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(१५८)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
उरःस्थित कफ, स्वरभेद और पीनस में १ । पहुंचाना चाहिये । इस प्रकार १०-२० ३०-४० भाग कड़वी तोरीके फलोंके स्वरससे ३ भाग दूध | और ५० बीजों के यह पांच योग होते हैं । सिद्ध करके देना चाहिये।
कड़वी तोरी के अन्तर्नखमुष्टि (अंगुठे का नख एक पुरानी कड़वी तोरी के बीचका गूदा | अन्दर करके भरी हुई मुट्ठी) बीज ले कर मुलैठी निकालकर उसमें दूध भरदें । जब दही जम जाय और कोविदारादि द्रव्यों के क्वाथ में पीस कर तो उसे कफज खांसी, स्वास और वमन में
वमनार्थ पिलाना चाहिये। प्रयोग करें।
____ इक्ष्वाकु को मदन फलके समान मात्रा में __कड़वी तोरी के बीजों को बकरी के दूध की | ग्रहण करके कोविदारिक आठ द्रव्यों के स्वाथ के भावना देकर चूर्ण करके उसे विषदोष, गुल्म, उदर- साथ पृथक् २ सेवन करे। यह आठ प्रयोग होते हैं । प्रन्थि, गण्डमाला और श्लीपद रोगमें सेवन
बेल की जड़ की छालके कषायमें २० तोले करना चाहिये।
कड़वी तोरीके बीजोंका चूर्ण मिलाकर पकाकर ___ कड़वी तोरी के गूदे को मस्तु (रही के पानी)।
छानले यह क्वाथ ३ भाग, राब (फाणित) १ भाग, के साथ सेवन करने से या उस गूदे के साथ
कड़वी तोरीके वीज १ भाग, घी १ भाग, महातक पकाकर उसमें शहद और सेंधा नमक मिला
जालिनी, जीमूत, कृतवेधन और इन्द्रजौ, प्रत्येक कर सेवन करने से पाण्डु, कुष्ठ और ज्वर का
का चूर्ण आधा आधा भाग । सबको मिलाकर नाश होता है।
मन्दाग्नि पर पकावे और करछी से चलाते रहे जब कड़वी तोरी के फूलों को उसके फलों के तार छुटने लगे और पानीमें डालने से फैल न जाय स्वरस के साथ सुखाकर चूर्ण करके उसे किसी | तो उतार लें । इसे मात्रानुसार खाकर ऊपरसे सुगन्धित मालामें छिड़ककर सुंघाने से वमन । मन्थ पीना चाहिये । हो जाती है।
इसी प्रकार सोना पाठा, खम्भारी, पाढल वमन के लिये इक्ष्वाकु के फलके गूदेको | और अरणी के क्वाथ से भी पृथक् २ चार लेह गड और तिलों के कल्क के साथ सेवन करना | बनाए जाते हैं। चाहिये अथवा उसके कल्क से सिद्ध तैल या
तूम्बीके रससे सत्तको भावना देकर उसका जीमतकल्प में वर्णित विधि से इक्ष्वाकुघृत बनाकर मंथ बनाकर वमनार्थ देना चाहिये । सेवन करना चाहिये।
____x कोई २ प्रथम योग ५० का मानकर कड़वी तोरीके बीज १० नग लेकर उन्हें
| उससे आगे १०-१० बढाते हुवे १०० तक मदनफलादि वमन कारक द्रव्यों में पीसकर आसुत पहुंचते हैं इससे यह ६ योग हो जाते हैं । करके पिलाएं इसी प्रकार बीजों की संख्या में यथा । इसके अतिरिक्त कोई २ आसुत (सन्धान) का क्रम १०-१० की वृद्धि करते हुवे ५० तक प्रथक प्रयोग मानते हैं।
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