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ककारादि - अवलेह
चौथा भाग शेष रहा हुवा) अत्यन्त स्वच्छ कषाय लेकर उसमें नागरमोथा, दूध, बायबिडंग, काला नमक, सेंधा नमक, धायके फूल और पीपलका चूर्ण डालकर पकायें। जब गाढ़ा हो जाय तो उतार कर ठंडा करके उसमें शहद मिला लें। इसे सेवन करने से कष्टसाध्य अतिसार, बवासीर, संग्रहणी, भगन्दर, श्वास और खांसीका नाश होता है । [ ७९३] कुटजावलेह : (३) (बृ.नि.र. संग्रह ) कुटजस्य तुलां दत्वा चतुर्द्रोणांभसा पचेत् । द्रोणशेष रसे तस्मिन्पूते गुडतुलार्द्धकम् ॥ घृतं च टङ्कवत्रक्षिप्त्वा मृद्वग्निापचेत् । समंगा बिल्वकशिलाबिल्वार्ध च पुनर्नवा ॥ मुस्तामल्लातकं चापि धातकी गजपिप्पली । अंबष्ठावालकं चैव बृहत्यौ सचित्रकम् ॥ सद्भार्गीपिप्पलीमूलं विडंगानि हरीतकी । नागकेशरयष्टीकारकापत्रकं तथा ॥ विश्वाचेंद्र यवाः पाठसूक्ष्मैलाजीरकद्वयम् । जाति पत्रिजातिफलं लवङ्गं तगरं तथा ॥ तो द्विपलिकेर्भागैर्लेहोयं साधयेत्ततः । तणवसुत वा पथ्यं देयं विचक्षणैः ॥ अनेन ग्रहणी रोगानतिसारान्सुदारुणान् । . रोगानीकविघाताय कुटजो लेह उच्यते ॥
६ सेर कुड़े की छालको १२८ सेर पानी में पकावें जब ३२ सेर पानी शेष रह जाय तो उतार कर छान लें और उसमें २५० तोला गुड़ तथा ४ माशा धी; और मँजीठ, बेल, शिलाजीत प्रत्येक २|| २ || तोला तथा पुनर्नवा (बिसखपरा) नागरमोथा, भिलावा, धायके फूल, गजपीपल, पाठा, सुगन्धवाला, छोटी कटेली, चीता, भारंगी, पीपला - मूल, बायबिडंग, हैड, नागकेशर, मुल्हेठी, अरल,
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( २३९)
तेजपात, सोंठ, इन्द्रजौ, पाठा, छोटी इलायची, दोनों जीरे, जायफल, जावित्री, लौंग और तगर, प्रत्येकका चूर्ण १०-१० तोला मिलाकर मन्दाि पर पकावें ।
इसे छाछ (तक्र) के साथ सेवन कराने और पथ्यमें भी तक ही देनेसे कष्टसाध्य संग्रहणी और अतिसार नष्ट होते हैं ।
[ ७९४] कुटजाद्यवलेहः (४) (यो. र. । अतिसा) वत्सस्यामृताया द्वे पले प्रस्थमम्भसः ॥ पयित्वा रसे तस्मिन्पादशेषावतारिते || अष्टौ पलानि शक्रस्य यवावर्णीकृताश्च ते । युक्त्या पाकं विदित्वा तु यथावह्नि च खादयेत् ।। जयेत्सर्वातिसारांश्च सर्वांच ग्रहणीगदान् । नाशयेद्दीपयेच्चाग्नि कृष्णा श्रेयस्य शासनात् ॥
कुकी छाल और गिलोय १०-१० तोला लेकर २ सेर पानी में पकावें और चौथा भाग शेष रहने पर छानकर उसमें ४० तोला इन्द्रजौका चूर्ण मिलाकर अवलेह तैयार करें ।
इसे अग्निबलानुसार सेवन करनेसे सब प्रकार के अतिसार और समस्त ग्रहणी रोग नष्ट होते तथा अग्नि प्रदीप्त होती है ।
[ ७९५] कुटजावलेहः (५) (च. द. । अति.) कुटजत्वक्कृतः क्वाथो घनीभूतः सुशीतलः । लेहितोऽतिविषायुक्तः सर्वातीसारनुद्भवेत् ॥ वदन्त्यत्राष्टमांशेन क्वाथादतिविषारजः । प्रक्षेप्यत्वात्पादिकं तु लेहादिति च नो मतिः ॥
कुड़ेकी छालके काथको दुवारा पकाकर गाढ़ा करके उसमें आठवां या चौथा भाग अतीसका चूर्ण मिलाकर सेवन करनेसे त्रिदोषज अतिसार का नाश होता है।
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