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उकारादि-रस
(१७५)
मरिचत्रिफलावत्सनागभेषजपश्चकम् ॥ - गन्धकसे मारा हुवा ताम्र १० भाग, काली प्रत्यौषधं ताम्रतुल्यं तुल्यं संचूर्णयेन्मुहुः। मिर्च ५ भाग, शुद्ध मीठा तेलिया २ भाग सबका ताम्र निक्षिप्य संमद्य वाससा गालयेत्ततः॥ | महीन चूर्ण करें। निष्पनो विधिनाऽनेन रसो ह्यु दयभास्करः।
___इसे १ रत्तीकी मात्रासे यथोचित अनुपान के रोगिभिः प्रातरुत्थाय ग्राह्यो बलचतुष्टयम् ॥
साथ सेवन करानेसे गलित और स्फुटित कुष्ठ, शिरःकंपे सन्धिशोफे समस्ताऽनिलरोगिषु ।
मण्डल कुष्ट, विसूचिका, विचर्चिका, दाद, पामा
और अन्य सब प्रकारके कुष्ठों का नाश होता है। प्लीहोदरविकारेषु देयः सर्वज्वरेषु च ॥ मन्दामौ बद्धकोष्ठेषु श्लेष्मरोगेषु निश्चयम् ।
[५१७] उदयभास्करः (७)
(वृ. नि. र., पाण्डु) रोगाणां नाशने शूरो रसो ह्य दयभास्करः ।। ___शुद्ध तांबे के कंटकवेधी उज्वल एक एक, या
भागैकं रसगन्धकं द्विगुणितं शुल्वं च भागाष्टकं दो दो, अंगुल लम्बे पत्र लेकर चार गुणी गन्धक
शैलेयास्त्रयस्तालकद्वयमिदं शुद्धं च खल्वे कृतं । मिलाकर तांबेके संपुट में बन्द करके भूधर यन्त्रमें
अर्ध व्योषजवेदभागसहितं भागद्वयं चामृतं । दो पुढे दें। फिर उसका महीन चूर्ण करके कपड़े
| निर्गुण्डयाकभृङ्गराजसहितं भाव्यं जयन्तीरसै। में छानकर उसमें कालीमिर्च, हैड़, बहेड़ा, आमला
प्रत्येकं दिनसप्तकं तु सुदृढ़ शोष्यं च सूर्यातपे और शुद्ध मीठा तेलिया इसमें से प्रत्येकका चूर्ण
योज्य गुञ्जमितं रसासहितं व्योषेण संमिश्रितं तांबे के बराबर मिलाकर खूब घोटें और कपड़ेमें | पाण्डूकामलरोगशोफदहनं सन्ने त्रिदोषे ज्वरे। छानकर रखें।
मेहप्लीहजलोदरं ग्रहणिका कुष्ठं धनुर्वातजं ॥ इसे प्रातःकाल ४ बल्ल (८-१२ रत्ती) प्रमाण पथ्यं षष्टिकतन्दुलं नवनितं तकं च शाल्योदनं देनेसे सिरका कांपना, सन्धियोंकी सूजन, समस्त | देयश्चोदयभास्करः क्षिततिले वातज रोग, तिल्ली, उदरविकार, सब प्रकारके ज्वर,
संवन्धिकारान् जयेत् ॥ मन्दाग्नि, कोष्ट बद्धता और श्लेश्मज रोगोंका नाश | । शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, होता है । (व्यवहारिक मात्रा १ रत्ती।) | ताम्रभस्म ८ भाग, शुद्ध शिलाजीत ३ भाग, शुद्ध [५१६] उदयभास्करः (६)
हरताल २ भाग, त्रिकुटा ४ भाग, शुद्ध मीठा (रसे. चि. म. ९ अ., रसे. सा. सं; र. रा. सु;
तेलिया २ भाग । प्रथम पारा गन्धंककी कजली र. चं., र. का. धे; धन्व; र. मं.) बनावें फिर अन्य द्रव्यों का चूर्ण मिलाकर निर्गुण्डी गन्धकेन मृतं तानं दशभागं समुद्धरेत् । (संभाल) अद्रक, भांगरा और जयंती के रसमें ऊपणं पञ्चभागं स्यादमृतं च द्विभागिकम् ॥ | सात सात दिन खूब खरल करके धूपमें सुखावें । श्लक्ष्णचूर्णीकृतं सर्व रक्तिकैकप्रमाणतः। । इसे अद्रकके रस और त्रिकुटे के चूर्णके साथ दातव्यं कुष्ठिने सम्यगनुपानस्य योगतः ॥ १ रत्ती मात्रा में सेवन करने से पाण्डु, कामला, गलिते स्फुटिते चैव विषूच्यां मण्डले तथा॥ सूजन, मन्दाग्नि, सन्निपात ज्वर, प्रमेह, तिल्ली, जलोविचत्रिकादद्रुपामाकुष्ठरोगपशान्तये ॥ दर, ग्रहणी, कुष्ठ और धनुर्वातका नाश होता है।
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