कर खरल कार्पासमज्जात्वङ्मस्तं सुमनःकोरकाणि च । कर लें।
नस्यमुष्णाम्बुपिष्टानि सर्वमूर्धरुजापहम् ।।
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भारत-भैषज्य-रत्माकरः
[ ककारादि
कपासके बीज ( बिनौले ) की मींगी, दाल- कुलक ( कुचला, पटोल या मरवा ) की चीनी, नागरमोथा और चमेलीकी कलियां समान | जड़की नस्य देनेसे काल के समान भयंकर सर्प का भाग लेकर बारीक चूर्ण करके गरम पानीमें पीसें | विष भी नष्ट हो जाता है ।
और उसे कपड़े में रख कर निचोड़ लें। इसकी (९४६१) कुष्माण्डादिनस्यम् नस्य लेने से समस्त प्रकार के शिरशूल नष्ट (वै. म. र. | पट. १) होते हैं।
कूष्माण्डपुष्पस्वरसेन नस्यं (९४५५) कुङ्कुमादिनस्यम्
सविश्वसारेण कृतं ज्वरघ्नम् । (प. से. । शिरोरोगा.)
वातात्मजेनाहृतमौषधं
तद्रामानुजस्येव नयेत्पबोधम् ।। शर्कराकुङ्कम द्राक्षा चतुर्थांशेन निक्षिपेत् ।
पेठे के फूलों के रसमें सोंठका ( लाद्रकका ) नवनीते ततस्तेन कृत्वैक्य नस्यमाचरेत् ॥
| रस मिलाकर नस्य देने से ज्वर नष्ट होता है। नस्यमेतत्पशंसन्ति सूर्यावर्ता भेदके ।
(९४६२) कृतमालादिनस्यम् शिरोरोगे परं वापि वातपित्तसमुद्भवे ॥
(व. से. । शिरोरोगा.) ___ खांड, केसर और द्राक्षा ( मुनक्का ) १-१ भाग ले कर बारीक पीस लें और फिर उसमें १२
कृतमालपल्लवरसैः खर
मअरीमूलकल्कनवनीतम् । भाग मक्खन मिला लें।
नस्येन जयति नियत इसकी नस्य लेनेसे सूर्यावर्त, अर्धावभेद तथा /
सूर्यावर्त सुदारुणं पुंसाम् ॥ वातपित्तज शिरोरोगों का नाश होता है।
छोटे अमलतासके पत्तों के रसमें अपामार्गकी (९४६०) कुलकमूलनस्यम्
जडको बारीक पीस कर उसमें नवनीत (मक्खन) ( व. से. । विषा.) मिलाकर नस्य देने से भयंकर सूर्यावर्त रोग भी कुलकमूलनस्येन कालदष्टोऽपि जीवति ॥ । अवश्य नष्ट हो जाता है ।
इति ककारादिनस्यमकरणम्
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रसपकरणम् ]
परिशिष्ट
.५६१
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अथ ककारादिरसप्रकरणम् (९४६३) कङ्कुपचूर्णम् गुदार्तिगुल्मव्रणशूलहृत्परं (वृ. यो. त. । त. १०५ ; व. से. । उदरा.) ।
प्रचक्षते शास्त्रविदः पुराणाः ॥ ककुष्ठचूर्णमुष्णाम्बु पीतं संरेच्य मानवम् ।
शुण्ठयम्भसा भाक्तिमेव । । अष्टाभ्योऽप्युदरेभ्यश्च द्रुतं कुर्याद्विनिर्गतम् ॥
काष्ठमायाति हि सत्यमुक्तम उष्ण जलके साथ कंकुष्ठ ( उसारे रेवन्द ) का चूर्ण खानेसे विरेचन होकर आठों प्रकारका सत्वाकृष्टिन च प्रोक्ता पर
काहि तत् ! उदर रोग नष्ट हो जाता है।
यवमात्र भजेदेन विरेक न संश..॥ (मात्रा-१ रत्ती से २ २०ी तक।)
क्षणादामज्वरं : नेत जाते गति विरेचने । (९४६४) ककुष्ठशोधनम् | ताम्बूलेन समं चैवं भक्षित सारयेद्धृवम् ।। (र. प्र. सु. । अ. ६ ; र. र. स. । पृ. अ. बबूलमूलिकाकाथं सौभाग्याजाजीसंयुतम् । ___३ ; आ. थे. प्र. । अ. १०)
भूयो भूयः पिबेद्धीमान् विषं कष्ठजं जयेत् ।। पर्वते हिमसमीपवर्तिनि
____ कंकुष्ट हिमालय के निकटवर्ती पर्वतों में होता जायतेऽतिरुचिरं कष्टकम् । है । यह देखने में सुन्दर मालूम होता है। एकमेव नलिकाभिधानक
कंपुष्ट दो प्रकारका होता है; एक तो नलिकारेणुकं तदनु चापरं भवेत् ।।
कार और दूसरा चूर्ण रूप। पीतवर्णमसणं च वै गुरु स्निग्धमुत्तमतरं प्रचक्षते ।
नलिकाकार कंकुष्ठ पीला, स्निग्ध और भारी
होता है । यह उत्तम माना जाता है । दूसरे प्रकारका श्यामपौतमतिहीनसत्व
। (चूर्ण रूप ) कंकुष्ठ ग्यामता लिये हुवे पीला होता शुकं हि कथितं द्वितीयकम् ।।
। है । इसमें सत्व बहुत कम होता है और इसीसे बदन्ति कष्टमयापरे हि ___ सधः प्रसूतस्य च दन्तिनः शकृत् ।
यह निकृष्ट होता है। तत्कृष्णपीताभमतीव रेचन
कोई कोई हाथीके नवजात बच्चे के मल को तृतीयमाहुर्विबुधा भिषग्वराः ॥
| भी तीसरी प्रकारका कंकुष्ठ कहते हैं । यह काले
पीले रंग और अत्यन्त रेचक होता है । फडठकं तिक्तकटूष्णवीय विशेषतो रेचनकं करोति ।
कंकुष्ट तिक्त, कटु, ऊष्ण और विशेष रेचक
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५६२
[ ककारादि
पारे गंधककी कज्जली को आमलेके रस की भावना देकर सुखाकर उसमें खांड मिला कर सेवन करनेसे मदात्यय रोग नष्ट हो जाता है । ( मात्रा - २ रत्ती । ) (९४६७) कज्जलीयोग: (३) (र. च. 1 उपदंशा . )
X
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कंकुष्ठ सत्वमय होता है अत एव उसका सत्व कर्षमात्रं रसं शुद्धं द्विकर्ष गन्धकं स्मृतम् । विधिवत्कज्जलीं कृत्वा तच्च गोघृतसंयुतम || माषमात्रं प्रतिदिनं दद्यादेवं त्रिसप्तकम् । गोधूमान्नं घृतं पथ्यं कारयेल्लवणं विना ।। उपदंशापहः श्रेष्ठो योगो मुनिभिरीरितः ।
शुद्ध पारा ? | तोला तथा शुद्ध गंधक २ || तोले ले कर कज्जली बनावें ।
इसे १ | माशेकी मात्रानुसार गोघृतके साथ सेवन करने से ३ सप्ताहमें उपदंश नष्ट हो जाता है । उपदंश के लिये यह एक उत्तम योग है । पथ्य — गेहूं की रोटी और घी । अपथ्य - लवण |
1
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः
होती है । यह गुदपीड़ा, गुल्म, व्रण और शूलको
नष्ट करता है ।
शुद्ध हो जाता है ।
X
X
कंकुष्ठको सोंठके क्वाथकी भावना देने से वह
नहीं निकाला जाता ।
इसे १ जौके बराबर पानके साथ खिलाने से विरेचन होकर आमज्वर तुरन्त नष्ट हो जाता है ।
X
X
X
बबूर (कीकर) की जड़ के क्वाथमें सुहागेकी खील और जीरे का चूर्ण मिलाकर पिलानेसे (अन्यथा प्रयुक्त) कंकुष्ठका विष नष्ट हो जाता है।
1
(९४६५) कज्जलीयोग: ( १ )
( वृ, यो त । त. ११० ; भै. र. ) वरुणादिकषायेण रसगन्धककज्जली । क्ता निहन्ति माका बाह्यमन्तश्च विद्रधिम् ||
---
पारे गन्धककी कज्जली वरुणादि गणके कषायके साथ सेवन करनेसे बाह्य विद्रधि तथा अन्तर्विद्रधि नष्ट हो जाती है ।
मात्रा- १। माशा ( व्यवहा. मा. २ रत्ती । ) ( ९४६६) कज्जलीयोगः (२)
( र. च.; यो. र. । मदात्यया . ) धात्रीस्वरसनिपीता रसगन्धककज्जली सितासहिता । हरति मदात्ययरोगमाशु गरुत्मानिवोरगान्सहसा |
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( व्यवहा. मा. ३ रत्ती | ) (९४६८) कज्जलीरसायनम् ( र. र. स. 1 उ. अ. २६ ) रसगन्धकमध्वाज्यशिलाजत्वम्लवेतसम् । द्विमापमितं वेगान्मासमात्राज्जरां जयेत् ॥
१ - १ भाग शुद्ध पारद और गंधककी कज्जलो बना कर उसमें १-१ भाग शहद, घी, शिलाजीत और अम्लवेतका चूर्ण मिला कर अच्छी तरह खरल करें ।
इसे २ माशे की मात्रानुसार सेवन करने से एक मास में जरा ( वृद्धावस्था ) का नाश हो जाता है।
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रसपकरणम्
परिशिष्ट
५६३
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(९४६९) कणाधलोहम् । धृतस्येवं बीजकानीह शुद्धा(र. र.; र.का. घे. । ग्रहण्य.; रसे. सा. सं. । ग्रहण्य.) 'न्येवं कृत्वा तच्च चूर्ण विधेयम् ॥ कणानागरपाठाभित्रिवर्गद्वितयेन च ।
प्रातः सायं भक्षितं वल्लमात्रं बिल्वचन्दनहीबेरैः समं लोहं प्रदापयेत् ॥
जूर्ति रक्तं नाशयेचातिसारम् । सर्वांतीसारशमनः सग्रहणीहरः।
दध्यन्नं वा भोजयेत्तक्रयुक्तं सर्वोपद्रवसंयुक्तामपि हन्यात्मवाहिकाम् ॥
हन्यादेवं चाग्निमान्धं सुतीव्रम् ॥ नानेन सदृशो लोहो विद्यते ग्रहणीगदे ॥
काली मिर्च, सुहागेको खील, शुद्ध हिंगुल, पीपल, सोंठ; पाठा, हरं, बहेड़ा, आमला,
शुद्ध गन्धक, पीपल, शुद्ध बछनाग, और शुद्ध दालचीनी, इलायचो, तेजपात, बेलगिरी, चन्दन |
धतूरे के बीज; सबके समान भाग चूर्णको एकत्र और सुगन्धवाला; इनका चूर्ण १-१ भाग तथा
मिला कर खरल करें। लोहभस्म सब के बराबर लेकर सबको एकत्र ! मात्रा-३ रत्ती। खरल करके रक्खें।
इसे प्रातः सायं सेवन करनेसे ज्वरातिसार इसके सेवन से समस्त प्रकारके अतिसार, | और रक्तातिसार तथा घोर अग्निमांद्यका नाश होता है। संग्रहणी और समस्त उपद्रव युक्त प्रवाहिका- पथ्य-दही, भात, तक। पेचिश-का नाश होता है।
(९४७१) कनकसुन्दरो रसः (१) ग्रहणी रोग के लिये इससे उत्तम कोई लोहप्रयोग नहीं है।
(र. चि. म. । स्त. ७ ; र. का. धे। विध्य.) (मात्रा-२ रत्ती ।)
गद्याणद्वितयं सूतं गन्धकं तत्समं स्मृतम् ।
तत्सम मरिचं चैव सङ्ग्राह्यं च तथाभ्रकम् ॥ (९४७०) कनकसुन्दरी गुटिका
शृङ्गीविषं च गृह्णीयादेवमेतद्विघृष्यते । (कनकप्रभावटी, कनकसुन्दररसः) निर्गुण्डिकारसैः साकं मर्दयेदेकतः कृतम् ॥ (र. प्र. सु. । अ. ८; मै. र. । ज्वराति. ; र. | गोल कारयेद्वादं तत्पश्चाटपी न्यसेत्र । रा. सु. ; रसें. सा. सं ; र. का. धे.। ज्वराती.) अन्धमूषागतं कृत्वा वालुकायन्त्रमध्यगम् ।। मारीचं चेट्टणं हिङ्गुलं च
तस्योपरि भवेङ्गारसोनत्रिफलाजलैः । गन्धाश्मा वै पिप्पलीवत्सनाभम् । आपूर्यते निरुध्याथ वह्निः स्यादिनसप्तकम् ॥
१ भै. र. में जयाके रसमें खरल करके गोली पच्यते च शनैस्तावत्पश्चाच्छीतं समुद्धरेत् । बनानेको लिखा है। तथा यही प्रयोग " कनक रक्तिकै द्वयं चाथ वल्लं वास्य प्रयच्छति ॥ मुंदर रस" के नामसे भी दिया है जिसमें जया । १र. का. धे. में गन्धक के समान ताम्र है के स्थानमें विजया (भांग)को भावना लिखी है। ! तथा मरिचके स्थानमें स्वर्ण लिखा है।
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५९४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ ककारादि
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सन्निपाते समायाते सूतमेनं प्रयोजयेत् । । मूततुल्यं विषं योज्यं रसः कनकमुन्दरः । दुःस्थिते चाप्यतीसारे विध्वरे सज्वरेपि वा ॥ युक्तो गुनाद्वयं हन्ति वातातीसारमद्भुतम् ।। अग्निमान्ये तथा दद्यादुदरे च महोदरे। दध्यन्नं दापयेत्यध्यमानं वाथ गवां दधि ।। विद्रधौ रुद्ररूपे च सामे कामं च दीयते ॥ १-१ भाग शुद्ध पारद और गंधकको कञ्जली ग्रहण्यादिविकारेषु कामलासु च पाण्डुके। | करके उसमें १-१ भाग काली मिर्चका चूर्ण, अष्ठीलादिगदेष्वेष प्रयुक्तो हन्ति तान्गदान् ॥ सुहागेकी खोल, धतूरेके शुद्ध बीजोंका चूर्ण और
शुद्र बछनागका चूर्ण मिलाकर २ पहर भंगरेके शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, काली मिर्च, अभ्रक
रसमें खरल करके २-२ रत्तीकी गोलियां बना लें। भस्म और शुद्ध बछनाग समान भाग लेकर प्रथम पारे गैरक की कजली बनायें और फिर उसमें
यह रस वातातिसारमें अद्भुत गुण दिखलाता है। अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर संभालू के रसमें
पथ्य-गाय या बकरीकी दही और भात । खरल करें और उसका एक दृढ़ गोला बनाकर कपर्दिकामारणं तथा शोधनम् उसे अन्धमूषामें बन्द करके बालुका यन्त्रमें रक्खें।। वराटिकामारणं तथा वराटिकाशोधनं देखिये। बालके ऊपर भांग और ल्हसनका रस तथा त्रिफले का क्वाथ भरकर हाण्डीके मुख पर शराव ढककर
___ (९४७३) कफकुठाररसः सन्धिको बन्द कर दें और फिर उसे सात दिन
(र. चं. । कफा.) तक मन्दाग्नि पर पकायें । तत्पश्चात् स्वांग शीतल | शुदं मूतं विषयलिसमं शाणमान घयस्त्रिः । होमे पर औषधको निकालकर पीसकर रख लें। बीजं रौक्म्यं पिचुपरिमितं टङ्कणं शाणयुग्मम् ॥
मात्रा-१ से ३ रत्ती तक । जातीपुष्पं स्वकरकरभं मुष्ठ वङ्गं पलैकम् । यह रस सन्निपात, भयंकर वरातिसार, |
देयं गुभात्रिमानं गलगतकफध्वंसनोऽयं कुठारः।। अतिसार, अग्निमांद्य, उदर रोग, उदरवृद्धि, विद्रधि, शुद्ध पारा, शुद्ध बछनाग और शुद्ध गंधक ग्रहणी विकार, पाण्डु, कामला और अष्ठीला आदि || ३||| माशे; लोह भस्म ११। माशे, 4 के का नाश करता है।
शुद्ध बीज १ तोला, सुहागेकी खील ७ ॥ माशे (९४७२) कनकसुन्दरो रसः (२)
तथा जावत्री, अकरकरा और बंग भस्म ५-५
तोले लेकर प्रथम पारे गंधककी कजली बनावें (र. रा. सु. ; र. का. घे. ; र. र. । अतिसारा ;
और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर रसे. चि. म. | अ. ९) अच्छी तरह खरल करें। शुद्धसूतं समं गन्धं मरिचं टङ्कणं तथा। मात्रा-३ रत्ती। स्वर्णबीजं समं मद्ये भृङ्गद्रावैदिनार्द्धकम् ।। ___ यह रस गलेमें भरे हुवे कफको नष्ट करता है।
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रसमकरणम् ]
परिशिष्ट
५६५
(९४७४) कफान्तकरसः तालीसपत्रं त्वय नागपुष्प (र. का. धे, । कासा.)
तमालपत्रं कपिकच्छुबीजम् ।
साचं गुडूच्याः क्षुरकस्य बीजं अमृतं टङमा स्यानिशाटई द्विसप्तधा।
वटी विधेया सितया समेता ॥ टङ्कणं दशटकं स्यात्कणा स्यात्तावदेव तु ॥
वातप्रमेहं सकर्फ सपित्तं रक्तिकाद्वितयं खादेत्पर्णखण्डेन बुद्धिमान् । श्वासं च कासं बहुसन्निपातान् । कफान्तकरसो ह्येष कासवासनिबर्हणः ॥ बलं च हीनं स्वरभागजाडचं
शुद्ध बछनागका चूर्ण १ भाग, हल्दीका चूर्ण | निहन्ति कामं खलु दीपयत्यपि ॥ १४ भाग, सुहागेकी खील १० भाग और पीपलका | कपूर, काकड़ासिंगी, धतूरेके बीज, जायफल, चूर्ण १० भाग लेकर सबको एकत्र खरल करें। लोह भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, मात्रा-२ रत्ती।
बंग भस्म, नाग भस्म, ताम्र भस्म, इलायची, शुद्ध
बछनाग, धनिया, सोंठ, मिर्च, पीपल, तालीसपत्र, इसे पानमें रखकर खानेसे कास श्वासका
नागकेसर, तमालपत्र (तेजपात ), कौंचके बीज, नाश होता है।
गिलोयका सत और तालमखाना समान भाग लेकर (९४७५) कर्पूरशोधनम्
प्रथम पारे गंधककी कग्जली बनावें और फिर
उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण तथा (सबके बराबर) (यो. र.)
खांड मिलाकर (पानीके साथ खरल करके ५-५ गोदुग्धे त्रिफलाक्वाथे भृगदावे समांशके । रत्तीकी ) गोलियां बना लें। मर्दयेषाममात्रं तु कर्पूरै भुद्धिमाप्नुयात् ।।
इनके सेवनसे वातज प्रमेह, पित्तप्रमेह, कफगोदुग्ध, त्रिफलाका क्वाथ और भंगेरका रस । प्रमेह, श्वास, कास, सन्निपात, निर्बलता, स्वरभंग समान भाग लेकर एकत्र मिलाकर उसमें १ पहर | और जड़ताका नाश होता तथा कामाग्नि तक घोटनेसे कपूर शुद्ध हो जाता है। दीप्त होती है।
(९४७६) कर्तरादिगुटिका (९४७७) कलायचूर्णादिगुटिका
(ग. नि. । परि. गुटिका. ४ ) (च. द. । परिणामशूला. २७ ; वं. से. ; र. कर्पूरीमुनमत्तबीज
का. धे.; . मा. । शूला ) जातीफलं लोहमृताभ्रक च। कळायचूर्णभागौ द्वौ लोहचूर्णस्य चापरः । रसोऽय गन्धं त्रपु नागशुल्वे
कारखेल्लपलाशानां रसेनैव विदितः ॥ एला विषं धान्यकत्रिकं च ॥
१ लोह किट्टस्येति पाठान्तरम्
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि कर्षमात्रां तमश्चैकां भक्षयेद् गुटिकां नरः। । पर्णखण्डेन तत्साधैं पुनस्ताम्बूलचर्वणम् । मण्डानुपानात्सा हन्ति जरत्पित्तं सुदारुणम् ॥ | मुखशुद्धधर्थमेतस्य तत्फलश्रुतिरुच्यते ॥
मटरका चूर्ण २ भाग और लोहभस्म (पाठान्त- सन्निपातेऽपि समाते विषमे वामिनाशने । रके अनुसार मण्डूर भस्म) १ भाग लेकर दोनोंको कुष्ठे सकुष्ठे दुष्टे च सव्यये पवनात्यये । एकत्र मिलाकर करेले और पलाशके रस में १-१ । सामे निरामे कामे च दातव्योऽसौ महारसः । दिन घोटकर ११-१॥ तोलेकी गोलियां बना लें। | घस्मरे चाप्यपस्मारे कासे श्वासे विशेषतः ॥
इसे मण्डके साथ सेवन करनेसे दारुण परिणाम | पाण्डुरोगे च विड्भेद उदरे अबलेऽपि च । शूल नष्ट हो जाता है।
घृतादिकश्च यद्युक्तं तत्सर्व भस्मसाद्भवेत् ॥ ( व्यवहा. मा. ४ रत्ती ।) कालतः पलितं हन्ति खलित विशेषतः। (९४७८) कल्पपादपो रसः
वनकायो भवत्येव निरपायो विशेषतः ॥
दीर्घायुः कामरूपी च स्त्रीणामत्यन्तवल्लभः । (र. का. धे. । रसाय.) विंशभागमितं तानं सूताद् भागत्रया शिला ।
उत्साही स्मृतिमान पायो मेधावी सुस्वरः परः तावन्त्येव प्रमाणेन भव्यभल्लातकानि च ॥
ब्रह्मास्त्रं यद्यसिद्धं स्यादरेश्चक्रश्च निष्फलम् । भवन्ति तानि तावन्ति तन्मध्ये सकलानि च ।
शिवशूलमथायाति शक्रशस्त्रं निवर्तते ॥
तदाऽयं सर्वरोगेषु प्रयुक्तः प्रतिहन्यते । इण्डिकायन्त्रमध्यस्थं ताने सर्व समाक्षिपेत॥ द्विगुणं गन्धकं दत्त्वा अधस्ताचोर्ध्वकं क्षिपेत् ।
स्वयं स्वयम्भूभगवान् यदि वेधा विधानवित् ।। पश्चयामावधि-वत्तावच्चुल्यां परिक्षिपेत् ॥
जानाति नो नूनमस्य रसराजस्य तन्महः । उत्तार्यते स्वयंशीतं तत्तानं मृतमुच्यते ।
य एनं सेवते नित्यं न कालकलनां व्रजेत् ॥ पिप्पल्याः स्वरसेनादौ चिश्चिकास्वरसेन तत् ॥
भृङ्गराजस्य यः कल्पो यः कल्पाशाल्मलीभवः भावनाश्च पुटान्दद्यात्प्रत्येकं पञ्चपञ्च च । हरीतक्याश्च यः कल्पो दन्तीकल्पोऽपि विद्यते॥ रेचनाय ततः स्थाप्य किञ्चित्तस्माच्च ताम्रतः॥
सोमराज्याः परः कल्पो रुदन्त्या अपि यः परः। पिप्पल्या सहितं दद्यात्सम पणेन माषकम् ।
भल्लातकस्य यः कल्पस्तथा निर्गुण्डिकाभवः ॥ तदेतद्रेचयेत्सम्यग् यावद्यामावधिर्भवेत् ॥
लोहकल्पोऽपि यः प्रोक्तः कल्पो गोक्षुरकस्य च नैव क्लेदो नातिमूर्छा वान्तिर्धान्तिन विद्यते ब्रह्मयोगोऽस्ति यो भूमौ विष्णुयोगो महोत्तमः॥ अथान्यद्यद्भवेत्तानं भावयेत्रिफलाम्बुभिः ॥ रुद्रयोगस्तु विख्यातो यागियोगोऽपि दृश्यते । काफमाचीरसस्याथ भावनात्रितयं त्रयम् । | गुटिका मूलिका मत्र्ये विद्यन्ते देहसाधने । धुत्तूरस्य रसस्यापि भृगराजस्य भावनाः ।। एतस्मानापराः सर्वे विद्यन्ते नाधिका रसाः । चतुर्गुञामितं दद्यात्रिकटुत्रिफला समा। एवं सम्यग् हृदि ध्यात्वा स्मर्तव्यः कल्पपादपः॥ जातीफलं लवङ्गं च चूर्ण कृत्वाऽथ निःक्षिपेत् ।। शुद्ध ताम्रके पत्र २० भाग, शुद्ध पारद २०
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रमप्रकरणम्]
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५६७
भाग, शुद्ध मनसिल ३ भाग, भिलावे ४३ भाग और उपरोक्त ताम्रभस्ममें से आवश्यक्तानुसार विरेशुद्ध गंधक १७२ भाग लेकर प्रथम पारद, चन कराने के लिये थोड़ी भस्म पृथक् निकाल कर मनसिल और गंधक को एकत्र खरल करके कज्जली सुरक्षित रखें और शेष को त्रिफलाके क्वाथ, तथा बनावें और फिर भिलावों को कूटकर उसमें मिला | मकोय, धतूरा और भंगरा; इनके रसकी पृथक् दें । तदनन्तर एक हाण्डी में इसमेंसे आधी कज्जली | पृथक् ३-३ भावना दें। बस "कल्प पादप रस" भर कर उस पर उपरोक्त लाम्र पत्र रख दें और | तैयार हो गया। उनके ऊपर शेष कज्जली बिछाकर हाण्डीके मुख मात्रा-४ रत्ती । (व्यवहा. मा.-१ रत्ती) पर शराव ढक कर उस पर ४-५ कपड़ मिट्टी
__अनुपान-त्रिकुटा-चूर्ण, त्रिफला-चूर्ण, कर दें एवं उसे चूल्हे पर चढ़ाकर ५ पहर पाक
| जायफलका चूर्ण और लौंगका चूर्ण समान भाग करें । तत्पश्चात् स्वांग शीतल होने पर हाण्डीमें से | लेकर सबको एकत्र मिला लें। उपरोक्त रस और ताम्रको निकाल लें। इस प्रकार ताम्रकी भस्म |
यह चूर्ण पानमें रख कर रोगी को खिलावें तथा हो जाती है।
उसके पश्चात् मुख शुद्धिके लिये दूसरा पान खिलावें। (हाण्डी अच्छी बड़ी, मजबूत और ४-५
इसके सेवन से सन्निपात ज्वर, विषमज्वर, कपड़मिट्टी की हुई होनी चाहिये और समस्त
अग्निमांद्य, कुष्ठ, वातव्याधि, आमवात, कामज्वर, औषध भरनेके पश्चात् आधी हाण्डी खाली रह
अपस्मार, कास, श्वास, पाण्डु, अतिसार, उदररोग जानी चाहिये एवं ऊपरके शराव में धुवां निकालनेको
और निर्बलताका नाश होता है । एक छिद्र रहना चाहिये । ऐसा न किया जायगा तो गंधक के जलने के समय हाण्डीके टूट
इसके सेवन से घृतादि समस्त भारी पदार्थ जानेका भय रहेगा)
शीघ्र ही पच जाते हैं। ____ अब इस ताम्र-भस्मको पीपलके स्वरस में इसे दीर्घकाल तक सेवन करनेसे पलित और खरल करके यथाविधि पुट लगावें । इसी प्रकार विशेषतः खालित्य (गंज ) का नाश होता है तथा पीपलके स्वरसकी ५ पुट देनेके पश्चात् ५ पुट ! शरीर वज्रके समान दृढ़ और निरोग हो जाता है; इमलीके स्वरसमें घोट घोटकर दें।
आयु दीर्घ होती है और रूप लावण्यकी वृद्धि होकर इसमें से १ माशा रस पीपलके वर्णमें मिला मनुष्य स्त्रीप्रिय हो जाता है। इसके प्रभावसे उत्साह, कर पानके साथ खिलानेसे भली प्रकार विरेचन हो । स्मृति, मेधा और स्वरकी वृद्धि होती है । जाता है और १ पहर तक दस्त आते रहते हैं। यदि ब्रह्मास्त्र, हरिका चक्र, शिवका त्रिशूल इससे क्लेद, वमन और भ्रान्ति नहीं होती और और इन्द्रका वज्र निष्फल हो जाय तो यह रस न ही अधिक मूर्छा आती है।
भी निष्फल हो सकता है अन्यथा नहीं। इसके (व्यवहारिक मात्रा-१ रत्ती।) पूर्ण गुणोंको तो कोई जानता भी नहीं ।
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५६८
आयुर्वेद में भृङ्गकल्प, शाल्मलि कल्प, हरीतकी कल्प, दन्तीकल्प, सोमराजी कल्प, रुदती कल्प, भल्लातक कल्प, निर्गुण्डी कल्प, लोहकल्प और गोक्षुर कल्पादि अनेक उत्तमोत्तम प्रयोग हैं परन्तु इस रससे उत्तम कोई भी नहीं है ।
(९४७९) कस्तूरीरस:
(र. का. . । पाण्ड्वा. )
लोहरजो गिरिजारज ईशरजो मृगजरेणवो वृद्धाः । क्रमतः खल्वे पिष्टाः कणाद्भिभविता दिवसम् ।। कृत्वा गोलममीषां शुष्कं यत्रे प्रवेश्य कच्छप |
नाशनोऽलवणचजाम् ।
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कृतमुद्रं मृलितं सिकता
यन्त्रे पचेत् त्रिदिनम् ॥ मन्दाग्निना सुशीतायन्त्रादुद्धृत्य मेलयेन्मृगजैः । षोडशमगधामधुभिरनुपानं सर्वरोगेषु ॥ कस्तूरीरससो जरारुजां
अतिवृष्यो बाजी कृत्
भारत-भैषज्य रत्नाकर:
ोधी कामिनीवशकृत् ॥
लोह भस्म १ भाग, शुद्ध गंधक २ भाग और शुद्र पारद ३ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके १ दिन पीपल के क्वाथमें घोटकर, गोला बनाकर सुखा लें । तदनन्तर पानी से भरी हुई कढ़ाई में मिट्टी का कुंडा रखकर उसके बीच में भीगी हुई मिट्टीसे एक कुंडाला बनावें और उसमें वह गोला रखकर उसे लोहेकी कटोरीसे ढक कर
[ ककारादि
। सन्धिको अच्छी तरह बन्द कर दें तथा उस कटोरीको रेतीसे ढक दें। अब इस यन्त्रको बालसे भरी हुई अच्छी बड़ी हण्डी में रखकर ३ दिन तक मन्दानि पर पाक करें | रेती कढ़ाईके किनारों तक आजानी चाहिये परन्तु यह ध्यान रखना चाहिये कि रेती पानी में न गिरे । यदि पानी सूख जाय तो और डाल देना चाहिये ।
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तदनन्तर उसके स्वांग शीतल होने पर निकाल कर उसमें ४ भाग कस्तूरी मिलाकर खरल करके रखे ।
इसे यथोचित मात्रानुसार १६ काली मिर्चों के चूर्ण और मधुके साथ सेवन करने और लवण रहित आहार करनेसे जराव्याधिका नाश जाता है | यह अत्यन्त वृष्य, वाजीकर और क्षुधावर्धक है ।
(९४८०) काञ्चनपोटलीरसः
( रं. चि. म. । स्त. ७ )
शुद्धवर्णसुवर्णस्य गाल्य गद्याणको दश । तेषां स्वच्छानि पत्राणि कण्टवेध्यानि कारयेत् चूर्ण सुवर्णमाक्षीकं दशगचाणकं स्मृतम् । काञ्चनारतरोर्मूलत्वचं श्रीखण्डमर्दितम् || तेन स्वर्णस्य पत्राणां लेपो देयश्च सर्वतः । शरावे तानि वै क्षिप्त्वा मृदा वस्त्रेण लेपयेत् || इस्तमात्रां समाधाय गर्ती बन्योपलेभृताम् । तद्गर्भे सम्पुटं मुक्त्वा वहिं क्षिप्त्वा मदीपयेत् ॥ न म्रियते पुटैकेन तदा देयं पुटद्वयम् म्रियते हेमपत्राणि कर्तव्यो नैव संशयः ॥
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रसप्रकरणम् ]
प्रत्येकं पञ्चकं ग्राह्यं शुद्धगन्धकसूतयोः । मधुना हेमभूत्या च समं पेष्यो दिनद्वयम् ॥ कपर्दोषु च पीतासु चूर्ण क्षेप्यं सुसूक्ष्मकम् । द्वाराण्यपि कपर्दीनां गोधूमचूर्णतस्ततः ॥ जलमिश्रेण रोध्यानि शोषयेदातपे पुनः । लिप्त्वा दग्धाश्म चूर्णेन मध्यं कुहरिकस्य च ॥ तदप्यात संशुष्कं मध्ये क्षेप्या कपर्दिकाः । चूर्णलिपिधानं च द्वारे देयमधोमुखम् || क्षिपेत्प्रागुक्तयां वेष्टितं वस्त्रमृत्स्त्रया | पूर्वयुक्त्या पुढो देयः स्वाङ्गशीतां समुद्धरेत् ॥ दृश्यते यदि कृष्णाभाः पुटो देयः पुनस्तदा । द्वाराणि पूर्ववद्ध्वा स्वाङ्गशीतां समुद्धरेत् ॥ स्वाङ्गशीतलतां प्राप्ताः पेषयेत्ताच शोभनाः । तदायं रसराजेन्द्रो जातः काञ्चनपोटली ॥ सर्वरोगेषु दातव्यो रसो वल्लचतुष्टयः । दद्याज्ज्वरातिसारेषु ज्वरयो श्लेष्मवातयोः ॥ सममुष्णोदकेनैव समं शीतेन पैत्तिके । अष्टादशसु कुष्ठेषु जीर्णे क्षीणबलेषु च ॥ मन्दानावतिसारे च मरिचाज्येन संयुतः ॥
परिशिष्ट
५ तोले उत्तम जातिके शुद्ध स्वर्णके कण्टकवेधी पत्र बनवा लें | तत्पश्चात् कचनारकी जड़की छाल और सफेद चन्दन के रसमें ५ तोले शुद्ध स्वर्णमाक्षिकको खरल करके उपरोक्त स्वर्ण पत्रों पर उसका लेप कर दें | एवं उन्हें शरावसम्पुट में बन्द करके १ हाथ गहरे और इतनेही लम्बे चौड़े गढ़ेमें उपले ( वन कण्डे ) भर कर उसमें फूंक दें। यदि एक पुटमें सोनेकी भस्म न हो जाय तो पुनः इसी प्रकार पुट दें। दो पुटमें भस्म अवश्य हो जायगी ।
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५६६
अब २ ॥ - २॥ तोले शुद्ध पारद और गंधक एवं उपरोक्त संपूर्ण स्वर्ण - भस्मको एकत्र मिलाकर कजली बनावें और फिर उसे २ दिन शहद में घोटकर पीली कौडियों में भर दें और उनके मुखको पानी में भिगोए हुवे गेहूं के आटेसे बन्द करके धूपमें सुखा लें T
अब एक कुहरि ( छोटी हांडी ) तथा उसके ढकने के भीतर पत्थर के चुनेका लेप करके धूप में सुखा लें और उक्त कौड़ियोंको उसमें भरकर उसके ऊपर वह ढकना उलटा करके ढक दें तथा सन्धिको बन्द करके उस कुहरिका पर कपर मिट्टी करके सुखा लें और उपरोक्त गढ़े में रखकर पुट लगा दें। यदि एक पुटके पश्चात् कौड़ियों में कुछ श्यामता दिखलाई दे तो पुनः उस कुछ रिका को बन्द करके एक पुट और लगा दें एवं स्वांगशीतल होने पर निकाल कर पीस लें ।
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मात्रा -४ वाल । ( व्य. मा. ४ रत्ती । ) इसे ज्वरातिसार और कफज तथा वातज ज्वर में उष्ण जलके साथ एवं पित्तज्वर में शीतल जलके साथ देना चाहिये । कुष्ठ, निर्बलता और मन्दाग्नि तथा अतिसार में इसे काली मिर्च के चूर्ण एवं घीके साथ खिलाना चाहिये ।
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(९४८१) कान्तपाषाणशोधनम्
( रसे. सा. सं. ; र. म. ) राजपट्टं महापट्ट शिखीग्रीवं विराटकम् । चूर्णितं कान्तपाषाणं महिषीक्षीरसंयुतम् ॥ विपचेदाय से पात्रे गोघृतेन समन्वितम् । लवणे च तथा क्षारे शोभाञ्जनर से क्षिपेत् ॥
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६००
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
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अम्लवर्गस्य तोयेन दिनं धर्मे विभावयेत् । देवदारु, त्रिकुटा, इलायची, चीतामूल, पुनर्नवामूल, तथैव दोलिकायन्त्र दिवस पाचयेत्सुधीः ॥ शुद्ध शिलाजीत और अंकोल १-१ भाग तथा शुद्ध कान्तपाषाणशुद्धौ तु रसकर्म समाचरेत् ॥ गूगल सबके बराबर लेकर सबको एकत्र मिलाकर कान्तपाषाण (लोहचुम्बक ) को राजपट्ट,
भंगरेके रसमें खरल करके गोलियां बना लें । महापट्ट, शिखीग्रीव और विराटक भी कहते हैं।
। इसके सेवनसे प्रमेह और वातकफज अन्य
रोग नष्ट होते हैं। कान्तपाषाणको पीसकर (दोलायन्त्र विधिसे) लोहपात्रमें, भैसके दूध, गोघृत, नमकके पानी,
( मात्रा-२ माशे ।) जवाखारके पानी तथा सहजनेके रसमें (पृथक् पृथक
(९४८३) कामकलावटी २-२ दिन) स्वेदित करके १ दिन अग्लवर्ग के (र. र. । वातर.) रसमें धूपमें भावना दें और फिर अम्लवर्गके रसमें | अङ्कोटमूलं त्रिफला कुण्डली मरिचं निशा । १ दिन दोलायन्त्र विधिसे स्वेदित करें। इस विधिसे सप्तच्छदा कुटी कुष्ठं प्रत्येकं कार्षिकं भवेत ॥ कान्त पाषाण शुद्ध हो जाता है।
विडङ्ग मुस्तक काचं तालकं टणं त्रिवत् । (९४८२) कान्तलोहादियोगः रसगन्धकलोहानां प्रत्येकार्दपलं क्षिपेत् ।।
गुग्गुलं त्रिपलं दत्त्वा घृतेन परिपेषितम् । (र. चं. । वाजीकरणा.)
