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ऐकारादि-तेल
(१९७)
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अथ ऐकारादि तैल प्रकरणम् [५८८] ऐलेयक तैलम् (र. र. स.२१अ.) | ऐलेएकमिदं तैलं प्रशस्तं पित्तरोगिणाम् ।। ऐलेयकस्य स्वरसमाढकं तु भिषग्वरः।
ऐलेयक का स्वरस ८ सेर, धीकुमार का कुमार्याः स्वरसं शुद्धं चतुष्प्रस्थं तु कारयेत ॥ | स्वच्छ रस ८ सेर, आमले का रस ४ सेर, शताआमलक्याः शतावर्या रसं प्रस्थद्वयं प्रथक । | वरी का रस ४ सेर, दूध ३२ सेर और तेल८सेर तैलाढकसमायुक्तं क्षीरद्रोणविमिश्रितम् ॥ कल्कद्रव्य-दालचीनी, सफेद चन्दन, सुगंचोचं मलयजं वारि सरलं कुमुदोत्पलम् । धवाला, धूपसरल, कुमुद, नीलोफर, मेदा, मुल्हैठी, द्वे मेदे मधुकं द्राक्षा तुगाक्षीरी मधूलिका ॥ | मुनक्का, बंसलोचन, सौंफ, काकोली, क्षीरकाकोली, काकोली क्षीरकाकोली जीवकर्षभकावुभौ। । जीवक, ऋषभक, कस्तूरी, बनतुलसी और कपूर । मृगनाभ्यजगंधा च शशांकश्च पृथक् पृथक् ।। हर एक का महीन चूर्ण २॥-२॥ तोला एतेषां चार्द्धपलिकं श्लक्ष्णं चूर्ण विनिक्षिपेत् । सबको मिलाकर मंदाग्नि पर तेलपाक सिद्ध एतत्सर्व समालोड्य मंद मंदाग्निना पचेत् ।।। करें। इसे शिरारोग और नेत्ररोगों में नस्य, सुमुहूर्ते सुनक्षत्रे नववस्त्रेण पीडयेत् । अभ्यंग, उद्वर्तन, आलेपन आदि द्वारा व्यवहार शिरोनेत्रविकारेषु नस्यं स्यात्कर्णयोजितम् ॥ करना चाहिये । एवं कानमें डालना चाहिये। इस अभ्यंगोद्वर्तनालेपैः शिरोभ्रमणकम्पनुत् ।। | तैलके व्यवहार से शिरोभ्रमण (चक्कर आना) अङ्गदाहं शिरोदाहं नेत्रदाहं च दारुणम् ।। कांपना, शरीर की दाह, शिरकी दाह और अत्यन्त विसर्पकविकारांश्च मूनि जातान्वहून्त्रणान् । नेत्रदाह, विसर्प, सिर के धाव (फोड़े फुसी), मुख आस्यशोपं भ्रमं चैव नाशयेन्नात्र संशयः॥ । शोष, भ्रम और पित्त रोगों का नाश होता है।
अथ ओकारादि लेपप्रकरणम् [२८९] ओष्ठश्वित्रनाशनो लेपः । मुखे लिम्पेदिनैकेन वर्णनाशो भविष्यति ॥ (रसे. चि. म. ९ अ.) -
गंधक, चीता, कसीस, हरताल और त्रिफला । मुखे श्वेते च सञ्जाते कुर्यादिमा प्रतिक्रियाम् । इनका लेप करनेसे मुख का श्वेतकुष्ठ एक ही गंधकं चित्रकासीसं हरितालं फलत्रयम् ॥ दिनमें नष्ट हो जाता है।
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