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भारत-भैषज्य रत्नाकर
५ तोला, शुद्ध गन्धक १० तोला (कजली करके), | [३४०] अस्पज्वरांकुशोरसः (भै.र. ज्वरे) लोह भस्म १५ तोला, ताम्र भस्म २० तोला, | शुद्धं सूतं विष गन्धं धृतबीजं त्रिभिः समम् । सुहागोकी खील और जवाखार दोनों १०-१० चतां द्विगुणां व्योषं चूर्ण गुञ्जाद्वयं हितम् ।। तोला सबको एकत्र घोटकर मिट्टी के पात्रमें भरकर
जम्पीरस्य च मजाभिराईकस्य रसैयुतम् । पकावे । यह रस अर्श (बवासीर) का नाश
ज्वरांकुशो रसो नाम्ना ज्वरान् सर्वान् प्रणाशयेत् करता है।
___ शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध मीठा तेलिया १ [३३९] अर्थोरिमण्डूरम् (बृ. नि. र. अर्श)
भाग, शुद्ध गन्धक १ भाग, धतूरे के बीज ३ भाग, अतिरक्तं यदात्वर्शो निपातयति पीडितम् ॥
त्रिकुटा १२ भाग । प्रथम पारेगन्धक की कजली दृश्यते तच्छरीरस्यलोहकिट्ट तदानयेत् ।। | बनावे और अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर गवां मूत्रेण तत्पक्वं बहुशश्चूर्णवत्कृतम्।। खरल करे। इसे जम्बीरी नीबू की मज्जा (गूदे ) अतिसूक्ष्ममिदं तस्य त्रिकटुत्रिफलायुतम् ।। या अदरक के रस के साथ सेवन करने से सब किट्टस्यान संमिश्रच चूर्ण शर्करया युतम् ॥ प्रकार के ज्वरों का नाश होता है। दीयते त्रिदिनादूर्द्ध रक्तं तिष्ठति नान्यथा। [३४१] अथाश्मरीकण्डनो रसः दुग्धात् शालिमसूरादि दीयते पथ्य भोजनम् ॥ पलाशरम्भातिलकारवल्ली अशांसि प्रशमं यांन्ति काश्य वै याति दूरतः॥ यवाम्लिकाशैखरिकक्षपाणाम् । अत्यन्तबलमाप्नोति निरातको यथेच्छया। क्षारं समादाय कलांशमस्य महोत्साहयुतो भूत्वा यावजीवेनिरामयः ।। रसं च गन्धं वरलोहभस्म ॥ उष्णाम्लं वर्जयेन्नित्यं स्त्रीणां सेवां विशेषतः॥ द्वयोः समं सर्वमिदं विचूर्ण्य
यदि बवासीर से अत्यन्त खून बहता हो और संस्थापयेदश्मरिकण्डनाख्यम् । अत्यन्त पीड़ा होती हो तो पुरानी मण्डूर को लेकर चूर्ण तदक्षप्रमित प्रलिह्य गोमूत्र में पकावे कि जिससे चूर्णसा हो जाय फिर
दनाऽनुपेयं वरुत्वगम्भः ॥ इस में त्रिकुटा, त्रिफला और आधी मिश्री मिलाकर मुच्येत मोऽश्मरिशर्करातो तीन दिन तक धरा रहने दे पश्चात् रोगी को देवे
निःसंशयं मृत्युमुखागतोऽपि ॥ तो यह गुदा से बहते हुए रुधिर को बन्द कर ___ ढाक, केला, तिल, करेला, जौं, इमली, चिरदेता है इसके सेवन करने वाले को दूध के साथ | चिटा और हल्दी इनमें से प्रत्येक का क्षार १६ १६ शाली चावल और मसूर का पथ्य देवे, इस से बवा- भाग, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक १-१ भाग, लोह सीर और कृशता नष्ट होती है, अत्यन्त बलकी भस्म २ भाग। प्रथम पारेगधन्क की कजली प्राप्ति होती है तथा मनुष्य जब तक जीता है तब | बनावें और फिर अन्य औषधियों का चूर्ण तक निरातंक यथेच्छा चारी महोत्साही रोग रहित | मिलाकर खरल करें। स्हता है। इसका खानेवाला गरम पदार्थ और इसे १। तोला की मात्रा में दही या बरने की खटाई न खाय तथा स्त्रीगमन करना भी निषेध है। छाल के काथ के साथ सेवन करने से पथरी और
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