वटी कामकलानाम गहनानन्दभाषिता ॥ স্কাসিদানি
चतुर्मासा वटी खाधा गोमूत्रेण जडी कृता । रजनीताप्याब्ददेवद्रुमः ।
वातरक्तं निहन्त्याशु नानादोषसमुद्भवम् ॥ व्योपैलानिपुनर्नवाधि
कुष्ठं नानाविधं हन्ति नानादोषसमुद्भवम् । गिरिजाकोलैः समं गुग्गुलुम् ।।
द्रद्रं कण्डूं विचर्चिश्च व्रणार्थीगण्डमालिका ॥ पिष्ट्वा भृाजलेन सूक्ष्म
भगन्दरोपदंशांश्च विद्रधीं गईभार्बुदे । __गुटिकां खादेयथासात्म्यतो। मेहः श्लेष्मसमीरणोल्वण
श्लीपदं शोथशूलानि कासवासमरोचकम् ॥
प्लीहगुल्मोदराष्ठीला मेहमेदोगलामयान् । __गदेष्वन्येषु वा पूरुषः॥
जीर्णज्वरमानाहश्च पाण्डादि त्रितयं जयेत् ॥ कान्तलोह भस्म, अभ्रक भस्म, त्रिफला,
सङ्ग्रहग्रहणी दुष्टां बलवर्णाग्निवर्द्धनीम् ।। बायबिडंग, हल्दी, स्वर्णमाक्षिक भस्म, नागरमोथा,
___ अंकोटकी जड़, हर्र, बहेड़ा, आमला, गिलोय, * अम्लवर्ग–अम्लबेत, जंबोरी नीबू, | कालीमिर्च, हल्दी, सप्तपर्ण ( सातविन ) की छाल, बिजौरा, चणकाम्ल, नारंगी, तिन्तडीक, इमलीके पत्ते, | मुरामांसी और कूठ; इनका चूर्ण १।-१। तोला नीबू , चांगेरी (चूका ), दाडिम, करौंदा और | तथा बायबिडंग, नागरमोथा, काचलवण, हरताल कमरख ।
(रसे. सा. सं.) | भस्म ( या शुद्ध हरताल ), सुहागेकी खील और
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रसमकरणम् ]
परिशिष्ट
निसोत; इनका चूर्ण एवं शुद्र पारद और गंधक । चूर्ण १ भाग, मोचरस का चूर्ण १ भाग और शुद्ध तथा लोहभस्म २॥-२॥ तोले और शुद्ध गूगल, | गंधक २ भाग लेकर सबको एकत्र मिला कर १५ तोले लेकर गूगलको घोके साथ बारीक पीस | खरल करें। लें और पार गंधककी कजली बनाकर उसमें मात्रा-४ रत्ती । अनुपान-१० तोले दूध। अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर खरल करें। इसके सेवनसे कामशक्ति बढ़ती है । नब सब चीजें अच्छी तरह मिल जाएं तो गूगल
(९४८५) कामदुधा रसः (१) मिलाकर घोटकर ४-४ माशेकी वटो बना लें । (व्य. मा.-१ माशा ।)
(र. यो. सा.) इनमें से १-१ गोली गोमूत्रमें मिलाकर |
स्वर्ण गैरिकं किश्चिद्धृतभ्रष्टं विचूर्णयेत् । पीनेसे अनेक दोषों से उत्पन्न वातरक्त तथा कुष्ठ |
धात्रीफलरसेनैव सप्तवारश्च भावयेत् ।। एवं दाद, खुजली, विचचिंका, व्रण, अर्श, गण्ड- | शुष्कं कृत्वा ततो घर्मे श्लक्ष्णचूर्णनन्तु कारयेत् । माला, भगन्दर, उपदंश, विद्रधि, अर्बुद, श्लीपद, | द्विवल्लममिता मात्रा सिताज्यमधुना सह ॥ शोथ, शूल, कास, श्वास, अरुचि, प्लीहा, गुल्म, | रक्तदृद्धिं करोत्याशु पित्तरोगविनाशकृत् । । उदररोग, अष्ठीला, प्रमेह, मेदरोग, गलरोग, जीर्ण- | प्रमेहं प्रदरश्चैव पाण्डुरोगं व कामलाम् ।। ज्वर, अफारा, पाण्डु, कामला, हलीमक और दुष्ट | हलीमकं महाघोरमदाह तृष भ्रमम् । संग्रहणीका नाश होता तथा बल, वर्ण और अग्नि जीर्णज्वरहरश्चैव नात्र कार्या विचारणा ॥ की वृद्धि होती है।
वैद्यानां जीवनार्थाय रोगिणाश्च हिताय वै । ___ (९४८४) कामदीपक:
अल्पमूल्यं बहुगुणं ग्रन्थेऽस्मिन्प्रकटीकृतम् ।।
___सोनागेरुके चूर्णको थोड़े घीमें भूनकर आमले ( भै. र. ; धन्वः । वाजीकरणा.)
| के फलोंके रसको सात भावना दें और धूपमें सुखा सितं पुनर्नवामूलं शाल्मलीरसभावितम्। कर चूर्ण करके रक्खें । शाल्मलीसत्त्वनिर्यासं दद्यात्तत्र समं समम् ॥ मात्रा-६ रत्ती। गन्धकं सर्वतुल्यश्च खादेद्रक्तिचतुष्टयम् ।
इसे खांड, घी और शहदमें मिलाकर सेवन अनुपानं प्रकुर्वीत ततः क्षीरं पलद्वयम ॥
| करानेसे शरीरमें शीघ्र ही रक्तवृद्धि होती और पित्त अयं चाण्डालिनी योगोऽगम्गाप्यत्र हि गम्यते रोगोंका नाश हो जाता है। निषेधानिधनं याति करणात्कामरूपधृक् ॥ ।
यह रस प्रमेह, प्रदर, पाण्डु, कामला, हलीसफेद पुनर्नवामूलके चूर्णको संभलके रसकी | मक, भयंकर अंगदाह, तृपा, भ्रम और जीर्णज्वरको ( सात ) भावना देकर सुखा लें । तदनन्तर यह । अवश्य नष्ट कर देता है ।
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६०२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
__ थोड़े व्ययमें तैयार होने वाला बहुगुणशाली । गुडूचिकोद्भवं सत्वं समभागानि कारयेत् । यह प्रयोग वैद्यों के लिये जीवन दाता ( जीविका | अजाजिकासिताभ्याश्च गृह्णीयाक्तिकाद्वयम् ॥ देनेवाला) और रोगियोंके लिये अत्यन्त हितकारी है। । | जीर्णज्वरभ्रमोन्मादपित्तरोगेषु शस्यते । (९४८६ ) कामदुधारसः (२) अम्लपित्ते सोमरोगे योज्यः कामदुधा रसः ॥ (र. यो. सा.)
___ मोती भस्म, प्रवाल भस्म, मोतीको सीपकी
भस्म, कौड़ी भस्म, शंख भस्म, गेरु और गिलोयका गडूचिकोद्भवं सत्वं पलमेकं प्रमाणतः ।
सत समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल करें। मुवर्ण गैरिकं कर्षमभ्रकं कर्षमेव च ॥ सुचूर्ण कारयेदेषां वल्लमा प्रयोजयेत् ।
मात्रा-२ रत्ती। प्रदरे गव्यमत्स्यण्ड्यौ मत्स्यण्डीतण्डुलोदकम् ॥
___ इसे जी रेके चूर्ण और खांडके साथ देनेसे घृतमत्स्यण्डिका पित्ते तथा गव्यश्च शर्करा ।।
२" | जीर्णज्वर, भ्रम, उन्माद, पित्तरोग, अम्लपित्त और मधुपिप्पलिका मेहे मत्स्यण्डीतण्डुलोदकम् ॥
सोमरोग का नाश होता है। अनुपानविभेदेन सर्वरोगेषु योजयेत् ।
(९४८८) कामदेवो रसः (१) एषः कामदुधा नाम प्रदरेषु प्रशस्यते ॥
(र. प्र. सु. । अ. ८) गिलोयका सत ५ तोले तथा सोनागेरु और | तारं वजं स्वर्णतानं च सूतं अभ्रक भस्म ११-१। तोला लेकर सबको एकत्र | लोहं गन्धं भागयुग्मं प्रकुर्यात् । खरल करें।
कन्याद्रावैमर्दयेदेकयामं • मात्रा-३ रत्ती।
चूर्ण कृत्वा काचकूप्यां निवेश्य ॥ अनुपान-प्रदरमें गारके दूध और राबके । कूपीं चापि पूरयेसिन्धुचूर्णेसाथ, या राब और चावलोंके पानीके साथ; पित्त
मुद्रां दत्त्वा शोषयेत्तत्मयत्नात् । रोगोंमें घी और राबके साथ या गोदुग्ध और |
वहिं कुर्याद्वासरैक प्रयत्नात् खांडके साथ; प्रमेहमें पीपल के चूर्ण और शहद के
शीतं जातं खल्बमध्ये विचूर्ण्य ॥ साथ या चावलोंके धोवन और राबके साथ देना चाहिये। अकक्षीरेणाथ भाव्यं हि सर्वे इसे अनुपान भेदसे बहुतसे रोगोंमें प्रयुक्त कर
कासस्यैवं पद्मकन्दस्य नीरैः। सकते हैं परन्तु प्रदरमें विशेष उपयोगी है ।
मौशल्या वै गोक्षुरस्य द्रवेण
त्रिविर्वेला भावनां च प्रदद्यात् ॥ (९४८७ ) कामदुधारसः (३)
काकोल्या वै वाजिगन्धाशताहा. . (र. यो. सा.)
दुःस्पर्शाणां वै स्बै रसैर्भावयेच्च । मौक्तिकस्य प्रवालस्य मुक्ताशुक्तिभवस्य च । । चूर्ण कृत्वा मिश्रयेद्योपचूर्ण वराटिकायाः शब्खस्य भस्मानि गैरिकं तथा ॥ कर्पूरं वै कुड्डमैलालवाम् ॥
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रसंपकरणम् ]
परिशिष्ट
६०३
कस्तूरीं वै पूर्वचूर्णात्पदंश
मात्रा-१ निष्क । (व्यवहारिक मात्रा___ कार्या सर्वैः शर्करा वै समा च ।
| २-३ रत्ती ।) भक्षेचैनं निष्कमात्र प्रयत्ना.
अनुपान-गोदुग्ध । गोक्षीरं वै चानुपाने विधेयम् ॥
इसके सेवन काल में मधुर आहार करना और मिष्टाहारं सेवयेञ्चैव नाम्ल
अम्ल पदार्थों से परहेज़ करना चाहिये।
इसके सेवनसे तेज ( कान्ति ) बल और मोजस्तेजो वर्धते वै बलं च।
स्त्रियोंका सौन्दर्य बढ़ता है। इसे सेवन करने वाले सौन्दर्य वै जायते सुन्दरीणां
पुरुषों का वीर्य स्त्री समागम करने पर भी क्षीण वृद्धिः कामे नैव हानिश्च वोर्थे ॥
नहीं होता । यह एक उत्तम वृष्य योग है। तस्मात्सेव्यः कामदेवो रसोऽयं
(९४८९) कामदेवो रसः (२) वृष्येषूक्तो योग एषो वरिष्ठः ॥
( वृ. यो. त. 1 त. १४७) चांदी भस्म, हीरा भस्म, स्वर्ण भस्म, ताम्र- | तारं हिङ्गुलसीसकाभ्रभस्म, शुद्ध पारद, लोह भस्म और शुद्ध गंधक २-२ | सहितं लोहं च वर्ष तथा, तोले लेकर एकत्र खरल करके कजली बनावें | वृद्धाशे रसभस्मना वि. और उसे १ पहर घृतकुमारी के रसमें घोट कर | चिनुयात् सवे च खल्वे शुभे । सुखाकर आतशी शीशीमें भर दें एवं इसे डाट | मोन्मत्तजयारसेन लगाकर मुंह पर ( मिट्टी मिले हुवे ) सेंधा नमकसे मुसलीनोरेण तत्सप्तधा, मुद्रा करके सुखाकर १ दिन बालुका यन्त्रमें पकावें। | सिद्धोऽयं किल कामदेव. तदनन्तर उसके स्वांग शीतल होने पर औषधको रसराड राज्ञां भवेद्वल्लभः ।। निकालकर चूर्ण कर लें और उसे आकके दूध, | वल्लैकपमितोऽनुपानकासकी जड़के रस या क्वाथ, कमलकन्दके रस, | सहितः सर्वानादानाशयेत् मूसलीके रस, गोखरुके रस, काकोलीके रस, अस- | स्तम्भे निस्तुषभृष्टचाणकगंधके रस, शतावरके रस और जवासेके रसकी
जयाजातीसिताज्यैर्युतः। पृथक् पृथक ३-३ भावना दें। तत्पश्चात् सोंठ, | पुष्टौ साज्यसिताविदारिमिर्च, पीपल, कपूर, केसर, इलायची, लौंग और मुसलीयुक्तः प्रभाते लिहेकस्तूरी समान भाग लेकर एकत्र मिलाकर खरल |
| स्त्रीणां यौवनदर्पगर्वितकरके बारीक चूर्ण बनावें और पूर्वोक्त तैयार रसमें
शतानां द्रावणे विक्रमः ।। उसका छठा भाग यह चूर्ण मिलाकर इस सम्पूर्ण चांदी भस्म १ भाग, शुद्ध हिंगुल २ भाग, औषधके बराबर खांड मिला दें।
। सीसा भस्म ३ भाग, अभ्रक भस्म ४ भाग, लोह
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६०४
भारत-भेषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
भस्म ५ भाग, बंग भरम ६ भाग और पारद भस्म । कामदेवरसश्चायं तद्वद्दे करोत्यलम् । १ भाग लेकर सबको एकत्र मिला कर धतूग, श्रीमद्गहननाथेन रचितो विश्वसम्पदि । भांग और मूसलीके रसकी पृथक् पृथक सात सात
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्रभस्म, काचभस्म भावना देकर ३-३ रत्तीकी गोलियां बना लें।
और शीशाभस्म १-१ भाग तथा पीपल, रिसोत, यह अनुपान भेदसे देनेसे समस्त रोगोंको सोंठ, धनिया और हर इनका चूर्ण ३-३ भाग नष्ट कर देता है।
एवं हींग और अजवायनका चूर्ण चौथाई, चौथाई
भाग लेकर प्रथम पारे, गन्धककी कज्जली बनावें यदि वीर्यस्तम्भनके लिये देना हो तो छिलके ।
और फिर उसमें अन्य औषधियोंका चूर्ण मिलाकर रहित भुने हुवे चने, भांग, जावत्री और खांड;
(पानीके साथ) आधे, आधे माशेकी गोलियां बनालें। इनके समान भाग चूर्णको एकत्र मिलाकर उसमें घो मिलाकर उसके साथ देना चाहिये ।।
इनके सेवनसे त्रिदोषज श्लीपद नष्ट हो जाता है।
__ अनुपान-पित्तों ( मूंगका ) यूष, कफमें यदि इसे पुष्टि के लिये देना हो तो घो, खांड सोंठ और सेंधानमकका चूर्ण तथा वातमें तक भात। सथा विदारीकंद और मूसलीके चूर्ण के साथ प्रातः काल देना चाहिये।
इसके सेवनकालमें विष्टम्भी पदार्थों से परहेज़
करना चाहिये। इसके सेवनसे यौवनमदमाती सौ स्त्रियोंका गर्व
(९४९१) कामनायकरसः नष्ट करनेकी शक्ति आ जाती है।
( र. र. रसा. ख. । उप. ६) (९४९०) कामदेवो रसः (३)
शाल्मल्युत्थैर्देवैर्मयः पक्षकं शुद्धपारदः । ( र. र. । श्लीपदा.) शुद्धगन्धं त्रिसप्ताहं तवैमर्दयेत्पृथक् ।।
समावेतौ पुनर्मधौं घृतैर्यामचतुष्टयम् । रसगन्धकताम्राणि काचं सीसं समं समम् ।
तद्गोलं बन्धयेद्वस्त्रे घृतैर्यामद्वयं पचेत् ।। पिप्पली त्रिवृता शुण्ठी धन्याकं च हरीतकी॥
ततस्तं शाल्मलीद्रावैमर्दयेदिवसत्रयम् । रसतस्त्रिगुणो ग्राह्यः प्रत्येकं चूर्णमेव च।
निक्षिपेत्काचकुप्यन्तर्वालुकायन्त्रगं पचेत् ॥ रसपादं प्रदातव्यं हिङ्गु चैव यवानिका ।।
क्षिपेच्छाल्मलिजं द्रावं कुप्या गर्भ दिनावधि । अर्द्धमाषा वटी कायर्या खादेदेको यथाबलम् । सार्द्रमेव समुद्धृत्य मिश्यं तत्सितया समम् ॥ निहन्ति श्लपिदै रोग दोषत्रयसमुद्भवम् ॥ निष्कमात्रं सदा खादेद्रसोऽयं कामनायकः । पैत्तिके भक्षयेधूपं श्लैष्मिके शुण्ठीसैन्धवम् । मुशलों ससितां क्षीरैः पलैकां पाययेदनु । वातिके तक्रभक्तानि विष्टम्भं परिवर्जयेत् ॥ । कामिनोनो सहस्रं तु क्षोभयेन्निमिषान्तरे ।।
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रसपकरणम्
परिशिष्ट
६०५
शुद्ध पारदको १५ दिन सेंभलकी जड़के | भस्म ) समान भाग लेकर सबको देवदाली (बिंडाल) रसमें खरल करें । इसी प्रकार शुद्ध गंधक को भी के रसमें खरल करके आतशी शोशो में भर कर २१ दिन सेंभलकी जड़के रसमें खरल करें। (१ दिन ) बालुका यन्त्र में पकायें और फिर तत्पश्चात् दोनोंको एकत्र मिलाकर ४ पहर घी में उसके स्वांग शीतल होने पर रसको निकालकर खरल करें और फिर सबका एक गोला बनाकर उसमें १-१ भाग गिलोय, नीलोत्पल और कमलउसे कपड़ेमें लपेटकर २ पहर घीमें पकावें । तद- कन्द का चूर्ण तथा पत्थर पर पिसी हुई द्राक्षा नन्तर उसे ३ दिन पुनः संभलकी जड़के रसमें (मुनक्का ) मिलाकर मुलैठीके रसमें खरल करके खरल करके आतशी शीशीमें भर दें और उसमें सुखाकर रक्खें । सेंभलकी जड़का रस डालकर बालुका यन्त्रमें रख इसे शहद और मिश्रीके साथ सेवन करनेसे कर एक दिन पाक कर तथा उसके स्वांग शीतल कामला रोग नष्ट होता है । (मात्रा-२ रत्ती ।) होने पर औषधको निकाल लें। शीशी में रस इतना डालना चाहिये कि १ दिन पाक करने के
(९४९३) कामवाणो रसः पश्चात् भी औषध कुछ आई ही निकले ।
(वृ. यो. त. । त. १४७) मात्रा–१ निष्क ( ३॥ माशे )। सतेन्द्रामृतमधिशोषसुमनाजातीफलाकल्करा
इसे मिश्रीके साथ मिला कर सेवन करनेसे फेनाश्वाहजवाहदेवकुसुमं कर्पूरकस्तूरिकाम् । कामशक्ति अत्यधिक प्रबल हो जाती है। पिष्ट्वा तत्समभागिकं मुनि
अनुपान-औषध खानेके पश्चात् समान । मितैः कृष्णाहिवल्लीरसैभाग मिलित मूसली का चूर्ण और खांड ५ तोलेकी
र्भाव्य पक्वफले निधाय मात्रानुसार दूधके साथ पीना चाहिये ।
सजले तन्नारिकेलोदरे॥ (९४९२) कामलाप्रणुद्रसः
क्षीरद्रोणयुगे विपाच्य
विधिवत्तज्जीर्णदुग्धं हरे(र. र. स. । उ. अ. १९; र. चं.। पाण्डवा.)
सूक्ष्मं स्वर्णयुतं विधाय तीक्ष्णमाक्षिककान्ताभ्रशुल्बसूतकतालकम् । पयसा वल्लत्रयं सेवयेत् । देवदालीरसे पिष्टं वालुकायन्त्रमूर्छितम् ।। ताम्बूलेन समं निशासु अमृतोत्पलकल्हारकन्दद्राक्षासमन्वितम् ।
समये कामानिसन्दीपनं पिष्टं यष्टयम्भसा क्षौद्रसिताभ्यां कामलापणुत् ।। षण्ढोऽपि प्रमदां विजित्य ___ तीक्ष्ण लोह भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, कान्त- तनुते कान्ति तनोति स्त्रियाः ॥ लोह भस्म, अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म, पारद भस्म ! बुद्धि चातिबलं ददाति नितरां युक्त्यानुपानरयं । ( या रससिन्दूर ) और शुद्ध हरताल ( या हरताउ । वृद्धानां मदनोदयं वितनुते स्यात्कामवाणो रसः॥
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ ककारादि
रस सिन्दूर, शुद्ध बछनाग, समन्दरशोषके बीज, | बहुवारफलं चैव कुङ्कुमं तालमूलिका। जावत्री, जायफल, अकरकरा, अफीम, असगंध, कम्बुकी चाश्वगन्धा च विदारीकन्दखर्जुरः ।। अजवायन, लौंग, कपूर और कस्तूरी समान भाग धत्तरकस्य बीजानि तानि चैकत्र कुट्टयेत् । लेकर सबको एकत्र खरल करके पीपलके क्वाथ | सर्वाणि सममात्राणि कारयित्वाऽथ मेलयेत् ॥
और पानके रसकी सात सात भावना दें। तद- एकादशांशं दातव्यमहिफेनं सुशोभितम् । नन्तर सबको पक्के, जलयुक्त नारियलके भीतर तदेकीकृत्य सकलं गुडपाके विनिक्षिपेत् ।। भरकर उसके मुखको बन्द करके ६४ सेर दूधमें सघृते वा सितापाके तस्य गोलांस्तु कारयेत् । पकावें जब सब दूध जल जाय तो नारियल को आनन्दवर्धनं चैतदतिर्वाह्नपदीपनम् ।। तोड़कर औषध समेत उसकी गिरीको निकाल | इदमुत्साहजननमिदमोजोविवर्धनम् । कर पीस लें। मात्रा-~९ रत्ती । अतिसौख्यपदं नित्यमिदमुत्सवकारकम् ।। इसमें ( १ रत्ती ) स्वर्ण भस्म मिलाकर रातको
इदं सौख्यपदं स्त्रीणामिदमानन्दवर्धनम् । पानके साथ खाकर ऊपर दूध पीना चाहिये।
इदं पुष्टिकरं वृष्यमिदं बलकरं परम् ॥ इसे इस प्रकार सेवन करनेसे कामशक्ति |
वातिकाञ्लेष्मिकान्दोषान्पैत्तिकानति
दारुणान् । प्रबल होती है और नपुंसक पुरुष भी स्त्रीसमागम में समर्थ हो जाता है।
निहन्ति शीघ्रमेवैतत्तनुहानिर्न जायते ।।
वलीपलितनिर्मुक्तः सर्वदा सुखमाप्नुयात् ।। ___इसे यथोचित अनुपान के साथ सेवन करनेसे
___सोंठ, काली मिर्च, पीपल, चीतामूल, नागबल और बुद्धि बढ़ती है तथा वृद्ध पुरुषमें काम
केसर, अनारदाना, तिन्तड़ीक, अजवायन, सफेद जागृत हो जाता है।
सरसों, राई, मूलीके बीज, लोनी ( लोनिया ) के (९४९४) कामेश्वरचूर्णम् बीज, तिपतिया, सफेद चन्दन, बेर, कंकोल, ( र. चि. म. । स्त. ८)
दालचीनी, जायफल, बहेड़ेकी गुटलीकी मींगी,
नवीन चिरौंजी, मुद्गपर्णी, हर, बहेड़ा, आमला, शुण्ठीमरिचापप्पल्यश्चित्रं केसरदाडिमम् ।।
द्राक्षा ( किशमिश ), शतावर, सिंघाड़ा, गोखरु, तिन्तिडीकं यवानी च राजिकाद्वयमेव च ॥
कौंचके छिलके रहित बीज, नवीन अकरकरा, मलिकायाश्च बीजानि लोणिका च त्रिपत्रिका
बहुफली, कमलकन्द, मालकंगनी, हिसोड़ा, केसर, चन्दनं कोलकङ्कोल्लं त्वक् च जातीफलानि च
तालमूली ( मूसली ), कम्बुकी, असगन्ध, बिदारी. विभीतकस्य मज्जा च मियालश्चापि नूतनः। कन्द, खजूर और धतूरेके बीज १-१ भाग लेकर मुदगपों वरा द्राक्षा वरी शृङ्गाटकस्तथा ॥ । चूर्ण बनावें तथा उसमें ११ भाग अफीम मिला गोक्षुरः कपिकच्छुश्च तथैवाकल्लको नवः। | कर सबको गुड या घृतयुक्त खांडकी चाशनीमें बहुफल्यम्बुजं कन्दं ज्योतिष्मतिस्तथैव च ॥ । मिलाकर गोलियां बना लें।
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स्मप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
६०७
(खांड सबके बराबर लेनी चाहिये । मात्रा- ज्येष्ठी नागवला कचूरमदनं जातीफलं सैन्धवम् १ माशा ।)
| भाजी कर्कटभृङ्गिका त्रिकटुकं जीरद्वयं चित्रकम् । यह अत्यन्त आनन्दवर्धक, अग्निदीपक और चातुर्जातपुनर्नवागजकणाद्राक्षासमं वासकम् ।। उत्साह वर्द्धक है तथा ओज, पुष्टि और बलवीर्यकी बीजं मर्कटिशाल्मली. वृद्धि करता है। इसके सेवनसे वातज, पित्तज त्रिफलकं चूर्ण समं कल्पयेत् ।
और कफज अनेक रोग नष्ट होते और बलि पलित कर्षार्दा गुटिकावलेहमथवा सेव्यं सदा सर्वथा ॥ रहित सुखायु व्यतीत होती है। | पेयं क्षीरसिता तु वीर्यकरणं स्तम्भोध्ययं कामिनी (९४९५) कामेश्वररसः (१)
रामावश्यकरं सुखातिमुखदं प्रौढाङ्गनादायकम् ।।
क्षीणे पुष्टिकरं क्षये क्षयहरं सर्वामयध्वंसनम् । (र. चं. ; वै. र. ; यो. र. । वाजीकरणा. ;
कासश्वासमहातिसारशमनं मन्दाग्निसन्दीपनम् ॥ न. मृ. । त. ५)
धातोर्टद्धिकरं रसायनवरं नास्त्यन्यदस्मात्परम् जातीफलं च सौराष्ट्रो कृष्णधत्तूरबीजकम् ।
अर्शासि ग्रहणीप्रमेहनिचयश्लेष्मातिरक्तप्रणुत् ।। जातीपुष्पमफेनं च नागं हिलमेव च ॥
नित्यानन्दकरं विशेषविदुषां वाचां विलासोद्भव एतानि समभागानि खसक्वाथेन मदयेत् ।
मभ्यासेन निहन्ति मृत्यु गमामाचा च वटिका सितया सह भक्षयेत् ॥ पलितं कामेश्वरो वत्सरात् ॥ नाम्ना कामेश्वरः प्रोक्तो रमते कामिनीशतम् ॥ सर्वेषां हितकारको निगदिता श्रीवैद्यनाथेन यः
जायफल, फिटकरी, काले धतूरेके बीज, चमेलीके फूल, अफीम, सीसा भस्म और शुद्ध भली भांति भस्म किया हुवा अभ्रक, कंकोल, हिंगुल समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर | कूर, असगन्ध, गिलोय, मेथी, मोचरस, बिदारीकन्द, खसके क्वाथ में घोट कर १-१ रत्तीकी मूसली, गोखरु, तालमखाना, केलेका कन्द, शतावर, गोलियां बना लें।
अजमोद, उड़द, तिल, धनिया, मुलैठी, गंगेरन, इन्हें खांडके साथ सेवन करनेसे कामशक्ति कचूर, धतूरा, जायफल, सेंधा नमक, भरंगी, काकड़ाअत्यधिक ढ़ जाती है।
सिंगी, सोंठ, मिर्च, पीपल, सफेद जीरा, काला जीरा, (९५९६) कामेश्वररसः (२)
चीतामूल, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नाग
केसरे, पुनर्नवा ( साठ ) की जड़, गजपीपल, द्राक्षा ( र. म. ; . यो. त. । त. १४७)
(किशमिश ), बासा (अडूसा) की जड़की छाल, सम्यमारितमभ्रकं कटुफलं कुष्ठाश्वगन्धामृता। कौं चके छिलके रहित बीज, संभलकी मूसली, हर', मेथी मोचरसो विदारिमुशली गोरकं रकम् | बहेड़ा और आमला; समान भाग लेकर चूर्ण रम्भाफन्दशतावरी खजमुदा
बनावें । ( इसे सबके बराबर खांडकी चाशनी में माषास्तिला धान्य म्।
मिलाकर गोलियां बनालें या अवलेह ही रहने दें।)
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६०८
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[ककारादि
मात्रा-७|| माशे।
चाशनी में मिलाकर घी में या घृतकुमारी के अनुपान-मिश्रीयुक्त दूध ।
| रसमें १ पहर घोट कर बेरकी गुठली के समान इसके सेवनसे वीर्य वृद्धि होती है. श्री गोलियां बना लें । शरीर पुष्ट हो जाता है तथा क्षय, कास, श्वास,
। इसके सेवन से शोथयुक्त कफज पाण्डु का अतिसार, अग्निमांद्य, अर्श, ग्रहणीरोग, प्रमेह. ! नाश होता है । कफविकार और रक्तविकारों का नाश होता है। (९४९८) काम्वायनरसः इसे १ वर्ष तक सेवन करने से पलित रोग भी (र. का. धे. । कुष्ठा.) नष्ट हो जाता है । यह प्रयोग स्तम्भक, स्त्रीद्रावक भस्ममृतं समं गन्धं स्वजिकाक्षारकाचनी । और श्रेष्ठ रसायन है । इसके सेवनसे वाचाशक्ति प्रत्येकं च द्विभागं स्यात्सर्वतुल्पतैः सह ।। भी बढ़ती है।
पिष्ट्वा मृग्निना पच्याधावत्पिण्डत्वमागतम् । (९४९७) कामेश्वरी वटिका | निष्काधे भक्षणाद्धन्निकुष्ठं काम्बायनो रसः ।। • (र. का. धे. | पाडा.)
