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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ककारादि-गुग्गुल (२३३) [७७३] कैशोरगुग्गुलः प्रत्येकं त्रिफला प्रस्थो जलमत्र षडाढकम् । (भै. र. । वा. र; बृ. यो. त, त. ९१) पाकायत्तं फलं पाके काथे पाकप्रधानता ॥ वरमहिषलोचनोदरसन्निभ तस्मात्क्वाथविधौ नित्यंयतितव्यं चिकित्सकैः ।। वर्णस्य गुग्गुलोः प्रस्थम् । । (पोटलीमें बंधा हुआ) भैंसिया गूगल १ सेर, प्रक्षिप्य तोयराशौ त्रिफलाच हैड़, बहेड़ा, आमला १-१ सेर और गिलोय २ यथोक्तपरिमाणाम् ॥ सेर लेकर २४ सेर पानी में पकावें। आधा पानी द्वात्रिंशच्छिन्नरुहा पलानि देयानि यत्नेन। । जल जाने पर उतारकर छान लें और फिर दुबारा विपचेदप्रमत्तो दा सङ्घट्टयन मुहुर्यावत् ॥ | लोहेके पात्रमें पकायें एवं पकते समय करछी से अर्द्धक्षयितं तोयं जातं ज्वलनस्य सम्पर्कात् ।। चलाते रहें। जब पकते पकते गाढा हो जाय तो अवतार्य वसपूतं पुनरपि संसाधयेदयः पात्रे ॥ बिलकुल ठंडा होने पर उसमें त्रिफलेका चूर्ण २॥ सान्द्री भूते तस्मिन्नवतार्य हिमोपलमख्ये। तोला, त्रिकुटे का चूर्ण ७॥ तोला, बायबिडंगका त्रिफलाचूर्णा पलं त्रिकटोश्चूर्णषडक्षपरिमाणम्। चूर्ण २।। तोला, निसोत और दन्तीका चूर्ण १।-१॥ कृमिरिपुचूर्णाद्रपलं कर्षे कर्ष त्रिवृदन्त्योः । तोला, गिलोयका चूर्ण ४ तोला और घी ४० अमृताया पलमेकं सर्पिषश्च तोला मिलावें। पलाष्टकं क्षिपेदमलम् ॥ इसे यूष, दूध या सुगन्धित जलके साथ सेवन उपयुज्य चानुपान यूपं क्षीरं सुगन्धिसलिलश्च। करनेसे एक दोषज, द्विदोषज और पुराना, शुष्क इच्छाहारविहारी भेषजमुपयुज्य सर्वकालमिदम्।। अथवा स्रावयुक्त, स्फुटित और जानुओं तक फैला तनुरोधिवातशोणितमेकजमथद्वन्द चिरोत्थंचा हुआ वातरक्त, घाव, खांसी, कोढ़, गुल्म, शोथ, जयति सूतं परिशुष्कं स्फुटितश्चाजानुजश्चापि ॥ उदररोग, पांड, प्रमेह, अग्निमांद्य, विबन्ध, प्रमेहवणकासकुष्ठगुल्मश्वयफदरपांगुमेहांश्च । पिड़िका आदिका नाश होता है। इसके निरन्तर मन्दाग्निश्च विवन्धं अमेहपिडि- अभ्याससे जरा और समस्त रोग नष्ट होकर किशो काश्च नाशयत्याशु ॥ रावस्था प्राप्त होती है। यह हर समय सेवन किया सततं निषेव्यमाणः कालवशान्ति सर्वगदान्। जा सकता है एवं इसके सेवनमें किसी प्रकार के अभिभूय जरादोषं करोति कैशोरकं रूपम् ॥ | परहेज़की आवश्यकता नहीं है। अथ ककारादि लेहप्रकरणम् [७७४] कंस हरीतकी (च. सं. चि.अ. १२) व्योपं त्रिसौगन्ध्यमुषां स्थिते च ॥ द्विपश्चमूलस्य पचेत् कषाये प्रस्थार्द्धमात्रं मधुनः सुशीते कंसेऽभयानाञ्च शतं गुडस्य । किञ्चिच चूर्णादपि यावशूकात् ।। लेहे ससिद्ध च विनीय चूर्ण एकाभयां प्राश्य ततश्च लेहा For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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