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उकारादि-रस
अथ उकारादि रसप्रकरणम्
[५१०] उड्डामरो रसः (र. र., गुल्म.) शुद्धभूतं समं गन्धं सूतांशं मृतताम्रकम् । पंचशैः शाकवृक्षस्य द्रवैर्मद्यं दिनद्वयम् ॥ सर्पाक्ष्य द्रवैरहि रुद्धहा लघुपुटे# पचेत् । पंचधा भूधरे वाथ चूर्ण जैपालतुल्यकम् ॥ द्विगुअं भक्षयेदाज्यैः पित्तगुल्मप्रशान्तये । द्राक्षाहरीतकीक्काथमनुपानं प्रकल्पयेत् ॥ उड्डामरो शुद्ध रसो नाम पित्तगुल्मं नियच्छति ।
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक प्रत्येक १-१ भाग ताम्र भस्म चौथाई भाग | सबको दिन तक सागोनके पंचागके रसमें और १ दिन सर्पाक्षी के रसमें खरल कर संपुट करके ५ लघु पुट दें अथवा भूधर - यन्त्र में पकावें । फिर पीसकर उसमें समान भाग जमालगोटे का चूर्ण मिलावें ।
इसे मुनक्का और हैड़ के काथ के साथ २ रत्ती की मात्रा से धीमें मिलाकर सेवन करने से पित्तज गुल्मका नाश करता है । [५११] उदय भास्करो रसः (१)
(यो. चि., ७ अ.)
पारदं गन्धकं दिव्यं व्योषं मिलवणानि च । सितकन्दा च वृद्धेला रसकर्पूरमेव च ।। समानि सर्वतुल्यं च शुद्धजैपालकं क्षिपेत् । बीजपूररसैर्भाथ्यो रसो हृदय भास्करः ॥
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोंग, (अथवा लोहभस्म) त्रिकुटा, त्रिलवण (सेंधा, सोंचल और बिड - लवण) सितकन्दा, बड़ी इलायची और रसकपूर सब समान भाग । शुद्ध ं जमालगोटा सबके बराबर प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बनावें फिर अन्य * 'गज पुढे' इति पाठान्तरम् ।
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( १७३ )
द्रव्यों का चूर्ण मिलाकर जम्बीरी नींबू के रसकी भावना दें। (गुण नं. ५१२) के समान) [५१२] उदय भास्करो रसः (२) (यो. चि., ७ अ.)
पारदं गन्धकं व्योषं द्वौ क्षारों लवणानि च । टक्कूणं चेति तुल्यानि जैपालं सकलैः समं ॥ भावना बीजपूरस्य सूक्ष्मं चूर्ण विचूर्णयेत् संग्राह्य रक्तिकायुग्मं वातं सामं विनाशयेत् । गोदुग्धं केवलं पथ्यं देयमुष्टिपयोथवा । अनं च वर्जयेत्तावदामशोफ निवारयेत् ॥
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, त्रिकुटा, सज्जीखार, पांचो नमक और शुद्ध सुहागा । सब चीजें समान भाग, शुद्ध जमालगोटा सबके बराबर प्रथम पारा गन्धक की कज्जली बनावें फिर अन्य द्रव्यों का चूर्ण मिलाकर जम्वीरी नींबूके रसकी भावना देकर रक्खें। इसे २ रत्ती की मात्रा में सेवन करने से आमवात और सूजन का नाश होता है ।
इसके सेवन काल में अन्न का त्याग करके केवल गाय या ऊँटनी का दूध पीना चाहिये । [५१३] उदय भास्करो रसः (३)
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(बृ. नि. र., शूले) भस्मसूतं मृतं चात्रं शिलागन्धकतालकम् । हिब्रुकं कुष्ठस्तं च तुल्यं चूर्ण विभावयेत् ।। शुद्धार्कमत्तनिर्गुण्डीमहारास्त्राद्रवैः पृथक् । प्रतिदिनं द्रवैर्भाव्यं शुष्कं तद्गोलकृतम् ॥ वस्त्रे बद्धवा मृदा लेप्यं शुष्कं कृत्वा पुटे पचेत् चतुर्धा वस्तमूत्रेण समादाय विचूर्णयेत् ॥ द्वौ गुञ्जौ घृतशुण्ठीभ्यां लेयो हृदय भास्करः । बावलांस्पथे तिलवारं सकम् ।।