देवदाल्याः सुचूर्ग तु मध्वाज्याभ्यां लिहेदनु ॥ शुद्धसूतं तथा गन्धं कर्ष कष समाहरेत् ।
___ पारद भस्म, शुद्ध गंधक, सज्जीखार और हरीतक्या रजः कर्षस्तावन्तश्चित्रकस्य च ।।
हल्दी (अथवा स्वर्णक्षीरी मूल-चोझ) समान भाग
लेकर एकत्र खरल करें और फिर उसमें सबके एलापत्रकमुस्तानां योज्यं सार्धपलं पृथक् ।
बराबर घी मिलाकर, खरल करके मन्दाग्नि पर कणामूलं त्रिकटुकं विषं कर्ष पृथक् भवेत् ॥
९१ ।। | पकावें । जब सबका एक पिण्ड सा हो जाय तो पाठा च रेणुकं कर्ष निष्कं स्यानागकेशरम् ।
यानागकेशरम्। उतार कर, शीतल करके सुरक्षित रखें । सर्वतुल्येन जीर्णेन गुडेनैव प्रपाचयेत् ॥
मात्रा-आधा निष्क । घृतेन मर्दयघामपथवा कन्यकाद्रवैः ।।
अनुपान-औषध खानेके पश्चात् देवदाली कारयेत्कोलबीजाभां नित्यं तां भक्षयेद् गुटिम् ॥
| (बिंडाल ) का चूर्ण शहद और घीमें मिलाकर सशोथं कफर्ज पाण्डं जयेत्कामेश्वरी वटी॥
खाना चाहिये। ____ शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, हर्र, चीतामूल, सोंठ,
इसके सेवनसे कुष्ठ नष्ट होता है । मिर्च, पीपल, शुद्र बछनाग, पाठा और रेणुका
(९४९९) कालकूटरसः ११-१। तोला; नागकेसर : || माशे तथा इलायची, तेजपात और नागरमोथा ७॥-७|| तोला लेकर ( र. यो. सा. ; वै. चि. । ज्वरा.) प्रथम पारे गंधक की कज्जली बनावें और फिर रुद्रसङ्ख्य विषञ्चैब त्रिभागः सूत एव च । उसमें अन्य ओषधियों का चूर्ण मिलाकर खरल गन्धकः पञ्च भागः स्याच्छिला स्यातुमाकरें। तत्पश्चात् उसे सबके बराबर पुराने गुड़की।
गिका ॥
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रसपकरणम् ]
परिशिष्ट
६०६
ताम्रभस्म चतुर्भागमृतुभागश्च टङ्कणम् । इनमें से १-१ गोली अदरकके रसके साथ तालकं रससहख्याकं वहिनलं तथैव च ॥ देनेसे समस्त ज्वर और सन्निपातका नाश होता है। त्रिकटोदिशशेवास्त्रिकला दशभागिका ।। इसे खिलानेके पश्चात् युक्ति पूर्वक स्नान कराना हिनश्चन्द्रभागः स्याद्वचायाश्च तथैव च ॥ और शरीरपर चन्दनका लेप करना चाहिये। एवं खल्वे च संस्थाप्यमाईकं वह्निमूलकम् ।
पथ्य-दही, भात तथा खजूर के फलादि जम्बीरं लशुनश्चैव शार्केष्टार्कस्य मूलकम् ॥ | खिलाना और ताबूल खिलाना चाहिये । लाली स्वर्णमूला सिन्धुनागदलं तथा । अकोलशिग्रमूलानि प्रत्येकं याममात्रकम् ।।
(९५००) काल विध्वंसनरसः पञ्चकोलकषायेण पश्चमूलेन मर्दयेत् ।
(र. का. धे.) गुमामात्रप्रमाणेन वटकान कारयेत्ततः ॥ सुवर्णरौप्यताम्राणां पिष्टिं कृत्वा विमर्दयेत् । वटीमेकां प्रयुञ्जीत शृङ्गवेशम्भसा युताम् ।। योज्यं सूतेन तद्गोलं दोलायन् विपाचयेत् ॥ सर्वज्वरहरो योगः सन्निपातकुलान्तकः ॥ ।
त्र्यहं स्वर्णजले स्वर्णफलस्थं तत्ततः क्षिपेत् । स्नानं कुर्यात्मयत्नेन श्रीखण्डालेपमाचरेत् ।
इष्टिकायन्त्रगहरे वस्त्रबद्धं समन्ततः ।। दध्यन्नं दापयेत्पथ्यं खजूरादिफलान्यपि ॥
जम्बीरनीरसम्पिष्टं बलेनिष्कं प्रयोजयेत् । ताम्बूलचर्वणं कुर्यात्क्रमादेवं समाचरेत् ।। कालकूटरसो नाम महेशेन प्रकाशितः ॥
एवं शतगुणो यावद्रसे जीयेंत गन्धकः ॥
तावडेयस्ततः पिष्टः समलोहस्य भावयेत् । शुद्ध बछनाग विष १ भाग, शुद्ध पारद ३ |
| तिस्रः क्षुद्रात्रयेणाथ पृथग्लावपुटे स्थितः ॥ भाग, शुद्ध गंधक ५ भाग, शुद्ध मनसिल ६ भाग,
एवं त्रिपुटिते पश्चात्करमान्यर्कजैवैः । ताम्र भस्म ४ भाग, सुहागेकी खील ६ भाग, शुद्ध
सुपिष्टः पुटितस्विस्त्रिः कालविध्वंसनो रसः ॥ हरताल (या हरताल भस्म ) ९ भाग, चीतामूल
पाण्डुक्षयश्वासकासवह्निसादादिजिद्भवेत् । ९ भाग, त्रिकुटा १२ भाग, त्रिफला १० भाग, शुद्ध हींग १ भाग और बच १ भाग लेकर प्रथम
मतान्तरे निष्कमात्र विषपत्र प्रयोजयेत् ।। पारे गंधककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य
गुआमात्रः सः ताम्बूलीदलेन सह भक्षयेत् । ओषधियों का चूर्ण मिलाकर १-१ पहर अदरक,
गोमूत्रपिष्टामभयां पिवेत्तदनुपानकम ।। चीतामूल, जम्बोरी, ल्हसन, मकोय, अर्कमूल, | शुद्ध सुवर्ण, चांदी और ताम्र के बारीक पत्र कलियारी, धतूरेकी जड़, संभालु, पान, अंकोलमूल, १-१ भाग ( १-१ निष्क ) तथा शुद्ध पारद सहजनेकी जड़, पंचकोल ( पीपल, पीपलामूल, चव, सबके बराबर लेकर सबको एकत्र खरल करके चीला, सोंठ ) और पञ्चमूल; इनके रस या क्वाथमें पिष्टी ( पिट्ठो) बना लें और उसका गोला बना खरल करके १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें। । कर उसे धतूरेके फलके भीतर प्रविष्ट करके
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भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[ककारादि (कपड़ेमें लपेटकर ) दोलायन्त्र विघिसे ३ | मर्दयेद्भावयेत्पश्चाश्चतुरङ्गुलजैवैः । दिन धतूरेके रसमें स्वेदित करें। तदनन्तर | भक्षयनिष्कमात्रं तु गलत्कुष्ठहरः परः॥ फलमेंसे गोलेको निकालकर कपड़ेमें लपेटकर रसः कालाऽग्निरुद्रोऽयममुपानं यथोचितम् ॥ पोटली बनावें एवं उसे इष्टिका यन्त्र में रखकर उसके
___ शुद्ध कांस्य चूर्ण, शुद्ध गंधक और शुद्ध ऊपर नीचे नीबूके रसमें घुटा हुवा १ निष्क गंधक
हरताल समान भाग लेकर तीनों को एकत्र नीबूके रखकर लघु पुट लगा दें। इसी प्रकार १०० पुट
रसमें खरल करके टिकिया बनावें और उन्हें सुखालगानेके पश्चात् रसको पीसकर उसमें समान
कर शराबसम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें फूंक दें। भाग लोह भस्म मिलाकर उसे कटेली के रसकी
| तदनन्तर उसमें गन्धक और हरताल प्रत्येक बीसवां तीन भावना देकर अन्धमूषामें बन्द करके लावपुट
भाग मिलाकर नीबूके रसमें घोटकर यथाविधि में फूंक दें। इसी प्रकार अग्निदमनी (धमासा भेद)
लघुपुट में फूंक दें । इसी प्रकार हर बार बीसवां और जवासाके रसकी भी पृथक् पृथक् ३-३
भाग गंधक और हरताल मिलाकर नीबूके रसमें भावनादेकर १-१ लाव पुट दें। तत्पश्चात् करन के
घोटकर २० पुट दें। रसकी भावना दे देकर ३ पुट दें और इसी प्रकार आकके दूध या स्वरसकी भावना देकर ३ पुट दें।
। तदनन्तर यह कांस्य भस्म और शुद्ध पारद यह रस पाण्डु, क्षय, स्वास, कास और समान भाग लेकर दोनोंको एकत्र मिलाकर १-१ अग्निमांद्यादि रोगोंको नष्ट करता है।
दिन देवदाली और अमलतासके रसमें खरल करें। मात्रा-१ रत्ती। इसे पानमें रखकर खानेके | मात्रा-१ निष्क । पश्चात् गोमूत्रमें हर पीसकर पीनी चाहिये । इसे यथोचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे ___मतान्तरके अनुसार इसमें ( तैयार रसमें ) गलत्कुष्ठ नष्ट होता है । १ निष्क (५ माशे) शुद्र बछनाग का चूर्ण | (९५०२) कालाग्निरुद्ररसः (२) भी मिलाना चाहिये। ___ (९५०१) कालाग्निरुद्ररसः (१)
(र. का. धे । कुष्ठा.) (र. का. धे. । कुष्ठा.) तुत्थं तानं स्मरहरशिला भास्करोऽपि द्विभागः कांस्यचूर्ण गन्धतालं तुल्यमम्लेन मर्दयेत् । सर्व यन्ने द्विगुणवलिना सेकते पाचयध्वम् । रुदध्वा गजपुटे पच्यात्पुनर्गन्धश्च तालकम् ।। साक्षादेष त्रिपुरविजयी कुष्ठकालाग्निरुद्रः दत्वा चाम्लैविमर्याऽथ रुदध्वा लघुपुटे पचेत् । सेवाभाजां हरति सकलं मण्डलेनैव कुष्ठम् ॥ विशांशं गन्धतालं च दत्त्वाम्लरथ मर्दयेत् ॥ शुद्ध नीलाथोथा, ताम्र भस्म, शुद्ध पारद, रुद्ध्वा लघुटं दद्यादेवं विंशपुटैः पचेत् । शुद्ध गनसिल और स्वर्ण-भस्म २-२ भाग तथा अस्य तुल्यं शुद्धमूतं देवदाल्या द्रवैर्दिनम् ॥ । शुद्ध गंधक २० भाग लेकर सबको एकत्र खरल
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परिशिष्ट
रसमकरणम् ]
करके (आतशी शीशी में भरकर ) बालुका
यन्त्र में पकावें ।
(९५०३) काशीसरसायनम्
( र. र. स. पू. अ. ३; २. प्र. सु. अ. ६ ) afear हतासी कान्तं कासीसमारितम् । उभयं समभागं हि त्रिफला बेल्लसंयुतम् ॥ विषमांशवृक्षौद्रप्लुतं शाणमितं प्रगे । सेवितं हन्ति वेगेन श्वित्रं पाण्डु क्षयामयम् ॥ गुल्मप्लीहगदं शुलं मूलरोगं विशेषतः । रसायन विधानेन सेवितं वत्सरावधि || आमसंशोषणं श्रेष्ठं मन्दाग्निपरिदीपनम् । पलितं वलिभिः सार्धं विनाशयति निश्चितम् ||
(९५०४) काशीसशोधनम्
( र. र. स. पू. अ. ३ )
इसके सेवनसे १ मण्डल में समस्त प्रकारके काशीसं वालुकाद्येकं पुष्पपूर्वमथापरम् । कुष्ठ नष्ट हो जाते हैं ।
क्षाराम्ला गुरुधूमाभं सोष्णवीर्थं विषापहम् ॥ बालुकापुष्पकासोसं श्वित्रघ्नं केशरञ्जनम् । पुष्पादिकासीसमतिप्रशस्तं
गंधक के साथ पुट लगाकर भस्म किया हुवा कसीस, कसीसके योगसे भस्म किया हुवा कान्त लोह, हर्र, बहेड़ा, आमला और बायबिडंग समान भाग लेकर एकत्र खरल करें ।
इसमें से १ - १ शाण ( ३||| माशे ) दवा विषम भाग घी और शहदके साथ मिलाकर सेवन करने से वित्र, पाण्डु, क्षय, गुल्म, प्लीहा, शूल और विशेषतः अर्शका नाश होता है । इसे १ वर्ष तक रसायन विधिसे सेवन करनेसे शरीरस्थ आम नष्ट हो जाती हैं और अग्नि दीप्त होकर बलि पलित का नाश होता है ।
( व्यवहारिक मात्रा - ३ रती । )
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६११
सोष्णं कषायाम्लमतीव नेत्र्यम् ॥ विषानिल श्लेष्मगद व्रणत्रं
श्वित्रक्षय कचरञ्जनं न । सकृद्भृङ्गाम्बुना क्लिश्नं कासीसं निर्मलं भवेत् । तुवरीसच्चवत्सत्वमेतस्यापि समाहरेत् ॥
कसीस "बालुका काशीस" और " काशीस " भेदसे दो प्रकारका होता है।
पुष्प
बालुका कसीस क्षारयुक्त, अम्ल, अगुरु ( न भारी न हल्का ), देखनेमें धुंत्रेके रंगका और उष्णवीर्य होता है । यह विषको नष्ट करता है ।
दोनों प्रकारका कसीस रिवत्र नाशक और केशरञ्जक है ।
पुष्प कासीस बालुका कासीससे उत्तम होता है । यह उष्ण वीर्य कषाय और अम्लरस युक्त तथा नेत्रोंके लिये अत्यन्त हितकारी है। यह विष, वायु, कफरोग, व्रण श्वित्र और क्षयको नष्ट करता तथा बालोंको रंगता है ।
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कसी को भंगरे के रसकी भावना देने से वह शुद्ध हो जाता है ।
कसोस का सत्व फिटकी के सत्वकी तरह निकाला जाता है
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६१२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ ककारादि
(९५०५) कासकेसरीरसः ____ जवाखार, सज्जीखार, सुहागा और पांचों
___(वै. र. । कासा.) नमक समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर मरिचमुस्तककुष्ठवचाविष
नीबूके रसकी सात भावना दें। इस का कांसी या सममयो परिगृह्य सुपेष्य च ।
पीतलके पत्रों पर लेप करके उन्हें शराव-सम्पुटमें विमलमारसेन वटी कृता
बन्द करके गजपुटमें फूंक दें। इसी प्रकार कई पुट कसनशूलकफामयनाशिनी ॥
देने से उनकी भस्म हो जाती है । प्रसूतिरोगं ग्रहणीं नाशयेचणकोपमा ।
(९५०८) कास्यशोधनम् काली मिर्च, नागरमोथा, कूठ, बच, और शुद्र (वृ. यो. त. । त. ४१; र. म. ) बछनाग समान भाग लेकर अदरकके रसमें घोटकर | कांस्यं तु द्विविधं प्रोक्तं पुष्पतैलिकमेदतः । चतेके समान गोलियां बना लें।
पुष्पं श्वेततमं तत्र तैलिकं कपिशप्रभम् ।। इनके सेवन से खांसी, शूल, कफरोग, प्रसूत । एतयोः प्रथम श्रेष्ठ सेव्यं रोगप्रशान्तये । रोग और ग्रहणी विकारका नाश होता है । राजरीतिस्तथा घोषं ताम्रवच्छोधयेद्भिषक् ।। (९५०६) कासीसादिचूर्णम्
ताम्रवन्मारणं चापि तयोरुक्तं भिषग्वः॥ ( यो. त. । त. ५९)
___कांसी दो प्रकारकी होती है। एक फूल कासीससैन्धवशिलाजतुहिङ्गुचूर्ण
कांसी और दूसरी तेलिया । फूल कांसी अत्यन्त मिश्रीकृतो वरुणवल्कलजः कषायः ।
| सफेद होती है और तेलिया में कुछ श्यामला होती अभ्यन्तरोत्थितमपक्वमतिप्रमाणं
है । दोनों में फूल कांसी श्रेष्ठ है और वही औषनृणामयं जयति विद्रधिमुग्रशोफम् ॥
धोंमें प्रयुक्त की जाती है। कसीस, सेंधानमक, शिलाजीत और होग। पीतल और कांसोका शोधन तथा मारण समान भाग लेकर चूर्ण बनावें।
ताम्रके समान होता है। इसे बरनेकी छालके क्वाथमें मिलाकर पीनेसे (९५०९) कांस्यशोधनमारणे अपक्व प्रश्न अन्तर्विदधि और शोथका नाश होता है
(र. र. स. । भ. ५) (मात्रा-४ रत्ती।)
अष्टभागेन तात्रेण विभागखुरकेण च । (९५०७) कांस्यमारणम् विद्रुतेन भवेत्कांस्यं तत्सौराष्ट्रभवं शुभम् ॥
(र. र. स. । अ. ५) तीक्ष्णशब्दं मृदु स्निग्धमीषच्छचामलशुभ्रकम् त्रिक्षारं पश्चलवणं सप्तधाऽम्लेन भावयेत् । निर्मल दाहे रक्तं च षोढा कांस्यं प्रशस्यते ॥ कांस्याऽऽरकूटपत्राणि तेन कल्केन लेपयेत् ॥ | तत्पीतं दहने तानं खरं रूक्षं घनासहम् । रुध्वा गजपुटे पक्वं शुद्धभस्मत्वमाप्नुयात् ॥ । मदनादागतज्योतिः सप्तधा कांस्यमुत्सृजेत् ॥
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रसप्रकरणम् ]
कांस्यं लघु च तिक्तोष्णं लेखनं दृक्प्रसादनम् । कृमिकुष्ठहरं वातपित्तनं दीपनं हितम् ॥
घृतमेकं बिना चान्यत्सर्वं कांस्यगतं नृणाम् । * भुक्तमारोग्यसुखदं हितं सात्म्यकरं तथा ।
iti मूत्रे वापितं परिशुध्यति । म्रियते गन्धतालाभ्यां निरुत्थं पञ्चभिः पुटैः ||
आठ भाग ताम्र और २ भाग खुरक बंग को एकत्र गलाने से कांसी बनती है । सौराष्ट्र देशकी कांस श्रेष्ठ होती है ।
मृदु,
जिस कांसी में तीक्ष्ण शब्द निकले, जो स्निग्ध, जरा श्यामता लिए हुवे सफेद और स्वच्छ हौ तथा तपाने से लाल हो जाती हो वह उत्तम होती है ।
परिशिष्ट
जिसका रंग पीला हो, जो तपाने से ताम्रके रंगकी हो जाए, खरखरी और रूक्ष हो तथा चोट न सह सके एवं घिसने से जिसमें चमक पैदा हो वह अच्छी नहीं होती। ( मूलमें “ सप्तधाकांस्यमुत्सृजेत् " लिखा है परन्तु दोष ६ ही बतलाए हैं ।)
कांसी लघु, तिक्त, उष्ण, लेखन, दृष्टिको स्वच्छ करने वाली, कृमिकुष्ठ नाशक, वातपित्त नाशक र अग्निदीपक है ।
* शुद्ध कांस्यमये पात्रे सर्वमेव हि भोजनम् । पथ्यं सञ्जायते नाग्लं घृतशाकादि वर्जितम् ॥
(र. प्र. सु. अ. ४ ) शुद्ध कांसीके पात्र में अम्ल पदार्थ, घी और शाकादिके अतिरिक्त सभी पदार्थ रखकर भोजन करना हितकर है।
भोजन रखना हितकर है |
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कांसीके पात्र में घृतके अतिरिक्त हर प्रकारका
६१३
कांसीको तपा तपाकर गोमूत्र में बुझानेसे वह शुद्ध हो जाती है ।
कांसीके पत्रों पर गंधक और हरतालका ( नीबू के रस में घोटकर ) लेप करके यथाविधि शरावसम्पुट में बन्द करके गज पुट दें। इसी प्रकार ५ पुट देने से निरुत्थ भस्म हो जाती है ।
(९५१०) किन्नरकण्ठरसः
(र. चं. । स्वरभेदा. )
I
रसं गन्धकमभ्रं च माक्षिकं लोहमेव च । कर्षप्रमाणं संगृह्य वैक्रान्तं रसपादिकम् ।। amrat तथा हेम रौप्यं हेमचतुर्गुणम् । वासायाश्च तथा भाय वृहत्या वाऽऽर्द्रकस्य च स्वरसेन सरस्वत्या भावयित्वा पृथक् पृथक् । रक्तद्र्यमिता कुर्याद्वयश्छाया प्रशोषिताः ॥ स्वरभेदानशेषांश्च कासान् श्वासांश्च दारुणान निखिलान् कफजान् व्याधीन् वातश्लेष्मसमुद्भवान् ॥
इन्यात्किन्नरकण्ठाख्यो रसोऽसौ रुद्रनिर्मितः किन्नरस्येव कण्ठस्थ स्वरोऽस्य प्राशनाद्भवेत् ॥ योगवाहिर चाप योजयन्ति भिषग्वराः । सशर्करं शुण्ठिचूर्ण क्षौद्रेण सह योजितम् ॥ कोकिलस्वर एव स्याद् गुटिकां भुक्तमात्रतः ॥
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शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, अभ्रक भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म और लोहभस्म १ - १ तोला; बैकान्त भस्म ३ माशा, स्वर्ण भस्म १ ॥ माशा और रौप्य भस्म ६ माशा लेकर सबको एकत्र मिलाकर खरल
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६१४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ ककारादि
करें और फिर बासा ( अडूसा ), भरंगी, बड़ी | अर्शीसि ग्रहणीदोषमतिसारं विशेषतः । कटेली, अदरक और ब्राह्मी के रसकी १-१ भावना | क्षयमेकादशं श्वासं कासं पञ्चविधं तया ॥ देकर २-२ रत्तीकी गोलियां बना कर छाया तथैवोदररोगांश्च मूत्रकृच्छं गलग्रहम् । में सुखा लें।
पुत्राअनयते वन्ध्या सेव्यमाने शुभे दिने । ___ इसके सेवन से हर प्रकार का स्वरभंग, कास, | सन्निपातहरं चैव विस्फोटकभगन्दरम् । दारुण श्वास, समस्त कफज रोग और वातकफज हृद्रोगं नेत्ररोगं च शिरोरोगं हनुग्रहम् ॥ रोग नष्ट होते हैं तथा स्वर किन्नर-कण्ठसदृश हृद्रोगं कण्ठरोगं च जानुजगश्रितं गदम् । सुरीला हो जाता है ।
सर्वदोषविनाशाय चरकेण प्रकाशितम् ।। स्वरभंग रोग में योग वाही रस भी उचित | केसर, अगर, नागरमोथा, दालचीनी, इलायची, अनुपानके साथ प्रयुक्त होते हैं।
तेजपात, नागकेसर, हरं, बहेड़ा, आमला, अकरकरा,
| अभ्रक भस्म, धनिया, अनारदाना, त्रिकुटा, पीपल, इन्हें खाकर खांड और सोंठका चूर्ण एकत्र
अजवायन, तिन्तडीक, बेर, कपूर, तुम्बरु (नेपाली मिलाकर शहदके साथ चाटनेसे स्वर मधुर होता है।
धनिया ), तगर, सुगन्धबाला, लौंग, जावत्री, मजीठ, (९५११) कुडमाथचूर्णम् पोखरमूल, काकड़ासिंगी, कमलगट्टा, बंसलोचन, (र. चि. मः । स्त. २) । कचूर, तालीसपत्र, चीतामूल, जटामांसी, जायफल,
| खस, रूमी मस्तगी, कंघी, उड़द, कूठ, पीपलामूल कुमागरुकं मुस्ता चातुर्जातं फलत्रिकम् । आकल्लकाभ्रकं धान्यं दाडिमं त्रिकटुं कणा ॥
और मूषा कन्नी; इनका चूर्ण १-१ भाग तथा यवानी तिन्तडीकं च बदरं धनसारकम् ।
मोचरस सबके बराबर लेकर एकत्र मिलावें और
फिर उस समस्त चूर्णके बराबर खांड मिलाकर तुम्बरं तगरं तोयं लबर्ष जातिपत्रिका ॥ समका पौष्करं शृशा पद्मबीनं तुगा शठी।
सुरक्षित रक्खें ।
सुर तालीसं चित्रक मांसी जातीफलमुशीरकम् ॥
मात्रा-१। तोला (व्य, मात्रा-४ माशे) मस्तक्यतिबला माषा कुष्ठं ग्रन्थिकमूषकी। इसे रात्रि को या भोजनान्त में अथवा सन्ध्यायावन्त्येतानि द्रव्याणि तावन्मोचरसंक्षिपेत ।। कालमें सेवन करना चाहिये । सर्वतुल्या सिता योज्या कर्षमात्रं तु भक्षयेत् ।। यह उत्तम वाजीकरण योग है। इसके सेवनसे निकायां भक्षयेभित्यं भोजनान्ते विशेषतः ॥ अजीर्ण, अग्निमांथ, वातजरोग, पित्तज रोंग, कफज सन्ध्याकाले तथा भक्ष्यं वाजीकरणमुत्तमम् । रोग, अर्श, संग्रहणी, अतिसार, क्षय, श्वास, कास, बजीर्ण जरयत्याशु नष्टाग्नेर्दीपनं परम् ।। उदर रोग, मूत्रकृच्छू, गलग्रह, सन्निपात, विस्फोटक अशीतिर्वातजान् रोगांश्चत्वारिंशच पैत्तिकान् । भगंदर, हृदोग, नेत्ररोग, शिरी रोग, हनुमंह, कण्ठवशतिः लैष्मिकांश्चैव हृधं सघश्च रोचकम् ॥ रोग एवं जानु और जंघाके समस्त रोग नष्ट होते
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रसमकरणम् ]
पर्सिशष्ट
DOLOD
हैं । इसके प्रभावसे वन्या स्त्रीको पुत्र प्राप्ति होती | बीजानि दद्याग्निचुलस्य दार्वी है। यह हृध है और आहारमें तुरन्त रुचि दुरालभा तिक्तकरोहिणी च । उत्पन्न करता है।
दुर्योग्रगन्धाऽतिविषा गुडूची इसे महर्षि चरकने प्रकाशित किया है (?) किराततिक्तं गजपिप्पली च ॥ (९५१२) कुचिलाशोधनम् (१) । सर्वाण्युपाहत्य तु चूर्णमेषां
___ भागांशयुक्तं लवणं द्विरंशम् । ( यो. र.)
अयोरजः स्यात्रिगुणं च युक्तं किश्चिदाज्येन संभृष्टो विषमुष्टिविशुध्यति। ।
फलत्रिकं स्याञ्चतुरंशयुक्तम् ॥ ___ कुचले को जरा घी में भून टेनेसे वह वर्गीकृतं तदघृतभाजनस्य शुद्ध हो जाता है।
पिवेच्च मधेन सुखोदकेन । __(कुचलेको पहिले २ दिन तक दूधमें भिगोए
चूर्ण यथासात्म्यबलानुरूपं रक्खें । जब वह फूल जाए तो उसके ऊपरका
प्लीहाग्निसादारुचिपाशूलम् ॥ छिलका और अन्दरकी पत्ती निकालकर सुखा लेना
प्रमेहकुष्ठानय पाण्डुरोग चाहिए तदनन्तर उसे घीमें भूनना चाहिये ।)
हृद्रोगगुल्मं विषमज्वरं च। (९५१३) कुचिलाशोधनम् (२) ।
भगन्दरं वासगदांश्च इन्यात् (यो. त. । त. १७)
मुदुस्तरान् वातकफोद्भवांस्तु । त्रिदिनं कानिकः स्विनः शुद्धः स्याद्विषतिन्दकः एतद्धि चूर्ण बलमांसकारि कुचलेको ३ दिन तक कांजीमें स्वेदित करनेसे
ओजस्करं रोगगणापहारि ॥ वह शुद्ध हो जाता है।
कुठेरक ( छोटे पत्तेकी तुलसी ), आमला, ( जब कुचला फूल जाए तो उसके ऊपरका |
अजवायन, हरें, बहेड़ा, आमला, सोंठ, मिर्च, छिलका तथा अन्दरकी पत्ती निकाल देनी चाहिये।)
पीपल, बैंगन, मजीठ, बासा, नीमकी छाल, कूठ,
इन्द्रजौ, बायबिडंग, समन्दर फलके बीज, दारुहल्दी, (९५१४) कुठेरका चूर्णम्
धमासा, कुटकी, दूबघास, बच, अतीस, गिलोय, ( ग. नि. । परि. चा.) चिरायता और गजपीपल; इनका चर्ण १-१ भाग, छठेरकचामळकी यवानी
सेंधा नमक २ भाग, लोह भस्म ३ भाग एवं फल त्रिकं चैव कटुत्रिकं च। त्रिफला ( हर, बहेड़े, आमले ) का चूर्ण ४ भाग न्ताकगण्डीरवृपं सनिम्ब
लेकर सबको एकत्र मिलाकर घृतभावित पात्र में कुष्ठ तथा घेन्द्रयया विडम् ॥ सुरक्षित रक्खें ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
इसे मध या मन्दोष्ण जलके साथ सेवन (९५१६) कुष्ठकुठाररसः करनेसे प्लीहा, अग्निमांद्य, अरुचि, पार्श्वशूल, प्रमेह,
(र. का. थे. । कुष्ठा.) कुष्ठ, पाण्डु, हृद्रोग, गुल्म, विषम ज्वर, भगन्दर, श्वास और दुःसाध्य वातकफज रोग नष्ट होते हैं। पृथक् पलं पलं ग्राह्यं सूर्यभम्म शिलाजतु । यह बल मांस और ओज वर्द्धक है ।
लोहभस्म मृतं तानं गन्धक विषमुष्टिका ।। (मात्रा-१॥ माशा ।)
त्रिफला चित्रकं चैव चूर्णयेकज्जलोपमम् । (९५१५) कुमुदेश्वरो रसः
दवा पलं मृताभ्रस्य मध्वाज्याभ्यां विलोडयेत् (र. प्र. सु. । अ. ८)
घृतभाण्डे विनिक्षिप्य निष्कैकं भक्षयेन्नरः। सूनभस्म समहेमभस्मक
रसः कुष्ठकुठारोऽयं गलत्कुष्ठनिकुन्तनः ।। मौक्तिकं च रसपादटङ्कणम् ।
स्वर्ण भस्म, शिलाजीत, लोह भस्म, ताम्र गन्धमत्र कुरु सर्वतुल्यकं
भस्म, शुद्ध गंधक, शुद्ध कुचला, हरे, बहेड़ा, चूर्णितं तुषजलेन गोलकम् ॥ आमला, चीतामूल और अभ्रक भस्म समान भाग लेपयेन्मृदुमृदा विशोषितं
लेकर सबको एकत्र मिलाकर खरल करके सुरमेके पाचितं सिकतयन्त्रमध्यतः ।
समान बारीक कर लें। तदनन्तर उसे घी और वासरैकमथ शीतलीकृत.
