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भारत-भैषज्य रत्नाकर
( १७४ )
मथुना लेहयेच्चानु शूलं वा काकतुण्डकम् ॥
रससिन्दूर, अभ्रक भस्म, शुद्ध मनसिल, शुद्ध गन्धक, शुद्ध हरताल, हींग, कूट और नागरमोथा । सबका समान भाग महीन चूर्ण लेकर उसे इन्द्रयव, आक, धतूरा, निर्गुण्डी और महा राना के रस १-१ दिन घोट कर गोला बनाकर सुखाकर उसे एक कपड़े में बांधे और ऊपर से मिट्टी का लेप करके सुखाकर पुटमें पकावे । फिर उसे 1 बकरे के मूत्र की चार भावना देकर चूर्ण करके रक्खे।
इसे २ रत्ती की मात्रा से वृत और सोंठ के वर्ण के साथ अथवा तिलके खार, कूठके चूर्ण और शहद के साथ या काकतुण्डी के साथ सेवन करने से वातज शूल का नाश होता है । [५१४] उदय भास्करो रसः [४] ( र. र. स., १७ अ.)
पारदं मागमेकं तु गन्धकं टङ्कणं तथा । अभ्रकं लोहमेवं तु भागभेकं पृथक् पृथक् ॥ शिलाधातुस्तथा भागमम्लवेतसभागकम् । कफलं भागमेकं तु बङ्गेन सह मेलयेत् ॥ रसकं पञ्चमूत्रेण दिनानि त्रीणि मर्द्दयेत् । सर्वमेकत्र संयोज्य जम्बीररससंयुतम् ॥ मर्दयेद्दिनचत्वारि खल्वके बुद्धिमान्भिषक् । मूषिकालेपनं कुर्यान्मांसीगोक्षुरसंयुतम् ॥ मर्दयेच यथायोग्यं दिनानामेकविंशतिः । पुटमध्ये परिस्थाप्य कुक्कुटीमात्र के दहेत् शीतलं तं समादाय भावयेश्च यथाक्रमम् । कुमारी चित्रकं व्योषं जातीफलहियावली ॥ विषष्टिं नवं चाम्लवेतसं परिमर्दयेत् । शोषं कृत्वा यथायोग्यं दिनमेकं पृथक् पृथक्। तं सिद्धं बलमात्रं तु दापयेद् बुद्धिमान् भिषक् प्रमेहे मधुना युक्तं प्रयोज्यं भिषजां वरैः ॥
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शर्कराकसंयुक्तं रक्तपित्ते प्रयोजयेत् । त्रिंशद्दिनानि दातव्यं शूले च त्रिफलाजलैः ॥ मधुना चातिसारस्य सितया श्वासकासयोः । क्षीरेण चाग्निमांद्यस्य तैलकाञ्जिकसंयुतम् ॥ सिद्धनाथेन संप्रोक्तो नाम्ना हृदयभास्करः ॥
शुद्ध धारा, शुद्ध गन्धक, सुहागे की खील, अभ्रक भस्म, लोह भस्म, सोनागेरु, अम्लवेत, कायफल, बंगभस्म और शुद्ध खपरया । सब चीजे समान भाग लेकर प्रथम पारागन्धककी कज्जली बनायें फिर उसमें अन्य द्रव्यों का चूर्ण मिलाकर तीन दिन तक पञ्चमूत्रमें और चार दिन तक जटामांसी और गोखरू के क्वाथमें घोटकर उसे एक मूषके अन्दर लेप करके कुक्कुट पुटमें फूंक दे और स्वांग शीतल होने पर निकालकर धीकुमार, चीता, त्रिकुटा, जायफल, हडजोड़ी, कुचला, नखी और अम्लवेतके क्वाथमें १-१ दिन खरल करके सुखावें ।
इसे २-३ रत्तीकी मात्रा से प्रमेह में शहदके साथ, रक्तपित्त में खांड और अद्रकके रसके साथ और शूलमें त्रिफला क्वाथ के साथ ३० दिन तक सेवन करना चाहिये । इसे शहद के साथ देनेसे अतिसारका, मिश्रीयुक्त दूधके साथ देनेसे श्वास खांसीका और तैल तथा कांजी के साथ देने से अग्निमां का नाश होता हैं । [१५] उदय भास्करो रसः (५) (र. चि. म. ८ स्त. ) शुद्ध ताम्रस्य पत्राणि द्वयं गुलैकांगुलानि च । कंटवेध्यानि भृशमच्छानि कारयेत् ॥ ताम्राच्चतुर्गुणेनैव गन्धकेन पुटद्वयम् । ताम्रपत्रेषु दातव्यं यन्त्रे च भूधराभिधे ॥ सूक्ष्मं विचूर्ण्य तत्खल्वे वाससा गालये चतः
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