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[ अकारादि
(८८६३) अलम्बुषाद्यं तैलम् (व. से. । स्त्रीरोगा . ) अलम्बुषा कणाकल्कैः सिद्धं तैलं करोति वनितायाः ।
टि. योग त. में ४-४ सेर गोदुग्ध और पिचुधारणनस्यदानात्कुचद्वयं श्रीफलाकारम् || लाखका रस भी लिखा है । गोरखमुण्डी और पीपल के कल्क से सिद्ध तैलमें रुई भिगोकर स्तनों पर रखने तथा इस तेलकी नस्य लेनेसे स्त्रियोंके स्तन दृढ़ और उन्नत हो जाते हैं।
( इसे मुखमें धारण करना चाहिये )
(८८६२) अर्कलम्
(न. मृ. । त. ६. )
( कल्क २० तोळे, तिल तेल २ सेर, पानी ८ सेर । )
वस्त्र वा अर्कदुग्वेन सप्तवारं विभावयेत् । निरातपे विशोष्याथ नवनीतेन लेपयेत् ॥ afai कारयित्वा तु वह्निना योजयेत्ततः । बर्तितः पतितं तैलं कांस्यपात्रे विनिक्षिपेत् ॥ तत्तैलं पयेच्छ्नेि पत्रैरण्डेन वेष्टयेत् । नाशयेद्धस्तजं दुःखं तथा वै गुदसम्भवम् ॥
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
यह तैल शीर्ण दन्त (दांतों को किरना), दन्त विद्रधि, शौषिर, शीताद, दन्तहर्ष, कृमिदन्त, चालन, दालन, अधिमांस और मुख दार्गन्ध्य आदि रोगोंको नष्ट करता है।
स्वच्छ सफेद वस्त्रको आकके दूध में भिगोकर छाया में सुखावें । इसी प्रकार सात बार आकके दूधमें भिगोवें ओर सुखावें । फिर उसे नवनीत (मक्खन) में तर करके उसकी बत्ती बनालें और उसके एक सिरेको चिमटे आदिसे पकड़कर दूसरे सिरेमें आग लगादें तथा उल्टा लटकादें । उससे जो तेल टपके उसे कांसीके पात्र में एकत्रित करलें । शिश्न पर ( सीवन और अग्र भागको छोड़कर ) यह तैल लगाकर अरण्डका पत्ता बांध दें
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( इसी प्रकार कई दिन करने से ) इस प्रयोग से हस्तदोष और गुद---व्यभिचार जनित विकारे नष्ट हो जाते हैं।
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(८८६४) अलाबुतैलम् (वै. म. र. | पटल १३ ) कटुकालासिद्धं तैलमभ्यञ्जनाद्भवेत् । योनिदोषहरं नार्या गर्भमुत्पादयेदपि ॥
कड़वी तूंबी से सिद्ध तेलकी योनि पर मालिश करनेसे योनि दोष नष्ट होते और स्त्रियोंको गर्भ धारणकी शक्ति प्राप्त होती है ।
( कड़वी तूंबीका रस ४ सेर, तेल १ सेर, कड़वी तूंचीका कल्क १० तोला | )
(८८६५) अश्वगन्धातैलम् (भा. प्र. म. खं. २ कार्या. ) अश्वगन्धस्य कल्केन क्वाथे तस्मिन्पयस्यपि । सिद्धं तैलं कृशाङ्गामभ्यङ्गादङ्गपुष्टिदम् ||
असगन्धके कल्क, उसीके क्वाथ और दूधके साथ सिद्ध तैलकी मालिश करनेसे कृश शरीर पुष्ट हो जाता है ।
( कल्क १० तोले, क्वाथ २ सेर, दूध २ सेर, तेल १ सेर | )
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