शहद में मिलाकर धृतभावित पात्र में भर कर सुरक्षित श्चूर्णितो मरिचमाक्षिकैः प्लुतः ॥ रक्खें । मात्रा-१ निष्क । भक्षितो हि कुमुदेश्वरी रसो
इसके सेवनसे गलत्कुष्ठ नष्ट होता है । राजयक्ष्मपरिशान्तिकारकः॥ पारद भस्म, स्वर्ण भस्म और मोती ४-४
(९५१७) कुष्टनरसः भाग, सुहागा १ भाग तथा शुद्ध गंधक १३ भाग
(र. प्र. सु. । अ. ८) लेकर सबको एकत्र मिलाकर कांजीमें खरल के और फिर सबका एक गोला बनाकर ( सुखाकर,
शुद्धं सूतं गन्धकं वै दिमाग कपड़ेमें लपेटकर ) उसपर मिट्टीका लेप कर दें।
कन्यानीरैमर्दयेद्वासरैकम् । इसे सुखाकर बालुकायन्त्रमें रखकर एक दिन पाक
शुद्धं लोहं मारितं भागमेकं करें और फिर स्वांगशीतल होने पर गोलेको निकाल
गोलं कृत्वा लोहपाने निधाय ।। कर इसकी मिट्टी आदि छुड़ाकर पीस लें। किञ्चित्किश्चिद्गोजलं सत्र
इसे काली मिर्चके चूर्ण और शहदके साथ | सिश्चेच्चुल्यामग्निं यामयुग्मं शनैश्च । सेवन करानेसे राजयक्ष्मा रोग नष्ट होता है। तीब्राग्नि वै कारयेधाममध (मात्रा-१ रत्ती )
स्वाझं शीतं चूर्णयेतत्पयवात् ॥
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परिशिष्ट
६१७
वहिः काष्ठोदुम्बरी सोमराजी
__ शुद्ध गंधक, शुद्ध पारद, बाबचीके बीज, श्रेष्ठा तद्वद्राजटक्षो विडाम् । पलाश ( ढाक ) के बीज, चीतामूल और सोंठ लेहं कृत्वा लेपयेऽष्टकुष्ठं
समान भाग लेकर प्रथम पारे गंधककी कज्जली गुमायुग्मं भक्षयेद्वै रसं च ॥ बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियों का पूर्ण दूदूकुष्ठं श्वेतकुष्ठं विचर्ची
| मिलाकर खरल करके सूक्ष्म चूर्ण बना लें। . सत्यं सत्यं नाशयेत्त्वग्गदांश्च ॥
इसे धी और शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे शुद्ध पारद और शुद्ध गंधक २-२ भाग तथा ! और पथ्य पालन करनेसे कुष्ठ नष्ट हो जाता है। लोहभस्म १ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके
(९५१९) कुष्ठनाशनरसः कजली बनावें और उसे १ दिन घृतकुमारीके रसमें
( र. र. स. । उ. अ. २०) खरल करके सबका एक गोला बना लें । एवं उसे लोहपात्र में रखकर अग्नि पर चढ़ावें और उसमें
सूतभस्म द्विनिष्कं स्याद् गन्धकं च चतुष्पलम् । थोड़ा थोड़ा गोमूत्र डालते हुवे २ पहर मन्दाग्नि
सार्ध चतुष्पलं चित्रं चतुर्विशत्पलं भवेत् ।। पर पाक करें । तत्पश्चात् आधा पहर तक तीवाग्नि | वाकुचीबीजचूर्णस्य द्वादशैव मरीचक्रम् । जला कर, स्वांगशीतल होने पर औषधको निकाल सर्वमेकत्र संयोज्य निष्कद्वितयसम्मितम् ॥ कर पीस लें। मात्रा-२ रत्ती।
मधुना लेहयेत्मातः सर्वकुष्ठविनाशनः ॥ इसे खाने और निम्न लिखित लेप लगानेसे
पारद भस्म २ निष्क (१० माशे), शुद्ध दाद, श्वेतकुष्ठ, विचर्चिका और त्वदोष अवश्य
गंधक २० तोले, चीतामूल २२।। तोले, बाबचीके नष्ट हो जाते हैं।
बीज १२० तोले और काली मिर्च ६० तोले
लेकर सबको एकत्र खरल करके बारीक चूर्ण बनावें। लेप-चीतामूल, कठूमर, बाबची, हर्र, बहेड़ा, आमला, अमलतासको छाल और बाय
मात्रा-२ निष्क ( १० माशे )। बिडंग; सबके बारीक चूर्णको पानीके साथ पीस । इसे प्रातः काल शहदके साथ सेवन करनेसे कर गाढ़ा गाढ़ा लेप बना लें।
समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट हो जाते हैं । (९५१८) कुष्ठदलनरसः
(९५२०) कुष्ठाङ्कुशरसः ( रसे. चि. म. । अ. ९; र. का. धे. । कुशा.) ( र. का. थे. । कुष्टा.) गन्धं रसं पाकुचिकोत्थबीज
शुद्धमूतं द्विधा गन्धं मर्दयेद्धाकुचीद्रवैः । ___ पलाशबीजं च कृशानुशुण्ठी । निर्गुण्डयाश्च द्रवैश्चाहस्तगोलं शोषयेत्ततः ।। श्लक्ष्णानि मध्वाज्ययुतानि कृत्वा गोलतुल्ये ताम्रपाने इण्डिकान्तनिरोधयेत् ।
सेवेत कुष्ठी च हिताशनस्तु । मूलवणैर्लेपयेत्सन्धि ताम्रपाने निरोधयेत् ॥
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मारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ ककारादि
-
सिकता पूरयेद्भाण्डे रुद्ध्वा चुल्यां पचेल्लघु । । जड़की छाल और करा मूल की छालमें से प्रत्येक षडचामैस्तत्समुदत्य चूर्णितस्त्रिफलासमम् ॥ उक्त चूर्ण के बराबर लेकर कूटकर आठ गुने (१६ त्रिफलांश भृत्रिचूर्ण सर्वतुल्या च पाकुचा। गुने ) गोमूत्रमें पका और चौथा भाग शेष रहने सर्वमेतद्विचूाथ संस्काराश्चात्र कथ्यते ॥ पर छान कर पुनः ताम्रपात्रमें पकायें एवं जब वह बहिनि राजर्श करवीरं करमकम् ।
गाढ़ा हो जाए तो उसमें उपरोक्त चूर्ण और उस मूलवल्कं समं कृत्वा गोमूत्रेऽष्टगुणे पचेत् ॥
चर्ण के बराबर खैरका तथा पलाश (ढाक ) पादशेष समुत्तार्य वस्त्रपूतं पुनः पचेत् ।
| का ( अष्टमांश शेष ) क्वाथ मिलाकर मन्दाग्नि
| पर पकावें । जब गोली बनने योग्य हो जाय तो ताम्रपात्रे घनीभूते पूर्वपूर्ण पचेल्लघु ।।
१-१ निष्ककी गोलियां बना लें। तव खादिरं साथ क्षिप्या पालाश तथा। तुल्यैः क्याथैः पवेत्तावद्यावत्पिण्डत्वमागतम् ॥
इसके सेवनसे कृष्ण कुष्ठ और वैपाविक कुष्ठ
का नाश होता है। भक्ष्य मिष्क मिहन्त्याशु कृष्णं वैपादिकं महद । रसः कुष्टाशो नाम सर्वकुष्ठं नियच्छति ॥
अनुपान-कड़वी तोरी, मुलैठी, पच, पटो. तिक्तकोशातकी यष्टी पचा पटोलमूलकम् ।।
| लकी जड़, हल्दी, हरें, गिलोय और नीमकी छाल निशाऽभयाऽमृतानिम्बैः कषायमनु कल्पयेत् ॥
का क्वाथ बनाकर पियें।
(९५२१) कुष्ठादिलेहः १ भाग शुद्ध पारद और २ भाग शुद्ध गंधक की कज्जली बना कर उसे १-१ दिन बाबची | (ग. नि. । बालरोगा. ११ ; यो. त. । त. और संभाल के रसमें खरल करके गोला बनाकर ७७ ; च. द. । बालरो ६३) सुखा लें। अब इस गोलेको कपड़ मिट्टी की हुई। कुछ वचाऽभया ब्रामीकनक क्षौद्रसर्पिषा । हांडी में रखकर उसपर गोले के बराबर शुद्ध ताम्रकी | वर्णायुःकान्तिजननं मेहं बालस्य दापयेत् ।। कटोरी ढककर सन्धिको सेंधा नमक मिली हुई
_____ कूठ, बच, हर', ब्राझी और स्वर्ण भस्म मिट्टीसे बन्द कर दें । तत्पश्चात् हांडीको रेतसे समान भाग लेकर चर्ण बनावें। भरकर चूल्हे पर चढ़ावें और ६ पहर मन्दाग्नि पर
| इसे घी और शहदमें मिलाकर बालकको पाक करें । तदनन्तर उसके स्वांग शीतल होने पर
चटानेसे उसका रंग स्वच्छ होता और आयु तथा गोलेको निकालकर पीस लें और फिर उसमें गोलेके
कान्ति बढ़ती है। बराबर त्रिफला का चूर्ण और उतना ही भंगरे का
(मात्रा-आधी रत्ती से १ रत्ती तक ) चूर्ण एवं सबके बराबर बाबचीका चूर्ण मिलाकर खरल करें। इसके पश्चात् चीतामूल छाल, नीमकी १ ब्राह्मीकमलमिति पाठान्तरम् । जड़की छाल, अमलतासकी जड़की छाल, कनेरकी । १ भाीकैतकमिति पाठान्तरम् ।
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रसप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
--
(९५२२) कुष्ठारिरसः (१) गुंजा ( चौंटली ) के तेल और बछनागके तेल में __ (र. का. धे. । कुष्ठा.)
पृथक् पृथक् १-१ मास लोहपात्रमें स्वेदित करें ।
| तदनन्तर समान भाग गंधक मिलाकर कज्जली रसगन्धकतालानि पञ्चविंशतिभागतः। बनावें और उसे आतशी शीशी में भरकर २५ पहर प्रत्येकं स्याद्दशगुणं तानं तन्मर्दयेत्त्यहम् ॥ बालुकायन्त्र में पाक करें। स्नुहीक्षीरेण भल्लाततैले तु दिनसप्तकम् ।। इसके सेवन से समस्त कुष्ठ और दद नष्ट पश्चषष्टिकयामांस्तु कवचीयन्त्रगं पचेत् ॥ हो जाते हैं । रसोऽयं सर्वकुष्ठन एकगुजाप्रमाणतः॥ (९५२४) कुष्माण्डखण्डलेहः शुद्ध पारद, गंधक और हरताल २५-२५ |
(र. र. स. । उ. अ. १८) भाग तथा ताम्र भस्म १० भाग लेकर सबको कुष्माण्डोत्थरसस्य सत्पलशतं तुल्यं गवां एकत्र खरल करें और बारीक र्ण हो जाने पर
क्षीरक ३ दिन स्नुही ( थूहर-सेंड ) के दूधमें और फिर धात्रीचूर्णपलाष्टकं लघु पद्यावत्भवेत्पिण्डितम्। सात दिन भिलावेके तेलमें खरल करके आतशी | धात्रीतुल्यसित पलाधेममृतं तल्लेहर्क लेहयेशीशीमें भरकर ६५ पहर बालुकायन्त्रमें पाक करें। ख्यातं कुष्माण्डखण्डं क्षपयति । मात्रा-१ रत्ती।
नितरामम्लपित्तं समग्रम् ॥ यह रस समस्त प्रकारके कुष्ठोंको नष्ट करताहै।
भूरे कुम्हड़े (पेठे ) का रस १२॥ सेर
| गायका दूध १२॥ सेर और आमलेका पूर्ण ४० (९५२३) कुष्ठारिरसः (२) तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर मन्द,ग्नि पर - (र. का. धे. । कुष्ठा.) पकावें । जब वह गाढ़ा होने लगे तो ४० तोले
खांड मिला दें और पाक तैयार होने पर उसमें २॥ शुद्धसूत चित्रकस्य रसेसि विमर्दितम् ।
तोले रस सिन्दूर मिलाकर ठंडा करके सुरक्षित रखें। रसोनद्रवतस्तद्वत्तले रेतैः पृथक पुनः ॥
इसके सेवनसे अम्लपित्त रोग नट होता है। फटभीर्तकौन्तीनां गुञ्जानां विषतस्तथा । मासिकं स्वेदयेल्लौहे ततो गन्धेन कज्जलीम् ।।
( मात्रा-३ तोले ।) कृत्वा ततः काचकूप्यां पञ्चविंशतियामकम् । (९५२५) कुसुमायुधरसः पाचितोऽयं सर्वकुष्ठदद्रुघ्नः परिकीर्तितः ॥
( र. र. स. । उ. अ. २७) ___ शुद्ध पारेको १-१ मास चीते के रस और सूतस्य द्विपलं चतुष्पलग्मोन ( ल्हसन ) के रसमें खरल करें और फिर | मितो गन्धो मृतं काश्चनं उसे मालकंगनीके तेल, धतूरके तेल, रेणुकाके तेल, पादन्यूनपलं सुवर्णविमलाताप्यं रसेनोन्मितम् ।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
लोहं कान्तमलस्तथासितघनं कर्पोन्मितावेकशो | जब रेत अच्छी तरह गरम हो जाय तो मूषामें हन्तव्यं दरदेन लोहमखिलं चूर्ण ततो मर्दितम् ॥ थोड़ा थोड़ा ब्राह्मीका रस डालना शुरु करें (और मृषायां विगतातौ सिकतया यन्त्रे कृते स्थापयेद औषध को लोहेकी सलाई आदि से हिलाते रहें। ब्राह्मीवारि दिनं निधेहि
इसी प्रकार २४ घंटे ब्राह्मी का रस डालते हुवे तदनु प्रत्येकमेकात्यहम् । पाक करें और फिर क्रमशः बासा ( अडूसा) का वासाकुअरशुण्ठिकात्रिकटुकं मेषी च निर्गुण्डिका स्वरस, हाथीसुंडीका रस, त्रिकुटेका क्वाथ, मेढातालीकुअरशुण्डिकाहुत
| सिंगीका रस या क्वाथ, संभालुका रस, ताड़ी, वहस्तोयानि दत्वा पचेत् ॥
हाथीसुंडीका रस और चीतामूलका क्वाथ डालते ततस्तं निखिलाम्भोभिर्विमर्थ पुटयेल्लघु ।
हुवे ३-३ दिन पृथक् पृथक् पाक करें । तदनन्तर
स्वांग शीतल होने पर औषध को निकालकर उसे निर्यासैः शाल्मलै यो वल्लत्रयमितो रसः ।
उपरोक्त समस्त औषधियोंके रसमें ( पृथक् पृथक् वलीपलितनाशाथै त्रिमासं मधुराशनः ।।
१-१ दिन ) घोटकर एक एक लघु पुट लगावें। मुरतेषु मुलोचनाशते
इसमें (समान भाग) मोचरस मिलाकर ९ रत्तीकी र्गतवीर्यच्यवनैर्मनो यदि ।
मात्रानुसार सेवन करने और मधुर आहार करनेसे तदमु रसमाश्रयाश्रयम्
३ मासमें बलि पलित का नाश होकर बहुत सी कुसुमास्त्रस्य चिराय धन्विनः ।। स्त्रियों से रमण करनेकी सामर्थ्य प्राप्त हो जाती है। यदि सन्ति सहस्रशः स्त्रिय
(९५२६) कूष्माण्डादिरसः श्चतुरा लेषमनोहराः प्रसन्नाः।
( यो. र. । मूत्रातिसारा.) मुकवेरिव गुम्फना गिरां
कूष्माण्डपत्रस्वरस: पक्वं पारदनिष्ककम् । ___ मुरसोऽनेन युवा रसेन भूयात् ।।
द्विनिष्कं गन्धकं कृत्वा ज्वलने कज्जलीकृतः ।। शुद्ध पारद १० तोले, शुद्ध गंधक २० तोले,
असौ समरिचः सोमरोगातिमृतिनाशनः ॥ हिंगल द्वारा भस्म किया हवा सवर्ण ३॥ तोले. १ भाग शुद्ध पारदको भूरे कुम्हडे ( पेटे ) सुवर्ण माक्षिक भस्म १० तोले, रौप्य माक्षिक भस्म ! के पत्तों के रसमें (१ दिन दोलायन्त्र विधि से ) १० तोले, कान्त लोह भस्म १। तोला, मण्डूर | पका और फिर उसमें २ भाग शुद्ध गंधक मिला भस्म ११ तोला और कृष्णाभ्रक भस्म १ तोला । कर कजली बनावें । तथा उसे मन्दाग्नि पर पाक लेकर प्रथम पारे गंधककी कज्जली बनावें और फिर | करके ( पर्पटी बनाकर ) सुरक्षित रक्खें ! उसमें अन्य औषधियां मिलाकर, सबको अच्छी इसे काली मिर्च के चूर्णके साथ सेवन करनेसे तरह खरल करके खुले मुंहवाली मूषामें भर कर सोमरोग और मूत्रातिसार का नाश होता है । उसे बालुकायन्त्रमें रक्खें और नीचे अग्नि जलावें। (मात्रा-रस १ रत्ती। मिचौका चूर्ण १ मा.)
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रसपकरणम्]
परिशिष्ट
६२१
(९५२७) कृमिविनाशनरसः (९५२८) कृम्यकुशोरसः (रसे. सा. सं. । कृम्य.)
(र. प्र. सु. । अ. ९) शुद्धसतं समं गन्धमभ्रं लौहं मनःशिला। माना । घातकी त्रिफला लोनं विडङ्गं रजनीद्वयम् ॥ क्रिमिजित्क्वाथसंयुक्तं कृमिकोटिविनाशनम् ॥ भावयेत्सप्तधा सर्व शृङ्गवेरभवैरसैः ।
समान भाग शुद्ध पारद और गंधकको कज्जचणमात्रां वटीं कृत्वा त्रिफलारससंयुताम् ॥
पुताम्" लीको नीमके तेल में खरल करें। भक्षयेत्मातरुत्थाय कृमिरोगोपशान्तये । वातिकं पैत्तिकं हन्ति श्लैष्मिकश्च त्रिदोषजम् । .
___इसे बायबिड के क्वाथके साथ सेवन करने क्रिमिविनाशनामायं क्रिमिरोगकुलान्तकः ॥
| से कृमिसमूह नष्ट हो जाता है। शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, अभ्रक भस्म, लोह (९५२९) कृष्णादिचूर्णम् भस्म, शुद्ध मनसिल, धायके फूल, हर', बहेड़ा, (वृ. मा. । परिणामशूला. ) आमला, लोध, बायबिडंग, हल्दी और दारुहल्दी
कृष्णाभयालोहचूर्ण लियात्समधुशर्करम् । समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली
परिणामभवं शूलं सद्यो इन्ति सुदारुणम् ॥ बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियों का चूर्ण मिलाकर सबको एकत्र खरल करके अदरकके रसकी
पीपल, हर और लोहभस्म समान भाग लेकर सात भावना दें और चनेके समान गोलियां बना लें। एकत्र खरल करें।
इनमेंसे (२-२ गोली ) प्रातः काल त्रिफलाके इसे खांड और शहद के साथ मिलाकर खानेसे काथके साथ सेवन करनेसे वातज, पित्तज, भयंकर परिणाम शूल तुरन्त नष्ट हो जाता है। कफज और सन्निपातज कृमिरोग नष्ट होता है। (मात्रा-३ रत्ती ।)
इति ककारादिरसपकरणम्
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६२२
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ ककारादि अथ ककारादिमिश्रप्रकरणम् (९५३०) ककुभत्वचादियोगः वस्त्रवर्ति बुधस्तेन समालिप्य समन्ततः । (बृ. मा. । राजयक्ष्मा.)
गुदे विनिःक्षिपेयत्नात् प्रातः सायं च बुद्धिमान्
घेदना च भवेत्तीवा वहिना स्वेदयेद्गुदम् । ककुभत्वङ्नागबलावानरि
नोपशाम्येधदा सेन तदा चैबोष्णपारिणि ॥ बीजानि चूर्णितं पयसि ।
विनिवेश्य गुदं तिष्ठेद्वेदनाशमकारणात् । पक्वं मधुघृतयुक्तं ससितं यक्ष्मादिकासहरम् ||
अघावष्यमथानं च शिशिरं जलमापिषेत् ॥ ___ अर्जुनकी छाल, नागबला ( गंगेरन ) और
गुदजानां विनाशाय सप्ताहं तु समाहितः । कौंचके बीज समान भाग लेकर चूर्ण बनावें तथा
विधिमेन प्रकुर्वीत गतशङ्कस्तु मानवः ॥ उसे दूध में पकाकर उसमें शहद, घी और खांड
कड़वी तूंबी का चूर्ण, दन्तीमूलका चूर्ण, मिलाकर सेवन करें।
मुरगेकी विष्ठा, मूसली, असगन्ध और चीतामूल; इसके सेवन से राजयक्ष्मा और कासादि का | इनके समान भाग मिलित चूर्णको आकके या स्नुही नाश होता है।
(सेहुंड-थूहर) के दूधकी भावना दें। तदनन्तर (९५३१) कोणीमूलयोगः उसे पानीके साथ बारीक पीस कर उसमें कपड़ेकी (ग. नि. । नाडीव्रणा. ७)
बत्ती भिगो कर अर्श वाले रोगीकी गुदामें लगा दें। या कहुणीमूलसमीपकाण्ड
जब तीब्र वेदना हो तो गुदाको अग्निसे सेकें। मन्नाति नित्यं पुरुषोऽभियुक्तः।
यदि इससे पीड़ा शान्त न हो तो रोगीको गरम नाडीव्रणो रोहति तस्य
पानी में बिठलावें। शीघ्रमनारतप्रसुतसान्द्रपूयः ।।
___ इस प्रकार प्रातः सायं १ सप्ताह तक उपचार
करनेसे अर्शरोग अवश्य नष्ट हो जाता है, इसमें नित्य प्रति मालकंगनी की जड़के समीपका |
सन्देह न करना चाहिये। कांड खानेसे वह नाड़ी ब्रण कि जिससे गाढ़ा गाढ़ा
। इस प्रयोगके दिनों में वृष्य अन्न खाना और पीप निकलता हो शीघ्र नष्ट हो जाता है ।
शीतल जल पीना चाहिये । (९५३२) कटुतुम्याचा वतिः
(९५३३) कटवलान्याचा वतिः (ग. नि. । अशों. ४)
(रा. मा. । अर्शों. १८) कद्धतुम्यास्तथा दन्त्याः शकृतः कुक्कुटस्य च ।। कटवलासुरनाथवारुणी मुशस्याश्चाश्वगन्धायाचित्रकस्य च यवतः ॥ जालिनीफलरजोगुडैः कृता । मस्तुल्यैः कृतं चूर्णमर्कक्षीरेण भावयेत् । पर्तिराशु विनिहन्तिदेहिनां स्नुहीक्षीरेण वा सम्यग्बारिणा परिपेषयेत् ॥ पायुमध्यनिहिताऽशंसां चयम् ॥
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मिश्रप्रकरणम् ] . परिशिष्ट
६२३ कड़वी तंबी, इन्द्रायण और बिण्डाल डोडा। शामके वक्त केलेके फलको चीरकर उसके ( देवदाली का फल ) समान भाग लेकर चूर्ण | भीतरकी नस निकाल दें और उसमें काली मिर्चका बनावें और उसे गुड़में मिलाकर वर्ति बना लें। | चूर्ण भरकर रख दें। दूसेर दिन प्रातः काल इसे
इसे मुदामें रखनेमे अर्श मस्सों का समूह | मन्दाग्नि पर सेक कर खावें । शीघ्र ही नष्ट हो ताजा है।
__ यह प्रयोग श्वासको इस प्रकार नष्ट कर देता (९५३४) कदलीकन्दयोगः जिस प्रकार कुल्हाड़ी वृक्षोको । (ग. नि. । उदरा. ३२ ; रा. मा. । उदररो.) | (९५३७) कदलीफलादियोगः सपिडाभ्यां सह पाचयित्वा
(वै. म. र. । पटल ३) य: कदलीकन्दममन्दमत्ति । श्वासायासविनाशार्थमाशयेत् कदलीफलम् । सधः पतन्ति कृमयः समग्रा
शृतं मूत्रेऽथवा भृष्टमथवाऽङ्गारपाचितम् ।। यात्युप्रदन्तोदरकुक्षिपीडा ॥
केलेकी फलीको गोमूत्रमें पकाकर या अंगारों केलेकी जड़को घी और गुड़के साथ पकाकर | पर पकाकर अथवा ( भाड़में ) भूनकर सेवन खानेसे उदरकृमि शीघ्र ही निकल जाते हैं तथा करनेसे श्वास रोग नष्ट होता है। दान्त, उदर और कुक्षिकी तीब पीड़ा नष्ट हो जातीहै। (९५३८) कपित्थादिषाडवः (९५३५) कदलीफलयोगः (१) (ग. नि. । अरोचका. १३) (रा. मा. । स्त्रीरोगा. ३०)
पाडवश्च कपित्यानां सव्योषमधुशर्कर। योषिद्रजस्य नितरां समभिप्रवृत्ती
अरोचकेषु सर्वेषु प्रशस्तो धारितो मुखे ॥ सपिर्युतानि यदि वा कदलीफलानि ॥ कैथका गूदा, सोंठ, मिर्च, पीपल, शहद और केलेकी फली में घी मिलाकर सेवन करने से |
खांड समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर रक्तप्रवर नष्ट होता है।
मुखमें धारण करनेसे हरप्रकारकी अरुचि नष्ट होतीहै।
(९५३९) करञ्जपत्रयोगः (९५३६) कदलोफलयोगः
(यो. र. । छर्य.) (वैधामृत । वि. १०)
कोमलकरअपत्रं सलवणमम्लेन संयुक्तम् । अन्त्रेण हीनं मरिचैः सगर्भ
य: खादति दीनबदनश्छर्दिकफौ तस्य कुत्रेह ॥ रम्भाफल तनिधि सनिधाय । ____ करंजके कोमल पत्तों ( कोंपलों ) को पीसकर पातः सुभृष्टं मृदुपावकेऽद्यात
उसमें सेंधा नमक मिलाकर नोबूके रसके साथ .. श्वासान् छिनत्तीय तरून्कुठारः ।। | खानेसे छदि और कफका नाश होता है।
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६२४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
(९५४०) करञ्जयोगाः अरुचि मूत्रकृच्छं च हन्यात्पानात्ययं नृणाम् । (ग. नि. । अरोचका. २३)
अहानि सप्त चाष्टौ च नृणां पानात्ययः स्मृताः। कवलो धूमपानं तु चूर्णानि मुखधावनम् ।।
पानं हि भजतेऽजीर्णमत ऊवं विमार्गगम् ॥ कारखं दन्तकाष्ठं च विधेयमरुचौ सदा ॥ १ सेर कर्कन्धु ( झड़बेरीके बेर ) कूटकर
४ सेर पानीमें डाल दें और उन्हें अच्छी तरह अरुचि में कराके कवल धारण कराने चाहिये,
मलकर सात बार छान लें । इस पानी को मिट्टीके इसीका धूमपान कराना, इसीके चूर्णका मंजन कराना और इसी की दतौन करानी चाहिये ।
पात्रमें डालकर उसमें १० तोला गुड़, ५ तोला
खांड, १। तोला काली मिर्च, ३।। माशे केसर, (९५४१) करभस्वेदः ५ माशे दालचीनी, ५ माशे तेजपात, ११ तोला
(वै. म. र. । पटल १६) छोटी इलायची, ७॥ माशे कमलनाल; इनका बारीक विघृष्य करभौ प्रायः स्वेदयेन्नयने मुहुः ।
| चूर्ण तथा सुगन्ध योग्य जावित्री मिलाकर (अथवा वर्त्मसातपिडका नाशमायान्त्यसंशयम् ॥ । चमेली के फूलों से सुगन्धित करके) ढककर रख दें। दोनों हाथोंके करभ प्रदेश (पौंहचेसे कनिष्ठ
___इसे पीनेसे पान विभ्रम, सृषा, छर्दि, दाह, उंगली तक हथेली के किनारों ) को परस्पर घिस
अतिसार, प्रवाहिका, अरुचि, मूत्रकृच्छ्र भौर पानाकर उनसे बार बार सेकने से आंख की पलक की
| त्यय का नाश होता है। पिडिका नष्ट हो जाती है।
(९५४३) कर्णिकाररसयोगः (९५४२) कर्कन्ध्वादिपानकम्
(र. चि, म. । स्त. १०) __ (ग. नि. । मदात्यय.)
