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(३०४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
[१००२] कालान्तको रसः (१) रुद्रयन्त्र में पकावें । इसी प्रकार जब आठगुनी ___ (र. र. । कासे)
गन्धक जीर्ण हो जाय तो ३२ पुट देने के बाद) हिगुलं मरिचं व्योष टङ्कणं गन्धकं समम् । | चूर्ण करके रक्वें । जम्बीररससंयुक्तं मईयेद्याममात्रकम् ।। इसे मृगाङ्क रसोक्त अनुपान के साथ ५ रत्ती कासं श्वासमतीसारं ग्रहणीसानिपातिकम्। | की मात्रानुसार सेवन करने से राजयक्ष्मा का नाश अपस्मारामयं मेहमजीणं चाग्निमान्यताम् ॥ | होता है। (व्यवहारिक मात्रा १-२ रत्ती ।) गुञ्जामात्रप्रदानेन सर्व नाशयति क्षणात ॥ [१००४] कालारि रसः
शुद्ध शिंगरफ, कालीमिर्च, त्रिकुटा, सुहागेकी । (यो. चि. म. । मिश्राधि.) खील और शुद्ध गन्धक बरावर २ लेकर १ पहर तक | त्रिशाणं पारदं चैव गन्धकं शाणपश्चकम् । जम्बीरी नीबू के रसमें घोटें।
त्रिशाणं वत्सनाभश्च पिप्पली दशशाणिका ॥ इसे १ रत्ती की मात्रानुसार सेवन करने से | लवङ्गं च चतुःशाणं त्रिशाणं कनकाहयम् । खांसी, श्वास, अतिसार, संग्रहणी, त्रिदोषज अप- टङ्कणं वन्हिशाणं च पञ्च जातीफलं क्षिपेत ।। स्मार, प्रमेह, अजीर्ण और अग्निमांद्य का नाश | मरिच पश्च शाणं स्यादकलं च त्रिशाणकम् । होता है।
करीराकनिम्बुकैमर्दयेच दिनत्रयम् ॥ [१००३] कालान्तको रसः (२) कालारिरसनामाऽयं वातव्याधिनाशनः । (बृ. नि. र. । क्षय.)
मर्दने भक्षणे नस्ये द्विगुजं सन्निपातजित् ॥ कुर्याश्लोहमयीं मूषामुन्नता द्वादशाङ्गुलाम् ।
। शुद्ध पारद ९ माशा, शुद्ध गन्धक १। मर्दितं स्वर्णवाराहिगृहकन्यारसैः रसम् ।। | तोला, शुद्ध मीठा तेलिया ९ माशा, पीपल ३।।। लशुनैर्याममात्रं च पिण्डीकृत्वा निवेशयेत् । | तोला, लौंग १ तोला, धतूरा ९ माशा, मुहागेकी कृत्वा पूर्वोक्तमूषायां सूतपादं च गन्धकम् ॥ | खील ९ माशा, जायफल, कालीमिर्च १। तोला निर्गुण्डीरससंपिष्टं तन्मूषायां विनिक्षिपेत् । । और अकरकरा ९ माशा लेकर ३-३ दिन करीर, आच्छाद्य लोहचक्रेण रुद्रयन्त्रेण जारयेत् ॥ | अद्रक और नीबूके रस में घोटें। एवमष्टगुणे जीर्ण समुद्धृत्य विचूणयेत् । इसे मर्दन, भक्षण और नस्य द्वारा प्रयोग पञ्चगुआमितं खादेदनुपानं मृगावत् ॥ करने से वातव्याधि और सन्निपात का नाश होता अयं कालान्तको नाम रसोयं राजयक्ष्मजित् ॥ है। मात्रा २ रत्ती । ____ पारे को धतूरे, बाराहीकन्द, घीकुमार और [१००५] कालेश्वरो रसः ल्हसन के रस में १-१ पहर तक घोटकर गोला | (र. रा. । सुं. । श्वा.) बनावें । फिर उसके नीचे ऊपर संभाल के रस में वङ्गं लोहं तथा ताम्रमभ्रकं पारदं मतम् । घुटा हुवा पारे से चौथाई भाग गन्धक भरकर १२ गन्ध ताप्यदरदौ दिव्यं जातीफलं तथा। अगुल ऊंची (गहरी) लोहे की मूषा में रखकर सूक्ष्मैला दालचिनी च केशरं विषकं स्मृतम् । उसके मुंह को लोहे के ढकने से ढक दें। और 'धूर्तबीजं च जैपालं टङ्कणं च समम् ॥
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