कर्णिकारस्य निर्दोषापल्लवांश्च समानयेत् । फर्कन्धुबदराणां च प्रस्थं कुर्यात् मुकुट्टितम् ।
कोमलानतिमात्रेण कुट्टयेत्तान्हढान्खलु ॥ द्विपस्थे गालयेतोये सप्तकृत्वः पुनः पुनः ॥
केवलं रसमानीय शोषयेदातपे स्थितम् । अथनं मृण्मये भाण्डे सुगुप्तं विनिधारयेत् ।
चूर्णयेच्च रसं शुष्कं विटङ्क तं प्रयच्छति ॥ द्वे च दद्याद्गुडपले शर्करायाः पलं तथा ||
मरिचानां त्रयं पश्चादधात्तदनुपानवत् । मूक्ष्मं च मरिचात्कर्ष चतुर्थ केसरस्य च ।
तेनैवात्र प्रयोगेण त्रिवार रेचयेन्चरम् ।। त्वपत्रधरणे द्वे च सूक्ष्मैला कर्षमेव च ॥
चतुष्टयं यदा दद्याचतुर्वारं विरेचनम् । मृणालादर्धकर्ष च सूक्ष्मचुर्णानि कारयेत् ।।
एवं भवेत्क्रमेणैव रेचनं पञ्चधाऽपि च ।। जातीवाससमायुक्तं पानकं पानविभ्रमम् ॥
| रेचयेदचिरेणैव कर्णिकाररसः परः ।। नाशयत्याशु पानेन छिन्नाभ्राणीव मारुतः । । कर्णिकार ( छोटे अमलतास ) के कोमल और एतच्छदि षां दाहमतीसारं प्रवाहिकाम् ॥ । निर्दोष ( जन्तु आदिसे रहित ) पत्तोंको अच्छी
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मिश्रकरणम् ]
परिशिष्ट
६२५
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तरह कूटकर रस निकालें और उसे धूप में | कसेरु और मुलैठीके चूर्णको एकत्र मिलाकर सुखाकर पीस लें।
कपड़ेमें बांध कर पोटली बनावें । इसे बकरीके दूध ___ इसमें से ८ माशे रस खाकर ऊपरसे ३ काली | और घी में भिगोकर आंखमें निचोडनेसे पित्तज मिर्च खालें तो उससे ३ दस्त आ जाएंगे। यदि | और रक्तज नेत्राभिष्यन्द रोग नष्ट होता है । ४ मिर्च खाई जायंगी तो ४, और ५ खाई जायंगी
(९५४६) कसे दिक्षीरम् तो ५ दस्त होंगे। (९५४४) कलहंसकाञ्जी
(वृ. मा. । स्त्रीरोगा. ; व. से. । स्त्रीरोगा. ;
यो. त. । त. ७५ ) (व. से. ; मै. र. ; र. र. ; च. द. । अरोचका.) अष्टादशशिग्रुफलानि दश
कसेरुशृङ्गाटकजीवनीयैः मरिचानि विंशतिपिप्पल्यः ।
___ पोत्पलैरण्डशतावरी मिः। आर्द्रकपलं गुडपलं प्रस्थत्रयमारनालस्य ॥ सिद्धं पयः शर्फरया विमिश्रं विडलवणसहितमेतत्
संस्थापयेद्गर्भमुदीर्णशूलम् ॥ खमाहतं सुरभिगन्धाढयम्।
कसेरु, सिंघाड़ा, जीवनीय गण (प्र. सं. व्यानसहस्रघातिज्ञेयं कलहंसकं नाम्ना ॥ १९८२), कमल, नीलोत्पल, अरण्डमूल और
सहजनेकी फली १८, काली मिर्च १०, | शतावर समान भाग मिलित २ तोले, दूध ३२ पीपल २०, अदरक ५ तोले, गुड़ ५ तोले और तोले और पानी १२८ तोले लेकर सबको एकत्र आरनाल (काजी) ३ सेर (६ सेर ) लेकर | मिलाकर पकावें । जब पानी जल जाय तो कूटने योग्य चीजोंको कूटकर सबको एकत्र मिलावें | दूधको छान लें।
और उसमें स्वाद योग्य विड नमक मिलाकर इसमें खांड मिलाकर पीनेसे गर्भशूल नष्ट मथनीसे मथें । अन्तमें उसे दालचीनी, इलायची | होता और गिरता हवा गर्भ रुक जाता है। तेजपात और मागकेसरके चूर्णसे सुगन्धित कर लें। यह कांजी अत्यन्त रुचिवर्द्धक है।
(९५४७) काकजङ्घामूलबन्धनम् (९५४५) कशेरुकादियोगः
. ( रा. मा. । ज्वरा. २०) (व. से. । नेऋोगा.; ग. नि.'; वृ.मा. । नेत्ररो.) यः सततमेव निद्रापरिघूर्णितलोचनो दिवाराची कशेरुमधुकामाश्च चूर्णमम्बरसंभृतम् । वायसजङ्घामूलं मूर्ति तदोये निवनीयात् ॥ छागीक्षीरे घृते सेकः पित्तरक्ताभिघातजित् ।।
यदि ज्वर के रोगी की आंखोंमें दिन रात १ ग. नि. और वृ. मा. में पोटली को निद्रा भरी रहती हो तो उसके शिर पर काकजंघाकी बरसात के पोनीमें भिगोनेको लिखा है। जड़ बांधनी चाहिये ।
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६२६ भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[ककारादि (९५४८) काकोदुम्बरयोगः (९५५०) काञ्जिकादियोगः (वै. म. र. । पट. ३)
( रा. मा. । स्त्रीरोगा. ३०) काकोदुम्परपल्लवं शकलितं दुग्धे गवां पाचितं ।
क्वयितकाक्षिकसंयुतमाहता किशिन्मिश्रितमाग, दिनमुखे पीत्वा पयस्ता
सुरभिहिङ्गुविचूर्णितमाना। शम् ।।
पिबति या सितसैन्धवसंयुतं कासश्वासमशेषमाशु शमयेद्रादप्रसूनान्वित
मुखयुत प्रसवं लभते धुवम् ॥ क्षीरं सदादिदं द्वयं च भिषजां कीर्तिपदं कांजीमें हींग और सफेद सेंधा नमक मिला
कीर्तितम् ।। | फर पकाकर पिलाने से प्रसव सुखपूर्वक हो जाता है। कठूमरके पत्तोंको कूटकर गोदुग्धमें पकाकर ___ काजीसिद्धहरीतकी उसमें जरासी पीपल मिलाकर प्रातः काल पीने से प्र. सं. ८४७४ "हरीतक्यादिचूर्णम्"देखिये। कास श्वासका नाश होता है।
(९५५१) कारवेल्लीमूलाश्च्योतनम् (पते २॥ तोले, दूध २० तोले, पानी ८० तोले; सबको मिलाकर पानी जलने तक पका (रा. मा. । नेत्ररोगा. ३; ग. नि. । नेत्ररो.) और छान लें । पीपलका चूर्ण १ माशा । ) मलेन कारवेल्ल्यास्तुरसमूत्रान्वितेन पिष्टेन ।
इसी प्रकार मैनफलके फूलों के साथ पका हुवा | परिपूरितनयनानां नीलीदोषः शमं याति ॥ दूध भी कास श्वासको नष्ट करता है। । करेलेको जड़को घोड़ेके मूत्रमें पीसकर आंखमें
ये दोनों प्रयोग वैद्योंको यश दिलाने वाले हैं। डालनेसे नीली (काच) नामक नेत्र रोग नष्ट होता है। (९५४९) काञ्जिकयोगः
(९५५२) कार्पासभस्मयोगः. (ग. नि. । अजीर्णा. ५)
(वै. म. र. । पट. ११) कुन राशननवीनपल्लवै
समूलतूलं संशुष्कं कार्पासं भस्मसास्कृतम् । राजिकाभिरपि संयुतं शृतम् । तद्भस्मद्विगुणं शालितण्डुलं पयसोदनम् ॥ कामिकं सलवणं विचिका
घृतेन सह भुनीत सर्वश्वयधुनाशनम् ।। नाशयत्यलसकं च वेगतः ॥ ___ कपास और उसकी जड़को एकत्र मिलाकर
अश्वत्थ ( पीपल वृक्ष ) के नवीन पत्ते और भस्म करें । तदनन्तर १ भाग यह भस्म और २ राई को कांजीमें पकाकर छानकर सेंधा नमक भाग शाली चावल एकत्र मिलाकर, दूधमें पकाकर मिलाकर पिलाने से विसूचिका और अलसकका | भात बनावें । इसमें घृत मिलाकर सेवन करने से शीघ नाश होता है।
हर प्रकारका शोथ रोग नष्ट होता है ।
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मिश्रप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
६२७
(९५५३) कार्पासिकायोगः उसमें मूंगका यूष बनावें । इसे पीनेसे हिचकी और ( रा. मा. । बीरागा.)
श्वास का नाश होता है । कार्पासास्थि विपक्रमादिष
इसी विधिसे सहजनेके पत्तोंके या सूखी मूलीके घृताभ्यता पुनश्चूर्णितः।
| क्वाथमें मूंगका यूष बनाकर देनेसे भी हिचकी कार्पासास्थिभिरेव च
और श्वास नष्ट होता है। ___ प्रमदिता कार्पासमूलोद्भवा ॥ (९५५६) किण्वाचा वतिः पतियोनिसमुत्थशूलशमनी सघो भषेधोषिताम्
( रा. मा. । स्त्रीरोगा. ३०) कपासकी जड़के एक (८-१० अंगुल लम्बे)
किण्वकणागुडदन्तिमदनचिकने टुकड़े पर कपासके बीजोंके कल्क और
___ फलैः कालावुफलबीजैः। क्वाथ से पका हुवा भैसका घी लगाकर उस पर |
यवक्षारयुतैः स्नुहीक्षीर. कपासके बीजोंका चूर्ण छिड़ककर योनिमें रखने से
भावितैश्च कल्पयेतिम् ॥ योनिशूल शीघ्र नष्ट हो जाता है।
सा योनिकुहरनिहिता स्त्री(९५५४) काश्मरीफलयोगः
णामत्यन्त नष्टकुसुमानाम् । (रा. मा. । कुष्ठा. ८ ; ग. नि. । शीतपित्ता. ३७) कुसुमप्रवृत्तिजननी निर्दिष्टा वृद्धभावेऽपि ॥ कालेन पार्क प्रातपय शुष्क
शराबकी गाद, पीपल, गु, दन्तीमूल, मैनगम्येन सिद्ध पयसोपयुक्तम् ।
फल, कड़वी तूंबीके बीज और जवाखार; इनके काश्मयमाशु प्रतिहन्ति
चूर्णको एकत्र मिलाकर स्नुही ( थूहर ) के दूधकी शीतपित्तं हिताहाररतेन लीठम् ॥
भावना दें। इस चूर्णको ( पानीमें पीसकर कपड़ेमें
लगाकर ) वर्ति बनावें । इसे योनिमें रखनेसे खम्भारीके वृक्ष पर स्वयं पके और सूखे हुवे |
वृद्धा स्त्री का भी सर्वथा नष्ट हुवा मासिक धर्म भी फलों को गायके दूध में पकाकर खाने और पथ्य से
खुल जाता है। रहने से शीत पित्त शोघ ही मष्ट हो जाता है। (९५५५) कासमर्दादि योगः
(९५५७) किंशुकवीजयोगः (वृ. मा. । हिका. ; यो. र. । हिक्का.)
( वै. म. र. । प. ५) कासमर्दकपत्राणां यूपः सौभाअनस्य च। किंशुकबीजपरागैर्लशुनपुनर्भप्रवाहसंयुक्तः । शुष्कमूलकयूपश्च हिकाचासनिवारणः ॥ । पोलिका तिलजाक्ता स्पेदादीसि नाशयति ॥
११ तोला कसौंदीके पत्तोंको २ सेर पानीमें | पलाश के बीज, पलाशके फूलकी , केसर, पकावें और १ सेर रहने पर छान लें और फिर | लहसन और पुनर्नवा (बिसखपरा ) की कोपल
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भारत-मेषज्य रत्नाकरः
(ककारादि
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समान भाग लेकर सबको एकत्र पीसकर पोटली । (९५६०) कुबेराक्षयोगः (१) बनावें । इसे तिलके तेलमें भिगोकर गरम करके
(ये. म. र. । पटल ४) ( या गरम तेल में भिगो भिगो कर ) उससे स्वेदित करनेसे अर्श रोग नष्ट हो जाता है । प्रयान्ति तद्भक्षयतां प्रभाते
कुबेरनेत्राभिनवं प्रवालम् । (९५५८) कुकुमादियोगः
नृणां शमं यरुचिपसेकाः (व. सें. । शिरोरोगा.)
ससैन्धवं नागररामठं वा ॥ भृष्टाज्ये कुड्म किश्चिपिहितं सितया समम् । प्रातः काल लता-करंज के नवीन पत्ते खाने पिष्टं छगल्या क्षीरेण भुक्तं पित्तविनाशकम् ॥ | से या सेंधा नमक, सोंठ और होंगका चूर्ण (अथवा एतदविभेदघ्नं सूर्यावर्तशिरोत्तिनुत । इस चूर्णके साथ करंजके पत्ते) खानेसे छर्दि, अरुचि
और प्रसेक ( मुंहसे थूक आना )का नाश होता है। केसरको जरा धीमें भूनकर समान भाग खांड
(९५६१) कुबेराक्षयोगः (२) मिलाकर, बकरी के दूधमें पीसकर पीनेसे पिसज शिरोरोग, भविभेद, सूर्यावर्त और शिरशूल का (वै. म. र. । पट. ६) नाश होता है।
यक्षलोचनमान काभिकेन पिबेत्सगे। (९५५९) कुटजादिक्षीरम् सश्लेष्मरक्तातीसार कोष्ठंशूलं जयेद् द्रुतम् ॥ (हा. सं. । स्या. ३ अ. ११)
___लताकरंजके बीजोंकी गिरी कांजीके साथ
प्रातः काल पीनेसे कफयुक्त रक्तातिसार तथा उदर कुटजमूलसकेसरमुत्पलं
शूल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। खदिरधातुकिमूलभृतं पयः । पिपति म्रक्षणयोगममृम्भव
(मात्रा-४-६ रत्ती) गुदजनाशनकारि विचारितम् ॥ (९५६२) कुशादिक्षीरम्
( वृ. मा. । स्त्री रोगा.; व. से. । खीरोगा. ; कुड़ेकी जड़की छाल, नागकेसर, कमल, | . खैरसार और धायकी जड़ समान भाग मिलित २
यो. र. । स्त्रीरोगा.) तोले, दूध १६ तोले और पानी ६४ तोले लेकर कुशकाशोरुकाणां मूलैगोक्षुरकस्य च । सबको एकत्र मिलाकर पकावें। जब पानी जल शृतं दुग्धं सितायुक्तं गर्मिण्याः शूलमुत्परम् ॥ जाय तो दूधको छान लें । इसमें मक्खन मिलाकर कुश, कास, अरण्ड और गोखरु; इनको पीनेसे रक्तार्शका माश होता है ।
जड़ समान भाग मिलित २ सोले लेकर कूटकर
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मिश्रमकरणम् ]
परिशिष्ट
मिलाकर पानी जलने तक पकावें और छान लें 1
१६ तोले दूध में डालें और उसमें ६४ तोले पानी | कुटजो मधुकं मुस्तं नागरं रक्तचन्दनम् । धात्री यवानिका दारु कल्क पष प्रकल्पितः || उद्वर्तनादयं कल्कः कटुतैलसमन्वितः । hi पाni हरत्येव शीतपितादिकान्गदान् ॥
इस में मिश्री मिलाकर पीने से गर्भिणीका शूल नष्ट होता है ।
(९५६३) कुशादिक्षीरयोगः
( व. से. सूक्ष्म. )
कुशादियष्टयाहैः क्षीरमर्द्धादके मृतम् । रक्तपितोपशमनं वेदना चोपशास्यति ॥
कुशादि पंचमूल (कुश, काल, शर, दाम और ईख ; इनकी जड़ ) और मुलैठी; इनका समान भाग मिश्रित चूर्ण २ कोके, गोदुग्ध १६ तोले और पानी ८ तोले लेकर सबको एकत्र मिलाकर पानी जलने तक पकावें और फिर छान लें।
यह दूध रक्तपित्त और शूलको नष्ट करता है। (९५६४) कुष्ठादियोगः ( यो. त. । त. ६९ )
कुष्ठैलवालुकैलासमधुकधान्याकडमधुकवलः । हरति सुख पूतिगन्धं रसोनमदिरादिगन्धं च ॥
कूठ, एलवालुक, 'इलायची, महुवेकी छाल, धनिया और मुलैठी समान भाग लेकर पानीके साथ पीसकर मुखमें धारण करनेसे मुखकी दुर्गन्ध तथा ल्हसन और मदिरादिकी गंध नष्ट हो जाती है। (९५६५) कृतमालादिकल्कः
( भा. प्र. । म. खं. २ कुष्ठा. ) कृतमालस्य पत्राणि नक्तमालदलानि च । द्रोणपुष्पीपलाशानि सर्पपा राजिका निशा ॥
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६२६
अमलतास के पत्ते, करञ्जके पत्ते, गूमाके पत्ते, सरसों, राई, हल्दी, इन्द्रजौ, मुलैठी, नागरमोथा, सोंठ, लालचन्दन, आमला, अजवायन और देवदार; इनके समान भाग भिलित चूर्णको पानी के साथ पीसकर सरसोंके तेल में मिला कर शरीर पर मलने से खाज, खुजली और शीतपित्त (पित्त) आदिका नाश है।
(९५६६) कृष्णतिलयोगः
(ग. नि. । अर्शो ४ ) असितानां तिलानां प्राक् प्रकुचं शीतवारिणा । खादतोऽशांसि शाम्यन्ति द्विजदा पुष्टि
दम् ॥
प्रातःकाल काले तिल शीतल जलके साथ सेवन करने से अर्शका नाश और शरीर पुष्ट होता तथा दांत दृढ़ होते हैं ।
मात्रा - ५ तोले ।
(९५६७) कोद्रवान्नोपयोगः
( रा. मा. । व्रणा. २५: ग. नि. । नाडीव्रणा. ६ ) यो माहिषेण दध्ना भुङ्क्ते
कोद्रवोद्भवं
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सततम् । नाडीव्रणो विरोहति तस्य भृशं पूर्यमाणोऽपि ॥ जो रोगी हमेशा भैंसके दहीके साथ कोदो
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६३०
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- मैषज्य रत्नाकरः
भारत
अन्न का सेवन करता है उसका नाड़ीब्रण ( नासूर ) रोग नष्ट हो जाता है ।
(९५६८) कोशातकीयोगः
( ग. नि. । कुष्ठा. ३६ ) कोशातकीफले न्यस्तं जलं पर्युषितं निशि । कर्षमात्रं तु तत्पीतं सर्वकुष्ठरं परम् ||
कोषातकी ( कड़वी तुरई) के भीतर जल भरकर रात भर रक्खा रहने दें ।
[ ककारादि
(९५६९) क्रव्याद्रवः ( वै. र. । अग्निमांद्या. ) व्यालष्टङ्कणधर्मपतनरजः कर्चेकैकं चार्द्रकं प्रस्थं सैन्धवसंयुतं दधिजलमस्थेन सम्पेषितम् । निम्बूकस्य रसस्तु तस्य तुलितो क्रव्यादनामारसो विष्टम्भोदरगुल्मलहरणो वह्निप्रदो रोचकः ॥
चीतामूल, सुहागा और काली मिर्च; इनका चूर्ण १ - १ तोला, अदरक १ सेर, दहीका पानी १ सेर और नीबू का रस १ सेर तथा स्वाद योग्य सेंधा नमक लेकर अदरकको दहीके पानी में पीसकर,
प्रातः काल इसे सेवन करने से समस्त प्रकारके सबको एकत्र मिलाकर सुरक्षित रक्खें । कुष्ट होते हैं।
मात्रा - १ | तोला |
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इसके सेवन से क़ब्ज़, गुल्म और शूलको नाश होता तथा रुचि और अग्निकी वृद्धि होती है ।
इति ककारादिमिश्रप्रकरणम्
*C
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कायप्रकरणम् ]
(९५७० ) खदिरादिकषायम् (व. से. । कुष्ठा. ; यो. र. । कुष्ठा. ) खदिरामलककषायं बाकुचिबीजान्वितं पिवे
अथ खकारादिकषायप्रकरणम्
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उत्तमं खदिरसाररजः
परिशिष्ट
(९५७२) खदिरसारादियोगः
( ग. नि. | भगन्दरा )
ख
कुन्दवलं व हन्तीह तच्चित्रम् ॥ खैरसार और आमलेके क्वाथमें बाबचीके बीजका चूर्ण मिलाकर पीने से शंख और चन्द्रमा या कुन्दके फूर्लोके समान सफेद श्वित्र (सफेद कुष्ठ)
भी नष्ट हो जाता है। यह एक अद्भुत प्रयोग है । । भगन्दर नष्ट हो जाता है ।
इति खकारादिकषायमकरणम्
(९५७१) खदिरादिक्वाथः
1
( यो. र. । भगन्दरा. ; शा. सं. । खं. २ अ. २ ) नित्यम् । खदिरत्रिफलाक्वाथो महिषीघृतसंयुतः । विडङ्गचूर्णयुक्तश्च भगन्दरविनाशनः ॥
शीलयनसनवारिभावितम् । इन्ति तुल्यमहिषाक्षमाक्षिकं मेपिटिकाभगन्दरान् ||
अथ खकारादिचूर्णप्रकरणम्
खैरसार और त्रिफला क्वाथमें भैंसका घी और बायबिडंग का चूर्ण मिलाकर सेवन करने से
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इति वकारादिचूर्णमकरणम्
६३१
उत्तम खैरसार के चूर्ण को असनावृक्ष की छालके क्वाथकी ( ३ या ७ या २१ ) भावना देकर उसमें शुद्र गूगल मिलाकर शहद के साथ सेवन करने से कुछ, प्रमेह, पिटिका और भगन्दरका नाश होता है ।
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६३२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ सकारादि
-
-
अथ खकारादिगुटिकाप्रकरणम् (९५७३) खदिरादिगुटिका बहेड़ा, हर्र असला, इन्द्रजौ, सोंठ, काली
( यो. चि. म. । अ. ३) मिर्च, पीपल, इलायची, काकड़ासिंगी, कपूर, पीपलाविभीतकीरीतक्यौ धात्री कटफलानि च। मूल, लौंग और कचूर; इनका चूर्ण १-१ भाग शुण्ठीमरीचपिप्पल्या एला कर्कटमाङ्गका ॥
तथा कत्था सबके बराबर लेकर एकत्र मिलाकर कपूर पिप्पलीमूलं सब सठिसंयुतम् । अदरक के रस और किंकरी ( कंटाई या बबूर ) एतानि समभागानि सूक्ष्मचूर्ण तु कारयेत ॥ के काथकी ( ३-३ या ७-७) भावना देकर खदिरं च समं देयं आर्द्रकद्रवभावना। छोटे बेरके समान गोलियां बना लें। भावयेकिङ्करीक्वाथैः वटिका कोलमात्रका ॥ । इन्हें खानेसे कास, कण्ठस्थित कफ, दारुण कासं कण्ठे कर्फ हन्ति स्वरभङ्गं च दारुणम् । स्वर भंग और क्षयका शीघ्र हो नाश हो जाता है। उधसं च निहन्त्याशु क्षयरोगहरं परम् ॥
इति खकारादिगुटिकाप्रकरणम्
अथ खकाराद्यवलेहप्रकरणम् खण्डकुष्माण्ड:
४० तोले सोंठ के चूर्ण को २॥ सेर धीमें (र. रा. सु. । रक्तपित्ता.) भून कर उसमें ४ सेर दूध और ३ सेर १० तोले कुष्माण्डखण्ड देखिये
खांड मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें। जब अवलेह (९५७४) खण्डशुण्ठिः तैयार हो जाय तो उसमें ५-५ तोळे सोंठ, मिर्च,
( भा. प्र. । आमवाता.) पीपल, दालचीनी, इलायची और तेजपात; इनका नागरस्य पलान्यष्ट घृतस्य पलविंशतिम् । चूर्ण मिला दें। सोरं द्विपस्यसंयुक्तं खण्डस्याः शतं पचेत् ।। । इसे सेवन करनेसे आमवात एवं बलि पलित व्योपत्रिजातकद्रव्यात्मत्येकं च पलं पलम् ।। का नाश होता और बल, पुष्टि, आयु तथा ओजकी निदध्याच्चूर्णितं तत्र खादेदग्निवलं प्रति ॥ वृद्धि होती है । आमवातप्रशमनं बलपुष्टिविवर्द्धनम् ।
(मात्रा-२-२॥ तोले ।) बल्यमायुष्यमोजस्य बलीपलितनाशनम् ॥
खण्डशुण्ठथवलेहः आमवातपशमनं सौभाग्यकरमुत्तमम् ।। रस प्रकरण में देखिये
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अवलेहमकरणम् ]
परिशिष्ट
(९५७५) खण्डाम्रकम् ग्रहरक्षःपिशाचनमपस्मारविनाशनम् । ( भै. र. । वाजीकरणा.)
पाण्डुरोग प्रमेहश्च मूत्रकृच्छ्रश्च नाशयेत् ॥
वश्या योषिद् भवेत्पुंसां पुमान् वश्यश्च योषिपहचूतरसद्रोणः पात्रं स्यात् सुद्धखण्डतः ।
ताम् । घृतमई ततो ग्राह्यं चतुर्थांशश्च नागरम् ॥
दृष्टो वारसहस्रश्च कथमत्र विचारणा ॥ तददै मरिचं प्रोक्तं तदर्दा पिप्पली पता।
। पके आमोंका रस ३ २ सेर, शुद्ध खांड ४ सेर, तोयं खण्डसमं दधात सर्वमेकत्र संस्थितम् ॥
घी २ सेर ( ४ सेर ) सोंठका चूर्ण आधासेर विपचेन्मृण्मये पात्रे यदा दर्वीपलेपनम् ।।
(४० तोले ), काली मिर्चका चूर्ण २० तोले, पूर्णान्येषां सतो दद्यात् पत्रं पलचतुष्टयम् ॥
पीपलका चूर्ण १० तोला और पानी ४ सेर (८ सेर) अन्थिकं चित्रकं मुस्तं धन्याकं जीरकद्वयम् ।
लेकर सबको एकत्र मिलाकर मिट्टीके पात्रमें मन्दाग्नि यूषणं जाति तालीशं चूर्णमेषां पल पलम् ॥
पर पकावे और जब करछीको लगने लगे तो निम्न स्वगेलाकेशराणाश्च प्रत्येकच पलं तथा ।
लिखित चूर्ण मिला दें-चूर्ण-तेजपात २० तोले सिद्धशीते च मधुनः प्रस्थं दत्त्वा विघट्टयेत् ॥ | | तथा पीपलामूल, चीतामूल, नागरमोथा, धनिया, तत्सर्वमेकतः कृत्वा शुभे भाण्डे निधापयेज् । काला जीरा, सफेद जीरा, सोंठ, मिर्च, पीपल, भोजनादावतः खादेतोलकद्वयमानतः ॥ जावत्री, तालीसपत्र, दालचीनी, इलायची और गच्छेत् कन्दर्पदन्धिो रागधेगाकुलः स्त्रियः। नागकेसर; प्रत्येकका चूर्ण ५-५ तोले । सब चीजें सतं वापि तददै वा रमेत् स्त्रीणां पुमानयम् ॥ मिलाने के पश्चात् जब अवलेह ठंडा हो जाय तो संसेव्य भेषजं घेतद् बन्ध्यायां जनयेत् सुतम् । उसमें २ सेर शहद मिलाकर सुरक्षित रक्खें। वीरं सर्वगुणोपेतं शतायुश्च भवेदयम् ।। मात्रा-२ तोले । मृतवत्सा च या नारी या च गर्भोपघातिनी। इसे भोजनके पूर्व सेवन करना चाहिये । सापि सूने सुतं रम्यं नारायणपरायणम् ॥
इसके सेवनसे कामशक्ति अत्यन्त तीव्र हो बन्ध्यापि लभते पुत्रं वृद्धोऽपि तरुणायते।
| जाती है और पुरुष कामान्ध होकर अनेक स्त्रियोंसे तुरङ्ग इव संहष्टो माता इव विक्रमी ।।
समागम कर सकता है । इसे सेवन करने वाला पुरुष सदा भेषजसंसेवी भवेन्मारुतवेगवान् ।
वन्ध्या स्त्रीमें भी वीर, दीर्घायु और सर्वगुणसम्पन्न हन्ति सर्वामयं घोरं कासं श्वासं क्षयं तथा ॥ पुत्र उत्पन्न कर सकता है। इसके प्रभावसे मृत्वत्सा दुर्नामाजीर्णश्चैव आम्लपित्तं सुदारुणम् । ( जिसकी सन्तान उत्पन्न हो कर मर जाती हो तृष्णां छर्दिश्च मूर्छाश्च शूलमष्टविध जयेत् ॥ वह ) तथा जिसके गर्भ में ही बच्चा मर जाता हो ५ गम्रकमिदं प्रोक्तं भारावेण स्वयम्भुवा। वह भी गुणवान् पुत्रको जन्म देती है । इसे सेवन षयस्य मेध्यमायुष्यं सर्वपापविनाशनम् ॥ करके वृद्ध पुरुष भी युवाके समान हो जाता है।
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६३४ भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[सकारादि जो इसे सदा सेवन करता है उसकी कामानि लेह लिह्यात्समध्वाज्यैः पाण्डरोगी हलीमकी। अत्यन्त प्रबल हो जाती है तथा बल वीर्थकी। स लेहः कामलां हन्यादपि सम्वत्सरोत्थिताम् ॥ खूब वृद्धि होती है।
खैरके क्वाथमें बायबिइंग, धनिया, खरैटी, ___ यह पाक कास, श्वास, क्षय अर्श, अजीर्ण, कुटकी, मिश्री, मुलैठो, हरे, बहेडा, आमला, हल्दी दारुण अम्लपित्त, सृष्णा, छर्दि, मच्छी, आठ प्रका- | और दादल्टी का
और दारुहल्दी का चूर्ण मिलाकर मन्दाग्नि पर रके शूल, ग्रह, राक्षस, पिशाच, अपस्मार, पाण्डु, पकावें और अवलेह तैयार हो जाने पर ठेडा प्रमेह और मूत्रकृच्छादि रोगों को नष्ट करता है। करके सुरक्षित रक्खें । यह आयुवर्द्धक और मेध्य है । इसके सेवन करने से
इसे घी और शहदमें मिलाकर चाटनेसे १ पति स्त्रीके और स्त्री पसिके वशीभूत हो जाती है।
वर्षके पुराने कामला रोग और पाण्ड तथा हलीइसका अनुभव सहस्रों बार हो चुका है। किसी
मकका नाश होता है। प्रकारके सन्देहको स्थान नहीं है। (९५७६) स्खदिरादिलेहः
__(क्वाथ ४ सेर, समस्त द्रव्योंका समान भाग (व. से. ; र. रा. सु. । पाण्ड.)
| मिलित चूर्ण ४० तोले ।) पचेत् खदिरनिःक्वाथे विडाधान्ययो रजः। १. रा सु. में धनिये के स्थान पर बला तिक्ता सिता यष्ठी त्रिफला रजनीद्वयम् ॥ नागरमोथा है ।
____ इति खकाराधवलेहमकरणम्
-
०
अथ खकारादिघृतप्रकरणम् (९५७७) खदिरादिघृतम्
इसे पीनेसे समस्त प्रकारके कुष्ठ और विसर्प (हा. सं. । स्था. ३ अ. ४२) | नष्ट होते हैं। खदिरकदरमूळबालकं कर्णिकारः
(९५७८) खजूराचे वृतम् कुटजसपारिभद्रारम्बधानीपदीप्याः ।
(व. से. । राजयक्ष्मा.) क्लथिनमपि समांशं यद्धृतं पानमस्य
| घृतं ख— 'मृद्वीकामधुकैः सपरूपकैः । . विनिहन्ति सकलान्वै कुष्ठवैसर्पदर्पान् ॥
| सपिप्पलाकैवस्वर्थकासश्वासज्वरापहम् ।। खैरसार, सफेद खैरका सार, मूर्वा, सुगन्धबाला, छोटे अमलतासको छाल, कुड़ेको छाल, नीम,
___खजूर, मुनक्का, मुठी, फालसा और पीपल अमलतासकी छाल, कदम्बकी छाल और अजवायन | इनके क्वाथ और कल्क से सिद्ध घृत स्वरभंग, कास, इनके क्वाथके साथ घृत सिद्ध करें। । श्वास और ज्वरको नष्ट करता है।
इति खकारादिघृतपकरणम्
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लप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
%3
अथ खकारादितैलप्रकरणम् (९५७९) खदिरादितैलम् कल्क-चन्दन ( सफेद ), अगर, केसर, (वा. भ. । उ. अ. २२ मु. रो. चि.)
मोथा, सुगन्धबाला, खस, देवदारु, लोध, दाख
(मुनक्का), मजीठ, दालचीनी, पनाक, बायबिडंग, खदिरतुलामम्बुघटे पक्त्वा तोयेन तेन पिष्टैश्च ।
स्पृक्का ( लज्जालु ) तगर, नखी, कायफल, छोटी चन्दनजोगककुङ्कुमपरिपेलवबालकोशीरैः॥
इलायची, ध्यामक ( कत्तण ) और पत्तंग; इनका मुरतरुरोधद्राक्षामभिष्ठाचोचपकविडङ्गैः।
चूर्ण १।-१। तोला लेकर सबको पानीके साथ स्पृक्कानतनखकट्फल
एकत्र पीस लें। सूक्ष्मैलाध्यामः सपतङ्गैः ॥
२ सेर तेलमें यह क्वाथ और कल्क मिलाकर तैलपस्थं विपचेकांशैः पाननस्यगण्डषैस्तत्। पकावें । जब पानी जल जाए तो तेलको छान लें। हत्वाऽऽस्ये सर्वगदाञ्जनपति
इसे पीने, इसकी नस्य लेने और इसके गण्डप शीघ्रं दृशं श्रुति च वाराहीम ॥
धारण करनेसे मुखके समस्त रोग नष्ट होकर दृष्टि क्वाथ-६ सेर खरसारको ३२ सेर पानीमें और श्रवण शक्ति बराहके समान ( आयन्त पकावें और ८ सेर शेष रहने पर छान लें। तीक्ष्ण ) हो जाती है।
इति खकारादितैलमकरणम्
अथ खकारादिरसप्रकरणम् (९५८०) खगेश्वररसः । श्वेतकुठं निइन्त्याशु श्वासकासगदानपि । (र. र. सं.। उ. अ. २० ; र. चं. । कुष्ठा.)
| सघृतः पित्तनं कुष्ठं मधुना मेहमेव च ॥
पथ्यं दोषानुरूपेण बुद्धेन मुनिनोदितम् ॥ पलेन प्रमितः सूतः पलेन प्रमिता वसा।
___ शुद्ध पारद, शुद्र गंधक और स्वर्णमाक्षिक खगः पलमित: सर्व मर्दयेदर्जुनद्रवैः ॥ भस्म ५-५ तोले लेकर तीनोंको एकत्र खरल करके गोलीकृत्य विशोष्याय गोलं कृप्यां निरुध्य च। कजली बनावें और उसे ( १ दिन ) अर्जुनकी ततस्तां सुदृढे भाण्डे मषां क्षिप्त्वा निरुध्य च ।। छालके क्वाथमें घोटकर गोला बनाकर सुखा लें। पचेत्साधुदिनं पश्चात्स्वाशीसं विचूर्णयेत् ।। इस गोलेको भूषामें बन्द करके बालकाखगेश्वरो रसो वल्लपमितः कुटजान्वितः ॥ यन्त्रमें रखकर हाण्डी पर शराव ढककर सन्धिको
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६३६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ खकारादि
बन्द कर दें और ३६ घण्टे आग पर पकावें । | बङ्गभस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म, अभ्रक भस्म तथा तदनन्तर उसके स्वांग शीतल होने पर औषधको तीन प्रकारके लोह की भस्म ( मुण्डलोह, तीक्ष्ण. निकाल कर खरल कर लें।
लोह और कान्तलोह ) ५-५ तोले मिलाकर ठंडा मात्रा-२ रत्त ।
करके सुरक्षित रखें। इसे कुड़की छालके चूर्ण या क्वाथके साथ
यह बलकारक, वर्ण संस्कारक, आयुष्यवर्द्धक, देनसे श्वेत कुष्ठ, श्वास और कासका नाश होता है।
। और बलिपलितनाशक है तथा आमवातको नष्ट
करता है। इसे पित्तज कुष्ठ में घीके साथ और प्रमेहमें शहद के साथ देना एवं दोषानुरूप पथ्य पालन
( मात्रा-५-६ माशे ।) कराना चाहिये ।
(९५८२) खदिरसारादिपूर्णम्
( ग. नि. । कुष्ठा. ३६) (९५.८१) खण्डशुण्ठयवलेहः
सपश्चनिम्बत्रिफलाशताह: ( यो. र. । आमवाता.) ___ सलोहचूर्णः सविरणसारः। नागरस्य तुलामेको घृतस्य पलविंशतिः ।
सबीजसारः खदिरस्य सारः क्षीरद्रोणार्धके पक्त्वा खण्डस्यार्ध शतं क्षिपेत ।।।
कुष्ठापहः चित्रगदापहश्च ।। व्योषं विजातकं चैव केशरं पिप्पलीजटा ।।
खैरसार, नीमका पंचांग, हर, बहेड़ा, आमला, जोङ्गक जातिपत्रीकं जाती फलकचोरकम् ।।
| सौंफ (या सोया ), लोहभस्म, बायबिडंगकी मींगी, अश्मभेदस्ताम्रभस्मवङ्गभस्मतथैव च ।
( गिरी ) और विजयसार का सार समान भाग स्वर्णमाक्षिकमभ्रं च तथा लोहत्रयं क्षिपेत ॥ | लेकर एकत्र खरल करके चूर्ण बनावें । एतान्पृथक्पलान्भागान् प्रत्येकं चूर्णितं क्षिपेत्।
यह चूर्ण श्वित्र और अन्य कुष्ठों को मन्दानल विपक्वं तु लेहवसाधु साधयेत् ॥
नष्ट करता है। बल्यं वय तथाऽऽयुष्यं वलीपलितनाशनम् ।।
(यात्रा--१॥ माशा । अनुपान-खैरआमवातप्रशमनं सौभाग्यकरमुत्तमम् ॥
छालका क्वाथ) ६। सेर सोंठके चूर्णको २॥ 'सेर घीमें भून (९५८३) खर्परमारणम् लें और फिर उसमें १६ सेर दूध डालकर मन्दाग्नि ( आ. वे. प्र. । अ. ९) पर पकावें । जब दूध कुछ गाढ़ा हो जाय तो उसमें खर्परं पत्तलं कृत्वा लवणान्तर्गतं पचेत् । ३ सेर १० तोले खांड मिला दें एवं अवलेह तैयार | जायते शोभनं भस्म सर्वरोगापहं स्मृतम् ।। हो जाने पर उसमें सोंठ, मिर्च, पीपल, दालचीनी, खपर के पत्तर करवा के सेंधानमकके बोचमें इलायची, तेजपात, नागकेसर, पीपलामूल, अगर, । रखकर (शराव सम्पुटमें बन्द करके ) पकानेसे आवित्री, जायफल, चोरक, पाषाणभेद, ताम्रभस्म, ' उसकी भस्म हो जाती है।
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रसप्रकरणम्)
परिशिष्ट
(९५८४) खर्परशोधनम् (१) ( र. र. स. । पू. सं. अ. २; आ. वे. प्र.।
अ. ९ ; रे. चं.)
जो इन दोनोंको अग्निस्थायी कर लेता है उसके लिये देहको लोहमयी (अत्यन्त दृढ) बनाना तनिक भी कठिन नहीं रहता।
रसको द्विविधः प्रोक्तो ददुरः फारवेल्लकः। । खपरियाको कड़वी तूंबीके रसमें पकाने से सदलो दरः प्रोक्तो निर्दलः कारवेल्लकः ॥ वह शुद्ध तथा पीतवर्ण हो जाता है। सस्वपाते शुभः पूर्वो द्वितीयश्वौषधादिषु । (९५८५) खपरशोधनम् (२) रसकः सर्वमेहनः कफपित्तविनाशनः॥
(भा. प्र. । पू. खं. १ : शा. ध. | ख. नेत्ररोगक्षयनश्च लोहपारदरअनः ।
२ अ. ११) नागार्जुनेन संदिष्टौ रसश्च रसकावुभौ ॥ ।
नरमूत्रे च गोमूत्रे सप्ताहं रसकं पचेत् । श्रेणी सिद्धरसौ ख्यातौ देहलोहकरौ परम् । दोलायन्त्रेण शुद्धः स्यात्ततः कार्येषु योजयेत् ॥ रसश्च रसकश्चोभौ येनानिसहनौ कृतौ ॥ खरं कटुकं क्षारं कषायं वामकं लधु । देहलोहमयो सिदिसी तस्य न संशयः। लेखनं भेदनं शीतं चक्षुष्यं कफपित्तहत् ॥ ___x x x x विषाश्मकुष्ठकण्डूनां नाशनं परमं मतम् ॥ कटुकालानिर्यासे आलोच्य रसकं पचेत् ॥ खर्परको दोलायन्त्र विधिसे सात दिन मनुष्यके शुदं दोषविनिर्मुक्तं पीतवणे च जायते ॥ मूत्र या गोमूत्रमें पकाने से वह शुद्ध हो जाता है।
रसक ( खपरिया ) दो प्रकारका होता है। खर्पर कटु, क्षारयुक्त, कषाय तथा शीतल होता एक दलदार, जिसे " दर्दर" कहते हैं और है। यह नेत्रोंके लिये हितकारी, कफपित्त नाशक, दूसरा दल-रहित, जिसे "कारवेल्लक" कहते हैं। वामक, लघु, लेखन और भेदन है तथा विष, पथरी. सत्वपातनके लिये दर्दुर नामक खपरिया लेना
कुष्ठ और कण्डूको नष्ट करता है। चाहिये और कारवेल्लकको औषधोंमें डालना चाहिये।
| (९५८६) खर्परशोधनम् (३) खपरिया प्रमेहनाशक, कफपित्तनाशक, नेत्र- |
। (र. र. स. । पू. खं. अ. २ ; आ. वे. प्र.। रोग और क्षयको नष्ट करने वाला तथा लोह और
अ. ९ ; र. चं.) पारद को रंगने वाला है।
खपरः परिसन्तप्तः सप्तवारं निमज्जितः । नागार्जुन ने रसक और रस, इन दोनों श्रेष्ठ | बीजपूररस यान्तर्निर्मलत्वं समश्नुते ॥ और देहको लोहके समान दृढ करने वाले सिद्ध खर्परको तपा तपा कर सात बार बिजौ रके रसोंका वर्णन किया है।
रसमें बुझानेसे वह शुद्ध हो जाता है।
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भारत-भैषज्य रस्नाकरः
[खकारादि. (९५८७) खर्परशोधनम् (४) । एकत्र नीबूके रसके साथ स्वरल करके वृन्ताफमूषामें (२. र. स. । पू. वं. अ. २ ; र. चं.) । | लेप कर दें और उसे सुखाकर उसके मुंह पर मिट्टी नमो वाऽश्वमो वा तके वा कालिकेय वा। | का खपरा ढक कर अग्निमें मावें । जब नीली प्रताप्य मन्जितं सम्यक खरं परिशुद्ध यति ॥
| ज्वाला निकलने के पश्चात् सफेद ज्वाला निकले खपरिया को तपा कर मनुष्यके मूत्रमें या
| तो मूषा को सिंडासीचे निकालकर उन्टा करके घोडेके मूत्रमें अथवा तक्र या कांजीमें बझाने से वह आहिस्ता के झटका देकर पिघले हुवे सर्पर सस्व शुद्ध हो जाता है।
को निकाल लें जो बंगके समान होगा । इसी
प्रकार तीन चार बार भाने से सम्पूर्ण सत्व __ (९५८८) खपरशोधनम् (५)
निकल आएगा। (र. र. स. । पू. खं. अ. २) ।
___ (९५९०) स्वपरसत्वपातनम् (२) नरम स्थितो मासं रसको रायेदध्रुवम् । (र. र. स. । पू. खं. अ. २ ; आ. वे. प्र. । सुखसानं रसं तारं शुदस्वर्णसमप्रभम् ॥
अ. ९) खपरियाको १ मास तक मनुष्यके मूत्रमें | लाक्षागुडाऽऽमुरीपथ्या हरिद्रासर्जटणैः। भिगोए रखनेसे वह शुद्ध ताम्र, पारद और चांदीको | सम्यक् सन्चूये क्त्पक्वं गोदुग्धेन घृतेन च। रंग कर शुद्ध स्वर्णके समान कर देता है। वृन्ताफमूषिकामध्ये निरुध्य गुटिकोकृतम् । (९५८९) खर्परसत्वपातनम् (१) मात्वाध्यात्वा समाकृष्य ढालयित्वा शिलातले
(र. र. स. । पू. खं. अ. २) सत्त्वं वाकृति ग्रामं रसकस्य मनोहरम् । हरिद्वात्रिफलारालासिन्धुधमैः सटाणैः।
। सपरियाको लाख, गुड़, राई, हर्र, हल्दी,
राल और सुहागेके साथ खरल करके गोदुग्ध में साकरेश्च पादांशः साम्लैः सम्मर्च खर्परम्
और फिर गोघृतमें (पाठान्तरके अनुसार केवल विसं रन्ताकमूषायां शोषयित्वा निरुध्य च ।।
गोदुग्धमें ही) पकाकर गोलियां बनावें और उन्हें मूषामुखोपरि न्यस्य खपरं प्रधमेत्ततः ॥
वृन्ताकमूषामें बन्द करके अग्निमें रखकर ध्मावें । खपरे पद्रुते ज्वाला भवेन्नीला सिता यदि । | तदा संदंशतो मूषां धृत्वा कृत्वा त्वधोमुखोम् ॥
१ आ. वे. प्र. में 'गोदुग्धेन प्लुतं तथा' शनैरास्फालयेद्भूमौ यथा नालं न भियते । ।
२ इन्ताकमूषाबनाभं पतितं सत्वं समादाय नियोजयेत् ।।
वृन्ताकाकारमूषायां नालं द्वादशकाङ्गलम् । एवं त्रि चतुरेवारः सत्वं सर्व विनिःसरेत् ॥
धत्तरपुष्यवच्चोचं सुदृढ़ श्लिष्टपुष्पवत् ।। हल्दी, त्रिफला, राल, सेंधा नमक, घरका धुवां, अष्टाङ्गलं च सछिद्रं सा स्याद् वृन्ताकमूषिका । मुहागा और भिलावा; इनका समान भाग मिलित
अनया खर्परादीनां मृदूनां सत्वमाहरेत् ॥ चूर्ण १ भाम तथा खपरिया ४ भाग लेकर सबको
(र. स. स.)
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रसमकरणम्]
परिशिष्ट
६३६
जब मूषा खूब लाल हो जाय तो उसे निकालकर | ततः सप्तवटीदद्याद् दधिमस्तुसमप्लुताः । पत्थर पर उल्टा कर दें । इस विधिसे खपरियाका | नित्यं दधना च भोक्तव्यं कोष्ठदुष्टिनिवृत्तये ॥ बंगके समान सुन्दर सत्व निकल आयेगा । गोलि- | ग्रहणीमतिसारश्च ज्वरदोषश्च नाशयेत् । योंका जो भाग शेष रह जाय उसे पुनः उसी | अग्निदाढर्यकरं श्रेष्ठमामपर्पटिकाद्वयम् ॥ मूषामें रखकर धमावें । इसी प्रकार कई बार करनेसे
___पक्की ईटके चूर्ण, हल्दी और घरके धुर्वे में सम्पूर्ण सत्व निकल आयगा ।
शुद्ध किया हुवा पारद ७॥ माशे तथा भंगरेके रस में (९५९१) खर्परसत्वमारणम् शुद्ध गंधक ७॥ माशे लेकर दोनों की कज्जली
बनावें और उसमें संभालु के पत्तोंका रस, मण्डूक(र. र. स. । पू. खं. अ. २;)
| पर्णीका रस, भंगरेका रस, गूमाका रस, कोयलका तत्सत्वं तालकोपेतं मक्षिप्य खलु खपरे। रस. बाबचीका रस और लाल चीते के पत्तों का मर्दयेल्लोहदण्डेन भस्मीभवति निश्चितम् ॥ स ७॥-७|| माशे डालकर खरल करें। फिर
खर्पर सत्वको (समान भाग) हरतालके साथ | सरसों के समान गोलियां बनाकर छायामें सुखा लें। खरल करके कढ़ाईमें डालकर आग पर चढ़ावें और इनमें से नित्य सात गोली दहीके पानीके लोहेकी मूसली आदि से घोटते रहें। इस विधिसे साथ खानेसे कोष्ठ विकार, संग्रहणी, अतिसार और उसकी भस्म हो जाती है।
ज्वरका नाश होता तथा अग्नि दीप्त होती है । (९५९२) खसर्पणवटिका
पथ्य-दही भात । ( भै. र. । र. रा. सु. । ग्रह.)
इसका दूसरा नाम " आमपर्पटी है। पकेष्टकहरिद्राभ्यामागारधूमकेन च ।
(९५९३) खेचरी गुटिका शोधितं पारदश्चैव कर्षाढ़ तुलया धृतम् ॥ ( र. प्र. सु. । अ. ८ ज्वरा.) भृाराजरसैः शुद्धं गन्धकं रससम्मितम् ।
। रसकं दरदं ताप्यं गगनं कुनटी समम् । द्वाभ्यां कन्जलिकां कृत्वा भावयेत्तत्तु भेषजैः॥
सूतं समांशकं दद्यादम्लघेतसजै रसैः ।। सिन्दुवारदलद्रावे मण्डूकपर्णिकारसे ।
मर्दयेदिनमेकन्तु मूर्यधर्म शिलातले । केशराजरसे चापि ग्रीष्मसुन्दरजे रसे ।।
पचेत्तं वालुकायन्त्रे दिनमेकं रसं खलु ॥ रसेऽपराजितायाश्च सोमराजोरसे तथा ।
स्वागशीतं समुद्धृत्य चूर्णीकृत्य प्रयत्नतः । रक्तचित्रकपत्रोत्थे रसे च परिभावितम् ॥ निम्बूरसेन गुटिका कर्तव्या चाढकीसमा ॥ रसमानसमानेन छायायां शोषयेद्भिषक् । सर्वज्वरहरा प्रोक्ता गुल्मोदरविनाशिनी । सर्षपाभाश्च गुडिकाः कारयेत् कुशलो भिषक् ॥ ' गुटिका खेचरी प्रोक्ता देहलोह विधायिनी ।।
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६४०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[खकारादि
-
___ खपरिया, हिंगुल, स्वर्णमाक्षिक भस्म, अभ्रक स्वांग शीतल होने पर निकालकर नीबू के रस में भस्म मनसिल और पारद समान भाग लेकर सबको खरल करके अरहरके दानके समान गोलियां बना लें। एकत्र खरल करके १ दिन अलबेतके रसमें पत्थरके यह गुटिका समस्त ज्वरों तथा गुल्म और खरलमें धूपमें घोटें और फिर उसे तशी शीशी में | उदररोगोंको नष्ट करती है। भर कर १ दिन बालुका यन्त्रमें पकावें । तदनन्तर |
इति खकारादिरसप्रकरणम
अथ खकारादिमिश्रप्रकरणम् खट्टाशीशोधनम् माशे ), पीपलामूल ८ निष्क, सोंठ ५ निष्क (२५ ( र. र. ; व. से. )
माशे), तथा जायफल, इलायची, चीतामूल और महासुगन्धिलक्ष्मीविलास तै लम् प्र. सं. ५३०८
बंसलोचन ५-५ निष्क लेकर अदरकके टुकड़े के फुटनोट में देखिये।
करके १ सेर घीमें भून लें और फिर उसमें सांड
तथा अन्य समस्त वस्तुओं का चूर्ण मिलाकर (९५९४) खण्डाईकयोगः
सुरक्षित रखें । (यो. र. । अरोचका.)
| इसे १ मण्डल (४८ दिन) सेवन करनेसे आईकस्य सितोयाश्च द्विगुणाष्टपलानि च ।। अत्यन्त वृद्ध पित्त, अम्लपित्त, अरुचि, वातविकार निष्कद्वादशकं तीक्ष्णपष्टनिष्का च मागधी॥ | और अग्निमांद्य का नाश हो जाता है। अष्टनिष्कं च तन्मूलं पश्चनिष्कं च नागरम् । (मात्रा-१ तोला) जातीफलैलादहनवंशाद्याः पञ्चनिष्ककाः ॥
(९५९५) खदिरयोगः सर्बाण्येतानि शुष्काणि चूर्ण कृत्वा पृथक्पृथक आदेकं खण्डशः कृत्वा गोघृतेऽष्टपले पचेत् ॥ ( ग. नि. । कुष्ठा. ३६ ) शर्करा पूर्वचूर्ण च चाऽऽर्द्रकं सह मेलयेत् । । सुदेशजातं खदिरं निरीक्ष्य मण्डल सेवयेन्नित्यं महापित्तविनाशनम् ॥
तस्याप्यधस्तादवटं खनेत । अम्लपित्तं निहन्त्याशु सर्वपित्तविकारजित् ।। जटां निकृन्त्याशु च तस्य मूलं सर्वारुचि वातरोगं मन्दाग्निं च नियच्छति ।। ताम्र निदध्यात्कलशे सुगुप्तम् ॥
अदरक १ सेर, खांड १ सेर, काली मिर्च | तं वेष्टितं मृत्तिकया विलिप्तं १२ निष्क ( ५ तोले ), पीपल ८ निष्क ( ४० ।। प्रदीपयेच्चारुचितं समग्रम् ।
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मिश्रमकरणम् ]
उद्धृत्य तं लोहरजो विमिश्रं पिवेद्रसं क्षौद्रघृतोपपन्नम् ॥ मलेपनाभ्यञ्जनपानयोगे -
सेन हन्यात्वलं हि कुष्ठम् । पामयाः श्वयथुममेहानुद्धृत्य दोषान् प्रणुदेव सः ॥
य एष दृष्टः खदिरस्य कल्पः सर्वायानां शमने समर्थः । स एव निम्बासनदेवदारु
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परिशिष्ट
रोहीतकारग्वध शिशपानाम् ॥
उत्तम भूमि में उत्पन्न हुवे निरोग खदिर वृक्ष के नीचे एक बड़ा सा गढ़ा खोदें और फिर उस वृक्ष की जड़को निकालर ( टुकड़े करके ) तुरन्त ताम्रकलशमें भरकर उसका मुख बन्द कर दें । और उस पर चारों ओर मिट्टीका लेप करके उपरोक्त गढ़े में रखकर उसे कण्डों से ढककर आग लगा दें | जब अग्नि स्वांग शीतल हो जाय तो कलश से रसको निकालकर सुरक्षित रक्खें ।
इसमें लोहभस्म, घी और शहद मिलाकर सेवन करनेसे तथा इसका लेप और अभ्यङ्ग करनेसे ? मासमें प्रबल कुट, पाण्डु, अर्श, शोथ और प्रमेहका नाश हो जाता है ।
उपरोक्त विधि से नीम, असन, देवदारु, रोहितक, अमलतास और शीशम का पृथक् पृथक् रस निकालकर सेवन करने से भी उपरोक्त लाभ होता है। (९५९६) खदिररसायनम्
(वृ. मा. । कुष्टा.) दह्यमानाच्च्युतः कुम्भे मूलगे खदिराद्रसः ।
-0-00
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यात्रीरक्षो इन्यात्कुष्ठं रसायनम् || खैर वृक्षको जड़के थोड़ा ऊपर से काट डालें फिर उसकी जड़के भीतर एक गहरा गढ़ा खोदकर उसमें मिट्टीका घड़ा रख दें तथा वृक्षको ईंधन से ढक कर आग लगा दें। इस विधिसे घड़े में जो रस एकत्रित हो उसमें घी, आमलेका रस और शहद मिलाकर पीने से कुष्ठ नष्ट होता है । यह प्रयोग रसायन भी है। (९५९७) खदिरादियोगः (१)
1
६४१
( वा. भ. । चि. अ. १९ कुष्ठ. चि. ) खदिरवृष निम्बकुटजाः
श्रेष्ठाः कृमिजित्पटोलमधुपर्ण्यः । अन्तर्बहिः प्रयुक्ताः कृमिकुष्ठनुदः सगोमूत्राः ॥
इति कारादिमिश्रप्रकरणम्
खैरसार, बासा, नीम, कुड़ेकी छाल, त्रिफला, बायबिडंग, पटोल और गिलोय; इनके अन्तः और बाह्य प्रयोग से (क्वाथादि करके पिलाने और लेप, तेल आदि के रूपमें लगाने से ) कृमि तथा कुष्ठका नाश होता है । इन्हें गोमूत्र के साथ प्रयुक्त करना चाहिये ।
(९५९८) खदिरादियोगः (२) ( वा. भ. । उ. अ. २२ ) खदिरायोवरापार्थमदयन्त्यहि मारकैः । गण्डूषोऽम्बुमृतैर्यो दुर्बलद्विजशान्तये ॥
खैरसार, लोह, त्रिफला, अर्जुन, मदयन्तिका ( चमेली भेद ) और विट् खदिर (दुर्गन्धित खैर); इनके नाथ गडूष धारण करनेसे दुर्बल दांत हो जाते हैं ।
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ܩܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܩ
ܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫa
His,
ܩܡܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܪܩܐ
ܩܒܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܒܫܫܒܩܐ
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ܩܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܦ
ܒܫܠܡܫܫܡܫܫܫܫܫܫܫܫܫܫܩ
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भारत-भैषज्य-रत्नाकर
परिशिष्ट चिकित्सा-पथ-प्रदर्शिनी.
-Door(१) अग्निमांद्याजीर्णविसूचिकाधिकारः नम्बर प्रयोग नाम संक्षिप्त गुण नम्बर प्रयोग नाम संक्षिप्त गुण कषाय-प्रकरणम्
रस-प्रकरणम् ८७८८ अमृतादिकषा० विचिका, अजीर्ण,विष | ८९२५ अग्निकुमार रसः अग्निदीपक ९२०३ करजादिवमन
८९२७ , " " कषायः विसूचिका
८९२८ अग्निजननी व० ॥ ९२०४ ,
८९३३ अजीर्णहर रसः गुरु पदार्थों को भी पचा घोरविसूचिका
देता है। चूणे-प्रकरणम्
मिश्र-प्रकरणम् ८८०० अग्निचूर्णम् वातज अग्निमांद्य
। ९००० अजीर्णनाशक ८८०१ अग्निमुख चू० अग्निमांद्य, शूलादि
किस पदार्थका अजीर्ण ८८०७ अजमोदाथ चू० अग्निदीपक
किस चीज़से मिटता है। ८८१३ अभयायोगः विदग्धाजीर्ण
९०६० आयामकाञ्जि. अरुचि, शूल, वायु आदि ९०२६ आमलकादि चू० अग्निमांध
नाशक. १ पहर में आहार ९२९७ क्रयादिकल्कः अत्यन्त क्षुधावर्द्धक
को पचा देती है।
९५४९ काञ्जिकयोगः विसूचिका, अलसक घृत-प्रकरणम्
९५६९ क्रव्यादद्रवः कब्ज, शूल, गुल्म (रुचि ८८४३ अगस्यघृतम् अग्निमांद्य, गुल्म, हृद्रोग
और अग्निवर्द्धक
गणः
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६४४
भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[ अतिसार
-
९२६९
,
(२) अतिसाराधिकारः कषाय-प्रकरणम्
| ९२६८ कुटजाटि चू० रक्तातिसार ८७९४ अरलुत्वक्पुटपाकः अतिसारमें उत्तम
आम और रक्त युक्त ८७९५ , , समस्त अतिसार
पित्तज ग्रहणी को शीघ्र ९०१३ आम्रत्वक् पु० पा० कफप्रधान रक्तातिसार
नष्ट करता है। ९०७० इन्द्रयवादि का० समस्त अति(सरलयोग)
९२७२ कुटजाचं चू० पित्तज तथा रक्तज अति९१८२ ऐरावतीपत्र यो० कफज रक्तातिसार
सार, गुदशल,प्रवाहिका ९२०७ कलिङ्गषट्कः आमातिसार, रक्ताति
९२८२ कुष्ठादि चू० कफातिसार (स०यो०) सार, शल
९२९० कृष्णमृदादि क० रक्तातिसार ९२१३ किराततिक्तादि काथः वेदनायुक्त पित्तातिसार
गुटिका-प्रकरणम् ९२२१ कुटजादि का० पित्तज कफज अतिसार ८८२९ अकोट वटक: हरप्रकारका भयंकर अति. ९२२२ , , अतिसारको शीघ्र नष्ट
८८३० ,, समस्त अतिसार करता है
८८३४ अभयाचा वट० अतिसार,पाण्डु,ज्वर, अर्श ९२२३ कुशमूलादि का० पित्तातिसार ९३०६ केशराजादि व० शल और रक्त युक्त आमा९२३२ केशराजादि का० आमशूलयुक्त अतिसार
तिसारको शीघ्र नष्ट
चूर्ण-प्रकरणम् ८८०२ अंकोटमूल क० अत्यन्त वेगवान अति- अक्छेह-प्रकरणम् __सार ( सरल योग)
| ९३११ कल्याणावलेहः कृमि जनित, अर्श जनित ८८०३ , , यो० अतिसार
और विरुद्ध अन्नपान ८८०९ अतिविषादि चू० पित्तातिसार
जनित अतिसार ९१०७ उदीच्यादि चू० अतिसार, तृपा, दाह,
| ९३१४ कुटजावलेहः भयंकर रक्तातिसार
आम, हिक्का (मग्ल) ९२४९ कलिंगादि चू० कफातिसार, रक्तानिमार ९२५० , , पित्तज तथा वातन्त्र
घृत-प्रकरणम्
| ९३३१ कुटजा वृ० समस्तातिसार ९२६५ किरातादि यो० • वेदनायुक्त पित्तातिसार
अतिसार
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अतिसार)
परिशिष्ट (चि. प. प्र.)
६४५
लेप-प्रकरणम् | ९०५४ आनन्दभैरवी सन्निपातातिसार ९०४८ आम्रवल्कल
९४७२ कनकसुन्दरो वातातिसारमें अद्भुत् कल्कलेपः नदीवेगोपम भयंकर
गुण दिखलाता है। अतिसार
मिश्र-प्रकरणम् रस-प्रकरणम् ८९९४ अहिफेन वटि० प्रवृद्ध रक्तातिसार ९५६१ कुबेराक्षयोगः कफज रक्तातिसार, शल ८९९५ अहिफेनादि यो० अतिसारमें अत्यन्त प्र
को शीघ्र नष्ट करता है। भाव शाली
(३) अपस्मारोन्मादाधिकारः गुटिका-प्रकरणम्
रस-प्रकरणम् ९३०३ कितव वटिका उन्मादको शीघ्र नष्टकरती ८९३४ अपस्मार नाशन है। ( सरल योग)
अपस्मार
८९३५ अपस्मारारि रसः , अमन-प्रकरणम्
९१२९ उन्मादकुठार रसः उन्माद ९१२३ उन्मादभञ्जनी वटी अपस्मार, उन्माद । | ९१३० उन्मादध्वंसी रसः । ९४३८ कपित्यादि वर्तिः " " | ९१३१ उन्मादपर्पटी रसः ।
-
(४) अम्लपित्ताधिकारः कषाय-प्रकरणम्
रस-प्रकरणम् ८७८७ अभयादि क्वाथः अम्लपित्त, कण्ठदाह । ८९४३ अभ्रकभस्म यो० अम्लपित्त, शल, वमन ८७९१ अमृतादि , प्रबल अम्लपित्तको शीघ्र ९५२४ कुष्माण्डखण्ड० अम्लपित्त
नष्ट करता है।
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भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[अरोचक
(५) अरोचकाधिकारः चूर्ण-प्रकरणम्
९५३८ कपित्थादिषाडवः हर प्रकारकी अरुचि ९२९३ कृष्णादि चू० वातज अरुचि
९५४० करा योगः अरुचि मिश्र-प्रकरणम्
९५४४ कलहंसकांजी अत्यन्त रोचक ८९९९ अजाज्यादिमुख
९५९४ खण्डाईक यो० अरुचि, प्रवृद्धपित्त, धावनम् वातज अरुचि
अम्लपित्त, वातविकार, ९०६६ आर्दक विधिः अदरकको सुस्वादु
अग्निमांध बनानेकी विधि
(६) अर्बुदग्रन्थ्यधिकारः लेप-प्रकरणम् ९१२० उपोदिकालेपः मर्मज अर्बुद
तैल प्रकरणम्
(७) अर्शोधिकारः चूर्ण-प्रकरणम् ८८१६ अर्कपत्रादिलवणम् वाताशको शीघ्र नष्ट | ९१५९ एरण्ड तैलयो० मल और दोषों को अनुकरता है।
लोम करता है। ९२४३ करंजमूल यो० अर्शको ३ दिनमें नष्ट | ९३६० कासीसादि तै० मस्सों को नष्ट करता है।
करता है । (स.यो.) ९३६२ कासीसाधं तै० मस्से ९२७७ कुशल यो० रक्तस्राव नाशक ,
छेप-प्रकरणम्
८८७३ अजापुरीषादि यो० चर्मकील ___ गुटिका-प्रकरणम्
८८८१ अर्कक्षार लेपः मस्सों को अवश्य नष्ट ९२९९ कलिङ्गाथा गु० अर्श
करता है। ९३०२ कांकायन गु० अर्श, अग्निमां, उदाव०८८८८ अर्शोहर लेपः ७ दिनमें मरसा को
समूल नष्ट कर देता है।
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बर्ग
पक्षमो भागा (चि. प. प्र.)
६४७
-
८८८९ अशोहर लेपः नाभि पर लेप करनेसे ।
रस-प्रकरणम् मस्से समूल नष्ट होतेहैं। ८९८७ अर्शः कुठारो समस्त अर्श ८८९० , , ऊपरके समान ८९८८ ,,, मस्सेको समूल नष्ट ८८९१
करता है ॥ " " "
| ८९८९ अर्शोहररसः अर्श ८८९२ , , अर्श ८८९३ , , १५ दिनमें मस्से समूल
मिश्र-प्रकरणम् नष्ट हो जाते हैं।
९००७ अर्शनाशकयोगः अर्श, गुदनिस्सरण ९४०६ काकोदुम्बरिका
९००८ अर्शोहरयोगः अर्शकी पीडा योगः मस्सोको शीघ्र नष्ट
| ९५३२ कटुतुम्ब्यादिवर्तिः अर्शको १ सप्ताह में करता है।
__ नष्ट करता है ९४१६ कुलीरशृङ्ग्यादि
९५३३ कट्वलाब्बाधा वतिः मस्सोको समूल नष्ट ७ दिनमें मस्से गिर
करता है। जाते हैं। ९५५७ किंशुकबीजयोगः अर्श को लाभ पहुंचाने
वाला स्वेद धूप-प्रकरणम्
९५५९ कुटजादिक्षीरम् रक्तार्श ९४३४ कुष्ठादिध्पः अर्शकी पीड़ा | ९५६६ कृष्णतिलयोगः अर्शनाशक पौष्टिक
लेपः
(८) अश्मरिशर्कराधिकारः
कषाय-प्रकरणम्
चूर्ण-प्रकरणम् ९२२४ कुशादि क्वाथः दुस्साध्य अश्मरि ९१४४ एरण्डादि कल्क: अश्मरि
९२४६ कर्कोटी मूलयो० पथरीको तोड़कर नि९२२५ , मूत्राश्मरि, वस्तिशूल
कालता है। (सन्यो०) ९२२७ कुष्माण्ड योगः वस्ति और मेढ़ की शूल- | ९२६७ कुटजकल्कः अश्मरिकोनिकाल देताहै
युक्त शर्करा ९२७० कुटजादियोगः मेदशर्कराको शीघ्र नष्ट ९२२८ कुष्माण्डरस योगः मूत्राघात, शर्करा,अश्म. |
करता है।
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६४८
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[आमवात
(९) आमवाताधिकारः चूर्ण-प्रकरणम्
तैल-प्रकरणम् ८८२७ असीतक चू० आमवात, अनेक वातरोग
राग ९१५८ एरण्डतैल योगः आमवात गुटिका-प्रकरणम् ९०३३ आमवातारि वटी आम
रस-प्रकरणम् अवलेह-प्रकरणम्
९५८१ ख इशुण्ठ्यवलेहः आमवात नाशक, बल्य, ९५७४ खण्डशुण्ठिः आमवातनाशक, रसायन
वृष्य
घृत-प्रकरणम् ९३२५ काजीषट्पल घृ० आमवात, कटिग्रह, शूल,
मिश्र-प्रकरणम् ९०६१ आरग्वधादि योगः आमवात
अफारा
-> ~
(१०) उदररोगाधिकारः चूर्ण-प्रकरणम् न
रस-प्रकरणम्
रस-प्रकरणम् ९२८७ कुष्ठापं चु० वातोदर
९१२७ उदरारि रसः जलोदर
९१२८ , लोहः समस्त उदर रोग, शोथ, घृत-प्रकरणम्
पाण्डु ९०४१ आर्द्रक घृ० शोथोदर, अग्निमांद्य
९४६३ कंकुष्ठ चूर्णम् आठ प्रकारके उदर रोग तैल-प्रकरणम्
(रेचक ) ९१५७ एरण्डतैल यो० वातोदर, शूल, शोथ
मिश्र-पकरणम् पासवारिष्ट-प्रकरणम् ९३७६ कुमार्यासवः अष्टोदर, पक्तिशल | ९५३४ कदलीकन्द योगः उदररोग, कुक्षिकी तीन ९३७७ , उदररोग, प्लीहा, यकृत् ।
पीड़ा
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उदावर्त ]
मिश्र-प्रकरणम्
चूर्ण-प्रकरणम्
९११० उर्वारुवी जादि यो० मूत्रावरोध जनित उदा० ८९९६ अगारधूमादि वर्तिः उदावते
लेप-प्रकरणम्
९१६९ एलादि लेपः
९३९५ करवीर लेपः
अवलेह - प्रकरणम्
९११६ उशबावलेहः उपदंश फिरंग, रक्तदोष
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परिशिष्ट ( चि. प. प्र. )
(११) उदावर्ताधिकारः
८८५७ अजामूत्रादि तै० ८८५८ अतिविषादि तै० ८८६८ अश्वत्थपत्र तै०
૧૧૦
(१२) उपदंशाधिकारः
कषाय-प्रकरणम्
९०९९ आईकादिस्वरसः कर्णशूल
९९९९ कपित्थादि योग:
"
उपदेश, ब्रण, दाह, शोथ उपदंश जनित असाध्य
लिङ्ग पीड़ा
तैल-प्रकरणम् कर्णशूल कर्णस्राव, कर्णनाद
कर्ण पीड़ा को शीघ्र नष्ट करता है
९१६१ एरण्डपत्रादि तै० कर्णपीड़ाको तुरन्त नष्ट
करता है ९१६२ एरण्डादितैलम् कर्णनाद, वधिरता,
कर्णशूल
(१३) कर्णरोगाधिकारः
९४१३ कुमारिकादिले० उपदेशणों की दाह,
पीड़ा पाक को अवश्य नष्ट करता है (सरल योग )
९१३३ उपदंशान्ध सूर्यः ९४६७ कज्जली योगः
रस-प्रकरणम्
९१३२ उपदंशन रसः उपदेशको मुख आए बिना
करता है
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९३३७ कटुतुम्य्यादि तै० ९३४९ कर्णामृत तैलम्
९३५३ काकजंघा तै०
६४६
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फिरंग
उपदंश नाशक उत्तमयोग
कर्णपालीवर्द्धक
मनुष्य, हाथी और घोड़े कर्ण रोग, शिरोरोग
लेप
-प्रकरणम्
९४२७ केतक्यादि लेपः कर्णमूलव्यथा
रताको अवश्य नष्ट करता है । (स० यो०)
मिश्र-प्रकरणम्
९००६ अर्काङ्कुरादि यो० कर्णशूल
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६५०
कषाय-प्रकरणम्
९०१२ आटरूषकादि क० कास ९०१८ आर्द्रकस्वरसः
९१९३ कण्टकार्यादि का० ९१९५ कण्टकार्यादि यो० ९१९८ कपित्थरस यो०
८८०६ अजमोदादिभस्म चूर्णम् ८८१० अभयादिकल्कः ८८१५ अमृतादि चू०
"
७०७२ इक्ष्वादि ९१४३ एरण्डमूलाद्यं चू० ९१५० एलादि चू० ९२३७ कट्फलादि चू०
९२३८ कणादिचूर्णम्
९२६३ कासान्तक
९२८३ कुष्ठादि ९२९६ कोलास्थि
चूर्ण-प्रकरणम्
39
""
11
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
( १४ ) कासश्वासहिक्काधिकारः
८८३६ अमृता गुरु
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प्रतिश्याय, श्वास, कास, अरुचि (स० यो ० ) समस्त कास, (स०यो) कास, स्वास, (स०यो०) हिक्का नाशक (स०यो०)
गुटिका-प्रकरणम्
क्षतज कास
कास
ऊर्ध्व श्वास, तमक श्वास तमक श्वास, पीनस, स्वरभेद, वातकफज कास वातकास
दुष्ट कास (स० यो०)
कफज कास
हिक्का
घृत-प्रकरणम् ८८४६ अभयादि घृ० कास, खास, हिक्का, हृद्रोग ८८५० अशोक घृ० ९३१८ कण्टकारी घृ०
कास
श्वास, स्वरभेद, ५ प्रकाकी प्रबल खांसी
९३१९ कण्टकार्यादि, कास, श्वास, रक्तष्ठीवन, हिक्का, अरुचि, पीनस हिक्का, श्वास (स० यो०) ९३३५ कुलित्थषट्पल कास, श्वास, हिका,
५ प्रकारकी कास
समस्त कास
पीनसादि
कास, श्वास, प्रतिश्याय, पीनस, गलरोग
९५७३ खदिरादि गुटि० कास, दारुण स्वरभंग, क्षय, कण्ठस्थ कफ
अवलेह - प्रकरणम्
९०३४ आरूषादि ० वातकफज कास ९३०८ कटुतैल योगः
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[ कासश्वासहिका
९१२४ उदयभास्कर
९४७४ कफातक रसः ९५०५ कासकेसरी २०
धूम्र-प्रकरणम्
९१७० एरण्डादि धूम: ३ दिनमें कासको नष्ट
करता है
समस्त श्वास (स० यो०)
९५३६ कदलीफल यो०
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रस-प्रकरणम्
५ प्रकार का श्वास
कास, श्वास
कास, प्रसूतरोग
मिश्र-प्रकरणम्
शूल, कफ,
श्वासको शीघ्र नष्ट
करता है। (स० यो०)
९५४८ काकोदुम्बर यो० कास श्वासमें उत्तम, वैद्यको यश दिलानेवाला
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कुष्ठ ]
परिशिष्ट (चि. प. प्र.)
६५१
करता है
(१५) कुष्ठवातरक्तरक्तविकाराधिकारः कषाय-प्रकरणम्
घृत-प्रकरणम् ८७९० अमृतादि का० वातरक्त, कुष्ठ, आम | ८८४२ अगस्तिपुष्प वृ० स्फुटित वातरक्त
( सरल योग) ९०३८ आमलक वृ० वातरक्त (सरल योग) ८७९३ , , सर्वशरीरगत वातरक्तको ९०३९ आरग्वधादि घृ० कुष्ठ
अवश्य नष्ट कर देता है ९५७७ खदिरादि धृ० समस्त कुष्ठ
सरलयोग ९०१५ आरग्वधादि का० कुष्ठ, विसर्प,दद्रु, विच
तैल-प्रकरणम् र्चिका को शीघ्र नष्ट
| ९०४४ आरम्वधादि तै० सिध्म, उदुम्बर कुष्ट
९०७९ इत्वाकु तै० खुजली, कुष्ठ, वायु, कफ ९५७० खदिरादिक० श्वेतकुष्ठमें अदभुत
९३४४ करवीरादि तै० पामा, खुजली गुणकारी
| ९३५१ कर्पूरादि तै० कुष्ठ
९३५६ कांजिकादि तै० वातरक्त चूर्ण-प्रकरणम्
९३५७ कारस्करादि तै० वातरक्त में अत्युत्तम ८८१४ अमृतादि क. कफज वातरक्त ९३५८ कार्यासादि तै० शिरका कुष्ठ ८८२० अवल्गुजादि चू० समस्त कुष्ठ (स यो०)। ९३६४ कुष्ठकालानल तै० मांसमेदोगत कुष्ठ, पु९०२५ आमलकादि ,, भयंकर गलित्कुष्टको
राना नाडीव्रण, स्वित्र, शीघ्र नष्ट करता है।
पामा ( सरल योग) । ९३६५ कुष्ठकालानल वातरक्त, दाद, खाज, ९२५८ काकोदुम्बर यो० रक्त कुष्ठ
खुजली, मकड़ीका विष ९२५९ काकोदुम्बरिकादि
९३६६ कुष्ठादि तैलम् कुष्ठनाशक उत्तम योगः श्वित्र ९२८० कुष्ठहर चूर्ण समस्त कुष्ठ ।
आसवारिष्ट-प्रकरणम् ९२८८ कुष्ठारि चू० भयंकर वातरक्त ९३७५ कनकबिन्द्वरिष्टम् महा कुष्ठको १ मासमें,
क्षुद्र कुष्ठ को १५ अवलेह-प्रकरणम्
दिनमें नष्ट करता है ९११६ उशबावलेहः कुष्ठ, फिरंग, रक्तदोष
कान्तिवर्द्धक
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६५२
भारत-भेषज्य-रत्नाकरः
-
लेप-प्रकरणम्
९४९८ काम्बायनरसः कुष्ठ ८८७० अगस्त्यादि ले० प्रबल वातरक्त
। ९५०१ कालाग्निरुदरसः गलकुष्ठ ८८७१ अङ्कोलवीजादि खाज
९५०२ , , १ मण्डल में समस्त कुष्ठों ८८२७ अकोल्लकादि श्वित्र
को नष्ट करता है। ८८७६ अपामार्ग भस्म
९५१६ कुष्ठकुठार गलत्कुष्ठ योगः सिम
९५१७ कुष्ठध्नरसः श्वेतकुष्ठ, दाट, विचः ८८७७ अपामार्गादि दाद
चिका और त्वग्दोषको ८८७९ अमृतादि ले० शीतपित्त
अवश्य नष्ट करता है। ८८८२ अर्कक्षारादियोगः कपालकुष्ठ
९५१८ कुष्ठदलनरसः ८८९४ अवल्गुजादिलेपः श्वित्र
९५१९ कुष्ठनाशनरसः समस्तकुष्ठ ९१६४ एडगजादिलेपः सिध्म, कृमि, दाद,
९५२० कुष्टाङ्कुशरसः कृष्णकुष्ठ, वैपादिक कुष्ठ
९५२२ कुष्ठारिरसः समस्त कुष्ठ ____मण्डल कुष्ठ
९५२३ , समस्त कुष्ठ, दाद ९१६७ एलादि लेपः कुष्ठ
९५८० खगेश्वररसः श्वेत कुष्ठ, श्वास, कास ९१७९ कटुकालाब्वादि
। ९५८२ खदिरसारादि लेपः श्वेत कुष्ठ
चूर्णम् वित्र तथा अन्य कुष्ठ ९३९७ करवीरादिलेपः कुष्ठ
मिश्र-प्रकरणम् ९४०१ कर्णिकारादिलेपः ३-४ दिनमें दादको
| ९१८५ औष्ट्रीक्षीर योगः वह कुष्ठ कि जिसमें समूल नष्ट करता है।
राम नख गिर गए हों, . ९४१७ कुष्ठहरलेपः मण्डलकुष्ट (फफोला
मांस सड़ गया हो और डालता है)
कृमि पड़ गए हों नष्ट ९४२५ कृष्णधत्तूरादिले. सिध्म (सरल)
हो जाता है। ८९६६ अभ्रकयोगः असाध्य उदुम्बर कुष्ठ ९५६५ कृतमालादिक० खाज, खुजली, शीतपित्त
९५६८ कोशातकीयोगः समस्त कुष्ठ (सरलयोग) रस-प्रकरणम्
९५९५ खदिरयोगः १ मास में प्रबल कुष्ठ, ८९८५ अर्केश्वररसः सुप्ति कुष्ट, मण्डल कुष्ठ ।
पांडु, अर्श, शोथ को ८९८६ ,, रक्तामडल कुष्ट
नष्ट करता है। ९४८३ कामकलावटो वातरक्त, कुष्ठ, दाद, ९५९६ खदिररसायन कुष्ठ खाज आदि
९५९७ खदिरादियोगः कुष्ठ, कृमि
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कृमिः परिशिष्ट (चि. प. प्र.)
६५३ (१६) कृमिरोगाधिकारः चूर्ण-प्रकरणम्
९५२८ कृम्यङ्कुशो रसः कृमि समूहको नष्ट ९२४१ कम्पिल्लकाचोयो० कृमिरोग (सरल)
करता है।
धूप-प्रकरणम् ९४३० ककुभादिधूपः खटमल, जू आदि
मिश्र-प्रकरणम् ९०५८ आखुकादियोगः कृमि ९५३४ कदलीकन्दयोगः उदरकृमि शीघ्र निकल
जाते हैं । (सरलयोग)
रस-प्रकरणम् ९५२७ कृमिविनाशनरसः समस्तकृमि रोग
(१७) क्षयराजयक्ष्माधिकारः चूर्ण-प्रकरणम्
घृत-प्रकरणम्
. ८८४९ अमृताचंघृतम् उग्रक्षय, कास, श्वास, ८८२१ अश्वगन्धायोगः शस्त्राघात जन्य क्षीणता |
दाह, शोथ (सरलयोग)
| ९५७८ खजूरायं घृतम् ज्वर, श्वास, कास, स्वर८८२४ अश्वगन्धाधुद्वर्तनम् क्षयके रोगीके शरीर पर मालिशसे लाभ होता है
आसवारिष्ट-प्रकरणम् ९२५५ काकजवानील
। ९३७८ कुष्माण्डासवः कास, श्वास, क्षत, क्षय, पुष्प्योः योगः शोष रोग (सरल योग)
शोथ, अतिसार
__ भंग
अवलेह-प्रकरणम्
रस-प्रकरणम्
८९३२ अग्निरसः सज्वर साध्यासाध्य क्षय ८८३९ अमृतप्राशावलेहः राजयक्ष्मा, पाण्डु, अ
| ८९३६ अपूर्वो रसः अग्निवर्द्धक, क्षय, उदररोग तिसार
(पारदभस्मका सरलयोग) ९११३ उच्चटाघमोदकः एकादश लक्षणयुक्त
८९७८ अमरकलाक्षय, हृद्रोग, मूत्रकृच्छू,
निधिरसः राजयक्ष्मा श्रमजनित निर्बलता
। ८९९३ अश्वत्थादियोगः क्षय रोग ९३१६ कृष्णादि योगः क्षय (सरल योग)
९५१५ कुमुदेश्वरो रसः , ,
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६५४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[क्षय
मिश्र-प्रकरणम् ९०९८ इक्ष्वादियोगः उरः क्षत के ब्रण
९५३० ककुभत्वचादि
योगः
राजयक्ष्मा, कास आदि
(१८) क्षुद्ररोगाधिकारः घृत-प्रकरणम्
९०८३ इंगुदीफलमज्जा ९३२६ कारस्करघृतम् बिवाई (पाददारी)
लेपः २१ दिनमें मुख व्या ९३३२ कुङ्कुमादि , मुख दूषिका, नीलिका
___ को नष्ट करता है। नाशक सौन्दर्यवर्द्धक । ९०८८ इन्द्रवारुण्यादि केशरंजक (सरल योग)
| ९११८ उत्पलादिलेपः केशरंजक तेल-प्रकरणम्
९३८२ कट्विकादिलेपः चर्मकील ९३७० केतश्यादितैल अकाल पलित ९४०८ कान्तपाषाणादि ९३७१ केतक्याघतैल इन्द्रलुप्त, दारुणक, पलित, योगः बाल भ्रमर सदृश काले शिरको खाज
हो जाते हैं और छः
मास तक वैसे ही रहलेप-प्रकरणम् ८८८४ अर्कक्षीरादिलेपः मुखकी पुरानी स्यामता ९४२३ कुष्ठादिलेपः अरुषिका ९०५१ आरण्यतुलसीले० व्यङ्ग ९४२४ कृष्णतिलादि व्यंग
ते हैं।
(१९) गलगण्डगण्डमालाग्रन्थ्यधिकारः कषाय-प्रकरणम्
लेप-प्रकरणम् ८७९६ अलम्बुषा स्वरसः अपची, गण्डमाला ८४३ अर्क क्षीरादिलेपः सात दिनमें कण्ठमाला (सरल योग)
को नष्ट करता है ९०७४ इन्द्रवारुणी मूल
८८९७ अश्वत्थादि भस्म योगः गण्डमाला
अपचीको शीघ्र नष्ट ९२६१ काश्चनार योगः गण्डमाला (सरल योग)
करता है तैल-प्रकरणम्
| ९४०७ काश्चन्यादि ले० ७ दिनमें गण्डमाला ९३५५ काकादन्यादि तै० अपची
अवश्य फूट जाती है
लेपः
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गुल्म]
परिशिष्ट (चि. प. प्र.)
नस्य-प्रकरणम् ९०५२ आरग्वधादि न० गण्डमाला
मिश्र-पकरणम् ९०९९ इन्द्रवारुण्यादि
योगः गण्डमाला (सरल योग)
(२०) गुल्माधिकारः
चूर्ण-प्रकरणम्
९२४० कम्पिल्लकादि
योगः सात दिनमें सोपद्रव ८८०४ अजमोदादि चू० वातज गुल्म, शूल,
गुल्म और शूलको नष्ट उदररोग,
करता है। ९०३० आरोग्य लवणम् वातगुल्म, वातोदर,
घृत-प्रकरणम् शूलादि
| ९३२३ कहाराचं घृ० रक्तगुल्म, दाह, तृषा, ९०३१ आरोग्य चूर्णम् , " " ।
ज्वर, योनि दोष, छर्दि
(२१) ग्रहण्यधिकारः
चूर्ण-प्रकरणम्
घृत-प्रकरणम् ८८११ अभयादिचूर्णम् पक तथा साम कफ | ९०४० आरुष्कर घृ० सर्व दोषज ग्रहणी, आम, ग्रहणीको शीघ्र नष्ट
कृमिविकार, विष्टम्भ करता है।
रस-प्रकरणम् ९२३४ कटुकादि कल्कः पित्त ग्रहणी,दाह, रक्त- ८९२६ अग्निकुमार रसः ग्रहणीरोगमें सघ फल प्रद स्राव, गुद पीड़ा,विष्टम्भ
९४६९ कणाद्य लोहम् ग्रहणी, सोपदव प्रवा९२५४ काकजङ्घार्थ वातज ग्रहणी, आध्मान |
हिका, अतिसार
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६५६
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[छर्दि
-
(२२) छर्यधिकारः चूर्ण-प्रकरणम्
९३१७ कोलमज्जादिले० दि ९१४७ एलादि चू० वमन नाशक (स०यो०) ९२९२ कृष्णादि, छर्दि
मिश्र-प्रकरणम् अवलेह-प्रकरणम्
९५३९ करञ्जपत्रयोगः छर्दि, कफ ९०३७ आमलक्यादिले० वमन में उत्तम (स०यो०) ९५६० कुबेराक्षयो० छर्दि, अरुचि, मुखप्रसेक
(२३) ज्वराधिकारः कषाय-प्रकरणम्
९२०८ कलिङ्गादि क० कास, वमन, पिपासा, ८७९२ अमृतादिक्वा० ज्वर, छर्दि, तृषा, दाह, ।
दाह युक्त ज्वर हल्लास
| ९२११ कारव्यादि क्वा० अभिन्यास नाशक, स्रोत ८७९९ अष्टादशांगक्वा० जीर्णज्वर, अरुचि, श्वास, |
शोधक कास, शोथ
९२१२ काश्मर्यादिशीत९०१४ आम्रादि फाण्टः ज्वर, प्यास, छर्दि, अति- कषायः कफपित्त ज्वर
सार, दुस्तर मूर्छा ९२१४ किरातादिक्वा० वातज्वर ९०१६ आरग्वधादि सन्निपात, खांसी, कफ, . ९२१५ , " , "
प्रसेक, शोथ ९२१६ , , पित्तज्वर ९१०२ उशीरादिक० वातपित्त ज्वर ९२१७ , , सन्निपात, तृषा, छर्दि ९१८८ कटुकादि क्वा० ज्वर, दाह नाशक (स.यो.)/ ९२१८ , , वातपित्त ज्वर ९९८९ , , पितकफ ज्वर | ९२१९ किरातादि पा९१९० , , मुखका कड़वा पन
चनकषायः पित्त ज्वर पाचक ९१९१ कटुत्रिकादिका० कफज्वर
९९२६ कुष्ठादक० कफ ज्वर ९१९२ कटुरोहिण्यादि कफज्वर, शूल ९१९६ कत्तणादि क० सन्निपात
चूर्ण-प्रकरणम् ९२०० करमादि क्वा० अभिन्यास सन्निपात | ९२३५ कटुकायोगः कफ पित्त ज्वर नाशक ९२०१ , , कफज्वर, कोस,गलेकादर्द
सरल योग ९२०६ कचूरादि , भयंकर सन्निपात ९२६२ कालाजाजीयो० विषम ज्वर (स० यो०)
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-
ज्वर] परिशिष्ट (चि. प. प्र.)
_ ६५७ ९२७५ कुलत्थादि चू० वातप्रधान सन्निपातको ८५.१० अर्धनारीश्वर० ऊपरके समान
___ शोघ्र नष्ट करता है । ८९११ , ९२७६ कुलित्थ चू० प्रस्वेद
८९२३ उन्मादभनिनीवटी चातुर्थिक ज्वर
गुटिका-प्रकरणम्
नस्य-प्रकरणम् ९२९८ कम्पिल्लकाद्यो मो. ज्वर, तृषा, छर्दि, पित्त | ८९१७ अञ्जनरसः मूर्छा
८९२० अर्धनारीश्वर जिस ओरके नासामुटमें तैल-प्रकरणम्
नस्य दी जाय उसी ८८५४ अगुर्वादि तै० शीत ज्वर
ओरका घोर ज्वर अवश्य
उतर जाता है ९०८० इन्द्रयवार्यतै० ज्वर, प्रबल दाह ९३३८ कटुरोहिण्यादि ज्वर
| ९४६१ कुष्माण्डादिन० ज्वर
लेप-प्रकरणम्
रस-प्रकरणम् ९०८४ इङ्गुषादिलेपः कर्णमूल शोथ
८९२२ अग्निकुमारर० ज्वर, श्वास, कास, पाण्डु,
अग्निमांद्य ९३८१ कट्फलादि , ,
" " इंजेक्शन देनेसे सन्नि९३८६ कपित्थादिले. दाह. पीडा, मोह. छर्दि...
पातका मृत्प्रायः रोगी भी तृषा
बच जाता है ९३९९ करवीरादिले. पिपासा
९०५३ आनन्दभैरव सन्निपात,जीर्णज्वर, अङ्ग ९४१५ कुलस्थादिल. कर्णमूल शोध
मर्द, अतिसार
९०५५ आनन्दभैरवीव० अनेकविध सन्निपात अञ्जन-प्रकरणम्
९०९६ इच्छाभेदी वमन ज्वर, छर्दि ( वामक ) ८९.०३ अननभग्य सोपद्रव मन्निपात
९१२५ उदयमार्तड रसः ज्वर, आध्मान, अजीर्ण ८९.०४ अननगमः सर्वदापज वर, दाहादि | ९४८० काश्चनपोटली ज्वर, अतिसार अग्निमांद्य ८९.०८ अर्द्धनारीनटेश्व० जिस आंम्बमें अंजन किया ९४९९ कालकूटर० समस्त ज्वर, सन्निपात
जाय उसी ओरका ज्वर | ९.५३ खेचरी गुटिका समस्त स, गुल्म, उतर जाता है
उदर रोग ८९.०९. अर्धनारीश्वर ऊपरके समान
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६५८
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ज्वरातिसार
मिश्र-प्रकरणम्
| ९००२ अपामार्गमूल
वन्धनम् हाथमें बांधनेसे विषम ८९९७ अजगंधादि
ज्वर नष्ट होता है पानकम् सन्निपात, कास,श्वासको
९५४७ काकजङ्घामूलशीघ्र नष्ट करता है
बन्धनम् तन्द्रा
(२४) ज्वरातिसाराधिकारः कषाय-प्रकरणम
मिश्र-प्रकरणम् ९१०३ उशीरादिक्वाथः ज्वरातिसार
९१०० ईसबगोलयोगः ज्वरातिसार रस-प्रकरणम् ९४७० कनकसुन्दर
अग्निमांद्य
(२५) दाहाधिकारः ८७८२ अजगन्धादियो० दाह, वायु (सरलयोग) | मिश्र-प्रकरणम्
९०६८ आर्द्रवस्त्रधारणम् अवलेह-प्रकरणम् ९०३५ आमलक्यादिख० दुर्जय दाह, मूर्छा.
पुरानी छर्दि
दाह
(२६) धात्वादिशोधनमारणाधिकारः ८९२९ अग्निजार
| ८९४९ अभ्रकमारणम् सिन्दूराम लाल भस्म ८९३८ से । अभ्रक दुतिः
८९५० , , , , ,२० ८९४२ तक ८९४५ अभ्रकभस्मामृतीकरणम्
८९५१ " " ८९४६ , ,
८९५२ , , ____बिना पुट कढ़ाई में ८९४७ अभ्रकमारणम् २२ पुटी भस्म
भस्म करनेको विधि ८९४८ " "
| ८९५३ । "
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पात्यादिशोधनमारण]
परिशिष्ट (चि. प. म.)
६५३
८९५४ अभ्रकमारणम् लाल भस्म
८९७६ अभ्रकसत्वमारणम् ८९५५ अभ्रक मारणम्
८९७७ , , शोधनम् ८९५६ ॥ ॥
९१३४ उपरस शोधनम् . ८९५७ , , वटदुग्ध तथा गंधकयोग | ९१३५ उपविष ,
से १ पुटी भस्म । ९४६४ कंकुष्ठ शोधनम् ८९५८ , , गुड़ योगसे ३ पुटीभस्म | ९४७५ कर्पूर शोधनम् ८९५९ , , ४ पुटी भस्म ९४८१ कान्तपाषाण शोधनम् ८९६० ,, कसौंदी द्वारा १० पुटी ९५०४ काशीस शोधनम्
भस्म ९५०७ कांस्यमारणम् ८९६१ अभ्रकमारणम् ६० पुटी भस्म ९५०८ , शोधनम् ८९६२ , , ६० पुटी भस्म ९५०९ , शोधनमारणे ८९६३ ,, सहस्रपुटी भस्म । ९५१२ कुचिलाशोधनम् ८९६४ , , श्वेताभ्रक भस्म ९५१३ , , ८९६५ अभ्रकमारणम्
९५८३ खर्परमारणम् ८९६६ , "
९५८८ तक । ८९७३ तक अभ्रक शोधनम्
९५८९ खर्परसत्वपातनम् ८९७४ अभ्रकसत्वपातनम्
९५९० ", " ८९७५ , " "
९५९१ , , मारणम्
९५८४ से
। खर्पर शोधनम्
(२७) नासारोगाधिकारः चूर्ण-प्रकरणम् | ९३४५ करवीरायतैलम् ९२३६ कटुत्रिकादिचूर्ण पीनसको पकाता है । ९३६७ कुष्ठाघस्नेह
नासार्श क्षवथु (छौंक आना)
तैल-प्रकरणम् ९०४२ आगारधूमायतै० नासार्श
नस्य-प्रकरणम् | ९४५९ कटुतुम्बीमूलन० नाशार्श
-Mar
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[निद्रानाश
-
(२८) निद्रानाशाधिकारः अनन-प्रकरणम्
मिश्र-प्रकरणम् ९४३९ कमलकन्दादि योगः निद्रानाश । ९१३८ उपोदिकादि योगः निद्रानाश
(२९) नेत्ररोगाधिकारः लेप-प्रकरणम्
९४३६ कणाजनम् नक्तान्ध्य ९०८२ इक्षुमूलादिलेपः पित्तजनेत्राभिष्यन्द
| ९४३७ कतकफलाचं० क्षतशुक्र ९४२६ कृष्णलोहादियोगः नेत्रार्म में अत्युत्तम ९४४१ करञ्जवीजायं० पिल्ल नष्ट होकर पलकके
बाल निकल आते हैं। धूप-प्रकरणम्
९४४२ करमास्थ्यञ्जनम् असाध्य नेत्रशुक्र भी ९४३४ काकमाचीफल
काला हो जाता है। धूपः
आंखसे तुरन्त कृमि | ९४४३ करवीरादियोगः नवीननेत्राभिष्यन्द निकलकर पिल्ल रोग नष्ट
| ९४४४ कर्पूराद्यञ्जनम् शुक, तिमिर, काच, हो जाता है।
अर्म ९४४५ कार्पासायञ्जनम् पुराना नेत्रस्राव अञ्जन-प्रकरणम्
९४४६ कासीसाधञ्जनम् पिल्लरोगको शीघ्र नष्ट
करता है। ८९०५ अपराजितावर्तिः नेत्रकण्डू, तिमिर, काच,
९४४७ , अर्म, काच, तिमिर, पिल्ल, अर्म
अर्जुन, वर्मरोग ८९०६ अपामार्गमूलाद्य
| ९४४८ कुमारीवर्तिः नष्टचक्षुः भी ठीक हो अनम् नेत्राभिष्यन्दको शीघ्र ।
जाती है नष्ट करता है।
३ दिनमें रक्तज नेत्रा८९०७ अम्लिकाञ्जनम् नेत्रस्राव, नेत्रकण्डू, अ- |
भिष्यन्द नष्ट होता है धिमन्थ
९४५१ कोकिलागुटी तिमिर ८९१२ अश्वत्थपत्रादिवटी तिमिर
९४५२ कौलीतिकाव० समस्त नेत्राभिष्यन्द ८९१३ अश्वलालायञ्जनम् दिवानिद्रा, तन्द्रा ८९१४ अक्षयोगः पुष्प, मक्तान्थ्य, तिमिर,
मिश्र-प्रकरणम् पटल
| ९०५९ आमलक्यादि ९१७१ एलादिवर्तिः पोथकी, कुकूणक
स्नानम् दृष्टिवर्द्धक
९४४९ कुलत्थाथज०
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नेत्ररोग]
परिशिष्ट (चि. प.प्र.)
६६१
-
-
९५४१ करभस्वेदः पलककी पिडिका ९५४५ कशेरुकादियोगः पित्तज तथा रक्तज ने
त्राभिष्यन्द
९५५१ कारवेल्लीमूला.
श्च्योतनम्
काच
नस्यम्
(३०) पाण्डुकामलाधिकारः गुटिका-प्रकरणम्
नस्य-प्रकरणम् ८८३७ अमृतवटकः कामला, पाण्ड.ज्वर.शोथ ८११५ अकालमूलाद
कामला
९४५६ कर्कोटमूलादि अवलेह-प्रकरणम्
नस्यम् ९५७६ खदिरादिलेहः पुराना पाण्डु, कामला,
रस--प्रकरणम् हलीमक
८९७९ अमृतश्रवा रसः शुष्क पाण्डु
८९८६ अयश्चूर्णादियोगः पुराना पाण्डु धृत-प्रकरणम्
९४९२ कामलाप्रणुद रसः कामला ८८४८ अमृतलतादि घृ० हलीमक
९४९७ कामेश्वरी व० सशोथ कफज पाण्डु
करणम्
(३१) प्रमेहाधिकारः कषाय-प्रकरणम् | ९१४८ एलादि चूर्णम् प्रमेह ८७७८ अग्निमन्थक० वसामेह (सरल योग)। ९१४९ ,, प्रमेह, मूत्रदाह, हिका ८७९७ अश्वत्थादि क्वा० नील, हारिद्र, शुक्र, क्षार, माञ्जिष्ठ और रक्त
गुटिका-प्रकरणम् मेहके लिये पृथक् पृथक् | ९३०१ कस्तूरी मोदक: समस्त मेह, सोमरोग, सरल योग
___ मूत्रातिसार, मूत्रकृच्छु ९१८६ कटङ्कटेर्यादि क्वा० प्रमेह ९२२० कुटजादिक्वा० समस्त प्रमेह
अवलेह-प्रकरणम् चूर्ण-प्रकरणम्
| ९३१३ कामसुन्दरपाकः प्रमेह, ज्वर नाशक, ८८२६ अश्वत्थबीजादि
रसायन योगः समस्तमेह (सरल योग) ।
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भारत-भेषज्य-रत्नाकर
प्रमेह
-
-
-
-
-
-
-
योगः
वातकफज प्रमेह
रस-प्रकरणम्
। ९४८२ कातिलोहादि ८९४४ अभ्रकभस्मयोगः प्रमेह
योगः ९४७६ कर्पूरादिगुटिका अनेक प्रकारका प्रमेह,
स्वरभंग
लेप-प्रकरणम्
(३२) बालरोगाधिकारः कषाय-प्रकरणम् ८७८१ अङ्कोटादि का० उदर विकार
८८७४ अतस्यादि ले० घर
८८८७ अर्जुनादिले. त्वग्विकार चूर्ण-प्रकरणम्
८८९८ अश्वत्थादिले. मुखपाक ९२३९ कमलकेशरादियोगः
८९०० अष्टमङ्गल उद्वर्त० दस्त, ज्वर, वमन, प्रवाहिका (स० यो०)
दाह, तृषा गुटिका-प्रकरणम्
९०४७ आमलक्यादि विच्छिन्न रोग
शिरपीड़ा, अति० छर्दि ८८३२ अतिविषादि गु० अतिसार, घर, पेटमें । ९३८५ कपित्थपत्रादि कुछ जाते ही उल्टी
९४०० कर्कटयोगः नीदमें दांत कटकटाना हो जाना ८८३८ अशनादि यो० पश्चात्रुज
धूप-प्रकरणम्
८९०२ अपराजित धूपः समस्त बालग्रह, ज्वर अवलेह-प्रकरणम् ९३०९ कणादिलेहः मूत्रावरोध
अमन- प्रकरणम्
९४५० केशराधजनम् समस्त नेत्ररोग घृत-प्रकरणम् ९३२४ काकोल्यादि घृ० स्कन्दापस्मार
रस-प्रकरणम् सैल-प्रकरणम्
९५२१ कुष्ठादिलेहः आयु और कान्ति बढ़ती ९४४७ कर्कटकादि तै० नोंदमें दांत कटकटाना |
तथा रंग स्वच्छ होता है
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भगन्दर]
परिशिष्ट (चि. १. प्र.)
(३३) भगन्दराधिकारः कराय-प्रकरणम्
मिश्र-प्रकरणम् ९५७१ खदिरादि का० भगन्दर । ९००३ अपामार्गादि क्षारः भगन्दर, अर्श, नाड़ीवण ९२७२ खदिरसारादि यो० भगन्दर, कुष्ठ
लेप-प्रकरणम् ९४२० कुष्ठादि लेपः भगन्दर
(३४) मदात्ययाधिकारः कषाय-प्रकरणम्
मिश्र-प्रकरणम् ९२३० कुष्माण्डरस यो० कोद्रव का मद ९२५२ कर्कन्ध्वादि
पानकम् पानविभ्रम, पानात्यय, रस-प्रकरणम्
तृषा, छर्दि, दाह ९४६६ कजली योगः मदात्यय
(३५) मसूरिकाविस्फोटकाधिकारः
लेप-प्रकरणम् । ९३११ करञ्जवीजादि विस्फोटक, दुष्ट वण ८८९६ अश्वगन्धादि मसूरिकाके रोगीको सुरक्षित रखता है
धूप-प्रकरणम् ९०८५ इन्द्रयवलेपः विस्फोटक
९१२२ उपगन्धादिधूपः प्रारम्भमें धूप देने से मसू९१२१ उशारादिलेपः मसूरिका, स्वेद
रिका नष्ट हो जाती है।
(३६) मिश्राधिकारः चूर्ण-प्रकरणम्
गुटिका-प्रकरणम् ८८१८ अलम्बुषादि चू० शरीरकी दुर्गन्ध ८८४० अमृतरसोनपिण्डः अस्थिकी चोट, हड़ी ९२४८ कर्पूराद्युद्वर्तनम् ग्रीष्मोद्भव स्वेद
उतरना तथा टूटना
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६६४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[मिश्र
-
तैल-प्रकरणम्
९०११ अष्टवर्गः रक्तवर्द्धक, ज्वरनाशक ९३४० कनकसुन्दर ते. दुष्ट स्वेद नाशक, । ५१८४ ओषधि प्रतिनिधिकान्तिवर्द्धक
गणः किस ओषधिके अभाव ९३५२ कर्पूराचं तै० पीड़ा शामक
में कौन ओषधि लेनी मिश्र-प्रकरणम्
चाहिये ९०१० अष्टगुणमण्डः अग्निदीपक, बलवर्द्धक, ९५६४ कुष्ठादियोगः ____ ल्हसन, मदिरादि की बस्तिशोधक
मुख दुर्गन्ध
(३७) मुखरोगाधिकारः चूर्ण-प्रकरणम्
| ९०८१ इरिमेदाचं तै० दन्त पीडा, दारुण दन्त ९२६० काकोदुम्बरिका
चालन, हनुमोक्ष, शीताद मूल योगः मुखसे रक्त स्राव होना
आदि ९२६४ किरात सिक्तादि कल्कः जिहाकी जड़ता
लेप-प्रकरणम् ९२८४ कुष्ठादि चूर्णम् गलशुण्डिका
| ९१८३ ओष्ठस्कुटनतैल-प्रकरणम्
नाशक लेपः होठ फटना ८८६१ अरिमेदार्थ तै० शीर्णदन्त, दन्तविधि, शौषिर, शीताद, दन्तहर्ष,
मिश्र-प्रकरणम् कृमिदन्त, चालन, दालन, | ९५९८ खदिरादियोगः दुर्बल दांतों को दृढ़ अधिमांसादि
___ करता है
(३८) मूत्ररोगाधिकारः कषाय-प्रकरणम् | ९१४२ एलादिकषा० मूत्रावरोध
| ९२२९ कुष्माण्डरसयो० त्रिदोषज मूत्रकृ. ८७८३ अतिबलादिक्वा० मूत्रकृच्छ्र (सरल योग) ९.१७ भारग्वधादिका० मुत्रकृच्छू
चूर्ण-प्रकरणम् ९०६९ इक्षुरसादियो० मूत्रकृच्छूको अवश्य ९१०९ उर्वारुबीजक० मूत्रकृच्छ्र , (स० यो०)
नष्ट करता है। स०यो० ९१११ उर्वारुवीजादि यो० पित्तज मूत्रकृच्छु
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मर्ण]
परिशिष्ट (वि. प. म.)
९११२ उशीरादि चू०
मूत्राघात, मूत्रकृष्लू, ९२४५ कर्कटीवीजयो० पीडायुक्त प्रबल मूत्रा० पाददाह, रक्तप्रदर
घृत-प्रकरणम् मूत्रकृछू । ९३३६ केतकी ० मूत्रक०
९१४५ एलाचूर्ण योगः
(३९) मूर्छाधिकारः चूर्ण-प्रकरणम्
अमन-प्रकरणम् ९२९५ कोलमज्जादि चू० मूर्छा
गुटिका-मकरणम् ९४३८ कपिरथादि वर्तिः सर्पदंश, जलमग्नमूर्छा ९३०५ कृष्णाथा गु० भ्रम
(४०) यकृरलीहाधिकारः गुटिका-प्रकरणम्
तैल-प्रकरणम् ९१५२ एसीयकादि गु० यकृत, प्लीहा ९३३९ कवल्यादि क्षारत० कफवातज प्लीहा
(४१) रकपिसाधिकारः
कषाय-प्रकरणम्
९२७१ कुटजादि यो० ऊर्ध्वगतरक्तपित्त ८७९८ अश्वत्थादियो० रक्तप्रवाह ( स० यो०) ९१०४ उशीरादियो• प्रबल रक्तस्राव
अवलेह-प्रकरणम्
९११५ उदुम्बरादि यो० रक्तपित्त, (सरल रोग) चूर्ण-प्रकरणम्
९१५४ एलायोवलेहः रक्तपित्त, दाह, ज्वर, ८८१२ अभयायोगः रक्तपित्त, शूल, अतिसार,
तृषा, मोह, रक्त वमन कफादि अनेक रोग, ( सरल योग )
घृत-मकरणम् ९२६६ कुलमयोगः ऊर्वगतरक्तपित्त । ८८४४ अनन्ता वृ० रक्तपित्त, रक्तप्रदर, दाह
૧૧૨
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ रसायन
९०७८ इक्ष्यादि घृ०
उभयगत रक्तपित्तको
लेप-प्रकरणम् शोत्र नष्ट करता है तृषा, दाह, पित्तरोग । ९०४६ आमलकादिले० नासाप्रवृत्त रक्त स.यो.
(४२) रसायनवाजीकरणाधिकारः चूर्ण-प्रकरणम्
९२८५ कुटादि चू० सौन्दर्यपर्द्धक; शरीरसे ८८२२ अश्वगन्धायोगः कृष मनुष्यको पुष्ट करता
सुगन्ध आने लगती है। है ( सरल योग ) ८८२३ , , १ मासमें वृद्ध पुरुषको
गुटिका-पकरणम् युवाके समान बना | ९०७६ इन्द्रवारुणिकादेता है।
मूलाचा वटी मुखमें धारण करनेसे वीर्य८८२५ अश्वत्थ फलादि
स्तम्भन होता है। योगः वृद्धोपि तरुणायते स.यो. ९०२० आकारकरभादि स्तम्भक, आनन्दवर्द्धक
अवलेह-प्रकरणम् ९०२१ आभादिचू० कृशता, शोष,कम्प ना
। ८८४१ अश्वगन्धाधवलेहः धातुक्षय, ध्वज मंग, शक; बुद्धि मेधावर्द्धक ९०२२ आमलक यो० समस्त शक्तियों की वृद्धि
वातरोग, वाजीकरण करता है
९०३६ आमलक्यादि पोकः अत्यन्त कामवर्द्धक ९०२७ आमलक्यादि
९०७७ इन्द्रोक्तरसायनम् रसायन चूर्ण बलिपलित नाशक, सम्पूर्ण
| ९११४ उच्चटापाकः अत्यन्त वाजीकरण शक्तियोंको बढ़ाने वाला ९३१० कपिकच्छुपाकः नपुंस्कता,क्षीगता नाशक ९०७१ इक्षुरकाधं चू० अत्यन्तकाम वर्द्धक
( वाजीकरण) ९१०५ उच्चटादि चू० वीर्य पौष्टिक (सरल योग) / ९५७५ खण्डाम्रकम् अनेक रोगनाशक,वाजी० ९२७९ कुष्ठयोगः १ वर्षमें अत्यन्त बल शाली,दीर्घायु और वाग्मी
घृत-प्रकरणम् बना देता है । शरीरसे | ८८५३ अष्टाङ्ग घृतम् अत्यन्त स्मृति बर्द्धक, कमलकी सी गन्ध आने
वाणी शोधक लगती है।
शक; 3
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रसायन]
परिशिष्ट (चि. प. प्र.)
तैल-प्रकरणम्
नस्य-प्रकरणम् ८८५६ अजयपाल तै० नपुंस्कता ८९१५ अङ्कोलबीजादि८८६२ अर्कतैलम् हस्तदोष और गुदव्यभि
तैलनस्यम् बलिपलित नाशक, वृद्धों चार जनित नपुंस्कता
को यौवन दाता ८८६५ अश्वगन्धा तै० कृश शरीरको पुष्ट करताहै
रस-प्रकरणम् ८८६६ अश्वगन्धादितै० शिश्न, स्तन और कर्ण
पाली वर्द्धक ८९३७ अभिनवकाम९०४३ आदित्यपाक गु
देवरसः दुर्बल शरीरको अत्यन्त डूची तैलम् केशरोपण
पुष्ट करता है। ९३५४ काकमाच्यादि
८९८० अमृतार्णर रसः अत्यन्त वृष्य, अग्निवर्द्धक तैलम् नस्य लेने से बाल काले ८९८१ , , कृष व्यक्तिको पुष्ट करताहै हो जाते हैं। ८९८२ अमृतेश रसः ६ मासमें जराको नष्ट
करता है । आयुवर्द्धक लेप-प्रकरणम्
८९९१ अश्वगन्धापाकः अत्यन्त कामोत्तेजक,सर्व८८८० अरिष्टकादिले. अयोनि व्यभिचार जनित
दोष नाशक नपुंस्कता
९०५६ आनन्दसूत रसः समस्त रोग नाशक, वैद्य८८८५ अर्क क्षारादिले० १ मासमें हस्तव्यभिचार
___ को यश दिलाने वाला जनित नपुंस्कता और | ९४६८ कज्जलीरसा० ६ मासमें जराको नष्ट शिथिलताको नष्ट करताहै
करता है। ९११९ उत्पलायुद्वर्तनम् बलिपलित | ९४७९ करतूरी रसः वृष्य, वाजीकरण क्षुधा९१६८ एलादि लेपः नपुंस्कताको अवश्य नष्ट
वर्द्धक करता है। ९४८४ कामदीपकः वाजीकरण ९३९३ करवीरजटा लेपः वीर्यस्तम्भक ९४८८ कामदेवो र० अत्यन्त वाजीकरण ९३९४ करवीरत्वगा० ले० नपुंस्कता ९४८९ , , स्तम्भक, पौष्टिक, वाजी० ९३९८ करवीरादि ले० कामोद्दीपक ९४९१ कामनायकर० अत्यन्त कामवर्द्धक ९४०२ कारादिले, अत्यन्त वीर्यस्तम्भक । ९४९३ कामवाणो र० कामशक्ति यर्द्धक, नपुं.
स्कता नाशक
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६६८ भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[ रसायन ९४९४ कामेश्वर चू० बल, वीर्य, आनन्द वर्द्धक, । ९५२५ कुसुमायुध रसः ३ मासमें बलि पलित अग्निदीपक
नष्ट होकर अनेक स्त्रियोंके
साथ समागम करनेकी ९४९५ , रसः अत्यन्त कामवर्द्धक
शक्ति आ जाती है। ९४९६ ,
मिश्र-प्रकरणम् वीर्य वर्द्धक, स्तम्भक, ,
९१३६ उच्चटादि मर्दनम् अयोनि व्यभिचार ज. स्त्रीद्रावक, क्षीण शरीरको
नित दोष नष्ट होते पुष्ट करने वाला
और शिश्न दृढ़ होता है
(४३) वात व्याध्यधिकारः कषाय-प्रकरणम्
घृत-प्रकरणम् ९०१८ आईक स्व० अण्डकोषों की वायु ८८५२ अश्वगन्धा धृ० वातव्याधि नाशक, मांस
वीर्ष वर्धक ( सरल योग) ९२०२ करबादि का० आमवात
तैल प्रकरणम्
८८६७ अश्वगन्धापं तै० खञ्जता, मूकता, पक्षाचूर्ण-प्रकरणम्
घात, अस्थिच्युत ९२५२ कल्याणलवणम् वातव्याधि, अर्श,गुल्म, ९१५६ एरण्डतैलयो० कटिवात
अग्निमांच ९३६९ कुसुम्भापं तै० अर्दित, गृध्रसी, पक्षा
घात, दाह, योनि और गुटिका-प्रकरणम्
गुद पीड़ा, सुप्तिवात ८८२८ अग्नि मुख ३० वात व्याधि
शिरशूलमें अत्युत्तम
-
गुग्गुलु-प्रकरणम्
छेप-प्रकरणम् ९१५३ एरण्डादि गु० वातव्याधि, आमवात, | ९३९२ करबादि ले. ऊरुस्तम्भ
शोथ, स्रोतस्थित कफ ९४२९ कोलादिले. यातव्याधि
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वातव्याधि]
परिशिष्ट (चि. प. प्र.)
६६६
-
नस्य-प्रकरणम्
रस-प्रकरणम्
। ८९९२ अश्वगन्धापाकः पृष्ठ तथा अस्थि गत ९४५७ काकोदुम्बरि यो० अपबाहुक
वायु, अस्थिमंग, शोथ,
दारुण सन्धिवात -train
(४४) विद्रध्यधिकारः चूर्ण-प्रकरणम्
रस-प्रकरणम् ९२४२ करञ्जबीज यो० अन्तर्विद्रधि
९४६५ कम्जली योगः अन्तर्वाह्य विधि ९२९१ कृष्णाजाजीयो० कोष्ठविधि तैल-प्रकरणम्
९४७१ कनकसुन्दरो र० विद्रधि, उदरवृद्धि ९३४३ करखतै० वाह्य तथा अन्तर्विद्रधि | ९५०६ कासीसादि चू० अन्तर्विदधि शोथ
(४५) विरेचनाधिकारः रस-प्रकरणम्
मिश्र-प्रकरणम् ९०९३ इच्छाभेदी रसः विरेचक
९५४३ कर्णिकाररसयोगः जितनी काली मिर्च
अनुपान सपसे खाई ९०९४ , , ,
जावें उतने ही दस्त ९०९५ , , ,
आते हैं।
(४६) विषाधिकारः कषाय-प्रकरणम्
चूर्ण-प्रकरणम् ८७७९ अङ्कोटमूलयो० पागल कुत्तेको विष | ८८१७ अकेमूलादि यो० धत्तूरविष, कनेरका विष,
गोनास सर्पका विष ( सरल योग )
९२३३ कटभ्यादि यो० कीट विष,मकड़ीका विष ८७८० , " गरावष
९२५७ काकोदुम्बरयो० कुत्तेका विष (स०यो०) ९२३१ कृष्णादि का० कृत्रिम विष ९२८६ कुष्ठादियोगः मूषक विष
९२८९ कुसुम्भ योगः " "
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६७०
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[विष
घृत-प्रकरणम्
धूप-प्रकरणम् ८८४७ अमृतं घृतम् अत्यन्त विष नाशक ८९०१ अकोलपत्र धू० मत्स्य विष
लेप-प्रकरणम् | ९४३२ कटुतै लादि धू० , दंश ९१६५ एरण्डादिले. नखविष, दन्त विष ९३९६ करवीरादि यो० व्यन्तर (सर्प विशेष )
नस्य--प्रकरणम् का विष | ९४६० कुलकमू० न० भयङ्कर सर्पविष ९४०५ काकादनीमूल योगः मण्डलीकसर्पका विष
रस-प्रकरणम् ९४१० कार्पासपत्र ले० वृश्चिक विष ८ ९९० अलर्क विषहर गु० पागलकुत्तेका विष
- - -
(४७) विसर्वाधिकारः लेप-प्रकरणम्
| ९४०३ काकजङ्घादि लेपः कफज विसर्प ९०५० आरग्वधादि लेपः विसर्प ९३८७ कपीतनादित्वालेपः शोथ, विसर्प, रक्तपित्त | ९४२१ कुष्ठादिलेपः वातज विसर्प
(४८) वृद्धयधिकारः चूर्ण-प्रकरणम्
रस-प्रकरणम् ९०७३ इन्द्रवारुणीमूल योगः ३ दिन में कुरण्ड रोग ९१७३ एकादशायसरसः अण्डकोषकी वायु, ___नष्ट होता है।
সক্তি लेप-प्रकरणम् ९०९१ इन्द्रायुधादिले० कुरण्ड
वघ्न, वायु, आम,
| ९१७४ एरण्डपाकः ९३८९ करनमू० ले० कुरण्ड, गलगण्ड
( बल्य, पौष्टिक)
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वण]
६७१
(४९) व्रणाधिकारः कषाय-प्रकरणम ! ९३७३ कोशातकी तै० अनेक विध दुष्ट व्रणों ८७८५ अपामार्गासयो० सद्योव्रण (सरल योग०)
को शीघ्र नष्ट करता ९२०५ करनादि स्व० वणकृमि
है वह । लिंग व्रण कि
जिसमें मांस सड़ गया चूर्ण-प्रकरणम्
हो नष्ट होता है ९२४७ कर्पूरादि चू० शस्त्राघातके व्रणकी पीड़ा को शान्त करता है
लेप-प्रकरणम् और पकने नहीं देता (सरल योग)
८८७५ अपामार्गपत्रलेपः रक्त रोधक
८८७८ अभयादि लेपः गम्भीरत्रण शोधक स. घृत-प्रकरणम्
रल योग ९१२१ करनार्थ घृ० दुष्ट व्रण, नाड़ी व्रण, ८८९५ अश्वगन्धादि ले. वणनाशक उत्तम सद्य छिन्न वण
८८९९ अश्वत्थादि ले० रोपण । ९३२२ कपूरसर्पिः शस्त्राघातकी पीड़ा को
९०८६ इन्द्रवारु० मू० ले० नष्ट शल्यको निकाल नष्ट करता और पकनेसे
देता है रोकता है
९३८० कट्फलादि लेपः दुष्ट व्रण
९३८८ कपोतवङ्कादि लोम सञ्जनन तैल-प्रकरणम्
९३९० करञ्जयोगः कृमिनाशक
९४०४ काकजङ्घाले० शस्त्राघातका व्रण बिना ८८५९ अपामार्ग मू० त० शबाघातकी पीड़ा
व्यथा और बिना पके ९१६० एरण्डतैलयोगः दुष्ट व्रण
नष्ट हो जाता है ९३४१ कम्पिल्लकतै० व्रण, प्रन्थि ९३४२ कम्पिल्लकाध व्रण ९३४८ कर्कोटकाचं दुष्ट व्रण
मिश्र-प्रकरणम् ९३५९ कालानुसार्यादि वगरोपण | ९५३१ कङ्गुणीमूल योगः गाढ़े पीपवाला नाडीव्रण ९३६३ कुम्भीकायं तै० शल्य जनित नाडीव्रण | ९५६७ कोद्रवानोपयोगः नाड़ी व्रण
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६७२
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[शिरोरोग
कृमि
(५०) शिरोरोगाधिकारः तैल-प्रकरणम्
| ८९१९ अर्धनाडीनाट८८५५ अकोलबीजतै० बालोंका पीलापन, पलित, केश्वरः कफज शिरपीड़ा
इन्द्रलुप्त, (केश बर्द्धक) । ९०१२ इङ्गुदीफलन० शिरके श्वेत तथा लाल ८८६० अपामार्गादि तै० कृमि जन्यशिरोरोग ८८६९ असनाचं तै० पलित
९४५५ करनादिन० शिरोविरेचक ९३५० कपूरतैलम्
९४५८ कार्पासमज्जादि समस्त शिरशूल शिरपीड़ा, शिरकी खाज, केशपतन ९४५९ कुकुमादिन० सूर्यावर्त,अर्धावभेद, वात
पित्तज शिरोरोग लेप-प्रकरणम्
९४६२ कृतमालादिन० भयङ्कर सूर्यावर्तको भी ९१६३ एकाष्ठीलादि ले० शङ्खक रोग
अवश्य नष्ट करता है। ९४१९ कुष्ठादि लेपः शिर पीड़ा ९४२८ कोद्रवमसीले. दारुण नामक शिरोरोग
मिश्र-प्रकरणम् नस्य-प्रकरणम्
९५५८ कुङ्कुमादियो० शिरशूल, सूर्यावर्त, अर्धा८९१८ अपामार्गादिन० सूर्यावर्त, अर्धावभेद
वभेद, पित्तज शिरोरोग
(५१) शितपित्ताधिकारः लेप-प्रकरणम्
मिश्र-प्रकरणम् ९४२२ कुष्ठादि ले० शीत पित्तकी परमौषध । ९५५४ काश्मरिफल यो० शीतपित्त शीघ्र नष्ट
होता है।
(५२) शूलाधिकारः
| ९१४१ एरण्डादि योगः हर प्रकारका शूल कषाय-प्रकरणम्
। ९१९४ कण्टकार्यादि९१३९ एरण्डसप्तकम् नितम्ब, उरु, मेढ़, हृदय ।
क्वाथः वातपित्तज शूल और स्तनका शूल
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परिशिष्ट (चि. प.प्र.)
६७३
eman
चूर्ण-प्रकरणम्
। ८९३१ अग्निमुखरस शूल ९२४४ करणादिचू० वातजशूल
८९.८४ अयश्चूर्णादियो० समस्त शूल ९२७३ कुबेराक्षयोगः समस्त शूल (सरल योग) ९४७७ कलायचूर्णादि
गुटिका दारुण परिणाम शूल घृत-प्रकरणम्
। ९५२९ कृष्णादिचूर्णम् भयंकर पारणाम शूलको ९१५५ एरण्डाचं घृ० हर स्थानका और हर
तुरन्त नष्ट करता है। दोष से उत्पन्न भयङ्कर शू० रस-प्रकरणम्
मिश्र-प्रकरणम् ८९३० मग्निमुखर० शूल
| ९५६३ कुशादिक्षीरयोगः शूल, रक्तपित्त
. (५३) शोथाधिकारः पूर्व-प्रकरणम्
तैल-प्रकरणम् ८८०८ मजाग्यादियोगः प्रवृद्ध पुराना त्रिदो- | ९०४५ आरग्वधादितै० कफज शोथ पज शूल
लेप-प्रकरणम्
९१६६ एरण्डादिले० वातज शोथ गटिका-प्रकरणम् ८८३१ अजमोदायो
मिश्र-प्रकरणम् मोदकः शोथ, आमवात ९००५ अरणीक्षारयो० ३ दिनमें उदरशोथको ९०३२ भाजकरीष योगः शोथ, प्रवृद्ध दकोदर
नष्ट करता है। J ९५५२ कार्पासभस्मयो० समस्त शोथ
लेप-प्रकरणम्
(५४) श्लीपदाधिकारः चूर्ण-प्रकरणम् ९२५६ काफदम्यादिक्षारः श्लीपद, ग्रहणी, गल-८८८६ अर्कादिलेपः बदमूलश्लीपद गण्ड, अरुचि
रस--प्रकरणम | ९४९० कामदेवो रसः त्रिदोषज श्लीपद
११३
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६७४
कषाय-प्रकरणम
८७८९ अमृतादिका ०
९१०१ उत्पलपत्रस्व
रसयोगः
८७८६ अपामार्गादिका० प्रसृताकी कमरका शोध
( सरल योग ) सूतिका रोग
९१४६ एलादिचू० ९२७४ कुरण्टमूलयो ९२७७ कुशमूलयो०
९२७८
"
"
९२९४ कृष्णादि योग:
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भारत - मेषज्य रत्नाकरः
चूर्ण-प्रकरणम् ८८०५ अजमोदादि चू० गर्भिणीका अग्निमांद्य ९१६ उत्पलादियो० योनिशूल, कटिशूल, कुक्षिशूल, रक्तमूत्रता वातज तथा पित्तज प्रदर गर्भ संस्थापक
८८५१ अश्वगन्धा घृ०
९०७८ इक्ष्वाकुघृ०
(५५) स्त्रीरोगाधिकारः
स्त्रियोंका अस्थिस्राव,
सोमरोग (सरलयोग )
गर्भिणीका ज्वर अनेकविध प्रदर
९१४० एरण्डादि का० ९१८७ कर्यादि का०
९१९७ कपिकच्छूमू० यो० योनि संकोचक स०यो० ८८६४ अलाबु तै०
९२१० कसेर्वादिका० गर्भशूल, गर्भस्राव
घृत-प्रकरणम्
सर्वदोषज रक्त प्रदर प्रदरको ३ दिनमें नष्ट करता है । (स० यो० ) । मूढगर्भविकार, वेदना
-
वन्ध्यत्व
स्त्रियोंका अस्थिस्राव, दाह, तृषा, रक्तपित्त
९३२७ काश्मर्यादि घृ० रक्तयोनि, अरजस्का यो अपुत्रादि
९३२८
रक्तप्रदर
"
"
९३२९ काश्मर्यादि पृ० रक्तप्रदर
तैल-प्रकरणम्
८८६३ अलम्बुषार्थ तै० स्तनको दृढ़ और उन्नत
करता है |
९३४६ करवीराचं तै०
९३६१ कासीसाधं तै०
९३७४ कोशातकी ०
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[ खीरोग
99
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""
लेप-प्रकरणम्
९०८९ इन्द्रवारुण्यादि ० स्तन पीड़ा
९०९०
योनिदोष नाशक, गर्भ
संस्थापक
लोमनाशक
स्तन, भग, कर्ण और
बढ़ाता है समूल लोमनाशक
योनिशुलको शीघ्र नष्ट
करता है लोमनाशक
९३८३ कल्यादि ले० ९३८४ " ९४०९ कारवेल्ली जटायोगः योनिनिर्गम्
"
"1
९४१४ कुमारी मूलयो०
शिशु नष्ट होने पर स्तन में दूध भरकर पीड़ा होना
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स्त्रीरोग]
परिशिष्ट (चि. प. प्र.)
६७५
-
धूप-प्रकरणम्
| ९००१ अपामार्गपुन
नेवायोगों कष्टसाध्य योनि शूल ९४३१ कटुतुम्थ्यादि ५० अपरा पातक ९४३३ कस्तूरिकादि धू० योनिकी दुर्गन्ध नष्ट
(संरल योग) ९००४ अपामार्गादि यो० सुखप्रसवकारक होकर सुगन्ध आने |
९००९ अश्वगन्धाक्षीरम् वध्यन्च लगती है
९०९७ इक्ष्वाकु योगः ऋतु प्रवर्तक
९१३७ उत्तरिणीमूलयोगः सुख प्रसवकारक रस-प्रकरणम्
| ९५३५ कदलीफलयोगः रक्तप्रदरनाशक सभ्यो ९४८६ कामदुधा रसः प्रदरमें विशेष उपयोगी ९५४६ कशेर्वादिक्षीरम् गर्भशूल, गर्भपतन ९४८७ , , सोमरोग, जीर्ण ज्वर, ९५५० कालिकादियोगः सुख प्रसवकारक पित्तरोग
९५५३ कार्पासिकायो० योनिशूल ९५५६ किण्वाचावर्तिः वृद्धा स्त्रीका भी रुका
हुवा मासिक धर्म मिश्र-प्रकरणम्
खुल जाता है ८९९८ अजमूत्रादि यो० वन्ध्यत्वनाशक सन्यो० ९५६२ कुशादिक्षीरम् गर्भिणीका शूल
(५६) स्वरभेदाधिकारः चूर्ण-प्रकरणम्
घृत-प्रकरणम् ९०२८ मामलक्यादिचू० स्वरमंगनाशकस यो० ९.३० कासमर्दादि० वातजस्वरभंग
९३३१ " , पैत्तिक , भवोह-प्रकरणम्
रस-प्रकरणम् ९३१५ कुलिखनायोवलेहः घोर स्वरभंग, प्रति- ९५१० किन्नरकण्ठर० । समस्त स्वर मंग, कास, स्याय, कास, हिका
कफ और वातरोग नाशक, स्वरशोधक
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हमारे महत्त्वपूर्ण प्रकाशन अष्टांगहृदयम् (वाग्भट कृत, हिन्दी अनु० सहित)-लालचन्द्र वैद्य (सजिल्द) ५५
(अजिल्द) ४५ क्लीनीकल मेडिसिन (दो भागों में)
-अनिदेव कायचिकित्सा-धर्मदत्त वैद्य चरकसंहिता-श्री जयदेव विद्यालंकार (हिन्दी अनुवाद सहित) भाग १ (सजिल्द) ४५
(अजिल्द) ३० भाग २ (अजिल्द) ३०; (सजिल्द) ४५ देहधात्वग्निविज्ञानम्-हरिदत्त शास्त्री भावप्रकाशनिघंटु-विश्वनाथ द्विवेदी कृत
हिन्दी टीका सहित भैषज्यरत्नावली–श्री जयदेव विद्यालंकार कृत हिन्दी टीका सहित, पाठवां संस्करण
(अजिल्द) ६०; (सजिल्द) १३५ माधवनिदान (मधुकोश संस्कृत टीका, हिन्दी अनुवाद सहित)-नरेन्द्रदेव शास्त्री
(अजिल्द) ३५; (सजिल्द) ५५ रसतरंगिणी (सदानन्द कृत हिन्दी टीका) -काशीनाथ शास्त्री (सजिल्द) ६०
(अजिल्द) ३५ रसरत्नसमुच्चय (धर्मानन्द शर्मा कृत हिन्दी व्याख्या)-अत्रिदेव विद्यालंकार
(अजिल्द) ३०; (सजिल्द) ४५ रसेन्द्रसारसंग्रह-नरेन्द्रनाथ (सजिल्द) २५
(अजिल्द) २० व्याधिविज्ञान-आशानन्द पञ्चरत्न, प्रथम भाग १५, द्वितीय भाग (सजिल्द) ४५
(अजिल्द) ३० सुश्रुतसंहिता (सम्पूर्ण) अनिदेव विद्यालंकार कृत हिन्दी टीका सहित (सजिल्द) १२०
(अजिल्द) ६०
मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली वाराणसी पटना मद्रास
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आधुनिक चिकित्साशास्त्र धर्मदत्त वैद्य इस ग्रन्थ की यह विशेषता है कि इसमें आधुनिक काय-चिकित्सा के वर्णन के साथ-साथ आयुर्वेदिक काय-चिकित्सा का भी उल्लेख है। ये दोनों एक-दूसरे के सहायक सिद्ध हुए हैं। जहां आधुनिक काय-चिकित्सा How के प्रश्न का समाधान करती है वहां आयुर्वेदिक काय-चिकित्सा Why के प्रश्न का समाधान करती है, अर्थात् रोग का मूल कारण बताती है, जिसके फलस्वरूप चिकित्सा सुगम और ठीक होती है। यह स्पष्ट बताती है कि शरीर के तीन मूल तत्त्व देहाग्नि, देहप्राण, तथा देहवृद्धि हैं। इनके किसी अंग में मन्दता आ जाने से रोगोत्पत्ति होती है। आयुर्वेद का एक विशेष दृष्टिकोण है जिससे वैदोषिक या वैधातुक चिकित्साशास्त्र का अध्ययन किया जाता है और रोगों में औषध, आहार, विहार आदि उपचारों का विधान किया जाता है। आयुर्वेद का मूल दोषिक दृष्टिकोण कभी नहीं बदला चाहे औषधियाँ भले ही बदलती रहें। अतः आयुर्वेद उपचारों के प्रयोग में स्वतन्त्रता देता है। इस प्रकार आयुर्वेद चिकित्साशास्त्र का छात्र वैधातुक या वैदोषिक दृष्टिकोण को कभी दृष्टि से ओझल नहीं होने देता। इसलिए इन दोनों चिकित्सात्रों के अध्ययन से अवश्यमेव लाभ ही होगा क्योंकि दोनों का लक्ष्य रोगी को रोगमुक्त करना ही है। (सजिल्द) रु० 140 (अजिल्द) रु० 65 मानव-शरीर-रचना (दो भागों में) मुकुन्दस्वरूप वर्मा सम्पूर्ण चिकित्साशास्त्र आयुर्वेद के जिन तीन मूल आधारों पर आश्रित है उन्हें शरीररचनाविज्ञान, शरीरक्रियाविज्ञान और विकृतिविज्ञान कहते हैं उनमें शरीररचनाविज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान है / इसके बिना अन्य आयुर्वेदशाखाओं का ज्ञान होना सम्भव ही नहीं। इस विषय में पाश्चात्य वैज्ञानिकों के ही अनुसंधान उपयोगिता की दृष्टि से अत्यन्त लाभप्रद सिद्ध हुए हैं। पाश्चात्य भाषामों से अपरिचित चिकित्सक इन अनुसंधानों से लाभ नहीं उठा सकते। इस अभाव की पूर्ति के लिए इस ग्रन्थ की रचना की गई है। दुरूहता को हटाने के लिए अंग्रेजी पारिभाषिक शब्दों के अनुवाद में स्वीकृत वैज्ञानिक-तकनीकी-शब्दावली का प्रयोग किया गया है और सैकड़ों चित्रों से समझाया गया है। प्रथम भाग में ऊतकविज्ञान (Histology), भ्रूणविज्ञान (Embryology) और अस्थिविज्ञान (Osteology) विषयों का वर्णन है और द्वितीय भाग में सन्धिविज्ञान (Syndesmology), मांसपेशीविज्ञान (Myology) और वाहिकाविज्ञान (Angiology) विषयों का विवेचन हुआ है। यह कृति शरीर-रचना के जिज्ञासुओं के लिए अतीव उपयोगी सिद्ध होगी। प्रथम भागः रु० 50 द्वितीय भागः (अजिल्द) रु० 75; (सजिल्द) रु० 100 मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली वाराणसी पटना मद्रास For Private And Personal Use Only